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________________ न्न हुए शरीरिशरीरप्ररूपणा- इसमें जीवोंके प्रत्येकशरीर और साधारण शरीर ये दो भेद बतलाकर साधारणशरीर वनस्पतिकायिक ही होते हैं और शेष जीव प्रत्येकशरीर होते हैं यह बतलाया गया है। इसके आगे साधारणका लक्षण करते हुए बतलाया है कि जिनका साधारण आहार है और श्वासोच्छ्वासका ग्रहण साधारण है वे साधारण जीव हैं। इनका शरीर एक होता है। उसे व्याप्त कर अनन्तानन्त निगोद जीव रहते हैं, इसलिए इन्हें साधारण कहते हैं और इसीलिए आहार और श्वासोच्छ्वासका ग्रहण भी साधारण होता है। तात्पर्य यह है कि सर्व प्रथम उत्पन्न हुए जीव जितने कालमें शरीर आदि चार पर्याप्तियोंसे पर्याप्त होते हैं उतने ही कालमें अनन्तर उसी शरीरमें उत्पन्न हुए जीव भी शरीर आदि चार पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो जाते हैं। यहां अलग अलग जीवोंके योगके तारतम्यसे और आगे पीछे उत्पन्न होनेसे पर्याप्तियोंके पूर्ण करने में कोई अन्तर नहीं पड़ता। यहां तक पर्याप्तियोंके पूर्ण होनेके समय में यदि जीव इस शरीरमें उत्पन्न होते हैं तो वे उत्पन्न होने के प्रथम समय में ही पूर्वमें उत्प जीवों द्वारा ग्रहण किये गये आहारसे उत्पन्न हुई शक्तिको प्राप्त कर लेते हैं। उन्हें उसके लिए अलगसे प्रयत्नशील नहीं होना पडत।। विशेष स्पष्ट कहें तो यह कहा जा सकता है कि पर्याप्तियोंकी निष्पत्तिके लिए एक जीव द्वारा जो अनुग्रहण अर्थात् परमाणु-पुद्गलोंका ग्रहण है वह उस समय वहाँ रहनेवाले या पीछे उत्पन्न होनेवाले अन्य अनन्तानन्त जीवोंका अनुग्रहण होता है, क्योंकि, एक तो उस आहारसे जो शक्ति उत्पन्न होती है वह यगपत सब जीवोंको मिल जाती है। दूसरे उन परमाणुओंसे जो शरीरके अवयव बनते हैं वे सबके होते हैं । इसी प्रकार बहत जीवोंके द्वारा जो अनग्रहण है वह एक जीवके लिए भी होता है। एक शरीरमें जो प्रथम समयमें जीव उत्पन्न होते हैं और जो द्वितीयादि समयों में उत्पन्न होते हैं वे सब यहाँपर एक साथ उत्पन्न हुए माने जाते हैं, क्योंकि, उन सबका एक शरीरके साथ सम्बन्ध पाया जाता है। यह तो उनके आहारग्रहणकी विधि है। उनके मरण और जन्मके सम्बन्ध भी यह नियम है कि जिस शरीरमें एक जीव उत्पन्न होता है वहाँ नियमसे अनन्तानन्त जीव उत्पन्न होते हैं और जिस शरीर में एक जीव मरता है वहाँ नियमसे अनन्तानन्त जीवोंका मरण होता है। तात्पर्य यह है कि वे एक बन्धनबद्ध होकर ही जन्मते हैं और मरते हैं। वे निगोद जीव बादर और सूक्ष्म के भेदसे दो प्रकारके होते है और ये परस्पर अपने सब अवयवों द्वारा समवेत होकर ही रहते हैं। उसमें भी बादर निगोद जीव मली, थवर और आद्रक आदिके आश्रयसे रहते है और सूक्ष्म निगोद जीव सर्वत्र एक बन्धनबद्ध होकर पाये जाते हैं। एक निगोद जीव अकेला कहीं नहीं रहता। इन निगोद जोवोंके जो आश्रय स्थान हैं उनमें असंख्यात लोकप्रमाण निगोदशरीर होते हैं। उनमें से एक एक निगोदशरीरमें जितने बादर और सूक्ष्म निगोद जीव प्रथम समयमें उत्पन्न होते है उनसे दूसरे समय में उसी शरीरमें असंख्यातगुणे हीन निगोद जीव उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कालतक उत्तरोत्तर प्रत्येक समयमें असंख्यातगुण हीन असंख्यातगुणे हीन जीव उत्पन्न होते हैं। पुन: एक, दो आदि समयसे लेकर उत्कृष्ट रूपसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कालका अंतर देकर पुनः एक दो आदि समयोंसे लेकर आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कालतक उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार परन्तरक्रमसे जबतक सम्भव है वे निगाद जीव उत्पन्न होते हैं। ये सब उत्पन्न हए जीव एक साथ एक क्षेत्रावगाही होकर रहते हैं। सूत्रकार कहते हैं कि ऐसे अनन्त जीव हैं जो अभीतक वसपर्याप्तको नहीं प्राप्त हुए हैं, क्योंकि, इनका एकेन्द्रिय जातिमें उत्पत्तिका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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