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बंधणाणुयोगद्दारे भावबंधपरूवणा
घोससमं । एवं णवविहं सुदणाणं परूविदं ।
संपहि एत्थ उवओगो वायणा-पुच्छण-पडिच्छण-परियट्टण-अणपेहग-स्थयथुदि-धम्मकहाभेएण अट्टविहो । तत्थ परेसिं वक्खाणं वायणा णाम । तत्थ अणिच्छिदढाणं पण्णवावारो पुच्छणं णाम । आइरिएहि कहिज्जमाणत्थाणं सुणणं पडिच्छणं णाम । अवगयत्थस्स हियएण पुणो पुणो परिमलणं परियणं णाम । सुत्तत्थस्स सुदाणुसारेण चितणमणुपेहणं णाम । सव्वसुदणाणविसओ उवजोगो थवो णाम । एगंगविसओ* एयपुवविसओ वा उवजोगो थुदी गाम । वत्थु-अणुयोगादिविसओ भावो धम्मकहा णाम । एवमादिया उवजोगा भावे ति कट्ट जावदिया उवजुत्ता भावा सो सवो आगमदो भावबंधो णाम ।
जो सो णोआगमदो भाबबंधो णाम सो दुविहो--जीवभावबंधो चेव अजीवभावबंधो चेव ॥ १३ ॥
एवं दुविहो चेव णोआगमभावबंधो होदि; जीवाजीववदिरित्तणोआगमभावबंधाभावादो।
जो सो जीवभावबंधो णाम सो तिविहो--विवागपच्चइयो जीवभावबंधो घेव अविवागपच्चइओ जीवभावबंधो चेव तदुभयपच्चइओ जीवभावबंधों चेव ॥ १४॥ श्रुतज्ञान उत्पन्न हुआ है वह घोषसम श्रुतज्ञान है । इस प्रकार नौ प्रकारके श्रुतज्ञानका कथन किया।
___ इनके विषय में वाचना, पृच्छना, प्रतीच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षणा, स्तव, स्तुति और धर्मकथाके भेदसे आठ प्रकारका उपयोग होता है। उनमें से अन्यके लिये व्याख्यान करना वाचना हैं। उसमें अनिश्चत अर्थको समझने के लिये प्रश्न करना पृच्छना है । आचार्य जिन अर्चाका कथन कर रहे हों उनका सुनना प्रतीच्छना है । जाने हुए अर्थका हृदयसे पुनः पुनः विचार करना परिवर्तना है। सूत्रके अर्थका श्रुतके अनुसार चिन्तन करना अनुप्रेक्षणा है । समस्त श्रुतज्ञानको विषय करनेवाला उपयोग स्तव कहलाता है । एक अंग या एक पूर्वको विषय करनेवाला उपयोग स्तुति कहलाता है । तथा वस्तु और अनुयोगद्वार आदिको विषय करनेवाला उपयोग धर्मकथा कहलाता है । इत्यादि जितने उपयोग हैं उनमें यह भाव है ' ऐसा समझ कर जितने उपयुक्त भाव होते हैं वह सब आगम भावबन्ध है।
नोआगमभावबन्ध दो प्रकारका है-जीवभावबन्ध और अजीवभावबन्ध ॥१३॥
इस तरह दो प्रकारका ही नोआगमभावबन्ध है, क्योंकि, जीव और अजीव इन दो भेदोंके सिवा नोआगमभावबन्ध नहीं पाया जाता।
जीवभावबन्ध तीन प्रकारका है-विपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध, अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध और तदुभयप्रत्यायक जीवभावबन्ध ॥ १४ ॥
* अ-आ- काप्रतिषु 'एबंगयविसओ '; ताप्रती एवंगयविसओ', इति पाठ 1
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