SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २५ ५, ६, २२. ) बंधणाणुयोगद्दारे भावबंधपरूवणा परिणवा गदी विस्ससापरिणवा ओगाहणा विस्ससापरिणवा संठाणा विस्ससापरिणदा खंधा विस्ससापरिणवा खंधदेसा विस्ससापरिणदा खंधपदेसा जे चामण्णे एवमादिया विस्ससापरिणवा संजुत्ता भावा सो सम्वो अविवागपच्चइओ अजीवभावबंधो णाम ।। २२ ॥ अवट्रिमाणं भवण-विमाण-मेरु कुलसेलादीणं वण्णो पुढवि-आउ तेउवाऊणमकट्टिमवण्णा च विस्ससापरिणदा णाम । वंसादीणं मुत्तिदन्वाणं संघट्टणेण समुट्टिदा विस्ससापरिणदा सदा । कत्थूरि-कुंकुमागरु-तमालपत्तादीणं जे साभाविया गंधा ते विस्ससापरिणदा गंधा। जब-जंबीर पणसंबादीणं फलाणं पुष्फंकुरादीणं च साभाविया जे रसा ते विस्ससापरिणदा रसा । पउमप्पलादीणं जे साभाविया फासा ते विस्ससापरिणदा फासा । चंदाइच्चगह-णक्खत्त-ताराणं वाऊणं च जा गदी सा विस्ससापरिणदा गदी। अकिट्टिमाणं भवविमाणाणं जिणहराणं सिद्धखेत्तागासाणं जा ओगाहणा सा विस्ससापरिणदा ओगाहणा णाम। गंध रस-फासा जेसु पुवुद्दिट्टा ते गंध-रस-फासणामकम्मोदयजणिदा ति अविवागपच्चइत्तं ण जुज्जदे? जदि एवं तो एदे मोत्तूण पोग्गलाणं जे साभाविया गंध-रस-फासा ते घेत्तव्वा । परिणत स्पर्श, विस्रसापरिणत गति, विस्त्रसापरिणत अवगाहना, विस्त्रसापरिणत संस्थान, विसापरिणत स्कन्ध, वित्रसापरिणत स्कन्धदेश और विस्त्रसापरिणत स्कन्धप्रदेश; ये और इनसे लेकर इसी प्रकारके विस्रसापरिणत जो दूसरे संयुक्त भाव हैं वह सब अविपाक प्रत्ययिक अजीवभावबन्ध है ॥ २२ ॥ अकृत्रिम भवन, विमान, मेरुपर्वत और कुलपर्वत आदिके वर्ण या पृथिवी, जल, अग्नि और वायुके अकृत्रिम वर्ण विस्रसा परिणत वर्ण हैं। बाँस आदि मूर्त द्रव्योंके संघर्षणसे उत्पन्न हुए शब्द विस्रसापरिणत शब्द हैं । कस्तूरी, कुंकुम, अगरु और तमालपत्र आदिकी जो स्वाभाविक गन्ध होती है वह विस्रसापरिणत गन्ध है । जम्बू , जंबीर, पनस और आम्र आदि फलोंके तथा फूल और अंकुर आदिके जो स्वाभाविक रस होते हैं वे विस्रसापरिणत रस हैं । पद्म और उत्पल आदिके जो स्वाभाविक स्पर्श होते हैं वे विस्रसापरिणत स्पर्श हैं । चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और ताराओंकी तथा वायुकी जो गति होती है वह विस्रसापरिणत गति है। अकृत्रिम भवन, विमान और जिनघर आदि तथा सिद्धक्षेत्रके आकाशकी जो अवगाहना है वह विस्रसापरिणत अवगाहना है । शंका-जिन पदार्थों में पूर्व निर्दिष्ट गन्ध, रस और स्पर्श नामकर्मके उदयसे उत्पन्न हुए गन्ध, रस और स्पर्श होते हैं वे अविपाकप्रत्ययिक नहीं बन सकते ? समाधान-यदि ऐसा है तो इन्हें छोड़कर पुद्गलोंके जो स्वाभाविक वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श होते हैं वे यहाँपर लेने चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy