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________________ ५६४) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ६, ७९५ को गणगारो ? अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो। वेउव्वियसरीरदव्ववग्गणाओ ओगाहणाए असंखेज्जगुणाओ ।। ७९५ ॥ को गुणगारो ? अंगुलस्स असंखेज्जविभागो। __ओरालियसरीरदव्ववग्गणाओ ओगाहणाए असंखेज्जगुणाओ ॥ ७९६ ॥ को गुणगारो? अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो। __एवमोगाहणप्पाबहुए समत्ते बंधणिज्ज* समत्तं होदि । जं तं बंधविहाणं तं चउन्विहं-पयडिबंधो ट्ठिदिबंधो अणुभागबंधो पदेसबंधो चेदि ॥ ७९७ ॥ एदेसि चदुषणं बंधाणं विहाणं भूदबलिभडारएण महाबंधे सप्पवंचेण लिहिदं ति अम्मेहि एत्थ ण लिहिवं । तदो सयले महाबंधे एत्थ परूविदे बंधविहाणं समप्पदि। एवं बंधणअणुयोगद्दारं समत्तं । गुणकार क्या है ? अङ्गुलके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है । वैक्रियिकशरीरद्रव्यवर्गणायें अवगाहनाको अपेक्षा असंख्यातगणी हैं ॥७९५॥ गुणकार क्या है ? अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है । औदारिकशरीरद्रव्यवर्गणायें अवगाहनाकी अपेक्षा असंख्यातगुणी हैं ॥७९६।। गुणकार क्या है ? अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है । इसप्रकार अवगाहना अल्पबहुत्वके समाप्त होने पर बन्धनोय अनुयोगद्वार समाप्त होता है। जो बन्धविधान है वह चार प्रकारका है- प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध ।। ७९७ ॥ इन चारों बन्धोंका विधान भूतबलि भट्टारकने महाबन्ध में विस्तारके साथ लिखा है, इसलिए हमने यहाँ पर नहीं लिखा है । इसलिए सकल महाबन्धके यहाँ पर कथन करने पर बन्धविधान समाप्त होता है। इसप्रकार बन्धन अनुयोगद्वार समाप्त हुआ । * का०प्रती ' -णप्पाबहुए सु वुत्ते बंधणिज्जं ' इति पाठः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org' Jain Education International
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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