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________________ ४९६ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ६, ६४२ ___ जदा मूलमहाक्खंधठ्ठाणाणं जहण्णपदे तवा बावरतसपज्जत्ताणं उक्कस्सपदे ॥ ६४२ ॥ जदा मलमहाक्खंघट्टाणाणं जहण्गमावो होदि तदा बावरतसपज्जत्ताणं उक्क - स्सभावो होदि । कुदो ? बादरतसपज्जत्ताणं कर-चरण- सरीराणं छेदण-भेदणादिवावारेण महाक्खंधावयवाणं भेदप्पसंगादो। जवा बादरतसपज्जत्ताणं जहण्णपदे तदा मलमहाक्खंधट्ठाणाणमुक्कस्सपदे ॥ ६४३॥ ., कुदो ? तसबादरजीवेसु थोवेसु संतेसु कर चरणादिवावारेण महाक्खंधस्स घादाभावादो । संपहि मरणजवमज्झ-समिलाजवमज्झादीणं परूवणठें एसा संदीट्ठी जहाकमेण 8वेदव्वा एसो बिदियतिभागो णत्थि > एसो पढमतिभागो- > एत्य आवासयाणि ) बा० सु० णिगोदअपज्जताणं बा० सु० णि० अपज्जत्ताणं चत्तारिअपज्जत्ताणं णिवत्ति- आउअबंधजवमझभेदं जवमज्झमेदं । जब मल महास्कन्धस्थानोंका जघन्य पद होता है तब बादर त्रस पर्याप्तकोंका उत्कृष्ट पद होता है ।। ६४२ ॥ जब मल महास्कन्धस्थानोंका जघन्यभाव होता है तब बादर सपर्याप्तकोंका उत्कृष्ट भाव होता है, क्योंकि, बादर त्रसपर्याप्तकोंके हाथ, पैर, और शरीरोंके छेदन, भंदन आ'द व्यापारद्वारा महास्कन्धके अवयवोंका भेद प्राप्त होता है । जब बादर त्रसपर्याप्तकोंका जघन्य पद होता है तब मल महास्कन्धोंका उत्कृष्ट पद होता है ।। ६४३ ।। __ क्योंकि, त्रसबादर जीवोंके स्तोक होनेपर हाथ और पैर आदिके व्यापार द्वारा महास्कन्धका घात नहीं होता। अब मरणयवमध्य और शमिलायवमध्य आदिका कथन करने के लिए यह संदृष्टि क्रमसे स्थापित करनी चाहिए. - यह द्वितीय विभाग यहाँ आवश्यक यह प्रथम त्रि० यह तृतीय त्रि० जघन्य अफ यह भासंपाद्वाNयाप्त निच बा० सू० निगोद बा० सू० अ० क्षुल्लकभवग्रहण बा. सू० निगोद अपअपर्याप्तकोंकी चार निगोदोका प्तिकोका यह मरणअपर्याप्तियोंका यह यह आयु बन्ध यवमध्य है। निर्वृत्ति यवमध्य है यवमध्य है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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