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________________ ४२८ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड गालिय अंतोमुहुत्तपमाण मेयंताणवडिजोगसमयपबद्धेसु गहिवेसु तेजासरीरस्स जहण्णदव्वं होदि ति वत्तव्वं । णिल्लेवणढाणाणं पमाणमुक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखे० भागो त्ति भणिदं तेण कम्मट्रिदीए असंखेज्जभागमेत्तसमयपबद्धाणं संचएण सामित्तचरिमसमए होदव्वमिदि ? ण, पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणि णिल्लेवणट्टाणाणि होति त्ति कम्मस्स परूविदत्तादो। ण च कम्म णोकम्माणमेयत्तं, कारण-कज्जाणमेयत्तविरोहादो। तेजासरीरणोकम्मस्स जहणदिदी एइंदियजीवसमासेसु सुहमणिगोदअपज्जत्तएयंताणवद्धिकालादो थोवे त्ति कुदो जव्वदे ? अण्णदरस्से ति वयणादो। अण्णहा विदकम्मंसियलक्खणेण सुहमणिगोदेसु हिडिदूण आगदो त्ति भणेज्ज ? ण च एवं, तदो णवदे जहाणदिदी एयंताणुवडिकालादो थोवे ति। तव्वविरित्तमजहणं ॥ ४९३ ॥ सुगमं । जहण्णपदेण कम्मइयसरीरस्स जहण्णयं पदेसग्गं कस्स ॥४९४॥ सुगम। अण्णदरस्स जीवो सहमणिगोदजीवेमु पलिदोवमस्स असंखे प्रबद्धोंके ग्रहण करने पर तेजसशरीरका जघन्य द्रव्य होता है ऐसा यहाँ कहना चाहिए । शंका-- निर्लेपनस्थानोंका उत्कृष्ट प्रमाण पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है ऐसा कहा है, इसलिए स्वामित्वके अन्तिम समयमें कर्मस्थिति के असंख्यातवें भागप्रमाण समयप्रबद्धोंका संचय होना चाहिए । समाधान-- नहीं, क्योंकि, पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण निर्लेपस्थान होते है यह कर्मकी अपेक्षा कथन किया है। और कर्म तथा नोकमं एक नहीं है, क्योंकि, कारण और कार्यको एक होनेमें विरोध आता है । शंका-- एकेन्द्रिय जीवसमासोंमें तेजसशरीर नोकर्मकी जघन्य स्थिति सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तके एकान्तानुवद्धिकालसे स्तोक है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-- 'अन्यतरके ' इस वचनसे जाना जाता है। अन्यथा क्षपितकर्माशिकलक्षणसे सूक्ष्म निगोद जीवोंमें घूमकर आया हुआ जीव ऐसा कहते । परन्तु ऐसा नहीं कहा है। इससे जाना जाता है कि जघन्य स्थिति एकान्तानुवृद्धिके कालसे स्तोक है । उससे व्यतिरिक्त अजघन्य प्रदेशाग्न है ।। ४९३ ।। यह सूत्र सुगम है। जघन्य पदकी अपेक्षा कार्मणशरीरके जघन्य प्रदेशाग्रका स्वामी कौन है । ४९४। यह सूत्र सुगम हैं। अन्यतर जो जीव सूक्ष्म निगोद जीवोंमें पल्यका असंख्यातवां भाग कम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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