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________________ १०८ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ६, ९३. सरीरं वि णत्थि । एदमधियदव्वमवणिय पुध दुवेयव्वं । असंखेज्जगुणसे डिमरणपढमसमयजहण्णफडुयादो विसेसाहियमरणचरिमसमयजहण्णफड्डुयं विसेसाहियं । केत्तियमेण ? गुणसेडिमरणपढमसमयजहण्णफडुयं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण खंडदेगखंडमेत्तेण । एदम्हादो पुव्विल्लपलिदोवमस्त असंखेज्जदिभागमेत्तजीवेसु अवणिदेसु जं सेसं तं फड्डुयंतरं होदि । तत्थ अंतरे असंखेज्जलोग मेत्तणिगोदसरीराणि । एक्केक्कम्हि णिगोदसरीरे अनंताणंता जीवा च अस्थि । पुणो एत्तियमेत्तमंतरिण विसेसाहियमरणचरिमसमयजहण्णफडुयस्स आदी होदि । पुणो एत्थतणछपुंजा पुग्विल्लछप्पुंजे हितो असंखेज्जगुगहीणा त्ति कट्टु परमाणुतरकमेण वढावेदव्वा जाव गुणसेडिमरणपढमसमए फडुयस्स उक्कसपमाणं पत्ता त्ति । पुणो एवस्सुवरि एगोरालियविस्सासुवचयपरमाणुम्हि वड्डिदे अण्णमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । दोसु परमाणुपोग्गलेसु वडिदेसु तदियमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । एवमेगुत्तरकमेण ताव वडावेयव्वं जाव खविदकम्मं सियलक्खणेण । गदजीवेगपरमाणुस्स विस्सासुवचयपुंजस्स पमाणं वडिदे ति । एवं वडिदूणच्छिदे तदो अण्णो जीवो पुव्वविहाणेणागंतूज विस्सासुवचयसंजुत्तेगपरमाणुणा ओरालियसरीरमन्महियं काऊण विसेसाहियमरण - चरमसमए अच्छिदो ताधे सांतरद्वाणमण्णमुप्पज्जदि । पुणो निरंतरद्वाणे इच्छिज्जमाण करके पृथक् स्थापित करना चाहिए । असंख्यात गुणश्रेणिमरणके प्रथम समय के जघन्य स्पर्धक से विशेष अधिक मरणके अन्तिम समयका जघन्य स्पर्धक विशेष अधिक है । कितना अधिक है ? गुणश्रेणि मरण के प्रथम समय के जघन्य स्पर्धकको पल्यके असंख्यातवें भागसे खण्डित करने पर जो एक खण्ड लब्ध आवे उतना अधिक हैं। इसमें से पहले के पल्यके असंख्यातवें भागमात्र जीवों अलग कर देने पर जो शेष रहता है वह स्पर्धकका अन्तर होता है । उस अन्तरम असंख्यात लोकप्रमाण निगोदशरीर होते हैं और एक एक निगोदशरीर में अनन्तानन्त जीव होते हैं । पुनः इतना मात्र अन्तर देकर विशेष अधिक मरणके अन्तिम समयके जघन्य स्पर्धक की आदि होती है । पुनः यहां छह पुञ्ज पहले के छह पुञ्जोंसे असंख्यातगुणे हीन होते हैं ऐसा समझ कर गुणश्रेणिमरणके प्रथम समय में उत्कृष्ट प्रमाणके प्राप्त होने तक एक परमाणु अधिकके क्रम से बढ़ाना चाहिए । पुनः इसके ऊपर एक औदारिकशरीर विस्रसोपचय परमाणु बढ़ने पर अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है । दो परमाणु पुद्गलोंके बढ़ने पर तीसरा अपुनरुक्त स्थान होता है । इस प्रकार क्षपित कर्माशिक विधिसे आये हुए जीवके एक परमाणुके विस्रसोपचय पुञ्जके प्रमाण तक वृद्धि होने तक एक अधिकके क्रमसे बढ़ाना चाहिए। इस प्रकार बढाकर स्थित होने पर तब अन्य जीव पूर्व विधिसे आकर विस्रसोपचयसहित एक परमाणुसे औदारिकशरीरको अधिक करके विशेष अधिक मरणके अन्तिम समयमें स्थित है तब अन्य सान्तर स्थान उत्पन्न होता है ! पुनः निरन्तर अध्वान इच्छित होने पर एक परमाणु विस्रसोपचय प्रमाणसे न्यून अवस्थाम विसोपचयसंयुक्त एक परमाणुकी वृद्धि होने पर निरन्तर होकर अन्य अपुनरुक्त स्थान होता ता तो जीवेरमास्य' इति पाठ: 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only W www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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