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________________ मनोवर्गणामेंसे चार प्रकारके मनकी रचना होती हैं और कार्मणवर्गणामेंसे ज्ञानावरणादि आठ प्रकारके कर्मोका ग्रहण होता है। इन सूत्रोंकी टीका करते हुए वीरसेन स्वामीने एक बहुत ही महत्वकी बातकी ओर ध्यान आकृष्ट किया है। उनका कहना है कि यद्यपि आहार वर्गणासे औदारिक आदि तीन शरीरोंका निर्माण होता है पर जिन आहारवर्गणाओंसे औदारिकशरीरका निर्माण होता है उनसे वैक्रियिक और आहारक शरीरका निर्माण नहीं होता। जिन आहारवर्गणाओंसे वैक्रियिकशरीरका निर्माण होता हैं उनसे औदारिक और आहारकशरीरका निर्माण नहीं होता । तथा जिन आहारवर्गणाओंसे आहारकशरीरका निर्माण होता है उनसे औदारिक और वैक्रियिकशरीरका निर्माण नहीं होता । वस्तुत: औदारिक आदि तीन शरीरोका निर्माण करनेवाली आहारवर्गणायें अलग अलग है उनके मध्य में ब्यवधान न होनेसे उनकी एक वर्गणा मानी गई है । इसी प्रकार भाषा आदि वर्गणाओंमें चार भाषाओं, चार मन और आठ कर्मोकी वर्गणायें भी अलग अलग जाननी चाहिए । इस प्रकरणके जो सूत्र हैं उन्हीके आधारसे उन्होंने यह अर्थ फलित किया है। प्रदेशार्थतामें सब शरीरोंकी प्रदेशार्थता अनन्तानन्त प्रदेशवाली है यह बतलाकर आदिके तीन शरीरोंमें पांच वर्ण, पांच रस, दो गन्ध और आठ स्पर्श बतलायें हैं। तथा अन्तके दो शरीरोंम पांच वर्ण पाँच रस, दो गन्ध और चार स्पर्श बतलाये हैं। आहारकशरीरमें धवल वर्ण होता है ऐसी अवस्था में यहां पांच वर्ण कसे बतलाये हैं इसका समाधान करते हुए वीरसेन स्वामी लिखते हैं कि आहारकशरीरके विस्रसोपचयकी अपेक्षा उसका धवल वर्ण कहा जाता है, वैसे उसमें पांचो वर्ण होते हैं । इसी प्रकार इस शरीरमें अशुभ रस, अशुभ गन्ध और अशुभ स्पर्श अव्यक्त भावसे रहते हैं, या अशुभ रस, अशुभ गन्ध, और अशुभ स्पर्श ली वर्गणाये आहारकशरीररूपसे परिणमन करते समय शभ रूप हो जाती हैं, इसलिए इसम पांच वर्गों के समान पांच रस, दो गन्ध और आठस्पर्श भी बतलाये है । तथा तैजस और कार्मण स्कन्ध प्रतिपक्षरूप स्पर्श नहीं होते, इसलिए चार स्पर्श बतलाये है । अल्पबहुत्व दो प्रकारका है- प्रदेश अल्पबहुत्व और अवगाहना अल्पबहुत्व । प्रदेशअल्पबहुत्वमें बतलाया है कि औदारिकशरीर द्रव्य वर्गणाके प्रदेश सबसे स्तोक है। उनसे वैक्रियिकशरीर द्रव्यवर्गणाके प्रदेश असंख्यात गुणं हैं। उनसे आहारकशरीर द्रव्यवर्गणाके प्रदेश असंख्यातगुणे है। उनसे आहारकशरीय द्रव्यवर्गणाके प्रदेश असंख्यातगुण हैं । उनसे तैजसशरीर द्रव्यवर्गणाके प्रदेश अनन्तगुणे हैं । उनसे भाषा, मन और कार्मणशरीर द्रव्यवर्गणाके प्रदेश उत्तरोत्तर अनन्तगुणे हैं अवगाहना अल्पबहुत्वमें बतलाया है कि कार्मणशरीर द्रव्यवर्गणाकी अवगाहना सबसे स्तोक है। उससे मनोद्रव्यवर्गणाकी अवगाहना असंख्यातगुणी है। उससे भाषाद्रव्यवर्गणाकी अवगाहना असंख्यातगुणी है। उससे आहारकशरीर द्रव्यवर्गंणाकी अवगाहना असंख्यातगुणी है। उससे वैक्रियिकशरीर द्रव्यवर्गणाकी अवगाहना असंख्यातगुणी है और उससे औदारिक शरीर द्रव्यवर्गणाकी अवगाहना असंख्यातगुणी है। बन्धविधान बन्धके चार भेद हैं-प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध । इन चारोंका विस्तारसे निरूपण भगवान् भूतबलि भट्टारकने महास्कन्ध में किया है । उसका यहां पर प्ररूपण करनेपर बन्धविधान समाप्त होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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