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________________ ४०२ ) छक्वंडागमे वग्गणा-खं ( ५, ६, ४२६ एत्थंतरे तिपलिदोवमाउअमणपालेमाणो ण कदा विउविदो । कुदो? तत्थ परिचत्तोरालियसरीरस्स विउव्वणप्पयमोरालियसरीरं गणंतस्स केवलं तप्परिसदणप्पसंगादो । ण चेदं विउव्वणसरीरं ओरालियं, विप्पडिसेहादो । थोवावसेसे जीविदवए त्ति जोगजवमज्झस्स उवरिमंतोमुहुतद्धमच्छि दो* ॥ ४२६ ॥ जवमज्झं णाम असमयपाओग्गजोगदाणाणि । तेहिंतो उवरिमजोगदाणेसु हेटिमजोगट्ठाणेहितो असंखेज्जगुणेसु अंतोमुत्तद्धमच्छिदो। किमढें ? बहुपोग्गल. ग्गहणटुं । तत्थ बहुअं कालं किण्ण अच्छदि ? ण, अंतोमुत्तादो उवरि तत्थ अच्छणस्स संभवाभावादो। एवं कालदेसामासियसुत्तत्थपरूवणठें । एवमुवजोगजवमज्झस्स उवरिमंतोमहत्तध्दमच्छदि ति ण घेतव्वं किंतु तिण्णं पलिदोवमाणमभंतरे जदा जदा संभवदि तदा तदा जवमज्झस्स उवरि जोगट्टाणेसु चेव परिणमिदि त्ति घेत्तव्वं । 'एत्थंतरे' अर्थात् तीन पल्यप्रमाण आयुका पालन करते हुए कदाचित् विक्रिया नहीं की, क्योंकि, औदारिकशरीरका त्याग कर विक्रियारूप औदारिकशरीरको ग्रहण करनेवालेके केवल उसकी निर्जरा होनेक प्रसंग आता है । यह विक्रियारूप शरीर भी औदारिक है ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, विक्रियारूप शरीरके औदारिक होने का निषेध है । जीवितव्य कालके स्तोक शेष रहनेपर योगयवमध्यके ऊपर अन्तर्मुहुर्त काल तक रहा ॥ ४२६ ।। आठ समयप्रायोग्य योगस्थानोंको यवमध्य कहते हैं। उससे अधस्तन योगस्थानोंसे असंख्यातगुणे उपरिम योगस्थानोंमें अन्तर्मुहुर्त काल तक रहा । शंका- वहां अन्तर्मुहुर्त काल तक किसलिए रहा ? समाधान- बहुत पुद्गलोंका संग्रह करनेके लिए। शंका- वहां बहुत काल तक क्यों नहीं रहता है? समाधान- नहीं, क्योंकि, अन्तर्मुहूर्त कालसे अधिक कालतक वहां रहना सम्भव नहीं है। काल देशामर्षक सूत्रके अर्थका कथन करने के लिए यह वचन है । इससे उपयोगयवमध्यके ऊपर अन्तर्मुहूर्त कालतक रहता है यह ग्रहण नहीं करना चाहिए। किन्तु तीन पल्यप्रमाण कालके भीतर जब जब सम्भव है तब तब यवमध्यके ऊपरके योगस्थानोंमें ही परिणमन करता है ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिए। *ता०प्रती 'जीविदब्वमेत्तमंतरमत्थि तत्थ (जीविदव्व ए ति जोगजवमज्झस्स) उवरिमंतोमुत्तत्थ (ख) मज्छिदो ' अ०का०प्रत्योः 'जीविदब्बमेत्तमंत रमत्थि तत्थ उवरिमंतोमहत्तत्थमच्छि दो' इति पाठः । ४ अप्रती 'अंतोमहत्तत्थमच्छिदो' इति पाठ तातो '-पुत्तत्थ (त्तमद्ध) परूवणटुं' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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