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________________ ५, ६, ९१. ) योगद्वारे पत्तेयसरी रदनवग्गणा ( ७७ होदि । एवं ताव तेजासरीरदोपुंजा वढावेदव्वा जाव उक्कस्सा जादा ति । संहि अण्णो णेरइओ वे उब्विय-तेजासरीराणि उक्कस्साणि काऊण पुणो कम्म इयसरीरविस्ससुवचयपुंजं पदेसुत्तरं काऊणच्छिदो ताधे अण्णमपुनरुत्तद्वाणं होदि । एवमे गंगपदेसुत्तरमेण ताव वड्ड।वेदव्वं जाव सव्वेहि जीवेहि अनंतगुणमेत्ता विस्सासुवचयपरमाणू कम्मइयसरी रविस्ससुवचयपुंजम्मि वडिदा त्ति । तदो अण्णो जीवो* पुव्वणिरुद्ध कम्मइयसरीरं परमाणुत्तरं काढूण तस्सेव विस्सासुवचयपुंजं सव्वजीवेहि अनंतगुणमेत्तविस्स सुवचयेण अमहियं कादूणच्छिदो । ताधे एदं द्वाणमणंतर हे द्विमद्वाणाद परमाणुत्तरं होदि । पुणो अगेण विहाणेण कम्मइयसरीरदोपुंजा उक्कस्सा काव्वा जाव गुणिदकम्मतियणा रग चरिमसमय सव्वुक्कस्तदव्वे त्ति । वे उव्वियसरीरविस्सुवचहितो आहारसरीरस्स विस्तसुवचओ असंखेज्जगुणो । तेण पमत्तसंजदम्मि आहार-तेजा-कम्मइयसरीराणं छप्पुंजे घेत्तूण पत्तेयसरीरवग्गणा एगजीवविसया किण्ण परुविदा ? ण, तेजा - कम्मइयसरीराणं चरिमसमयणेरइयं मोत्तृण अण्णत्य उक्कस्सदव्वाभावादो । जत्थ तेजा - कम्मइयसरीराणि जहण्णाणि होंति तत्थ पत्तेयसरीवग्गणा सव्वजहण्णा होदि । जत्थ एदेसिमुक्कस्सदव्वाणि लब्भंति तत्थ पत्तेयसरीरवग्गणा उक्कस्सा होदि । ण च मणुस्सेसु पमत्तसंजदेसु पत्तेयसरीरवग्गणा उक्कस्सा होदि; चाहिए जब तक ये उत्कृष्टपनेको नहीं प्राप्त हो जाते । पुनः एक ऐसा नारकी लो जो वैक्रियिकशरीर और तैजसशरीरको उत्कृष्ट करके पुनः कार्मणशरीर के विस्रसोपचय पुञ्ज में एक परमाणु अधिक करके स्थित है । तब अन्य अपुनरुक्त स्थान उत्पन्न होता है । इस प्रकार एक एक परमाणुकी तब तक वृद्धि करते जाना चाहिए जब तक कार्मणशरीर के विस्रसोपचय पुञ्ज में सब जीवोंसे अनन्तगुणे विस्रसोपचय परमाणुओंकी वृद्धि नहीं हो जाती । अनन्तर एक ऐसा अन्य जीव लो जो पूर्व निरुद्ध कार्मणशरीर में एक परमाणु अधिक करके पुनः उसीके विस्रसोपचय पुञ्जको सब जीवोंसे अनन्तगुणं विस्रसोपचय परमाणुओंसे अधिक करके स्थित है । तब यह स्थान अनन्तर पिछले स्थानसे एक परमाणु अधिक होता । पुनः इस विधि से गुणित कर्माशिक नारकी जीवके अन्तिम समय में सर्वोत्कृष्ट द्रव्य प्राप्त होने तक कार्मणशरीरके दोनों पुञ्जोंको उत्कृष्ट करना चाहिए । शंका-- वैक्रियिकशरीर के विस्रसोपचयसे आहारकशरीरका विस्रसोपचय असंख्यात - गुणा है, इसलिए प्रमत्तसंयत गुणस्थान में आहारक, तैजस और कार्मणशरीरके छह पुञ्ज ग्रहण करके प्रत्येकशरीर वर्गणा एक जीव सम्बन्धी क्यों नहीं कही ? समाधान -- नहीं, क्योंकि, अन्तिम समयवर्ती नारकीको छोड़कर तैजस और कार्मणशरीरका अन्यत्र उत्कृष्ट द्रव्य उपलब्ध नहीं होता। जहां पर तैजस और कार्मणशरीर जघन्य होते वहां पर प्रत्येकशरीरवर्गणा सबसे जघन्य होती है और जहां पर इनके उत्कृष्ट द्रव्य उपलब्ध होते हैं वहाँ पर प्रत्येकशरीर वर्गणा उत्कृष्ट होती है । परन्तु प्रमत्तसंयत मनुष्यों के * ता० आ० प्रत्यो: ' अण्णोपणे ठइओ' इति पाठ: । ॐ ता० अ० आ० प्रतिषु 'सभ्वएहि ' इति पाठ 1 अ० आ० प्रत्योः ' जीव इति पाठ: 1 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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