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________________ ५, ६, ६६३ ) suryaगद्दारे चूलिया व्वितिट्ठाणाणि सरिसाणि न होंति त्ति जाणावणट्टमुत्तरसुत्तं भणदि - ओरालिय- वेउब्विय- आहारसरीराणं हियाणि ॥ ६६३ ॥ जहाकमेण जिद्दिपरिवाडीए विसेसाहियाणि । तं जहा एक्को जीवो तिरिक्खेसु मणुस्सेसु वा उववण्णो । पुणो तम्हि चेव समए अण्णेगो जीवो देवेसु णेरइएसु वा उववण्णो । पुणो तम्हि चेव समए अण्णेगेण पमत्तसंजदेण आहारसरीरमुट्ठावे दुमाढत्तं । तदो एवेतिणि जणा एगसमए चेव आहारसरीरवग्गणादो पदेसपिडं घेतून सगसगछपज्जत्तीओ पढमसमयप्पहुडि णिव्वत्तंति । एवं निव्वत्तयमाणाणं जहणणिव्वत्तिकालो व अतिथ उक्कस्सणिव्वत्तिकालो वि अस्थि । तत्थाहारसरीरस्स जहण्णणिव्वत्तिअद्धा थोवा । वेउव्वियसरीरस्स जहण्णणिव्वत्तिअद्धा विसेसाहिया । ओरालियसरस्स जहण्णणिव्वत्तिअद्धा विसेसाहिया । तेण कारणंण आहारसरीरस्स सरीरपज्जत्तीए जहणवित्तिद्वाणं पुव्वं चेव होदि । पुणो एदम्हादो समउत्तरं पि आहारसरणिव्वत्तिद्वाणमत्थि एदम्हादो वि बिसमयउत्तरं पि आहारणिव्वत्तिद्वाणं अस्थि । ता० प्रतौ ' जीवा तिरिक्खेसु' इति पाठः । * तार प्रतो' णिव्वत्तं ति' इति पाठ: 1 ( ५१७ उन तीन शरीरोंके निर्वृत्तिस्थान समान नहीं होते इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगे का सूत्र कहते हैं--- औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर और आहारकशरीर के यथाक्रमसे विशेष अधिक हैं ।। ६६३ ।। यथाक्रम से अर्थात् निर्दिष्ट की गई परिपाटीके अनुसार विशेष अधिक हैं। यथा- एक जीव तिर्यञ्चों में या मनुष्यों में उत्पन्न हुआ । पुनः उसी समय अन्य एक जीव देवों या नारकियों में उत्पन्न हुआ। पुनः उसी समय अन्य एक जीवने आहारकशरीरको उत्पन्न करनेके लिए प्रारम्भ किया । अतः ये तीनों जीव एक समय में ही आहारकशरीरवर्गणा में से प्रदेशपिण्डको ग्रहण कर अपनी अपनी छह पर्याप्तियोंकी प्रथम समयसे लेकर रचना करते हैं । इस प्रकार रचना करनेवाले जीवोंका जघन्य निर्वृत्तिकाल भी होता है और उत्कृष्ट निर्वृत्तिकाल भी होता है । उनमें से आहारकशरीरका जघन्य निर्वृत्तिकाल स्तोक होता है । उससे वैक्रियिकशरीरका जघन्य निर्वृत्तिकाल विशेष अधिक होता है । उससे औदारिकशरीरका जघन्य निर्वृत्तिकाल विशेष अधिक होता है । इस कारण से आहारकशरीरकी शरीरपर्याप्तिका जघन्य निर्वृत्तिस्थान पहले ही होता है । पुनः इससे एक समय अधिक भी आहारकशरीरका निर्वृत्तिस्थान होता है । इससे दो समय अधिक भी आहारकशरीरका निर्वृत्तिस्थान होता है। इस प्रकार तीन समय अधिक जहाकमं विसेसा--- ता० प्रती 'रइएसु उववण्णो इति पाठः ता० प्रतो णिव्वत्तपमाणाणं ' इति पाठ: 1 ता० प्रती 'जहण्णणिव्वती अद्धा' इति पाठा ।ता० प्रतो 'जहण्णणिव्वती अद्धा' इति पाठ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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