SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 390
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५, ६, २९३ ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए पदेसविरओ णिवत्तिट्राणस्स संखेज्जेसु भागेस संखेजावलियाणमवलंभादो । एत्थ पढमवक्खाणं ण मद्दयं, खुद्दाभवग्गहणादो । एइंदियस्त जहणिया णिवत्ती संखेज्जगुणा त्ति सुत्तेण सह विरुद्धत्तादो। ३ ।। उक्कस्सिया णिवत्ती विसेसाहिया ॥ २९१ ॥ ___ केत्तियमेत्तेण ? आवलि० असंखे० भागमेत्तेण वा जहण्णणिवत्तिट्ठाणस्स संखेज्जेहि भागेहि वा ऊणसव्वजहण्णणिव्वत्तिट्ठाणमेत्तेण । ४ ।। सम्वत्थोवा सम्मुच्छिमस्स जहणिया पज्जत्तणिवत्ती ॥२९२।। सम्मच्छिमपज्जत्ता बादरेइंदियपज्जत्त-बेइंदियपज्जत-तेइंवियपज्जत्त-चरिदियपज्जत्त-असण्णिचिवियपज्जत-सण्णिचिदियपज्जत्तभेदेण छविहा होंति, तत्थ कस्सेदं गहणं छण्णं पि गहणं कायव्वं, विरोहाभावादो । एदेसि अपज्जत्ताणं गहणं ण कायक्वं, पज्जत्तणिद्देसेण ओसरिदत्तादो । किमटमपज्जत्ता ओसारिज्जति ? तेसि णिव्वत्तिट्टाणाणं णिरंतरवड्ढीए अमावादो। तेण सम्मुच्छमपज्जत्तजहण्णणिवत्ति त्ति मणिवे छण्णं सम्मच्छिमपज्जत्ताणमंतोमहुत्तमेत्तसव्वजहण्णाउआणं गहणं कायव्वं । ५ । णिव्वत्तिटठाणाणि संखेज्जगणाणि || २९३ ॥ असंख्यातगुणा है, क्योंकि, जघन्य निर्वत्तिस्थानके संख्यात बहु भागोंमें संख्यात आवलियाँ उपलब्ध होती हैं। यहाँ पर प्रथम व्याख्यान ठीक नहीं है, क्योंकि, उसमें क्षुल्लक भवका ग्रहण किया है। तथा एकेन्द्रियकी जघन्य निर्वृत्ति संख्यातगुणी है इस सूत्रके वह विरुद्ध पड़ता है। उत्कृष्ट निर्वृत्ति विशेष अधिक है ।। २९१ ।। कितनी अधिक है ? आवलिके असंख्यातवें भागसे या जघन्य निर्वृत्तिस्थानके संख्यात बहुभागसे न्यून जो सबसे जघन्य निर्वृत्तिस्थान है उतनी वह अधिक है। सम्मळुन जीवकी जघन्य पर्याप्तनिर्वृत्ति सबसे स्तोक है ॥ २९२ ।। शंका-सम्मर्छन पर्याप्त जीव बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, द्वीन्द्रिय पर्याप्त, त्रीन्द्रिय पर्याप्त, चतुरिन्द्रिय पर्याप्त, असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त और संजी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तके भेदसे छह प्रकारके हैं। उनमेंसे किसका यह ग्रहण किया है ? समाधान-छहोंका ही ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि, ऐसा करने में कोई विरोध नहीं है। मात्र इनके अपर्याप्तकोंका ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि, पर्याप्त पदके निर्देश द्वारा उनको अलग कर दिया है। शंका-अपर्याप्तकोंको किसलिए अलग किया है ? समाधान-क्योंकि, उनके निवृत्तिस्थानोंकी निरन्तर वृद्धिका अभाव है। इसलिए सम्मूच्छंन पर्याप्तकोंकी जघन्य निर्वृत्ति ऐसा कहनेपर छह सम्मूर्छन पर्याप्तकोंकी अन्तर्मुहूर्तप्रमाण सबसे जघन्य आयुका ग्रहण करना चाहिए। उससे निर्वृत्तिस्थान संख्यातगुणे हैं ॥ २९३ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy