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________________ १२४ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ६, १०२ अणंत० अणंताणंतपदेसियपरमाणुपोग्गलदव्ववग्गणा णाम कि भेदेण किं संघादेण किं भेवसंघादेण ॥ १०२॥ सुगममेदं पुच्छासुतं ।। उवरिल्लीणं दवाणं भेदेण हेछिल्लोणं दवाणं संघादेण : सत्थाणेण भेवसंघादेण ॥ १०३॥ एदं पि सुत्तं सुगम, पुव्वं परविदत्तादो। हेदिल्लवरिल्लवग्गणाणं भेदसंघादेण अप्पिदवग्गणाणमुप्पत्ती किण्ण वुच्चदे; भेदकाले विणासं मोत्तूण उप्पत्तीए अभावं पडि विसेसाभावादो? ण; तत्थ एवंविधणयाभावादो। अथवा भेदसंघादस्स एवमत्थो वत्तव्वो । तं जहा-भेदसंघादाणं दोगणं संजोगो सत्थाणं णाम; तम्हि णिरुद्ध उवरिल्लीणं हेढिल्लोणं अप्पिदाणं च दव्वाणं भेदपुरंगमसंघादेण: अप्पिदवग्गणुप्पत्तिदंसणादो। सत्थाणेण भेदसंघादेण उप्पत्ती वच्चदे । सव्वो वि परमाणुसंघादो भेदपुरंगमो चेव ति सव्वासि वग्गणाणं भेदसंचादेणेव उप्पत्ती किण्ण वुच्चदे? ण एस दोसो; भेदाणंतरं जो संघादो सो भेदसंघादो णाम ण अंतरिदो; अव्ववत्था प्रदेशी, अपरीतप्रदेशी, अनन्तप्रदेशी और अनन्तानन्तप्रदेशी परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणा क्या भेदसे होती है, क्या संघातसे होती है या क्या भेद-संघातसे होती है ।।१०२॥ यह पृच्छासूत्र सुगम है। ऊपरके द्रव्योंके भेदसे नीचेके द्रव्योंके संघातसे और स्वस्थानकी अपेक्षा भेद-संघातसे होती है ॥ १०३ ॥ यह सूत्र भी सुगम है, क्योंकि, पहले व्याख्यान कर आये हैं। शंका-नीचे की और ऊपरकी वर्गणाओंके भेद-संघातसे विवक्षित वर्गणाओंकी उत्पत्ति क्यों नहीं कहते, क्योंकि, भेदके समय विनाशको छोड़कर उत्पत्तिके अभावके प्रति कोई विशेषता नहीं है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, वहां पर इस प्रकारके नयका अभाव है। अथवा भेद-संघातका इस प्रकारका अर्थ कहना चाहिए । यथा-भेद और संघात दोनोंका संयोग स्वस्थान कहलाता है । उसके विवक्षित होने पर ऊपरके, नीचेके और विवक्षित द्रव्योंके भेदपूर्वक संघातसे विवक्षित वर्गणाकी उत्पत्ति देखी जाती है । इसे स्वस्थानकी अपेक्षा भेद-संघातसे उत्पत्ति कहते है। शंका-सभी परमाणुसंघात भेदपूर्वक ही होता है, इसलिए सभी वर्गणाओंकी उत्पत्ति भेद-संघातसे ही क्यों नहीं कहते ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, भेदसे अनन्तर जो सघात होता है उसे भेद-संघात कहते हैं । जो अन्तरसे होता है उसकी यह संज्ञा नहीं है, क्योंकि, ऐसा माननेपर ता. प्रतो ' भेदपुरंगमत्तादो संघादेण · इति पाठः 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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