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________________ ४७२ ) छक्खंडागमे वग्गणा । ५ ६, ५८६ , वक्कमणकाले च संबंधिज्जवि त्ति कुदो णवदे ? अविरूद्धाइरियवयणादो । अंतरमेगसमओ वि दो समया वि होति उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागो। एवं सव्वंतराणं पमाणपरूवणा कायव्वा, एदिस्से अंतरपरूवणाए देसामासियत्तादो । एवमंतरं* काऊण अणंतरसमए असंखेज्जगणहीणा जीवा उप्पज्जति । एवमेगदोसमयमादि काऊण ताव गिरंतरं उप्पज्जति जाव उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जविभागो त्ति । एवं विदियणकंदयमबलक्खणं काऊण सेसकंदयाणं पि आवलियाए असंखेज्जविभागमेताणं परूवणा कायव्वा । णवरि पढमकंदयपमाणं जहण्णं उक्कस्स पि आवलियाए असंखेज्जविभागो। सेसवक्कमणकंदयाणमंतरकंवयाणं च पमाणं जहण्णेण एगसमओ उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागो । अंतराणि एगादिसमइयाणि होंतु णाम, तत्थ एगो वा दो वा तिणि वा ति अंतरपमाणपरू वणवलंभादो । ण वक्कमणकंदयमेगसमइयं, तत्थ तदणवलंभादो ति? ण, अंतरम्हि वृत्तएगादिसमयाणं वक्कमणसुत्तस्स अवयवभावेण पत्तिदसणादो । एवमेदेण सुत्तेण वक्कमंतजीवाणं तक्कालंतराणं च परूवणा कदा। शंका-- 'आवलिके असंख्यातवें भाग' शब्दका अन्तरकाल और उत्पत्तिकाल दोनोंसे सम्बन्ध हैं यह किस प्रमाणसे जाना जाता ? समाधान-- अविरुद्ध आचार्य वचनसे जाना जाता है अन्तर एक समय भी होता है, दो समय भी होता है और उत्कृष्टरूपसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है। इस प्रकार सब अन्तरों के प्रमाणका कथन करना चाहिए, क्योंकि, यह अन्तरप्ररूपणा देशामर्षक है। इस प्रकार अन्तर करके अनन्तर समयमें असंख्यातगुणे हीन जीव उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार एक और दो समयसे लेकर उत्कृष्टसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक निरन्तर उत्पन्न होते हैं। इस दुसरे काण्डकको उपलक्षण करके आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण शेष काण्डकोंकी भी प्ररूपणा करनी चाहिए। इतनी विशेषता है कि जघन्य और उत्कृष्ट प्रथम काण्डकका प्रमाण आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। शेष उपक्रमणकाण्डकों और अन्त रकाण्डकोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आबलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। शंका-- अन्तर एक आदि समयवाले होवें क्योंकि, उस विषयमें एक, दो और तीन इस प्रकार अन्तरके प्रमाणकी प्ररूपणा उपलब्ध होती है, उपक्रमण काण्डक एक समयवाला नहीं हो सकता, क्योंकि, इसके विषयमें इस प्रकारकी कोई प्ररूपणा नहीं उपलब्ध होती ? समाधान-- नहीं, क्योंकि, अन्तरके विषयमें कहे गये एक आदि समयोंकी उत्पत्तिसूत्रके अवयवरूपसे प्रवृत्ति देखी जाती है। इस प्रकार इस सूत्रके द्वारा उत्पन्न होनेवाले जीवोंकी और उनके कालके अन्तरोंकी प्ररूपणा की है। ता. प्रनो' सव्वंतराणि (ण) परवगा अ. का. प्रत्योः 'मवंतराणि पमाणावगा । इति पाठ।। * अ० का० प्रत्योः 'एदमंतरं इति पाठः । * ता० प्रती एवं विदिय- ' इति पाठः। ० अ० का. प्रत्यो। '- कंदयाणमंतरं कंदयाणं ' इति पाठ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org:
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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