SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 436
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५, ६, ४२८. ) बधणाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए पदमीमांसा (४०३ चरिमे जीवगुणहाणिट्ठाणंतरे आवलियाए असंखेज्जविभागमच्छिदो ॥ ४२७ ॥ जाव चरिमजीवगण हाणी तत्थ आवलियाए असंखेज्जदिभागमस्सिदण ताव चरिमजोहितो तत्थतणजोगाणमसंखेज्जगणत्तादो। कालजवमज्झादो उवरि अच्छमाणेसु जदि चरिमे जीवगुणहाणिढाणंतरे अच्छंताणं बहुदव्वलाहो होदि तो आवलि० असंखे० भागं मोत्तूण तत्थ बहुकालं किण्ण अच्छाविदो? ण, तत्थ बहुकालमच्छगासंभवाभावादो । एवं दि कालदेसामासियसुत्तं तेण कालमत्तं मोत्तण जवमज्झस्स उरिमच्छमाणो जाव संभवदि ताव चरिमे जीवगणहाणिट्टाणंतरे चेव अच्छदि त्ति भणिदं होदि। चरिम-दुचरिमसमए उक्कस्सजोगं गदो ॥ ४२८ ॥ किमदमेत्थ उक्कस्सजोग णीदो? जोगवडढीदो पदेसबंधवडढी बहगी होदि ति जाणावणठें । दो समए मोत्तूण सव्वत्थ भवद्विदिम्मि उक्कस्सजोगं किण्ण णीदो? ___ अन्तिम जीवगुणहानिस्थानान्तरमें आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक रहा ।। ४२७ ।। क्योंकि, जो अन्तिम जीवगुणहानि है वहां आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कालका आश्रय लेकर अन्तिम योगसे वहांके योग असंख्यातगुण होते है । शंका - कालयवमध्य के ऊपर रहनेवाले जीवोंमसे यदि अन्तिम जोवगुणहानिस्थानान्तरमें रहने वाले जोवोंको बहुत द्रव्यका लाभ होता है तो आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कालको छोडकर वहां बहुत काल तक क्यों नहीं ठहराया ? समाधान - नहीं, क्योंकि, वहां बहुत काल तक रहना सम्भव नहीं है इसलिए वहां आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कालसे अधिक काल तक नहीं ठहराया। यह भी कालदेषामर्षक सूत्र है, इसलिए मात्र कालकी विवक्षा न करके यवमध्यके ऊपर रहता हुआ जब तक सम्भव है तब तक अन्तिम जीवगुणहानिस्थानान्तरमें ही रहता है यह उक्त सूत्रके कथनका तात्पर्य है। चरम और द्विचरम समयमें उत्कृष्ट योगको प्राप्त हुआ ।। ४२८ ॥ शंका - यहां उत्कृष्ट योगको किसलिए प्राप्त कराया है ? समाधान - योगवृद्धिसे प्रदेशबन्धकी वृद्धि बहुत होती है इस बातका ज्ञान कराने के लिए यहां उत्कृष्ट योगको प्राप्त कराया है। शंका - दो समयको छोडकर सर्वत्र भवस्थितिके भीतर उत्कृष्ट योगको क्यों नहीं प्राप्त कराया ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy