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________________ छक्खंडागमे वग्गणा-खंड १९२ ) ___ संपहि पदेसट्टदमस्सिदण अवहारकाले भगणमाणे ताव सव्वंदव्वं जवमज्झपमाणंण कस्सामो। तं जहा- एगपक्खेवे दिवड्गुणहाणिगणिदरूवाहियदिवड्डगुणहाणिगुणिदे जवमज्झपमाणं होदि * । पुणो एदम्हि गुणहाणिअद्धेण गुणिदे एतियं होदि एत्थ अधियपवखेवाणमवणयणं कस्सामो तं जहा- गुणहाणिअद्धगच्छदुगुणसंकलणासंकलणमेतपक्खेवा एत्थाहिया। कुदो ? जवमज्झादो हेटा पक्खेवगुणगारस्स एगुत्तरवट्टिदसणादो अद्धाणगुणगारस्स एगुत्तरहाणिदसणादो। ण च गच्छे रूवाहियगच्छेण गुगिदे दुगणसंकलणं मोत्तण अण्णस्स अब प्रदेशार्थताकी अपेक्षा अवहार कालका कथन करने पर सब द्रव्यको यवमध्यके प्रमाणसे करते हैं। यथा- एक प्रक्षेपको डेढ गुणहानिसे गणित एक अधिक डेढ गुणहानिसे गुणित करनेपर यवमध्यका प्रमाण होता है--| |३||३ (१+८x.)x (८४३) = १३४१२ = १५६ ; द्विप्रक्षेप ८४२ - १६; १५६४१६ = २४९६ ; दो यवमध्य १२४८+१२४८ %D २४९६ । पुनः इसे गुणहानिके अर्धभागसे गुणित करनेपर इतना होता है- !१८|३||३.८/ ।२१ ।२२ ( गुणहानि (८) का अर्धभाग () = ४ है। इस ४ से दो यवमध्य २४५६ को गुणा करनेसे ९९८४ आता है जो द्वितीयगुणहानिका कुल प्रदेशाग्र है; किन्तु इसमें यवमध्यसे पर्वके बादके तीन तीन निषेकोंके प्रदेशाग्र जो प्रक्षेप यवमध्यकी अपेक्षा हीन हैं वे प्रक्षेप द्वितीय गुणहानिके सर्वप्रदेशाग्रसे अधिक है। यहाँ अधिक प्रदेशोंका अपनयन करते हैं। यथा- गुणहानिके अर्धभागप्रमाण गच्छके दुने संकलनासंकलनप्रमाण प्रक्षेप यहाँ अधिक हैं; क्योंकि, यवमध्यसे पूर्व प्रक्षेपगुणकारकी एकोत्तर वृद्धि देखी जाती है और अध्वानगुणकारकी एकोत्तरहानि देखी जाती है और गच्छको एक अधिक गच्छसे गुणित करनेपर द्विगुणे संकलनको छोडकर अन्यका आगम सम्भव नहीं है, क्योंकि, उसका निषेध है। ( एक गुणहानि ८ उसका आधा ई = ४ है । यहाँपर यह ४ गच्छ है । ४ का संकलन (१+२+३+४) = १० है। इसका दूना १०x२ % २० है । अथवा गच्छ ४ को एक अधिक गच्छ (४+१) = ५ से गुणा करनेपर २० आता है । पर पृ. १८५ की संदृष्टिके देखनेसे ज्ञात होगा कि यवमध्य १२४८ से दूसरा निषेक १२३२ दो प्रक्षेपहीन है, क्योंकि, वहाँपर द्रव्यप्रक्षेपका प्रमाण ८ है। तीसरे निषेकका प्रदेशाग्र १२०० है जो यवमध्यसे ६ प्रक्षेप (६+८ = ४८कम है। चौथे निषेकका प्रदेशाग्र ११५२ है जो यवमध्य १२४८ से १२ प्रक्षेत्र (१२४८) = ९६ कम है। * अ०का प्रत्यो | °||३||३ | इति पाठः । * म०प्रतिपाठोऽयम् । ता०प्रती | ८ | ३।। ६ अ०का० प्रत्योः | ०८ । ३।। ३ । इति पाठ । Jain Education international Formatearersinarstromy www.jainelibrary.org.
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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