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________________ ५, ६, ९१. ) पत्ते पसरीरदव्ववग्गणा ( ७१ माहि वड्डावियट्ठिदो * । ताधे पुब्विल्लट्ठाणादो संपहियद्वाणं परमाणुत्तरं होदि । पुणो पुल्लिक्खवगं मोत्तूण संपहियक्खवगस्त कम्मइयसरी रविस्सासुवचयपुंजे एगपरमाणुणा वढि अण्णमपुणरुतद्वाणं होदि । एवं सव्वजीवेहि अणंतगुणमेत्तपरमाणुपोग्गले कम्मइयसरीरविस्सासुवचयपुंंजेहि वड्ढिदेसु तदो अण्णो जीवो पुव्वं व क्खविदकम्मंसिओ अजोगिचरिमसमए कम्मइयसरीरं पुव्वं व परमाणुत्तरं काऊण अच्छिदो । ताधे अनंतर हेट्टिमद्वाणादो संपहियद्वाणं परमाणुत्तरं होदि । एवं वड्ढावेदव्वं जाव जोगेण विना ओकड्डुक्कडुणाहि चेव जायमाणवुड्ढीए उक्क्स्सवुढित्ति । पुणो एदेहि छहि दव्वेहि जोगेणेगवारं छतु वि दव्वेसु वडिददव्वमेत्तं वड्ढि - दूर्ण द्विदो सरिसो । एवमसंखेज्जवारं वड्ढावेदव्वं जाव अजोगिचरिमसमयदव्वं सव्वुक्कस्सं जादं त्ति । तत्थ चरिमवियप्पं भणिस्सामा । तं जहा -- गुणिदक मंसियो सत्तमाए पुढवीए तेजा कम्मइयसरीराणि उक्कस्साणि काढूण पुणो कालं करिय दो-तिणिभवग्गहणाणि तिरिक्खे सुध्वज्जिय पुणो पुग्वकोडाउएसु मणुस्सेसु उबवण्णो । गब्भादि अवस्साणमंतो मुहुत्तब्भहियाणमुवरि सजो गिजिणो होदूण देसूणपुव्वकोड संजमगुणसे डिणिज्जरं काऊण अजोगिचरिमसमए द्विदस्स पत्तेयसरीरवग्गणा जीवोंसे अनन्तगुणे परमाणुओंके द्वारा बढाकर स्थित है उसके सब पिछले स्थानसे साम्प्रतिक स्थान एक परमाणु अधिक होता है । पुनः पूर्वोक्त क्षपकको छोड़कर साम्प्रतिक क्षपक के कार्मणशरीर के विस्रसोपचय पुंज में एक परमाणुकी वृद्धि करने पर अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है । इस प्रकार कार्मणशरीरके विस्रसोपचय पुंज में सब जीवोंसे अनन्तगुणे परमाणुपुद्गलों के बढाने पर उस समय पहले के समान क्षतिकर्माशिक जो अन्य जीव अयोगी गुणस्थानके अन्तिम समय में कार्मणशरीरको पहले के समान एक परमाणु अधिक करके स्थित है उसके तब अनन्तर पिछले स्थानसे साम्प्रतिक स्थान एक परमाणु अधिक होता है । इस प्रकार योगके बिना अपकर्षण- उत्कर्षण के द्वारा ही जो वृद्धि होती है उससे उत्कृष्ट वृद्धिके होने तक वृद्धि करनी चाहिये । पुनः इन छह द्रव्यों के साथ, योगके द्वारा एक बार छहों द्रव्यों में बढाये हुये द्रव्यके बराबर वृद्धि करके स्थित हुआ जीव समान है । इस प्रकार अयोगी गुणस्थातके अन्तिम समय के द्रव्य के सर्वोत्कृष्ट होने तक असंख्यात बार वृद्धि करनी चाहिये । उसमें अन्तिम विकल्पको बतलाते हैं । यथा- कोई एक गुणित कर्माशिक जीव सातवीं पृथिवीमें तैजस और कार्मण शरीरको उत्कृष्ट करके पुनः मरकर दो-तीन भवतक तिर्यंचों में उत्पन्न होकर पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ । पुनः गर्भसे लेकर अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्षका होनेके बाद सयोगी जिन होकर कुछ कम पूर्वकोटि काल तक संयम गुणश्रेणि निर्जरा करके अयोगी गुणस्थानके अन्तिम समय में ता. प्रती ( वड्डावि ) वडिदो ' इति पाठ: । '- दव्वे ' आ. प्रतो 'दव्व' इति पाठः । 'याण (मु- ) वरि अ. अ. प्रत्योः Jain Education International ॐ ता. प्रती - णादि ' इति पाठः । ता. अ. आ. प्रतिषु ' जादे' इति पाठ: 1 'याणवरि इति पाठ: । For Private & Personal Use Only ता. प्रतो ता. प्रतौ www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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