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________________ ५, ६, ९३.) बंधणाणुयोगद्दारे बादरणि गोददव्ववग्गणा ( ९७ अणंतगणमेत्ता ओरालियविस्तासुवचयरमाणपोग्गला वडिदा त्ति । होता विते केत्तियमेत्ता त्ति वुत्ते एगोरालियपरमाणुविस्सासुवचयमेत्ता । एवं वड्दूिण टिट्ठाणादो एगओरालियपरमाणुस्स विस्सासुवचयं वड्डिदूण द्विदचरिमसमयखीणकसायट्ठाणमपुणरुत्त. ढाणं होदि। कारगं सुगमं । एवमणेण विहाणेण ओरालियसरीरवेपुंजा ताव वड्ढावे. दव्वा जाव सव्वजीवेहि अणंतगणमेत्तविस्सासुवचयपरमाण अभवसिद्धिएहि अणंतगुणा सिद्धाणमणंतभागमेत्ता ओरालियपरमाण च वढिदा ति। होता वि ते केतिया त्ति भणिदे एगबादरणिगोदजीवस्स ओरालियसरीरम्हि जत्तिया ओरालियपरमाण तेसि विस्सासुवचयपरमाणू च अस्थि तत्तियमेत्ता । एवं तेजासरीरपुंजो कम्मइयसरीरपुंजो च सविस्सासुवचओ परिवाडीए वड्ढावेदव्वो जावेगबादरणिगोदजीवेण संचिदतेजाकम्मइयसरीराणं चदुपुंजपमाणं पत्तं ति। एवं वद्भिदण द्विदो च पुणो अण्णो जीवो खीणकसायचरिमसमयजहण्णबादरणिगोदवग्गणं बेहि बादरणिगोदजीवेहि अब्भहियं काढूण खीणकसायचरिमसमए ट्ठिदो च सरिसो; पुग्विल्ल द्वाणम्मि कमेण वडिदूण टिददव्वस्स एत्थतणदोजीवेसु उवलंभादो। पुग्विल्लजीवं मोत्तण इमं घंतूण एदस्सुवरि पुव्वं व अण्णेगो जीवो वड्ढावेदव्वो। विस्रसोपचय परमाणु पुद्गलोंकी वृद्धि होने तक ले जाना चाहिए । होते हुए भी वे कितने होते हैं ऐसा प्रश्न करने पर कहते हैं कि एक औदारिकशरीर परमाणुके विस्रसोपचयमात्र होते हैं । इस प्रकार बढाकर स्थित हुए स्थानसे एक औदारिक परमाणुके विस्रसोपचयको बढाकर स्थित हुआ अन्तिम समयवर्ती क्षीणकषाय स्थान अपुनरुक्त स्थान होता है। कारण सुगम है। इस प्रकार इस विधिसे औदारिकशरीरके दो पुञ्ज तब तक बढाने चाहिए जब तक सब जीवोंसे अनन्तगुणे विस्रसोपचय परमाणु तथा अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्वोंके अनन्तवें भागप्रमाण औदारिकशरीर सम्बन्धी परमाणु वृद्धिको नहीं प्राप्त हो जाते। ऐसा होते हुए भी वे कितने होते हैं ऐसा प्रश्न करने पर कहते हैं कि एक बादर निगोद जीवके औदारिकशरीरमें जितने औदारिकशरीरके परमाणु और उसके विस्रसोपचय परमाणू होते हैं तन्मात्र होते हैं। इसी प्रकार एक बादर निगोद जीवके द्वारा सचित हुए तैजसशरीर और कार्मणशरीरके चार पुञ्जप्रमाण द्रव्यके प्राप्त होने तक अपने अपने विस्रसोपचयके साथ तैजसशरीर पुञ्जको और कार्मणशरीर पुञ्जको आनुपूर्वी क्रमसे बढाना चाहिए । इस प्रकार बढाकर स्थित हुआ जीव तथा क्षीणकषायके अन्तिम समयमें जघन्य बाद रनिगोद वर्गणाके दो बादर निगोद जीवोंसे अधिक करके क्षीणकषायके अन्तिम समयमें स्थित हुआ अन्य जीव समान है, क्योंकि, पूर्वोक्त स्थानमें क्रमसे बढाकर स्थित हुआ द्रव्य यहाँ के दो जीवोंमें उपलब्ध होता है। पहलेके जीवको छोड़कर तथा इसे ग्रहण कर इसके ऊपर पहले के समान एक अन्य' जीव बढाना चाहिए । इस प्रकार स्थान और शास्त्रके अविरोधसे उत्तरोत्तर एक एक जीवको बढाते ४ ता० प्रती ' च विस्सासुवचओ परिवाडीए ' आ० प्रती — विस्सासुवचय उवरि वादीए ' इति पाठः 1 ता० प्रती · टुिदो चरिमसा ( च सरिसो), पुविल्ल-अ० प्रती 'ट्रिदो चरिमसाहि पूव्विल्ल- । अ० का. प्रत्यो: ' टिदो चरिम पुग्विल्ल-' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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