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________________ ५, ६, ६९७ ) घणानुयोगद्दारे चूलिया केत्तियमेत्ते ? आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तव्वित्तिट्ठाणेहि तम्हि चेव पत्तेयसरीरपज्जत्तयाणं णिल्लेवणट्ठाणाणि विसेसाहियाणि ।। ६९४ ॥ केत्तियमेत्तेण ? आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तव्वित्तिट्ठाणेहि । तत्थ इमानि पढमदाए आवासयाणि हवंति ॥ ६९५ ॥ एवमेइं दियणामावासयाणि भणिऊण संपहि एइंदियाणं पंचिवियाणं च आवासयपरूवणट्टमिदं सुत्तमागयं तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण सुहुमणिगोदजीवपज्जत्तयाणं समिलाजवमज्झं ।। ६९६ ।। अणादिसिद्धांतपदमस्सिदूण आउ अबंधजवमज्झस्स समिलाजवमज्झं त्ति समणा । तदो अंतोमुहृत्तं गंतूण बावरणिगोदजीवपज्जत्तयाणं समिलाजवमज्झं ॥। ६९७ ॥ एत्थ विपुव्वं व आउअबंधजवमज्झस्स गहणं कायव्वं । एवस्स सुत्तस्स ( ५३७ कितने अधिक हैं ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण निर्वृत्तिस्थानोंसे अधिक हैं । वहीं पर प्रत्येकशरीर पर्याप्तकोंके निर्लेपनस्थान विशेष अधिक हैं । ६९४ । कितने अधिक हैं ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थानोंसे अधिक हैं । वहां सर्वप्रथम ये आवश्यक होते हैं । ६९५ । इस प्रकार एकेन्द्रियोंके आवश्यकोंका कथन करके अब एकेन्द्रियों और पञ्चेन्द्रियों के आवश्यकों का कथन करनेके लिए यह सूत्र आया है--- उसके बाद अन्तर्मुहूर्त जाकर सूक्ष्म निगोद पर्याप्त जीवका शमिलायवमध्य होता है । ६९६ । अनादि सिद्धान्तपदका आश्रय लेकर आयुबन्धयवमध्यकी शमिलायवमध्य यह संज्ञा है । उसके बाद अन्तर्मुहूर्त जाकर बादर निमोद पर्याप्त जीवका शमिलायवमध्य होता है । ६९७ । यहाँ पर भी पहले के समान आयुबन्धयवमध्यका ग्रहण करना चाहिए । शंका-- इस सुत्रका बादमें आरम्भ किसलिए किया है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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