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________________ अपेक्षा कुल वर्गणायें तेईस मानकर उनका विचार किया गया है और नानाश्रेणिवर्गणामें प्रत्येक वर्गणा संख्याकी अपेक्षा कितनी हैं इसप्रकार परिमाण बतलाकर विचार किया गया है। वर्गणानिरूपणा- तेईस प्रकारकी वर्गणाओंमेंसे कौन वर्गणा किस प्रकार उत्पन्न होती है, क्या भेदसे उत्पन्न होती है या संघातसे उत्पन्न होती है, या भेद- संघातसे उत्पन्न होती है इस बातका विचार इस अधिकारमें किया गया है। स्कन्धके टूटने का नाम भेद है। परमाणुओंके समागमका नाम संघात है और स्कन्धका भेद होकर मिलनेका नाम भेद-संघात है। उदाहरणार्थ- द्विप्रदेशी आदि उपरिम वर्गणाओंके भेदसे एकप्रदेशी वर्गणा उत्पन्न होती है। द्विप्रदेशी वर्गणा त्रिप्रदेशी आदि उपरिम वर्गणाओंके भेदसे, एकप्रदेशी वर्गणाओंके संघातसे और स्वस्थानकी अपेक्षा भेद-संघातसे उत्पन्न होती है। इसी प्रकार आगे भी समझ लेना चाहिए। मात्र सान्तर- निरन्तर वर्गणासे लेकर अशन्यरूप जितनी वर्गणायें हैं वे सब स्वस्थानकी अपेक्षा भेद-संघातसे ही उत्पन्न होती हैं। इतनी बात अवश्य है कि किन्हीं सूत्रपोथियों में सान्तर-निरन्तर वर्गणाकी उत्पत्ति भी पूर्वकी वर्गणाओंके संघातसे, उपरिम वर्गणाओंके भेदसे और स्वस्थानकी अपेक्षा भेद-संघातसे बतलाई है। कारणका विचार मूल टीकामें किया ही है, इसलिए वहाँसे जान लेना चाहिए । पहले वर्गणाद्रव्यसमुदाहारके चौदह भेद करके सूत्रकारने वर्गणाप्ररूपणा और वर्गणानिरूपणा इन दो का ही विचार किया है। शेष बारहका क्यों नही किया है इस बात का विचार करते हुए वीरसेन स्वामी कहते हैं कि सूत्रकार चौबीस अनुयोगद्वारस्वरूप महाकर्मप्रकृतिप्राभूतके ज्ञाता थे, इसलिए उन अनयोगद्वारोंके अजानकार होनेके कारण नहीं किया है, यह तो कहा नहीं जा सकता है। वे उनका कथन करना भल गये इसलिए नहीं किया है या भी कहना उचित नहीं है, क्योंकि, सावधान व्यक्तिसे ऐसी भूल होना सम्भव नहीं है। फिर क्यों नहीं किया है इस बातका समाधान करते हुए वीरसेनस्वामी कहते हैं कि पूर्वाचार्योंके व्याख्यानका जो क्रम रहा है उसका प्ररूपण करनेके लिए ही यहाँ भूतबलि भट्टारकने शेष बारह अनुयोगद्वारोंका कथन नहीं किया है। इस प्रकार मूल सूत्रोंमें शेष बारह अनुयोगद्वारोंका विचार तो नहीं किया गया है, फिर भी वीरसेनस्वामीने उन अनुयोगद्वारोंका आश्रय लेकर वर्गणाओंका विस्तारसे विचार किया है, सो समस्त विषय मलसे जान लेना चाहिए । बाह्य वर्गणा विचार इस प्रकार यहाँ तक आभ्यन्तर वर्गणाका विचार करके आगे बाह्यवर्गणाका विचार चार अनुयोगद्वारोंका आश्रय लेकर किया गया है। वे चार अनुयोगद्वार ये हैं- शरीरिशरीरप्ररूपणा, शरीरप्ररूपणा, शरीरविससोपचयप्ररूपणा और विस्रसोपचयप्ररूपणा । शरीरी जीवको कहते हैं। इनके प्रत्येक और साधारणके भेदसे दो प्रकारके शरीर होते हैं। इन दोनोंका जिसमें प्रतिपादन किया जाता है उसे शरीरिशरीरप्ररूपणा कहते हैं। औदारिक आदि पाँच प्रकारके शरीरोंका अपनी अवान्तर विशेषताओंके साथ जिसमें प्ररूपणा किया जाता है उसे शरीरप्ररूपणा कहते हैं। जिसमें पाँचों शरीरोंके विस्रसोपचयके सम्बन्धके कारणभूत स्निग्ध स्क्षगुणके अविभागप्रतिच्छेदोंका कथन किया जाता है उसे शरीरविनसोपचयप्ररूपणा कहते हैं । तथा जिसमें जीवसे मुक्त हुए उन्हीं परमाणुओंके विस्र सोपचयकी प्ररूपणा की जाती है उसे विस्रसोपचयप्ररूपणा कहते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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