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________________ २०२) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ६, ११६ पाओग्गसव्वजहण्णवग्गणट्टाणे सरिसधणियवग्गणाओ आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताओ। एवं णेयव्वं जाव उक्कस्सपत्तेयसरीरवग्गणे त्ति । सेडिपरूवणा दुविहा-अणंतरोवणिधाळपरंपरोवणिधा चेदि । अणंतरोवणिधाए अभवसिद्धियपाओग्गपत्तेयसरीरवग्गणाणं सव्वजहणियाए वग्गणाए आवलियाए असंखे० भागमेत्ताओ सरिसधणियवग्गणाओ होंति । एवमणंताओ सरिसधणियवग्गणाओ तत्तियाओ चेव होदूण उवरि गच्छंति । एवं गंतूण तदो एया पत्तेयसरीरवग्गणा* अहिया होदि । तं जहा- अवद्विदमावलियाए असंखे०भागमेत्तभागहारं विरलेदूण सव्वजहण्णवग्गणासु आवलियाए असंखे०भागमेत्तासु समखंडं कादण दिण्णासु एक्केक्कस्स एगेगपत्तेयसरीरवग्गणपमाणं पावदि। पुणो एत्थ एगरूवधरिदवग्गणं घेत्तूण पुवुत्तावलियाए असंखे०भागमेत्तपत्तेयसरीरवग्गणाणमुवरि पक्खित्ते तदणंतरउवरिमविसेसाहियवग्गणपमाणं होदि। पुणो पुणो अणेण पमाणेण अणंतावो वग्गणाओ उवरि गंतूण तदो एया वग्गणा अहिया होदि त्ति अघट्ठिदविरलणाए बिदियख्वधरिदं घेत्तण हेट्रिमवग्गणाए पविखत्ते उवरिमवग्गणा होदि । एवमणंताओ वग्गणाओ तत्तियाओ उवरि गंतूण पुणो एया वग्गणा अहिया होदि । एवं जाणिदूण यन्वं जाव पढमदुगुणवड्ढी उप्पण्णे त्ति । सा पुण अवट्ठिदविरलणइस प्रकार उत्कृष्ट प्रत्येकशरीरवर्गणाके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए । प्रमाण-अभव्योंके याग्य सबसे जघन्य वर्गणास्थान में सदृश धनवाली वर्गणायें आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । इस प्रकार उत्कृष्ट प्रत्येकशरीरवर्गणाके प्राप्त होनेतक ले जाना चाहिए । श्रेणिप्ररूपणा दो प्रकारकी है-अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा । अनन्तरोपनिधाकी अपेक्षा अभव्योंके योग्य प्रत्येकशरीरवर्गणाओंमें से सबसे जघन्य वर्गणामें सदृश धनवाली वर्गणायें आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । इस प्रकार अनन्त सदृश धनवाली वर्गणायें उतनी ही होकर आगे जाती हैं। इस प्रकार जाकर अनन्तर एक प्रत्येकशरीरवर्गणा अधिक होती है । यथा-आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण अवस्थित भागहारका विरलन कर उसपर आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण सबसे जघन्य वर्गणाओंको समान खण्ड करके देनेपर एक एक विरलनके प्रति एक एक प्रत्येकशरीरवर्गणाका प्रमाण प्राप्त होता है। पुनः यहां एक विरलन अंकके प्रति प्राप्त वर्गणाको ग्रहण कर उसे पूर्वोक्त आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण प्रत्येक शरीर वर्गणाओंके ऊपर प्रक्षिप्त करनेपर तदनन्तर उपरिम विशेष अधिक वर्गणाका प्रमाण प्राप्त होता पुनः इस प्रमाणसे अनन्त वर्गणायें ऊपर जाकर अनन्तर एक वर्गणा अधिक होता है, इसलिये अवस्थित विरलनके दूसरे विरलन अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यको ग्रहण करके उसे अधस्तन वर्गणामें मिलाने पर उपरिम वर्गणा होती है । इस प्रकार अनन्त वर्गणायें उतनीही ऊपर जाकर पुन. एक वर्गणा अधिक होती है । इस प्रकार प्रथम द्विगुणवृद्धिके उत्पन्न होने तक जान Oता०प्रतौ 'सेडिपरूवणा तहा (दुविहा) अणंतरोपणिधा' अ०का. प्रत्योः 'सेडिपरूवणा तहा अणंतरोवणिधा' इति पाठः। *- ता.प्रतौ '-वग्गणा (ए)' अ०का प्रत्योः '- वग्गणाए' इति पाठः । 0 ता०प्रती -भागमेत्तसु पत्तेयसरीरवग्गणाणमवरि पक्खित्ते (सु-) तदणंतर- इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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