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________________ ४४४ ) छक्खंडागमे वग्गणा - खंड ( ५, ६,५२८ भागहाणी होदि । तदो पहुडि संखेज्जभागहाणीए अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तमद्वाणं गंतूण सलागाणं संखेज्जगुणहाणी होदि । तदो पहूडि संखेज्जगुणहाणीए निरंतर मंगलस्स असंखेज्जदिभागं गंतूण असंखेज्जगुणहाणी होदि । तदो पहुडि असंखेज्जगुणहाणी ताव गच्छदि जाव अंगुलस्त असंखेज्जदिभागो त्ति उवरि ण गच्छदि, दव्ववियप्पाभावादो त्ति भणिदं होदि । एदेसि पि भागहाराणं पमाणमेत्तियमिदि ण नव्वदे अंगुलस्स असंखेज्जदिभागाणं चदुष्णं विसरिसत्तमसरिसत्तं चण वदे, विट्ठवएसाभावादो । एवं चदुष्णं सरीराणं ।। ५२८ ॥ जहा ओरालियसरीरस्स पंचविहा हाणी परुविदा तहा एदेसि पि चदुष्णं सरीराणं जीवादो विफट्टपोग्गलाणं पंचविहा हाणि परूवेधन्वा, विसेसाभावादो । खेत्तहाणिपरूवणदाए ओरालियसरीरस्स जे एयपदेसियखेत्तो गाढवग्गणाए दव्वा ते बहुगा अणतेहि विस्सा सुवचएहि उवचिदा ॥ ५२९ ॥ जे जीवादी अवेदा ओरालियसरीरणोकम्मपदेसा एगो वा दो वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अनंता वा एगबंधणबद्धा होदूण एगेगागासपदेसे अच्छंति तेसि ट्ठविद असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान निरन्तररूपसे जाकर संख्यात भागहानि होती है । वहाँ से लेकर संख्यात भागहामिद्वारा अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर शलाकाओं की संख्यातगुणहानि होती है | वहाँसे लेकर संख्यातगुणहानिद्वारा निरन्तररूपसे अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर असंख्यातगुणहानि होती है। वहाँसे लेकर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाने तक असंख्यातगुणहानि होती है । इससे आगे असंख्यातगुणहानि नहीं होती है, क्योंकि, आगे द्रव्यविकल्पोंका अभाव है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इन भागहारों का भी प्रमाण इतना हैं यह ज्ञात नहीं है । तथा चारों अंगुलके असंख्यातवें भागों का भी प्रमाण सदृश है या असदृश है यह ज्ञात नहीं है, क्योंकि, इस विषय में विशिष्ट उपदेशका अभाव है। इसी प्रकार चार शरीरोंकी प्ररूपणा करनी चाहिए ॥ ५२८ ॥ जिस प्रकार औदारिकशरीरकी पाँच प्रकारकी हानि कही है उसी प्रकार इन चार शरीरोंके भी जीवसे अलग हुए पुद्गलोंकी पाँच प्रकारकी हानि कहनी चाहिए, क्योंकि, उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है । क्षेत्रहानिप्ररूपणाकी अपेक्षा औदारिकशरीरके जो एक प्रदेश क्षेत्रावगाही वर्गणा द्रव्य हैं वे बहुत हैं और वे अनन्त विस्र सोपचयोंसे उपचित हैं ।।५२९ ॥ जो जीवसे अवेद औदारिकशरीरनोकर्मप्रदेश हैं वे एक, दो, संख्यात, असंख्यात और अनन्त एकबन्धप्रबद्ध होकर एक एक आकाशप्रदेशमें स्थित हैं । उनकी स्थापित की गई * अ० प्रती 'एदेसि चदुष्णं' इति Jain Education International पाठः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org'
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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