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________________ ५, ६, ५३१ ) बंधणानुयोगद्दारे सरीरविस्सा सुवचयपरूवणा ( ४४५ सलागाओ बहुगाओ । ते च पादेक्कमणंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा । एगपदेसिस्स पोग्गलस्स होदु णाम एगागासपदेसे अवद्वाणं, कथं दुपदेसिय- तिपदेसिय संखेज्जासंखेज्ज- अनंतपदेसियवखंधाणं तत्थावद्वाणं ? ण, तत्थ अणतो गाहणगुणस्स संभवाद । तं पि कुदो नव्वदे जीव-पोग्गलाणमाणंत्तियत्तण्ण हाणुवदत्तदो । जे दुपदेसियक्खेत्तो गाढवग्गणाए दव्वा ते विसेसहीणा अनंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा ॥ ५३० ॥ जे जीवादी अवेदा संता ओरालियसरीरणोकम्मक्खंधा दुपदेसियखेत्तमोगा हिदूण द्विदा तसि गहिदसला गाओ पुव्विल्लसलागाहितो विसेसहीणाओ । केत्तियमेत्तेण ? अनंत र हेट्टिमसलागाणमसंखेज्जदिभागेण । को पडिभागो ? तप्पा ओग्गअसंखेज्जरूवपडिभागो । एदेवि अनंतेहि विस्सासुवचएहि पादेक्कमुवचिदा | एवं ति चदु-पंच-छ- सत्त - अट्ठ - णव - दस - संखेज्ज - असंखेज्जपदेसियखेत्तो गाढवग्गणाए दव्वा ते विसेसहीणा अनंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा ।। ५३१ ।। शलाकायें बहुत हैं । और वे प्रत्येक अनन्त विस्रसोपचयोंसे उपचित हैं । शंका -- एकप्रदेशी पुद्गलका एक आकाशप्रदेश में अवस्थान होओ परन्तु द्विप्रदेशी, त्रिप्रदेशी, संख्यातप्रदेशी, असंख्यातप्रदेशी और अनन्तप्रदेशी स्कन्धोंका वहाँ अवस्थान कैसे हो सकता है ? समाधान -- नहीं, क्योंकि, वहाँ अनन्तको अवगाहन करनेका गुण सम्भव है । शंका-- यह भी किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान -- यदि एक आकाशप्रदेश में अनन्त के अवगाहन करनेका गुण न हो तो जीवों और पुद्गलोंकी संख्या अनन्त नहीं बन सकती है । जो द्विप्रदेशी क्षेत्रावगाही वर्गणाके द्रव्य हैं वे विशेष होन हैं और वे अनन्त विस्रसोपचयोंसे उपचित हैं ॥ ५३० ।। जो जीवसे अवेद होते हुए औदारिकशरीरके नोकर्मस्कन्ध द्विप्रदेशी क्षेत्रका अवगाहन कर अवस्थित हैं उनकी ग्रहण की गई शलाकायें पहिलेकी शलाकाओंसे विशेष हीन हैं। कितनी हीन हैं ? अनंतर अधस्तन शलाकाओंके असंख्यातवें भागप्रमाणहीन हैं । प्रतिभाग क्या है ? तत्प्रायोग्य असंख्यात अङ्क प्रतिभाग है । ये प्रत्येक भी अनन्त विस्रसोपचयोंसे उपचित हैं । इस प्रकार त्रिप्रदेशी, चतुःप्रदेशी, पञ्चप्रदेशी, षट्प्रदेशी, सप्तप्रदेशी, अष्टप्रदेशी, नवप्रदेशी, दसप्रदेशी, संख्यातप्रदेशी और असंख्यातप्रदेशी क्षेत्रावगाही वर्गके जो द्रव्य हैं वे विशेष हीन हैं और अनन्त विस्त्रसोपचयोंसे उपचित हैं । ५३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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