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________________ ४५० ) छपखंडागमे वगणा-खंड ( ५, ६, ५३९. कायव्या, विसेसाभावादो। भावहाणिपरूवणदाए ओरालियसरीरस्स जे एयगुणजुत्तवग्गणाए दव्वा ते बहुआ अणंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिवा- ५३९। एयगुणजुत्तवग्गणाए अणंसेहि विस्सासुवचएहि उचिदाए दवा सलागाहि बहुआ । एत्थ सलागाहि त्ति अज्झाहारो कायक्वो, अण्णहा सुत्तत्थाणुववत्तीदो । एयगुणं ति किं घेप्पदि ? जहण्णगणस्स सो गहणं। च जहण्णगणो अणंतेहि अविभागपडिच्छेदेहि णिप्पणो । तं कथं णव्वदे? सो अणंतविस्सासुवचएहि उवचिदो ति* सुत्तण्णहाणुववत्तीदो । ण च एक्कम्हि अविभागपडिच्छेदे संते एगविस्सासुवचयं मोत्तूण अणंताणं विस्सासुवचयाणं तत्थ संभवो अस्थि, तेसि संबंधस्स णिप्पच्चयत्तप्पसंगादो। ण च तस्स विस्सासुवचएहि बंधो वि अत्थि, जहण्णवज्जे त्ति सुत्तेण सह विरोहादो। जे दुगुणजुत्तवग्गणाए दव्वा ते विसेसहीणा अणंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा।। ५४० ॥ करनी चाहिए, क्योंकि, उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। भावहानिप्ररूपणाको अपेक्षा औदारिकशरीरके जो एक गणयुक्त वर्गणाके द्रव्य हैं वे बहुत हैं और वे अनन्त विनसोपचयोंसे उपचित हैं ॥ ५३९ ॥ अनन्त विस्रसोपचोंसे उपचित एक गुणयुक्त वर्गणाके द्रव्य शलाकाओंकी अपेक्षा बहुत हैं । यहाँ पर — सलागाहि' पदका अध्याहार करना चाहिए, अन्यथा सूत्रका अर्थ नहीं बन सकता है। शंका-- एक गुणसे क्या ग्रहण किया जाता है ? समाधान-- जघन्य गण ग्रहण किया जाता है। वह जघन्य गुण अनन्त अविभागप्रतिच्छेदोंसे निष्पन्न होता है । शंका--- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है । समाधान-- वह अनन्त विस्रसोपचयोंसे उपचित है यह सूत्र अन्यथा बन नहीं सकता है, इससे जाना जाता है कि वह अनन्त अविभाग प्रतिच्छेदों से निष्पन्न होता है। यदि कहा जाय कि एक अविभागप्रतिच्छेदके रहते हुए वहाँ केवल एक विस्रसोपचय न होकर अनन्त विनसोपचय सम्भव हैं सो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, ऐसी अवस्थामें उनका सम्बन्ध बिना कारणके होता है ऐसा प्रसंग प्राप्त होता है। यदि कहा जाय कि उसका विस्रसोपचयोंके साथ बन्ध भी होता है सो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, 'जघन्य गुणवालेके साथ बन्ध नहीं होता ' इस सूत्र के साथ विरोध आता है। जो दो गुणयक्त वर्गणाके द्रव्य है वे विशेषहीन हैं और वे अनन्त विस्रसोपचयोंसे उपचित हैं ५४० ॥ ४ ता० प्रती · जो' इति पाठः। अ० प्रती ' अचिदा ' का० प्रती · अवचिदा ' इति पाठ।। * प्रतिषु 'सुत्तट्ठाणववत्तीदो' इति पाठ।। * अ० का० प्रत्यो: ' अचिदो त्ति ' इति पाठः । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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