Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Catalog link: https://jainqq.org/explore/003837/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गणेशप्रसाद वर्णो जैन ग्रन्थमाला २, ११ जैन साहित्य का इतिहास पूर्व-पीठिका पं० कैलाशचन्द सिद्धान्तरत्न, सिद्धान्तशास्त्री, न्यायतीर्थं प्रधानाचार्य श्री स्याद्वाद महाविद्यालय काशी प्राक्कथन लेखक डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल अध्यक्ष इन्डलॉजी कालेज हिन्दूविश्वविद्यालय वाराणसी Jain Educationa International प्रकाशक श्री गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला अमी, बारापछी For Person www.jainelibrary.or Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला २.११ जैन साहित्य का इतिहास पूर्वपीठिका S STATE ENT NETSMSRE पं० कैलाशचन्द्र सिद्धान्तरत्न, सिद्धान्तशास्त्री, न्यायतीर्थ प्रधानाचार्य श्री स्याद्वाद महाविद्यालय काशी प्राक्कथन लेखक डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल अध्यक्ष इन्डोलॉजी कालेज हिन्दूविश्वविद्यालय वाराणसी प्रकाशकश्री गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला भदैनी, वाराणसी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला काशी ग्रन्थमाला सम्पादक और नियामक फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री प्रथम संस्करण वीर नि० सं० २४८६ मूल्य १०) मुद्रकशिवनारायण उपाध्याय नया संसार प्रेस, भदैनी, वाराणसी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय यह परम सन्तोषकी बात है कि लगभग दश वर्षके अनवरत प्रयत्न के बाद 'जैन साहित्य का इतिहास की पूर्व पीठिका' मुद्रित हो कर तैयार है । आशा है कि वह शीघ्र ही पाठकों के अध्ययन के लिए सुलभ हो जायगी। पूर्वपीठिका श्री पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री प्रधानाचार्य श्री स्या. म० वि० काशी ने परिश्रम पूर्वक लिखी है। उन्हें इसके लिए जो भी श्रम करना पड़ा है उसका निर्देश उन्होंने अपने वक्तव्य में स्वयं ही किया है। ___ स्थापना काल से लेकर अद्यावधि श्री ग० वर्णी जैन ग्रन्थमाला का संचालन श्री पं० फूलचन्द्रजी शास्त्री की देख रेख में होता पा रहा है । आर्थिक और दूसरे प्रकार की सब अनुकूलताओं की श्रोर भी उन्हीं को ध्यान देना पड़ता है। नवम्बर सन् १९५३ की १३ तारीख को ग्रन्थमाला की बैठक आमन्त्रित की गई थी। उस बैठक में ग्रन्थमाला समिति ने मेरे प्रस्ताव और पं० फूलचन्द्र जी के समर्थन करने पर 'जैन साहित्यका इतिहास' के निर्माण करने की स्वीकृति दी थी। पूर्व पीठिका का लेखन कार्य प्रारम्भ होने के पूर्व श्री पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री, स्व. श्री पं० महेन्द्रकुमार जी न्यायाचार्य और श्री पं० फूलचन्द्र जी शास्त्री ने मिल कर 'जैन साहित्यका इतिहास' की 'प्रस्तावित रूपरेखा' तैयार की थी, जो सन् १९५४ में ही एक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तिका के रूप में मुद्रित कर दी गई थी। प्रस्तुत 'पूर्व पीटिका' उसी के अनुसार लिखी गई है । उस समय सबकी सम्मति से 'पूर्वपीठिका' के लेखन का भार श्रीमान् पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री को सौंपा गया था । हमें यहाँ यह लिखते हुए परम हर्ष होता है कि पण्डित जी ने प्रस्तावित रूपरेखा में निर्दिष्ट बातों को ध्यान में रख कर यह कार्य बड़ी योग्यता पूर्वक सम्पन्न किया है। पण्डित जी की लेखनी मजी हुई है। तथ्यों का संकलन भी वे बड़ी योग्यता और तटस्थ भाव से करते हैं जो किसी भी इतिहासान्वेषी का सबसे बड़ा गुण माना गया है । उनकी इस सेवा के लिए श्री ग० वणा जैन ग्रन्थमाला समिति उनकी ऋणी है। ज्ञात हुया है कि पण्डित जी ने करणानुयोग और द्रव्यानुयोग ( दर्शन भाग को छोड़ कर ) का इतिहास भी लिख लिया है। मैं चाहता हूँ कि वे ही अपने नेतृत्व में ग्रन्थमाला के साधनों को देखते हुए शेष कार्य को भी शीघ्रातिशीघ्र पूरा करा दें ताकि वह प्रकाशन के लिए दिया जा सके। __इसका प्राक्कथन डा. वासुदेवशरण जी अग्रवाल ने लिखा है। इसके लिए ग्रन्थमाला समिति की ओर से उनके प्रति अाभार प्रदर्शित करना में अपना कर्तव्य समझता हूँ। आशा है कि भविष्य में भी इस महान् कार्य में उनका मार्गदर्शन प्राप्त होता रहेगा । अब तक इस कार्य में आर्थिक या दूसरे प्रकार से अन्य जिन महानुभावों ने योगदान किया है, इस अवसर पर मैं उन सबका भी आभार मान लेना अपना कर्तव्य समझता हूँ। यह कार्य बहुत बड़ा है। इसमें आर्थिक और बौद्धिक सभी प्रकार का सहयोग अपेक्षित है। मुझे विश्वास है कि मविष्य में भी श्री ग० व० ग्रन्थमाला को उनका सहयोग मिलता रहेगा। जिस पुण्यात्मा के संस्मरण स्वरूप ग्रन्थमाला की स्थापना हुई Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थी वह विभूति अब हमारे बीच में नहीं है। यह एक बहुत बड़ी क्षति है, जिसका मैं ही क्या समग्र जैन समाज अनुभव करता है । फिर भी यह हमारा भाग्य है कि उनका पुण्य आशीर्वाद हमारे साथ है । मुझे भरोसा है कि उनके पाशीर्वाद के फलस्वरूप ग्रन्थमाला समिति ने जो यह कार्य अपने हाथ में लिया है वह अवश्य ही पूरा होगा। श्री जैन शिक्षा संस्था। निवेदक कटनी (जबलपुर) जगन्मोहनलाल शास्त्री २५-३-६३ (उपाध्यक्ष श्री ग० वर्णी जैन ग्र०) श्री गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रंथ माला को श्री जैन साहित्य के इतिहास निमित्त जो आय हुई __ और इस मदमें अभी तक जो व्यय हुआ उसका विवरण आय १५००) श्रीमान् सिंघई श्रीनन्दनलाल राजकुमार जी बीना इटावा १००१) स्व० श्रीमान् सेठ लालचन्द जी दमोह ६५१) दि० जैन समाज विदिशा ५०१) श्रीमान् श्रीमन्त सेठ लक्ष्मीचन्द जी राजेन्द्रकुमारजी विदिशा ५०१) श्रीमान् अवीरचन्द रूपचन्द जी कुमार स्टोर विदिशा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) ५००) श्रीमान् वाबू छोटेलाल जी कलकत्ता ५०१) श्री दि० जैन समाज जसवन्तनगर ४००) श्री दि० जैन समाज जबलपुर १५०) श्री हिंसा प्रतिष्ठान, श्रीमान् लाला सीताराम फीरोजीलाल जी दिल्ली (१५१) ट्रष्टियान, स० सि० टोडरमल कन्हैया लाल जी दि० जैन. पा० ट्रष्ट कटनी १००) श्रीमान् कन्हैयालाल नेमिचन्द जी पलवल ५१) श्रीमान् नेमिचंद सुभाषचंद जी साईकिल मार्ट पुरानी चरहाई जबलपुर ५०) श्रीमान् मूलचन्द भागचंद जी इटोरया दमोह ६०५७) कुल योग १०५२७-६८ पारिश्रमिक ८३ - २६ स्टेशनरी, पोष्टेज, रिक्सा व फुटकर ३०८-६७ सफर खर्च व्यय २२८१-१६ छपाई - कागज १०००-० लगभग ( जो पारिश्रमिक, छपाई और पुस्तक बाइडिंग आदि के बिल के भुगतान में भी करना शेष है। ) १४२०१-४३ कुल योग नोट - इस ग्रन्थपर जो पारिश्रमिक व्यय है वह पूरे ग्रन्थका है, जिसका प्रथम भाग यह ( पीठिका) है और दूसरा भाग प्रकाशनार्थ तैयार रखा है । लेखन-व्ययमें वह सब व्यय भी सम्मिलित है, जो अन्य सहायकों पर हुआ है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन काशीपुरी जैनधर्म का प्राचीन तीर्थ स्थान है। वहीं श्री स्याद्वाद महाविद्यालय नामकी अतिविशिष्ट विद्या संस्था गंगा तट पर स्थित है। पूज्यपाद श्री वर्णी जी ने अपने तपःपूत आदर्श के अनुसार सन् १६०५ में इसकी स्थापना की थी। उसके वर्तमान विद्याध्यक्ष श्री कैलाशचन्द्र जी शास्त्री ने 'जैन साहित्य के इतिहास की पूर्व पीठिका' नामक अन्वेषण युक्त ग्रन्थ लिखा है जिसका मैं स्वागत करता हूँ। लगभग ५ वर्ष पूर्व मेरे मन में जैन साहित्य के बृहत् इतिहास निर्माण का एक विचार उत्पन्न हुआ था। काशी के जैन विद्वानों में उसके प्रति उत्साह उत्पन्न हुअा। मुझे इस बात की अत्यन्त प्रसन्नता हुई कि श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों मान्यताओं के अनुयायी विद्वानों ने उसका स्वागत किया । तदनुसार पार्श्वनाथ आश्रम की ओर से श्री दलसुख भाई मालवणिया की देख-रेख में जैन साहित्य का इतिहास पांच भागों में लिखा जाने लगा। उसका पहला भाग तैयार है पर अभी तक वह प्रकाशित होकर सामने नहीं पाया । दूसरी ओर स्व० श्री महेन्द्र कुमार जी जैन ने श्री वर्णी जैन ग्रन्थमाला की ओर से अपने सहयोगियों के साथ इस साहित्य का इतिहास दिगम्बर सामग्री के आधार पर विरचित करने का संकल्प किया। श्री महेन्द्र कुमार अत्यन्त प्रतिभाशाली विद्वान थे। वे काशी विश्व विद्यालय में बौद्ध दर्शन के प्राध्यापक थे। उनकी प्रेरणा से यह कार्य समय पाकर संसिद्ध होने को था, किन्तु ईश्वर की इच्छा कि वे अकाल में ही स्वर्गवासी हो गये। मुझे इस बात का बहुत हर्ष है कि उनके घनिष्ठ सहयोगी और मित्र श्री पं० कैलाशचन्द्र जी ने उस पवित्र संकल्प को न केवल अविस्मृत ही रखा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८ ) वरन् अपनी श्रमशीलता और प्रज्ञा से उसे मूर्तरूप भी दे डाला । फल स्वरूप जैन साहित्य के इतिहास की यह पूर्व पीठिका विद्वानों के सामने आ रही है। __ इस ग्रन्थ में जैनधर्म की मूल स्थापना से लेकर संघ भेद तक के सुदीर्घ काल का इतिहास लिखा गया है। इसमें श्रमण परम्परा इस देश में जिस प्रकार विकसित हुई उसका विवेचन किया गया है । इतिहास लेखन विशेष कला है। उसमें प्रमाण सामग्री और लेखक की निजी दृष्टि के अनुसार उसकी व्याख्या, इन दो चक्रों पर ऐतिहासिक लेखन का रथ गतिशील होता है। ___ यह सुविदित है कि जैनधर्म की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है । भगवान महावीर तो अन्तिम तीर्थङ्कर थे । मिथिला प्रदेश के लिच्छवी गणतंत्र से, जिसकी ऐतिहासिकता निर्विवाद है, महावीर का कौटुम्बिक सम्बन्ध था । उन्होंने श्रमण परम्परा को अपनी तपश्चर्या के द्वारा एक नई शक्ति प्रदान की जिसकी पूर्णतम परम्परा का सन्मान दिगम्बर परम्परा में पाया जाता है। भगवान महावीर से पूर्व २३ तीर्थङ्कर और हो चुके थे। उनके नाम और जन्म वृत्तान्त जैन साहित्य में सुरक्षित हैं। उन्हीं में भगवान ऋषभदेव प्रथम तीर्थङ्कर थे जिसके कारण उन्हें आदिनाथ कहा जाता है। जैन कला में उनका अंकन घोर तपश्चर्या की मुद्रा में मिलता हैं । ऋषभनाथ के चरित का उल्लेख श्रीमद्भागवत में भी विस्तार से आता है और यह सोचने पर बाध्य होना पड़ता है कि इसका कारण क्या रहा होगा ? भागवत में ही इस बात का भी उल्लेख है कि महायोगी भरत ऋषभ के शत पुत्रों में ज्येष्ठ थे और उन्हीं से यह देश भारत वर्ष कहलाया येषां खलु महायोगी भरतो ज्येष्ठः श्रेष्ठगुण आसीत् । येनेदं वर्ष भारतमिति व्यपदिशन्ति । -भागवत ५।४'। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागवत में एक और भी अाश्चर्य जनक तथ्य लिखा है 'तेषां वै भरतो ज्येष्ठो नारायणपरायणः । विख्यातवर्षमेतद् यन्नाम्ना भारतमद्भुतम् ।। -भागवत ११।२।१७। इसके अनुसार भरत भी परम भागवत थे और नारायण भगवान् विष्णु के भक्त थे । अत एव एक ओर जहां जैनधर्म में उनका अत्यन्त सम्मानित पद था, वहीं दूसरी ओर भागवत जनता भी उन्हें अपना अाराधा मानती थी। इतना ही नहीं, ऋषभ और भरत इन दोनों का वंशसम्बन्ध उन्हीं स्वायंभुव मनु से कहा गया है जिनसे और भी ऋषियों का वंश और राजर्षियों की परम्परा प्रख्यात हुई। स्वायंभुव मनु के प्रियव्रत, प्रियव्रत के पुत्र नाभि, नाभि के ऋषभ, और ऋषभदेव के सौ पुत्र हुए जिनमें भरत ज्येष्ठ थे। यही नाभि अजनाभ भी कहलाते थे जो अत्यन्त प्रतापी थे और जिनके नाम पर यह देश अजनाभ वर्ष कहलाता था। प्रियव्रत ने अपने अग्नीध्र आदि सात पुत्रों को सप्त द्वीपों का राज्य दिया था। उनमें अग्नीध्र को जम्बूद्वीप का राज्य मिला। अग्नीध्र की भार्या पूर्वचिति अप्सरा से नौ खण्डों में राज्य करने वाले नौ पुत्रों का जन्म हुअा। उनमें ज्येष्ठ पुत्र नाभि थे, जिन्हें अजनाभ खण्ड का राज्य प्राप्त हुआ | यही अजनाभ खण्ड पीछे भरतखण्ड कहलाया। नाभि के पौत्र भरत उनसे भी अधिक प्रतापवान चक्रवर्ती थे। यह अत्यन्त मूल्यवान् एतिहासिक परम्परा किसी प्रकार पुराणों में सुरक्षित रह गई है। वायु पुराण ३३१५१-५२, मार्कण्डेय पु० ५३।३६४०, में भी इसी प्रकार की अनुश्रति पाई जाती है । ये उद्धरण जेन अनुश्रुति की ऐतिहासिकता सूचित करते हैं । २२ वें तीर्थङ्कर नेमिनाथ कृष्ण और बलराम के चचेरे भाई थे ऐसा जैन साहित्य में उल्लेख है। जैन कला में भी नेमिनाथ की मथुरा से प्राप्त मूर्तियों में कृष्ण और बलराम का अङ्कन दोनों ओर पाया जाता है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) सिन्धु घाटी में भी दो नग्न मूर्तियां मिली हैं। इनमें से एक कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित पुरुषमूर्ति है। दूसरी को भी अब तक पुरुष मूर्ति कहा जाता है। किन्तु ध्यान से देखने पर ज्ञात होता है कि वह नृत्य मुद्रा में स्त्री मूर्ति है । अभी पहली मूर्ति की पहचान किस प्रकार की जाये यह महत्त्वपूर्ण प्रश्न बना ही रहता है । अथर्ववेद के एक मंत्र में महानग्न पुरुष और महानग्नी स्त्री के मिथुन का उल्लेख पाता है महानग्नी महानग्नं धावन्तमनुधावति । इमा स्तदस्य गा रक्ष यभमामध्यौदनम् ।। __ -अथव० २०११२६।११ किन्तु जैन और कुछ जैनेतर विद्वान भी पुरुष मूर्ति की नग्नता और कायोत्सर्ग मुद्रा के आधार पर इसे ऐसी प्रतिमा समझते हैं जिसका सम्बन्ध किसी तीर्थङ्कर से रहा है। सिन्धु लिपि के पढ़े बिना इस विषय में निश्चय से कुछ कहना कठिन है। किन्तु एक दूसरा प्रमाण जो सन्देह रहित है, सामने आ जाता है । वह पटना के लोहानीपुर मुहल्ले से प्राप्त एक नग्न कायोत्सर्ग मूर्ति है। उस पर मौर्य कालीन अोप या चमक है और श्री काशीप्रसाद जायसवाल से लेकर अाज तक के सभी विद्वानों ने उसे तीर्थङ्कर प्रतिमा ही माना है। उस दिशा में वह मूर्ति अब तक की उपलब्ध सभी बौद्ध तथा ब्राह्मण धर्म सम्बन्धी मूर्तियों से प्राचीन ठहरती है। कलिंगाधिपति खारवेल के हाथीगुम्फ शिला लेख से भी ज्ञात होता है कि कुमारी पर्वत पर जिन प्रतिभा का पूजन होता था। इन संकेतों से इंगित होता है कि जैन धर्म की यह ऐतिहासिक परम्परा और अनुश्रुति अत्यन्त प्राचीन थी। वस्तुतः इस देश में प्रवृत्ति और निवृत्ति की दो परम्पराएँ ऋग्वेद Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) के समय में भी प्रचलित थीं। प्रवृत्ति परम्परा को देव परम्परा कहते थे । यज्ञविधि और चार अाश्रम उसी के अंग थे । निवृत्ति परम्परा को मुनि परम्परा कहा जाता था। वानप्रस्थ धर्म और श्रमण विधि उसकी विशेषताएँ थीं। ऋग्वेदके दशममण्डलके १३५वें सूक्तके कर्ता सात वातरशना मुनि थे। यथा-१ जूति, • वातजूति, ३ विप्रजूति, ४ वृषाणक ५ करिक्रत, ६ एतशः ७ ऋष्यशृङ्गः एते वातरशना मुनयः।' वातरशना का वही अर्थ है जो दिगम्बर का है। वायु जिनकी मेखला है अथवा दिशाएँ जिनका वस्त्र है। दोनों शब्द एक ही भाव के सूचक हैं । इस सूक्त में वातरशना मुनियों को मलधारी सूचित किया गया है । ज्ञात होता है कि भस्म आदि मलने से उनकी जटाएँ पिशङ्ग या कपिल वर्ण की दिखाई पड़ती थीं। जैसे आज कल के धूनि रमाने वाले साधुओं की होती हैं___'मुनयो वातरशना पिशङ्गा वसते मलाः। -ऋग्वेद १०।१३।२। इसी सूक्त के पाँचवें मन्त्र में स्पष्ट कहा है कि एक-एक देव के साथ एक-एक मुनि उसका सखा है मुनिर्देवस्य देवस्य सौकृत्याय सखा हितः-१०।१३५॥५॥ इन उल्लेखों का ऐतिहासिक महत्त्व बहुत कुछ है। देव परम्परा के तुल्य ही मुनि परम्परा की लोकप्रियता भी इससे सूचित होती है । महाभारत में तो स्पष्ट उल्लेख है कि प्रजापति ब्रह्मा ने सृष्टि के लिए सनक' आदि सात पुत्रों को उत्पन्न किया। किन्तु वे निवृत्तिमार्गी १-'सनः सनत्सुजातश्च सनकः ससनन्दनः । सनत्कुमारः कपिलः सप्तमश्च सनातनः।।७२॥ सप्त ते मानसाः प्रोक्ता ऋषयो ब्रह्मणः सुताः। स्वयमागतविज्ञाना निवृति धर्ममास्थिताः ॥७३।। -महाभारत, शान्तिपर्व । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) होकर वन में चले गये। तब ब्रह्मा ने दूसरे सात पुत्र उत्पन्न किये । और उन्होंने प्रवृत्ति का श्राश्रय लेकर प्रजात्रों को उत्पन्न किया । निवृत्तिमार्गीय श्रमणों के अनेक सम्प्रदाय महाबीर और बुद्ध के समय में थे और उनसे पूर्व भी विद्यमान थे एवं उसके बाद भी चलते रहे । अशोक ने इसी आधार पर श्रमण ब्राह्मणों का उल्लेख किया है । उसका अभिप्राय ब्राह्मण और श्रमणोंकी दो पृथक परम्पराओं के अस्तित्व से ही था । पतञ्जलि ने पाणिनि के 'एसा रोधः शाश्वतिकः ' सूत्रपर ‘श्रमण-ब्राह्मणम्' उदाहरण देते हुए सूचित किया है कि श्रमणों और ब्राह्मणों का पृथक-पृथक अस्तित्व लगभग शाश्वत काल से था । जैसा हम देख चुके हैं ऋग्वेद से भी यह ज्ञापित होता है । श्रमण भिक्षु संस्था का जैन, ब्राह्मण और बौद्ध सामग्री के आधारपर पूरा और तुलनात्मक अध्ययन भी नहीं हुआ है। उससे विदित होगा कि गोत्रतिक, श्वात्रतिक, दिशात्रतिक श्रादि सैकड़ों प्रकार के श्रमणमार्गी आचार्य थे। उन्हीं में से एक निर्ग्रन्थ महाबीर हुए और दूसरे बुद्ध । औरों की परम्परा लगभग नामशेष हो गई या ऐतिहासिक काल में विशेष रूप से परिवर्तित हो गई । कपिल और जैगीषव्य श्रमण या निवृत्तिमागाँ आदर्शों के मानने वाले थे किन्तु उनका केवल दर्शन बचा है सम्प्रदाय नहीं । ज्ञात होता है कि बाद के शैव माहेश्वर सम्प्रदाय में उनका अन्तर्भाव हो गया और उनके दार्शनिक सिद्धान्त को भी, जो मूल में अनीश्वरवादी था, सेश्वर बनाकर एक और पाशुपत शैवों ने दूसरी चोर भागवतों ने अपना लिया । इस विषय में पुराणों में पर्याप्त सामग्री है | इन पुराणों से हमारा तात्पर्य यह बतलाना है कि भारतीय संस्कृति में निवृत्तिधर्मी श्रमण परम्परा और प्रवृत्तिमार्गी गृहस्थ परम्परा दोनों दो बटी हुई रस्सियों की तरह एक साथ विद्यमान रही हैं और दोनों Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में बहुत कुछ अादान-प्रदान भी चलता रहा है। श्रमण परम्परा के कारण ब्राह्मण धर्म में वानप्रस्थ और सन्यास को प्रश्रय मिला, एवं शंकराचार्य ने तो दशनामी संन्यासियों के रूप में मानों श्रमणों जैसा ही नया संगठन खड़ा कर दिया, जो आज तके जीवित है । उधर ब्राह्मणों और भागवतों के गृहस्थ सम्बन्धी सम्मानित प्रादों से श्रमण सम्प्रदायमें भी गृहस्थ आश्रम को प्रतिष्ठा प्राप्त हुई जो अाज भी जैनधर्म में सुरक्षित है। प्राचीन उल्लेखों से ज्ञात होता हैं कि अनेक गृहपति बौद्ध धर्म के अाधार स्तम्भ थे। ___इन मिले जुले तारों या उलझे हुए धागोंको सुलझाना ऐतिहासिक का कर्तव्य है। इसके लिए मन में सहानुभूति और सहिष्णुता की परम श्रावश्यकता है। सच्चे ऐतिहासिक को उस प्रकार का मानस. अपने भीतर बनाना चाहिए जो राष्ट्रीय संस्कृति के समग्र तत्त्वों को सम्प्रीति के चक्ष से देख सके। इस उद्देश्य से सामग्री को दृष्टिपथ में लाने वाले जितने भी प्रयत्न हों, स्वागत के योग्य हैं । सत्य यह है कि हमारी निजी व्यक्तिगत मान्यताओं से इतिहास के देवताओं का श्रासन कहीं ऊँचा है। हमें प्रयत्न करना चाहिये कि हमारे अन्वेषण के दो पुष्प वहां तक , पहुँच सकें । इस दृष्टि से हम श्री कैलाश चन्द्र जी के इस प्रयत्र का अभिनन्दन करते हैं। मालवीय जयन्ती। ( डा० ) वासुदेव शरण अग्रवाल काशी विश्व-विद्यालय अध्यक्ष इन्डोलॉजी कालेज Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक के दो शब्द भारतीय साहित्य में जैन साहित्य का भी अपना एक विशिष्ट स्थान है किन्तु उसके इतिहास लेखन की ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया । डा० विन्टरनीट्स ने जर्मनभाषा में जो भारतीय साहित्य का इतिहास लिखा था और जिसका अंग्रेजी अनुवाद भी उपलब्ध हैं उसमें उन्होंने जैनसाहित्य के सम्बन्ध में भी एक छोटा सा प्रकरण दिया है। किन्तु वह भी बहुत संक्षिप्त और अपूर्ण है। श्री मोहनचन्द दलीचन्द देसाई ने गुजराती भाषा में 'जैनसाहित्य नो इतिहास' लिखा था और वह जैनश्वताम्बर कान्फेंस बम्बई की ओर से प्रकाशित हुआ था। किन्तु उसमें केवल श्वेताम्बर साहित्य को ही अपनाया गया था। अतः दिगम्बरीय जैनसाहित्य का कोई क्रमबद्ध इतिहास नहीं लिखा गया । दिगम्बर जैन विद्वानों में अपने साहित्य के प्रति अभिरुचि होते हुए भी उसके इतिहास के प्रति कोई अभिरुचि नहीं है और इसका कारण यह है कि इस देश के विद्वानों में प्रारम्भ से ही इतिहास के प्रति अभिरुचि नहीं रही । अाज भी संस्कृत भाषा के उच्चकोटि के विद्वान भी इतिहास को अनुपयोगी ही समझते हैं। किन्तु देश के इतिहास की तरह साहित्य का इतिहास भी उपयोगी होता है । उससे ग्रन्थगत और विषय गत बातों के सम्बन्ध में अभिनव प्रकाश पड़ता है और अनेक ऐसे तथ्य प्रकाश में आते हैं जिनकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। अतः किसी ग्रन्थ का विषयगत हार्द समझने के लिए उस ग्रन्थ और ग्रन्थफार की सामयिक परिस्थिति तथा उसके पूर्वज ग्रन्थों और ग्रन्थकारों का उसपर प्रभाव भी जानना आवश्यक होता है। और ये सब साहित्य के इतिहास को जाने बिना सम्भव नहीं है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) दिगम्बर जैन समाज में सर्व प्रथम इस विषय की अोर श्री नाथूराम जी प्रेमी तथा पं० जुगल किशोर जी मुख्तार का ध्यान गया । इन दोनों अादरणीय व्यक्तियों ने अपने पुरुषार्थ और लगन के बल पर अनेक जैनाचार्यों और जैनग्रन्थों के इतिवृत्तों को खोजकर जनता के सामने रखा । अाज के जैन विद्वानों में से यदि किन्हीं को इतिहास के प्रति अभिरुचि है तो उसका श्रेय इन्हीं दोनों विद्वानों को है। कम से कम मेरी अभिरुचि तो इन्हीं के लेखों से प्रभावित होकर इस विषय की ओर आकृष्ट हुई। सन् १९५४ के करीब कुछ सामयिक परिस्थिति वश, जिसका संकेत डा. वासुदेव शरण अग्रवाल ने अपने प्राक्कथन के प्रारम्भ में किया है, जैनसाहित्य के इतिहास निर्माण की चर्चा बड़े जोरों से उठी और उसको उठाने का बहुत कुछ श्रेय न्यायाचार्य पं० महेन्द्र कुमार जी को था । उसी के फल स्वरूप श्री गणेश प्रसाद वर्णी ग्रन्थमाला काशी ने उस कार्य का भार उठाया और कुछ विद्वानों को उसका भार सौंपा, जिनमें एक मेरा भी नाम था । पं० महेन्द्र कुमार जी तो स्वर्गवासी हो गये और मुझे अकेले ही इस भार को वहन करना पड़ा। मैं न तो कोई इतिहास का विशिष्ट अभ्यासी विद्वान हूँ और न ऐसे महान् कार्य के लिए जिस कोटि के ज्ञान की अाबश्यकता है वैसा मुझे ज्ञान ही है। किन्तु 'न कुछ से तो कुछ बेहतर होता है इस लोकोक्ति को ध्यान में रखकर मैंने यह अनधिकार चेष्टा की है। और इस श्राशा से की है कि मेरी गलतियों से प्रभावित होकर ही शायद कोई अधिकारी व्यक्ति इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए तैयार हो जाये। यदि मेरी यह अाशा पूर्ण हुई तो मैं अपने प्रयत्न को सफल समझंगा। ___यह केवल जैनसाहित्य के इतिहास की पूर्व पीठिका है। जैनसाहित्य का निर्माण जिस पृष्ठभूमि पर हश्रा उसका चित्रण करने के लिये इस पीठिका में जैनधर्म के प्राग इतिहास को खोजने का भी प्रयत्न किया गया है | साहित्य का इतिहास तो अागे प्रकाशित होगा। _ मुझे इस कार्य में जिन महानुभावों से सहयोग मिला उनके प्रति भी आभार प्रकट करना मेरा कर्तव्य है। वर्णीग्रन्थ माला के मंत्री पं० वंशीधर जी व्याकरणाचार्य और संयुक्त मंत्री पं० फूलचन्द जी सिद्धान्त शास्त्री का मुझे पूरा सहयोग प्राप्त हुअा और बे बराबर मेरा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्साह बढ़ाते रहे । यदि उनकी अोर से मुझे प्रोत्साहन न मिलता तो मैं भी शायद ही आगे बढ़ सकता । इस अवसर पर पूज्य श्री गणेश प्रसाद जी वर्णी महाराज का स्मरण भी बरबस हो पाता है। जब भी उनके दर्शनों के लिए ईसरी जाना होता, बे बराबर कार्य की प्रगति के बारे में पूछते थे। खेद है कि इस पुस्तक के प्रकाशन के पूर्व ही वह स्वर्गवासी हो गये। हिन्दू विश्व विद्यालय के पुस्तकालय में बैठकर मैंने महीनों तक पुरानी फाइलों और रिपोर्टों का अनुगम किया है और इसके लिए पुस्तकालय के तत्कालीन अध्यक्ष श्री विश्वनाथन् तथा इन्डोलाजी कालिज के तत्कालीन अध्यक्ष डा० राजबलि पाण्डेय का कृतज्ञ हूँ। श्री काशी विद्यापीठ के भगवानदास स्वाध्यायपीठ से भी मुझे अनेक पुस्तके प्राप्त हो सकी । उसके अध्यक्ष मेरे अनुज प्रो० खुशालचन्द गोरावाला हैं। उनके प्रति अपना सौहार्दभाव प्रकट करता हूँ। पार्श्वनाथ विद्याश्रम वाराणसी के अधिष्ठाता मुनिवर श्री कृष्णचन्द्राचार्य के सौजन्य से मुझे आश्रम के पुस्तकालय से भी पुस्तकें प्राप्त हुई, एतदर्थ मैं मुनिजी के प्रति भी कृतज्ञ हूँ। देहला के लाला पन्नालाल जी अग्रवाल तथा जयपुर के डा० कस्तूर चन्द जी काशली वाल के द्वारा भी हस्तलिखित ग्रन्थ प्राप्त हो सके हैं। जैन सिद्धान्त भवन पारा के तत्कालीन पुस्तकाध्यक्ष पं० नेमिचन्द जी ज्योतिषाचार्य से भी यथावश्यक ग्रन्थ प्राप्त हुए हैं । अतः मैं उन्हें भी धन्यवाद दिये बिना नहीं रह सकता । अन्त में मैं डा. वासुदेव शरण अग्रवाल के प्रति विशेष कृतज्ञ हूँ जिन्होंने अस्वस्थ होते हुए भी इस पीठिका के लिए प्राक्कथन लिखा देने का कष्ट उठाया। ___क्या मैं आशा करूँ कि इस पीठिका को पढ़कर पाठक जैनसाहित्य के इतिहास के प्रति उत्सुक हो सकेंगे। श्री स्याद्वाद महाविद्यालय __ वाराणसी कैलाशचन्द्र शास्त्रा ऋषभ जयन्ती वी०नि० सं० २४८६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची ७-१८४ १ जैन धर्म के इतिहास की खोज पाश्चात्य विद्वानों में मतभेद याकोबी और वुलहर की खोजें जैन धर्म की प्राचीनता प्राचीन स्थिति का अन्वेषण वैदिक साहित्य के सम्बन्ध में आर्यजन वेद वेद के सम्बन्ध में तीन पक्ष ऋग्वेद भौगोलिक स्थिति जातियां पणि दास और दस्यु असुर वैदिक देवता दार्शनिक मन्तव्य अन्य वेद और ब्राह्मण जातियां या कबीले Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० عر عر ५५ ( १८ ) भौगोलिक नाम धर्म और दर्शन वैदिक कालीन यज्ञ ब्राह्मण और क्षत्रिय वैदिक काल बिभाग आरण्यक उपनिषद् उपनिषद्, यज्ञ और वैदिक देवता अात्मा और ब्रह्म अात्मजिज्ञासा अात्मविद्याके स्वामी क्षत्रिय दार्शनिक विचारों के विकास में सहायक दो अवैदिकतत्त्व पुनर्जन्म संन्यास श्रमणपरम्परा प्राग ऐतिहासिक कालीन अवशेष सिन्धु घाटी सभ्यता शिश्नदेवाः ऋषभ और शिव व्रात्य हिरण्यगर्भ और ऋषभदेव योग के जनक हिरण्यगर्भ हिन्दू पुराणों में ऋषभदेव विष्णु के अवतार भागवत में ऋषभ चरित १०३ १०७ Vm M. G GFims ११८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३१ १३६ १६३ १७० १७५ १८३ १८५-४:५ १८५ १८७ विष्णु और अवतारवाद महाभारत और गीता अवतारवाद जैन पुराणों में श्रीकृष्ण २२ वें तीर्थकर नेमिनाथ नेमिनाथ की ऐतिहासिकता द्रविड़सभ्यता और जैनधर्म उपसंहार ऐतिहासिक युग में कासी कोसल और विदेह काशीराज ब्रह्मदत्त ब्रह्मदत्त विदेह के जनक के उत्तराधिकारी लिच्छवि .. लिच्छवि गणतंत्र की स्थापना का समय पार्श्वनाथ का वंश और माता पिता प्रव्रज्या और उपसर्ग समकालीन धार्मिक स्थिति पार्श्वनाथ का चातुर्याम भारतीय दर्शनों में जैन दर्शन का स्थान भगवान पार्श्वनाथ की ऐतिहासिकता कतिपय जैन उल्लेख भगवान महावीर निगंठ नाटपुत्त और भगवान महावीर का ऐक्य जन्म स्थान १८८ १८६ १६० १६४ १६६ १६७ २१६ .. २२२ २२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३१ २३६ २४५ २४९ २५२ २५७ २६४ २६५ २७१ २७६ ( २० ) मातृ कुल तथा पितृ कुल गर्भ परिवर्तन विवाह प्रव्रज्या तपस्या और ज्ञान लाभ सर्वज्ञता और सर्वदर्शित्व प्रथम धर्म देशना समवसरण दिव्यध्वनि और उसकी भाषा महावीर भगवान के गणधर क्या पार्श्व और महावीर के धर्म में भेद था महावीर निर्वाण महावीर निर्वाण का समय समकालीन व्यक्ति महावीर के पश्चात् की राज्यकाल गणना बौद्ध काल गणना पौराणिक काल गणना मगध और अवन्ति के राजवंश अवन्ति राज प्रद्योत नन्दों के १५५ वर्ष प्राचार्य काल गणना भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त द्वितीय भद्रबाहु की स्थिति खारवेल के शिला लेख से समर्थन आर्य सुहस्ती और सम्प्रति २८१ २८३ ل ३१२ ३१३ ३१७ ३२० ३२१ س س ३४२ سے ३५४ ३५८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ ३६५ ३६६ ४२५ ( २१ ) नन्दमंत्री शकटाल ३६२ अर्ध फालक सम्प्रदाय संघ भेद के मूल कारण वस्त्र पर विचार ३६४ भ० महावीर तथा उनके पूर्व वस्त्र की स्थिति पार्श्वस्थ-शिथिलाचारी साधु भ० महावीर के पश्चात् वस्त्रकी स्थिति ४०६ अचेलक और नाग्न्य के अर्थ में परिवर्तन ४१६ मंखलिपुत्त गोशालक का जीवन वृत्त गोशालक और परिव्राजक मस्करी और गोशालक ४३४ क्या गोशालफ पार्थापत्यीय था । ४३६ महावीर और गोशालक के सम्मिलन का उद्देश्य तथा पारस्परिक आदान प्रदान श्राचार सम्बन्धी नियम ४४४ मिलन का उद्देश्य ४५४ पार्थापत्यीय और गोशालक श्राजीविक और दिगम्बर ४६३ नग्नता प्राचीन परम्परा से सम्बद्ध है संघ भेद का काल ४८४ संघ भेद का प्रभाव और विकास श्रुतावतार ४ ६ से ७१२ ४४२ ४५६ ४८० ४६२ ४६६ अागम संकलना देवद्धि के कार्य के सम्बन्ध में नया मत देवर्द्धि गणि के पश्चात् की स्थिति ४६६ .. . ५२० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२७ ५२६ ५३४ ५३५ ५४४ ५५१ ५५२ ५५६ ( २२ ) वर्तमान जैन श्रागम और दिगम्बर परम्परा द्वादशांग के अथक में मत भेद गुर्वावली की पद्धति में भिन्नता बौद्ध संगीति और जैन वाचना श्रुत परिचय बारह अंगों के नाम दृष्टिवाद का महत्त्व पूर्वो का महत्त्व पूर्व नाम क्यों ? दृष्टिवाद का लोप क्या दृष्टिवाद का लोप जान बूझ कर किया गया श्वेताम्बर परम्परा में श्रुत के भेद कालिक श्रुत कालिक श्रुत और दृष्टिवाद में अन्तर दृष्टिवाद का विवरण तीन सौ त्रेसठ मत बौद्ध निकाय में बासठ मत श्रुत ज्ञान के बीस भेद पदों का प्रमाण चौदह पूर्वो के पदों का प्रमाण अंगों के पदों के प्रमाण को उपपत्ति श्रुत के अक्षर दृष्टिवाद में वर्णित विषय का परिचय परिकर्म ५५८. ५७१ ५७४ ५७६ ५८३ ५८८ ५६२ ६११ 3rururururu rur सूत्र प्रथमानुयोग Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) ६७१ ६७३ ६७७ चूलिका पूर्वो का परिचय एकादशांग परिचय पूर्वो से अंगों की उत्पत्ति दिगम्बर ग्रन्थों में प्राप्त विषय सूची अंग बाह्य श्रुत अंग बाह्य के भेद अंग बाह्य के भेदों का समीकरण दि० अंग बाह्य का विषय परिचय अंगभिन्न श्वेताम्बरीय श्रागम नन्दि और अनुयोगद्वार बारह उपांग छ छेदसूत्र चार मूलसूत्र दस पइन्ना ६७८ ६८० ६८२ ६८३ ६८८ ६६३ ७०१ ७१० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्यका इतिहास पूर्व-पीठिका १. जैनधर्मके इतिहासकी खोज और उसका परिणाम ___ 'इतिहास' शब्द हमारे लिए नया नहीं है। किन्तु हमारे देशके इतिहास लेखकोंको भी यह मानना पड़ा है कि इतिहासकी जिज्ञासा हमारे देशके जन-साधारणमें और शिक्षित कहलानेवाले वर्गमें भी अत्यन्त मन्द रही है। और आज यदि हमारे इतिहास नेत्र खुले हैं तो पाश्चात्य विद्वानोंके संसर्ग और प्रभावसे। जब पाश्चात्य विद्वान भारतवर्षके निकट सम्पर्कमें आये तो उनका ध्यान इस देशके इतिहासकी ओर गया। पहले तो यही कहा जाता रहा कि मुसलमानोंके आक्रमणसे पूर्व (ईसाकी ११ वीं शती ) भारतका कोई इतिहास नहीं मिलता। किन्तु १७९३ ई० में सर विलियम जोन्सने भारतपर आक्रमण करनेवाले सिकन्दरका इतिहास लिखनेवालोंके 'सैन्द्रोकोट्टस' को जब संस्कृत साहित्यका चन्द्रगुप्त बतलाया तो भारतीय इतिहासकी पूर्वावधि सिकन्दरके आक्रमणकालसे निर्धारित की गई। इसी समयके लगभग ग्रीक और रोमके प्राचीन साहित्यके पण्डित पाश्चात्य विद्वानोंने भारतकी प्राचीन भाषाओंका अध्ययन प्रारम्भ किया। वे यह देखकर आश्चर्य चकित हुए कि संस्कृत १. भा० इ० रू०, जि० १, पृ० ६ । २. कै० हि०, भू०, पृ० १ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका भाषा के शब्द और प्रत्यय ग्रीक और लैटिन भाषासे बहुत मिलते जुलते हैं । इस परसे यह प्रश्न पैदा हुआ कि इस समानताका क्या कारण है ? इसी प्रश्नके समाधान के लिये की गई खोजोंके फलस्वरूप आर्योंके भारतमें श्राकर वसनेकी कथा प्रवर्तित हुई और तुलनात्मक भाषाविज्ञानने जन्म लेकर ऐतिहासिक अनुसन्धान को नई दिशा प्रदान की । उसीके फलस्वरूप ऋग्वेदको विश्वकी प्राचीनतम पुस्तक और आर्योंके ज्ञान-विज्ञानका अक्षय भण्डार बतलाया गया । वैदिक साहित्य से परिचित होनेके पश्चात् पाश्चात्य विद्वान् क्रमसे बौद्ध और जैन साहित्य के सम्पर्क में आये | और उन्होंने अपनी ऐतिहासिक पद्धतिके द्वारा उपलब्ध साधनोंके आधारपर इन धर्मोंकी खोजबीन आरम्भ की। किन्तु उस समय तक युरोप में जैन ग्रन्थों का मिलना दुर्लभ था, अतः बहुत समय तक वे जैन धर्म के सम्बन्ध में कोई स्पष्ट मत नहीं बना सके, और जैन धर्मके आरम्भको लेकर यूरोपीय संस्कृतज्ञ विद्वानोंकी पूर्व पीढी मुख्यरूप से दो मतों में विभाजित हो गई। उस समयकी इस स्थितिका पूरा विवरण डॉ० बुहलरने अपनी पुस्तिका (इं० से० जै० पृ० २३) में इस प्रकार दिया है- 'कोलक, स्टिवेन्सन और थामसका विश्वास था कि बुद्ध जैनधर्मके संस्थापकका विद्रोही शिष्य था । किन्तु उससे भिन्न मत एच० एन० विल्सन, ऐ- वेबर और लॉर्सनका था, और साधारणतया यही मत माना जाता था । उनके मतानुसार जैनधर्म बौद्धधर्मकी एक प्राचीन शाखा थी । इस मतका आवार था जैनों और बौद्धोंके सिद्धान्तों, लेखों और परम्पराओं में समानताका पाया जाना और बौद्धोंके साहित्यकी भाषा से जैन आगमी भाषाका अधिक आधुनिक होना तथा जैन आगमोंके प्राचीन होने में विश्वसनीय प्रमाणोंका अभाव । प्रथम मैं भी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मके इतिहास की खोज और उसका परिणाम इस मतकी सत्यतामें विश्वास करता था और मैंने जैनों को सम्मतीय ( ? ) बौद्ध शाखाका समझा । किन्तु अंग्रेजी सरकार के लिये ग्रन्थ संग्रह करनेके कारण मुझे जैन साहित्यका विशेष रूपसे परीक्षण करना पड़ा तो मैंने पाया कि जैनोंने अपना नाम बदल दिया है । अति प्राचीन काल में वे निग्रन्थ कहे जाते थे । मैंने देखा कि बौद्ध लोग निग्रन्थोंसे परिचित थे, उन्होंने उनके प्रभाव तथा संस्थापकका वर्णन बुद्धके प्रतिद्वन्दीके रूपमें किया है और लिखा है कि पावामें उसकी मृत्यु हुई। जैनोंमें अन्तिम तीर्थङ्करका निर्वाणस्थान भी पावा माना जाता है। इससे मुझे स्वीकार करना पड़ा कि जैन और बौद्ध एक ही धार्मिक आन्दोलन से उपजे हैं। मेरी इस धारणाका समर्थन जेकोबीने किया । जेकोबी मेरेसे स्वतन्त्र दूसरे मार्गसे लगभग इसी परिणाम पर पहुँचे थे । उन्होंने बतलाया कि बौद्ध त्रिपिटकोंमें अन्तिम तीर्थङ्कर का जो नाम आता है वही नाम जैन श्रागमोंमें भी आया है । इन्डि० एण्टि०, जि० ७ पृ० १४३ में तथा जेकोवीके द्वारा सम्पादित कल्पसूत्रकी प्रस्तावना में हमारे इस मतका प्रकाशन होनेके बाद उक्त प्रश्न पर मतभेद हो गया। ओल्डन वर्ग, कर्न, हार्न तथा अन्य विद्वानोंने हमारे नये मतको बिना किसी हिचकिचाहट के मान लिया । किन्तु ए० वेबर और बार्थ (रि० इ० ) अपने पुराने मत पर ही रहे । बार्थ जैन परम्परा पर विश्वास नहीं और यह संभव मानता है कि जैन परम्पराके कथन असत्य हैं । निश्चय ही इस स्थितिको स्वीकार करने में बड़ी कठिनाइयाँ हैं, बल्कि यह बात अनहोनी-सी है कि बौद्ध लोग अपने घृणित विरोधियोंके धर्म परित्यागकी घटनाको भूल गये ( ? ) | किन्तु यह बात एकदम असंभव नहीं है क्योंकि प्राचीनतम सुरक्षित जैन आगमोंका प्रथम प्रामाणिक संस्करण ईस्वी सनकी पाँचवीं करता Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका अथवा छठी शतीमें तैयार किया गया है। और अभी भी इस बातके समर्थक प्रमाणोंकी आवश्यकता है कि प्राचीन कालमें जैन लोग एक सुनिश्चित परम्पराके अधिकारी थे। मैं तोंकी शृङ्खला में उस खोई हुई कड़ीको जोड़नेमें योग्य हूँ, इस विश्वास और अपने दो आदरणीय मित्रोंके सन्देहोंको दूर करनेकी आशाने मुझे समस्त प्रश्न पर सम्बद्ध कथन करनेके लिये प्रेरित किया है। यद्यपि इसमें पुनरुक्ति भी होगी तथा इसके प्रथम भागमें पूर्णतया जेकोवीकी खोजोंका ही सारांश रहेगा। ___ इस प्रकार डा० याकोवी और वुहलर आदि जर्मन विद्वानोंकी खोजोंके फलस्वरूप जैनधर्म न केवल बौद्धधर्मसे एक स्वतंत्र धर्म प्रमाणित हुआ किन्तु उससे प्राचीन भी प्रमाणित हुआ। बौद्धधर्म के मान्य विद्वान और लेखक श्री रे डेविडसने भी स्वीकार किया है कि भारतके सम्पूर्ण इतिहासमें बौद्धधर्मके उत्थानसे लगाकर आजतक जैन लोग एक व्यवस्थित समाजके रूपमें रहते आये हैं। श्री याकोवी जैनधर्मको बौद्धधर्मसे प्राचीन प्रमाणित करके ही चुप नहीं बैठे, उन्होंने बुद्धसे २५० वर्ष पूर्व होनेवाले भगवान् पार्श्वनाथको भी ऐतिहासिक व्यक्ति प्रमाणित किया, और उनकी इस खोजको भी इतिहासज्ञोंने आदर पूर्वक स्वीकार किया। आज उनकी खोजोंके फलस्वरूप जैनधर्मके २३ वें तीर्थङ्कर भगवान पार्श्वनाथको जैनधर्मका संस्थापक मान लिया गया है। किन्तु जेकोवी अपनी इस शोधको ही अन्तिम सत्य नहीं मानते थे। इसीसे उन्होंने लिखा था-'इसमें कोई सबूत नहीं है कि पार्श्वनाथ जैनधर्मके संस्थापक थे। जैन परम्परा प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेवको जैनधर्मका संस्थापक मानने में एकमत है। इस १. बु० ई०, पृ० १४३ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मके इतिहासकी खोज और उसका परिणाम ५ मान्यतामें ऐतिहासिक सत्यकी संभावना है।' (इं० ए०, जि. ६. पृ० १६३ )। उक्त संभावनाकी पुष्टि डा. राधाकृष्णनने भी अपने भारतीय दर्शनके इतिहास ( जि २. पृ० ०८७ ) में की है। उन्होंने लिखा है-'जैन पर परा ऋषभदेवसे अपने धर्मकी उत्पत्तिका कथन करती है, जो बहुत-सी शताब्दियों पूर्व हुए हैं। इस बातके प्रमाण पाये जाते हैं कि ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दीमें प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेवकी पूजा होती थी। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि जैनधर्म वर्धमान और पार्श्वनाथसे भी पहले प्रचलित था। यजुर्वेदमें ऋषभदेव, अजितनाथ और अरिष्टनेमि, इन तीन तीर्थङ्करोंके नाम आते हैं। भागवत पुराण भी इस बातका समर्थन करता है कि ऋषभदेव जैनधर्मके संस्थापक थे।' __ प्रसिद्ध भारतीय इतिहासज्ञ श्री जयचन्द विद्यालंकारने लिखा है_ 'जैनोंका मत है कि जैनधर्म बहुत प्राचीन है और महावीर से पहले २३ तीर्थङ्कर हो चुके हैं जो उस धर्मके प्रवर्तक और प्रचारक थे। सबसे पहला तीर्थङ्कर राजा ऋषभदेव था, जिसके एक पुत्र भरतके नामसे इस देशका नाम भारतवर्ष हुआ। इसी प्रकार बौद्ध लोग बुद्धसे पहले अनेक बोधिसत्त्वोंको हुआ बतलाते हैं। इस विश्वासको एकदम मिथ्या और निमूल तथा सब पुराने तीर्थङ्करों और बोधिसत्त्वोंको कल्पित अनैतिहासिक व्यक्ति मानना ठीक नहीं है। इस विश्वासमें कुछ भी असंगत नहीं है। जब धर्म शब्दको संकीर्ण पन्थ या सम्प्रदायके अर्थमें ले लिया जाता है और यह बाजारु विचार मनमें रखा जाता है कि पहले हिन्दूधर्म, ब्राह्मणधर्म या सनातनधर्म था फिर बौद्ध और जैनधर्म पैदा हुए, तभी यह विश्वास असंगत दीखता है। यदि आधुनिक हिन्दुओंके आचार व्यवहार और विश्वासको हिन्दू Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका धर्म कहा जाता है तो यह कहना होगा कि बुद्ध और महावीरसे पहले भारतवासियोंका धर्म हिन्दू धर्म न था-वह हिन्दू , बौद्ध जैन सभी मार्गोंका पूर्वज था। यदि उस कालके धर्मको वैदिक कहा जाये तो भी यह विचार ठीक नहीं कि उसमें जैन और बौद्ध मार्गोंके बीज नहीं थे। भारतवर्षका पहला इतिहास बौद्धों और जैनोंका भी वैसा ही है जैसा वेदका नाम लेनेवालोंका। उस इतिहासमें प्रारम्भिक बौद्धों और जैनोंको जिन महापुरुषोंके जीवन और विचार अपने चरित्रसम्बन्धी आदर्शोंके अनुकूल दीखे, उन सबको उन्होंने महत्त्व दिया और महावीर और बुद्धके पूर्ववर्ती बोधिसत्त्व और तीर्थङ्कर कहा। वास्तवमें वे उन धर्मों अर्थात् आचरण सिद्धान्तोंके प्रचारक या जीवनमें निर्वाहक थे जिनपर बादमें जैन और बौद्ध मार्गोंपर बल दिया गया, और जो बादमें बौद्ध जैन सिद्धान्त कहलाये। वे सब बोधिसत्त्व और तीर्थङ्कर भारतीय इतिहासके पहले महापुरुष रहे हों या उनमेंसे कुछ अंशतः कल्पित रहे हों। इतने पूर्वज महापुरुषोंकी सत्तापर विश्वास होना यह सिद्ध करता है कि भारतवर्षका इतिहास उस समय भी काफी पुराना हो चुका था और उसमें विशेष आचार मार्ग स्थापित हो चुके थे। फिलहाल तीर्थङ्कर पार्श्वकी ऐतिहासिक सत्ता आधुनिक आलोचकोंने स्वीकार की है। बाकी तीर्थङ्करों और बोधिसत्त्वोंके वृत्तान्त कल्पित कहानियोंमें इतने उलझ गये हैं कि उनका पुनरुद्धार नहीं हो पाया। किन्तु इस बातके निश्चित प्रमाण हैं कि वैदिकसे भिन्न मार्ग बुद्ध और महावीरसे पहले भी भारत में थे। अहँत् लोग बुद्धसे पहले भी थे और उनके चैत्य भी बुद्धसे पहले थे। उन अर्हतों और चैत्योंके अनुयायी व्रात्य कहलाते थे जिनका उल्लेख अथर्व वेदमें है' (भा० इ० रू. पृ० ३४८)। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण इस तरह देश और विदेशके माने हुए विद्वानोंने संभावना तथा विश्वासके रूपमें इस सत्यको प्रकट किया है कि भगवान् पार्श्वनाथसे पहले भी जैनधर्म प्रचलित था और उसके संस्थापक ऋषभदेव थे। - जहाँ तक जैन मान्यताका प्रश्न है वह इस विषयमें एकमत है कि जैनधर्मके प्रवर्तक भगवान् ऋषभदेव थे। उसकी इस मान्यताका समर्थन हिन्दू पुराण भी करते हैं तथा उड़ीसाकी हाथी गुफासे प्राप्त खारवेलका शिलालेख' भी उसका समर्थक है। २ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण किन्तु ऋषभदेवका समय इतना प्राचीन है कि यहाँ तक पहुँच सकना अशक्य ही है; क्योंकि हमारे पास साधन सामग्री का अभाव है। फिर भी जो संभावना व्यक्तकी गई है और उसमें निहित जिस सत्यकी ओर संकेत किया गया है उसको दृष्टिमें रखकर उपलब्ध साधनोंके द्वारा भगवान पाश्वनाथके समयकी तथा १-इस शिलालेखका परिचय श्रीयुत जायसवालने नागरी प्रचारिणी पत्रिका भाग ८, अंक ३, पृ० ३०१ में प्रकाशित कराया था। उन्होंने लिखा था कि 'अब तकके शिलालेखोंमें यह जैनधर्मका सबसे प्राचीन शिलालेख है। इससे ज्ञात होता है कि पटनाके नन्दके समयमें उड़ीसा या कलिंग देशमें जैनधर्मका प्रचार था। और जिनकी मूर्ति पूजी जाती थी। नन्द ऋषभदेवकी जैन मूर्तिको जो कलिंगजिन कहलाती थी, उड़ीसासे पटना ले श्राया था। जब खार. वेलने मगधपर चढ़ाई की तो वह उस मूर्तिको वहाँ से ले आया। ईस्वी सन्से ४५८ वर्ष पहले और विक्रम सम्बत् से ४०० वर्ष पहले उड़ीसा में जैनधर्मका इतना प्रचार था कि भगवान् महावीरके निर्वाण के कोई ७५ वर्ष बाद ही मूर्तियाँ प्रचलि त हो गई।' श्रादि । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका उससे पूर्वकी धार्मिक स्थिति आदिका परिचय प्राप्त करनेका प्रयत्न किया जाता है। ___ वैदिक साहित्यके आधारसे डा० विन्टरनीट्सने लिखा है कि 'अपनी प्राचीनताके कारण वेद भारतीय साहित्यमें सर्वोपरि स्थित है। जो वैदिक साहित्यसे परिचित नहीं है वह भारतीयोंके आध्यात्मिक जीवन और संस्कृतिको नहीं समझ सकता।' इस युगके प्रायः सभी देशी और विदेशी विद्वानोंका लगभग यही मत है। और एक दृष्टिसे यह ठीक भी है क्योंकि भारतके जिस वर्गसे वैदिक साहित्य सम्बद्ध रहा है, उस ब्राह्मण वर्गका भारतके सांस्कृतिक और धार्मिक निर्माणमें प्रधान हाथ रहा है, यद्यपि यह वर्ग मूलतः वेदानुयायी था किन्तु उसकी ज्ञान पिपासा और सत्यकी जिज्ञासाका अन्त नहीं था। अतः ब्राह्मण होते हुए भी उसकी अतृप्त ज्ञान पिपासा और बलवती जिज्ञासाने,उसे ब्राह्मणत्व की श्रेष्ठताका अभिमान भुलाकर आत्मतत्त्वके वेत्ता क्षत्रियोंका शिष्यत्व स्वीकार करनेके लिये विवश कर दिया। इतना ही नहीं, किन्तु उस वर्गके कतिपय व्यक्तियोंने ही महावीर और बुद्ध जैसे वेदविरोधी धर्म प्रवर्तकोंका शिष्यत्व स्वीकार करके जैनधर्म और बौद्ध धर्मोको भी उसी निष्ठापूर्ण भक्तिसे अपनाया, जिस श्रद्धा भक्तिके साथ वे वैदिक धर्मको अपनाये हुए थे। किन्तु वैदिक साहित्यके सम्बन्धमें भी दो बातें प्रथम ही कह देना उचित होगा। प्रो० रे डेविड्सने लिखा है-यह विश्वास किया जाता है कि ब्राह्मण साहित्यसे हमें ईस्वी पूर्व छठी सातवीं शतीकी भारतीय जनताके धार्मिक विश्वासोंके सम्बन्धकी प्रामाणिक जानकारी मिलती है। यह विश्वास मुझे सन्दिग्धसे भी कुछ अधिक प्रतीत होता है। ब्राह्मणोंने हमारे लिये उस समयके मनुष्योंके जो १. हि० इं० लि, जि० १, पृ० ५२ । २. बु० इ०, पृ० २१०-२१३ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण वास्तविक विचार थे वे उतने सुरक्षित नहीं रक्खे, जितने वे विचार सुरक्षित रक्खे जो वे जन साधारणमें फैलाना चाहते थे। ब्राह्मण साहित्यके सुरक्षित रखनेमें और उसे हम तक पहुँचाने में उन्होंने जो अपार श्रम किया है, जब हम उसका विचार करते हैं तो हमारा मन उनके प्रति प्रशंसासे भर जाता है जिन्होंने मानव विचारों के इतिहासके लिये इतना अमूल्य साहित्य सुरक्षित रखा... - किन्तु उन्होंने हमारे लिये जो कुछ सुरक्षित रखा वह एकदेशीय है।" निश्चय ही जब ऋग्वेद अन्तिम रूपसे संकलित हो चुका भारतके आर्यों में अन्य बहुतसे विचार आमतौरसे प्रचलित थे, जो ऋग्वेद में नहीं पाये जाते।' विद्वान् लेखकका उक्त कथन ऐसा नहीं है जिसे दृष्टिसे ओझल किया जा सके। जो साहित्य किसी विशेष श्रेणी या वर्ग से सम्बद्ध होता है वह उस श्रेणी या वर्गका पूर्ण प्रतिनिधि हो सकता है, किन्तु अन्य सभी विरोधी विचारधाराओंकी उसमें संकलन होना संभव प्रतीत नहीं होता। __दूसरी बात है कालके आकलन की । वैदिक साहित्यके काल को लेकर आज भी चोटीके विद्वानोंमें मतभेद है और वह मतभेद न केवल कुछ वर्षोंका या कुछ दशकोंका ही है, किन्तु हजारों वर्षोंको लिये हुए है। ___ कालक्रमका निर्णय करनेके लिये भाषा और शैलीको विशेषता दी जाती है। किन्तु डा० 'विन्टरनीट्सने लिखा है कि 'भारतमें यह प्रायः पाया गया है कि अर्वाचीन कृतिको प्राचीनताका रूप देनेके लिये उसमें प्राचीन साहित्यकी शैलीका अनुकरण किया गया है । तथा ग्रन्थोंका आदर तथा प्रचार करनेकी दृष्टिसे अथवा उसमें लिखी गई बातोंको प्राचीन सिद्ध करनेके लिये उनके रचयिताके स्थान १. हि० इं० लि. जि० १ पृ० २६ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका पर किसी प्राचीन प्रसिद्ध व्यक्तिका नाम दे देनेकी या ग्रन्थको प्राचीन नाम दे देनेकी भी परिपाटी रही है। उसीके फलस्वरूप बहुत-सी आधुनिक कृतियाँ भी आज उपनिषदोंका नाम धारण किये हुए हैं। ____ इन दो बातोंको दृष्टिमें रखते हुए हम प्रथम वैदिक साहित्यकी ओर आते हैं। आये जन अन्वेषकोंका कहना है कि आर्य जातिकी एक शाखाने भारतवर्षमें प्रवेश करके एक नये समाज की स्थापना की थी। इससे पहले आर्य लोग मध्य एशियामें रहते थे। किन्तु जनसंख्या वृद्धि आदि कारणांसे उनका वहाँ रहना कठिन हो गया और वे दल बनाकर इधर उधर चले गये। जो दल सुदूर पश्चिमकी ओर गया उनके वंशज आजके यूरोपियन राष्ट्र हैं। जो लोग ईरान और भारतकी ओर आये, उनके वंशज ईरानी और भारतीय आर्य हुए। इसके विपरीत स्व० लोकमान्य तिलकका मत था कि आर्य लोगोंका आदिदेश उत्तरीय ध्र वके पासका स्थान था। एक समय पृथिवीका वह भाग मनुष्यों के बसनेके योग्य था। जब वहाँ हिम और सर्दीका प्रकोप बढ़ा तो आर्योंको वहाँसे हट जाना पड़ा। कुछ लोग यूरुपमें बसे, कुछ ईरानमें और कुछ भारतमें। ( अोरन)। अन्य कुछ भारतीय विद्वानोंका एक तीसरा मत है कि ऋग्वेदमें सप्तसिन्धव देशकी ही महिमा गाई गई है। यह देश सिन्धु नदीसे लेकर सरस्वती नदी तक था। इन दोनों नदियोंके बीचमें पूरा पंजाब और काश्मीर आ जाता है । तथा कुम्भा नदी जिसे आज काबुल कहते हैं, उसकी भी वेदमें चर्चा है। अतः अफगानिस्तानका वह भाग Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण ११ जिसमें काबुल नदी बहती है, आर्योंके देशमें गर्भित था । यह सप्तसिन्धव देश ही आर्योंका आदि देश था ( आ. आ. ३३ ) । किन्तु प्राच्य भाषाविद् डा सु चटर्जीका कहना है कि प्राचीन रूढ़िवादी हिन्दूमत कि आर्य भारत में स्वयंभूत हुए थे, विचारणीय ही नहीं है ( भा० आ हि ० पृ० २० ) । इन्हीं आयकी देन वेद है। ही वेद देवी देवताओं और राजा आदिके सम्बन्धमें जो भी कविताएँ तथा मंत्र बनाये गये थे, उनके संग्रहका नाम ही वेद है । ऐसा प्रतीत होता है कि वेद कहाँसे आए, किसने इनको बनाया और कैसे. इनका विकास हुआ, इसका ज्ञान प्रारम्भसे ही किसीको न था । यही कारण है कि वेदोंको अपौरुषेय माना जाता है । किन्तु पाश्चात्य विद्वानोंके मत से इनके निर्माणका काल ईसासे दो हजार वर्ष पूर्वके लगभग है । arat दो व्याख्याएँ मुख्यरूपसे मानी जाती हैं, एक attarai और दूसरी सायणकी । सायणकी व्याख्या ही पाश्चात्य भाषाओं में किये गये वेदोंके भाषान्तरोंकी आधारभूत है । एक तीसरी व्याख्या स्वामी दयानन्दने की है, जो आर्य समाजियोंको मान्य है । सायण और दयानन्दके व्याख्यानों में उतना ही अन्तर है जितना दक्षिण और उत्तर में । विद्वानोंका कहना है कि उक्त वैदिक भाष्यकर्ताओं के भाष्यों में सबसे बड़ी त्रुटि यह है कि उन्होंने वेदोंके उद्गम स्थानका रहस्य जाने बिना ही उन पर भाष्य रचना कर डाली | सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि वेदोंके ऋषि कौन थे, वे कहाँ रहते थे, वेदोंमें किस 1 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका देश तथा लोककी घटनाओंका उल्लेख है ? जब तक पुराने इतिहास तथा पुराणका ज्ञान न हो, तब तक वेदोंका समझना कठिन है। जैसे वैदिकी हिंसाके प्रबल विरोधके कारण उपेक्षित हुए वेदोंकी पुनः प्रतिष्ठाके हेतु स्वामी दयानन्दने वैदिक भाष्य रचा, वैसे ही वेदविरोधी पन्थोंको दबानेके लिये यास्कने ईसासे कई सौ वर्ष पूर्व निरुक्त रचा था । यास्क मुनिके समयमें आचार्य-कोत्सका मत था कि वेदोंके मंत्र निरर्थक हैं (निरुक्त अ १, पाद ५)। ऋग्वेदके मण्डल ५०, सूक्त १०६ के प्रारम्भिक ग्यारह मंत्र इसके उदाहरण हैं, इनमें एक मंत्र है, 'जर्भरी तुर्फरी' । सायण ने भी अपने ऋग्वेद भाष्यमें स्वीकार किया है कि इस मंत्रका अर्थ समझ नहीं पड़ता। अन्य भी कुछ मंत्र हैं जिनके सम्बन्धमें सायणने लिखा है कि इन मंत्रोंसे अर्थका कुछ भी बोध नहीं होता ( ऋग्वेद, भूमिका पृ०७) । और ठीक भी है, ईसासे कमसे कम दो हजार वर्ष पूर्व निबद्ध हुए वेदोंका यथार्थ अभिप्राय ईसासे १५०० वर्ष बाद रचे गये भाष्योंसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है। वेदोंके सम्बन्धमें तीन पक्ष हैं-धार्मिक, ऐतिहासिक और भौगोलिक। तीनोंको दृष्टिमें रखकर ही वेदका परिचय कराना उचित होगा। ऋग्वेद वर्तमानमें उपलब्ध इस संहिता अर्थात् सग्रहमें दस मण्डल हैं। जिनमें कुल १०१७ सूक्त हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि यह १. 'इतिहास पुराणाभ्यां वेदं समुपबृहयेत् ।' इतिहास और पुराणके द्वारा वेदार्थका विस्तार करना चाहिये । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण १३. संग्रह विभिन्न कालों में किया गया है और उसके मूलमें पुरोहित वर्ग में प्रचलित धार्मिक परम्पराको सुरक्षित रखनेकी भावना है । वेदका अन्तिम संकलन वेदव्यासने किया था । ऋग्वेदकी ऋचाओं का अधिकांश भाग वैदिक देवताओंकी स्तुतियों और प्रार्थना से सम्बद्ध है । ऐसी ऋचाओं की संख्या, जो वैदिक देवताओं से सम्बद्ध नहीं हैं, कठिनतासे चार दशक से अधिक होंगी । इन ऋचाओंमें, मुख्यतया प्रथम और दसवें मण्डलमें जो दानस्तुतियाँ हैं, उनमें कुछ जातियों, स्थानों और राजाओं तथा ऋषियों के नाम आते हैं, जिनमें रचयिताने उनकी उदारता की प्रशंसा की है । किन्तु ये दानस्तुतियाँ उतनी प्राचीन नहीं मानी जातीं । भौगोलिक स्थिति वेदों में सप्तसिन्धव देशकी ही महिमा गाई गई है । यह देश सिन्धु नदीसे लेकर सरस्वती नदी तक था । इन दोनों नदियोंके बीच में पूरा पंजाब और पूरा काश्मीर आजाता है । कुम्भानदीका नाम भी आता है, जिसे आजकल काबुल कहते । इससे प्रतीत होता है कि अफगानिस्तानका काबुल नदीवाला भाग भी आके देशमें था । सप्तसिन्धव देशकी सातों नदियोंके नाम थे - सिन्धु, विपाशा (व्यास), शतद्र (सतलज), वितस्ता (झेलम), असिक्की ( चनाव), परुष्णी (रावी) और सरस्वती । इन्हीं सात नदियोंके कारण इस देशको सप्तसिन्धव कहते थे । सरस्वतीके पास ही दृषद्वती थी। मनुस्मृति में (२, ७) में कहा है कि 'सरस्वती और दृषद्वती देवनदियाँ हैं, इनके बीच देवनिर्मित ब्रह्मावर्त देश है ।' ऋक़ १०-७५-५ में गंगा यमुनाका भी नाम आया है. परन्तु यह केवल नामोल्लेख है । इससे इतना ही प्रमाणित होता है कि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा. इ० - पूर्व पीठिका 1 मंत्रकारको इनका पता था । ये दोनों नदियाँ सप्तसिन्धवसे बाहर थीं। आजकल हिन्दुओं में गंगा और यमुनाका बहुत महत्त्व है किन्तु वैदिक काल में यह बात नहीं थी । उन दिनों सिन्धु और सरस्वतीका ही यशोगान होता था । उन्होंके तटपर यकी वस्तियाँ थीं ( ० आ०, पृ० ३८ ) । ऋग्वेद की ऋचाओं का बहुभाग भी सरस्वती के तटपर रचा गया प्रतीत होता है । यह दो अम्बाला से दक्षिण में बहती थी । १४ ऋग्वेद विध्य पर्वतका और नर्मदाका उल्लेख नहीं है, इससे सहज ही यह अनुमान होता है कि आर्योंने तब तक दक्षिण का परिचय प्राप्त नहीं किया था । ऋग्वेदमें सिंहका भी निर्देश नहीं है, जो बंगाल के जंगलोंमें पाया जाता है। चावलका निर्देश भी नहीं है, जब कि बाद के संहिताग्रन्थों में उसका निर्देश पाया जाता है । जातियाँ ( कबीले ) वैदिक आर्य भारतके जिस भागसे परिचित थे, वह भाग विभिन्न जातियोंमें विभाजित था, और प्रत्येक जातिका शासक एक राजा था । ऋग्वेदमें दस राजाओंके एक प्रसिद्ध युद्धका वर्णन है । यह युद्ध भरतों और उत्तर पश्चिमकी जातियोंके बीच में हुआ था । भरतोंका राजा सुदास था। पहले उसका पुरोहित विश्वामित्र था जिसकी संरक्षकतामें भरत लोग अपने शत्रुओंसे सफलता पूर्वक लड़े थे । किन्तु बादको सुदासने विश्वामित्रके स्थान पर वशिष्ठको अपना पुरोहित बनाया । सम्भवतः इसका कारण यह था कि वशिष्ठ उच्च ब्राह्मण था । तबसे दोनों पुरोहितों में विरोधका लम्बा प्रकरण चलता रहा । विश्वामित्रने बदला लेनेके लिये भरतोंके विरुद्ध दस राजाओं में मेल करा दिया । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण १५ इन दसमेंसे पाँचका नाम उल्लेखनीय है, वे हैं-अणु, द्रुह्य , तुर्वक, यदु तथा पुरु। पुरु सरस्वती के तट पर रहते थे, अतः वे भरतोंके पड़ौसी थे। सुदासका पिता अथवा पितामह दिवोदास था। तुर्वशों, यदुओं और पुरुओंके साथ उसका युद्ध हुआ था। किन्तु उसका सबसे बड़ा शत्रु दास शम्बर था, उसके साथ दिवोदासका लगातार युद्ध होता रहा। पणियों, पारावतों और बिसयों के साथ भी उसका युद्ध हुआ। दिवोदास भारद्वाज पुरोहितोंके वंशका संरक्षक था। ऐसा प्रतीत होता है कि दास और पणि सम्भवतया मूलनिवासी थे, जिनसे प्रत्येक आर्य राजाकी लड़ाई हुई। ऋग्वेदमें पुरुओंका उल्लेख अनु, द्रुह्यु , तुर्वश और यदुओंके साथ पाया जाता है। __पुरु लोग यद्यपि युद्ध में सुदाससे हार गये तथापि ऋग्वेदके कालमें पुरु एक बड़ी शक्तिशाली जाति थी। पुरु राजाओंकी असाधारण लम्बी सूची पुरु जातिके महत्त्वको सूचित करती है। पुरुओंके मुख्य शत्रु भरत लोग थे। सम्भवतः उन्होंने ही उन्हें सिन्धु क्षेत्रसे हटाया था। ऋक् ( ७-८-४ ) में पुरुओंको जीतनेके उपलक्ष्यमें भरतोंके अग्निहोत्र करनेका निर्देश है। पुरुओंका एक राजा पुरुकुत्स था और उसके पुत्रका नाम त्रसदस्यु था। दस राजाओंके युद्धमें पुरुकुत्स मारा गया ! ऋग्वेदकी ऋचाओंमें आदिवासियोंके ऊपर पुरुओंकी विजयका उल्लेख मिलता है। ___ ऐसा अनुमान किया जाता है कि बादको पुरु लोग अपने पूर्व विरोधी भरतोंमें मिल गये और फिर दोनों जन कुरुओंमें मिल गये, क्योंकि उत्तरकालमें वैदिक परम्परासे पुरुओंका नाम लोप हो जाता है। ऐसे भी प्रमाण मिलते हैं जो पुरुओंको इक्ष्वाकु सिद्ध करते हैं। शतपथ ब्राह्मण (८,५-४-३) के अनुसार Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ० - पूर्व पीठिका पुरुकुत्स इक्ष्वाकु था । अतः इक्षाकु परम्परा मूलतः पुरुराजाओंकी एक परम्परा थी । उत्तर इक्ष्वाकुओं का सम्बन्ध अयोध्यासे था (वै० इं०. जि०१, पृ० ७५ ) । पुरुओंके सम्बन्ध में एक उल्लेखनीय बात यह है कि शतपथ ब्राह्मणमें ( ६, ८-१-१४ ) उन्हें असुर राक्षस बतलाया है । पणि १६ ऋग्वेद में दासों और दस्युओं के साथ परिणयोंका भी उल्लेख आयके शत्रुरूपमें प्रायः मिलता है । यद्यपि वे धनिक और ऐश्वर्य सम्पन्न थे, किन्तु न तो वैदिक देवताओंकी पूजा करते थे और न पुरोहितों को दक्षिणा देते थे । सन्भवतः इसीलिए वे तीव्र घृणाके पात्र समझे जाते थे । ऋग्वेदमें उन्हें स्वार्थी, यज्ञ न करनेवाला, विरोधी भाषाभाषी, भेड़ियेकी तरह लालची, कंजूस दास और दस्यु बतलाया है । कुछ ऋचाओं में पणियोंका चित्रण दैत्योंके रूपमें मिलता है। वे देवोंकी गायें चुरा लेते थे, वर्षा नहीं होने देते थे । पणि लोग वैदिक देवता इन्द्रको नहीं मानते थे । ऋग्वेद १०- १०८ में इन पाणियोंके साथ इन्द्रकी दूती सरमाका सम्बाद है । जब पाणि लोग वृहस्पतिकी गायें पकड़कर ले गये तो इन्द्रने सरमा नामक दूतीको उनका पता लगानेके लिए भेजा । सरमाने पता लगाकर पणियोंसे कहा - इन्द्रने गायें माँगी हैं, उन्हें लौटा दो । तब पणियोंने पूछा- सरमे ! जिस इन्द्रकी तू दूती है वह कैसा है, और उसकी सेना कैसी है ? इससे यह स्पष्ट होता है कि पणि लोग इन्द्रसे अपरिचित थे । सम्भवतया इसीसे उन्हें 'अनीन्द्र' कहा है । १. १, ३३–३, ८३ - २, १५१-९, १८०-७, ४-२८-७, ५-३४५, ७, ६-१३-३, ८-६४-२, १०-६-६ आदि । २. १-३२-११, २-२४ ६, ४-५८-४, ६-४४-२२, ७-९-२, १०-६७-६ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण १७ असुराः पणयो नाम रसापारनिवासिनः । गास्तेऽपजहुरिन्द्रस्य न्यगृहँश्च प्रयत्नतः ॥ रसाके पार रहनेवाले असुर पणि लोग इन्द्रकी गायें लेकर भाग गये और उन्हें बड़े यत्नसे अपने किलोंमें छिपा दिया। इन्द्रने अपनी दूती भेजी। शतयोजनविस्तारामतरत्तां रसां पुनः । यस्याः पारे परे तेषां पुरमासीत् सुदुर्जयम् ॥ 'दृती सौ योजन विस्तारवाली रसा नदीको तैरकर उस पार पहुंची, जहाँ उन पणियोंका दुर्जय किला था।' अभीतक यह निश्चित नहीं हो सका कि ये पणि कौन थे। संस्कृतके शब्द पणिक या वणिक , पण्य और विपणिसे ऐसा प्रतीत होता है कि पणि लोग ऋग्वैदिककालीन व्यापारी थे। ___ एक विदेशी विद्वान् ( Ludwig ) का मत है कि पणियोंसे लड़नेके उल्लेख स्पष्ट रूपसे बतलाते हैं, वे आदिवासी व्यापारी थे जो समूह बनाकर व्यापारके लिए विदेश जाते थे और आर्योंके आक्रमणसे बचनेके लिये लड़नेको उद्यत रहते थे। अपने इस मतके समर्थनमें वह पणियोंको दास और दस्यु बतलानेवाले उल्लेखोंको उपस्थित करता है । अस्तु जो कुछ हो, इतना स्पष्ट है कि पणि वैदिक आर्योंके देवोंको नहीं पूजते थे। (वै . इं० जि० १, ४७१-७२ । वै० ए०, पृ० २८- ६। कै० हिं, जि १, पृ०८६-८७ )। ऋग्वेदकी अनेक ऋचाओंमें दस्यु शब्द आया है कुछमें दैवी शत्रुओंके लिये प्रयुक्त हुआ है और कुछमें मानवीय शत्रुओंको, जो सम्भवतया इस देशके आदिवासी थे, दस्यु कहा है। आर्यों और दस्युओंके बीचमें जो बड़ा भेद था वह था उनका धर्म । दस्यु यज्ञ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ०-पूर्व पीटिका नहीं करते थे । ऋग्वेदमें ( १०-२२-८ ) में उन्हें अ-कमो-क्रिया काण्ड न करने वाला, 'अदेवयु देवताओंका अपक्षपाती, अब्राह्मण, अयज्वान'-यज्ञ न करनेवाला, अ-व्रत-व्रत रहित, अन्यत्रत - वैदिक-अतिरिक्त व्रतोंको धारण करनेवाला, देवपीयु'-देवताओं की निन्दा करनेवाला आदि कहा है। इन विशेषणोंसे स्पष्ट है, यहाँ दस्युसे आशय ऐसे मनुष्योंका है जो आर्योंके धर्मको नहीं मानते थे। दासोंके साथ तुलना करनेसे उनमें और दासोंमें थोड़ा ही अन्तर प्रतीत होता है। दस्युओंके कवीले नहीं होते थे। तथा इन्द्रकी दस्यु हत्याका तो प्रायः उल्लेख है किन्तु दास हत्याका नहीं है। ऋग्वेद (५-६-१०) में उन्हें अनास' कहा है । इस शब्दका आशय अनिश्चित-सा है। पदानुक्रमणी तथा सायण भाष्यमें इसका अर्थ अन-आस-विना मुखका किया है। किन्तु 'अ-नास' 'नाक रहित' अर्थ विशेष उपयुक्त प्रतीत होता है, क्योंकि आदिवासी द्रविड़ोंकी नाट चपटी होती थी। दस्युअोंका दूसरा विशेषण 'मृधुवाचः' है जो अनासके साथ आता है। इसका अनुवाद अस्पष्ट वाणी या 'न समझने योग्य वाणी' किया गया है। अर्थात् उनकी बोली आर्य लोग नहीं समभते थे। एतरेय ब्राह्मणमें दस्युका अर्थ भ्रत्यः-असभ्य मनुष्य पाया जाता है। दस्युकी तरह दास शब्दका भी प्रयोग ऋग्वेदकी कुछ ऋचाओंमें दैवी शत्रुके रूपमें किया है, किन्तु बहुत-सी ऋचाओंमें दास शब्द आर्योंके मानव शत्रुओंका सूचक है। दासोंके कवीले थे और पुर थे, जो लोहेके बने थे। उनका वर्ण कृष्ण था। दस्युअोंकी १.ऋ० ८-७०-११ । ऋ० ४-१६-६ । ३.०८-७०-११ । ४. ऋ० ८-७०-११ । ५. अथर्व० १२-१-२७ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . प्राचीन स्थितिका अन्वेषण १६ तरह वे भी 'अनास' और 'मृधुवाचः' थे। तथा बड़े सम्पत्तिशाली थे । इलिविश, धुनि, चुमुरि, शम्बर, वरचिन, पिघु आदि दासोंके राजा थे। बादको इनमेंसे कुछको दैत्यराज और इन्द्र तथा अन्य देवताओंका शत्रु मान लिया गया। किरात, कीकर, चाण्डाल, पर्णाक और सिम्यु वगैरह दास जातियाँ थीं, जो अधिकतर गङ्गाकी घाटीमें रहती थी और जब भरत लोग पूरव और दक्षिण पूरवकी ओर बढ़े तो उनके साथ लड़ी थीं। ऋग्वैदिक ऋषियोंकी दृष्टि में दास और दस्युमें कोई भेद नहीं था, यह बात इससे स्पष्ट है कि कुछ विशेषण समान रूपसे दोनोंके लिये प्रयुक्त किये गये हैं तथा कुछ व्यक्तियोंको दास और दस्यु दोनों कहा है। ___ऋग्वेदमें ऐसे अनेक दुष्ट आत्माओंकी चर्चा है जो देवोंके शत्रु थे और देवताओंके विरुद्ध लड़े थे। ये देवताओंके शत्रु उत्तरकालीन वैदिक साहित्यमें जिस नामसे सम्बोधित किये गये, वह 'असुर' शब्द ऋग्वेदमें अभी तक भी अपने पुराने अर्थ'आश्चर्यजनक शक्तिका धारी' में मौजूद है। ईरानी उच्चारणकी विशेषताके कारण 'स' का उच्चारण 'ह' होनेसे पारसियोंकी अवेस्तामें यह शब्द 'अहुर' के रूपमें वर्तमान है। ___दास और दस्यु शब्द भी, जो भारतके आदिवासी अनार्योंके लिये भी व्यवहृत हुए हैं. ऋग्वेदमें दुष्टोंके लिये पाये जाते हैं। इनके सिवाय राक्षस और रक्षस शब्द भी हैं। ये सब शब्द वैदिक देवताओंके विरोधियों के लिए प्रयुक्त हुये हैं। ___ ऋग्वेदमें जितनी स्तुति इन्द्रकी है, इतनी अन्य सब देवताओं की मिलकर भी नहीं है। अतः इन्दको वैदिक आर्योंका जातीय देवता कहा जा सकता है। ऋग्वेदकालीन आयी एक लड़ाकू Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका जातिके रूपमें थे, सो इन्द्र भी एक योद्धा देवताके रूपमें वणित हैं। अनेक ऋचाओंमें वृत्रके साथ इन्द्रके युद्धका वर्णन है। इन्द्र केवल वृत्रसे ही नहीं लड़ा, किन्तु अन्य भी अनेक दुष्टोंसे लड़ा। इतिहासज्ञोंका मत है कि इन्द्रकी यह लड़ाइयाँ उन लड़ाइयोंकी सूचक हैं जो आर्योंको भारतमें बसने पर यहाँके वासियोंसे लड़ना पड़ी थीं ( विन्ट० हि० लि०, पृ०८४)। __बादके साहित्यमें एक सुसंस्कृत जातिके अनेक उल्लेख पाये जाते हैं, जो असुर कहलाती थी। ये असुर सभ्य पुरुषोंके रूपमें माने गये हैं। किन्तु भारतीय आर्योंके देवताओंको नहीं मानते थे, इसलिए इन्हें हीन वतलाया गया है। महाभारतमें असुरोंका वर्णन एक सुसंस्कृत दानव जातिके रूपमें पाया जाता है, जो मकान बनानेमें चतुर थे, किन्तु जो देवताओंके भी भयानक शत्रु थे। इतिहासज्ञोंका मत है कि पंजावकी भूमिको हस्तगत कर लेनेपर भारतीय आर्योंका संघर्ष एक अधिक सुसभ्य जनताके साथ हुआ था ( प्री• हि० ई०, पृ० १९)। इन्द्र के विषयमें कहा गया है कि उसने सम्वरके सौ प्रासादोंको नष्ट किया था। तथा एक अन्य अनार्य राजा पित्रके नगरोंको उजाड़ा था और शुश्नको लूटा था। सतलज और यमुनाके बीचके उपजाऊ प्रदेशमें आर्योंकी मुठभेट जिन सुसभ्य लोगोंसे हुई उनके महल थे, नगर थे और बे बड़े धनी थे। ये सब द्रविड़ थे और आर्योंसे निश्चित ही अधिक सुसंस्कृत थे। धीरे-धीरे वे सब जीत लिये गये और आर्यों में मिल गये। इनमेंसे कुछ मनुष्योंका ठीक पता नहीं चलता, उन्हें आर्यों में नाग कहते हैं। शतपथ ब्राह्मणमें असुरोंके प्रमुख वृत्रको नाग कहा है। किन्तु महाभारतमें उसे दैत्यराज बतलाया है। जब आर्य पंजावसे गंगाकी ओर बढ़े तो उन्हें चारों ओरसे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण असुरोंने घेर लिया था। पाण्डव-कौरव युद्धके समय इन असुरोंके हाथमें मगध और अाजका राजपूताना था। ये असुर स्थापत्यकलामें अत्यन्त चतुर थे। और आर्य लोग उनकी इस कलाका आदर करते थे। वैदिक साहित्यमें असुरोंके नगरोंको पाताल, हिरण्यपुर, तक्षशिला आदि नामोंसे कहा गया है। पूर्वीय देशोंमें असुरराज जरासन्धकी राजधानी गिरिवज्रकी प्रशंसा भीमने की थी। महाभारतमें लिखा है कि युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञके लिए मण्डप मयदानवने बनाया था (प्री० हि • इं० पृ० २० )। एतरेय ब्राह्मणमें ऋषि विश्वामित्रके सम्बन्धमे एक कथा आती है। उसने अपने पुत्रोंको आर्य देशकी सीमाओंपर वसनेका शाप दिया था। उनकी सन्तानने दस्युओंके बड़े-बड़े गिरोह बनाये और वे आन्न, पुण्ड्र, पुलिन्द, शबर और मूतिव कहलाये । महाभारत, रामायण और पुराणोंमें आन्ध्रों, पुलिन्दों और शबरोंको दक्षिण भारतकी जातियाँ बतलाया है। इनमेंसे प्रथम कलिंगमें और शेष दो विन्ध्य श्रेणीके दक्षिणमें वसते थे। पुण्ड्र लोग बंगालके उत्तर भागमें रहते थे। उन्होंने अपनी राजधानीका नाम पुड्रवर्धनपुर रखा था। . .. ऋग्वेदमें द्यावा-पृथ्वी, वरुण, विश्वकर्मा, अदिति, त्वष्टा, उषस , अश्वी, इन्द्र, ब्रह्मणस्पति, मरुत् , रुद्र, पर्जन्य, अग्नि, सोम, यम, और पितर देवोंका स्तवन किय गया है। भौतिक जीवनकी भौतिक आवश्यकतायें पूर्ण करनेवाले साधन प्राप्त करने के लिए ही मुख्यरूपसे इन देवताओंकी आराधना की जाती थी। वैदिक मंत्रोंकी प्रार्थनाओंमें ऐहिक भौतिक आकांक्षाओंका ही घोष सुन पड़ता है। उनमें अन्न, पशु, धन, शरीरेन्द्रिय सामर्थ्य, भार्या, दास, वीर पुत्र, शत्रुनाश, रोगनिवारण आदिकी माँग मुख्य है । किन्तु उत्तरकालीन भारतीय साहित्यमें बहुतायतसे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका पाये जानेवाले सन्यास धर्मका चिन्ह भी ऋग्वेदकी ऋचाओंमें नहीं मिलता। (हि. इं० लि. ( विन्टर०), जि० १, पृ०६८) बैदिक उपासनामें मित्र और वरुणका बड़ा महत्व था। मित्र सूर्यका नाम है, सूर्य दिनके स्वामी हैं। चन्द्र तारा आदिसे सुशोभित आकाशका नाम वरुण है। वरुण रात्रिके स्वामी हैं। आजकल मित्रके नामसे कोई पूजा नहीं होती । हाँ, सूर्यके नामोंके पाठमें मित्र शब्द भी आजाता है। वरुणका भी वह पद नहीं रहा । तीसरे देव, जिनका वैदिक उपासनामें महत्त्व है, अग्नि है। ऋग्वेदका पहला मंत्र है--- अग्निमीडे पुरोहितम् । यज्ञस्य देवमृत्विजम् होतारं रत्नधातमम् । अग्नि देवोंके पुरोहित हैं। पुरोहितका अर्थ है आगे रखा हुआ। अग्निमें आहुति देकर ही देवोंको तुष्ट किया जा सकता है। अतः अन्य सब देवोंकी उपासना भी अग्निके द्वारा ही हो सकती है। हिन्दुओंमें यज्ञ यागादिके बन्द हो जानेसे अग्निका भी पुराना महत्त्व जाता रहा। किन्तु पारसियोंमें अग्निका वही पुराना पद है। अग्निके द्वारा ही पारसी लोग उपासना करते हैं। ___ चौथे देवता हैं इन्द्र । ऋग्वेदमें जितनी स्तुति इन्द्रकी है उतनी किसी अन्य देवकी नहीं है। बल्कि सब देवोंकी मिलकर भी नहीं है। इन्द्रमें सब देवोंके गुण वर्तमान हैं। वह सब देवोंसे बड़े हैं । उनके बराबर कोई उपास्य नहीं, उनके समान मनुष्योंका कल्याण करनेवाला दूसरा नहीं। उन्हें इन्द्र, वृत्रघ्न, वृत्रहा, माघवा, शतक्रतु आदि नामोंसे पुकारा गया है (आ० प्रा० पृ० ५६-५७)। अग्नि और सोमकी महिमा केवल इन्द्रसे ही कम है। सोम मूलतः बनस्पति था। वैदिक आर्यों में सोमपानकी प्रथा व्यापक थी। पीछे सोमसे चन्द्रमाका अर्थ भी आगया। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण वैदिक देवताओंका मुख्य लक्षण बल सामर्थ्य और शक्ति था, वे मुख्यतः शक्ति और मज़बूतीको देनेवाले थे। पुण्य और भलाईका विचार उनमें नहीं था। धर्मभीरुता और भक्तिकी प्रेरणा उनसे नहीं मिलती थी। आर्य उपासक अपने देवत ओंसे सभी इसी लोककी वस्तुएं माँगता था। देवपूजा और पितृपूजा वैदिकधर्मके मुख्य अंश थे और वह पूजा यज्ञमें आहुति देनेसे होती थी। यज्ञमें आहुति या बलि देनेसे देवताओंकी तृप्ति होती थी। वैदिककालमें आर्योंके धर्मका मुख्य चिन्ह यज्ञ ही थे । वे यज्ञ पुरोहितोंके द्वारा होते थे। यज्ञोंके विकासके साथ साथ पुरोहितोंकी एक श्रेणी बनती गई। और यज्ञोंका आडम्बर बढ़ जानेपर उनका करना धनाढ्योंके लिए ही शक्य होगया। दार्शनिक मन्तव्य ऋग्वेदके दसवें मण्डल में जो अपेक्षाकृत अर्वाचीन है हिन्दू दर्शनके प्रारम्भिक रूपका आभास मिलता है। उसमें बहुदेवता वादके विषयमें शङ्का की गई है और विश्वकी एकता स्वीकार की गई है। सृष्टि विषयक विचार करते हुए सृष्टिको विश्वकर्मा अथवा हिरण्यगर्भकी उपज बताया है। __पुरुष सूक्तमें एक प्राथमिक दैत्यके बलिदानसे, जिसका नाम पुरुष था. सृष्टिका निर्माण हुआ। सांख्यदर्शनमें यह पुरुष नाम आत्माके लिए व्यवहृत हुआ। विद्वानोंके मतानुसार ये विचार ही हिन्दू दर्शनके जनक हुए. ( कै० हि०, जि . १, पृ० १०७ )। ऋग्वेदमें मरणोत्तर जीवन सम्बन्धी विचार नगण्यसा ही है। मुर्दोको या तो जलाया जाता था या दफनाया जाता था। यदि जलाया जाता था तो अस्थियोंको पृथ्वीमें गाड़ दिया जाता था। इससे सूचित होता है कि दफनानेकी पद्धति प्राचीन थी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ जै० सा० इ० - पूर्व पीठिका और यह प्राचीन पद्धति पुनर्जन्म के सिद्धान्तकं प्रभावसे परिवर्तित हो गई जिसका श्रेय भारतीय जलवायुको है । ( के० हि०, जि. १, पृ० १०७ ) । वैदिक आर्योंका यह विश्वास तो था कि शरीरके बाद भी आत्मा जीवित रहता है । इसीसे वे डरकर अपने पुरखों के भूतोंको पूजते थे। किन्तु भविष्य जीवन कभी समाप्त नहीं होता और आत्मा अमर है, ऐसा स्पष्ट विचार आर्यों का होना सन्दिग्ध ही है । अतः वे मरणोत्तर जीवनके सम्बन्ध में विशेष उत्सुकता नहीं रखते थे । फिर भी ऋग्वेद में यत्र तत्र उसकी झलक मिलती है । जैसे दसवें मण्डलमें देवयान और पितृयानका निर्देश है । इसपर से यह अनुमान किया जा सकता है कि इसके द्वारा परलोक में जानेका मार्ग सूचित किया है। एक स्थानपर कहा है कि मृत्युके बाद मनुष्य यमके राज्यमें चला जाता है, जहाँ यम और पितृगण अमरत्वके आनन्द के बीच निवास करते हैं। यज्ञ तथा देवोंकी पूजाके द्वारा ही उस स्वर्ग में जाया जा सकता है (ऋ० १०-१४-८)| ऋग्वेद ( १०- १६- ३ ) में जहाँ मृतात्मासे अन्य स्थानों में जानेके लिए कहा गया है, पुनर्जन्मके बीज कोई विद्वान मानते हैं । इस विषयक समर्थक प्रमाणोंकी इतनी न्यूनता है कि डा० रूथने यही मान लिया कि वैदिक ऋषि मरणोत्तर विनाशवादी थे । पुनर्जन्मके विश्वासका स्पष्ट निर्देश तो ब्राह्मण ग्रन्थोंमें ही मिलता है । ऋग्वेदकालीन आर्य तो इसी लोकके आनन्दके लिये उत्सुक रहते थे। तभी तो ऋवेद दीर्घजीवन, रोगमुक्ति, वीरसन्तान, धन, शक्ति, खान-पानकी बहुतायत, शत्रुओंकी पराजय आदि इहलौकिक सम्बन्धी प्रार्थनाओं से भरा हुआ है । (वै० इं०, जि० २, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण २५ पृ० १७५ । हि. फि० इ० वे०, जि० १, पृ. ४९-५० | कै. हि०, जि० १, पृ० १०७-५०८ । वै० ए० पृ० ३८१) ___ अन्य वेद और ब्राह्मण शेष तीनों वेद और ब्राह्मण ग्रन्थ ऋग्वेदके बादमें रचे गये हैं, क्योंकि इनमें जिस भौगोलिक और सांस्कृतिक स्थितिके दर्शन होते हैं वह ऋग्वेदके पीछेकी है। इस कालमें वैदिक आर्य दक्षिण-पूर्वकी ओर बढ़ गये थे और गंगाके प्रदेशमें बस गये थे। किन्तु ब्राह्मण ग्रन्थोंसे यजु साम और अथर्व विशेष प्राचीन हैं। यह संभव है कि इन संहिताओंका सबसे उत्तरकालीन भाग और ब्राह्मणोंका सबसे प्राचीन भाग एक ही समयमें रचा गया हो, क्योंकि ऋग्वेदकी तुलनामें, अथर्व और यजुर्वेद तथा ब्राह्मण ग्रन्थों परसे जिस भौगोलिक तथा सांस्कृतिक स्थितिका दर्शन होता है उस परसे उक्त मतका समर्थन होता है। अथर्ववेद के समयमें वैदिक आर्य ऋग्वेदीय सिन्धुदेशसे पूरवमें गंमाकी ओर बढ़ गये थे। और यजुर्वेद तथा ब्राह्मण ग्रन्थोंसे जिस प्रदेशकी सूचना मिलती है वह है कुरुवों और पाञ्चालोंका देश । सरस्वती और दृषद्वती नदीके बीचका क्षेत्र कुरुक्षेत्र था और इससे लगा हुआ, उत्तर पश्चिमसे लेकर दक्षिण पूर्व तक फैला हुआ गंगा और जमुनाके बीचका प्रदेश पाञ्चाल था। इसीको ब्रह्मावर्त अर्थात् ब्राह्मणोंका देश कहते थे । यह प्रदेश केवल यजुर्वेद और ब्राह्मण ग्रन्थोंकी जन्म भूमि नहीं था, किन्तु समस्त ब्राह्मण सभ्यताका घर था (विन्ट०, हि० इं० लि० भा० १ पृ० १९६)। ___एतरेय ब्राह्मणमें लिखा है कि कौरक्वंशी राजा भरत दौष्यन्तीने एक सौ तेतीस अश्वमेध यज्ञ किये थे। उनमेंसे ७८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका यज्ञ तो जमुनाके तट पर किये थे और ५५ यज्ञ गंगाके तट पर किये थे। यह उल्लेख उक्त कथनका समर्थक है। सिन्धु देशसे आर्य सभ्यताका प्रसार किधरको हुआ इसका निर्देश शतपथ ब्राह्मणमें मिलता है। लिखा है-सरस्वतीके तटसे अग्निहोत्रने गंगाके उत्तर तट पर गमन किया, और फिर सरयु, गण्डक तथा कोसी नदीको पार करके सदानीरा ( राप्ती ) नदीके पश्चिमी तट पर पहुँचा। उसमें अग्निहोत्रके मगध अथवा दक्षिण विहार तथा बंगालमें प्रवेश करनेका उल्लेख नहीं है। ये उल्लेख बतलाते हैं कि पंजाब तथा उत्तर प्रदेशके भागोंके सिवाय भारतके अन्य भागोंमें वैदिक आर्य अपनी वस्तियाँ नहीं वसा सके थे, (प्री० हि० इं० पृष्ठ २१ ) । एतरेय आरण्यक, ( २, १-१-५ ) में वंग, वगध और चेरपादोंको वैदिक धर्मका विरोधी बतलाया है। इनमेंसे वंग तो निस्सन्देह बंगालके अधिवासी हैं, वगध अशुद्ध प्रतीत होता है, सम्भवतया 'मगध' होना चाहिये । 'चेरपाद' विहार और मध्यप्रदेशके चेर लोग जान पड़ते हैं। डा. भण्डारकरने (भा०, इं०, पत्रिका, जि० १२, पृष्ठ १०५) लिखा है कि 'ब्राह्मण काल तक अर्थात् ईस्वी पूर्व ६०० के लगभग तक पूर्वीय भारतके चार समूह मगध, पुड, वंग और चेरपाद आर्य सीमाके अन्तर्गत नहीं आये थे ।' 'इस प्रकार असुर लोग उस समय विहारसे आसाम तक वसे हुए थे। उनकी अपनी सभ्यता और संस्कृति थी। उन्होंने सुदीर्घ काल तक ब्राह्मण धर्मके आक्रमणका सामना अवश्य ही बड़ी दृढ़तासे किया। अन्तमें ब्राह्मण धर्मने असुरोंकी सभ्यताके ऊपर ही अपनी सभ्यताका बीजारोपण किया। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण जातियां या कबीले इस काल में ऋग्वेद में निर्दिष्ट विभिन्न जातियोंमें बहुत परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है । बहुत सी प्राचीन जातियां या तो लुप्त होगई हैं, या अन्य जातियों में मिल गई हैं अथवा अपना प्राधान्य खो बैठी हैं और अनेक नवीन जातियां प्रकाशमें आती हैं। पंजाब की पांच प्रधान जातियां– पुरु, अनु, द्रुह्यु, यदु और तुर्वश पीछे चली गई हैं । जैसा कि पहले लिखा है -- पुरु भरतों के साथ कुरुओं में मिल गये हैं और अपने इन मित्रोंके साथ-साथ पाञ्चाल लोग इस काल के सर्व प्रधान व्यक्ति हैं । भरत एक जाति के रूप में तो लुप्त हो जाते हैं किन्तु उनके राजाओं की ख्याति जीवित है । भरत दौष्यन्ती और सातराजीतका निर्देश अश्वमेधके कर्ता प्रसिद्ध राजाओं के रूप में आता है । तथा उन्हें काशी और सात्वन्तोंका विजेता और गंगा तथा यमुनाके तटपर अश्वमेध यज्ञ करनेवाला बतलाया है । 1 पञ्चालों, वशों और उशीनरोंके साथ-साथ कुरु लोगोंने मध्य देशपर अधिकार कर लिया था । ऋग्वेद में कुरु श्रवण नामके एक राजाका तो निर्देश है, किन्तु कुरु जातिका निर्देश नहीं है । अथर्ववेद (२०-१२७-७ ) में कुरुराज परीक्षितका वर्णन है । मोटे तौर पर आधुनिक थानेश्वर, दिल्ली और गंगा-दोआबा के ऊपरले भाग कुरु राज्य में थे । २७ पञ्चालोंका निर्देश कुरुयोंके साथ कुरु पञ्चाल रूपसे आता है । ऋग्वेद में पञ्चाल नाम नहीं आता । किन्तु शतपथ ब्राह्मण में लिखा है कि पञ्चालोंका पुराना नाम क्रिवि था जो ऋग्वेद में आता है । कुरुओंसे पृथक अकेले पञ्चालोंके विषय में बहुत ही कम वर्णन मिलता है । उपनिषदोंमें प्रवाहण जैबलि नामक एक पञ्चाल राजा का निर्देश है जो दार्शनिक था । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका महाभारतमें उत्तर पञ्चालों और दक्षिण पञ्चालोंका उल्लेख मिलता है जो वैदिक साहित्यमें नहीं है। इस परसे यह अनुमान किया जाता है कि वैदिक कालके पश्चात् पञ्चालाने अपना राज्य बढ़ाया । मोटे तौरपर बरेली, बदायुं, फर्रुखाबाद तथा उत्तर प्रदेश के इनसे सम्बद्ध जिलोंमें पञ्चालोंका राज्य था। प्राचीन वैदिक साहित्यमें कोसल और विदेहका निर्देश नहीं है। इनका प्रथम निर्देश शतपथ ब्राह्मण (१,४-१-१० ) में मिलता है। उल्लेखोंसे प्रकट होता है कि कोसल और विदेह परस्परमें मित्र थे तथा उनमें और कुरु पञ्चालोंमें कुछ भेद होनेके साथ ही साथ शत्रुता भी थी। ब्राह्मण धर्मका जैसा जोर कुरुपञ्चालोंमें था वैसा जोर कोसलोंमें नहीं था। ऐसा माना जाता है कि विदेहराज जनक उपनिषद् दर्शनका प्रमुख संरक्षक था और उसके कालमें विदेहको प्राधान्य मिला। कोसल और विदेहके साथ-साथ काशीको भी प्राधान्य उत्तर वैदिक कालमें मिला। काशी और विदेह भी परस्परमें सम्बद्ध थे। काशी और कोसल भी एक साथ पाये जाते हैं। भरतराज शतानीक सात्राजितके द्वारा काशीराज धृतराष्ट्र के पराजयकी एक कथा ( वै० ए० पृ० २५५) पाई जाती है । उस पराजयके फलस्वरूप काशीराज धृतराष्ट्रको शतपथ ब्राह्मणके ( १३-५,४,१६) कालतक यज्ञाग्निको प्रज्वलित करना छोड़ना पड़ा। ___इन पूर्वीय जातियोंके साथ कुरु पञ्चालोंका सम्बन्ध और जो कुछ भी हो, किन्तु मित्रता पूर्ण नहीं था। कहा जाता है कि इसका कारण दोनोंमें राजनैतिक और सांस्कृतिक विरोध था (वै० ए० पृ० २५५ )। वैदिक सभ्यताके प्राचीन केन्द्रसे दूरवर्ती मगधोंका उल्लेख केवल उत्तरकालीन वैदिक साहित्यमें मिलता है, और वह भी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. प्राचीन स्थितिका अन्वेषण कोई विशेष महत्त्वका नहीं है। सर्व प्रथम 'मगध' नाम अथर्ववेद ( ५-२२-१४ ) में आता है । वहां यह प्रार्थना की गई है कि गन्धारियों, मुजवन्तों और अंगों तथा मगधोंके देशमें ज्वर फल जाये । इनमेंसे पूर्वकी दो जातियां उत्तरीय हैं और शेष दो पूर्वीय हैं। अथर्ववेद ( १५-६-१ आदि ) में मागधोंको व्रात्योंसे सम्बद्ध बतलाया है। यजुर्वेदमें पुरुषमेधकी बलि सूचीमें मागधोंका नाम भी सम्मिलित है। विदेशी द्विान् जीम्मर ( Zimmer ) अथर्ववेद और यजुर्वेदमें उल्लिखित मागधोंको वैश्य और क्षत्रियके मेलसे उत्पन्न एक मिश्रित जातिका बतलाते हैं। कि तु सूत्रों में और एतरेय आरण्यक में मगधका निर्देश एक देशके रूपमें किया गया है। अतः स्पष्ट है कि यजुर्वेद और अथर्ववेदके समयमें मगध देशके वासीको मागध कहा जाता था। अतः मागध प्रतिलोमजात जाति वहिष्कृत नहीं थे। वैदिक इन्डेक्स (जि० २, पृ० ११६ ) में इस कल्पनाके आधारपर कि मगध गन्धर्वोका देश था, मागधों को गन्धर्व बतलाया है. क्योंकि उत्तर कालमें मागध वन्दी भाट कहलाते थे। उत्तरकालीन स्मृतियोंमें इस श्रेणीको एक पृथक जाति बतलाया है और उसकी उत्पत्तिके लिए दो विभिन्न जातियोंके विवाहकी एक कथाका आविष्कार भी कर डाला है। मागधोंके प्रति इस प्रकारके भावका सम्भावित कारण यह है कि मागधोंका ब्राह्मणीकरण नहीं हो सका था। शतपथ ब्राह्मण (१, ४-१-१०) की साक्षीके अनुसार प्राचीन काल में न तो कोसलका और न मगधका पूर्णरूपसे ब्राह्मणीकरण हुआ था, उसमें भी मगधका तो बहुत ही कम ब्राह्मणीकरण हुआ था। भौगोलिक नाम शेष तीन वेदों और ब्राह्मण ग्रन्थोंके विषयमें सबसे उल्लेखनीय घटना है सरस्वतीका लोप । जिस स्थान पर उसका लोप हुआ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० ० सा० इ० - पूर्व पीठिका उसे विनशन कहते थे । अतः इस कालमें परव की नदियोंका उल्लेख होना स्वाभाविक है । शतपथ ब्राह्मण में ( १, १-१-१४ ) सदानीराका उल्लेख आता है जो कोसलों और विदेहों के मध्य में सीमाका कार्य करती थी । उक्त वैदिक साहित्य में विभिन्न स्थानोंके नाम आते हैं । जनमेजय परीक्षितकी राजधानीका नाम आसन्दीवत् था जहाँ उसके अश्वमेध यज्ञके घोड़ेको बाँधा गया था ( श० ब्रा० १३, ५-४-२ ) । यह कुरुक्षेत्र में थी। इसे ही विद्वान् हस्तिनापुर कहते हैं (वै० ए० पृ० २५१ ) । गंगाके प्रवाह में इसके बह जानेपर कौशाम्बीको राजधानी बनाया गया था । शतपथ ब्राह्मण में कपिलानाम आता है जो बदायूँ और फर्रुखाबाद जिलोंके मध्य में है । नैमिषारण्य नाम भी आता है । यह अवध रुहेलखण्ड रेल्वेके निमसर स्टेशनसे कुछ दूरी पर था ऐसा माना जाता है ! जैसा कि हम लिख आये हैं उक्त वैदिक साहित्य में तीन विस्तृत भूभागों का निर्देश है- ब्रह्मावर्त या आर्यावर्त, मध्यदेश और दक्षिणापथ । एतरेय ब्राह्मण में ( ८- १४ ) सर्व प्रथम समस्त देशको पांच भागों में विभाजित किया गया है - धुवा मध्यमा प्रतिष्ठा, दिश या मध्यदेश, प्राचीदिश, दक्षिणादिश, प्रतीचीदिश और उदीचीदिश । किन्तु इन विभागों का विस्तार और सीमा नहीं बताई है। ऊपर जिन जातियों या कवीलोंका निर्देश किया है वे भारतके उक्त पांच विभागोंमेंसे प्रथम दो भागों (मध्य और पूर्वीय प्रदेश ) में रहते थे जैसा कि एतरेय ब्राह्मणमें लिखा है । एतरेय ब्राह्मण में ही दक्षिणादिशके केवल एक सात्वन्तों का ही निर्देश है । किन्तु इनके सिवाय विदर्भ, निषाध और कुन्ती जातियाँ भी थीं । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण निषध देशके निवासी निषध लोग निषादोंसे बिल्कुल भिन्न थे। निषाद अनार्यजातिके लिये कहा जाता था, किन्तु निषध लोग आर्य थे। शतपथ ब्राह्मण ( १०, ६-१-२) और छान्दोग्य उपनिषदमें (५-२-४ ) कैकयोंके राजा अश्वपतिका नाम आया है, जो कुछ ब्राह्मणोंको शिक्षण देता था और बड़ा विद्वान था। उत्तर कालमें कैकय लोग सिन्धु और वितस्ताके मध्य भागमें वस गये थे। पौराणिक परम्पराके अनुसार कैकय अणुओंके वंशज थे। वैदिक ग्रन्थों में अन्य भी अनेक छोटी बड़ी जातियोंका निर्देश है जिन्हें यहाँ छोड़ दिया गया है। ___ एतरेय ब्राह्मणमें आन्ध्रों पुन्ड्रों, शवरों, पुलिन्दों और मूतिबोंका उल्लेख दस्युके रूपमें आया है। कहा जाता है कि विश्वामित्रके पचास पुत्रोंने शुनःशेपका उत्तराधिकारी होना स्वीकार नहीं किया। अतः विश्वामित्रने उन्हें शाप दे दिया। ये उन्हींके वंशज हैं और इसलिये वे आर्योंकी परिधिसे बाहर थे। महाभारतमें आन्ध्रों, पुलिन्दों और शवरोंको दक्षिणकी जातियाँ बतलाया है। शतपथ ब्राह्मणमें म्लेच्छ शब्दका प्रयोग अत्याचारीके अर्थमें पाया जाता है। वे म्लेच्छ लोग 'हेऽरयः' के स्थानमें 'हे लवो' बोलते थे। यह बतलाता है कि वे आर्य भाषाभाषी थे और प्राकृत रूपोंका प्रयोग करते थे। उत्तरकालीन संहिताओं और ब्राह्मण ग्रन्थोंमें निषादोंका निर्देश है, जिससे प्रकट होता है कि निषाद किसी खास जातिका नाम नहीं था। किन्तु जो अनार्य जातियाँ आर्योंके कब्जे में नहीं थीं उन सबके लिये 'निषाद' कहा जाता था। ये निषाद चार वों से पृथक थे। वेवर उन्हें यहांका मूलनिवासी मानते थे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका स्मृतियाँ निषादोंको ब्राह्मण पिताके संसर्गसे शूद्रा माताओंमें उत्पन्न हुई सन्तान वतलाती हैं। पुराण उन्हें विन्य और सतपुड़ा पहाड़ोंका निवासी बतलाते हैं। उक्त उल्लेखोंसे यह स्पष्ट हो जाता है कि उत्तर संहिताओं, ब्राह्मणों, उपनिषदों और सूत्रोंके कालमें वैदिक आर्य पंजावसे पूरबकी ओर बढ़े थे और गंगाके दोआवेमें बस गये थे। उस कालमें उनका प्रधान कार्यक्षेत्र कुरुक्षेत्र था। यह उल्लेखनीय है कि वैदिक सभ्यताका स्थान पंजावसे न.मशः पूरवकी ओर बदलता गया। इस कालमें पंजाव और पश्चिमकी प्रधानता ही नहीं गई किन्तु शतपथ और एतरेय ब्राह्मणमें पश्चिमकी जातियोंको तिरस्कारकी दृष्टिसे देखा गया है। इस कालमें ऋग्वैदिक कालीन जातियों में बहुत परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है तथा अनेक नई जातियाँ प्रकाशमें आती हैं । भरतोंकी वह स्थिति नहीं रहती, किन्तु वे कुरुओंमें समा जाते है और कुरुपञ्चालोंकी एक शक्तिशाली जाति खड़ी हो जाती है जिसने मध्यदेशको हथिया लिया। पूरवमें कोसल, विदेह. मगध और अंग चमकते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। आन्ध्र पुड, मूतिव, पुलिन्द, शवर और निषाद ये जातियाँ वहिष्कृत मानी जाती थीं जिनका ब्राह्मणीकरण नहीं हो सका था। इस तरह उपनिषद काल तक नर्मदाके उत्तर तक ही पार्योंका प्रभाव विस्तार हो सका था। (वै. एल, पृ० ५५२-२६२, कै० हि, जि०१, अ०५, प्रीहि० ई०,)। धर्म और दर्शन ऋग्वेद पश्चात् कालीन धार्मिक और दार्शनिक विचारोंको जाननेके लिये सबसे प्रथम अथर्ववेदको लेना ठीक होगा; क्योंकि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण ३३ विद्वानोंके मतानुसार अथर्ववेद में प्राथमिक धार्मिक विचारोंका रूप रक्षित है, जो अन्य वैदिक ग्रन्थोंमें नहीं है । । ऐसी संभावना की जाती है कि पुरोहितके लिये प्राचीन भारतीय नाम अथर्वन था । अतः अथर्ववेदका मतलब होता है पुरोहितोंका वेद या पुरोहितोंके लिये वेद । अथर्वका मतलब जादूगरीसे भी है । प्रारम्भ में पुरोहित और जादूगर एक ही होते थे । किन्तु पीछे इनमें विभेद हो गया। ब्राह्मण स्मृतियोंमें शत्रुओं के विरुद्ध अर्थववेदी भूत-प्रेतविद्याका प्रयोग करनेकी स्पष्ट आज्ञा दी गई है ( मनु० ११-३३ ) । और वैदिक विधि के जिन ग्रन्थों में यज्ञोंका वर्णन है उनमें भूत-प्रेतविद्या तथा जादू-टोनोंका भी वर्णन है, जिनके द्वारा पुरोहित बाधाओं को जड़मूल से उखाड़ सकते थे । अथर्ववेद में इन सबकी बहुतायत है और इस दृष्टिसे उसका महत्त्व विशेष है। अथर्ववेद में जादू-टोनेसम्बन्धी ऋचाएँ बहुत बड़ी संख्या में वर्तमान हैं। इनमेंसे कुछ शत्रुओंके विरुद्ध प्रयोग किये जानेवाली भूत-प्रेतविद्यासे सम्बद्ध हैं और कुछ आशीर्वादात्मक हैं। ये सब राजाओंके कामकी वस्तुएँ थीं। प्रत्येक राजाको एक पुरोहित रखने की आज्ञा थी और वह पुरोहित जादूगरीका जानकार होता था । उससे वह राजाकी रक्षा करता था । इसलिये अथर्ववेद राजन्यवर्गसे सम्बद्ध था ( हि० इं० लि०, विन्ट० पृ० १४६ ) । ब्राह्मणवर्ग आरम्भ से ही एक प्रयोगशील वर्ग रहा है । वह हमेशा राजाओं तथा अन्य मनुष्योंके हितमें जादू-टोनेका प्रयोग करता आया है । मनुस्मृति ( ११-३३ ) में स्पष्ट कहा है कि ब्राह्मणको बिना किसी हिचकिचाहटके अथर्ववेदका Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ० - पूर्व पीठिका उपयोग करना चाहिये । शब्द ही ब्राह्मणका अस्त्र है, उसके द्वारा वह अपने शत्रुओं को मार सकता 1 ३४ इस प्रकार यद्यपि अथर्ववेद जादू-टोने और भूत-प्रेतसम्बन्धी विद्याओंसे भरा हुआ है फिर भी उसमें कुछ दार्शनिक मन्तब्य भी पाये जाते हैं । अथर्ववेद भी अग्नि, इन्द्र आदि वे ही देवता हैं जो ऋग्वेदमें हैं। किन्तु उनका वह रंग जाता रहा है। भूत-पिशाचोंके नाशक के रूपमें ही उनकी प्रार्थना की जाती है और उनका पुराना स्वाभाविक आधार सर्वथा भुला दिया गया है । विश्वके रचयिता और रक्षकके रूपमें एक सर्वोच्च देवताका विचार तथा ब्रह्म, तपस् असत् आदि कुछ पारिभाषिक शब्द अथर्ववेद में मिलते हैं। ऋग्वेदमें रुद्रका जो रूप है और श्वेताश्वतर उपनिषद में जिस शैवदर्शनके दर्शन होते हैं, अथर्ववेद के रुद्रशिवका रूप उन दोनोंके बीचका प्रतीत होता है । इसमें, जो कुछ सत् है उन सबका आद्य कारण कालको बतलाया है ( १०, ५३ - ५ - ६ ) । किन्तु इस दार्शनिक विचारके चारों ओर जिन रूपकोंका ताना-बाना बुना गया है, उन्होंने उसे एक रहस्यका रूप दे डाला है । इसके साथ ही गूढ़ कल्पनाएँ भी पाई जाती हैं, जैसे ब्रह्मचारीके वेशमें प्रथम सिद्धान्त के रूप में सूर्यकी प्रशंसा, तथा बैल, गाय और व्रात्यकी प्रशंसा । साधारणतया ग्रह माना जाता है कि अथर्ववेदका धर्म, आर्य और अनार्य विचारोंका मिश्रित रूप है । इस मत के अनुसार जब वैदिक आर्य भारतमें आगेकी ओर बढ़े तो उनकी मुठभेड़ असभ्य जातियोंसे हुई जो सर्प, पत्थर वगैरहको पूजते थे । आयने उनकी इन बातोंको आत्मसात् कर लिया। इससे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण स्वभावतः मूलनिवासी जातियोंके धर्मको प्रोत्साहन मिला और वैदिक धर्मका पतन हुआ, क्योंकि उसमें जादू-टोना घुस बैठा। ___ जब हम सामवेद और यजुर्वेदकी ओर आते हैं तो एक नवीन ही संसारमें प्रवेश करते हैं। समस्त वातावरण यज्ञके धूम और क्रियाकाण्डकी प्रशंसासे व्याप्त है। यज्ञसे सब कुछ मिल सकता है। ये दोनों वेद यज्ञके लिये ही रचे गये प्रतीत होते हैं। जब तक हम उस स्थितिको न जान लें जिसमें रहकर याज्ञिक संस्थाका विकास हुआ तब तक उस कालके धर्मका विवरण समझमें नहीं आ सकता । अतः उस पर प्रकाश डाला जाता है वैदिक कालीन यज्ञ यद्यप ऋग्वेदसे धर्मके किसी विकसित रूपकी सुनिश्चित रेखा सामने नहीं पाती। तथापि इतना स्पष्ट है कि वैदिक आर्यों की उपासनाके मुख्य स्तम्भ यज्ञ थे। स्वः लोकमान्य तिलकका मत था (ओरेन पृ० १२-१३ ) कि जैसे आजकल भी पारसियों के यहाँ सदा अग्नि प्रज्वलित रहती है वैसे ही वैदिक ऋपियोंके घरों में सदा अग्नि जलती रहती थी और वे उसमें यज्ञ किया करते थे। ब्राह्मण ग्रन्थोंमें जिन अनेक यज्ञोंकी विधियोंका विस्तारसे वर्णन है, वे उत्तरकाल में प्रचलित हुए हों, यह संभव है, किन्तु वार्षिक यज्ञ करनेकी परम्परा प्राचीन प्रतीत होती है। यज्ञ करनेवाले पुरोहितके ऋत्विज नामसे भी इसपर प्रकाश पड़ता है। ऋतु+यज्-अर्थात् ऋतु में यज्ञ करनेवाला। _ ऋग्वेदके देखनेसे प्रतीत होता है कि उस समय यज्ञोंका वैसा जोर नहीं था, जैसा ब्राह्मणकालमें हुआ। ऋग्वेदकी अधिकतर ऋचाएँ सोमयाग सम्बन्धी विधि-विधानोंसे पूर्ण है। और अश्वमेधके सिवाय अन्य किसी पशुयागका भी उल्लेख Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका नहीं है। किन्तु ऋग्वेदके पुरुष सूक्तको लेकर कुछ विद्वानोंका यह मत है कि इसमें प्राचीन नरमेध प्रथाका वर्णन है, क्योंकि शुक्लयजुर्वेदमें यही सूक्त पुरुषमेधके अर्थमें लिया गया है। ____ यज्ञानुष्ठानके लिए चार ऋत्विजोंकी आवश्यकता होती थीहोता, उद्गाता, अध्वर्यु तथा ब्रह्मा । होता मंत्रोका उच्चारण करके देवताओंका आह्वान करता था। इस मंत्रसमुदायका संकलन ऋग्वेदमें है। उद्गाता ऋचाओंको मधुर स्वरसे गाता था, इसके लिये सामवेद है। यज्ञके विविध अनुष्ठानोंका सम्पादन करना अध्वर्युका कर्तव्य था, इसके लिये यजुर्वेद है। ब्रह्मा सम्पूर्ण यागका निरीक्षक था, जिससे अनुष्ठानमें कोई विघ्नबाधा न आवे, इसके लिये अथर्ववेद है। __ सोमयागके लिए होता, उद्गाता और अध्वर्युके साथ सात ऋत्विजोंका उल्लेख ऋग्वेदमें किया है। किन्तु जब हम अर्वाचीन संहिताओं और ब्राह्मण ग्रन्थोंको देखते हैं तो यज्ञोंका ही प्राधान्य प्रतीत होता है। ऋत्विजोंकी संख्या भी १६-१७ तक पहुंच गई है। सोमयाग और पशुयाग बहुत पेचीदा हो गये हैं। ऋग्वेदके देवताओंके स्थानपर यज्ञोंने आधिपत्य जमा लिया है, और देवताओंका प्रभाव लुप्त हो गया है। केवल यज्ञ देवताको सब मानते हैं। यह यज्ञकर्ताके सामने देवताओंको भी झुका सकनेकी सामर्थ्य रखते हैं। शतपथ ब्राह्मण( १।३।३।३-७) में कहा है-'यज्ञ विष्णु था, और वह वामन था। बादमें वह धीरे-धीरे बढ़ता गया और उसका सर्वत्र प्रचार हुआ। फिर आगे कहा है-'देवोंके पुरुषमेध कर चुकनेके बाद पुरुषके अवयवोंसे एक ज्योति निकली, और उसने एक घोड़ेके शरीरमें प्रवेश किया, फिर गायमें, फिर भेडमें, फिर बकरेमें, फिर पृथ्वीमें, पृथ्वीसे वह जौ और चावलमें आई।' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण शतपथ ब्राह्मणका उक्त कथन यज्ञके क्रमिक विकासपर प्रकाश डालता है। यहां एक पशुयागका विवरण देना अनुचित न होगा। यह पशुयाग अन्य पशुयागोंका मूलरूप है। यह छै ऋत्विजोंकी सहायतासे होता था। इसमें एक पाशुक वेदी होती थी, जिसपर पशुयागके लिये आवश्यक सामान और आहुतिका द्रव्य रखा जाता था। ___ पशुको वाँधने के लिये एक यूप-लकड़ीका खूटा रहता था । इसपर घी चुपड़ा जाता, फिर एक डोरी बांधी जाती। उसमें एक लकड़ी पिरोई जाती। प्रत्येक काम अध्वर्युको करना पढता था और होता प्रत्येक क्रियाके अनुकूल मंत्र पड़ता था। इस तरह यूप पशु बन्धनके योग्य होता। पशुके दोनों सीगोंके बीचमें डोरी बांधकर इस डोरीको यूपमें बांधी गई डोरीके साथ बांध दिया जाता। इसके बाद यज्ञकी तैयारी होती। मुख्य यागके पहले प्रयाज यागकी विधि प्रारम्भ होती । पशुयागमें ग्यारह प्रयाजयाग होते थे । इन ग्यारह प्रयाजयागोंमें से प्रथम दसमें घीकी आहुति दी जाती। किन्तु अन्तिममें पशुकी नाभिके पास जो मेद रहता है, जिसे वया कहते हैं, उसकी आहुति दी जाती। अतः ग्यारहवें प्रयाजयागसे पहले पशुवधकी तैयारी करनी पड़ती। ___ जो व्यक्ति पशुवध करता उसको शमिता कहते थे। पाशुक वेदीके उत्तरमें पशुवधका स्थान होता था। वहाँ पशुके शरीरको पकानेके लिये अग्नि प्रकट की जाती थी। एक ऋत्विज अग्निकी रशाल जलाकर पशुके चारों ओर घुमाता। इसका उद्देश्य था कि राक्षस पशुपर आक्रमण न करें, क्योंकि वे अग्निसे डरते हैं। इसी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका समय होता पशुवधके लिये शमिताको बुलाता। और एक मंत्र पढ़ता, जिसका भाव इसप्रकार है___ "इस काममें पशुकी माता अनुमति दे, पिता अनुमति दे, सहोदर भाई अनुमति दें, इसके मित्र तथा साथी अनुमति दें। इसके पैर उत्तर दिशामें रहें, चक्षु सूर्यकी ओर रहें, प्राण वायुका, जीवन आकाशका, कान दिशाओंका और शरीर पृथ्वीका श्राश्रय ले। इसका चमड़ा इस तरहसे अलग करो कि वह फटे नहीं । नाभिको काटनेसे पहले उसकी चर्बी निकाल लो। इसकी श्वांस बाहर न निकले। इसकी छाती इस तरहसे काटो कि वह एक पर फैलाये पक्षीकी तरह मालूम दे। आगेके पैर काटो। इसके कन्धे कछुवेको शक्लमें काटो। पिछला भाग ऐसा काटो, उसे कोई हानि न पहुँचे। जंघाओंको करवीरकी पत्तीकी शकलमें काटो। २६ पसुलियोंको अलग-अलग करलो । और सब सभ्योंको इस तरह बाँटों कि कुछ बाकी न रहे। विष्टे वगैरहके लिए एक नाली खोदो, खून राक्षसोंके लिए फेंक दो। ___ अन्तमें कहता—'हे वधक ! इस पशुका घात करो, घात करो, अपाप, अपाप, अपाप, इस कर्ममें जो सुकृत हो वह हमें अर्पण करो। जो दुष्कृत हो वह दूसरोंको अर्पण करो' ( तैत्ति० ब्राः)। पशुका बध हो चुकनेके बाद यजमान, उसकी पत्नी और अध्वर्यु पानीसे उसे धो डालते। अध्वयु उसका पेट चीरकर वया निकाल लेता। उसका सहायक प्रतिप्रस्थाता दो लकड़ियोंकी सहायतासे उस वयाको उठा कर अग्नि पर तपाता। फिर उत्तर वेदीके बीचकी आहवनीय अग्निके ऊपर उसे पकड़े रहता। अग्निके तापसे पिघलकर वया अग्निमें टपकती। अध्वर्यु उस पर घी डालता। विधिपूर्वक मंत्र पाठके बाद इस वयाका थोड़ा भाग अग्निमें डालनेके पश्चात् प्रयाजयाग Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण पूर्ण हो जाता और शेष भाग मुख्य यागके लिये रख लिया जाता। पशुयागका मुख्य देवता इन्द्र और अग्नि है । प्रयाजयागके बाद अब्वयु उनके उद्देश्यसे पहले वयाकी आहुति देता । वयाकी आहुतिके बाद पुरोडाशकी आहुति और अन्तमें पशुके अंगोंकी आहुति दी जाती। पूर्णमास यागमें तो मुख्य आहुति पुरोडाशकी दी जाती थी, किन्तु पशुयागकी आहुतिका द्रव्य पशुकी वया और मांस होता था। किन्तु यदि पशुमांसके साथ पुरोडाशकी आहुति न दी जाये तो पशुयाग सम्पूर्ण नहीं होता था। वयाकी आहुतिके बाद एक ओर अग्निमें पशुके अंग प्रत्यंग पकाये जाते, दूसरी ओर अध्वयु पुरोडाश याग करता।। __ पशुके सभी अङ्ग आहुतिके योग्य नहीं माने जाते। हृदय, जीभ वगैरह ग्यारह अंग मुख्य देवताकी आहुतिके योग्य माने जाते थे। पशुका रक्त राक्षसोंको मिलता। रक्तको यज्ञशालासे बाहर फेंक दिया जाता था। जो शमिता पशुका वध करता वही छुरीसे पशुके अङ्गोंको काटकर हांडीमें उन्हें पकाता था। पुरोडाशकी आहुति हो चुकने के बाद शमिता खबर देता कि पशुका शरीर पक गया है। तब अध्वयु मुख्य देवता इन्द्र और अग्निके उद्देश्यसे पशुके अङ्गोंकी आहुति देता। मुख्य यागके पीछे स्विष्टकृत याग होता । यह याग रुद्र देवताके उद्देश्यसे किया जाता था। इसके लिए पशुके कुछ अंग निश्चित थे। इसके पश्चात् हविशेषका भक्षण होता। ऋत्विज लोग अपना-अपना भाग खाजाते। जिस वस्तुकी आहुति दो जाती है उसके बाकी बचे भागको 'हविशेष' कहते हैं। जबतक हविशेष नहीं खाया जाता तबतक यज्ञ पूर्ण और सार्थक नहीं होता। पशुयागमें मांसकी आहुति दी जाती है अतः हविशेष मांसको खाना आवश्यकों Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका है। अथर्ववेदके गोपथ ब्राह्मणमें विस्तारसे उन व्यक्तियोंकी तालिका दी है जो यज्ञमें भाग लेनेके उपलक्ष्यमें हविशेष मांसका भाग पाते हैं। उसके ३६ भाग किये जाते थे और उनका बटवारा इस प्रकार होता था प्रस्तोताको जीभके साथ दोनों जबड़े, प्रतिहर्ताको गर्दन और ककुद (बैलके कन्धेका उठा हुआ भाग ) उद्गाताको छातीका भाग, अध्वयुको कन्धेके साथ दाहिना पार्श्व, उपगाताको वाया पार्श्व, प्रति प्रस्थाताको वाँया कन्धा, ब्रह्मा और रथ्याकी स्त्रीको दाहिना नितम्ब, पोताको ऊरू, होताको वाँया नितम्ब, इत्यादि । जो इस बँटवारेमें सम्मिलित नहीं होते थे उनको अनेक अपशब्द कहे गये हैं। आश्वलायनने अपने गृह्यसूत्रके प्रथम भागके ग्यारहवें अध्यायमें 'पशुकल्प' शीर्षकसे उन नियमोंको दिया है जो पशुको काटनेमें पालन किये जाते थे । यद्यपि ऋग्वेदमें गौको 'अघ्न्या'-न मारने योग्य कहा है तथापि उसके वधका ऐकान्तिक निषेध नहीं था। श्राश्वलायनके गृह्यसूत्रमें वर्णित यज्ञोंमें एक 'सूलगौ' यज्ञका वर्णन है। यह शरद या वसन्तमें किया जाता था। इसके लिए ऐसी गाय आवश्यक होती थी, जो पीले रंगकी न हो, जिसपर सफेद या काले धब्वे हों और जो सर्वोत्तम हो । उसको पानीसे नहलाया जाता था और वैदिक मंत्र पढ़कर रुद्रको भेंट कर दिया जाता था। उसके बलिदानके लिए ऐसा स्थान पसन्द किया जाता था, जो गांवसे बाहर पूरव या उत्तर दिशामें हो, जहांसे गांव दिखाई देता न हो, और न गांवसे वह जगह दिखाई देती हो। बलिदानका समय मध्य रात्रि था। ___पूँछ, खाल, स्नायु और खुर अग्निमें डाल दिए जाते थे और रक्त कुशोंपर फेंक दिया जाता था। सूत्रकारका कहना है कि उसके Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण मांसको न तो गाँवमें ही ले जाना चाहिये और न बच्चोंको ही उसके पास आने देना चाहिये। स्वस्त्ययनके बाद इसको प्रसाद रूपसे खा लेना चाहिये । कुछका मत' है नहीं खाना चाहिये। एतरेय ब्राह्मणमें लिखा है कि जो यजमान सोमयागकी दीक्षा लेता था वह सभी देवताओंके सामने अपने आलम्भनके लिए तैयार होता था और अपने बदलेमें पशुको क्रय करता था। इसका मतलब यह हुआ कि यज्ञमें जो पशु भेंट दिया जाता था वह यजमानका प्रतिनिधि था। प्राचीनकालमें यह विवाद हुत्रा था कि सोमयागके पहले अग्नि और सोमको जो पशु भेंट किया जाता है, उसका माँस खाना चाहिये या नहीं ? क्योंकि वह पशु यजमानका प्रतिनिधि होता था, अतः उसका मांस नरमांस हुआ और नरमांसका खाना कहाँ तक उचित है ? ___एतरेय ब्राह्मणमें इस विवादका निरसन करते हुए लिखा है कि 'अग्नि और सोमकी मददसे इन्द्रने वृत्रका वध किया था। अतः इन्द्रने सन्तुष्ट होकर अग्नि और सोमको यह वरदान दिया था कि सोमयागके पहले जो पशु भेंट किया जायगा वह तुम्हें मिलेगा। अतः वह पशु देवताका भक्ष्यमात्र है, यजमानका प्रतिनिधि नहीं है।' मंत्र-ब्राह्मणात्मक वेद प्रतिपादित उक्त यज्ञ धर्मकी क्रमसे किस प्रकार वृद्धि होती गई, और उसका विस्तार कहाँतक हुश्रा इसका एक चित्र कवि हर्षके नैषध काव्यसे यहाँ देकर इस चर्चाको समाप्त करेंगे। नैषधके १७ वें सर्गमें कविने कलियुगके निषध देशमें जानेका वर्णन करते हुए लिखा है-जब कलि राजा १. अस्य पशोः हुतशेषं न प्राश्नीयात् । अन्यत्र इच्छातः प्राश्नीयात् वा। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कठिन हालगे। होमके घाव भर गया। रखना कठिन जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका नलकी राजधानीके निकट पहुँचा, तो उसे नगरीमें प्रवेश करना कठिन होगया, क्योंकि वेदध्वनि करते हुए श्रोत्रियोंके शब्द उसके कानों में पड़ने लगे। होमके घीकी गन्धसे उसकी घ्राणशक्ति नष्ट होगई, यज्ञका धूम उसकी आँखोंमें भर गया। अतिथियोंके पैर धोनेके जलसे पिच्छलित हुए आँगनोंमें उसे पैर रखना कठिन होगया, यज्ञकी अग्निकी गर्मीसे उसकी ऐसी दशा होगई, मानों कुम्हारके आवेमें जा पड़ा है। नगरमें जगह-जगह यज्ञके पशुओं को बाधनेके लिए गढ़े हुए यूप उसे ऐसे लगे मानों पृथ्वीमें जगहजगह कीले गढ़े हुए हैं। कलिने अपनी प्रिया हिंसाको बहुत खोजा, किन्तु उसे वह दृष्टिगोचर न हुई। गोमेध यज्ञमें बलिदान करनेके लिए खड़ी गौको देखकर वह उसका ओर दौड़ा, किन्तु यह हिंसा तो वैदिकी होनेसे हिंसा ही नहीं थी अतः वहाँ भी उसकी दाल नहीं गली। आगे ब्राह्मणोंको मदिरापान करते देखकर कलि बहुत प्रसन्न हुआ। किन्तु जब उसने देखा कि वे ब्राह्मण सौत्रामणि यज्ञ कर रहे हैं ( इस यज्ञमें मदिरापान विधेय है ) तो वह सिर धुनने लगा। एक स्थानपर एक मनुष्यको ब्राह्मणका वध करते देखकर कलि बहुत प्रसन्न हुआ, किन्तु जब उसने देखा कि वह मनुष्य सर्वमेध नामका यज्ञ कर रहा है तो उसे ज्वर ही आ गया (सर्वमेध' में प्रत्येक जातिके एक-एक प्राणिके वध का विधान है। ___'तब कलिने अपने मित्र जैन और बौद्ध साधुओंकी खोज की, क्योंकि वे वैदिक हिंसाके विरोधी हैं, किन्तु उसे जिन (बौद्ध) के स्थानपर तो अजिन-कृष्णमृगका चर्म दिखाई दिया और क्षपणक ( जैन साधु ) के स्थान में अक्षपण-जुआ खेलनेके पासे १. सर्वमेधे हि तत्तज्जातीयैकैक प्राणिहिंसांधिकारात् ब्राह्मणो ब्राह्मणमालभेत' इति ब्रह्मवधस्य वैधत्वातू ।। नै. टी. १७ स., १८६ श्लो. । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण ४३ दिखाई दिये । ( राजसूय यज्ञमें यजमान जुआ खेलाता है ) । एक स्थानपर कलिने एक कामुकको सजातीया, विजातीया, गम्या, अगम्या सभो स्त्रियोंको भोगते हुए देखकर संतोष किया कि यहाँ मेरी गति है, किन्तु उस कामुकको वामदेव्य मुनिके द्वारा उपदिष्ट ब्रह्मविद्याका उपासक जानकर खेद हुआ । ' 'अग्निष्टोम यागको देखकर उसे बहुत कष्ट हुआ, पौर्णमास यागको देखकर उसे मूर्छा आगई और सोमयागको देखकर उसने अपनी मृत्यु ही समझ ली । एक जगह ब्राह्मणोंको परस्परका छुआ हुआ उच्छिष्ट खाते हुए देखकर उसे परम सन्तोष हुआ । किन्तु जब उसे ज्ञात हुआ कि ये लोग हविशेष सोमका भक्षण कर रहे हैं तो सिर घुनने लगा क्योंकि सोममें उच्छिष्ट नहीं माना जाता । एक स्थान पर गौवध होता देखकर कलि उस ओर दौड़ा । किन्तु जब उसे ज्ञात हुआ कि यह तो अतिथियोंके लिये मारी जा रही है तो बेचारा अपना सा मुँह लेकर लौट आया। ン आगे एक मनुष्यको आत्मघात करते हुए देखकर कलिको बड़ा आनन्द हुआ । किन्तु जब उसे ज्ञात हुआ कि यह सर्वस्वार यज्ञकर्ता है तो उसे बड़ी व्यथा हुई । जिसकी मृत्यु निकट होती है और जो असाध्य रोगसे पीड़ित होता है वही इस यज्ञका अधिकारी है । वह पशुमंत्रों के द्वारा अपना ही, संस्कार करके तथा आत्मघात करके सर्वस्वार नामक यज्ञ में अपनेको होम देता है । आगे 'महाव्रत नामक यज्ञमें एक ब्रह्मचारीको दुराचारिणी स्त्रीके साथ मैथुन करते हुए देखकर कलिने यज्ञको विटोंका १. 'राजसूये यजमानोऽक्षैः दीव्यति ।' २. 'वामदेव्योपासने सर्वाः स्त्रिय उपसीदन्ति' इति श्रुतिः । ३. 'महाव्रते ब्रह्मचारि - पुश्चल्योः संप्रवादः' । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ० - पूर्व पीठिका कर्म समझा । तथा अश्वमेध यज्ञमें यजमान की भार्याको अश्व साथ सम्भोग करते देखकर उस मूर्ख कलिने माना कि वेद किसी धूर्तकी कृति है ।' यज्ञोंके सम्बन्धमें एक बात और बतला देना आवश्यक है । पुरोहितोंके मन्दिर नहीं थे और सम्भवतः न मूर्तियाँ ही थीं । प्रत्येक यज्ञानुष्ठानके लिये यज्ञ करानेवाले यजमानके स्थान में ही वेदी बना ली जाती थी । यज्ञसे जो पुण्य लाभ होता था वह केवल यज्ञ करानेवालेको ही होता था । अतः वह यज्ञका पूरा व्यय उठाता था - वध किये जानेवाले पशुओंके लिये, विभिन्न कामों पर नियुक्त व्यक्तियोंके लिये और पुरोहितोंकी दक्षिणा के लिये उसे पूरा खर्च करना होता था । दक्षिण में मूल्यवान वस्त्राभूषण, घोड़े, गायें और स्वर्ण दिया जाता था । किस समय दक्षिणा में कौन वस्तु देनी होती थी यह सब लिखा हुआ है । स्वर्णदानकी बहुतायत हैं । लिखा है- धर्मात्मा पुरोहितको स्वर्णको विशेष रूपसे स्वीकार करना चाहिये, क्योंकि उसमें नके बीज निहित हैं। ४४ अतः यज्ञोंमें बहुत ब्यय होता था और धनी व्यक्ति तथा राजा लोग ही उन्हें करा सकते थे। इसीसे यज्ञोंका मुख्य सम्बन्ध ब्राह्मणों और क्षत्रियोंसे है । अतः ब्राह्मणों और क्षत्रियोंके सम्बन्धमें भी तत्कालीन स्थितिको जान लेना आवश्यक है । ब्राह्मण और क्षत्रिय जब वैदिक आर्य पंजाब में आये तब उनकी संस्कृति क्या थी, इस विषय में विभिन्न मत हैं । फिर भी साधारणतया ऐसा माना जाता है कि वे पशुपालक और कृषक थे। पंजाब में बस जानेपर उनकी इस वृत्ति में तेजीसे वृद्धि हुई । किन्तु उस समय आर्योंको Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण इस देशके प्राचीन निवासियोंसे जो आसे अधिक सुसंस्कृत और सभ्य थे, प्रायः युद्ध करना पड़ते थे, जिससे कृषि कार्यों में विघ्न होता था और सुदक्ष प्रतिद्वन्दी योद्धाओं से युद्ध करने में भी कठिनाई प्रतीत होती थी । अतः कार्यका विभाजन कर दिया गया । 'आरम्भ में वैदिक आर्यों में जातिभेद नहीं था । ऐसा प्रतीत होता है कि पौरोहित्य और शासनका काम संयुक्त था । किन्तु वैदिक आर्यों और पंजाब - अफगानिस्तान के प्राचीन निवासियोंके साथ होनेवाले सतत युद्धोंने वैदिक आर्योंको विवश किया कि अपने-अपने व्यवसायके अनुसार वे अपनेको विभिन्न समुदायों में विभाजित करलें । धीरे-धीरे योद्धा लोगोंका स्थान उन्नत होता गया और वे क्षत्रिय कहलाये । ४५. ऋग्वेद में वर्ण' शब्द मनुष्योंकी कक्षाएँ बतलानेके लिये आया है, क्योंकि दासों और आयके वर्ण में अन्तर था । किन्तु, इस दृष्टि अन्य संहिताओं और ब्राह्मण ग्रन्थोंसे ऋग्वेदका मौलिक मतभेद है; क्योंकि उनमें चार वर्णोंका स्पष्टरूपसे निर्देश है । यद्यपि ऋग्वेद के अन्तिम पुरुष सूक्तमें भी राजन्य, ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र चार वर्णोंका निर्देश है, किन्तु चूँकि विद्वान लोग इस सूक्तको अर्वाचीन मानते हैं, अतः ऋग्वेद कालमें चारों वर्णोंके स्थापित हो जानेकी बात संदिग्ध मानी जाती है । जिम्मर' ( Zimmer ) का कहना है कि ऋग्वेद की जातिविहीन परम्पराका जो यजुर्वेदकी जातिगत परम्पराके रूपमें परिवर्तन हुआ इसका सम्बन्ध वैदिक आर्योंके पूरवकी ओर बढ़नेसे है । १. प्री हि० इं०, पृ० २३ । २. वै० इं०, जि० २, पृ० २४८ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका प्रारम्भमें राजन्य अपने तथा जनताके लिये यज्ञ कर सकता था। किन्तु ऋग्वेद (३-३३-८, ७-१८-८३) में ऐसे भी उल्लेख हैं, जिनमें पुरोहिताई जबरदस्ती ली गई है, जैसे विश्वामित्र और वशिष्ठके सम्बन्धमें | जब ऋग्वेद पूर्ण हुआ तब पुरोहित जाति स्पष्टरूपसे पृथक स्थापित हो चुकी थी। तथापि दो क्षत्रिय वर्गोंने बलपूर्वक पुरोहितोमें स्थान प्राप्त कर लिया। अंगिरस, वशिष्ठ, अगस्त्य और भार्गवोंको मूलतः दैवीय बतलाया है। किन्तु विश्वामित्र और काण्वको क्षत्रिय वर्गका बतलाया है। ___ विश्वामित्र भारत क्षत्रियोंमें से थे और कण्व नृषदका पुत्र था, जिसे पुराणोंमें क्षत्रिय कहा है। आश्वलायन श्रौत्रसूत्रके अनुसार विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ, काश्यप और अगस्त्य ये सब ब्राह्मणोंके पूर्व पुरुष हैं । इन आठोंमें से चारको ब्राह्मण गोत्रोंका मूल माना जाता है । महाभारतमें कहा है कि अंगिरस, काश्यप, वशिष्ठ और भृगुसे वैदिक आर्योंके प्राचीनतम पुरोहितोंकी सन्तान चली है । वैदिक साहित्य बतलाता है कि उन पूर्व पुरोहितोंने अन्य वर्गों के मनुष्यों के द्वारा पुरोहितोंका कार्य किये जानेपर रोष प्रकट करना आरम्भ किया। विश्वामित्र और वशिष्ठकी कलह स्पष्टरूपसे इस बातकी सूचक हैं कि प्राधान्य और शक्तिके लिये पुरोहितों और राजन्योंके बीच में झगड़े हुए थे। ___यहाँ पुरोहित और ब्राह्मणके सम्बन्धमें थोड़ा प्रकाश डाल देना उचित होगा। राजाके समस्त धार्मिक कृत्योंमें पुरोहित-अगुआ होता था । एतरेय ब्राह्मण (८-२५) में कहा है कि राजाको एक पुरोहित अबश्य रखना चाहिये, अन्यथा देवता उसकी भेंट १. डीहि० इं०, पृ० २४ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण ४७ स्वीकार नहीं करेंगे। पुरोहित अपनी प्रार्थनाओंके द्वारा युद्धमें राजाकी विजय और सुरक्षा की गारन्टी लेता था। वह धान्यके लिये पानी वरसाता था। वह एक 'जाज्वल्यमान अग्नि थी जो राजाकी रक्षा करती थी। किन्हीं विद्वानोंके मतानुसार आरम्भसे ही पुरोहित यज्ञोंमें ब्राह्मण पुरोहितके रूपमें काम करते थे। अपने इस कथनके प्रमाणमें वे कहते हैं कि बशिष्ठका निर्देश पुरोहितके रूपमें भी है और ब्राह्मणके रूपमें भी है। शुनःशेपके यज्ञमें उसने ब्राह्मणके रूपमें कार्य किया, किन्तु वह सुदासका पुरोहित था। वृहस्पतिको देवताओंका पुरोहित और ब्राह्मण कहा है। इस तरह स्पष्ट है कि ब्राह्मण प्रायः पुरोहित होता था। यही वजह है जिसके कारण उत्तरकालमें यज्ञोंमें ब्राह्मणका स्थान सबसे प्रमुख हुआ । किन्तु यह कहना कठिन है कि प्रारम्भमें भी ब्राह्मणको वैसा ही प्रमुख स्थान प्राप्त था। क्षत्रियका ब्राह्मणके साथ घनिष्ट सम्बन्ध होता था। तैत्तिरीय संहिता (५, १-१०-३) आदिमें दोनोंके अभेद्य सम्बन्ध पर ही दोनोंकी अभ्युन्नतिको स्वीकृत किया है। कभी-कभी दोनोंमें कलह होनेके उदाहरण भी ब्राह्मण ग्रन्थोंमें मिलते हैं। किन्तु ब्राह्मण यज्ञका सर्वेसर्वा था, इसलिये ब्राह्मण क्षत्रियको मिटा डालनेकी शक्ति रखता था। __ब्राह्मणोंने देखा कि युद्धोंमें तो अनेक प्रकारके खतरे और कठिनाईयां है जब कि पौरोहित्यमें लाभ ही लाभ है और वह शक्ति प्राप्त करनेका भी अच्छा साधन है, अतः उन्होंने उसे ही हथिया लिया। किन्तु इसके लिये उन्हें अनेक झगड़े उठाने पड़े। . १. एत० ब्रा० ८, २४-२५ । २. वै० इं०, जि० २, पृ०७। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका इन झगढ़ोंके अवशेष अथर्ववेद (५, १७-१६ ) में सुरक्षित हैं, जहाँ ब्राह्मणोंको सतानेके कारण सञ्जयोंके विनाशका वर्णन है। अथर्ववेदके सिवाय यजुर्वेदकी शतरुद्रीय प्रार्थनाओंमें भी उस तूफानी कालकी छाया है जव भारतकी आदिवासी जनता असन्तोषको लिये हुए उत्तेजित थी और रुद्र समस्त प्रकारके बुरे कार्य करनेवालोंके रक्षक देवताके रूपमें पूजा जाता था। अस्तु, मैत्रायणी संहिता (४-३-८) आदि वैदिक ग्रन्थोंमें क्षत्रियसे ब्राह्मणकी श्रेष्ठताका दावा बराबर पाया जाता है और ब्राह्मण अपने मंत्र तंत्र तथा क्रियाकाण्डके द्वारा क्षत्रियों तथा जनताको कभी भी झगड़ेमें डाल सकता था। यद्यपि राजसूय यज्ञमें ब्राह्मण को राजाकी उपासना करना पड़ती थी किन्तु ब्राह्मणकी प्रधानता अक्षुण्ण थी । वहाँ स्पष्ट रूपसे स्वीकार किया गया है कि पूर्ण उन्नतिके लिये क्षत्रिय और ब्राह्मणका मेल आधारभूत है। वहाँ यह भी बतलाया है कि (मै० सं० १-८-७) बहुधा राजाने ब्राह्मणको सताया तो निश्चय ही उसका विनाश हो गया। ___जैसे, स्वर्गके देवताओंकी तरह ब्राह्मण पृथ्वीका देवता (भूदेव) है यह दावा ऋग्वेदमें शायद ही क्वचित् मिले। शतपथ ब्राह्मणमें ( ११, ५-७-१) ब्राह्मणके चार अधिकार बतलाये हैं--अर्चा (श्रादर पाना ), दान लेना, अज्येयता (किसी के द्वारा पीड़ित न होना ) और अवध्यता ( किसीके द्वारा मारा न जाना ) । और उसके कर्तव्य हैं-ब्राह्मण्य, प्रतिरूपचर्या (अपनी जातिके अनुरूप आचरण ), और लोकपंक्ति। ___ अथर्ववेदके कुछ पद्योंमें ब्राह्मणजातिके सर्वोच्च विशेषाधिकारों का भी दावा है और ब्राह्मणको प्रायः भूदेव (पृथ का देवता ) कहा है। ब्राह्मणकालमें इसका और भी परिपाक हुआ है। शतपथ ब्राह्मणमें लिखा है-'देवता दो प्रकारके होते हैं एक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण ૪૯ देवता और एक ब्राह्मण देवता । इन दोनो के बीच में यज्ञका विभाग होता है । यज्ञमें दीजानेवाली आहुतियां देवताओंके लिए हैं और दक्षिणा ब्राह्मण देवताके लिये है। यज्ञ में आहुति देकर यजमान देवोंको प्रसन्न करता है, और दक्षिणा देकर ब्राह्मण देवताओं को प्रसन्न करता है । जब ये दोनों प्रकारके देवता सन्तुष्ट हो जाते हैं तो यजमानको स्वर्ग प्रदान करते हैं ।" यजमान के चार कर्तव्य हैं - उसे ब्राह्मणोंका आदर करना चाहिये, उन्हें दक्षिणा देनी चाहिये, उन्हें सताना नहीं चाहिये, उनकी हत्या नहीं करनी चाहिये । किसी भी परिस्थिति में राजाको ब्राह्मणकी संपतिको नहीं छूना चाहिये । यदि राजा यशकी दक्षिणा के रूपमें ब्राह्मणोंको अपना राज्य प्रदान करता है तो उस राज्य में रहनेवाले ब्राह्मणोंकी संपत्ति उसमें नहीं ली जायेगी । यदि राजा किसी ब्राह्मणको सताता है तो वह पापका भागी है। राजा के राज्यारोहणके अवसरपर पुरोहित कहता है - ऐ मनुष्यो ! यह तुम्हारा राजा है हम ब्राह्मणोंका राजा तो सोम है । शतपथ ब्राह्मण कहता है कि इस कथन के आधारपर वह ब्राह्मणोंके सिवाय समस्त जनताको राजाका भक्ष्य घोषित करता है, अतः राजा ब्राह्मणोंका उपभोग भक्ष्यके तौरपर नहीं कर सकता; क्योंकि ब्राह्मणका राजा तो सोम है । शतपथ ब्राह्मणमें और भी लिखा है - ब्राह्मणका घातक ही वास्तव में घातक है । ब्राह्मण और अब्राह्मणका झगड़ा होने पर जजको ब्राह्मणके पक्षमें ही फैसला देना चाहिये। जो वस्तु दूसरोंके लिए निषिद्ध हो उसे ब्राह्मणको दे देना चाहिये, क्योंकि जो दूसरोंके लिये अपच है वह ब्राह्मणोंके लिये सुपच है । किन्तु ब्राह्मण देवता अधिक दिनों तक स्वर्गीय देवताओंके समकक्ष नहीं रहे, उन्होंने अपनेको देवताओंसे भी ऊपर ला Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका बैठाया। शतपथ ब्राह्मणमें लिखा है-ब्राह्मण ऋषियोंकी सन्तान है अतः उसमें सब देवताओंका आवास है। इस तरह ब्राह्मणोंने यज्ञके द्वारा अपनेको देवताओंसे भी बड़ा बना दिया। वैदिक काल विभाग ऊपर जिस धार्मिक स्थितिका चित्रण किया गया है वह ईसा पूर्व आठ सौके लगभग की है। अन्वेषक विद्वानों ने ब्राह्मण सभ्यता का उचित काल ईसा पूर्व ८०० से ई० पूर्व ६०० तक ठहराया है ( कै० हि• भा० १, पृ. १४६ )। डा. जेकोबीका कहना था कि वैदिक पश्चात् काल ईसा पूर्व आठवीं शतीसे आरम्भ होता है क्योंकि सांख्य-योग और जैनदर्शनके समकालीन प्रादुर्भाव के साथ ही वैदिक कालका अन्त हो जाता है। इनमेंसे जैन धर्मको ईसा पूर्व ७४० तक पीछे ले जाया जा सकता है, क्योंकि जैन धर्मके सम्भवतया संस्थापक पार्श्वनाथ थे, जिनका निर्वाण महावीर से २५० वर्ष पूर्व हुआ।' (रि० फि० वे० पृ० २०) किन्तु प्रो० बरुआ ऋग्वेदकी अन्तिम ऋचाकी पूर्ति होनेके साथ ही वैदिक पश्चात् कालका आरम्भ मानते हैं। उनका कहना है कि वैदिक कालसे वैदिक पश्चात् कालका विश्लेषण इस आधार पर किया जा सकता है कि ब्रह्मर्षि देश ऋग्वेदके पश्चात् अधिक दिनों तक बौद्धिक केन्द्र नहीं रहा, किन्तु उसका स्थान मध्य देश ने ले लिया। यह' मध्यदेश हिमालय और विन्ध्यके बीच में अवस्थित था और पूरबमें प्रयागसे लेकर पश्चिममें विनशन तक फैला हुआ था। कुरु, पञ्चाल, मत्स्य, शूरसेन ये चार उस समयके प्रसिद्ध जनतंत्र थे और काशी, विदेह और कोशल शक्तिशाली राज्य थे (प्री० बु० इं० फि०, पृ. ३६)। १- मनु० २-२१ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण डा० होपकिन्सका कहना है कि ब्राह्मण ग्रन्थोंके साथ ही न केवल ऋग्वैदिक कालीन टोन ही बदल गई, किन्तु समस्त धार्मिक वातावरण एक प्रफुल्ल वास्तविक धर्मके बदलेमें, जो ऋक्संहिताका आत्मा है, मंत्र तंत्र, आध्यात्मिकता और धार्मिकताके भारसे आक्रान्त हो उठा। ब्राह्मण ग्रन्थोंमें न वह नवीनता है, और न वह कविता है । है केवल स्वमताग्रह, मूढ़ता और विद्वेषकी भावना। यह सत्य है कि इन सबके चिन्ह ऋकवेंदके कुछ भागोंमें भी पाये जा सकते हैं, किन्तु यह भी सत्य है कि वे चिन्ह ब्राह्मण ग्रन्थोंमे जिस प्रकार ब्राह्मण कालका प्रतिनिधित्व करते हैं, अपने समयका वैसा प्रतिनिधित्व ऋग्वेदमें नहीं करते। (रि० इं०, पृ० १७६-१७७)। ऋग्वेदके साथ इतर संहिताओं तथा ब्राह्मण ग्रन्थोंका तुलनात्मक अध्ययन करने से यह तो स्पष्ट प्रतीत होता है कि ऋग्वेदकालीन धर्म ने करवट बदल ली है। अतः वैदिक धर्मका एक अध्याय ऋग्वेदके साथ समाप्त हो जाता है। और इसलिये उसके प्रकाश में उत्तर कालीन संहिता और ब्राह्मण ग्रन्थोंके कठोर क्रियाकाण्डी धर्मको लक्ष्यमें रखकर ऋग्वेदके साथ ही बैदिक कालका अन्त मानना अनुचित नहीं है। वैदिक धर्मका दूसरा अध्याय ब्राह्मण ग्रन्थोंके साथ समाप्त हो जाता है और आरण्यक तथा उपनिषदों से तीसरा अध्याय प्रारम्भ होता है। स्वरमेशचन्द्रदत्त ने लिखा है- "इसी समय जब आर्य लोग गंगाकी घाटीमें फैले, ऋग्वेद और तीनों अन्य वेद भी संग्रहीत और सम्पादित हुए। तभी एक दूसरे प्रकारके ग्रन्थोंकी रचना हुई, जो ब्राह्मण नामसे पुकारे जाते हैं। इन ग्रन्थोंमें यज्ञोंकी विधि लिखी है। यह निस्सार और विस्तीर्ण रचना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका सर्व साधारणके क्षीण शक्ति होने और ब्राह्मणोंके स्वमताभिमानका परिचय देती है । संसार छोड़कर, बनोंमें जानेकी प्रथा, जो पहले नामको भी नहीं थी, चल पड़ी, और ब्राह्मणोंके अन्तिम भाग भारण्यकोंमें वनकी विविध क्रियाओंका वर्णन है । अन्त में क्षत्रियोंके निर्भय विचार जो उपनिषदोंके नामसे प्रख्यात हैं, प्रारम्भ हुए। इन्हींके साथ भारतके उस साहित्यका अन्त होता है जिसे ईश्वरकृत कहा जाता है।" ( प्रा० भा० सं० इं०, भा० १, पृ०८-६)। आरण्यक . एतरेय श्रारण्यकके भाष्यमें सायणने लिखा है-अरण्य (वन) में पढ़ाये जानेके योग्य होनेसे इसका नाम आरण्यक है। सथा एतरेय ब्राह्मणके भाष्यमें सायणने लिखा है-'वनमें रहनेवाले वानप्रस्थ लोग जिन यज्ञादिको करते थे, उनको बतलानेवाले प्रन्थोंको श्रारण्यक कहते हैं। कहा जाता है कि गृहस्थोंके यज्ञोंका विवरण ब्राह्मण ग्रन्थों में हैं और वानप्रस्थ आश्रममें जीवन बितानेवालोंके यज्ञ आदिका विवरण आरण्यकोंमें है। श्रारण्यक न तो यज्ञोंके विधि-विधानको उठाकर ताकमें रखते हैं और न ब्राह्मण ग्रन्थोंमें प्रतिपादित शैलीका ही अनुसरण करते हैं। वे मुख्य रूपसे पुरोहितदर्शन और यज्ञोंके लाक्षणिक तथा रहस्यमय रूपका विवेचन करते हैं। उनमें यज्ञोंके प्राध्यात्मिक रूपका विवेचन है। देवताविशेषके उद्देशसे द्रव्यका त्याग ही यज्ञ है, यह आरण्यक नहीं मानते। वे क्रियाकाण्डकी अपेक्षा चिन्तन पर विशेष जोर देते हैं और ब्राह्मणोंकी गहन विधिके - - १. 'अरण्य एवं पाठ्यत्वादारण्यकमितीर्यते।' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण ५३ स्थानमें एक सीधी-सादी विधि बतलाते हैं। चावल, जौ या दूधकी आहुतिसे किये जानेवाले बाह्य यज्ञकी अपेक्षा आन्तर यज्ञ पर विशेष जोर दिया गया है। उनमें सकाम कर्मके प्रति और कर्मफलके प्रति श्रद्धाका भाव दिखाई नहीं देता; क्योंकि कर्ममार्गसे मिलनेवाला स्वर्ग स्थायी नहीं होता अतः कर्मकाण्डको आत्यन्तिक सुखका मार्ग नहीं माना जा सकता ( वै० सा० पृ० १५१ )। ब्राह्मण ग्रन्थोंका सर्वोच्च लक्ष्य स्वर्ग था, और उसकी प्राप्तिका मार्ग था यज्ञ। किन्तु आरण्यकोंमें ब्रह्मको पहचाननेके लिये आत्मसंयम के आधार पर अनेक उपासनाएँ बतलाई हैं। (वै० ए०, पृ० ४४७)। तैत्तिरीय आरण्यकमें काशी, पश्चाल, मत्स्य, कुरुक्षेत्र और खाण्डवका उल्लेख है। उसीमें ( २-७-१) 'श्रमण' शब्द, जो आगे वेदविरोधी सम्प्रदायोंके साधुओंके अर्थमें व्यवहृत हुआ और ब्राह्मणका प्रतिद्वन्द्वी कहलाया-तपस्वीके अर्थमें प्रथम बार आता है। तै० आ० ( २-१-५ ) में ही यज्ञोपवीतका भी उल्लेख मिलता है। लिखा है-'यज्ञोपवीत धारण करनेवाले का यज्ञ भलीभाँति स्वीकार किया जाता है। यज्ञोपवीत धारी ब्राह्मण जो कुछ अध्ययन करता है वह यज्ञ ही करता है।' __ आरण्यकोंमें वर्णाश्रम धर्मका पूर्ण विकास देखने में आता है। सम्भवतया यज्ञ और ब्राह्मणोंके विरुद्ध सिर उठानेवाले सिद्धान्तोंसे सुलह करनेके लिये ही ब्राह्मण धर्मने आश्रमोंके सिद्धान्तको अपनाया। उपनिषद् उपनिषद्का अर्थ है-'निकट बैठना'। इस परसे यह व्याख्या की जाती है कि शिष्य लोग गुरुके निकट बैठकर इनका शिक्षण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० ३०-पूर्व पीठिका लेते थे। उपनिषद् पूर्णतया दार्शनिक ग्रन्थ हैं और ब्राह्मण ग्रन्थों तथा आरण्यकोंके पश्चात् उनकी रचना हुई है। यों तो उनकी संख्या दो सौ से भी अधिक है किन्तु सभी उतने प्राचीन नहीं हैं। एतरेय, कौषीतकी, तैत्तिरीय, वृहदारण्यक, छान्दोग्य और केन, ये उपनिषत् निश्चितरूपसे प्राचीन माने जाते हैं। इनमें भी छान्दोग्य और वृहदारण्यक विशेष प्राचीन हैं। ___ दूसरे नम्बरमें आते हैं-कठ, श्वेताश्वतर, महानारायण, ईश, मुण्डक और प्रश्न। शंकराचार्यने ब्रह्मसूत्रकी टीकामें इन्हीं बारह उपनिषदोंको प्रमाण रूपसे उपस्थित किया है। इनमें सांख्ययोगके सिद्धान्त तथा अद्वतवादी दृष्टिकोणका तानाबाना है । मैत्रायणीय उपनिषद् और माण्डूक्य उपनिषद् बुद्धकालके पश्चात् के हैं। शंकराचार्यने इनको प्रमाण रूपसे उद्धृत नहीं किया। फिर भी इन दोनों को गणना उक्त बारह उपनिषदों के साथ की जाती है और इन सब उपनिषदोंको वैदिक उपनिषद् कहा जाता है। ___उपनिषदोंको वेदान्त कहा जाता है। पहले वेदान्तका मतलब केवल उपनिषद् था। पीछेसे उपनिषदोंके दर्शनको वेदान्त कहा जाने लगा। उपनिषदोंमें जो तत्त्व ज्ञान भरा हुआ है वह सरल नहीं है। अतः उसका शिक्षण अन्तमें दिये जानेसे उपनिषद्को वेदान्त कहना उचित है। दूसरे, उत्तरकालीन दार्शनिकोंने उनमें वेदका अन्तिम लक्ष्य पाया इसलिये भी इन्हें वेदान्त कहना उचित है। तीसरे वैदिक कालके अन्तमें उनकी उत्पत्ति हुई इसलिये भी उन्हें वेदान्त कहना उचित है और चौथे धार्मिक कर्तव्य और पवित्र कार्यके रूपमें वैदिक क्रियाकाण्डकी मान्यता का अन्त कर दिया, इसलिये भी उन्हें वेदान्त कहना उचित है (हि. इं० लि० विन्ट०, जि० ५,पृ० २३४)। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण ५५ उक्त तथ्य पर प्रकाश डालनेके लिये याज्ञिक क्रियाकाण्ड तथा वैदिक देवताओंकी ओर उपनिषदोंका रुख कैसा है यह स्पष्ट करना उचित होगा। उपनिषद और यज्ञ तथा वैदिक देवता उपनिषद् वैदिक क्रियाकाण्डके विरुद्ध हैं। वृह० उप० (१-४-१०) में कहा है कि-'उस ब्रह्मको जो जानता है कि 'मैं ब्रह्म हूं' वह सर्व हो जाता है। उसके पराभवमें देवता भी समर्थ नहीं होते; क्योंकि वह उनका आत्मा ही हो जाता है। जो अन्य देवताकी उपासना करता है वह देवताओंका पशु है। “देवताओंको यह प्रिय नहीं है कि मनुष्य ब्रह्मात्मतत्त्वको जाने।' आगे ( ३-६-२१) लिखा है 'यम किसमें प्रतिष्ठित है ? यज्ञमें । यज्ञ किसमें प्रतिष्ठित है ? दक्षिणामें ।' छा० उ० (१-१२) में यज्ञमें जलूस बनाकर जानेवाले ऋषियोंको कुत्तोंका जलूस बतलाया है। कथा इस प्रकार है कुछ ऋषि स्वाध्याय करनेके लिये गाँवसे बाहर एक निर्जन स्थानमें गये। उन पर अनुग्रह करनेके लिये एक कुत्ता प्रकट हुआ। इसके बाद और भी कई कुत्ते उस पहले कुत्तेके पास श्राकर बोले-'श्रीमान् ! उद्गीथका गान करके हमारे लिये अन्न प्रस्तुत करें, हम भूखे हैं ।' पहला कुत्ता बोला- 'कल प्रातः इसी स्थानमें तुम लोग मेरे पास आना ।' निर्दिष्ट समय पर वे कुत्ते वहाँ एकत्र हुए। और जिस प्रकार यज्ञ कर्ममें उद्गाता एक दूसरेसे मिलकर चलते हैं, ठीक उसी प्रकार वे एक दूसरेसे जुटकर चलने लगे। फिर उन्होंने एक जगह बैठकर 'हाउ हाउ' करके सामगान प्रारम्भ किया-हे सबकी रक्षा करनेवाले परमात्मन् ! Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ हम भूखे और अन्न लाइये " जै० ० सा० इ० पूर्व पीठिका प्यासे हैं । अतः हमारे लिये अन्न लाइये "अन्न लाइये । " यज्ञोंके विरुद्ध सबसे प्रबल आक्रमण तो मुण्डकोपनिषद् ( १-२-७) में है । लवा ह्येते दृढा यज्ञरूपा श्रष्टादशोक्तमवरं येषु कर्म । एतच्छ्रेयो येऽभिनन्दन्ति मूढा जरामृत्यं ते पुनरेवापि यान्ति ॥ ७ ॥ "निश्चय ही ये यज्ञरूप अट्ठारह नौकाएँ अस्थिर हैं, जिनमें नीची श्रेणिका कर्म बताया गया है। जो मूर्ख यही श्रेयस्कर है ऐसा मानकर उनकी प्रशंसा करते हैं वे बारंबार जरा-मरणको प्राप्त होते हैं" । इससे आगे पद्यमें ऐसे लोगोंको 'अन्धेन नीयमाना यथान्धाः' अन्धेके द्वारा ले जानेवाले अन्धोंके तुल्य बतलाया है । मुण्ड० उ० ( १-१-४१५ ) में विद्या अथवा ज्ञानके दो भेद बतलाये हैं एक परा और एक अपरा । तथा वेदोंसे प्राप्त ज्ञानको अपरा अर्थात् नीच विद्या कहा है। नारद कहता है- 'मैं ऋग्वेद सामवेद और यजुर्वेदको जानता हूँ किन्तु इससे मैं केवल मंत्रों और शास्त्रों को जानता हूं, अपनेको नहीं जानता । कठ उप० ( २–४ ) में यमराज नचिकेतासे कहते हैं - 'जो विद्या और विद्या नामसे विख्यात हैं, ये दोनों परस्पर अत्यन्त विपरीत और विभिन्न फल देनेवाली हैं। अविद्या के भीतर स्थित होकर अपने आपको विद्वान् और बुद्धिमान् माननेबाले मूर्ख लोग नाना योनियोंमें भटकते हुए ठीक वैसे ही ठोकरे खाते हैं जैसे अन्धे द्वारा ले जाये जानेवाले अन्धे ।' Jain Educationa International कतिपय उपनिषदोंमें यज्ञोंका विरोध यद्यपि इतना खुलकर नहीं किया गया है तथापि यज्ञोंके प्रचलित रूपकी ओर उपेक्षा For Personal and Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण दिखलाई गई है और उन्हें लाक्षणिक तथा दार्शनिक रूप दिया गया है। जैसाकि पहले लिखा है आरण्यकाका कार्य-यज्ञोंको लाक्षणिक और दार्शनिक रूप दान-उपनिषदों तक चालू रहा है। उदाहरणके लिये वृहदा० उप०को उपस्थित किया जा सकता है। बृहउप०का प्रारम्भ करते हुए विश्वमें यज्ञसम्बन्धी अश्वकी कल्पना की गई है। – 'उषा यज्ञसम्बन्धी अश्वका सिर है, सूर्य नेत्र हैं, वायु प्राण है, अग्नि मुख है, संवत्सर आत्मा है, युलोक पीठ है, आकाश उदर है, पृथ्वी पैर रखनेका स्थान है, दिशाएँ पार्श्वभाग है, अवान्तर दिशाएँ पसलियां हैं, ऋतुएँ अङ्ग हैं, मास और अर्द्ध मास पर्व हैं, दिन और रात्रि पाद हैं, नक्षत्र अस्थियां हैं, आकाशस्थित मेघ मांस हैं, नदियां गुदा हैं, पर्वत यकृत और हृदयगत मांस खण्ड हैं, औषधि और बनस्पतियां रोम हैं, उदय होता हुआ सूर्य नाभिसे ऊपरका भाग और अस्त होता हुआ सूर्य कटिसे नीचेका भाग है। विजलियोंकी चमक जमुहाई है, मेघका गर्जन शरीरका हिलना है, वर्षा मूत्रत्याग है, हिनहिनाना उसकी बाणी है।' अश्वमेध यज्ञके द्वारा पृथ्वीका स्वामित्व प्राप्त हो सकता है किन्तु आत्मिक स्वराज्य तो समस्त विश्वको, जिसकी कल्पना उपनिषदोंमें घोड़ेके रूपमेंकी गई हैत्याग देनेसे ही प्राप्त होता है। इस तरह प्रकाराकारसे अश्वमेध यज्ञको त्यागनेका ही उपदेश दिया गया है। छा० उ० (३, १४-१७ ) में मनुष्यके समस्त जीवनको सोमयज्ञके रूप में स्पष्ट किया गया है और (५, १६-२४ ) में प्राणोंके विभिन्न प्रकाशनोंकी भेटोंको अग्निहोत्रका स्थान दिया है। उपनिषदोंमें जो यज्ञोंको नीचा कर्म बतलाया गया है उसका कारण यही प्रतीत होता है कि यज्ञसे पितृलोककी प्राप्ति हो सकती Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ . जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका है जो अस्थायी है, और वहांसे उसे अवश्य ही इस पृथ्वी पर लौटकर पुनः जन्म-मरणके चक्रमें घूमना होगा। ___ उत्तरकालीन कुछ उपनिषदोंके अवलोकनसे ऐसा भी प्रतीत होता है कि उपनिषदोंमें भी यज्ञका स्थान स्थिर करनेकी एक भावना काम करती रही है। उदाहरणके लिये श्वेताश्वतर उपनिषदको उपस्थित किया जा सकता है, उसमें ( २, ६-७) अग्नि सोम आदि देवताओंकी प्राचीन प्रार्थनाके रूपकी तरफदारी की गई है और लिखा है कि जहाँ यज्ञ किया जाता है वहां एक दैवी प्रकाश पैदा होता है। किन्तु यहां भी उसका लक्ष स्वर्ग नहीं है, किन्तु ब्रह्म है। - उपनिषदोंमें सर्वत्र एक देवता व्याप्त है और वह है ब्रह्म। अन्य सब देवता उसीकी शक्तियां हैं । मैत्रायणीय उपनिषद (४, ५-६) में ब्रह्मा, रुद्र, विष्णु आदि देवताओंको अविनाशी ब्रह्मका प्रत्यक्ष रूप बतलाया है। केन उप० में उमा हैमवती इन्द्रसे कहती है कि देवताओंकी शक्ति और प्रभावका मूल स्रोत परम ब्रह्म है । इसमें बतलाया है कि ब्रह्मके सामने अग्नि आदि देवता कैसे हतप्रभ और अकर्मण्य बन जाते हैं। कठ उपनिषदमें कहा है कि परम ब्रह्मके भयसे देवता लोग अपने अपने उत्तरदायित्वोंको वहन करते हैं। ब्राह्मण ग्रन्थोंका सर्वोच्च देवता प्रजापति भी ब्रह्मका सेवक है। कौषीतकी उपनिषदमें प्रजापति और इन्द्रको ब्रह्मका द्वारा रक्षक बतलाया है। इस तरह उपनिषदोंमें ब्रह्मके समकक्ष कोई नहीं है. वैदिक देवता तो उसके आज्ञाकारी मात्र हैं । वैदिक देवताओं और यज्ञोंके प्रति उपनिषदों के दृष्टिकोणका यह संक्षिप्त चित्रण वस्तुस्थिति पर प्रकाश डालने के लिये पर्याप्त है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण ५६ छा० उ० (६-१-४) में लिखा है कि जब श्वेतकेतु सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन कर अपनेको बड़ा बुद्धिमान और व्याख्याता मानता हुआ अनम्रभावसे घर लौटा तो पिता ने उससे कहापुत्र ! तू जो ऐसा पाण्डित्यका अभिमानी और अविनीत है तो क्या तूने वह आदेश जाना है जिसके द्वारा अश्रुत श्रुत हो जाता है, अमत मत हो जाता है और अविज्ञात विज्ञात हो जाता है ? यह सुनकर श्वेतकेतु ने पूछा-वह आदेश क्या है ? पिताके मुखसे उस आदेशको सुनकर श्वेतकेतु ने कहा-निश्चय ही मेरे गुरु इसे नहीं जानते थे। अब आप ही मुझे बतलाइये । कहना न होगा कि वह आदेश ब्रह्मके स्वरूपको लेकर था। आत्मा और ब्रह्म आत्मा और ब्रह्मको समझे बिना उपनिषदोंको नहीं समझा जा सकता। इन दो स्तम्भों पर ही उपनिषदोंके तत्त्वज्ञानका प्रासाद खड़ा हुआ है। यदि एक वाक्यमें उपनिषदोंका मूल सिद्धान्त कहा जाये तो यह है-'विश्व ब्रह्म है और ब्रह्म आत्मा है।' उपनिषदोंमें अनेक स्थानोंमें ब्रह्म और आत्मा शब्दका प्रयोग एक अर्थमें किया गया है। बृह. उप० (४-४-५ ) में लिखा है-'स वायमात्मा ब्रह्म' वह यह आत्मा ब्रह्म है। छा० उ० (५-११-१ ) में लिखा हैकुछ महागृहस्थ और परमश्रोत्रिय परस्परमें विचार करने लगे'को नु आत्मा, किं ब्रह्म !' आत्मा कौन है और ब्रह्म क्या है ? __ वेदोंमें 'ब्रह्म' शब्द अनेक बार आया है। किन्तु उसका अर्थ या तो प्रार्थना है या मंत्रविधि है। किसी देवताके प्रति श्रद्धा या भक्तिका भाव वहाँ नहीं है। उत्तर काल में त्रयीविद्या ( ऋक् यजु, साम) को भी ब्रह्म कहा है और इस तरह ब्रह्म और वेद Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ - जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका शब्दका प्रयोग एक ही अर्थमें किया गया है। अब चूंकि वेद या ब्रह्मको दैवी माना गया था और वेदोंसे उत्पन्न अथवा वेदोंमें वर्णित यज्ञको भी दैवी माना गया था, क्योंकि शत० ब्रा० (५, ५.५-१०) में कहा है-'समस्त यज्ञ उतने ही महान हैं जितने महान् तीनों वेद हैं।' अतः वह ब्रह्म या वेद 'प्रथमज' कहा जाने लगा और अन्तमें उसे सबका मूल कारण माना जाने लगा। इस प्रकार ब्रह्म दैवी मूल तत्त्वके रूपमें ब्राह्मण-दर्शनका बीज है । और प्रार्थना तथा यज्ञके सम्बन्धमें जो ब्राह्मण दृष्टिकोण है उसके प्रकाशमें उसका विश्लेषण अच्छी तरह किया जा सकता है । (हि० इं० लि० विन्ट०, जि० १, पृ० २४८-६) । ____ अब 'आत्मा' शब्दको लीजिये। संस्कृतमें यह शब्द बहुतायतसे आता है और इसका अर्थ भी स्पष्ट है। यह 'स्वयं को कहता है। यद्यपि बाह्य संसारसे भेद दिखलाते हुए आत्मा शब्दका प्रयोग कभी कभी शरीरके लिये भी हो जाता है किन्तु इसका यथार्थ मतलब शरीरस्थ आत्मासे है, जो शरीरसे भिन्न है। उपनिषदोंके दर्शन में ये दोनों ब्रह्म-आत्मा संयुक्त हो गये हैं। छा० उ० (३-१४ ) में शाण्डिल्यका सिद्धान्त 'सर्वं खल्वि ब्रह्म' 'निश्चय ही यह सब ब्रह्म है, से आरम्भ होता है और आत्माका वर्णन करनेके पश्चात् 'एष म आत्मान्तह दय एतद् ब्रह्म''वह मेरा आत्मा हृदय कमलमें स्थित है वही ब्रह्म है' इत्यादि वाक्य के साथ समाप्त होता है। आत्म जिज्ञासा उपनिषदोंके अवलोकनसे ज्ञात होता है कि वैदिक ऋषियोंके अन्दर दो जिज्ञासाएँ विशेषरूपसे क्रियात्मक थीं- एक, विश्वका Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण मूल कारण क्या है ? दूसरी, आत्माका सत्य स्वरूप क्या है ? आत्म स्वरूपकी उत्कृष्ट जिज्ञासा तथा उसको शान्त करनेके लिये आत्म स्वरूपका वर्णन अनेक उपाख्यानोंके द्वारा प्रदर्शित किये गये है। यहाँ उनमेंसे दो एक उपाख्यान दिये जाते हैं, उन उपाख्यानोंसे उक्त तथ्य पर प्रकाश पड़नेके साथ ही साथ तत्कालीन स्थितिका भी दिग्दर्शन होता है। . कठोपनिषदमें एक उपाख्यान इस प्रकार है---उद्दालक ऋषि ने फलकी कामनासे विश्वजित् नामका एक यज्ञ किया। इस यज्ञमें सर्वस्वदान करना पड़ता है। अतएव उद्दालक ने भी अपना सारा धन ऋत्विजोंको दक्षिणामें दे दिया। उद्दालकके नचिकेता नामका एक पुत्र था। जब दक्षिणामें देनेके लिये गौएँ लाई गई तो बालक नचिकेता ने उन्हें देखा। गौओंकी दयनीय दशा देखकर उसने मनमें सोचा, पिता जी, ये कैसी गौएँ दक्षिणामें दे रहे हैं ! अब न तो इनमें झुककर जल पीनेकी ही शक्ति रह गई है, न इनके मुख में घास चबानेके लिये दाँत हैं, न इनके स्तनोंमें तनिक सा भी दूध है, और न इनमें गर्भधारण करनेकी शक्ति है। भला, इन गौओंसे ब्राह्मणोंको क्या लाभ होगा। और पिता जी इस दानसे क्या सुख पायेंगे ! इनके सर्वस्वमें तो मैं भी हूं। मुझको तो इन्होंने दानमें दिया नहीं, पर मैं इनका पुत्र हूं अतएव मुझे इनको अनिष्टसे बचाना चाहिये। यह सोचकर वह अपने पितासे बोला-तात ! आप मुझे किसको देते हैं ? उत्तर न मिलने पर उसने वही बात दुबारा और तिबारा कही। तब पिता ने क्रोधमें आकर कहा तुझे मैं मृत्युको देता हूँ। यह सुनकर नचिकेता यमराजके पास चला गया। वहाँ पहुँचने पर उसे ज्ञात हुआ कि यमराज कहीं बाहर गये हैं अतः Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ जै० सा० इ० - पूर्व पीठिका वह तीन दिन तक बिना खाये पिये उनके द्वार पर बैठा रहा । लौटने पर यमराजको यह समाचार ज्ञात हुआ और उन्होंने नचिकेता पर प्रसन्न होकर उसे तीन वरदान दिये। तीसरे वरदानको माँगते हुए नचिकेता कहने लगा- मरे हुए मनुष्य के विषय में संशय है । कोई तो कहते हैं कि मरनेके बाद वह रहता है कोई कहते हैं नहीं रहता। मैं यह जानना चाहता हूं कि वह रहता है या नहीं रहता ? नचिकेताका प्रश्न सुनकर यमराज बोले- हे नचिकेता ! इस विषय में पहले देवताओं ने भी सन्देह किया था परन्तु उनकी भी समझमें नहीं आया ; क्योंकि यह विषय बड़ा सूक्ष्म है । अतः मुझ पर दबाव मत डालो। इस प्रकार यमराज ने स्वर्ग के देवी प्रलोभन देकर भी नचिकेताको अपने प्रश्नसे विमुख करना चाहा और कहा - हे नचिकेता, मरनेके बाद आत्माका क्या होता है, इस बातको मत पूछो । किन्तु नचिकेता अपने प्रश्न पर ही दृढ़ रहा और बोला - यह मनुष्य मरणधर्मा है इस बातको जाननेवाला मनुष्य लोकका निवासी कौन मनुष्य है जो बुढ़ापे से रहित, न मरनेवाले श्राप जैसे महात्माओं का संग पाकर भी आमोद-प्रमोदका चिन्तन करता हुआ बहुत काल तक जीवित रहना पसन्द करेगा | अतः परलोक सम्बन्धी आत्म ज्ञानके विषय में मेरा सन्देह दूर कीजिये । तब यमराजने उसकी दृढ़ता से प्रसन्न होकर उसे आत्मतत्त्व का उपदेश किया शब्दम स्पर्शमरूपमव्ययं तथारसं नित्यमगन्धवच्च यत् । अनाद्यनन्तं महतः परं ध्रुवं निचाम्य तन्मृत्युमुखात्प्रमुच्यते ||१५|| जो शब्द, स्पर्श, रूप, अव्यय, अरस, नित्य और अगन्ध है, जो अनादि अनन्त महत्तत्वसे भी विलक्षण और ध्रुव है, उस आत्माको जानकर पुरुष मृत्युके मुखसे छूट जाता है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण ६३ प्रश्नोपनिषद् में महात्मा पिप्पलादसे भारद्वाज सुकेशा कहते -भगवन् ! एक बार कोसल देशका राजकुमार हिरण्यनाभ मेरे पास आया और उसने मुझसे पूछा- क्या तुम सोलह कलाओं वाले पुरुषके विषय में जानते हो ? मैंने स्पष्ट कह दियामैं नहीं जानता TE वह रथपर बैठकर चला गया। अब मैं उसी तत्त्वको जानना चाहता हूँ । पुरुष छा० उप०, अ० ७ में नारद जीने सनत्कुमारके पास जाकर कहा - 'भगवन् ! मुझे उपदेश दीजिये ।' सनत्कुमारने कहा- तुम जो कुछ जानते हो उसे बतलाओ, तब मैं तुम्हें आगे बतलाऊँगा । नारदने कहा - भगवन्! मैं ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और चौथा अथर्ववेद जानता हूँ । इनके सिवा इतिहास पुराणरूप पांचवा वेद, व्याकरण, श्राद्धकल्प, गणित, देवविद्या, ब्रह्मविद्या, भूतविद्या, विद्यादि सब मैं जानता हूं । सो मैं भगवन् मंत्रविद् तो हूं किन्तु आत्मवित् नहीं हूं। मैंने सुना है कि आत्मवेत्ता शोकको पारकर लेता है, परन्तु भगवन् मैं शोक करता हूं मुझे शोकसे पार कर दीजिये । तब सनत्कुमारने उनसे कहा- तुम जो कुछ जानते हो वह नाम है तुम नामकी उपासना करो। तब नारदने पूछा- क्या नामसे भी अधिक कुछ है ? हां नामसे भी अधिक है ? तो भगवन् मुझे वही बतलाइये । इस प्रकार सनत्कुमार जो कुछ बतलाते गये नारद उससे भी अधिक, उससे अधिक की जिज्ञासा करता गया । अन्तमें सनत्कुमारने कहा— आत्मदर्शनसे इन सबकी प्राप्ति हो जाती है । अत्मा ही सत्य है । छा० उप० अ०८ में इन्द्र और विरोचनका वृत्तान्त भी इस विषय में अच्छा प्रकाश डालता है, अतः उसे भी यहां दिया जाता है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका एक बार प्रजापतिने कहा-'जो आत्मा पापशून्य, जरा रहित, मृत्यु रहित, शोक रहित, क्षुधा रहित, प्यास रहित, सत्य काम और सत्य संकल्प है उसे खोजना चाहिये । और उसे विशेषरूपसे जानना चाहिये । जो उस आत्मा को जान लेता है, वह सम्पूर्ण लोक और समस्त कामनाओंको प्राप्तकर लेता है।' । प्रजापतिके इस वाक्यको सुर असुर दोनोंने ही जान लिया। वे कहने लगे-हम उस आत्माको जानना चाहते हैं जिसके जानने पर सम्पूर्ण लोक और समस्त भोग प्राप्त हो जाते हैं। ऐसा विचारकर देवताओंका राजा इन्द्र और असुरोंका राजा विरोचन दोनों प्रजापतिके पास आये। उन्होंने बत्तीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य वास किया। तब उनसे प्रजापतिने कहा- तुम यहां क्यों रह रहे हो ? उन्होंने कहा-आत्माको जाननेकी इच्छासे हम यहां रह ___ उनसे प्रजापतिने कहा-यह जो पुरुष नेत्रोंमें दिखाई देता है, वह आत्मा है, वह अमृत है अभय है, ब्रह्म है । यह उत्तर सुनकर दोनों चले गये। उनमेंसे विरोचन असुरोंके पास पहुँचा और उन्हें आत्मविद्या बतलाई-इस लोकमें यह शरीर ही आत्मा है यही पूजनीय और सेवनीय है। शरीरकी पूजा करनेवाला इस लोक परलोक दोनोंको प्राप्त करता है। किन्तु इन्द्रने सोचा यदि शरीर ही आत्मा है तो अमरत्व कहाँ रहा ? अतः वह पुनः आकर बत्तीस वर्ष तक प्रजापतिके पास रहा। तब प्रजापतिने कहा-'यह जो स्वप्नमें पूजित होता हुआ विचरता है यह आत्मा है, यह अमृत है, अभय है और यही ब्रह्म है।' इस उत्तरसे सन्तुष्ट होकर इन्द्र लौटा। किन्तु मार्गमें उसने पुनः विचार किया कि यद्यपि स्वप्न शरीर इस Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण शरीरके दोषसे दूषित नहीं होता फिर भी वह सुख दुःखसे सर्वथा अछूता तो नहीं है। यह सोचकर इन्द्र पुनः लौटा और बत्तीस वर्ष तक प्रजापतिके पास रहा। तब प्रजापतिने कहा-'जिस अवस्थामें यह सोया हुआ दर्शनवृत्तिसे रहित और सम्यक् रूपसे आनन्दित हो स्वप्नका अनुभव नहीं करता, वह आत्मा है, वह अमृत है, अभय है, ब्रह्म है।' इस उत्तरको सुनकर इन्द्र चल दिया। किन्तु मार्गमें उसने विचार किया-'सुप्तावस्थामें तो इसे यह भी ज्ञान नहीं रहता कि यह मैं हूं। उस समय तो मानों यह विनष्ट हो जाता है। अतः वह पुनः लौटकर प्रजापतिके पास आया और पांच वर्ष तक रहा । तब प्रजापतिने कहा-यह शरीर मृत्युसे ग्रस्त है, वह उस अमत अशरीरी आत्माका अधिष्ठान है। सशरीर आत्मा निश्चय ही प्रिय अप्रियसे ग्रस्त है ।""जो यह अनुभव करता है कि मैं संघू , वह आत्मा है । उसके गन्ध ग्रहणके लिये नासिका है। जो ऐसा अनुभव करता है कि मैं बोलू, वह आत्मा है, इत्यादि । उपनिषदोंसे दिये गये उक्त संवादोंसे यह स्पष्ट है कि उपनिषत्कालमें वैदिक ऋषियोंमें आत्मतत्त्वको जाननेकी प्रबल जिज्ञासा थी। उन्हें यह अनुभव हो चुका था कि वैदिक ज्ञान आत्मज्ञानके सामने हीन है। वैदिक क्रियाकाण्डसे जो स्वर्ग मिलता है वह स्थायी नहीं है उसमें अमृतत्व और अभयत्व नहीं है, आत्मतत्त्वको जान लेनेसे ही अमृतत्व और अभयत्व प्राप्त हो सकता है अतः इन्द्र और नारद तक उसके ज्ञान के लिये लालायित थे। और ऋषि लोग परस्परमें मिलते थे तो उसीकी चर्चा करते थे। जैसे ब्राह्मणकालमें यज्ञोंकी तूती बोलती थी वैसे ही उपनिषद्कालमें उसका स्थान आत्मविद्याने ले लिया था। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका और ऋषिलोग उसको जाननेके लिये क्षत्रियोंका शिष्यत्व तक स्वीकार करते थे। आत्मविद्याके स्वामी क्षत्रिय प्राचीनकालसे ही क्षत्रिय जाति बौद्धिक जीवन और साहित्यिक कार्योंसे सम्बद्ध रहती आई है। इस तथ्यका समर्थन न केवल उपनिषदोंसे ही होता है किन्तु ब्राह्मण ग्रन्थ भी इसे प्रमाणित करते हैं। कौषीतकी ब्राह्मणमें ( २६-५) प्रतर्दन नामक एक राजा यज्ञके विषयमें पुरोहितोंसे वार्तालाप करता हुआ देखा जाता है। शतपथ ब्रा० में विदेहके राजा जनकका बारम्बार उल्लेख आता है, जिसने अपने ज्ञानसे सब ऋषियोंको हतप्रभ कर दिया था । राजा जनकने श्वेतकेतु, सोमशुष्म और याज्ञवल्क्यसे पूछा कि आप अग्निहोत्र कैसे करते हैं ? किन्तु उनमेंसे किसीने भी सन्तोष जनक उत्तर नहीं दिया। यद्यपि याज्ञवल्क्यको सौ गौ पारितोषिकके रूपमें मिलीं; क्योंकि उसने अग्निहोत्रके विषयमें बड़ी गहराईसे विचार किया था किन्तु अग्निहोत्रका यथार्थ आशय वह नहीं बता सके । __राजाके चले जानेपर ऋषि लोग आपसमें कहने लगे कि यह क्षत्रिय तो अपने सम्भाषणके द्वारा वास्तवमें हमें हरा गया। अब हमें शास्त्रार्थ के लिये उसे ललकारना चाहिये। किन्तु याज्ञवल्क्यने उन्हें ऐसा करनेसे रोका और कहा-हम ब्राह्मण है, और वह केवल एक क्षत्रिय है। यदि हम जीत गये तो हम कैसे कहेंगे कि हम एक क्षत्रियसे जीत गये। किन्तु यदि उसने हमें हरा दिया तो लोग कहेंगे कि एक क्षत्रियने ब्राह्मणोंको हरा दिया। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण ६७ दोनों ऋषि उसकी बात मान गये। किन्तु याज्ञवल्क्य जनकके पास गया और उससे ज्ञान दानकी प्रार्थना की। (हि. इं० लि. ( विन्ट० ) जि० १, पृ० २२७-८)। ____ उपनिषदोंमें बारम्बार यह कहा गया है कि राजा अथवा क्षत्रियों के पास सर्वोच्च विद्या थी छौर ब्राह्मण उसे प्राप्त करनेके लिये उनके पास जाते थे। छा० उप० (५-३ ) में एक संवाद इस प्रकार है--आरुणिका पुत्र श्वेतकेतु पाञ्चाल देशके लोगोंकी सभामें आया । उससे जीवलके पुत्र प्रवाहणने पूछा-कुमार ! क्या पिताने तुझे शिक्षा दी है ? उसने कहा-हाँ भगवन् । क्या तुझे मालूम है कि इस लोकसे जानेपर प्रजा कहाँ जाती है ? नहीं, भगवन् ! क्या तू जानता है कि वह फिर इस लोकमें कैसे आती है ? नहीं, भगवन् ! देवयान और पितृयान-इन दोनों मार्गोंका पारस्परिक वियोग स्थान तुझे मालूम है ? नहीं, भगवन् ! तुझे मालूम है कि यह पितृलोक भरता क्यों नहीं है ? नहीं भगवन् ! इत्यादि सभी प्रश्नोंका उत्तर नकारमें सुनकर प्रवाहणने श्वेतकेतुसे कहा-'तो फिर तू अपनेको 'मुझे शिक्षा दी गई है। ऐसा क्यों कहता था ? जो इन बातोंको नहीं जानता वह अपनेको शिक्षित कैसे कहता है ? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ जै० सा० इ०-पूर्वपीठिका तब श्वेतकेतु त्रस्त होकर अपने पिताके पास आया और उससे बोला-आपने मुझे शिक्षा दिये बिना ही कह दिया था कि मैंने तुझे शिक्षा दे दी है। उस क्षत्रियने मुझसे पाँच प्रश्न पूछे। किन्तु मैं उनमेंसे एकका भी उत्तर नहीं दे सका। पिताने कहा-तुमने जो प्रश्न मुझे सुनाये हैं उनमें से मैं एक का भी उत्तर नहीं जानता। तब वह गौतम गोत्रीय ऋषि राजा प्रवाहणके स्थान पर श्राया। राजाने उससे कहा-भगवन् गौतम ! आप मनुष्य सम्बन्धी धनका वर मांग लीजिये । उसने कहा-राजन् ! यह मनुष्य सम्बन्धी धन आपके ही पास रहे। आपने मेरे पुत्रके प्रति जो बात प्रश्न रूपसे पूछी थी, वही मुझे बतलाइये । तब राजा संकटमें पड़ गया। 'चिर काल तक यहाँ रहो, ऐसी आज्ञा देकर राजाने ऋषिसे कहा-'पूर्व कालमें तुमसे पहले यह विद्या ब्राह्मणोंके पास नहीं गयी । इसीसे सम्पूर्ण लोकोंमें इस विद्याके द्वारा क्षत्रियोंका ही अनुशासन होता रहा है।' अन्तमें राजाने उसे विद्याका दान दिया। वह विद्या थी पुनर्जन्मका सिद्धान्त । छा० उ० का उक्त संवाद स्पष्ट रूपसे इस तथ्यको प्रमाणित करता है कि पुनर्जन्मका सिद्धान्त क्षत्रियों से उद्भूत हुआ है और ब्राह्मण धर्मने उन्हींसे उसे लिया है। (हि० इ० लि० (विन्ट०) जि० १, पृ० २३१)।। इसी प्रकार उपनिषदोंके अन्य संवादोंसे यह प्रमाणित होता है कि उपनिषदोंका मुख्य सिद्धान्त आत्मविद्या भी अब्राह्मण क्षेत्र १. यथेयं न प्राक त्वत्तः पुरा विद्या ब्राह्मणान् गच्छति तस्मादु सर्वेषु लोकेषु क्षत्रस्यैव प्रशासनमभूदिति तस्मै होवाच ॥ ७ ॥-छा. उ० ५-३ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण में ही प्रकट हुई थी। छा० उप० (५-११) में लिखा हैउपमन्युका पुत्र प्राचीनशाल, पुलुषका पुत्र सत्ययज्ञ, भाल्लविके पुत्रका पुत्र इन्द्रद्युम्न, शर्कराक्षका पुत्र जन और अश्वतराश्वका पुत्र बुडिल-ये महागृहस्थ और परम श्रोत्रिय एकत्र होकर परस्पर विचार करने लगे कि हमारा आत्मा कौन है और ब्रह्म क्या है ? __उन्होंने स्थिर किया कि यह अरुणका पुत्र उद्दालक इस समय इस वैश्वानर आत्माको जानता है अतः हम उसके पास चलें। ऐसा निश्चय करके वे उसके पास गये। उसने सोचा कि ये परम श्रोत्रिय महागृहस्थ मुझसे प्रश्न करेंगे, किन्तु मैं इन्हें पूरी तरहसे नहीं बतला सकूँगा। अतः मैं इन्हें दूसरा उपदेष्टा बत गादूं।' यह सोचकर उसने इनसे कहा-इस समय केकयकुमार अश्वपति इस वैश्वानर आत्माको अच्छी तरह जानता है। आओ, हम उसके पास चलें। ___ अपने पास आये हुए उन ऋषियोंका राजाने सत्कार किया और दूसरे दिन प्रातःकाल होते ही उनसे कहा-मैं यज्ञ करनेवाला हूँ, मैं एक एक ऋत्विकको जितना धन दूंगा उतना ही आपको भी दूंगा। अतः आप लोग यहीं ठहरें। वे बोले-जिस प्रयोजनसे कोई पुरुष कहीं जाता है उसे चाहिये कि वह अपने उसी प्रयोजनको कहे। इस समय आप वैश्वानर आत्माको जानते हैं। उसीका आप हमारे प्रति वर्णन कीजिये। वह उनसे बोला-मैं प्रातःकाल आप लोगोंको इसका उत्तर दूंगा। तब दूसरे दिन पूर्वाह्नमें वे हाथोंमें समिधा लेकर राजाके Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका पास गये। राजाने उनका उपनयन न करके ही उन्हें आत्मविद्याका उपदेश दिया। ___ इस संवादका वर्णन शत० ब्रा० ( १०-६-१) में भी पाया जाता है। इस तरहके संवादोंसे यह स्पष्ट है कि जब ब्राह्मणवर्ग अपने यज्ञोंके कर्मकाण्डमें उलझा हुआ था, दूसरे क्षेत्र उस गम्भीर आध्यात्मिक तत्त्वज्ञानमें संलग्न थे, जिसका वर्णन उपनिषदों में है। ___ इस दूसरे क्षेत्रसे ही, जो कि मूलतः पुरोहित वर्गसे सम्बद्ध नहीं था, विचरणशील परिब्राजक, श्रमण आदि सन्यास मार्ग अग्रसर हुए। ये लोग सांसारिक सुखोंके प्रति ही उदासीन नहीं थे कि तु यज्ञों और वैदिक क्रियाकाण्डसे भी दूर थे। किन्तु इसका यह अभिप्राय नहीं है कि ब्राह्मणोंने दार्शनिक विचारोंमें कोई भाग नहीं लिया। क्योंकि क्षत्रिय आदि उच्च वर्णके लोग ब्राह्मणों के पास पढ़ते थे अतः उनमें परस्पर विचारों का आदान-प्तदान अवश्य होता था। साथ ही ब्राह्मणोंमें एक अपनी कट्टरता तथा ब्राह्मणत्वको सुरक्षित रखते हुए विरोधी बिचारोंको भी अपने अनकूल बना लेनेकी एक अपूर्व चतुराई है और उसी चतुराईके कारण वेदविरोधी अध्यात्मविद्याको उन्होंने इस खूबीसे अपनाया है कि मानों उपनिषदोंका तत्त्वज्ञान उन्हींकी देन हैं। डा० दास गुप्ताने अपने भारतीय दर्शनके इतिहास (जि० १, पृ. ३३ ) में लिखा है कि आम तौरसे क्षत्रियोंमें दार्शनिक अन्वेषणकी उत्सुकता वर्तमान थी और उपनिषदोंके सिद्धान्तोंके निर्माणमें अवश्य ही उनका मुख्य प्रभाव रहा है। तथ्य यह है कि प्राचीन उपनिषदोंकी साहित्यिक रचना ब्राह्मण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण ७१ क्षेत्रमें हुई है और केवल इसीलिये उन्हें ब्राह्मणोंका कह सकते हैं। किन्तु इसका यह मतलब कदापि नहीं लेना चाहिये कि उपनिषदोंके सब विचार अथवा सबसे अधिक सारभूत विचार प्रथमवार ब्राह्मण क्षेत्रमें उद्भूत हुए थे। आपस्तम्वीय धर्मसूत्र ( २, २-४-२५ ) तकमें ब्राह्मणके लिये अनुज्ञा है कि आपत्तिकालमें वह क्षत्रिय अथवा वैश्य गुरुसे भी पढ़ सकता है। (हि. इं. लि. (विन्ट०) जि० १, पृ. २३२ की टिप्पणी में)। इस प्रकार क्षत्रिय वर्ग दार्शनिक चर्चाओंमें खूब रस लेते थे। वे ज्ञानके मात्र रक्षणकर्ता ही नहीं थे किन्तु स्वयं ज्ञानी थे और ब्राह्मण तक उनके शिष्य थे। ( वै० ए० पृ० ४३०) डा. दास गुप्ता ने और भी (हि. इं० फि०, जि० १, पृ० ३१) लिखा है-'यहाँ यह निर्देश करना अनुचित न होगा कि उपनिषदोंमें बारंबार आनेवाले संवादोंसे, जिनमें कहा गया है कि उच्च ज्ञानकी प्राप्तिके लिये ब्राह्मण क्षत्रियोंके पास जाते थे, तथा ब्राह्मण ग्रन्थोंके साधारण सिद्धान्तोंके साथ उपनिषदोंकी शिक्षाका मेल न होनेसे और पाली ग्रन्थोंमें वर्णित जनसाधारणमें दार्शनिक सिद्धान्तोंके अस्तित्वकी सूचनासे यह अनुमान करना शक्य है कि साधारणतया क्षत्रियोंमें गम्भीर दार्शनिक अन्वेषण की प्रवृत्ति थी, जिसने उपनिषदोंके सिद्धान्तोंके निर्माणमें प्रमुख प्रभाव डाला। अतः यह संभव है कि यद्यपि उपनिषद ब्राह्मणोंके साथ सम्बद्ध हैं किन्तु उनकी उपज अकेले ब्राह्मण सिद्धान्तोंकी उन्नतिका परिणाम नहीं है, अ-ब्राह्मण विचारोंने अवश्य ही या तो उपनिषद सिद्धान्तोंका प्रारम्भ किया है अथवा उनकी उपज और निर्माणमें फलित सहायता प्रदान की है, यद्यपि ब्राह्मणों के हाथोंसे ही वे शिखर पर पहुंचे हैं।' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका । स्व० रमेशचन्द दत्तने भी वही विचार प्रकट करते हुए लिखा है-"जब कि ब्राह्मण लोग क्रिया संस्कारोंको बढ़ाये जाते थे.... तो विचारवान सच्चे लोग यह सोचते थे कि क्या धर्म केवल इन्हीं क्रिया संस्कारों और विधियोंको सिखलाता है,....... उन्होंने आत्माके उद्देश और ईश्वरके विषयमें खोज की, ये नये तथा कृतोद्यम विचार ऐसे वीरोचित पुष्ट और दृढ़ थे कि ब्राह्मण लोगोंने, जो कि अपनेको ही बुद्धिमान समझते थे, अन्तको हार मानी और वे क्षत्रियोंके पास उनको समझनेके लिये आये। उपनिषदोंमें वे ही दृढ़ और पुष्ट विचार है।" ( प्रा०मा० सं० इ०, भा० १, पृ० ११०-१११)। दार्शनिक विचारों के विकास में सहायक दो अवैदिक तत्त्व ऋग्वेदसे उपनिषदों तककी स्थिति का अनुशीलन करने से प्रकट होता है कि ऋग्वैदिक कालमें वैदिक आर्य सिन्धु घाटीमें बसते थे। किन्तु वहाँ वे अकेले ही नहीं थे, उनके बीचमें और चारों ओर तथा उत्तर भारतके मैदानों में अनेक जातियां बसती थीं जिनके साथ उनका युद्ध होता रहता था और जिन्हें वे दास और दस्यु कहते थे। उनके साथ आर्योंका विरोध केवल स्वाभाविक नहीं था, किन्तु आवश्यक भी था। क्योंकि उनके और आर्योंके बीच में धार्मिक भेद था। ऋग्वेदके उल्लेखोंके अनुसार वे यज्ञ नहीं करते थे, क्रिमाकर्मसे शून्य थे, वैदिक देवताओंसे घृणा करते थे, और ऐसा व्रत पालते थे जिनसे आर्य अपरिचित थे। आर्योंने युद्ध Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण में उन्हें जीतकर उनके बहुतसे आदमियोंको दास बना लिया था। ये दो जातियां-एक आर्य और एक तथोक्त दास दस्यु जिन्हें द्रविड़ माना जाता है--भारतकी नृवंश विद्याके दो मूल तत्त्व हैं। उन दोनोंने परस्परमें एक दूसरे पर अपना जो प्रभाव डाला, उस पारस्परिक प्रभावके फलस्वरूप भारतकी सभ्यता और धर्मका विकास हुआ। ___ भारतकी धार्मिक क्रान्तिके अध्ययनमें जो विद्वान लोग अपना सारा ध्यान आर्य जातिकी ओर ही लगा देते हैं और भारतके समस्त इतिहासमें द्रविड़ोंने जो बड़ा भाग लिया है उसकी उपेक्षा कर देते हैं वे महत्त्वके तथ्यों तक पहुंचनेसे रह जाते हैं । (रि० लि. इ. पृ. ४-५)। वैदिक आर्यो का विश्वास था कि यज्ञ देवताओंको प्रभावित करते और उनसे इष्ट वस्तुकी प्राप्ति कराने में समर्थ हैं। अतः प्रत्येक प्रमुख आर्य पुरोहितोंसे सहायता प्राप्त करनेके लिये उत्सुक रहता था और पुरोहित उनके लिये देवताओंसे जो समृद्धि और विजय प्राप्त करता था उसके लिये वे उसे प्रचुर दक्षिणा देते थे। इसलिये पुरोहितोंका बड़ा प्रभाव और आदर-सन्मान था और उनके अनेक वंश थे । ऋग्वेद की ऋचाएं सात समूहोंमें विभाजित हैं। ये सात समूह सात पुरोहित वंशों की, जिन्हें मंत्र द्रष्टा होनेसे ऋषि कहा जाता है, देन है। __परन्तु ऋग्वेदके धर्ममें न संन्यास है, न आत्मसंयम है, न वैराग्य है न दर्शन है और न मन्दिर है; क्योंकि यज्ञ तो यज्ञकर्ताके घर के पास ही किसी मैदानमें वेदी बनाकर किये जाते थे। सारांश यह है कि वैदिक सभ्यता क्रियाकाण्डी सभ्यता थी। वैदिक आयोंके धार्मिक जीवनका सबसे प्रमुख अंग यज्ञोंमें सोम Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका पान था । और वैदिक ग्रन्थ इस विधिसे घनिष्टरूपसे सम्बद्ध हैं। यद्यपि सैद्धान्तिक और दार्शनिक विचारोंके तत्त्वका वैदिक प्रन्थोंमें सर्वथा अभाव नहीं है, किन्तु विद्वानोंके मतानुसार दार्शनिक विचारोंके विकासके लिये क्रियाकाण्डवाद उत्तम पड़ौस तो नहीं है। आदर्शवादी विचारोंके विकासके लिये एकाग्रता और चिन्तन आवश्यक हैं और इनके लिये यज्ञ उचित स्थान नहीं है। (हि० फि० ई० वे०, पृ० ३२)। इसी तरह साकाररूपमें देवताकी उपासना परमात्मविषयक उच्च विचारोंकी ओर ले जाती है। ऐसी उपासना वहीं हो सकती है जहां कोई देवताका दृश्य प्रतीक होता है या साक्षात् मूर्ति होती है। यज्ञकी पद्धति कोई ऐसी वस्तु नहीं है जो स्थायी स्थानका रूप ले सके, क्योंकि यज्ञ तो यथावसर तत्काल निर्मित मण्डपमें किये जाते थे और यज्ञ समाप्त होनेके साथ ही मण्डप समाप्त हो जाता था। किन्तु एक मन्दिर निर्माण करके और उसमें देवता को स्थापित करके पूजन करना एक स्थायी वस्तु है। यज्ञमें तो यज्ञके कर्ता पुरोहित लोग ही उस अदृश्य शक्तिका अनुभवन कर सकते थे-दूसरे लोग तो केवल अग्नि और उसमें दी जानेवाली आहुतियोंको देख सकते थे, उसमें क्रियात्मक भाग नहीं ले सकते थे। अतः मन्दिरपूजाके साथ साकारता, सामाजिकता और सततता सम्बद्ध है इसलिये सैद्धान्तिक विचारों के विकासके लिये मन्दिर ही उचित स्थान हो सकता है । यह मन्दिर प्रारम्भमें शहरी सभ्यतासे सम्बद्ध नहीं थे, किन्तु इनका सम्बन्ध जंगलोंसे था (हि. फि० ई० वे० पृ० ३३ )। अतः विद्वानोंका मत है कि वैदिक सभ्यतामें उत्तरकालमें जो शहरोंके स्थानमें वनोंका और यज्ञोंके स्थानमें मन्दिर पूजाका प्रचलन हुआ, यह अ-वैदिक संस्कृतिका प्रभाव है, क्योंकि ये Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण दोनों तथ्य मूलतः अवैदिक हैं। और इन दोनोंका दर्शनशास्त्रकी अभ्युन्नति पर बड़ा प्रभाव है (हि. रि० ई० वे०, पृ० ३३)। डा० भण्डारकरने लिखा है 'भारत सदासे विदेशियोंके आक्रमणके लिये मुक्त रहा है और उनके भारतमें वस जानेसे यहां जातियोंका सम्मिश्रण होता आया है। इन जातियोंके अपने देवता होते थे। आर्योंके हाथमें भारतका अधिकार आनेसे पूर्व उनमेंसे कुछ जातियां लिंग द्वारा अपने देवताओंकी उपासना करती थीं। और लिंग पूजाका इतना अवश्य ही चलन रहा होगा कि उसे आर्योने स्वीकार कर लिया और अपने वैदिक देवता इंद्रके साथ उसका एकीकरण कर दिया। अन्य जातियां अन्य देवोंको पूजती थीं उन्हें भी आर्योने अपने देवताओंमें सम्मिलित कर लिया। उनकी प्रशंसामें पुराण रचे गये। जैन और बौद्ध धर्मकी स्थापना उन मनुष्योंने की थी जो परमात्मा माने जाते थे। अतः उनके स्मारकांकी पूजा तथा उनकी मूर्तियोंका आदर करनेकी इच्छा होना स्वाभाविक है। यह पूजा प्रचलित हो गई और समस्त भारतमें फैल गई। अतः राम, कृष्ण, नारायण, लक्ष्मी और शिव पार्वतीकी मूर्तियां तैयारकी गई और पूजाके लिये सार्वजनिक स्थानोंमें स्थापित की गईं। ( क० व. भां०, जि० १, पृ०४११)। ___ इसी तरह बनोंका भारतीय विचारों के विकासमें महत्त्वपूर्ण स्थान है। अरण्यवासी ऋषियोंके आश्रम दार्शनिक विचारोंके केन्द्र थे। किन्तु उनकी चर्चा उपनिषद्कालमें ही श्रवण गोचर होती है। उपनिषद्से पूर्व रचे गये वेदोंमें उन अरण्यवासियोंका कोई Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका हाथ नहीं है। ऋग्वेदके संकलयिता ऋषि इन अरण्यवासी ऋषियोंसे सर्वथा भिन्न थे। वे अरण्य ( वन ) में नहीं रहते थे। किन्तु नगरों और गावोंमें रहते थे। और इस लिये अरण्यवासी ऋषियोंकी तरह वे संसारसे उदासीन नहीं थे। वेद-मन्त्रोंके दृष्टा होनेसे उन्हें ऋषि कहा जाता था। ब्राह्मण सभ्यताके निर्माणमें उन्हींका हाथ था-अरण्यवासी ऋषियोंका हाथ नहीं था। इसी तरह वैदिक देवता भी अरण्यवासी नहीं थे। वे सवारियों पर बैठते थे जिन्हें घाड़े खींचते थे। हां, अवैदिक देवता अवश्य अरण्यवासी थे, जो मूलतः द्रविड़ थे, किन्तु पीछेसे हिन्दू देवताओंमें भी सम्मिलित कर लिये गये। हम पूर्वमें लिख आये हैं कि वैदिक सभ्यता क्रियाकाण्डी सभ्यता थी। यज्ञ उसका प्रधानकर्म था. और यज्ञ यज्ञकर्ताके द्वारा निर्मित गृह मण्डपोंमें हुआ करते थे। ये यज्ञ दार्शनिक विचारों के स्थान नहीं थे। यज्ञोंमें मंत्र पाठ, आहुति और दक्षिणा का ही साम्राज्य था । इसी कारणसे वे और उनके व्याख्या ग्रन्थ ब्राह्मणोंमें अरण्योंकी ध्वनि सुनाई नहीं पड़ती। जब यज्ञोंकी वेध्वनिमें मन्दता आती है तो अरण्यकोंसे अरण्योंकी ध्वनि सुनाई देने लगती है। या यह भी कह सकते हैं कि अरण्यकी ध्वनि सुनाई पड़नेके वादसे वेद ध्वनि मन्द और मन्दतर होती जाती है। ऋग्वेद सिन्धुघाटीकी रचना है जव कि आरण्यक और प्राचीन उपनिषद गंगाघाटीमें रचे गये। अतः गंगाकी घाटी में अवश्य ही ऐसे अरण्य थे जहां संसारसे विरक्त ऋषि लोग आत्मविद्याकी आराधना किया करते थे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण किन्तु वैदिक साहित्यमें 'अरण्य' शब्दके जो अर्थ पाये जाते हैं उनसे पता चलता है कि अरण्योंके प्रति वैदिक ऋषियोंकी प्रारम्भमें कैसी मनोवृत्ति थी। ऋग्वेदमें गांवके बाहरकी बिना जुती हुई जमीनके अर्थमें अरण्य शब्दका प्रयोग हुआ है। किन्तु 'अरण्यानी' शब्दका प्रयोग जंगलके अर्थमें किया गया है। शतपथ ब्राह्मण (५-३-३५ ) में लिखा है कि अरण्यमें चोर बसते हैं। वृहदा० उप० (५-११ ) में लिखा है कि मुर्देको अरण्यमें ले जाते हैं। छा० उ० (८-५-३ ) में लिखा है कि अरण्यमें तपस्वीजन निवास करते हैं (वै०इ० में अरण्य शब्द )। . ___ यहाँ यह बतला देना आवश्यक है कि ब्राह्मण साहित्यमें तपका वर्णन है। इसमें विद्वानोंका ऐसा मत है कि जब वैदिक आर्य पूरबकी ओर बढ़े अर्थात् सिन्धु घाटीसे गंगा घाटीकी ओर गये तो यज्ञ पीछे रह गये और यज्ञका स्थान तप ने ले लिया (कै हि०)। वैसे ऋग्वेद ( मं० १०, सूक्त १६० ) में तपसे विश्वकी उत्पत्ति बतलाई है। और यह सूक्त अघमर्षण ऋषिका बतलाया जाता है। समस्त ब्राह्मण स्मृतियोंमें इस सूक्तको शोधक सूक्तोंमें बतलाया है। अघमर्षणके उक्त सूक्तसे पहले दसवें मण्डलमें ही ५६ नम्बरका सूक्त है जिसे प्रजापति परमेष्ठीका सूक्त कहा जाता है, इस सूक्तमें भी सृष्टिकी उत्पत्तिकी ही चर्चा है। इन दोनों सूक्तोंका साधारणतया एक ही पक्ष है कि दोनोंके रायता ऋषि इस दृश्य संसारकी उत्पत्ति तपसे बतलाते हैं। (हि० प्री० ई० पि० पृ०८) इस तरह यद्यपि ऋग्वेदमें तपका निर्देश आता है किन्तु तपका वर्णन ब्राह्मण साहित्यसे पहलेके वैदिक साहित्यमें नहीं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका मिलता । शत० ब्रा० (६,-१-१-१३ ) लिखा है-आकाश वायु पर, वायु पृथ्वीपर, पृथ्वी जलपर, जल सत्यपर, सत्य यज्ञपर और यज्ञ तपपर स्थित है। यहां तपको यज्ञ और सत्यसे भी उच्च बतलाया है। किन्तु इस कालके वैदिक साहित्यमें तपकी विविध विधियोंका वर्णन नहीं मिलता। ब्राह्मण ग्रन्थों में ही मुनि, परिव्राजक, तापस और श्रमणोंका निर्देश पाया जाता है। अतः तप और अरण्योंके प्रति ब्राह्मणकाल तक वैदिक आर्योंकी आस्था नहीं थी और न उनके प्रति विशेष आकर्षण ही था; क्योंकि इन दोनोंका सम्बन्ध उनकी संस्कृतिसे नहीं था। पुनर्जन्म शंकरके अद्वैतवाद तथा बौद्धदर्शनको छोड़कर शेष सभी भारतीय दर्शन इस विषयमें साधारणतया एकमत हैं कि आत्मा एक नित्य तथा अमूर्तिक पदार्थ है। फलतः वे आत्माओंको अमर मानते हैं। किन्तु वैदिक आर्योंका विश्वास इससे सर्वथा भिन्न था। उनका विश्वास था कि मृत्युके पश्चात् भी प्राणीका जीवन लगभग उसी रूपमें चालू रहता है जिस रूपमें वह पृथिवी पर जीवित अवस्थामें था। अन्तर इतना है कि मृत्युके बाद उसकी स्थिति केवल छाया रूप है और शरीररूप होते हुए भी वह अत्यन्त सूक्ष्म होता है। मृत्युके पश्चात् का वह सूक्ष्म शरीर ही वैदिक आर्योंका आत्मा था। इससे भिन्न कोई आत्मा नामकी वस्तु नहीं थी। वैदिक आर्योका आत्मविषयक उक्त विश्वास हिन्दुओंमें. आज भी पितरोंके रूपमें प्रचलित है, जिनके उद्देश्यसे वे श्राद्धकर्म करते हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण ब्राह्मणग्रन्थों तथा प्राचीनतम उपनिषदोंमें आत्मविषयक जो विचार मिलते हैं वे उक्त वैदिक विश्वाससे बहुत अधिक उन्नत हैं। उनमें आत्माको प्राणोंसे निर्मित बतलाया है। वे पाँच हैं-प्राण, वचन, चक्षु, श्रोत्र और मन । ये पाचों मिलकर यथोक्त आत्मारूप हो जाते हैं। ___ उपनिषदोंमें आया हुआ वार्तालाप उक्त स्थिति पर पूरा प्रकाश डालता है। वृहदारण्यकके तीसरे अध्यायमें विदेहराज जनककी सभामें हुए एक विवादका वर्णन है जिसमें याज्ञवल्क्यने कुरु और पाञ्चालके ब्राह्मणोंके प्रश्नोंका उत्तर दिया था। याज्ञवल्क्यका एक विपक्षी जारत्कारव आर्तभाग था। जारत्कारवने पूछा-हे याज्ञवल्क्य ! जब यह षुरुष मरता है तो उससे उसके प्राण निकलते हैं या नहीं ? याज्ञवल्क्यने उत्तर दिया --- 'नहीं, वे उसी में एकत्र हो जाते हैं। ___ उसने फिर पूछा-'याज्ञवल्क्य जब यह मनुष्य मरता है, कौन उसे नहीं छोड़ता ? याज्ञवल्क्यने उत्तर दिया-नाम, नाम अनन्त हैं, विश्वमें देव अनन्त हैं, उसीके द्वारा वह अनन्त लोकको जीतता है। उसने फिर पूछा- याज्ञवल्क्य ! जब इस मत व्यक्तिकी वाणी अग्निमें, श्वास वायुमें, चक्षु सूर्यमें, मन चन्द्रमें, श्रोत्र दिशामें, शरीर पृथिवीमें, आत्मा आकाशमें, रोम औषधियोंमें, केश वनस्पति में, रुधिर और वीर्य जलमें लीन हो जाता है तब पुरुष कहाँ रहा ? ___ याज्ञवल्क्यने उत्तर दिया-हे सौम्य ! हाथ मिलाओ, हमें इस प्रश्नकी चर्चा सबके सामने नहीं करनी चाहिये । हम दोनों ही इसे जानें । तब वे दोनोंअलग जाकर विचार करने लगे। उन्होंने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० - इ० पूर्व पीठिका जो कुछ कहा और जिसकी प्रशंसा की, वह है 'कर्म' पुण्यकर्म से पुण्य होता है और पापकर्मसे पाप होता है । ८० इस वार्तालाप से स्पष्ट है कि दोनों व्यक्ति पाँच प्राणोंके मेलसे जीवन मानते थे और उनके सामने नित्य अमर व्यक्तित्वका विचार नहीं आया था । किन्तु इससे यह मतलब नहीं लेना चाहिये कि उस समय आत्मा के अमरत्ववाला सिद्धान्त स्थापित नहीं हुआ था, या आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्वमें विश्वास करनेवाले लोग थे ही नहीं । किन्तु तब तक यह विचार वैदिक ऋषियोंके मस्तिष्क में प्रविष्ट नहीं हुआ था । यह हम पहले लिख आये हैं कि उपनिषदोंमें पुनर्जन्म तथा कर्मसिद्धान्तका दर्शन मिलता है । छा० उ० ( ५-१० ) में लिखा है - प्रथम आत्मा चन्द्रमा में जाता है, जिसे पुनः शरीर धारण करना होता है वह वहाँसे आ जाता है । फिर वह वर्षा के रूप में पृथ्वीमे जाता है और अन्नरूप हो जाता है जो उस अन्नको खाता है वह उसको नवीन जन्म देकर उसका पिता हो जाता है। यह कहनेकी आवश्यकता नहीं है कि पुनर्जन्म के प्रचलित सिद्धान्तसे उक्त सिद्धान्त कितना भिन्न है । अस्तु, । इन दो नवीन सिद्धान्तोंके प्रवेशके पश्चात् वैदिक धर्मकी रूप रेखामें बहुत परिवर्तन हुआ । वैदिक यज्ञ और देवताओंका प्रभुत्व जाता रहा । और भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति तथा भौतिक जीवनके चिरकाल तक बने रहनेकी कामना रखने वालों में भी अमरत्व प्राप्तिकी जिज्ञासा जाग उठी; क्योंकि पुनजर्मके इस चक्र से देव, दानव, पशु, मनुष्य और बनस्पति कोई भी बचा हुआ नहीं था—सबका मृत्युके बाद जन्म लेना आवश्यक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण ८१ था। और कोई भी दैवी शक्ति ऐसी नहीं थी जो इससे उन्हें बचा सके। फिर बुरे कर्मोंका फल बुरा और अच्छे कर्मोंका फल अच्छा मिलता था। इससे नैतिकताके प्रसारको बल मिला। पहले तो वैदिक आर्योंका यह विश्वास था कि देवता और पितर अमर हैं । हम भी क्रियाकाण्डके द्वारा अमरत्व प्राप्त कर सकते हैं। किन्तु इन दोनों सिद्धान्तोंके प्रकाशमें आनेके पश्चात् अमरत्व प्राप्त करना सुलभ नहीं रहा । उसके लिये व्यक्तिगत नैतिक जीवन को सुधारना आवश्यक था। __संन्यास किन्तु प्रारम्भ में हम यह बात नहीं देखते; क्योंकि वैदिक ऋषि लोग गम्भीर नैतिक नहीं थे। उनकी ऋचाओं में पापको मानने वाले मनुष्यकी टोनमें भाविजीवनके लिये कोई चेतावनी नहीं है, और हो भी क्यों, जब वे पुनर्जन्मवादी नहीं थे। इसीसे प्रारम्भमें वैदिक आर्य मांसभोजी थे। वह जो खाते थे वह देवता को भेट करते थे। अतः वैदिक आर्योंके प्रचलित भोजनकी सूची यज्ञकी बलिसूचीके आधारसे संकलितकी जा सकती है। पुनर्जन्मके सिद्धान्तको स्वीकार कर लेनेके बाद ही उनमें अहिंसा का सिद्धान्त रूपसे प्रवेश हुआ जान पड़ता है। (वै० इं० जि० २, पृ० १४५) इसी तरह चार आश्रमोंकी व्यवस्था भी पीछेसे आई है। ब्राह्मणको ब्रह्मचारी और गृहस्थके रूपमें जीवन बितानेके १-सब देवोंसे ऊंचे और समस्त सृष्टिके संचालक ईश्वर की कल्पना उन लोगोंके मस्तिष्क की उपज नहीं है, जिन्होंने पुनर्जन्मके सिद्धान्तको जन्म दिया। (रि० लि० ई० पृ० ३५) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका बाद सन्यासी हो जाना चाहिए, यह नियम वैदिक साहित्यमें नहीं मिलता। पौराणिक परम्पराके अनुसार राज्य त्यागकर बनमें चले जानेकी प्रथा क्षत्रियों में प्रचलित थी । ग्रीक लेखकोंके लेखों से भी इसका समर्थन होता है (वै० इं• 'ब्राह्मण' शब्द ) । ___ गौतम धर्म सूत्र (८-८ } में एक प्राचीन अचार्यका मत दिया है कि वेदोंको तो एक गृहस्थाश्रम ही मान्य है। वेदमें उसीका प्रत्यक्ष विधान है इतर आश्रमोंका नहीं। अथर्ववेद और ब्राह्मण ग्रन्थोंमें ब्रह्मचर्याश्रमका, विशेषतः उपनयनका विधान आया है। किन्तु चार आश्रमोंका उल्लेख छा० उप० में है। अतः विद्वानों का मत है कि वानप्रस्थ और सन्यास को वैदिक आर्योने अवैदिक लोगोंकी संस्कृतिसे लिया है । ( हि ध०स०, पृ० १२७ ) आप बाल्मीकि रामायणको देखें-इसमें किसी भी संन्यासी के दर्शन नहीं होते । हाँ, वानप्रस्थ सर्वत्र दृष्टिगोचर होते हैं। ____ लोकमान्य तिलकने अपने गीता रहस्यमें 'संन्यास और कर्मयोग' नामक प्रकरणमें इस बातका जोरदार समर्थन किया है कि वैदिक धर्ममें संन्यास मार्ग विहित नहीं था। वह लिखते हैं-'वेदसंहिता और ब्राह्मणोंमें संन्यास आश्रम आवश्यक कहीं नहीं कहा गया है। उलटा जैमिनिने वेदों का यही स्पष्ट मत बतलाया है कि ग्रहस्थाश्रममें रहनेसे ही मोक्ष मिलता है । देखो वेदान्तसूत्र ३. ४. १७-२० ) और उनका यह कथन कुछ निराधार भी नहीं है, क्योंकि कर्मकाण्डके इस प्राचीन मार्गको गौण माननेका प्रारम्भ उपनिषदोंमें ही पहले पहल देखा जाता है। यद्यपि उपनिषद् वैदिक हैं, तथापि उनके विषय प्रतिपादनसे प्रकट होता है कि वे संहिता और ब्राह्मणोंके पीछेके हैं, इसके मानी यह नहीं, कि इसके पहले परमेश्वरका ज्ञान हुआ ही नहीं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण ८३ था। हां, उपनिषत्कालमें ही यह मत पहले पहल अमलमें अवश्य आने लगा कि मोक्ष पानेके लिये ज्ञानके पश्चात् वैराग्यसे कर्मसंन्यास करना चाहिये । और इसके पश्चात् संहिता एवं ब्राह्मणों में वर्णित कर्मकाण्डको गौणत्व आ गया। इसके पहले कर्म ही प्रधान माना जाता था । उपनिषत्कालमें वैराग्ययुक्त ज्ञान अर्थात् संन्यासकी इस प्रकार बढ़ती होने लगने पर, यज्ञ याग प्रभृति कर्मोंकी ओर या चातुर्वर्ण्य धर्मकी ओर भी ज्ञानी पुरुष योंही दुर्लक्ष करने लगे और तभीसे यह समझ मन्द होने लगी कि लोकसंग्रह करना हमारा कर्तव्य है। स्मृतिप्रणेताओंने, अपने अपने ग्रन्थों में यह कहकर कि गृहस्थाश्रममें यज्ञ याग आदिश्रौत या चातुर्वर्ण्यके स्मार्त कर्म करना ही बाहिये, गृहस्थाश्रमकी बड़ाई गाई है सही, परन्तु स्मृतिकारोंके मतमें भी अन्तमें वैराग्य या संन्यास आश्रम ही श्रेष्ठ माना गया है, इस लिये उपनिषदोंके ज्ञान प्रभावसे कर्मकाण्डको जो गौणता प्राप्त हो गई थी, उसको हटानेका सामर्थ्य स्मृतिकारोंकी आश्रम व्यवस्थामें नहीं रह सकता था। ऐसी अवस्था में ज्ञान काण्ड और कर्मकाण्डमेंसे किसी को गौण न कहकर भक्तिके साथ इन दोनोंका मेल कर देनेके लिये गीताकी प्रवृत्ति हुई है। (गी० र० पृ० ३४४) १-तै० उ० (२-१-१ ) में लिखा है-ब्रह्मज्ञानसे मोक्ष प्राप्त होता है। श्वे० उ० ( ३-८) में लिखा है-मोक्ष प्राप्तिका दूसरा मार्ग नहीं । वृह० उ० (४-२२ और ३-५-१ ) में लिखा है- प्राचीन ज्ञानी पुरुषोंको पुत्र आदिकी इच्छा न थी और यह समझ कर कि जब सब लोक ही हमारा है तब हमें सन्तान किस लिये चाहिये ? वे सन्तान संपति और स्वर्ग की चाहसे निवृत्त होकर भिक्षाटन करते घूमते थे। (गी० २०, पृ० ३१२-१३) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका उक्त कथनसे भी स्पष्ट है कि वैदिक धर्ममें संन्यासमार्गका प्रवेश उपनिषत्कालसे हुआ। ___यद्यपि बहुत प्राचीन कालसे वैदिक आर्यों में ब्रह्मचारी और गृहस्थोंके अस्तित्वके चिह्न मिलते हैं और वेदोंमें यति और मुनियोंका भी निर्देश है किन्तु पं० हरदत्त शर्माके मन्तव्यानुसार श्वेताश्वतर उपनिषदसे पहले, जिसमें 'अत्याश्रमिन्' शब्द आया है-आश्रम परिपाटीकी स्थापना नहीं हुई थी। प्राचीन उपनिषदोंमें केवल ब्रह्मचारी. गृहस्थ और यति या मुनि इन तीन आश्रमोंके प्रमाण मिलते हैं। छान्दो० उप० (८-१५-१) के अनुसार गृहस्थ दशामें भी ब्रह्मलोकको प्राप्त किया जा सकता है। - प्राचीन उपनिषदोंमें वानप्रस्थ और संन्यास आश्रमोंमें कोई अन्तर प्रतीत नहीं होता। ब्राह्मण ग्रन्थोंमें यद्यपि संन्यासके प्रति कोई विरोधी भाव तो नहीं दर्शाया गया है किन्तु गृहस्थ जीवनको ही आदर्श-जीवन माना है । शतपथ ब्रा० ( १३, ४-१-१) में लिखा है-'एतद् वै जरामयं सत्रं यद् अग्निहोत्रम्' अर्थात् 'जब तक जिओ अग्निहोत्र करो। तैत्ति० उप० (१-११-१ ) में लिखा है-'प्रजातन्तुं मा व्यवच्छेत्सीः' । अर्थात् सन्तानकी परम्पराको मत तोड़ो। ईशावा. उ० में लिखा है-'कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेत् शतं समाः' । अर्थात् एक मनुष्यको अपने जीवन भर कर्म करते हुए सौ वर्ष तक जीनेकी इच्छा करनी चाहिये। यास्क ने अपने १. पूना अोरियन्टल सिरीज़ नं० ६४ में पं० हरदत्त शर्माका एक विद्वत्ता पूर्ण निबन्ध 'ब्राह्मण संन्यासके इतिहास' पर प्रकाशित हुआ है। उन्हीं की खोजों के फलस्वरूप उक्त उद्धरण प्राप्त हो सके हैं ।-ले Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण निरुक्त ( १४-६ ) में लिखा है कि कर्म छोड़नेवाले तपस्वियों और ज्ञानयुक्त कर्म करनेवाले कर्मयोगियोंको एक ही देवयान गति प्राप्त होती है। ___ अब धर्मसूत्रोंको लीजिये। बौधायन और आपस्तम्बमें स्पष्ट कहा है कि गृहस्थाश्रम ही मुख्य है और उसीसे अमृतत्व मिलता है। बौधायन धर्मसूत्रमें (२-६-११-३३, ३४ ) कहा है कि जन्मसे ही ब्राह्मण अपनी पीठ पर तीन ऋण लाता है। इन ऋणोंको चुकानेके लिये यज्ञ याग आदि पूर्वक गृहस्थाश्रमका पालन करनेवाला मनुष्य ब्रह्मलोकको पहुँचता है और ब्रह्मचर्य या संन्यासकी प्रशंसा करनेवाले धूलमें मिल जाते हैं। आपस्तम्ब सूत्र (6-२४-८) में भी ऐसा हो कथन है । आपस्तम्ब सूत्र इस बातका समर्थक नहीं है कि कोई एक बार गृहस्थाश्रममें प्रवेश करके उसे छोड़कर अन्य आश्रममें प्रवेश करे। इसका यह मतलब नहीं है कि इन दोनों धर्मसूत्रोंमें संन्यास आश्रमका वर्णन नहीं है, किन्तु उसका वर्णन करके भी गृहस्थाश्रमको ही विशेष महत्व दिया गया है। यही बात हम स्मृतियोंमें देखते हैं । मनुस्मृतिके छठे अध्यायमें कहा है कि मनुष्य ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य और वानप्रस्थ आश्रमोंसे चढ़ता चढ़ता कर्मत्यागरूप चौथा आश्रम स्वीकार करे। परन्तु संन्यास आश्रमका निरूपण समाप्त होने पर मनु ने प्रथम यह प्रस्तावना की कि 'यह यतियोंका अर्थात् सन्यासियोंका धर्म बतलाया अब वेदसंन्यासियांका कर्मयोग कहते हैं। और फिर यह कहा है कि अन्य आश्रमोंकी अपेक्षा गृहस्थाश्रम ही श्रेष्ठ है। आगे बारहवें अध्यायमें निष्काम गार्हस्थ्यवृत्तिको ही वैदिक कर्मयोग नाम देकर कहा है कि यह मार्ग भी चतुर्थ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका आश्रमके समान ही मोक्षप्रद है। इसी तरह याज्ञवल्क्यस्मृतिके तीसरे अध्यायमें यतिधर्मका निरूपण करनेके पश्चात् 'अथवा' पदका प्रयोग करके लिखा है कि ज्ञाननिष्ठ और सत्यवादी गृहस्थ भी ( बिना संन्यास ग्रहण किये ) मुक्ति पाता है। ___ महाभारतमें जब युधिष्ठिर महायुद्धके पश्चात् संन्यास लेना चाहते हैं तो भीमने उस समय संन्यासके विरुद्ध जो युक्तियाँ दी हैं वे दृष्टव्य हैं। भीम कहता है-शास्त्रमें लिखा है कि जब मनुष्य संकटमें हो या बूढ़ा हो गया हो, या शत्रुओंसे त्रस्त हो तो उसे संन्यास ले लेना चाहिये। अतः बुद्धिमान् मनुष्य संसारका त्याग नहीं करते और दृष्टिसम्पन्न मनुष्य इसे नियमका उल्लंघन मानते हैं। भाग्यहीन और नास्तिक लोगों ने ही संन्यास चलाया है। आदि । ___इन सब उद्धरणोंसे प्रकट है कि वैदिक धर्मने संन्यासको हृदयसे नहीं अपनाया। और इसका मुख्य कारण यही प्रतीत होता है कि वह मूलतः वैदिक धर्मका अंग नहीं था, किन्तु उन लोगोंका था जो वैदिक आर्योंके क्रियाकाण्डी जीवनसे भिन्न मार्गावलम्बी थे और जिन्हें वैदिक मार्गानुयायी नास्तिक कहते थे। आत्मा, पुनर्जन्म, अरण्य, संन्यास, तप, और मुक्ति, ये सारे तत्त्व परस्परमें सम्बद्ध हैं। प्रात्मविद्याका एक छोर पुनर्जन्म है तो दूसरा छोर मुक्ति है, और संन्यास लेकर अरण्य में तप करना पुनर्जन्मसे मुक्तिका उपाय है। ये सब तत्त्व वैदिकेतर संस्कृतिसे वैदिक संस्कृतिमें प्रविष्ट हुए हैं। तभी तो विद्वानोंका कहना है कि 'अवैदिक तत्त्वोंका प्रभाव केवल देशमें विचारोंके विकासके लिये एक नये प्रकारके दृश्यसे परिचयमें ही Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही परिलक्षित के इतिहास हा काल-इन ह और उसके विदिक पञ्चान का दर्शन के इतिहा। इसीसे प्राटीमें प्रविष्ट हो प्राचीन स्थितिका अन्वेषण ८७ लक्षित नहीं होता, किन्तु सत्य तक पहुँचनेके उपायोंके परिवर्तनमें भी लक्षित होता है।' (हि० रि० ई० वे० पृ० ३२) ___ उक्त सभी तत्त्व सिन्धुघाटीसे गंगाघाटीमें प्रविष्ट होनेके बादसे ही परिलक्षित होते हैं। इसीसे प्रो० बरु आने अपने बुद्धपूर्व भारतीय दर्शनके इतिहासमें वैदिक कालको, वैदिक काल, वैदिक पश्चात् काल और न्यू वैदिक काल-इन तीन कालोंमें विभाजित करके ऋग्वेद कालको वैदिक काल कहा है और उसके पश्चात्से वैदिक पश्चात् कालका प्रारम्भ माना है। यद्यपि ऋग्वेदके दसवें मण्डलमें कुछ दार्शनिक विचारोंका आभास है, किन्तु उसमें चार वर्णों का निर्देश आदि कुछ ऐसी बातें भी पाई जाती हैं, जिनके कारण उस मण्डलको बादकी रचना माना जाता है। तथा यद्यपि ऋग्वेदकी रचना सिन्धुघाटी में हुई तथापि उसका दसवाँ मण्डल यमुनाकी घाटीमें रचा गया, ऐसा विद्वानोंका मत है। (रि० लि० ई०, पृ० १५, कै. हि० जि० १, पृ०६३ )। ___ इसी दसवें मण्डलमें प्रजापति परमेष्ठी, हिरण्यगर्भ और वातरशन (नग्न ) मुनियोंका उल्लेख है, जिनकी चर्चा हम आगेके प्रकरणमें करेंगे। प्रो० बरुआने वैदिक पश्चात् काल और न्यू वैदिक कालके बीचमें याज्ञवल्क्यको सीमाचिन्ह माना है। अर्थात् याज्ञवल्क्यके साथ वैदिक पश्चात्कालका अन्त और न्यू वैदिक कालका आरम्भ होता है। शतप० ब्रा० में श्वेत केतुको याज्ञवल्क्यका समकालीन बतलाया है। प्रो० बरुआके मतानुसार (हि. प्रो. इं० फि० पृ० १६१) भारतीय धर्मोंके इतिहासमें इस कालको श्रमण ब्राह्मणकाल संज्ञा दी जा सकती है। वैदिकपश्चात्कालके विचारकोंमें याज्ञवल्क्य ही प्रथम विचारक हैं जिन्होंने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका श्रमणोंकी ओर लक्ष्य दिया। श्रमणोंके सिवाय तापसोंका भी उल्लेख याज्ञवल्क्य ने किया है। इस कालमें विभिन्न विचारक संस्थाएँ थी, जिन्हें स्थूल रूपसे श्रमणों और ब्राह्मणों तथा तापसों और परिव्राजकोंमें विभाजित किया जा सकता है। श्रमण परम्परा ___भारतवर्षके धार्मिक इतिहासमें हमें दो विभिन्न परम्पराओंके दर्शन होते हैं। उनमें एक परम्परा ब्राह्मणोंकी है और दूसरी परम्परा श्रमणोंकी है। भारतवर्षका क्रमबद्ध इतिहास बुद्ध और महावीरके कालसे आरम्भ होता है। उस कालसे लेकर इन दोनों परम्पराओंका पृथक्त्व बराबर लक्षित होता हैं। . 'सिकन्दरके समकालीन यूनानी लेखकों ने साधुओंकी दो श्रेणियोंका निर्देश किया है-एक श्रमण और एक ब्राह्मण । अशोकके शिलालेखोंमें श्रमणों और ब्राह्मणोंका पृथक पृथक निर्देश है। पतञ्जलिने अपने महाभाष्य (सू०२-४-१२) में श्रमण और ब्राह्मणमें शाश्वतिक विरोध बतलाया है। श्वे० जैन आगमोंमें श्रमण पाँच प्रकारके बतलाये हैंनिम्रन्थ, शाक्य, तापस, गैरुक और आजीवक । जैन साधु निग्रन्थ श्रमण, बौद्ध साधु शाक्य श्रमण, जटाधारी बनवासी तापस, लाल वस्त्रधारी साधु गैरूक और गोशालकके अनुयायी साधु आजीवक कहें जाते हैं । ( अभि० रा०, 'श्रमण' शब्द )। बाल्मीकि रामायणमें (सर्ग १८ पृ० २८) ब्राह्मण, श्रमण और तापसोंका पृथक पृथक उल्लेख किया है। इससे प्रतीत होता है कि तापस लोग ब्राह्मणोंसे भिन्न थे। श्रमणोंकी तरह ही तापस और परिव्राजक भी प्राचीन हैं। १. ई० पा०, पृ० ३८३ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण श्वे. जै० आगमोंमें आठ प्रकारके ब्राह्मण परिव्राजक और आठ प्रकारके क्षत्रिय परिव्राजक बतलाये हैं। ( अभि० रा०, 'परिव्राजक' शब्द )। अगुत्तर (४-३५) में भी परिव्राजकोंके दो भेद किये हैं ब्राह्मण और एक अन्नतित्थिय (अब्राह्मण )। साधुओंमें ब्राह्मण और क्षत्रियका यह भेद उल्लेखनीय है। और यह ब्राह्मण और क्षत्रियके उस पारस्परिक भेदको बतलाता है जो न केवल वर्णगत था किन्तु विचारगत और उच्चत्वगत भी था। । महाबीर और बुद्ध दोनोंके अनुयायी साधु श्रमण कहे जाते थे और महावीर तथा बुद्ध दोनों प्रव्रज्या ग्रहण करनेके पश्चात् महाश्रमण कहलाये थे। ये दोनों क्षत्रिय थे। दोनों वेद और ब्राह्मण परम्पराके विरोधी थे। किन्तु वैदिक संस्कृतिमें जो तत्त्व पीछेसे प्रविष्ट हुए-अात्मविद्या, पुनर्जन्म, तप, मुक्ति आदि, उन सबको दोनों मानते थे। यद्यपि बुद्ध आत्म तत्त्वके पक्षपाती नहीं थे किन्तु महावीर तो क्षत्रियोंकी आत्मविद्याके मर्मज्ञ ही नहीं किन्तु सुयोग्य उत्तराधिकारी थे। उन्हें वह ज्ञान अपने पूर्वज क्षत्रिय पार्श्वनाथकी परम्परासे प्राप्त हुआ था। यहाँ श्रमणोंकी प्राचीनताके सम्बन्धमें थोड़ा सा प्रकाश डालना उचित होगा। बृह० उप० (४-३-२२ ) में तापसके साथ भ्रमण शब्द भी आता है। आचार्य शंकर ने श्रमणका अर्थ परिव्राजक और तापसका अर्थ वानप्रस्थ किया है। तैत्ति० आर० में भी यह शब्द जिस वाक्यमें आया है वह बहुत ही महत्वपूर्ण है । वाक्य इस प्रकार है- 'वात रशना ह वा ऋषय श्रमणा, ऊर्ध्वमन्थिनो बभुवुः । (२-७) । वातरशन ( नग्न ) ऋषि श्रमण थे। सायणने 'उध्व Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. जै० सा० इ०-पूर्वपीठिका मान्थेनः' का अर्थ ऊर्ध्व रेता किया है । अतः श्रमण नग्न और पवित्र होते थे यह इस वाक्यका अर्थ है। ऋग्वेद (१०-१३६-२ ) में भी मुनियों के विशेषण रूपसे 'वातरशनाः' शब्द आया है। यहां मुनियोंको नग्न या पीले और मैले वस्त्रधारी बतलाया है। यद्यपि तैत्ति० आर० के अनुसार 'वातरशन' शब्दका अर्थ नग्न होता है किन्तु सायण ने इसका अर्थ 'वातरशनस्य पुत्राः' किया है । यथा___'वातरशना वातरशनस्य पुत्रा मुनयोऽतीन्द्रियार्थदर्शिनो तिवाततिप्रभृतयः पिशंगाः पिशंगानिः कपिलवर्णानि मला मलिनानि वल्कल रूपाणि वासांसि बसते आच्छादयन्ति ।" ... किन्तु सायणके इस अर्थको किसी भी प्राच्यविद्याविशारदने मान्य नहीं किया है सबने इसका अर्थ नग्न ही लिया है । विक्रम की नौवीं शतीके जैनाचार्य जिनसेनने अपने महापुराणमें प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेवको वातरशन बतल कर उसका अर्थ नग्न ही किया है । यथा 'दिग्वासा वातरशनो निग्रन्थेशो निरम्बरः'। ऊपरके उद्धरणोंसे स्पष्ट है कि वृहदा० उप, और तैत्ति० बार० के समयमें श्रमण वर्तमान थे ; और वे नग्न तथा उर्धरेता होते थे । यद्यपि तै० आ० में वातरशनाः शब्दका प्रयोग इस रूपमें किया गया है कि वह व्यक्ति वाचक संज्ञा सा प्रतीत होता है किन्तु 'वात है रशन-वेष्ठन जिनका' यह व्युत्पत्ति ही इस शब्दका आधार जान पड़ती है। अतः ये नग्न मुनि ऋग्वेदकाल में भी मौजूद थे। ... १-वै० ई० में वातरशन शब्द, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण ६१ - अथर्ववेद (२-५-३) में एक कथा इन्द्रके द्वारा यतियोंका बध किये जानेकी आई है। यह कथा एतरे० ब्रा० (७-२८) और पञ्चविंश ब्राह्मण ( ५३-४-७, ८-१-४ ) में भी आई है। सायण ने उसके भाष्यमें उन यतियोंके बारेमें लिखा है यतिन-यतयो नाम नियमशीला श्रासुर्या प्रजाः.......यद्वात्र यतिशब्देन वेदान्तार्थविचारशून्याः परिव्राजका विवक्षिताः । (अर्थव०) 'यति माने ब्रत नियमका पालन करनेवाले असुर लोग । अथवा यहां यति शब्दसे वेदान्तके विचारसे शून्य परिब्राजक लेना चाहिये। पञ्च० ब्रा० की व्याख्यामें सायणने एक स्थान पर यतिका अर्थ 'यजन विरोधीजनाः' किया है और दूसरी जगह 'वेद विरुद्ध नियमोपेताः' किया है। अर्थात् जिन यतियोंको इन्द्रने मारा, वे सव यज्ञ यागादिके विरोधी और वेदविरुद्ध ब्रत-नियमादिका पालन करने वाले थे। ___ऋग्वेदके वातरशन' मुनि, जिन्हें तैना में श्रमण बतलाया है, और इन्द्रके द्वारा मारे गये यति एक ही प्रतीत होते हैं। और इसलिये वेदविरुद्ध नियमादिका पालने करने वाले तथा यज्ञविरोधी नग्न श्रमणोंकी परम्परा का अस्तित्व ऋग्वेद काल तक जाता है। इसके सिवा 'आश्रम' शब्दकी व्युत्पत्तिके सम्बन्धमें प्रो० १-श्री मद्भागवतके पञ्चम स्कन्धमें ऋषभदेवका वर्णन करते हुए भी श्रमणोंको 'वातरशन' कहा है। यथा-'वातरशनानां श्रमणानामृषीणाम् ।' २-हि० ब्रा० एसे०, पृ० १६ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ विटर नीट्स ने जो प्रकाश डाला है वह भी इस पर विशेष प्रकाश डालता है । वह' कहते हैं enter जै० ० सा० इ० - पूर्व पीठिका 'जिस 'श्रम' धातु से 'श्रमण' शब्द बना है उसीसे 'आश्रम' शब्द भी निष्पन्न हुआ है । अतः प्रारम्भ में 'आश्रम' शब्द शायद श्रमणों के धार्मिक कृत्य का सूचक था । उसीके कारण यह शब्द धार्मिक कृत्यके स्थानका भी सूचक हुआ ।' अतः 'आश्रम' शब्दका सम्बन्ध भी मूलतः श्रमणोंसे ही जान पड़ता है । और इससे श्रमण परम्परा एक प्रभावशाली प्राचीन परम्परा प्रमाणित होती है । भ० महावीरका सम्प्रदाय निग्रन्थ सम्प्रदाय कहा जाता था क्योंकि उनके अनुयायी साधु बाह्य और अन्तरंग ग्रन्थ ( परिग्रह ) से रहित होते थे । इससे यह स्पष्ट है कि निर्ग्रन्थ परम्परा साधु परम्परा थी और निर्ग्रन्थ धर्म साधुओं का धर्म था । अतः महावीरके अनुयायी साधु जो परिव्राजक, संन्यासी, तपस्वी आदि न कहलाकर श्रमण ही कहलाये, इसमें अवश्य ही कुछ विशिष्ट कारण होना चाहियेऔर वह विशिष्ट कारण यही हो सकता है कि श्रमण परम्परा अपना कुछ वैशिष्ट्य रखती थी- जो वैशिष्ट्य केवल तत्कालीन नहीं था, किन्तु परम्परागत था; क्योंकि ब्राह्मण ग्रन्थोंमें जो श्रमणों और तापसोंका प्रथम बार उल्लेख मिलता है। उससे यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ब्राह्मण काल में तापसों और श्रमणोंकी संस्था प्रकाशमें आई, या ब्राह्मणलोग इनके परिचयमें आये, न कि तापस और श्रमण सम्प्रदायका जन्म हुआ । प्रायः सभी विदेशी लेखकोंने वैदिक साहित्य में पीछेसे प्रविष्ट १- हि० ब्रा० एसे०, पृ० १४ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण हुए संन्यासमार्गको निराशावाद कहा है। किन्हींका कहना है कि पुनर्जन्मके सिद्धान्तने निराशावादको जन्म दिया (कै.हि०पृ०१४४। और किन्हींका कहना है कि जब आर्यलोग गंगाकी घाटीमें आकर बसे तो पूरबकी गर्मी उनसे न सही गई फलतः इस निराशावादी संन्यासाश्रमका जन्म हुआ। जो पुनर्जन्मके सिद्धान्तको तथोक्त निराशावादका जनक मानते हैं वही यह भी लिखते हैं कि-'इस सिद्धान्तकी असाधारण सफलता बतलाती है कि यह सिद्धान्त भारतीय जनताकी आत्मा के साथ एकलय था और उसका जो संभाव्य परिणाम हो सकता था वही हुआ, ब्राह्मण कालके अन्त तक आर्य प्रभाव मुरझा गया और बुद्धिवादी वर्गोंका यथार्थ भारतीय चरित्र निश्चित रूपसे साकार हो गया ( कै• हि०, जि० १, पृ० १४४)। ___ उक्त शब्दोंसे ही स्पष्ट है कि पुनर्जन्मका सिद्धान्त भारतीयोंके लिए कोई नया नहीं था-वह तो उनकी आत्माके साथ सम्बद्ध था, उसके प्रकाशमें आते ही आर्यप्रभाव जाता रहा और भारतीय आत्माका यथार्थ रूप चमक उठा। अतः जिसे विदेशी विद्वान भारतीय आत्माके यथार्थ रूपको न पहचान सकने के कारण निराशावाद कहते हैं, वास्तवमें वह निराशावाद ही भारतकी सच्ची आत्मा रहा है। जिनका कहना है कि गंगाघाटीकी असह्य गर्मी ने इस तथोक्त निराशावादको जन्म दिया, वे उनमेंसे हैं जो समस्त भारतीय आचार-विचारोंका मूल वैदिक साहित्यको ही मानते हैं। किन्तु वास्तविक बात ऐसी नहीं है। यह हम लिख आये हैं। दूसरे, वैदिक काल में ही हम मुनियोंसे मिलते हैं, जो ब्राह्मणों से भिन्न थे। तथा नग्न रहते थे। वै. इं० (मुनिशब्द ) में ठीक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा०-इ. पूर्व पीठिका ही लिखा है कि वैदिक ग्रन्थोंमें मुनियोंका विशेष निर्देश न होनेसे यह परिणाम निकालना कि वैदिक कालमें मुनि विरल थे, ठीक नहीं है, किन्तु सम्भवतया ब्राह्मण उन्हें नहीं मानते थे क्योंकि दोनोंके आदर्श भिन्न थे। यह भी नहीं सोचना चाहिए कि प्राचीन और अर्वाचीन मुनिमें मौलिक भेद था। किन्तु इतना अवश्य है प्राचीन मुनि उतना सन्त नहीं था। इन्हीं मुनियोंमें ऐसे भ मनि थे जिन्हें वैदिक क्रियाकाण्डमें आस्था नहीं थी। ये मुनि क्या करते थे, यह तो स्पष्ट नहीं होता, किन्तु अवश्य ही वे सांसारिक जीवनके प्रति उदासीन थेउनका नग्न रहना ही इस बातका सूचक है। ये मुनि ही श्रमण परम्पराके पूर्वज हो सकते हैं। अतः तथोक्त निराशावादी धर्म गंगाघाटीकी गर्मीकी उपज नहीं है, किन्तु भारतकी आत्मामें अनुस्यूत पुनर्जन्मके सिद्धान्तकी तरह ही परम्परागत है। अतः ब्राह्मणों की तरह श्रमणोंकी परम्परा भी प्राचीन प्रतीत होती है। इसी श्रमण परम्पराके आद्यप्रवर्तकके रूपमें ऋषभदेवकी मान्यता है। डा आर०जी० भण्डारकरने लिखा है-'प्राचीन कालसे ही भारतीय समाजमें ऐसे व्यक्ति मौजूद थे, जो श्रमण कहे जाते थे। ये ध्यानमें मग्न रहते थे और कभी-कभी मुक्तिका उपदेश देते थे, जो प्रचलित धर्मके अनुरूप नहीं होता था। ( क० व० भां. जि० १ पृ० १०)। · वैदिक साहित्यके अनुशीलनके पश्चात् अब हम दूसरे साधन प्राचीन अवशेषोंकी ओर आते हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण ६५ प्राग ऐतिहासिक कालोन अवशेष भारतवर्षका इतिहास भारतमें आर्योंके आगमनसे प्रारम्भ होता आया है। और भारतकी सभ्यता, धर्म और ज्ञान-विज्ञानकी उन्नतिका श्रेय भी आर्योंको ही दिया जाता रहा है। आर्योंके आगमनसे पूर्व भारतमें जो जातियाँ बसती थीं वे जंगली थी, यही हम बचपनसे पढ़ते आये हैं। किन्तु इस चित्रका दूसरा पहलु भी है, जिसकी ओर कुछ विद्वान अन्वेषकोंका ध्यान आकृष्ट हुआ था और जिसका उल्लेख डा. कीथने अपनी पुस्तक 'दी रिलीजन एण्ड फिलासोफी आफ वेद एण्ड उपनिषदाज़' में किया है। वह लिखते हैं (पृ०६-१०) एक दूसरी कल्पना अभी ही की गई है कि ऋग्वेद में जिस धर्मका उल्लेख है वह आर्योंका नहीं है, किन्तु भारतके आदिवासियोंका, अनुमानतः द्रविड़ोंका है, जो स्पष्ट रूपसे भारतके प्राचीन निवासियोंमें सबसे प्रमुख हैं'। इतना लिखकर डा०कीथ पुनः लिखते हैं-"इस मान्यताके साथ मि. हल्लके इस दृष्टिकोणको भी सम्बद्ध किया जा सकता है कि 'सुमेरियन लोग मूलतः द्रविड़ थे। उन्होंने सिन्धुकी घाटीमें अपनी सभ्यताको विकसित किया और तब अर्ध भ्रमणशील सेमिट लोगोंको उससे परिचित कराया- उन्हें लिखनेकी कला, नगर-निवास और पाषाणके मकान बनाना सिखलाया। जिन आर्योंने भारत पर आक्रमण किया उन्हें भी द्रविड़ोंने सुसभ्य बनाया ।' किन्तु मिव्हल्लके इस दृष्टिकोणके सम्बन्धमें प्राणलेवा कठिनाई यह है कि एक भी प्रमाण ऐसा उपलब्ध नहीं है, जिसके द्वारा इसे कभी भी सत्य बनाया जा सके। यदि सुमेरियन मूलतः द्रविड़ थे और सिन्धुघाटीमें उच्च सभ्यताके स्वामी थे तो यह बात उल्लेखनीय है कि भारतमें इस उच्चसभ्यताका कोई चिन्ह Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका नहीं मिलता। क्योंकि जहां तक हम जानते हैं भारतने सेमिट लोगोंसे ईस्वी पूर्व पाठसौसे पहले लेखनकला नहीं सीखी थी। और ऋग्वेदकालके बहुत बादमें उसने पाषाणके मकान बनाना और नगरों में रहना प्रारम्भ किया था। सुमेरियन लोगोंके द्वारा सिन्धु घाटीमें जिन पत्थरके मकानोंके बनानेका अनुमान किया जाता है, उनका चिन्ह भी नहीं मिलता। और ऋग्वेदका जो सबसे अर्वाचीनकाल माना जाता है उससे भी बहुत सी शताब्दियां बीतने पर हमें द्रविड़ सभ्यताके ऐतिहासिक तथ्यके रूपमें दर्शन होते हैं। अतः ऋग्वेदकी सभ्यताको द्रविड़ोंकी मानना केवल कल्पना मात्र है।" ऋग्वैदिक सभ्यतामें द्रविड़ोंके प्रभावको कोरी कल्पना कहकर उड़ा देनेवालोंमें डा. कीथ जैसे अनेक विद्वान थे; क्योंकि उस समय तक, जैसा डा. कीथने लिखा है, भारतमें आर्योगके आगमनसे पूर्वकी किसी उच्च द्रविड़ सभ्यताके विस्तारका कोई चिन्ह लक्षित नहीं हुआ था और सर्वत्र आर्यो का जादू छाया हुआ था। किन्तु यह जादू बीसवीं शतीकी नई खोजोंके फल स्वरूप 'छू मन्तर' हो गया। अब यह बात मान ली गई है कि आर्यों के भारत प्रवेशके समयसे बहुत सी शताब्दियां पूर्व सिन्धु घाटीमें एक आश्चर्यजनक आर्यपूर्व सेभ्यता वर्तमान थी और वह प्रसिद्ध वैदिककालीन सभ्यतासे उच्चतर थी। पंजाबके माण्टुगुमरी जिलेमें रावीके तटपर स्थित 'हरप्पा' नामक स्थानसे समय-समयपर पृथ्वीसे निकलने वाली सीलोंने, जिनपर अपरिचित लिपि अंकित थी, विद्वानोंके सम्मुख एक समस्या खड़ी कर दी थी, जिसके कारण इन सीलोंको लेकर एक ओर अनेक कल्पनाएँ उठती थी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण तो दूसरी ओर अनेक सन्दह उत्पन्न होते थे। किन्तु अन्तमें प्राचीनकालके भूले हुए आश्चर्यके द्वार खोल डाले गये। - सिन्धु घाटी सभ्यता १९२१ में स्व. डा० बनर्जी सिन्धप्रान्तके लरकाना जिले में सिन्धुके तट पर स्थित मोहेञ्जोदड़ोमें बौद्ध अवशेषोंकी खोजमें व्यस्त थे । वहाँसे कुछ उसी तरहकी सीलें प्राप्त हुईं जैसी हरप्पासे प्राप्त हुई थीं। इस खोजके महत्त्वको जानकर बौद्ध विहारसे पूरबकी ओर खुदाई की गई और वहाँसे ऐसे महत्त्वके अवशेष प्राप्त हुए जो बौद्ध अवशेषों से दो या तीन हजार वर्ष पूर्वके थे। इन खोजोंके फलस्वरूप यह स्थिर हुआ कि मोहेञ्जोदडो और हरप्पामें आर्यपूर्व कालीन नगर विद्यमान थे और वहां से प्राप्त अवशेष एक ही आर्यपूर्वकालीन सभ्यतासे सम्बद्ध हैं। जिसका काल ईसासे चार हजार वर्ष पूर्व है । तथा भारतमें आर्योंका प्रवेश ईस्वी पूर्व दो हजार वर्ष तक नहीं हुआ। और उनको सभ्यताका सिन्धुघाटीमें फैली हुई सभ्यतासे कोई सम्बन्ध नहीं था, जो स्पष्ट रूपसे द्रविड़ोंकी अथवा आदिद्रविड़ोंकी सभ्यता थी, जिनके उत्तराधिकारी दक्षिण भारतमें निवास करते हैं। (प्रीहि • ई, भू० पृ. ८)। सिन्धुघाटीके ये प्राचीन निवासी कृषक और व्यापारी थे। और उनकी उच्च सामाजिक व्यवस्था उनके द्वारा सुनियोजित और अच्छी रीतिसे निर्मित नगरोंसे लक्षित होती है। मोहेञ्जोदडोमें पास-पास चारों ओर मार्ग बने हुए थे- इमारतें पक्की ईटोंसे बनाई जाती थीं। मकानोंमें द्वार, खिड़कियां, पक्के फर्श और नालियाँ होती थीं। तथा स्नानागर, आदि अन्य सुविधाएं भी रहती थीं । अनेक प्रकारके बर्तन बनाये जाते थे। ताम्बा, टीन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका और सीसेका उपयोग होता था। सोने-चांदी और हाथी दांत आदिके जेवर बनते थे। पत्थरका उपयोग इतनी स्वतंत्रतासे किया जाता था कि प्राचीन वास्तुशास्त्रवेत्ता सिन्धुघाटीके प्राचीन निवासियोंको पत्थर और धातुकालके बीचके परिवर्तनकालका मानते हैं। घरेलु जानवरोंमें हाथी, ऊंट, भेड़, सुअर, कुत्ता, भैसा, और ककुद (पीठ पर उठा हुआ भागवाले मवेशी) थे। जौं, गेहूं और कपासकी खेती होती थी। कातना और बुनना उन्नत दशा में था। ___इस प्रकार द्रविड़ लोगोंकी अपनी एक पृथक् सभ्यता थी। वे शवोंको पाषाणकी बनी कब्रोंमें रख देते थे। शवों अथवा उनकी अस्थियोंसे युक्त मिट्टीके पात्र मेसोपोटामिया, बेवीलोनिया, परसिया, बलुचिस्तान, सिन्ध और दक्षिण भारतमें मिले हैं। जब उन द्रविड़ोंका सम्पर्क वैदिक आर्योसे हुआ, जो अपने मुर्दोको जलाते थे, तो द्रविड़ोंने भी अपने मुर्दोको जलाना शुरु कर दिया, किन्तु मिट्टीके पात्रमें कुछ अस्थियोंको रखकर भूमिमें गाढ़नेकी अपनी प्राचीन प्रथाको जारी रखा। ____ क्या द्रविड़ लोग मुर्दोको इस लिये पृथ्वीमें गाढ़ देते थे कि लौटने पर आत्माको पुनः वहीं शरीर मिल सके ? क्या यही पुनर्जन्मका सिद्धान्त है ? ___ किन्तु मोहेज्जदड़ों या हरप्पासे एक भी ऐसी वस्तु प्राप्त नहीं हुई, जिसे स्पष्ट रूपसे धार्मिक महत्त्व दिया जा सके। वहाँ ऐसी कोई इमारत नहीं मिली जिसे स्पष्ट रूपसे मन्दिर कहा जा सके। आज तक इस सम्बन्धमें जो कुछ विश्लेषण किया गया है वह केवल अनुमान और कल्पनाके आधारपर ही किया गया है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण .. मिट्टीकी बनी आकृतियों और मूर्तियोंसे यह पता चलता है कि दुर्गा और शिवलिंगको पूजनेकी प्रथा द्रविड़ोंमें प्रचलित थी। और इस तरह शिवपूजा बहुत प्राचीन मानी जाती है। ___ योग सम्प्रदाय वेदोंसे भी प्राचीन है। मोहेंजोदड़ो निवासी योगकी प्रणालियोंसे भी परिचित थे । योगशास्त्रोंके अनुसार योगके लिए तीन वस्तुएँ आवश्यक हैं-आसन, मस्तक ग्रीवा और धड़का सीधा रहना तथा अर्ध निष्मीलित नेत्र जो नासिका के। अग्रभाग पर स्थिर हों। श्री रामप्रसाद चन्दाके अनुसार मोहेंजोदड़ोंसे प्राप्त पत्थरकी मूर्ति जिसे मि० मैके पुजारीकी मूर्ति बतलाते हैं, वह योगी की मूर्ति है। सिन्धु घाटीके वासी मनुष्योंका धर्म क्या था ? इस विषयमें विचार करते हुए श्री रामप्रसाद चन्दाने लिखा था-"सिन्धवासी मनुष्योंके धर्मके विषयमें सूचना प्राप्त करनेका प्रमुख उपाय मोहेंजो-दड़ों और हरप्पासे प्राप्त मोहरों ( seals ) का वृहत् संग्रह है। उन मोहरों पर अंकित गूढाक्षरोंको अभी तक स्पष्ट नहीं किया जा सका है और इसीसे उनका भाषान्तर भी नहीं हो सका है। इससे हमें केवल उनके अकार-प्रकार पर ही निर्भर रहना पड़ता है। उन मोहरोंपर पशुओंके चित्र अंकित हैं। किन्तु इस परसे यह अनुमान करना कि सिन्धु घाटीके मनुष्योंका धर्म पशुपूजा था, या उनके देवता पशुरूप थे, बड़ा गलत होगा। जैसा कि भरहुत और साँचीके स्तूपोंका निर्माण करानेवाले बौद्ध साधुओंका धर्म वृक्षों और सोकी पूजा अनुमान कर लेना गलत है। भरहुत और साँचीके स्तूपोंका निर्माण करानेवालोंके धर्मकी रीढ़ उन बुद्धों अथवा मानवोंकी पूजा थी, जिन्होंने ध्यान, समाधि अथवा योगके द्वारा पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया था। इसमें तो कोई निश्चित प्रमाण नहीं है कि सिन्धु घाटीका धर्म भी इतना ही Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका अभ्युन्नत था। किन्तु यह बतलानेके लिये पर्याप्त प्रमाण है कि उसने भी ठीक उसी मार्ग पर चलना प्रारम्भ किया था।' इतना स्पष्ट करके श्री चन्दा आगे लिखते हैं-'वैदिक विधि विधानको छोड़कर योग शेष समस्त ऐतिहासिक भारतीय धर्मोंका मूल है। समस्त भारतीय सम्प्रदाय मानते हैं कि योगकी साधना के लिए आसन सर्वथा आवश्यक है। श्वेताश्वर उपनिषद् (२-८) के अनुसार छाती, सिर और गर्दनको एक सीधमें रखना योगका मूल है। भगवद्गीतामें ( ६-१३ ) इसमें इतना और जोड़ा गया है कि दृष्टिको इधर उधर न घुमाकर नाकके अग्रभाग पर रखना चाहिये। पाली और सस्कृतके बौद्ध ग्रन्थोंमें लिखा है कि बुद्ध स्वयं ध्यान करते थे और दूसरोंको भी पर्यङ्कासनसे ध्यान करनेका उपदेश देते थे। कालिदासने कुमारसम्भवमें (:, ४५-४७ ) शिवके पर्यङ्कासनसे बैठने आदिका वर्णन किया है। पतञ्जलिने योगदर्शन ( २-४६ ) में लिखा है कि शरीरकी स्थिति सीधी और सरल होनी चाहिये । 'दिगम्बर जैन ग्रन्थ आदि पुराण (पर्व २१) में ध्यानका वर्णन करते हुए दृष्टिके विषयमें लिखा है कि आंखें न तो एक दम खुली हुई हों और न एक दम बन्द हों। ...... तथा लिखा है कि कायोत्सर्ग और पर्यङ्क ये दो सुखासन हैं, इनके सिवाय शेष सब विषम आसन हैं। पर्यङ्कासनकी जैन परिभाषा तो बौद्धों और ब्राह्मणोंसे मिलती हुई है किन्तु कायोत्सर्ग आसन जैन है। आ० पु० के १८वें पर्वमें प्रथम तीथङ्कर ऋषभदेवके ध्यानका वर्णन इस दृष्टिसे उल्लेखनीय है।' भारतीय धर्मों में योगकी स्थितिका निर्देशकरके आगे पुनः श्रीचन्दा पुनः लिखते हैं-'मोहे-जो-दड़ोसे प्राप्त लाल पाषाणकी मूर्ति, जिसे पुजारीकी मूर्ति समझ लिया गया है, मुझे एक योगीकी मूर्ति प्रतीत होती है। और वह मुझे इस Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण निष्कर्ष पर पहुँचने के लिये प्रेरित करती है कि सिन्धुघाटीमें उस समय योगाभ्यास होता था और योगीकी मुद्रामें मूर्तियां पुजी जातो थी। मोहें जो-दड़ो और हरप्पासे प्राप्त मोहरें जिनपर मनुष्यरूपमें देवोंकी आकृति अंकित है, मेरे इस निष्कर्षको प्रमाणित करती हैं। 'सिन्धुघाटीसे प्राप्त मोहरों पर बैठी अवस्थामें अंकित देवसाओंकी मूर्तियां हो योगकी मुद्रामें नहीं हैं किन्तु खड़ी अवस्थामें अंकित मूर्तियाँ भी योगकी कायोत्सर्ग मुद्राको बतलाती हैं, जिसका निर्देश ऊपर किया गया है। मथुरा म्युजियममें दूसरी शतीकी, कार्योत्सगमें स्थित एक वृषभदेव जिनकी मूर्ति है। इस मूर्तिकी शैलीसे सिन्धुसे प्राप्त मोहरों पर अंकित खड़ी हुई देवमूर्तियोंकी शैली बिल्कुल मिलती है ।... ...मिश्र देशमें प्राचीन वंशोंके समयकी मूर्ति निर्माणकलामें भी दोनों ओर हाथ लटकाकर खड़ी हुई छोटी मूर्तियाँ मिलती है। यद्यपि ये मूर्तियां भी उसी शैलीकी हैं किन्तु सिन्धु-मोहरों पर अंकित खड़ी आकृतियोंमें और कायोत्सर्गमें स्थित जिनकी मूर्तियोंमें जो विशेषताएं हैं, उनका उन मूर्तियोंमें प्रभाव है।" ऋषभ या वृषभका अर्थ होता है बैल, और ऋषभ देव तीर्थकरका चिन्ह बैल है। मोहर नं. ३ से ५ तकके ऊपर अंकित देव मूर्तियोंके साथ बैल भी अंकित है जो ऋषभका पूर्वरूप हो सकता है । शैवधर्म और जैनधर्म जैसे दार्शनिक धर्मोके प्रारम्भको पीछे ठेल कर ताम्रयुगीन काल में ले जाना किन्हींको अवश्य ही एक साहस पूर्ण कल्पना प्रतीत होगा। किन्तु जब एक व्यक्ति ऐतिहासिक और प्राग ऐतिहासिक सिन्धुघाटी सभ्यताके बीचमें एक अगम्य झाड़ी झंखाड़ होनेकी उससे भी साहसपूर्ण कल्पना करनेके लिये तैयार है तो यह अनुमान कि सिन्धु मोहरों पर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका अंकित बैठी हुई और खड़ी हुई देव मूर्तियोंकी शैलीमें घनिष्ट सादृश्य उस सुदूर कालमें योगके प्रसारको सूचित करता है, एक कामचलाऊ कल्पनाके रूपमें मानलेनेके योग्य है। और आध्यात्मिक विचार सरणी पर पहुंचे बिना योगाभ्यास करना संभव नहीं है।" ( मार्डन रिव्यु जून १९३२ में श्री चन्दा के लेख से ) डा० राधाकुमुद मुकर्जी ने अपनी 'हिन्दू सभ्यता' नामक पुस्तकमें श्री चन्दाके उक्त मतको मान्यता देते हुए लिखा है'उन्होंने ( श्री चन्दाने ) ६ अन्य मुहरों पर खड़ी हुई मूर्तियोंकी ओर भी ध्यान दिलाया है। फलक १२ और ११८ आकृति ७ ( मार्शलकृति मोहेंजोदड़ो) कायोत्सर्ग नामक योगासनमें खड़े हुए देवताओंको सूचित करती हैं। यह मुद्रा जैन योगियोंकी तपश्चर्या में विशेष रूपसे मिलती है, जैसे मथुरा संग्रहालयमें स्थापित तीर्थङ्कर श्री ऋषभ देवताकी मूर्तिसें । ऋषभका अर्थ है बैल, जो आदिनाथका लक्षण है। मुहर संख्या F. G. H. फलक दो पर अंकित देवमूर्तिमें एक बैल ही बना है; संभव है यह ऋषभका ही पूर्वरूप हो । यदि ऐसा हो तो शैव धर्मकी तरह जैनधर्भका मूल भी ताम्रयुगीन सिन्धुसभ्यता तक चला जाता है। इससे सिन्धु सभ्यता एवं ऐतिहासिक भारतीय सभ्यताके बीचकी खोई हुई कड़ीका भी एक उभय-साधारण सांस्कृतिक परम्पराके रूपमें कुछ उद्धार हो जाता है।' (हि० स० २३-२४) यह पहले लिख आये हैं कि सिन्धु घाटीकी सभ्यता वैदिक सभ्यतासे भिन्न थी । वैसे ही जैसे श्रमण परम्परा ब्राह्मण परम्परासे भिन्न है। ब्राह्मण परम्परा मूलतः ब्राह्मणोंकी परम्परा है और श्रमण परम्परा श्रमणोंकी योगियोंकी परम्परा है; क्योंकि जैन और बौद्ध साधु श्रमण कहे जाते थे और वे एक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण १०३ तरह के योगी होते थे । ब्राह्मण परम्परामें तो योगका प्रवेश बहुत बाद में हुआ है । दोनों सभ्यताओं में भेद होते हुए भी ऋग्वैदिककालीन आर्य सिन्धु सभ्यता से परिचित थे ऐसा मत डा० रा० मुकर्जीका है । उनका कहना है कि 'ऋग्वेदकी सामग्री के सम्यक् पर्यालोचनसे यह ज्ञात होगा कि उसमें जो अनार्य लोगोंके और उनकी सभ्यता के उद्धरण हैं, वे सिन्धुके निवासी जनोंपर लागू हो सकते हैं ........ अनार्यों अथवा भारतीय आदिम निवासियोंके बारेमें ऋग्वेद में भी बहुत सी सामग्री है । आर्येतरोंको उसमें दास, दस्यु या असुर कहा गया है ।.. ..इसमें अनार्यसभ्यताओंकी कुछ सार्थक विशेषताओं का उल्लेख है जो सिन्धु सभ्यताकी सूचक और उसके सदृश हैं। उदाहरण के लिए आर्येतर लोगोंको अपरिचित भाषा बोलनेवाला (मृद्धवाक् ), वैदिक कर्मोंसे रहित ( अकर्मन् ) वैदिक देवोंके न माननेवाला ( अदेवयु), श्रद्धा और धार्मिक विश्वास से रहित ( ब्रह्मन् ), यज्ञोंसे शून्य ( अयज्वन् ), एवं व्रतोंसे रहित ( व्रत ) कहा गया है वे केवल अपने नियमोका पालन करनेवाले ( अपव्रत ) थे इन नकारात्मक संकेतों के अतिरिक्त एक निश्चयात्मक सूचना अनार्योके विषय में यह भी दी गई है कि वे लिंगपूजक थे ( शिश्नदेवाः, ऋ० ७१०११५; t १० ||३| ) | ( हि० स० पृ० ३२ : ३ ) । ऋग्वेद के उक्त निषेधात्मक विशेषण जो अनार्यो के लिए प्रयुक्त हुए हैं - वे सब यही Learn हैं कि लोग वैदिक सभ्यता के अनुयायी नहीं थे । शिश्न देवा: ऋग्वेदके दो सूक्तों में 'शिश्नदेवा:' शब्द आया है। इसमें से प्रथममें ( ७-२१-५ ) इन्द्रदेव से प्रार्थना की गई है कि शिश्नदेव Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका हमारे यज्ञमें विघ्न न डालें। दूसरेमें ( १०-६९-३) इन्द्रके सम्बन्धमें कहा गया है कि उसने शिश्नदेवोंको चालाकीसे मारकर शतद्वारों वाले दुर्गकी निधि पर कब्जा कर लिया। इससे स्पष्ट है कि शिश्नदेव वैदिक नहीं थे। । प्रायः सभी विद्वानोंने 'शिश्नदेवाः' का अर्थ शिनको देवता माननेवाले अर्थात् लिंगपूजक किया है। किन्तु इसका एक दूसरा अर्थ भी होता है-शिश्नयुत देवताको माननेवाले, अर्थात् जो नंगे देवताओंको पूजते हैं । सिन्धुघाटोसे प्राप्त मूर्तियोंके प्रकाशमें यही अर्थ ठीक प्रमाणित होता है। मोहेजोदडोंसे प्राप्त योगीकी मूर्ति तो नग्न है ही, किन्तु जिसे शिवकी मूर्ति माना जाता है उसमें भी लिंग अंकित है। इस मूर्ति में तीन देवताओंको एकत्रित करनेका प्रयत्न किया गया है । इससे यह अनुमान किया गया है कि मोहेजोदड़ोंके निवासियोंमें लिंग सहित शिवजीको पूजनेकी प्रथा' थी। ___ उक्त शिवमूर्तिके सम्बन्धमें श्रीसतीशचन्द कालाने लिखा है'सरजान मार्शलको इस मुद्रामें शिवमें लिंग नहीं दीख पड़ा। किन्तु ध्यानसे देखनेसे पता चलता है कि प्राकृतिके साथ उर्ध्वलिंग भी है। संस्कृत साहित्यकी अनेक पुस्तकोंमें लिखा है कि शिवमूर्तियोंमें ऊर्ध्वलिंगका होना आवश्यक है। ऊर्ध्वलिंग सहित शिवजीकी अनेक मूर्तियां भारतके पूर्वीभाग विहार, उड़ीसा, तथा बंगालमें मिलती हैं। लिंग सहित शिव जीको पूजने की प्रथा शायद मोहेंजोदड़ो निवासियोंको ज्ञात थी' (मो० तथा सि०, पृ० १११ )। ___ मोहेजोदड़ोसे प्राप्त सील नं० ३ से ५ तकमें कायोत्सर्गमें अंकित आकृतियां भी, जिन्हें श्री चन्दा ऋषभका पूर्वरूप १ इण्डियन कल्चर, अप्रैल १६३६, पृ० ७६७ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण १०५ . कहते हैं और जिनका 'पोज' मथुरा म्यूजियममें स्थित ऋषभदेव की मूर्तिसे, जो दूसरी शती की है, मिलता है, नग्न हैं। पुरुष प्राकृतिकी मूर्तियां प्रायः नग्न हैं और आजानुबाहु हैं, जो कायोत्सर्ग मुद्रा का एक रूप है। भारत सरकार के पुरातत्व विभागके संयुक्त निर्देशक श्री टी० एन० रामचन्द्रन्ने हड़प्पासे प्राप्त दो मूर्तियोंके सम्बन्ध में लिखा है-'हड़प्पाकी उपरोक्त दो मूर्तिकाओंने तो प्राचीन भारतीय कला सम्बन्धी आधुनिक मान्यताओंमें बड़ी क्रान्ति ला दी है। ये दोनों मूर्तिकाएं जो ऊंचाई में ४ इंचसे भी कम हैं, सिर हाथ पाद विहीन पुरुषाकार कवन्ध हैं। ... ये दोनों मूर्तिकाएं २४०० से २००० ईसा पूर्व की आंकी गई हैं । इनमेंसे एक मूर्ति चपल नर्तकका प्रतीक है। नर्तनकारी प्रतिमाके शिर, बाहु और जननेन्द्रिय पृथक बनाकर कबन्ध में बनाये हुए रन्ध्रों में जोड़े हुए थे। ........ दूसरी प्रतिमा अकृत्रिम यथाजात नग्न मुद्रावाले एक सुदृढ़ काय युवा की मूर्ति है। जिसके स्नायु पुढे बड़ी देख-रेख विवेक और दक्षता के साथ, जो मोहेजोदड़ो की उत्कीर्ण मोहरोंकी एक स्मरणीय विशेषता है, निर्माण हुए हैं । नर्तनकारी प्रतिमा इतनी सजीव और नवीन है कि यह मोहेजोदड़ो कालीन मूर्तिकाओंके निर्जीव विधि विधानोंसे नितान्त अछूती है । यह भी नग्न मुद्राधारी मालूम होती है। इससे इस सुझाव को समर्थन मिलता है कि यह उत्तर कालीन नटराज अर्थात् नाचते शिवका प्राचीन प्रतिरूप है। ..........( प्रथम नग्नमूर्ति ) हडप्पाकी मूर्तिकाके उपरोक्त गुणविशिष्ट मुद्रामें होने के कारण यदि हम उसे जैन तीर्थङ्कर अथवा ख्यातिप्राप्त तपो १ अनेकान्त, वर्ष १४, किरण ६, पृ० १५७ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका महिमा युक्त जैन सन्तकी प्रतिमा कहें तो इसमें कुछ भी असत्य न होगा । यद्यपि इसके निर्माणकाल २४००-२००० ईसा पूर्वके प्रति कुछ पुरातत्त्वज्ञों द्वारा सन्देह प्रकट किया गया है परन्तु इसकी स्थापत्य शैलीमें कोई भी ऐसी बात नहीं है जो इसे मोहेञ्जोदड़ोकी मृण्मय मूर्तिकाओं एवं वहाँकी उत्कीर्ण मोहरों पर अंकित विम्बोंसे पृथक् कर सके।' इस प्रकार मोहेजोदड़ोंकी तरह हड़प्पासे प्राप्त मूर्तियाँ भी नग्न हैं जिनमेंसे एक शिवकी मूर्ति मानी गई है और दूसरीको श्री रामचन्द्रन जैसे पुरातत्त्वविद् ऋषभ तीर्थङ्करकी मूति मानते हैं। उन्होंने भी अपने इस लेखमें 'शिश्नदेवाः' का अर्थ नंगे देवता किया है। उन्होने लिखा है-'जब हम ऋग्वेदके काल की ओर देखते हैं तो हमें पता लगता है कि ऋग्वेद दो सूक्तोंमें 'शिश्न' शब्द द्वारा नग्न देवताओंकी ओर संकेत करता है। इन सूक्तों में शिश्न देवों से अर्थात् नग्नदेवोसे यज्ञोंकी सुरक्षाके लिये इन्द्रका आह्वान किया गया है।' __इस तरह सिन्धु सभ्यतासे प्राप्त नग्न मूर्तियोंके प्रकाशमें ऋग्बेदके शिश्नदेवाःका अर्थ शिश्नयुत देव अर्थात् नंगे देव करना ही उचित जान पड़ता है। जो उनके उपासक थे वे भी उससे लिए जा सकते हैं। यह अर्थ लिंग पूजकोंमें और लिंगयुत नग्न देवोंके पूजकोंमें समानरूपसे घटित हो जाता है। । यहाँ यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि अपने चिन्ह लिंग पूजाको लिए हुए शिव निश्चय ही अन-आर्य देवता है। बाद में आर्यो के द्वारा उसे अपने देवताओंमें सम्मिलित कर लिया गया। किन्तु लिंग पूजाका प्रचलन आर्यों में बहुत कालके बाद हुआ है क्योंकि पतञ्जलिने अपने भाष्यमें पूजाके लिये शिवकी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण १०७ प्रतिकृतिका निर्देश किया है, शिवलिंगका नहीं। तथा रान्त्सांग के यात्राविवरणमें महादेवकी मूर्तिका तो वर्णन मिलता है, किन्तु लिंग पूजाका वर्णन नहीं मिलता । डा०भण्डारकरने लिखा है कि Wema-kadppises के समयमें भी लिंग पूजा अज्ञात थी ऐसा लगता है, क्योंकि उसके सिक्केके दूसरी ओर शिवकी मानव-मति अंकित है जिसके हाथमें त्रिशूल है तथा बैलका चिन्ह बना है। (शै-वै०, पृ० १६४) । ऋषभ और शिव मोहेजोदड़ोसे प्राप्त नग्न योगीकी मूर्तिको श्रीरामप्रसाद चन्दाने संभावना रूपमें ऋषभदेवकी मूर्ति बतलाया था और इधर हड़प्पासे प्राप्त नग्न कबन्धको श्रीरामचन्द्रन्ने ऋषभदेवकी मूर्ति बतलाया है। दोनों स्थानोंसे शिवकी भी प्रतिकृतियाँ मिली हैं। और उसपर डा० राधाकुमुद मुकर्जी जैसे विद्वान्ने अपना यह अभिप्राय व्यक्त किया है कि यदि उक्त मूर्तियां ऋषभका ही पूर्वरूप है तो शैवधर्मकी तरह जैन धर्मका मूल भी ताम्रयुगीन सिन्धु सभ्यता तक चला जाता है। इससे सिन्धु सभ्यता एवं ऐतिहासिक भारतीय सभ्यताके वीचकी खोई हुई कड़ीका भी एक उभय साधारण सांस्कृतिक परम्पराके रूपमें कुछ उद्धार हो जाता है।' __ डा० मुकर्जी के 'उभय साधारण सांस्कृतिक परम्परा' शब्द बड़े महत्त्वके हैं। 'उभय' शब्दसे यदि हम जैन धर्मके प्रवर्तक ऋषभ और शैव धर्मके आधार शिवको लें तो हमें उन दोनोंके बीचमें एक साधारण सांस्कृतिक परम्पराका रूप दृष्टिगोचर होता है और उसपरसे हमें यह कल्पना होती है कि दोनोंका मूल एक तो नहीं है ? अथवा एक ही मूल पुरुष दो परम्पराओंमें दो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका रूप लेकर तो अवतरित नहीं हुआ है; क्योंकि दोनोंके कुछ रूपोंमें हम आंशिक समता पाते हैं। इधर ऋषभ देवका चिन्ह बैल है, जो मोहेज्जोदड़ोंसे प्राप्त सील नं० से ५ तक पर अङ्कित तथा कार्योत्सर्ग मुद्रामें स्थित आकृतियोंके साथ भी बना हुआ है। उधर शिवका चिन्ह भी बैल है। इधर ऋषभ देवका निर्वाण कैलाससे माना जाता है उधर शिवको कैलासवासी माना जाता है। डा० भण्डारकर शिवके साथ उमाके योगको उत्तरकालीन बतलाते हैं। उमाका नाम केन उपनिषद्में आया है और उसे हैमवती- हिमवत्की पुत्री बतलाया है, किन्तु शिव या रुद्रकी पत्नी नहीं बतलाया है। इस सम्बन्धमें विशेष प्रकाश डालनेके लिये हमें वेदोंकी ओर जाना होगा। क्योंकि डा० राधाकृष्णन्' जैसे मनीषीने भी यह स्वीकार किया है कि वेदोंमें ऋषभ देव आदि जैन तीर्थङ्करोंके नाम आये हैं। ऋग्वेद (२-३३-१५ ) में रुद्रसूक्तमें एक ऋचा है'एव वभ्रो वृषभ चेकितान यथा देव न हृणीषे न हंसी।' हे वृषभ ! ऐसी कृपा करो कि हम कभी नष्ट न हों। और भी एक मंत्र है अनवीणं वृषभं मंद्र जिह्व वृहस्पतिं वर्धया नव्यमः। . ___ आगे चलकर वैदिक रुद्र देवताने शिवका रूप ले लिया और वे पशुपति' कहलाये, यह बात सर्वविश्रुत है। किन्तु ताण्ड्य और शतपथ ब्राह्मणमें ऋषभको पशुपति कहा है। यथा - १. हि. इं० फि, जि० १, २. चीनी यात्री हुएन्सांगने (ई० ७वीं शतीके मध्यमें ) अपने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण १०६ ऋषभो वा पशुनामधिपति (तां० ब्रा० १४-२-५) ऋषभो वा पशूनां प्रजापतिः ( शत० ब्रा०५, २-५-१७) 'पशु' शब्द का अर्थ शत० ब्रा० ( ६-२-१-२) में इस प्रकार किया है -(अग्निः ) एतान् पञ्च पशूनपश्यत् । पुरुषमव गामविमजम् । यदपश्यत्तस्मादेते पशवः। अर्थात् अग्निने (प्रजापतिने ) पुरुष, अश्व, गौ, भेड़, बकरी इन पाँच पशुओंको देखा। (संस्कृतमें 'देखना' अर्थवाली दृश धातुके स्थानमें 'पश्य' आदेश होता है) अतः क्योंकि इनको देखा, इसलिये ये पशु कहलाये। ब्राह्मणग्रन्थों में पशु शब्दके अर्थ इस प्रकार पाये जाते हैंश्रीवै पशवः। ( तां० ब्रा०, ५३-२-२) पशवो यशः। (शत० ब्रा० १, ८-१-३८) शान्तिः पशवः । ( तां० ४-५-१८) पशवो वैरायः । ( शत० ब्रा० ३, ३-१-८) आत्मा वै पशुः ( कौत्स्य ब्रा० १२-७) अर्थात् श्री, यश, शान्तिः, धन, आत्मा आदि अनेक अर्थों में पशु शब्दका व्यवहार वैदिक साहित्यमें हुआ है। अतः पशुपति शब्दका अर्थ हुआ-प्रजा, श्री, यश, धन आत्मा आदिका स्वामी । और ऋषभ पशुपति हैं। यात्रा विवरणमें पाशुपतोंका निर्देश किया है। वह लिखता है कि कुछ स्थानों में महेश्वर के मन्दिर हैं जहाँ पाशुपत लोग पूजा करते हैं । बनारसमें उसने दस हजारके लगभग अनुयायी पाये जो महेश्वरको पूजते थे, अपने शरीरपर भभूत रमाते थे, नंगे रहते थे, अपने वालोंको बाँधे रहते थे । ( वै० शै०, पृ० १६७ )। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० जै० सा. इ.-पूर्व पीठिका इसी तरह महा भारत अनुशासन पर्वमें महादेवके नामोंमें शिवके साथ ऋषभ नाम भी गिनाया है। यथाऋषभत्वं पवित्राणां योगिनां निष्कलः शिवः। अ०१४,श्लो०१८ ब्रात्य वैदिक वाङ यामकी एक कठिन पहेली 'व्रात्य' भी रहा है। ऋग्वेदके अनेक मन्त्रोंमें (१-१६३-८, ६-१४-२ आदि ) व्रात्य शब्द आया है। अतः स्पष्ट है कि 'व्रात्य' बहुत प्राचीन हैं। यजुर्वेद तथा तैत्ति० ब्रा० (३, ४.१-१ ) में व्रात्यका नाम नरमेध की बलि सूची में आया है। अर्थात् नरमेधमें जिन मनुष्योंका बलिदान किया जाता था उनमें ब्रात्य भी थे। महाभारतमें (५-३५-४६) व्रात्योंको महापातकियोंमें गिनाया है। किन्तु अथर्ववेदमें व्रात्यका वर्णन बहुत ही प्रभावक है। अथर्वके १५वें काण्डका पहला सूक्त है व्रात्य आसीदीयमान एव स प्रजापति समैश्यत् । अर्थात-'व्रात्य ने अपने पर्यटनमें प्रजापतिको शिक्षा और प्रेरणा दी । एक व्रात्यका प्रजापतिको शिक्षा देना अवश्य ही एक श्राश्वर्यजनक बात है। अतः सायणने इसकी व्याख्या में लिखा है___'कंचिद् विद्वत्तमं महाधिकारं पुण्यशीलं विश्वसम्मान्यं कर्मपरै ब्राह्मणैर्विद्विष्टं ब्रात्यमनुलक्ष्य वचनमिति मन्तव्यम् । अर्थात्- यहाँ किसी विद्वानोंमें उत्तम महाधिकारी, पुण्यशील विश्वपूज्य व्रात्यको लक्ष्य करके उक्त कथन किया है, जिससे कर्मकाण्डी ब्राह्मण विद्वेष करते थे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण . अथर्ववेदका वह विद्वानोंमें उत्तम, महाधिकारी, पुण्यशील और विश्वपूज्य ब्रात्य कौन है, यह आज भी अन्धकारमें है। जो व्रात्य प्रजापतिको शिक्षा दे सकता है वह अवश्य ही उक्त विषयोंका अधिकारी होनेके योग्य है। किन्तु जिस व्रात्यको वैदिक साहित्यमें संस्कारहीन, और पतित तक बतलाया गया है उसके सम्बन्धमें अथर्ववेदका उक्त कथन अवश्य ही अपनी कुछ विशेषता रखता है। इसीलिये भाष्यकार सायणको 'कंचित्' शब्द का प्रयोग करना पड़ा है क्योंकि सब बात्य तो इस योग्य हो नहीं सकते थे। उक्त विशेषणोंमें केवल एक विशेषण ही ऐसा जो नात्योंके सम्बन्धमें वैदिक दृष्टिकोणका सूचक है। वह है-- 'कर्मपरै ब्रह्मिणैर्विद्विष्ट'- कर्मकाण्डी ब्राह्मण जिससे विद्वेष करते हैं।' ___अथर्ववेदके १५वें काण्डके सम्बन्धमें जर्मनीके डा. हावरने लिखा है। -'ध्यानपूर्वक विवेचनके बाद मुझे स्पष्टतया विदित हो गया कि यह प्रबन्ध प्राचीन भारतके ब्राह्मणेतर आर्यधर्मको माननेवाले व्रात्योंके उस वृहत् वाङमयका कीमती अवशेष है जो प्रायः लुप्त हो चुका है।" डा० हावरने व्रात्योंके सम्बन्ध में लिखा है-'अपनी पुस्तक 'देर व्रात्य' में मैंने बताया है कि 'व्रात्य' शब्द ब्रातसे व्युत्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है व्रत पुण्यकार्यमें दीक्षित मनुष्य या मनुष्योंका समुदाय । यह ब्राह्मणोंके दीक्षितका ठीक प्रतिबाचक है; ब्राह्मणोंके यहाँ ब्राह्मणको सर्वोत्तम दीक्षित कहा गया है। इसी कारण मत परिवर्तनके बाद जब व्रात्योंने ब्राह्मण धर्म स्वीकार किया तो वे लोग ब्राद्यण वर्गमें लिये गये। ब्रात्य लोग असलमें । १. भा० अनु०, पृ० १३ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ जै० स० इ०-पूर्व पीठिका उस विधर्मी सम्प्रदायके पूज्य ब्यक्ति थे जिसका प्रधान देवता रुद्र था। शुरूमें ये लोग अद्भुत वेशवाली टोलियोंमें घूमनेवाले धर्मगुरू और जादूगर थे, जिनकी कई श्रेणियां थीं और अपना एक अलग ही पवित्र ज्ञान था, और बाद में एकाकी योगी, सिद्ध, जो अपने गुप्त ज्ञान और पवित्र अनुष्ठानोंका खजाना लिये देशमें घूमते फिरते।" डा. हावरने प्रात्योंको रुद्रका अनुयायी बतलाया है। वियना ओरियन्टल जर्नल (जि० २५, पृ० ३५५-३६८ ) में पॉल चार पेन्टर ( Paul Carpentier ) ने भी व्रात्योंको आधुनिक शैवोंका पूर्वज तथा अथववेदके उक्त व्रात्यको रुद्र शिव बतलाया था, किन्तु ए. बी. कीथने (ज० ए० ए, सो० १९२१) बड़ी ही योग्यतासे उनकी मान्यताका निराकरण कर दिया । मि० चारपेन्टर के मतका निराकरण करते हुए मि० कीथने लिखा है-अथर्वकाण्ड १५से भी इस बातका समर्थन नहीं होता कि ब्रात्य रुद्र शिव १. अथर्ववेद काण्ड १५के पहले सूक्त में व्रात्योंका वर्णन इस प्रकार प्रारम्भ होता है१.-व्रात्य घूम रहा था, उसने प्रजापतिको प्रेरित किया। २-उसने प्रजापति रूपमें सुवर्णको अपनेमें देखा । उसे जना। ३-वह एक हो गया, वह माथेका ललाम हो गया। वह महत् हुआ, वह ज्येष्ठ हुआ, ब्रह्म हुअा, सृजनेवाली गर्मी तप) हुआ और इस प्रकार प्रकट हुआ। ४-वह उद्दीप्त हो उठा, वह महान हो गया, महादेव बन गया। ५-वह देवताओंके ईश्वरत्वको लांघ गया, ईशान हो गया । (भा० अनु० पृ० १४) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण ११२ था। इसमें सन्देह नहीं कि अथर्ववेद काण्ड १५ का वर्णन व्रात्य से सम्बद्ध है । किन्तु उसमें मुझे यह कहीं नहीं मिला कि व्रात्य रुद्र शिव है। अथर्वका उक्त अंश ब्राह्मण शैली में है और वह बादका रचा हुआ प्रतीत होता है। उसमें प्रात्यकी प्रशंसा है, किन्तु अथर्व में इस प्रकारके धार्मिक सिद्धान्तों का पाया जाना साधारण बात है, और वे बतलाते हैं कि 'व्रात्य' के पीछे एक महान देवका रूप अन्तर्निहित है । अथर्व इतना ही बतलाता है कि ब्रात्य महादेव और ईशान हो गया, किन्तु १५-५-१ में भाव, शर्व, पशुपति, उग्रदेव, ईशान और रुद्रको उसका सेवक बतलाया है । यह सब उसकी लौकिक सामर्थ्यको बतलाते हैं किन्तु उसके मूल स्वरूपको प्रमाणित नहीं करते ।" अथर्व ० का ० १५, के दूसरे सूक्तमें एक वाक्यांश इस प्रकार है - 'सुवर्णमात्मन्नपश्यत् तत् प्राजनयत्' इस वाक्य में सुवर्णके स्थानमें 'हिरण्यगर्भ' बदलकर शेष सम्पूर्ण वाक्य लगभग इसी रूप में व्रात्य अनुश्रुतिसे सम्बद्ध श्वेता० उप० ( ३-४-२ ) में इस प्रकार दुहराया है - 'यो देवानां प्रभवश्च उद्भवश्च विश्वाधिपो रुद्रों महर्षि हिरण्यगर्भे जनयामास पूर्वम् । ' यहाँ 'हिरण्य गर्भ' शब्द उल्लेखनीय है । इसके सम्बन्ध में हम आगे लिखेंगे । यहाँ यह शङ्का होती है कि क्या हिरण्यगर्भका ब्रात्यके साथ सम्बन्ध है । यदि है जैसा कि लगता है। तो फिर यह व्रात्य हिरण्यगर्भ कौन व्यक्ति था— जैन शास्त्रों में तो ऋषभदेवको हिरण्यगर्भ कहा है और उनके शरीरका वर्ण सुवर्णके समान बतलाया है । अथर्व ( १ - ४२ - ४ ) में भी ऋषभ देवके सम्बन्धमें एक मंत्र श्राया है । ब्राह्मण ग्रन्थोंमें ऐसे निर्देश नहीं मिलते जिनके आधारपर で Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका ब्रात्योंकी जन्मभूमिका निश्चय किया जा सके। तथापि अथर्ववेदमें मागधोंका व्रात्योंके साथ निकट सम्बन्ध बतलाया है। अतः ब्रात्योंको मगधका वासी माना जाता है। तथा वैदिक साहित्यके उल्लेखोंके अनुसार ब्रात्य लोग न तो ब्राह्मणोंके क्रिया काण्डको मानते थे, न खेती और व्यापार करते थे। अतः न वे ब्राह्मण थे और न वैश्य । किन्तु योद्धा थे-धनुषवाण रखते थे। मनुस्मृति (अ० १० ) में लिच्छवियोंको व्रात्य बतलाया है । सातवीं-छठी शताब्दी ईस्वीपूर्वमें विदेहके पड़ोसमें वैशाली गणतंत्र था-जो लिच्छवियोंका था । इनके गणका नाम वृजि या वजिगण था। ये लिच्छवि लोग क्षत्रिय थे और मगध देशके निकट बसते थे । अन्तिम जैन तीर्थङ्कर भगवान महावीरकी माता लिच्छवि गणतंत्रके प्रमुख जैन राजा चेटककी पुत्री थी। बुद्धने लिच्छवियों और उनके वजिगणकी बड़ी प्रशंसा की है। महापरिनिब्वाण सुत्तसे पता चलता है कि उन वजियोंके अपने चैत्य थे और अपने अर्हत् थे। उन अहतों और चैत्योंके अनुयायी व्रात्य कहलाते थे। ( भा० इ० रू०. पृ० ३४६ का पाद टिप्पण)। इस तरह व्रात्योंको मगधका वासी और लिच्छवियोंका ब्रात्य बतलानेसे तो ब्रात्य लोग क्षत्रिय और जैनों के पूर्वज प्रतीत होते हैं। श्री का०प्र० जायसवालने ( मार्डन रिव्यु १९२६, पृ० ४६६) लिखा है-'लिच्छवि पाटलीपुत्रके 'अपोजिट' मुजफ्फरपुर जिले में राज्य करते थे। वे ब्रात्य अर्थात् अब्राह्मण क्षत्रिय कहलाते थे। वे गणतंत्र राज्यके स्वामी थे। उनके अपने पूजा स्थान थे, उनकी अवैदिक पूजाविधि थी, उनके अपने धार्मिक गुरु थे। वे जैनधर्म और बौद्धधर्मके आश्रदाता थे। उनमें महाबीर का जन्म हुआ। मनुने उन्हें पतित बतलाया है।' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण ब्रात्योंकी ओर सबसे प्रथम जिस विदेशी विद्वान्का ध्यान आकृष्ट हुआ वह थे श्री बेवर । बेवरका मत था कि व्रात्य बौद्ध धर्म जैसे किसी अब्राह्मण धर्मके अनुयायी थे। किन्तु वैदिक साहित्य और बौद्ध धर्मके उद्गम कालके बीचमें सुदीर्घ कालका अन्तराल होनेसे ब्रात्योंका सम्बन्ध बौद्धधर्मके साथ नहीं माना जा सकता था। तथा उस समय तक जैनधर्मके स्वतंत्र अस्तित्वमें ही कतिपय विद्वानोंको सन्देह था जिनमें स्वयं बेवर भी थे। अतः बेवरकी उक्त मान्यताको प्रश्रय नहीं मिला। किन्तु आज जैनधर्मका न केवल स्वतंत्र अस्तित्व ही प्रमाणित हो चुका है किन्तु बौद्धधर्मसे प्राचीन भी मान लिया गया है और इस तरह भारतके ऐतिहासिक कालके प्रारम्भ तक उसका अस्तित्व जाता है । तथा मोहेंजोदड़ोंसे प्राप्त सीलोंपर अंकित कायोत्सर्गमें स्थित नग्न आकृति यदि ऋषभ देवकी प्रमाणित होती हैं तब तो जैनधर्मकी प्राचीनता सिन्धु सभ्यता तक चली जाती है। उक्त स्थितिमें बेवरका मत ही सत्यके अधिक निकट प्रतीत होता है क्योंकि बौद्धधर्म जैसा अब्राह्मण धर्म जैनधर्म ही हो सकता है। और अथर्व का. १५ के प्रथम सूक्तके भाष्यमें सायणके द्वारा ब्रात्यके लिये प्रयुक्त 'कर्मपरै ब्राह्मणैर्विद्विष्टं'-कर्मकाण्डी ब्राह्मण जिससे द्वेष करते हैं, विशेषण भी जैनधर्मके पुरस्कर्ता और अनुयायी के लिये सुसंगत बैठता है । अस्तु, 'ब्रात्य' शब्द ब्रत या ब्रातसे बना है। जैन धर्ममें व्रतोंका जो महत्व है वह आज भी किसी ब्राह्मणेतर धर्ममें नहीं है। तथा ब्रात्यका अथ घुमक्कड़ होता है। अर्थात् जो एक जगह स्थिर होकर न रहता हो। 'वन्जि' शब्द भी ब्रज या 'वर्ज' धातुसे बना प्रतीत होता है। ब्रजका अर्थ चलना है और 'वर्ज' का अर्थ है Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका त्यागना । अतः ब्रात और ब्रज का अर्थ समान है तथा व्रत और वर्जका अर्थ समान है। ब्रतका मतलब ही त्याग है जो वर्जका भी मतलब है। तथा ब्रातका मतलब है घुमक्कड़ और ब्रजका चलना । ब्रजसे ही 'परिव्राजक' शब्द बना, जो साधुके अर्थमें व्यवहृत हुआ। डा० हावरने लिखा है- 'अथर्व का० १५, सूक्त १०-१३ में लौकिक व्रात्यको अतिथिके रूपमें देशमें घूमते हुए तथा राजन्यों और जन साधारणके घरोंमें जाते हुए दिखलाया गया है। 'तुलनासे यह सिद्ध किया जा सकता है कि अतिथि घूमने फिरनेवाला साधु ही है जो पूर्वकालमें पुरोहित या जादूगर होता और बादमें सिद्ध, जो अपने साथ अलौकिक वातोंका गुप्त ज्ञान लाता और अपना स्वागत करनेवालोंको आसीस देता। ऋग्वेद और अन्य धर्मोंसे तुलना करनेपर मालूम पड़ता है कि यह आर्यावर्त और यूरोप ( ? ) की उभयनिष्ठ संस्था थी; और प्राचीन भारतमें व्रात्य लोग उसके ब्राह्मणेतर प्रतिनिधि थे। वह जहाँ जाता उसकी आवभगत बड़ी श्रद्धा भक्तिसे होती। और व्रात्य देवताकी तरह, जिसका कि वह प्रतिनिधि है ( १३-८-६ ) उसका स्वागत किया जाता । इस आतिथ्यका वड़ा माहात्म्य है । यदि वह किसी घरमें एक रात ठहरे तो गृही पृथ्वीके सब पुण्य लोकोंको पा जाता है। दूसरे दिन ठहरे तो अन्तरीक्षके, तीसरे दिन धु के, चौथे दिन पुण्यके पुण्य लोकोंको तथा पाँचवें दिन अपरिमित पुण्य लोकोंको ।...."१२ वें सूक्तके प्रारम्भमें पता चलता है कि अतिथि अब घूमते धर्मगुरु और जादूगरके रूपमें पहले व्रात्यों १. भा० अनु०, पृ० १९ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण ११७ वाली सजधज और मण्डलीके साथ नहीं आता । अब तो यह ' एवं विद्वान् व्रात्य : ' है जिसके ज्ञानने अब पुराने कर्मकाण्डकी जगह ले ली है। प्राचीन भारत में एक ही व्यक्ति ऐसा है जिसपर यह बात घट सकती है । वह है पारिव्राजक योगी या संन्यासी । योगियों-संन्यासियोंका सबसे पुराना नमूना व्रात्य है ।' उक्त विवेचनसे यह स्पष्ट है कि व्रात्य भ्रमणशील साधु थे 1 अतः प्राचीन व्रात्य लोग यदि उत्तर काल में 'वज्जि' कहे जाने लगे तो कोई आश्चर्य नहीं है । ऊपर लिखा है कि व्रात्य शब्द व्रत या व्रातसे बना है । अथर्व का० १५ के सूक्त २-७ में विश्वपुरुष ब्रात्यके भ्रमण और कर्म - काडका वर्णन है । उनमें प्रधान महाव्रत है जैनों में आज भी साधुओं के व्रतोंमें महाव्रत ही प्रधान हैं । उक्त काण्डके पहले सूक्तमें आदि देवको व्रात्य कहा है । तथा तीसरे सूक्तमें विश्व व्रात्य पूरे एक वर्ष सीधा खड़ा रहता है । जैनोंमें ऋषभ देवको आदिदेव कहा जाता है क्योंकि वह प्रथम तीर्थङ्कर थे । तथा प्रव्रज्या ग्रहण करनेके पश्चात् छै मास तक वे कायोत्सर्ग रूप में सीधे खड़े रहे थे और छै मास तक आहार के लिये भटकते फिरे थे । इस तरह एक वर्ष उन्हें एक तरह से खड़ा ही रहना पड़ा था । हम नहीं कह सकते कि इस सबमें कितना तथ्य है, किन्तु इतना अवश्य कह सकते हैं, कि अथर्ववेदका १५वां काण्ड आज भी वैदिकवाङ्मयकी सबसे कठिन पहेली बना हुआ है । और व्रात्योंकी स्थितिका नये सिरे से अध्ययन होने की आवश्यकता है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका हिरण्यगर्भ और ऋषभदेव ऋग्वेद मं० १०, सू. १२१ की पहली ऋचा इस प्रकार है --- हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक श्रासीत । स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ १ ॥ इसमें बतलाया है कि पहले हिरयगर्भ हुए। वह प्राणीमात्रके एक स्वामी थे । उन्होंने आकाश सहित पृथ्वीका धारण किया। हम हविके द्वारा किस देवकी आराधना करें। सायणने इसका भाष्य इस प्रकार किया है 'हिरण्यगर्भः हिरण्मयस्याण्डस्य गर्भभूतः प्रजापतिर्हिरण्यगर्भः । तथा च तैत्तिरीयकं-प्रजापति हिरण्यगर्भः प्रजापतेरनुरूपाय ( ते० सं० ५-५-१-२)। यद्वा हिरण्यमयोऽअण्डो गर्भवद्यस्योदरे वर्तते सोऽसौ सूत्रात्मा हिरण्यगर्भ उच्यते । अग्रे प्रपञ्चत्यत्त प्राक् समवर्तत् मायाध्यक्षात् सिसृक्षोः परमात्मनः साकाशात् समजायत ।...."सर्वस्य जगतः परीश्वर आसीत् "' तैत्तिरीय संहिता में हिरण्यगर्भका अर्थ प्रजापति किया है। अतः प्राचार्य सायण उसीके अनुसार हिरण्यगर्भकी व्युत्पति' करते हैं-'हिरण्यमय अण्डेका गर्भभूत' अथवा जिसके उदरमें हिरण्यमय अण्डा गर्भकी तरह रहता है। वह हिरण्यगर्भ प्रपञ्चकी उत्पत्तिसे पहले सृष्टिरचनाके इच्छुक परमात्मासे उत्पन्न हुआ ।' ___ यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि सायण पन्द्रहवीं विक्रमशतीके विद्वान हैं, उस समय तक प्रजापति ब्रह्मा बन चुके थे और सृष्टि रचनाकी पौराणिक प्रक्रिया प्रचलित हो चुकी थी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण अतः ऋग्वेदका यह हिरण्यगर्भ वास्तवमें कौन है यह अभी तक भी स्पष्ट नहीं हो सका है। मि० वालिस ( wallis ) का कहना है कि हिरण्यगर्भ शब्द लाक्षणिक है, यह विश्वकी महान शक्तिको सूचित करता है जिससे सब उत्पन्न हुए। यह एक विचार है जो उत्तरकालीन ब्रह्माकी कल्पनाके अतिनिकट है (हि० प्री० इं०, पृ. ३५)। विक्रमकी नौवीं शतीके जैनाचाय जिनसेनने-जिन्होंने ऋषभ देवका विस्तृत चरित 'महापुराण' लिखा है, ऋषभ देवको हिरण्यगर्भ' कहा है। जैन मान्य ताके अनुसार जब ऋषभदेव ग में आये तो आकाशसे स्वर्णकी वर्षा हुई। इसीसे वे 'हिरण्यगर्भ' कहलाये। योग के जनक हिरण्यगर्भ जैन महापुराण तथा श्रीमद्भागवत् के अनुसार ऋषभ देव बड़े भारी योगी थे। जैन पुराण तो उन्हें ही योग मार्गका श्राद्य प्रवर्तक बतलाते हैं। उन्होंने ही सर्व प्रथम राज्यको त्यागकर बनका मार्ग लिया था। मोहेजोदड़ोसे प्राप्तमूर्ति भी, जिसके ऋषभ देवका पूर्वरूप होने की संभावना की जाती है-योगकी मुद्रा में है। . सैषा हिरण्यमयी वृष्टिः धनेशेन निपातिता । विभोर्हिरण्यगर्भत्वमिव बोधयितु जगत् ।।पर्व १२,६५॥ "गब्भडिअस्स जस्स उ हिरण्णवुट्ठो मकंचणा पडिया। तेणं हिरण्णगब्भो जयम्मि उवगिजए उसभो" (पउम० ३, ६८) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका उधर महाभारत शान्ति०, अ० ३४६ में हिरण्यगर्भ को योग का वक्ता बतलाया है। यथा हिरण्यगर्भो योगस्य वक्ता नान्यः पुरातनः । अर्थात् हिरण्यगर्भ योगमार्गके प्रवर्तक हैं अन्य कोई उनसे पुरातन नहीं है । तो क्या ऋषभदेव और हिरण्यगर्भ कहीं एक ही व्यक्ति तो नहीं है, इधर जैन शास्त्र ऋषभदेवका काल बहुत प्राचीन बतलाते हैं तो उधर ऋग्वेद 'हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे' लिखकर हिरण्यगर्भकी प्राचीनताको सूचित करता है। 'हिरण्यगर्भः' शब्द लाक्षणिक होते हुए भी किसी व्यक्ति का सूचक है यह बात ऋग्वेदके 'हिरण्यगर्भः समवर्तता' पदसे व्यक्त होती है। हिन्दू पुराणों में ऋषभदेव “नाभि पुत्र ऋषभ और ऋषभ पुत्र भरत की चर्चा प्रायः सभी हिन्दू पुराणों में आती है। मार्कण्डेय पु० अ० ५०, कूर्म पु०अ०४१ अग्नि पु०अ०१०, वायु पुराण अ० ३३, गरुण पु० अ० १, ब्रह्माण्ड पु०अ० १४, वाराह पु० अ०७४, लिग पुराण अ० ४७, विष्णु पु० २, अ० १, और स्कन्द पु० कुमारखण्ड अ० ३७, में ऋषभदेवका वर्णन आया है। इन सभीमें ऋषभको नाभि और मरु देवीका पुत्र बतलाया है। ऋषभसे सौ पुत्र उत्पन्न हुये। उनमेंसे बड़े पुत्र भरतको राज्य देकर ऋषभने प्रव्रज्या ग्रहण करली। इस भरतसे ही इस देशका नाम भारतवर्ष पड़ा । यथा नाभिस्त्वजनयत पुत्रं मेरुदेव्यां महाद्युतिः। ऋषभं पार्थिवश्रेष्ठं सर्वक्षत्रस्य पूर्वजम् ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण - १२१ ऋषभाद् भरतो जज्ञे वीरः पुत्रशताग्रजः। सोऽभिषिच्यर्षभः पुत्रं महाप्राव्राज्यमास्थितः ।। हिमाद्वं दक्षिणं वर्ष तस्य नाम्ना विदुबुधाः । उक्त श्लोक थोड़ेसे शब्द भेदके साथ प्रायः उक्त सभी पुराणों में पाये जाते हैं। प्रायः सभी हिन्दू पुराण इस विषयमें एकमत हैं कि ऋषभ पुत्र भरतके नामसे इस देशका नाम भारतवर्ष पड़ा, न कि दुष्यन्त पुत्र भरतके नामसे । हिन्दू पुराणोंका यह ऐकमत्य निस्सन्देह उल्लेखनीय है। ____ श्रीमद्भागवतमें तो ऋषभावतारका पूरा वर्णन है और उन्हींके उपदेशसे जैनधर्मकी उत्पत्ति भी बतलाई है। डा० आर. जी० भण्डारकर' के मतानुसार '२५० ई० के लगभग पुराणोंका पुनर्निमाण होना आरम्भ हुआ और गुप्तकाल तक यह क्रम जारी रहा। इस कालमें समय-समयपर नये पुराण भी रचे गये ।' इस तरह उपलब्ध पुराण प्रायः गुप्तकालकी कृतियाँ हैं और उनमें वर्णित प्राग ऐतिहासिक कालीन घटनाओंको तथ्यके रूपमें स्वीकार कर सकना यद्यपि संभव नहीं है, फिर भी भारतके अनेक प्राचीन वंशों और अनुश्रुतियोंका संरक्षण उन्हींके कारण हो सका है और भारतीय इतिहासकी त्रुटित शृङ्खलाओंको जोड़ने में भी पुराणोंका साहाय्य कम नहीं रहा है । इसलिये पुराणोंमें चर्चित विषयोंको कोरी गप्प कहकर नहीं उड़ाया जा सकता। उनमें भी आंशिक तथ्योंकी संभावना है। अतः अधिक नहीं तो कम-सेकम इतना तो स्पष्ट ही है कि ऋषभदेव, उनके माता पिता तथा 1 A peep into early Indian history, ( भण्डारकर लेख संग्रह जिल्द १, पृ० ५६ ) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका पुत्रोंके सम्बन्धमें एक ऐसी अनुश्र ति चली आती थी जिसे लेकर हिन्दू और जैन पुराणकारों तकमें प्रायः मतभेद नहीं था। यह कहा जा सकता है कि हिन्दू पुराणों में वर्णित ऋषभदेवके वर्णनको ही पुराणकारोंने अपना लिया। किन्तु विचार करनेपर यह कथन उचित प्रतीत नहीं होता। यह पहले लिख आये हैं कि ऋषभदेवके प्रथम जैन तीर्थङ्कर होनेकी मान्यता ईस्वी सन से भी पूर्व में प्रवर्तित थी, इतना ही नहीं, ऋषभदेवकी मूर्तिकी पूजा जैन लोग करते थे यह बात खारवेलके शिलालेख तथा मथुरासे प्राप्त पुरातत्त्वसे प्रमाणित हो चुकी है। तथा हिन्दू पुराणोंसे भी पूर्वके जैन ग्रन्थोंमें ऋषभदेवका चरित वर्णित है। इसके सिवाय श्रीभागवतमें ऋषभदेवका वर्णन करते हुए स्पष्ट लिखा है कि वातरशन ( नग्न ) श्रमणोंके धर्मका उपदेश करनेके लिये उनका जन्म हुआ । यथा वर्हिषि तस्मिन्नेव विष्णुदत्त भगवान् परमर्षिभिः प्रसादितो नाभेः प्रियचिकीर्षया तदवरोधायने मरुदेव्यां धर्मान् दर्शयितुकामो वातरशनानां श्रमणानामृषीणामूर्ध्वमन्थिनां शुक्लया तनुवावततार ॥ २० ॥ स्क० ५, अ०३ । ___ उक्त नग्न श्रमणोंके धर्मसे स्पष्ट ही जैन धर्मका अभिप्राय है क्योंकि आगे भागवत्कारने ऋषभदेवके उपदेशसे ही आर्हत धर्म ( जैन धर्मका पुराना नाम ) की उत्पत्ति बतलाई है। उसमें लिखा है 'भगवान ऋषभके आचरणोंका वृत्तान्त सुनकर कोंक, बैंक, कुटक देशोंका अर्हत् नाम राजा भी वैसे ही आचरण करने लगेगा और वह मति मन्द भवितव्यतासे मोहित होकर कलि. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण युगमें जब अधर्मकी उन्नति होगी, उस समय निर्भय सनातन धर्मके मार्गको त्यागकर अपनी बुद्धिसे पाखण्डमय कुमार्ग चलावेगा। इस अधर्म प्रवर्तक राजाके पीछे कलियुगके मन्दबुद्धि मनुष्यगण ईश्वरकी मायामें मोहित होकर अपने अपने शौच आचारको त्यागकर देवतोंका तिरस्कार करेंगे एवं स्नान न करना, आचमन न करना, अशौच रहना, केशलोच करना आदि विपरीत व्रतोंको अपनीअपनी इच्छाके अनुसार ग्रहण करेंगे। जिसमें अधर्म बहुत होता है ऐसे कलियुगमें इस प्रकारके लोग नष्टबुद्धि होकर प्रायः सर्वदा वेद, ब्राह्मण यज्ञ और हरिभक्तोंको दूषित कर हँसेंगे। वे लोग अन्यपरम्परा सदृश वेदविधिवहिष्कृत उक्त प्रकारकी मनमानी प्रवृत्ति करके अपने कर्मोंसे घार नरकमें गिरेंगे। हे. राजन् ! भगवानका यह ऋषभावतार एक प्रकारसे उक्त अनर्थका कारण होनेपर भी रजोगुणमें आसक्त व्यक्तियोंको मोक्षमागे सिखलानेके लिये परम आवश्यक था। ( भागवत भाषा, स्क० ५, अ०६) ___ उक्त सब वर्णन जैनोंको लक्ष्य करके ही लिखा गया है। हाँ, अहंत नामके राजाकी कल्पना मन गढन्त है, अर्हत् जीवन्मुक्त दशाका नाम है । उस अवस्थामें पहुंचनेपर ही तार्थङ्कर धर्मोपदेश करते हैं । शायद भ्रमसे उसीको राजा मान लिया है। ___ उक्त वर्णनसे यह स्पष्ट है कि जैन धर्म और उसके अनुयायिओंके प्रति भागवत्कारका अभिप्राय यद्यपि रोषपूर्ण है तथापि ऋषभदेवके प्रति ऐसी बात नहीं है। उनके लिये तो उन्होंने अत्यन्त आदर ही व्यक्त किया है और लिखा है- 'जन्महीन ऋषभदेव जीका अनुकरण करना तो दूर रहा, अनुकरण करनेका मनोरथ भी कोई अन्य योगी नहीं कर सकता, क्योंकि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका जिस योगबल (सिद्धियों ) को ऋषभजीने असार समझकर नहीं गृहण किया और-और योगी लोग उसीके पानेकी अनेक चेष्टाएँ करते हैं । हे राजन् ! ऋषभदेव जी लोक, वेद, देवता, ब्राह्मण, गौ आदि सब पूजनीयोंके पूजनीय परम गुरु हैं॥ (स्क० ५, अ०६) ___ ऋषभदेव जीमें इतनी श्रद्धा-भक्ति प्रकट करनेका एक ही कारण हो सकता है कि उन्हें विष्णुके अवतारोंमें माना गया है। किन्तु विष्णुके दस अवतारोंमें ऋषभदेवकी गणना नहीं है जब कि बुद्ध की गणना है। हाँ, चौबीस अवतारोंमें ऋषभदेवको अवश्य स्थान दिया है। विष्णुके अवतार पुराणोंके अवलोकनसे विष्णुके अवतारों में भी एकरूपता दृष्टिगोचर नहीं होती । विभिन्न ग्रन्थकाराने विभिन्न प्रकारसे उनका उल्लेख किया है। महाभारत शान्तिपर्वके नारायणीय भागमें छै अवतार गिनाये हैं-वराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, राम और वासुदेव कृष्ण। कुछ अन्तर देकर इसीके बाद अवतारोंकी संख्या दस बतलाई है, उसमें हंस, कूर्म और मत्स्यको उक्त छै अवतारोंके आदिमें रखा है और अन्तमें कल्किको रखा है । ऐसा प्रतीत होता है कि जब अवतारोंकी संख्या दस निश्चित हो गई तो अन्तिम अंश उसमें जोड़ दिया गया, ऐसा आर० भण्डारकरका अभिप्राय है (वै. शै०, पृ० ५६ ) हरिवंशमें उक्त छै अवतारोंका ही निर्देश है। वायु पुराणमें दो स्थलोंमें अवतारोंका निर्देश किया है। अ०६७ में उनकी संख्या Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण १२५ बारह बतलाई है और अ०६८ में दस अवतार ही बतलाये हैं। जिनमें छै तो पूर्वोक्त हैं उनमें चार नाम और जोड़े गये हैंदत्तात्रेय, एकका नाम न देकर केवल पांचवाँ लिखा है, वेदव्यास और कल्कि । वराह पुराणमें दस अवतार बतलाये हैं उक्त छै तथा मत्स्य, कर्म, बुद्ध और कल्कि। बादमें ये ही दस अवतार माने गये । अग्नि पुराणमें भी ये ही दस अवतार बतलाये हैं। ___ भागवत पुरमें तीन स्थलोंमें अवतारोंका निर्देश किया है-प्रथम स्कन्धके तीसरे अध्यायमें उनकी संख्या बाईस है, दूसरे स्कन्धके सातवें अध्यायमें उनकी संख्या २३ है और स्कन्ध ११ के चौथे अध्यायमें ५६ अवतार बतलाये हैं। बाईस अवतारोंका क्रम इस प्रकार गिनाया है-प्रथम सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार अवतार लेकर अखण्ड ब्रह्मचर्य पालन किया। दूसरी बार पृथ्वीका उद्धार करनेके लिये वाराह अवतार लिया। तीसरी बार नारद अवतार लिया। चौथी बार नरनारायण अवतार लिया। पाँचवीं बार कपिल अवतार लेकर आसुरिको सांख्य शास्त्रका उपदेश दिया। छठी बार दत्तात्रेय होकर आत्मविद्याका उपदेश दिया। सातवीं बार यज्ञ नामसे अवतार लिया। आठवीं बार नाभि राजाकी मरुदेवी नामक स्त्रीमें ऋषभ अवतार लिया और सब आश्रम जिसको नमस्कार करते हैं ऐसे परमहंस धर्मका उपदेश किया। नौवीं बार राजा पृथुके रूपसे अवतार लिया। दसवीं बार मत्स्यावतार लेकर पृथ्वीकी रक्षाकी । ११ वीं बार कच्छप अवतार लिया। १२ वां धन्वन्तरि अवतार लिया। तेरहवाँ मोहिनी रूप धारण करके देवतोंको अमृत पिलाया । १४ वां नृसिंह अवतार, १५ वा वामन अवतार, १६ वां परशुराम, १७ वां व्यास, १८ राम, १६ और बीसवां Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका कृष्ण बलदेव । फिर कलियुगके आरम्भमें जिनसुत बुद्ध होंगे, फिर कलियुगके अन्तमें कल्कि होंगे। इस प्रकार अवतारोंकी सबसे अधिक संख्या भागवत पुराणमें है। इसमें उक्त प्रसिद्ध दस अवतारोंमेंसे वराह अवतारका दूसरा, मत्स्यावतारका दसवाँ, कच्छपका ग्यारहवाँ, नृसिंहका चौदहवां, वामनका १५ वां, परशुरामका १६ वां, रामका १८ वां और कृष्णका १६ वां तथा बुद्ध और कल्किका २१ वां और बाईसवां नम्बर हैं। इन बाईस अवतारोंमें दो-तीन अवतार ऐसे भी हैं, जो वेद विरोधी धर्मके प्रवर्तक माने जाते हैं। उनमें सबसे पहला और क्रमानुसार पाँचवां अवतार कपिलका है जिसने सांख्यशास्त्रका उपदेश दिया। और पाठवां ऋषभदेवका है, जिन्हें जैन धर्ममें आद्यतीर्थङ्कर माना गया है तथा २१ वां अवतार बुद्धका है, जिन्होंने बौद्धधर्मकी स्थापना की। किन्तु कृष्णको छोड़करक्योंकि वह तो स्वयं विष्णु थे, प्रायः अन्य सब अवतारोंमें ऋषभावतारके प्रति विशिष्ट अादर प्रदर्शित किया गया है और उन्हें योगी बतलाया है। किन्तु विष्णुका अवतार बतलाते हुए उन्हें यज्ञ और ब्राह्मणोंकी कृपाका ही फल बतलाया है। ऋषभावतारका वर्णन करते हुए लिखा है भागवतमें ऋषभ चरित शुकदेवजी कहते हैं-हे राजन् ! अग्नीध्रके पुत्र नाभिने सन्तानकी कामनासे मेरुदेवी नाम अपनी पुत्रहीन रानी सहित एकाग्र चित्तसे यज्ञके अनुष्ठान द्वारा भगवान यज्ञ पुरुषकी आराधना की । यद्यपि भगवान् विष्णुको कोई सहजमें रहीं पा सकता। किन्तु भगवान् तो भक्तवत्सल हैं। अत एव जब नाभिके यज्ञमें Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण १२७ 'प्रवर्ग्य' कर्मोंका अनुष्ठान होने लगा तब अपने भक्त नाभिकी अभिलाषा पूर्ण करनेके लिये भक्त परवश एवं स्वतंत्र भगवान् विष्णुजी प्रकट हुए । ऋत्विज, सदस्य और यजमान सभी उस मूर्तिको देखकर आनन्दसे उठ खड़े हुए और सम्मान पूर्वक सिर झुकाकर पूजन करके कहने लगे ( इसके आगे विष्णुकी प्रशंसा है ) - भगवन् यह राजर्षि नाभि पुत्रको ही परमार्थ मानकर आपसे आपके ही समान गुण शीलवाला पुत्र माँगते हैं ।। भरत खडके स्वामी राजा नाभि जिनके चरणों में प्रणाम करते हैं. उन ऋत्विज ऋषियों ने इस प्रकार स्तुति करके भगवानके चरणों में प्रणाम किया। तब भगवान् बोले- 'हे ऋषिगण ! तुम्हारे वाक्य कभी निष्फल नहीं हो सकते । किन्तु तुमने हमसे जो वर मांगा है, वह बड़ा ही दुर्लभ है । राजा नाभिके मेरे ही समान स्वभाव और गुणवाला पुत्र उत्पन्न हो, यही तो तुम्हारी प्रार्थना है ? यह तो बहुत ही दुर्लभ है। मेरे समान तो कोई नहीं है, मैं अद्वितीय हूँ, मैं ही अपने सदृश हूँ । अस्तु, कुछ भी हो, ब्राह्मणोंका वाक्य मिथ्या नहीं हो सकता, क्योंकि द्विजों में देवतुल्य पूजनीय विद्वान् ब्राह्मण मेरा ही मुख है । अच्छा है, मैं ही अपनी अकलासे नाभिके यहाँ जन्म लूँगा; क्योंकि मुझको मेरे समान कोई दूसरा नहीं देख पड़ता ।" यह कह कर भगवान अन्तर्धान हो गये। तब परमहंस, तपस्वी, ज्ञानी और नैष्ठिक ब्रह्मचारी लोगों को धर्म दिखानेके लिये नाभि राजाके अन्तःपुरमें उनकी -रानी मेरुदेवीके गर्भ से भगवान्ने सत्त्वमूर्ति ऋषभदेव जी के रूपसे जन्म लिया ( भा० पु०, स्क० ५, ० ३ ) । उक्त विवरणसे स्पष्ट है कि ऋषभदेव जीकी उत्पत्तिको भी यज्ञ और ब्राह्मणोंकी कृपाका फल तथा विष्णुका प्रसाद बतलाने के साथ-साथ विष्णुको सर्वोपरि देवता ठहराना ही उक्त कथनका Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ जै० सा० इ०.पूर्व पीठिका लक्ष्य है। भागवतमें कपिलको भी विष्णुका अवतार माना है। किन्तु चूंकि कपिलके पिता ऋषि थे, अतः उन्हें नाभिकी तरह यज्ञ करके ब्राह्मणोंके द्वारा विष्णुसे सिफारिश नहीं कराती पड़ी। उन्होंने अपनी पत्नीसे कह दिया कि तेरे गर्भसे भगवान अवतार लेंगे। बस, भगवानको अवतार लेना पड़ा। ब्राह्मणका वचन झठा कैसे हो सकता है ? ___ कपिल ऋषि और ऋषभदेवके मुखसे जो उपदेश कराया गया है उसमें भेद होना स्वाभाविक है, क्योंकि कपिल सांख्य शास्त्रके उपदेष्टा थे और ऋषभदेव परमहंस (जैन ) धर्मके फिर भी जहाँ तक भगवद्भक्तिकी बात है, दोनोंके द्वारा उसका समर्थन ही नहीं, प्ररूपण भी कराया गया है। किन्तु ऋषभदेवकी अपेक्षा कपिलके द्वारा भक्तिका प्ररूपण विशेष जोरदार है और ऐसा होना उचित ही है क्योंकि कपिलके सांख्य दर्शनको गीतामें स्थान प्राप्त है। परन्तु ब्राह्मणोंकी प्रशंसा ऋषभदेवके मुखसे भी खूब कराई गई है। लिखा है-'इस प्रकार ब्राह्मणोंको सर्वपूज्य जानकर उनका योग्य सम्मान तो करना ही, किन्तु स्थावर और जंगम-दोनों प्रकारके प्राणियोंको मेरे रहनेका स्थान जानकर किसीसे बैर न करना, किसीका जी न दुखाना, हर एक समय उनका आदर करना और शुभ चिन्तक रहना, यही मेरी सबसे बढ़कर पूजा है।' ___ इस वाक्यमें ब्राह्मण पूजाके साथ वासुदेव भक्ति और अहिंसा धर्मकी खिचड़ी पकाई गई है। जैनधर्ममें त्रस और स्थावर जीवोंकी मन, वचन कामसे रक्षा करनेका विधान है। अन्तमें ऋषभदेव जी कर्मोंसे निवृत्त महामुनियोंको भक्ति Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण १२६ ज्ञान-वैराग्यमय परमहंस धर्मकी शिक्षा देनेके लिए शरीरके सिवा सब त्यागकर नंगे, बाल खुले हुए, ब्रह्मावर्तसे चल देते हैं। राहमें कोई टोकता है तो मौन रहते हैं। लोग उन्हें सताते हैं पर वह उससे विचलित नहीं होते। मैं और मेरेके अभिमानसे दूर हैं । परमरूपवान होते हुए भी अवधूतकी तरह एकाकी विचरण करते हैं। देहभरमें धूल भरी है असंस्कारके कारण बाल उलझ गये हैं। ___ "इस प्रकार भगवान ऋषभजीने योगियोंके करने योग्य आचरण दिखलानेके लिये ही अनेक योगचर्याओंका आचरण किया; क्योंकि वह स्वयं भगवान् मोनके स्वामी एवं परममहत् थे। उनको बिना चाहे आकाशमें उड़ना, मनके समान सर्वत्र गति, अन्तर्धान, परकायप्रवेश और दूरदर्शन आदि सिद्धियाँ प्राप्त थीं किन्तु उनको उनकी कुछ भी चाह नहीं थी। इस तरह भगवान् ऋषभदेव लोकपाल शिरोमणि होकर भी सब ऐश्वर्योंको तृणतुल्य त्यागकर अकेले अवधूतोंकी भाँति आचरण धारणकर विचारने लगे। देखनेसे वह एक सिड़ी जान पड़ते थे, सिवा ज्ञानियोंके मूढजन उनके प्रभाव और ऐश्वर्यका अनुभव नहीं कर सकते थे। यद्यपि वे जीवन्मुक्त थे तो भी योगियोंको किस प्रकार शरीरका त्याग करना चाहिये, इसकी शिक्षा देनेके लिये उन्होंने अपना स्थूल शरीर त्यागनेकी इच्छा की । जैसे कुम्भकारका चाक घुमाकर छोड़ देनेपर भी थोड़ीदेर तक आप ही आप घूमा करता है वैसे ही लिङ्ग शरीर त्याग देनेपर भी योग मायाकी वासना द्वारा भगवान ऋषभका स्थूल शरीर संस्कारवश भ्रमण करता हुआ कोंक, बैंक, कुटक, और दक्षिण कर्नाटक देशोंमें यहक्षा पूर्वक प्राप्त हुआ। वहाँ कुटकाचलके उपवनमें, सीड़ियोंकी तरह बड़ी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० जै० सा० इ० पूर्व पीठिका बड़ी जटा छिटकाये नंगे धडंगे ऋषभदेव जी विचरने लगे। सब बनमें अकस्मात् वायुके वेगसे बाँस हिलने लगे। परस्पर बाँसों के रगडनेसे दावानल प्रकट हुआ, देखते-देखते क्षणभरमें वह दावानल सब बनमें फैल गया। उसी अग्निमें ऋषभदेव जीका स्थूल शरीर भस्म हो गया । (भा० पु० स्क० ५, अ० ५.६ )। इस तरह भागवतकारने भी भगवान ऋषभदेवको योगी बतलाया है। यों तो कृष्णको भी योगी माना जाता है किन्तु कृष्णका योग 'योगः कर्मसु कौशलम्' के अनुसार कर्मयोग था और भगवान ऋषभदेवका योग कर्म संन्यासरूप था। जैन धर्ममें कर्मसंन्यासरूप योगकी ही साधनाकी जाती है। ऋषभदेवसे लेकर महावीर पर्यन्त सभी तीर्थङ्कर योगी थे। मौर्यकालसे लेकर आजतककी सभी जैन मूर्तियाँ योगीके रूप में ही प्राप्त ___ योगकी परम्परा अत्यन्त प्राचीन परम्परा है । वैदिक आर्य उससे अपरिचित थे। किन्तु सिन्धु घाटी सभ्यता योगसे अछूती नहीं थी, यह वहाँसे प्राप्त योगीकी मूर्तिसे, जिसे रामप्रसाद चन्दाने ऋषभदेवकी मूर्ति होनेकी संभावना व्यक्तकी थीस्पष्ट है। ___ अतः श्रीमद्भागवत आदि हिन्दू पुराणोंसे भी ऋषभदेवका पूर्व पुरुष होना तथा योगी हाना प्रमाणित होता है और उन्हें ही जैन धर्मका प्रस्थापक भी बतलाया गया है। एक बात और भी उल्लेखनीय है। ___ श्रीमद्भागवत (स्क० ५, अ०४) में ऋषभदेव जीके सौ पत्र बतलाये हैं। उनमें भरत सबसे बड़े थे। उन्हींके नामसे इस खण्डका नाम भारतवर्ष पड़ा । भारतके सिवा कुशवर्त, इलावर्त Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण १३१ विदर्भ. कोकर, द्रविड़ आदि नामक पुत्र भी ऋषभदेवके थे। ये सब भारत वर्षके विविध प्रदेशोंके भी नाम रहे हैं। इनमें द्रविण नाम उल्लेखनीय है । जो बतलाता है कि ऋषभदेवजी द्रविड़ोंके भी पूर्वज थे। सिन्धु सभ्यता द्रविड़ सभ्यता थी और वह योगकी प्रक्रियासे परिचित थी जिसकी साधना ऋषभदेवने की थी। ___ श्री चि०वि० वैद्यने भागवतके रचयिताको द्रविड़ देशका अधिवासी बतलाया है । ( ह०३०लि. (विन्टर०) भा० १, पृ०५५६ का टिप्पण नं०३)। और द्रविड़ देश में रामानुजाचार्यके समय तक जैन धर्मका बड़ा प्राबल्य था। संभव है इसीसे भागवत्कारने ऋषभ देवको द्रविड़ देशमें ले जाकर वहींपर जैन धर्मकी उत्पत्ति होनेका निर्देश किया हो । किन्तु उनके इस निर्देशसे भी इतना स्पष्ट है कि ऋषभ देवके जैन धर्मका आद्य प्रवर्तक होनेकी मान्यतामें सर्वत्र एक रूपता थी और ऋषभदेव एक योगीके रूपमें ही माने जाते थे। तथा जनसाधारणकी उनके प्रति गहरी आस्था थी । यदि ऐसा न होता तो ऋषभदेवको विष्णुके अवतारोंमें इतना आदरणीय स्थान प्राप्त न हुआ होता। विष्णु और अवतारवाद यहाँ विष्णु और उसके अवतारवादके संबन्धमें प्रकाश डालना उचित होगा। यह स्पष्ट है कि प्राचीन वैदिक कालमें भी विष्णु एक महान् देवता था। किन्तु कोई भी उसे एक मात्र देवता अथवा सर्वोच्च देवता नहीं मानता था । ऋग्वेदसे प्रगट है कि इन्द्रके Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका सामने विष्णु एक हीन देवता है । इन्द्र उसे आज्ञा देता है। ऋग (१-२२-१६) में विष्णुको इन्द्रका योग्य सखा अवश्य लिखा है। किन्तु उत्तर कालीन वैदिक साहित्यमें विष्णुकी स्थिति पहलेसे अधिक प्रमुख हो जाती है। शतपथ ब्राह्मणमें विष्णुके तीन पैरसे ब्रह्मांडको आक्रांत करनेकी कथा विस्तारसे दी गयी है। उसमें विष्णुको यज्ञ पुरुष बतलाया है। उसके चौदहवें काण्डमें देवोंमें विवाद होनेकी एक कथा दी है, जिसमें विष्णुकी विजय हुई। तबसे विष्णु सब देवोंमें उत्तम कहे जाने लगे। ____ इस तरह ब्राह्मणकालमें विष्णुने प्रमुख स्थान प्राप्त किया । किन्तु फिर भी उसकी यह स्थिति सर्वदा निर्बाध नहीं थी। क्योंकि एतरेय ब्राह्मण (१-३०) में उसे 'देवानां द्वारपः' देवताओंका द्वारपाल लिखा है। फिर भी ब्राह्मणकालमें विष्णुको जो प्राधान्य मिला वह आगे बढ़ता ही गया और बढ़ते-बढ़ते महाभारतकालमें वह सर्वशक्ति सम्पन्न देवताके रूपमें पूजा जाने लगा। विष्णुके नामपर प्रचलित साम्प्रदायिक नाम 'वैष्णव' भी प्रथमबार महाभारत' में ही मिलता है किन्तु 'परम वैष्णव' उपाधिका प्रचलन ईसाकी पाँचवीं शतीके लगभग हुआ। (अर्ली हि० वैष्ण, पृ० १८)। महाभारतके भीष्म पर्व और शान्ति पर्वमें भागवत, सात्वत, एकान्तिक या पञ्चरात्र धर्मका उल्लेख मिलता है। महाभारतके अनुसार नारद ने इस धर्मको स्वयं नारायणसे प्राप्त किया था। १--अष्टादश पुराणानां श्रवणात् यत्फलं भवेत् । तत्फलं समवाप्नोति वैष्णवो नात्र संशयः ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण १३३ नारायण नाम प्रथम बार शतपथ ब्राह्मणमें पाया जाता है। किन्तु उसका विष्णुके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। तैत्तिरीय आरण्यकमें विष्णुके साथ नारायणको सम्बद्ध कर दिया गया है। शिलालेखोंसे पता चलता है कि ईस्वी सन्के प्रारम्भसे बहुत पूर्व भागवतधर्म या भक्ति सम्प्रदाय मौजूद था तथा भागवत लोग वासुदेवके भक्त थे। ( अर्ली हि० वैष्ण०, पृ० २२-२३)। किन्तु किसी संहिता; ब्राह्मण और प्राचीन उपनिषद में विष्णुका वासुदेव नाम नहीं मिलता। (अर्ली हि० वैष्ण, पृ० ३२) ___ हां, भगवद्गीतामें 'वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि' लिखकर वासुदेवको वृष्णिीकुलसे सम्बन्धित बतलाया है। महाभारतमें मथुराके यादव, अथवा वृष्णि अथवा सात्वत वंशके कृष्णको वासुदेव कहा है। अनेक • विद्वानोंका मत है कि कृष्ण वासुदेव मानव प्राणी नहीं था, किन्तु एक लौकिक देवता था, उसकी संस्कृतिको विष्णुके सिर लादकर वैष्णव धर्मको जन्म दिया गया। उदाहरणके लिये बर्थने 'भारतीय धर्म नामक अपनी पुस्तकमें लिखा है कि 'महाभारतमें विष्णका स्थान सर्वोच्च है जो कि वैदिक साहित्यमें नहीं है। किन्तु महाभारतसे विष्णुके साथ ही एक और नायक प्रकट होता है जिसे अवतार माना गया है, वह है मानवीय ईश्वर कृष्ण । वह व्यक्ति वेदोंके लिए एकदम अपरिचित है। यह निस्सन्देह एक लौकिक देवता है। इससे हम यह निष्कर्ष निकालते हैं कि विष्णुकी प्रधानता प्राप्ति और कृष्णके साथ उसकी एकरूपताके मध्य में अवश्य ही घनिष्ठ सम्बन्ध है। अब यह प्रश्न पैदा होता है कि क्या कृष्णको विष्णुके साथ इसलिये मिलाया गया कि विष्णुको सर्वोच्च स्थान प्राप्त हो चुका था अथवा ब्राह्मणीय देवता विष्णुकी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ जै० सा० इ० - पूर्व पीठिका प्रधानता विष्णुको लोकप्रसिद्ध कृष्ण के साथ मिलनेका नतीजा है । इन दोनों विकल्पोंमेंसे मुझे दूसरा विकल्प ही अत्यधिक संभव प्रतीत होता है । हम देख चुके हैं कि वेदोंमें विष्णुकी प्रधानता प्रकट नहीं होती । और महाभारत में वह हमें विशेष प्राचीन प्रतीत नहीं होती ।' (रि० ई० पृ० १६६-६७ ) छा० उपनिषद् (३-१७-६) में घोर आङ्गिरस के शिष्य देवकीपुत्र कृष्णका उल्लेख आता है । मैक्समूलर महाभारत और पुराणों के देवकीपुत्र कृष्ण और उपनिषदके देवकीपुत्र कृष्णको एक नहीं मानते । तथा मैक्डानल और कीथको उनकी एकता में सन्देह है । उपनिषद के कृष्ण के विषय में उन्होंने वैदिक इन्डेक्स में लिखा है - 'परम्परा तथा ग्रियर्सन गार्ब जैसे कतिपय आधुनिक विद्वान् उसे महाभारतका नायक कृष्ण मानते हैं जो बाद में देवता के रूप में पूजा जाने लगा | उनके मतानुसार कृष्ण क्षत्रिय था और नैतिक धर्मोंका उपदेष्टा तथा ब्राह्मण धर्मका विरोधी था । यह बात एकदम सन्देहास्पद है । उचित तो यह प्रतीत होता है या तो नामोंकी समानता आकस्मिक है, या उपनिषदका उल्लेख | बर्थने दोनों कृष्णोंको तो एक माना है किन्तु उपनिषदमें कृष्णके उल्लेखको एकदम पौराणिक माना है । (रि० इ० पृ० १९६८ ) । डा० कीथका कहना है कि 'महाभारतका कृष्ण केवल एक मामूली धर्मोपदेष्टा नहीं है । वहां जब वह उपदेश देता है तो वह अपनेको परमेश्वर के रूपमें प्रकट करता है और हम इस तथ्य की उपेक्षा नहीं कर सकते; क्योंकि उसका वह देवीरूप समस्त महाभारत में स्पष्ट रूपमें अंकित है । वहाँ उसे एक जगह 'गोपीजन वल्लभ' लिखा है । यह विशेषण एक अनुमानित क्षत्रिय उपदेष्टा के लिए कुछ विचित्र सा लगता है । किन्तु ग्वाल जीवन बिताने वाले कृष्ण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण जैसे परमेश्वरके लिये उचित है । इसके सिवाय एक और तथ्यकी उपेक्षा करना असंभव है । उपनिषदके जिस वाक्यमें कृष्णका निर्देश है उसमें अन्य गुणोंके साथ सत्य बोलना भी सम्मिलित है। किन्तु उससे महाभारतके कृष्णके कार्यों और क्रियात्मक उपदेशोंमें बहुत अन्तर प्रतीत होता है।' (ज० रा० ए० सो० १६१५, पृ०५४८-५०)। ___ अन्तमें डा० कीथने लिखा है-'हमें यह मान लेना चाहिए कि इस विषयके निर्णयके लिये हमें जो प्रमाण उपलब्ध हैं वे पर्याप्त नहीं है। उनपर हम उस कृष्णका महल खड़ा नहीं कर सकते जिसने केवल मनुष्यके रूपमें भागवत धर्मकी स्थापना की। महाभारत का कृष्ण परमेश्वर है और उपनिषद का कृष्ण मनुष्य है। और दोनोंकी एक रूपताके आधार स्पष्ट नहीं हैं।' छा. उ० में घोर आङ्गिरस ऋषिके शिष्यके रूपमें देवकी पुत्र कृष्णका उल्लेख आया है। वहाँ यह नहीं बतलाया कि कृष्णने स्वयं किसी धर्मका उपदेश दिया । उससे तो केवल इतना ही प्रकट होता है कि कृष्ण एक गुरुके सम्पर्कमें आये और उनसे उन्होंने कुछ सिद्धान्तोंकी शिक्षा ली। किन्तु गीतामें जो उपदेश दिया गया है उसे कृष्णका कहा जाता है और चूकि गीता उपनिषदों के बादमें रची गयी है अतः गीताके मूल सिद्धान्त कृष्णके द्वारा उपदिष्ट हुए ऐसा माना जाता है। सारांश यह है कि महाभारतके कृष्ण मानव हैं या देव, यह निश्चित नहीं है । कुछका मत है कि कृष्ण मनुष्य था पीछे उसे देवताका रूप दिया गया, कुछ का कहना है कि वह प्रारम्भ से ही देवता रहा है। किन्तु इतना निश्चित है कि ईस्वी पूर्व चतुर्थ शती में कृष्णकी मान्यता देवताके रूपमें होती थी, क्योंकि पाणिनिने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ० - पूर्व पीठिका 'वासुदेवार्जुनाभ्यां वुन् ( ४-३-६८ ) सूत्रमें वासुदेवकी भक्ति करने वालेके अर्थ में वुन् प्रत्ययका विधान किया है । मेगास्थनीज़ने लिखा है कि मथुरा में कृष्णकी पूजा होती है । महानारायण उपनिषद् ( ई० पूर्व ३री शती अनुमानित ) में विष्णुको वासुदेव कहा है, जो बतलाता है कि कृष्ण विष्णु बन चुके थे । अन्तमें उक्त पाणिनिसूत्र के महाभाष्य में वासुदेवको परमेश्वर कहा है । १३६ इस विषय में डा० भण्डारकर का अपना एक जुदा मत है । वह वासुदेव और कृष्ण में भेद मानते हैं । उनका मत है कि वासुदेव सात्वत् जातिके मनुष्य थे जो ई० पूर्व छठी शती में हुए । उन्होंने अपनी जातिवालोंको एकेश्वर वादका उपदेश दिया। बाद को उनके अनुयायी लोगोंने उन्हें देवताका रूप देकर पूजना शुरू कर दिया । बादको उन्हें नारायण, फिर विष्णु और फिर मथुराका कृष्ण गोपाल बना दिया । इसी सम्प्रदाय से गीताका जन्म हुआ । ग्रियर्सन, विन्टर नीटस और गार्वने इस मतको माना किन्तु हापकिन्स और कीथने नहीं माना । ܢ डा. राय चौधरीने अपने वैष्णव सम्प्रदाय के प्राचीन इतिहास में इसपर विस्तार से विचार किया है । वह घोर आङ्गिरस के शिष्य देवकी पुत्र कृष्णको भागवत धर्मका संस्थापक मानते हैं । किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि इस विषय में वे निस्सन्देह नहीं है क्योंकि उन्होंने एक स्थान पर लिखा है- 'यदि कृष्ण केवल एक क्षत्रिय राजा थे और यदि भागवत धर्मके आधारभूत सिद्धान्त उनके द्वारा उपदिष्ट नहीं है किन्तु किसी अज्ञात व्यक्तिके द्वारा उपदिष्ट हैं तो हमें यह मानना पड़ता है कि प्राचीन भागवत अपने धर्म गुरुका नाम भूल गये । (अर्ली हि० वैष्ण; पृ० ६१ ) । अस्तु, भागवत धर्म के संस्थापक कृष्ण है या नहीं, इस विवादको छोड़ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण १३७ कर हम पुनः इस प्रश्नकी ओर आते हैं कि कृष्ण वासुदेवका विष्णुके साथ एकीकरण कब हुआ और क्यों हुआ ? इस संबन्धमें हम राय चौधरीकी खोजका उद्धृ त करना उचित समझते हैं। उन्होंने लिखा है-"कृष्ण वासुदेवका नारायण विष्णुके साथ प्रथम बार एकीकरण कब हुआ, इसका निर्णय कर सकना शक्य नहीं है।...........यह बतलानेके लिये भी कि प्राचीन भागवत धर्ममें विष्णुका प्रमुख स्थान था कोई साक्षात् प्रमाण नहीं है । पाञ्चालके एक मित्र सिक्केपर चार हाथ वाले विष्णुकी मूर्ति अंकित है। किन्तु यह बतलानेका कोई साधन नहीं है कि जिस राजाने वह सिक्का चलाया वह भागवत-वासुदेव संकर्षण सभ्यताका अनुयायी था । विष्णु पूजा ब्राह्मण सभ्यताके प्रतिद्वन्दीके रूपमें चली आयी हो सकती है। वासुदेवका नारायण विष्णुके साथ एकीकरणका स्पष्ट निर्देश तैत्तिरीय आरण्यकमें मिलता है किन्तु तैत्ति० आ० का समय निश्चत नहीं है। उसके जिस अन्तिम भागमें वासुदेवका नाम आया है वह भाग निश्चय ही उत्तर कालीन है । डा० मित्रके अनुसार यह ईस्वी सन् के प्रारम्भकी उपज है । किन्तु यतः आपस्तब सूत्रके द्वारा उसका अस्तित्व पूर्वानुमानित है । अतः हमारा झुकाव डा. कीथके इस मतकी ओर हैं कि तैत्ति० आर० सम्भवतया ईस्वी पूर्व तीसरी शतीका है। ईस्वी पूर्व तीसरी शतीके ब्राह्मण ग्रन्थमें नारायण विष्णुके नामसे वासुदेवका पाया जाना अर्थ पूर्ण है । क्या यह सम्राट अशोकका क्रियाशील आन्दोलन था जिसने भागवतोंको अपना मित्र बनानेके उद्देश्यसे वासुदेवको नारायण विष्णुके साथ सम्बद्ध करनेके लिये वैदिक पुरोहितोंको प्रेरित किया ? महाभारतमें ऐसे चिन्ह पाये जाते हैं जो बतलाते Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका हैं कि बड़ी कठिनाई के साथ कट्टर ब्राह्मणोंको कृष्ण वासुदेवको स्वयं परमेश्वर नारायण माननेके लिए तैयार किया जा सका। गीता में ( ७-१६,९-११) कृष्ण खेदके साथ कहते हैं कि ऐसा मनुष्य मिलना बड़ा कठिन है जो कहे-वासुदेव सब कुछ है। जब मैं मानवरूपमें था मूर्ख मेरा तिरस्कार करते थे। सभापर्व (म० भा० ) में हमें उसे कालकी स्मृतियां दृष्टि गोचर होती हैं जब कृष्णके परमेश्वर होनेके दावेका खुले रूपसे खण्डन किया जाता था क्योंकि कृष्ण ब्राह्मण नहीं थे। म० मा० ( १-१६७-३३ ) में वासुदेव केवल नारायणके उत्तराधिकारी हैं । दूसरी जगह ( १-२२८-२० ) उन्हें नारायण बतलाया है। किन्तु यह नारायण एक ऋषि है, परमात्मा नहीं है। किन्तु महाभारतके पूर्ण होनेपर कृष्णको नारायण विष्णु सबने मानलिया ।' ( अर्ली हि, वैष्ण, १०७-१०८ ) डा. राय चौधरी ने एक प्रश्न उठाया है कि ईसा पूर्व शताब्दियोंमें ब्राह्मणोंके द्वारा जो नारायण विष्णुके साथ वासुदेवका एकीकरण किया गया उसे क्या भागवतोंने स्वीकार किया या जैसे बौद्धोंने बुद्धको विष्णुका अवतार माने जाने पर भी उसे स्वीकार नहीं किया वैसे ही भागवतोंने भी उसे स्वीकार नहीं किया। इस प्रश्नके समाधानके रूपमें उन्होंने लिखा है कि ईसापूर्व दूसरी शतीके भागवत शिलालेखमें नारायण विष्णुका नाम न पाया जाना उल्लेखनीय है। जिन्होंने अपने भक्तोंके द्वारा आतिथ्य पाया वह वासुदेव और संकर्षण थे, विष्णु नारायण नहीं। अतः ईसा पूर्व दूसरी शतीके उस शिलालेखसे नारायणपूजा और वासुदेव-संकर्षणकी संस्कृतिके बीचमें कोई सम्बन्ध प्रमाणित नहीं होता। गीतामें, जिसे वैष्णव धर्मकी प्राचीनतम पुस्तक माना जाता है, वासुदेव कहते हैं 'मैं आदित्योंमें विष्णु Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण १३९ ।' किन्तु उसी तरह वह यह भी कहते हैं कि मैं रुद्रोंमें शंकर | उपलब्ध गीता में वासुदेवको कहीं भी नारायण नहीं कहा । (अर्ली हि० वैष्ण० पृ० १०६-११० ) । डा० भण्डारकरने लिखा है कि विष्णु नारायणकी पूजा पहलेसे प्रचलित थी। पीछे भगवद्गीताके वासुदेवका विष्णु और नारायणके साथ एकीकरण किया गया और इस तरह आधुनिक वैष्णव धर्मका उदय हुआ । (क) व० भ०, जि० १, पृ० ४११ ) rain उक्त विचारोंके फल स्वरूप जो तथ्य प्रकाश में आते हैं वे इस प्रकार हैं १ - भागवतधर्म, जो बादको विष्णु के नामपर बैष्णव धर्म कहलाया, वासुदेव कृष्णके द्वारा उपदिष्ट हुआ, किन्तु इसमें भी अभी ऐकमत्य नहीं है । २ - कृष्ण वासुदेवका नारायण विष्णुके साथ एकीकरण ईस्वी पूर्व तीसरी शती में ब्राह्मणों के द्वारा किया गया जो सम्भवतया सम्राट् अशोककी प्रतिक्रियाका परिणाम था । ३ - किन्तु इस एकीकरणको ईस्वी पूर्व तक भागवतोंने नहीं माना । ४ - भागवत धर्म प्रारम्भ में ब्राह्मण धर्मका प्रतिद्वन्दी था । महाभारत और गीता सम्बन्धसे भगवतगीता और महाभारत यहाँ भागana के सम्बन्ध में भी कुछ प्रकाश डालना आवश्यक है क्योंकि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० जे० सा० इ०-पूर्व पीठिका भगवद्गीताको भागवत धर्मका श्राद्य ग्रन्थ माना जाता है और वह महाभारतके अन्तर्गत है। ___ महाभारतको पांचवां वेद माना जाता है और चारों वेदोंका संकलन करनेवाले वेद व्यासको उसका रचयिता माना जाता है। महाभारतके अनुसार वेदव्यास महाभारतके नायकोंके न केवल समकालीन थे किन्तु उनके निकट सम्बन्धी भी थे। किन्तु समस्त वैदिक साहित्यमें महाभारतका कोई निर्देश नहीं है, महाभारतके युद्ध के सम्बन्धमें भी वेद एक दम मूक है । हां, ब्राह्मण ग्रन्थोंमें कुरुक्षेत्रका नाम प्रायः आता है और यजुर्वेद से सम्बन्धित साहित्यमें कुरुपञ्चाल और कुरुपञ्चालोंका निर्देश बहुतायतसे आता है। किन्तु समस्त वेदोंमें पाण्डु और पाण्डवोंका कोई निर्देश नहीं है। हां आश्वलायन गृह्य सूत्रमें भारत और महाभारत नाम आया है। पाणिनिने युधिष्ठिर, भीम, विदुर महाभारत नामोंकी व्यत्पत्ति आदि दी है और महाभाष्यकार पतञ्जलिने सर्वप्रथम कौरवों और पाण्डवोंके युद्धका निर्देश किया है। इन तथा अन्य प्रमाणोंके आधारपर यह माना जाता है कि ईसा पूर्व चतुर्थ शतीमें भारत या महाभारत जैसी कोई कृति अवश्य मौजूद थी। और ईस्वी पूर्व चतुर्थ शतीसे लेकर ईस्वी सन्की चतुर्थ शती तक महाभारतका क्रमशः परिवर्तन और परिवर्धन होता रहा और गुप्तोंके राज्य कालमें उसे वर्तमान रूप मिला, कारण उसमें अनेक स्थानोंपर हूणोंका निर्देश है। वही संकलन आज हमारे सामने वर्तमान है। यद्यपि बादकी शताब्दियोंमें भी उसमें छोटे मोटे परिवर्तन और परिवर्धन होते रहे हैं। अतः महाभारतका कोई एक नियत रचना काल नहीं है Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण १४१ किन्तु उसके प्रत्येक भाग का अपना अपना रचना काल उसकी स्थिति देखकर निर्णित करना होगा ( हि० इं०लि०, विन्टर० भा० ९, पृ० ४७४-४७५ )। आदि पर्व के प्रथम अध्याय में व्यास कहते हैं -- अष्टौ श्लोक सहस्राणि ष्टौ श्लोक शतानि च । श्रहं वेद्मि शुको वेत्ति सञ्जयो वेति वा न वा ॥८॥ अर्थात् महाभारत के मूल श्लोक आठ हजार आठ सौ थे उन थोड़ेसे श्लोकोंसे ही महाभारत एक लाख श्लोकोंका बन गया। इसमें मूल श्लोक कौनसे हैं और प्रक्षिप्त कौनसे हैं यह खोज निकालना शक्य है । पुरातत्वविदोंका मत है कि प्राचीन भारतका साहित्यिक कृतित्व बहुत कुछ ब्राह्मण वर्गके हाथोंमें रहा है । उन्होंने अथर्व वेद के प्राचीन लोक प्रचलित गीतोंका ब्राह्मणी करण किया और उपनिषदोंके दर्शनको, जो निश्चय हो उनके लिये एक दम अपरिचित और विरोधी जैसा था अपने बुद्धि चातुर्यसे किस प्रकार मिश्रित किया, यह तात्त्विकोंसे छिपा नहीं है । यही बात महाभारतके सम्बन्ध में भी जाननी चाहिये । जो वीर गाथा मूल में विशुद्ध सार्वलौकिक थी, उसे उन्होंने धीरे-धीरे अपने रूपमें परिवर्तित कर लिया । इसीसे महाभारत में देवी देवताओंकी ऐसी कहानियाँ पाई जाती हैं जो मूलतः ब्राह्मण हैं । तथा प्रबोधक भागों में ब्राह्मण दर्शन, ब्राह्मण आचार और ब्राह्मण धर्मका विशेष दर्शन मिलता है । उन्होंने लोक सम्मत आख्यानको अपने सिद्धान्तोंके प्रचारका माध्यम बनाया और उसके द्वारा १ - हि० इं० लि० (विन्टर ० ), भा० १, पृ० १२२ और २३१ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका अपना बल और प्रभाव बढ़ाया। उन्होंने उस प्राचीन आख्यानमें अगणित कथाएँ सम्मिलित करदी जिनमें ब्राह्मणोंके पूर्वज ऋषियों के श्राश्चर्य जनक वृतान्त' वर्णित है। उनमें बतलाया है १-उदाहरण के लिये ऐक कथा यहां दी जाती है श्वेतकि नामके राजाको यज्ञ करनेकी बड़ी धुन सवार हुई । ऋत्विज धुएँ से ऊबकर यज्ञ छोड़ भाग गये । उनको अनुमतिसे दूसरे ऋत्विज लाकर यज्ञ समाप्त किया गया। अनन्तर श्वेतकिने सौ वर्षों में समाप्त होनेवाला यज्ञ करनेका विचार किया। वह ब्राह्मणों के पैर पड़ा, उन्हें दान दिया, पर श्वेतकिके यज्ञोंके लिये कोई ब्राह्मण तैयार न हुअा। उन्होंने क्रुद्ध होकर कहा-हम थक गये हैं तुम रुद्रको ही बुलाकर उससे अपना यज्ञ करवायो। तब उस राजाने कैलासपर जाकर उग्र तप किया। उससे शिवजीने प्रसन्न होकर वर मांगने के लिये कहा-श्वेतकिने वर मांगा-तुम ही मेरे यज्ञों के ऋत्विज बनो। पर महादेव तैयार नहीं हुए। उन्होंने श्वेतकिसे बारह वर्ष पर्यन्त निरन्तर घृतधारासे अग्निपूजा करने के लिये कहा । श्वेतकिके ऐसा करनेपर महादेव प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा-मेरा ही अवतार दुर्वासा ऋषि अब तुम्हारे यज्ञोंका ऋत्विज बनेगा। तदनुसार श्वेतकिने यज्ञकी तैयारी की। महादेवने दुर्वासाको भेजा । बहुत बड़ा यज्ञ हुअा। उससे अग्निको विकार हो गया। उसने ब्रह्मा के पास जाकर उसका इलाज पूछा । ब्रह्माने कहा-बारह वर्ष घृताहुति खानेके कारण तुम्हें यह रोग हुआ है और खाण्डव वनके सारे प्राणियोंकी चीं खानेसे तुम्हारा यह रोग अच्छा हो जायगा। अग्नि खाण्डव वन जलाना प्रारम्भ करताथा ओर इन्द्र उसे बुझा देता था । ऐसा सात बार हुआ। तब अग्नि ऋद्ध होकर ब्रह्माके पास गया । ब्रह्माने उसे कृष्णार्जुनके पास भेजा । अग्नि ब्राह्मण वेशमें कृष्णार्जुनसे मिला और अपनी तृप्ति के लिये उनसे कुछ मांगा। उन्होंने पूछा-कौन-सा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण कि यज्ञों और संन्यासके प्रभावसे उन ऋषियोंने देवताओं तक पर प्रभुत्व प्राप्त किया और जब वे अप्रसन्न हुए तो उनके शाप से राजाओंका तो कहना ही क्या, देवताओंका स्वामी इन्द्र भी कम्पित हो उठा । (हि इ० लि. (विन्टर० ) भा० १, पृ० ३१८-११६) महाभारतमें विष्णुका इतना प्राधान्य है कि उसे देखकरके ऐसा लगता है कि यह विष्णु पूजाके उद्देशसे लिखी गयी कोई धार्मिक पुस्तक है। ऐसा प्रतीत होता है कि विष्णु और शिवकी पूजाको लक्ष्यमें रखकर प्राचीन ब्राह्मण कथाओंको परिवर्तन भी किया गया है । ये परिवर्तन ध्यान देने पर स्पष्ट रूपसे लक्ष्यमें आ जाते हैं । यहाँ यह बतला देना उचित होगा कि महाभारतमें शिव सम्बन्धी कथाएँ भी हैं । अस्तु, गीताके सम्बन्धमें भी विद्वानोंका प्रायः यही मत है कि महाभारतकी तरह गीता भी हमें अपने मूल रूपमें नहीं मिली, इसमें भी कालक्रमसे परिवर्तन और परिवर्द्धन हुए हैं । कुछ विद्वानोंका विचार है कि गीता मूलमें बहु देवतावादी ( Pantheistic ) थी पीछेसे विष्णुके अनुयायिओंने उसे एकेश्वरवादमें परिवर्तित कर अन्न चाहिये ? उसने कहा-मुझे अन्न न चाहिये, पर यह खाण्डव वन खानेको चाहिये । इन्द्र उसकी रक्षा करता है इससे मैं उसे खा नहीं सकता । मेरे सुलगते ही पानी बरसा देता है । कृष्णार्जुनने बड़ी तैयारी करके खाण्डव वनको जलाना प्रारम्भ किया। उस समय खाण्डव वनके प्राणियोंकी कैसी स्थिति हुई, इसका भयानक वर्णन २२८ वें अध्यायसे आया हैं । ऐसे संकट के समयमें वनकेप्राणी इन्द्रकी शरण में गये । इन्द्रने एकदम पानी बरसाया। अर्जुनने वर्षाको रोकनेके लिये बाणोंसे अाकाशको आच्छादित कर दिया । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ० - पूर्व पीठिका दिया । किन्तु यह संभव प्रतीत नहीं होता क्योंकि अनेक विरोधोंके रहते हुए भी गीताका अन्तः वातावरण शुद्ध एकेश्वरवादी है ( Thiestic ) । गीताका ईश्वर एक व्यक्ति है जो मानव रूपसे अपने भक्तोंकी भक्ति चाहता है । 1 मूल भारत ग्रन्थ में भगवद्गीता के अस्तित्वको लेकर अधिकांश खोजी विद्वानोंको सन्देह है । डा० विन्टर नीटस्का कहना है कि यह कल्पना करना कठिन है कि कोई पौराणिक आख्यानका रचयिता कवि युद्ध भूमिमें अपने वीरनायकोंके बीच में ६५० श्लोकोंके द्वारा दार्शनिक विचार विनिमय करायेगा। यह संभव है कि कविने मूल में अजुन और सारथि कृष्णके बीच में थोड़ीसी बातचीत कराई हो और आगे चलकर उसीको आजका रूप मिल गया हो । ( विन्ट० हि० इ० लि० भा० १, पृ० ४३० ) भगवद्गीताको भागवतोंका मूल ग्रन्थ माना जाता है । इसमें साख्य मतकी भूमिकापर निष्काम कर्मके साथ भक्ति मार्गकी शिक्षा दी गई है। १४४ डा० रा० गो० भण्डारकर गीताको ईस्वी पूर्व चतुर्थ शताब्दी बाकी नहीं मानते (वै० शै० पृ० १३ ) । अन्य भी कुछ विद्वानों का ऐसा ही मत है । (हि० इ० लि० (विन्टर०) भा० १, पृ० ४३८ पा० टि० ) ईसाकी सातवीं शतीके विद्वान् बाण कविको महाभारत के अंश रूप में गीता ज्ञात थी । तथा उपनिषद् वेदान्त सूत्र और गीता यह त्रयी शंकराचार्य के दर्शनकी आधार है । अतः इस बात की बहुत कुछ संभावना है कि ईस्वी सनकी आरम्भिक शताब्दियों में गीताको वर्तमान रूप प्राप्त हुआ हो । गीता अवलोकनसे मालूम होता है कि कुरु क्षेत्रके मैदान में जब कौरव र पाण्डवोंकी सेनाएं आमने सामने डट गई तब Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण १४५ अर्जुनके मन में यह प्रश्न उठा कि अपने ही सम्बन्धियोंको कैसे मारा जाये और वह गाण्डीव डालकर बैठ गया। तब कृष्णने उसे उपदेश देकर युद्ध के लिये प्रवृत्त किया। अतः युद्धसे विरत अजुनको युद्धमें प्रवृत्त करना ही गीताका उद्देश्य है । युद्धके मैदानमें बन्धु बान्धवोंके विनाश तथा युद्धके दुष्परिणामोंसे भीत क्षत्रिय पुत्र अर्जुनके युद्धसे विरत होनेकी घटनाको यदि एक रूपक मान लिया जाये तो कहना होगा कि हत्याके भयसे भीत क्षत्रिय पुत्रोंको स्वकर्ममें निरत करनेके लिये ही गीताकी सृष्टि हुई है। जरा प्रारम्भमें अर्जुनका कथन पढ़ जाइये। वह कहता है-'हे कृष्ण ! युद्ध करनेकी इच्छासे एकत्र हुए इन स्वजनोंको देखकर मेरे गात्र शिथिल हो रहे हैं, मुख सूख रहा है, शरीर कांपता है, गाण्डीव हाथसे गिरा जाता है, मुझसे खड़ा नहीं रहा जाता' (गी० अ० १, श्लो० २८-३०)। ये सब कायरताके चिन्ह हैं। __आगे अर्जुन कहता है-हे जनार्दन ! इन कौरवोंको मारकर हमारा कौन सा प्रिय होगा । यद्यपि ये आततायी हैं तो भी इनको मारनेसे हमको पाप ही लगेगा। ( मनुने ऐसे आतताइयोंको तत्काल जानसे मार डालनेका विधान करते हुए कहा है कि इसमें कोई पाप नहीं है मनु० ८-३५० ) । इसके बाद अर्जुनने युद्धसे होनेवाले कुलक्षयके अनेक दुष्परिणाम बतलाते हुए कहा-यदि मैं निःशस्त्र होकर प्रतिकार करना छोड़ दू और शस्त्रधारी कौरव मेरा वध करदें तो मेरा अधिक कल्याण होगा (गी० अ० १ श्लो० ४६)। यह न भूलना चाहिये कि महाभारतका युद्ध न केवल एक ही राष्ट्र और एक ही धर्मके लोगोंके बीचमें हुआ था। किन्तु एक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका ही कुटुम्बके बीच ही हुआ था और गुरुवध, मित्रवध और कुल क्षयके भयसे अर्जुन भीत हो उठा था। तब दयाविष्ट आँखोंमें आंसू भरे अर्जुनसे श्रीकृष्ण बोले-हे अर्जुन ! यह अनार्य लोगोंके द्वारा आचरणीय, अस्वयं ( स्वर्गसे विमुख करने वाला) और आकीर्तिकर (अपयश फैलाने वाला) यह कश्मल तेरे कहाँसे आ गया। ऐसी कायरता ठीक नहीं। इत्यादि । यह निश्चित है कि जैन धर्मके अन्तिम तीर्थङ्कर महावीर और बौद्ध धर्मके संस्थापक बुद्धके पश्चात् ही महाभारत और गीता रचे गये हैं। ये दोनों क्षत्रिय थे और दोनोंने सांसारिक सुखोंसे विरक्त होकर संन्यास मार्गको ग्रहण किया था। वैदिक धर्ममें सन्यासका कोई स्थान नहीं था, वह तो केवल क्रियाकाण्डी था। ___ उपनिषदोंके तत्त्व ज्ञानको अपनाने के साथ ही वैदिक धर्ममें भी संन्यासका प्रवेश हुआ । किन्तु यद्यपि अद्वैत ब्रह्मज्ञानके साथ साथ संन्यास धर्मका प्रतिपादन उपनिषदोंमें किया गया तो भी इन दोनोंका नित्य सम्बन्ध वहाँ नहीं बतलाया। अतः यह आवश्यक नहीं था कि अद्वैत वेदान्तको स्वीकार करनेपर संन्यास मार्गको भी अवश्य स्वीकार करना ही चाहिए । उपनिषदोंसे यही व्यक्त होता है। राज्य त्यागकर संन्यास मार्गको अपनानेकी परम्परा प्राचीन कालसे ही क्षत्रियों में प्रचलित रही है। अतः क्षत्रिय अपना कर्तव्य कर्म लोड़कर संन्यास मार्गको न अपनायें उन्हें इसीसे मुक्ति प्राप्त हो जायगी, गीताके द्वारा गीताकारको यही बतलाना अभीष्ट जान पड़ता है। ___ लोकमान्य तिलकने अपने गीता रहस्यमें लिखा है-'जब महाभारतके युद्धमें होनेवाले कुलक्षय और ज्ञातिक्षयका प्रत्यक्ष दृश्य पहले पहल आंखोंके सामने उपस्थित हुआ तब अर्जुन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण १४७ अपने क्षात्र धर्मको त्यागकर संन्यासको स्वीकार करनेके लिये तैयार हो गया था। और उस समय उसको ठीक मागेपर लानेके लिये श्री कृष्णने वेदान्त शास्त्रके आधारपर यह प्रतिपादन किया कि कर्म योग ही अधिक श्रीयस्कर है। कर्म योगमें बुद्धि ही की प्रधानता रहती है । इसलिये ब्रह्मात्मैक्य ज्ञानसे अथवा परमेश्वर की भक्तिसे अपनी बुद्धिको साम्यावस्थामें रखकर उस बुद्धिके द्वारा स्वधर्मानुसार सब कर्म करते रहनेसे ही मोक्षकी प्राप्ति होती है, मोक्ष पानेके लिये इसके सिवा अन्य किसी बातकी आवश्यकता नहीं है । इस प्रकार उपदेश करके भगवानने अर्जुनको युद्ध करनेमें प्रवृत्त कर दिया। गीताका यही यथार्थ तात्पर्य है (गी. र० पृ०५०६)। - अन्यस्थलपर उन्होंने लिखा है-“साम्प्रदायिक टीकाकारोंने कर्मयोगको गौण ठहराकर गीताके जो अनेक प्रकारके तात्पर्य बतलाये हैं वे यथार्थ नहीं हैं । किन्तु उपनिषदोंमें वर्णित अद्वैत वेदान्तका भक्तिके साथ मेलकर उसके द्वारा बड़े बड़े कर्मवीरोंके चरित्रोंका रहस्य या उनके जीवनक्रमकी उपपत्ति बतलाना ही गीताका सच्चा तात्पर्य है। मीमांसकोंके अनुसार केवल श्रौत स्मार्त कर्मोंको सदैव करते रहना भलेही शास्त्रोक्त हो, तो भी ज्ञानरहित केवल तांत्रिक क्रियासे बुद्धिमान मनुष्यका समाधान नहीं होता, और यदि उपनिषदोंमें वर्णित धर्मको देखें तो वह केवल ज्ञानमय होनेके कारण अल्पबुद्धिवाले मनुष्यों के लिये अत्यन्त कष्ट साध्य है। इसके सिवा एक बात और भी है कि उपनिषदोंका संन्यासमार्ग लोकसंग्रहका बाधक भी है ( गी० २० पृ. ४७०)। गीताकी उपलब्ध टीकाओंमें सबसे प्राचीन टीका शंकराचार्य की है, उन्होंने तथा अन्य भी टीकाकारोंमें संन्यास मार्गका प्रति Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका पादन किया है। उनका मत है कि कभी न कभी संन्यास आश्रम को स्वीकार कर समस्त सांसारिक कर्मोंको छोड़े बिना मोक्ष नहीं मिल सकता । और भगवाग श्री कृष्णके मनमें भी संन्यास मार्ग ही श्रेष्ठ है । किन्तु श्री तिलकका मत इसके विरुद्ध है । वे लिखते हे-'यह मत वैदिक धर्ममें पहले पहल उपनिषत्कारों तथा सांख्यवादियों द्वारा प्रचलित किया गया कि दुःखमय तथा निस्सार संसारसे निवृत्त हुए बिना मोक्षकी प्राप्ति नहीं हो सकती। इसके पूर्व का धर्म प्रवृत्ति प्रधान अर्थात् कर्मकाण्डात्मक ही था। परन्तु यदि वैदिक धर्मको छोड़ अन्य धर्मों का विचार किया जाये तो यह मालूम होगा कि उनमेंसे बहुतोंने आरम्भसे ही संन्यास मार्गको स्वीकार कर लिया था । उदाहरणार्थ जैन और बौद्धधर्म पहले ही से निवृत्ति प्रधान हैं (गी० र0 पृ० ४६२ )। जैन और बौद्ध धर्मके प्रवर्तकोंने कापिल सांख्यके मतको स्वीकार कर इस मतका विशेष प्रचार किया कि संसारको त्याग कर संन्यास लिये बिना मोक्ष नहीं मिलता।......यद्यपि श्री शंकराचार्यने जैन और बौद्धों का खण्डन किया है तथापि जैन और बौद्धोंने जिस संन्यास धर्म का विशेष प्रचार किया था उसे ही श्रौत स्मार्त संन्यास कहकर आचार्यने कायम रखा और उन्होंने गीताका इत्यर्थ भी ऐसा निकाला कि वही संन्यास धर्म गीताका प्रतिपाद्य विषय है। परन्तु वास्तवमें गीता स्मार्त मार्गका ग्रन्थ नहीं, यद्यपि सांख्य या संन्यास मार्गसे ही गीताका प्रारम्भ हुआ है तो भी आगे सिद्धांत पक्षसे प्रवृत्तिप्रधान भागवत धर्म ही उसमें प्रतिपादित है । (गी. र० पृ० ३४२)। सारांश यह है कि लोकमान्य तिलक गीताको कर्म योग अर्थात् प्रवृत्ति मार्गका ग्रन्थ मानते हैं, तथा शंकराचार्य आदि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण १४९ टीकाकारोंने जो अपनी टीकात्रोंमें गीतामें संन्यास मार्गका प्रति पादन किया. उसे निवृत्तिमार्गी जैन धर्म और बौद्ध धर्मका प्रभाव मानते हैं । जैसा कि हम ऊपर लिख आये हैं गीताके निर्माणका मूल उद्देश्य क्षत्रियको अपने क्षत्रिय कर्म युद्धसे विरत न करके युद्धमें प्रवृत्त करना है। ऐसा ग्रन्थ मूलमें निवृत्तिमार्गी नहीं हो सकता। हाँ उसमें जो निवृत्ति मार्गकी चर्चा आई है वह सामयिक प्रभाव हो सकता है। क्षत्रियोंमें अर्थात गीता रचना जिस काल में हुई उस समय निवृत्तिमार्गका प्रभाव होना चाहिये । जिसे कम करनेके उद्देश्यसे ही गीताकी रचनाकी गई जान पड़ती है। गीताके अनुयायिओंकी ऐसी साम्प्रदायिक मान्यता है कि उपनिषदोंका दोहन करके स्वयं गोपाल नन्दन श्री कृष्णने गीताकी रचना की है। किन्तु प्राचीन उपनिषदोंमें मान्य छा० उ० में देवकी पुत्र कृष्णका निर्देश आता है, जिससे यह प्रमाणित होता है कि उपनिषदोंकी रचना श्री कृष्णके बाद की है। अतः उपनिषदोंका दोहन करके गीताको रचनेका श्रेय श्री कृष्णको तो नहीं दिया जा सकता। किन्तु गीताके अवलोकनसे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि उसकी रचना उपनिषदोंके आधारपर ही किसी ने की है। यह पहले लिख आये हैं कि उपनिषदों' का रुख वेदोंके प्रति १ मुण्डकोपनिषदमें ( १-२-१७ ) कहा हैइष्टापूर्त मन्यमाना वरिष्ठ न्यायच्छे यो वेदयन्ते प्रमूढाः । नाकस्य पृष्ठे ते सुकृतेऽनुभूत्वेमं लोकं हीनतरं वा विशन्ति ॥ 'इष्टापूर्त ही श्रेष्ठ है, यह माननेवाले मूढ लोग स्वर्गमें पुण्यका उपयोग करके फिर नीचेके मनुष्य लोकमें आते हैं।' ईशावास्य (६-१२) और कठ उपनिषदों ( २-५ ) में भी इसी ढंगकी निन्दा की गई है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका आस्था पूर्ण नहीं है । गीतामें भी यही बात लक्षित होती है। गीता (अ० २, श्लो०४२-४६ ) में लिखाहै-हे पार्थ! वेदोंके वाक्योंमें भूले हुए यह कहने वाले मूढ लोग कि इसके अतिरिक्त दूसरा कुछ नहीं है, बढ़ाकर कहा करते हैं कि अनेक प्रकारके यागादिकसे पुनर्जन्म रूप फल मिलता है और भोग तथा ऐश्वर्य मिलता है स्वर्गके पीछे पड़े हुए ये काम्य बुद्धि वाले लोग-उल्लिखित कथन की ओर ही उनके पन आकर्षित हो जानेसे भोग और ऐश्वर्यमें गर्क रहते हैं। इस कारण उनकी व्यवसायात्मक बुद्धि समाधि में स्थिर नहीं रहती। हे अर्जुन ! वेद त्रैगुण्यकी बातोंसे भरे पड़े हैं । इस लिए तू त्रिगुणोंसे अतीत, नित्य सत्वस्थ और सुख दुःख आदि द्वन्दोंसे अलिप्त हो, योग क्षेम आदि स्वार्थों में न पड़कर आत्मनिष्ठ हो। चारों ओर पानीकी बाढ़ आजानेपर कुएँका जितना प्रयोजन रह जाता है उतना ही प्रयोजन ज्ञान प्राप्त ब्राह्मण को कर्म काण्ड रूप वेदका रहता है।" इस तरह वेदकी निन्दा करके भी आगे तीसरे अध्यायमें अन्न यज्ञ करनेका विधान किया गया है । लिखा है-परन्तु जो ( यज्ञ न करके ) केवल अपने लिये ही अन्न पकाते हैं वे पापी लोग पाप भक्षण करते हैं। प्राणी मात्रकी उत्पत्ति अन्नसे होती है, अन्न पर्जन्य-मेबसे उत्पन्न होता है, पर्जन्य यज्ञसे उत्पन्न होता है और यज्ञकी उत्पत्ति कर्मसे होती है। (अ० ३, श्लो० १३-१४ )। किन्तु आगे (गी०, अ० ४, श्लो० ३३ ) पुनः लिखा हैद्रव्यमय यज्ञकी अपेक्षा ज्ञानमय यज्ञ श्रेष्ठ है। इस तरह वैदिक यज्ञोंके प्रति गीताका भाव उपनिषदों के अनुरूप होते हुए भी गीतामें ज्ञान यज्ञके साथ यज्ञको भी विधेय बतलाया है। अध्यात्मक ज्ञानका तो गीतामें संग्रह है ही। फिर भी उपनिषदोंसे गीता Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण १५१ में अपनी कुछ विशेषताएँ हैं। गीता में कपिलके सांख्य शास्त्रको महत्व दिया गया है, जब कि बृहदारण्यक और छान्दोग्य उपनिपदों में सांख्य प्रक्रियाका नाम भी नहीं देख पड़ता। हां, कठ आदि उपनिषदों में अव्यक्त महान् इत्यादि सांख्य शब्द अवश्य देखने में श्राते हैं। किन्तु गीता में सांख्य के सिद्धान्त ज्योंके त्यों नहीं लिये गये हैं । त्रिगुणात्मक अव्यक्त प्रकृतिसे व्यक्त सृष्टिकी उत्पत्ति होनेके विषयमें सांख्यके जो सिद्धान्त हैं वे गीताको भी मान्य हैं, किन्तु प्रकृति और पुरुष स्वतंत्र नहीं हैं. वे दोनों एक ही परब्रह्मके रूप हैं । इस तरह गीता में उपनिषदोंके अद्वैत मतके साथ द्वैती सांख्योंके सृष्टिउत्पत्तिक्रमका मेल पाया जाता है । किन्तु उपनिषदों की अपेक्षा गीताकी महत्त्वपूर्ण विशेषता तो व्यक्तोपासना या भक्ति मार्ग है, क्योंकि व्यक्त मानव देहधारी ईश्वरकी उपासना प्राचीन उपनिषदों में नहीं देख पड़ती। लोक मान्य तिलकने लिखा है - "उपनिषत्कार इस तत्त्वसे सहमत हैं कि अव्यक्त और निर्गुण परब्रह्मका आकलन होना कठिन है, इसलिये मन, आकाश, सूर्य, अग्नि, यज्ञ आदि सगुण प्रतीकों की उपासना करनी चाहिये । परन्तु उपासना के लिये प्राचीन उपनिषदों में जिन प्रतीकों का वर्णन किया गया है, उनमें मनुष्य देहधारी परमेश्वर के स्वरूपका प्रतीक नहीं बतलाया गया ( गी० २०, पृ० ५२८ ) किन्तु उपषिदोंमें वर्णित वेदान्त की दृष्टिसे वासुदेव भक्तिका मण्डन करना ही गीताके प्रतिपादनका एक विशेष भाग है। 1 इसके लिये गीताका नौवाँ अध्याय दृष्टव्य है । इसमें भगवान कहते हैं - हे अर्जुन ! अब मैं तुझे गुह्यसे भी गुह्य ज्ञान बतलाता हूँ, जिसके जान लेनेसे तू पापसे मुक्त होगा ।......इस पर Jain Educationa International " For Personal and Private Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ ___ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका श्रद्धा न रखनेवाले पुरुष मुझे नहीं पाते, वे मृत्यु युक्त संसारके मार्गमें भटकते रहते हैं ॥......मैं सब भूतोंका महान् ईश्वर हूं किन्तु मूढ़ लोग मेरे स्वरूपको नहीं जानते। वे मुझे मानव तनुधारी समझकर मेरी अवहेलना करते हैं ॥११॥..ऋतु मैं ही हूं, यज्ञ मैं ही हूँ. स्वधा अर्थात् श्राद्ध में पितरोंको अर्पण किया हुआ अन्न मैं हूँ औषध मैं हूँ, मंत्र मैं हूँ, घृत अग्नि और आहुति मैं ही हूँ ॥ १६ ॥ इस जगतका पिता माता धाता पितामह मै हूं, जो कुछ पवित्र या जो कुछ श्रेय है वह और ओंकार, ऋग्वेद, सामवेद तथा यजुर्वेद भी मैं हूँ॥ १७ ॥ सबकी गति, सबका पोषक, प्रभु, साक्षी, निवास, शरण, सखा, उत्पत्ति, प्रलय, स्थिति, निधान, और अव्यय बीज मैं हूं ॥ १८ ॥ हे अर्जुन ! मैं उष्णता देता हूं, मैं पानीको रोकता और बरसाता हूं, अमृत और मृत्यु, सत् और असत भी मैं हूँ ॥ १६ ॥ जो त्रैविद्य अर्थात् ऋक्, यजु और सामवेदोंके कर्म करने वाले, सोमपान करनेवाले, निष्पाप पुरुष यज्ञसे मेरी पूजा करके स्वर्गलोककी इच्छा करते हैं, वे पुण्यसे इन्द्रलोकमें पहुंचकर स्वर्गमें देवताओंके दिव्य भोग भोगते हैं ।। २०॥ और उस विशाल स्वर्गलोकका उपभोग करके पुण्यका क्षय हो जानेपर मनुष्य लोकमें आते हैं। इस प्रकार त्रयोधर्मके पालनेवाले और काम्य उपभोगकी इच्छा करनेवालोंको आवागमन प्राप्त होता है ॥ २१ ॥ जो अनन्य निष्ठ लोग मेरा चिन्तनकर मुझे भजते हैं, उन नित्य योगयुक्त पुरुषोंका योग क्षेम मैं करता हूं ॥ २२ ॥ हे कौन्तेय ! जो भी अन्य देवताओंके भक्त लोग श्रद्धायुक्त होकर भजन करते हैं वे भी विधिपूर्वक न होनेपर भी मेरा ही भजन करते हैं ॥ २३ ॥ क्योंकि सब यज्ञोंका भोक्ता और स्वामी मैं हूँ। किन्तु वे तत्त्वतः मुझे नहीं जानते। इसलिये वे गिर जाया करते हैं ॥ २४ ॥........जो मुझे भक्तिसे पत्र, पुष्प, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण १५३ फल अथवा जल अर्पण करता है, मैं उस प्रयतात्माकी भक्ति भेटको ग्रहण करता हूं ।। २६ ।। हे कौन्तेय ! तू जो कुछ करता है, जोखाता है, होम हवन करता है, जो दान करता है और जो तप करता है, वह सब मुझे अर्पण कर ॥ २७ ॥ इस प्रकार करनेसे कोंके शुभ-अशुभ फलरूप बन्धनोंसे तू मुक्त रहेगा और संन्यास करनेके इस योगसे मुक्तात्मा होकर मुक्त हो जायेगा तथा मुक्तमें मिल जायगा ।। २८ ।। मैं सबको एक-सा हूं। न मुझे कोई द्वेष्य अर्थात् अप्रिय है और न कोई प्रिय । जो भक्तिसे मेरा भजन करते हैं वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें हूं ।। २६ ॥ बड़ा दुराचारी ही क्यों न हो, यदि वह मुझे अनन्य भावसे भजता है तो उसे साधु ही समझना चाहिये क्योंकि उसकी बुद्धि ठीक रहती है ।। 37 ॥ वह जल्दी धर्मात्मा हो जाता है और सदा शान्ति पाता है। हे कौन्तेय ! तू खूब समझ ले, मेरा भक्त नष्ट नहीं होता ॥ ३१ ॥ क्योंकि हे पार्थ! मेरा आश्रय पाकर स्त्रियाँ, वैश्य, और शूद्र जो पापयोनि हों वे भी परम गति पाते हैं ॥ ३२ ।। फिर मेरे भक्त ब्राह्मणों और राजर्षियों-क्षत्रियोंकी तो बात ही क्या है ॥ ३३ ॥ इस अध्यायसे जो बातें प्रकाशमें आती हैं वे इस प्रकार हैं १ प्रथम तो भगवानने ( जो साम्प्रदायिक मान्यतानुसार श्री कृष्ण स्वयं हैं) इस अध्यायमें वर्णित अपने स्वरूपको अत्यन्त गोप्य बतलाया है। यदि थोड़ी देरके लिये यह मान लिया जाये कि इस अध्यायमें वर्णित बातें स्वयं श्रीकृष्णने कहीं हैं तो कहना होगा कि अपनी भगवत्ता के रहस्यका प्रथम उद्घाटन स्वयं उन्होंने ही किया, अन्य लोग तो उन्हें मनुष्य मानकर उनकी अवहेलना ही करते थे। ऐसी स्थितिमें जबकि अन्य लोग उन्हें Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ मानवमात्र मानते थे- अपनी भगवत्ताके रहस्यको अत्यन्त गुह्य बताना उचित भी था, नहीं तो अर्जुन सोचता कि श्रीकृष्ण महाराज तो आज 'दूनकी हांक' रहे हैं। और यदि श्रीकृष्ण ने अपनेको सर्वशक्तिसम्पन्न भगवान न बतलाया होता तो अर्जुनका तथोक्त व्यामोह शायद ही दूर होता; क्योंकि गीताके अध्ययनसे प्रकट होता है कि अर्जुनको श्रीकृष्णकी सर्वशक्तिमत्ताने ही विशेष प्रभावित किया । जै० ० सा० इ० पूर्व पीठिका मानवतनधारी क्षत्रिय व्यक्तिकी ऐसी सर्वशक्तिमत्ताका वर्णन गीताके पूर्वके वैदिक साहित्य में तो है ही नहीं, जैन बौद्ध आदि जिन धर्मोको भौतिक और स्वर्गीय देवताओंके स्थानमें मानवकी प्रतिष्ठा करने का श्रेय प्राप्त है, उनमें भी महावीर बुद्ध आदि मानवीय परमेश्वरोंकी शक्तिमत्ताका ऐसा रूप नहीं पाया जाता । गीताका मानवतनधारी क्षत्रिय श्रीकृष्ण क्या नहीं है, वह स्वयं वेद है, जगतका कर्ता हर्ता है, पुण्य पापसे मोचन करनेवाला है, सर्व यज्ञोंका भोक्ता है, और सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह पत्र पुष्प से ही सन्तुष्ट हो जाता है, उसके लिये यज्ञ जैसा बहुव्यय साध्य प्रयोग करनेकी आवश्यकता नहीं है । दुराचारी पातकी भी उसकी भक्तिसे पार हो जाते हैं, वैदिक युगमें जिन वैश्य, स्त्री और शूद्रोंको वेद श्रवण करनेका भी अधिकार नहीं था, वे भी कृष्ण भक्तिसे उत्तम गति प्राप्त करते हैं । प्राचीन वैदिक धर्मसे गीताके इस धर्म में कितना अन्तर है ? क्योंकि वैदिक धर्मका प्राचीन स्वरूप न तो भक्ति प्रधान, न तो ज्ञान प्रधान और न योग प्रधान ही था किन्तु वह यज्ञमय था । वैदिक आख्यानके अनुसार प्राचीनकाल में विश्वामित्र नामके Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण १५५. एक क्षत्रिय राजाने राज्यासनका परित्याग करके ब्रह्मर्षित्व प्राप्त करनेके लिये बनवास स्वीकार किया था। इसके पूर्व परशुराम और सहस्रार्जुन के समय से ब्राह्मणों और क्षत्रियों में एक लम्बा और मर्मभेदी झगड़ा होता चला आता था और दोनों में से प्रत्येक समूह दूसरे के ऊपर अपना प्रभुत्व स्थापित करनेके लिये प्रयत्नशील था । किन्तु उसके बाद जब नियम में सुधार हुआ तो ब्राह्मणोंने विश्वामित्रको ब्रह्मर्षियों में तथा सर्वोच्च वैदिक ऋषियोंमें सम्मिलित कर लिया तथा उन्हें सप्तर्षियोंमें स्थान दिया और विश्वामित्र अपने लक्ष्यको प्राप्त करनेके लिये जिस गायत्री मंत्रका निर्माण तथा प्रयोग किया था उसे समस्त वैदिक मंत्रोंसे शक्तिशाली और वैदिक शिक्षणका सारभूत मान लिया गया । उक्त आख्यानसे स्पष्ट है कि ब्राह्मणों और क्षत्रियोंके बीच में प्रभुत्वको लेकर कितने ही सुदीर्घ काल तक झगड़ा चला और ब्राह्मणोंने एक क्षत्रिय राजाको ब्रह्मर्षि पद देना स्वीकार नहीं किया । किन्तु अन्तमें उन्हें अपनी हटको छोड़ना पड़ा । सम्भयतया उक्त घटना के बादसे ही ब्राह्मणोंने क्षत्रियोंको प्रभुत्व देना स्वीकार किया । उपनिषदों और प्राचीन जैन तथा बौद्ध साहित्यसे पता चलता है कि क्षत्रियोंमें कितना बौद्धिक स्वातंत्र्य था और उन्होंने ज्ञानके क्षेत्रमें भी उच्च स्थान प्राप्त किया था । उपनिषदों की आत्मविद्या तो उन्हीं की देन है । किन्तु उत्तर काल में क्षत्रिय अपनी उस स्थितिको कायम नहीं रख सके और ब्राह्मणोंने अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया । यद्यपि यह प्रभुत्वस्थापन क्षत्रिय श्रीकृष्णकी में ही किया गया । किन्तु उन्होंने उसे विष्णुका पूर्ण अवतार मानकर और उसे ही वेद तथा यज्ञ कहकर विस्मृत तथा उपेक्षित वैदिक यज्ञोंको भी विष्णुके रूप में पुनरुज्जीवित Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका करनेका प्रयत्न किया, और इस तरह जो लोग जैन और बौद्ध धर्मके प्रचारसे प्रभावित होकर उधर आकृष्ट होते थे उन्हें अपने में ही रोक रखनेका प्रयत्न किया गया। गीताके मुख्य प्रतिपाद्य वासुदेव भक्तिके मूलमें उपनिषदोंसे मेल न खानेवाली जो बातें पाई जाती हैं, यदि जैन और बौद्ध धर्मोके मूल आधारोंके साथ उनकी तुलना करके देखा जाये तो भागवत धर्मकी स्थापनामें उक्त धर्मोंका प्रभाव परिलक्षित होना स्वाभाविक है। जैन धर्मके सभी तीर्थङ्कर क्षत्रिय थे और नरतनधारी थे । बौद्ध धर्मके संस्थापक बुद्ध भी क्षत्रिय और मानव थे। वैदिक धर्ममें भौतिक और स्वर्गीय देवताओंको जो स्थान प्राप्त था वही स्थान जैन धर्ममें मानव तीर्थङ्करको और बौद्ध धर्ममें बुद्धको प्राप्त था। जैनतीर्थङ्कर और बुद्ध दोनोंने राज्यासनका मोह त्यागकर संन्यास धारण किया और पूर्ण ज्ञान लाभ करके अपने-अपने धर्मका उपदेश दिया। उनका उपदेश सबके लिये था। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, स्त्री, सभी उसे न केवल सुननेके अधिकारी थे, किन्तु आचरण करनेके भी अधिकारी थे। तीर्थङ्कर और बुद्धको अपने जीवनकाल में ही राजघरानों, ब्राह्मणों तथा जनसाधारणके द्वारा वैसी ही प्रतिष्ठा प्राप्त हुई जैसी देवताओंको प्राप्त थी। दोनोंने यह उद्घोषित किया कि मानव, मानव रहकर भी देवत्व प्राप्त कर सकता है और उसका मार्ग है, अहिंसा । इस त्याग तपस्या और सुलभ उपदेशने सभीको आकृष्ट किया। वैदिक धर्ममें ये सब बातें नहीं थीं, वहाँ तो एक वर्ग विशेषका प्रभुत्व था। अतः इन धर्मोंके बढ़ते हुए प्रभुत्वको रोकनेके लिये एक ऐसे धर्मकी आवश्यकता थी जिसमें उक्त सब बातोंके साथ अपनी कुछ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण ___ १५७ विशेषता भी सुरक्षित हो। उसी आवश्यकताका आविष्कार गीतोक्त भागवत धर्म है। ___ उसमें क्षत्रिय श्रीकृष्णको भगवानका अवतार मानकर मानवतनधारी ईश्वरकी सृष्टिकी गई। और उन्हें ऐसा प्रभुत्व दिया गया जो किसी तीर्थङ्कर या बुद्धको तीनों कालोंमें भी प्राप्य नहीं। गीताके श्रीकृष्ण स्वयं भगवान हैं। महाबीर और बुद्धकी तरह राज्य सुख छोड़कर प्रव्रज्या धारण करके भगवान बननेके लिये कुछ प्रयत्न करनेकी उन्हें आवश्यकता नहीं। तीर्थङ्कर और बुद्धने पूर्ण ज्ञान लाभ करके उपदेश दिया। किन्तु भगवान तो सदासे ही पूर्णज्ञानी हैं अतः उन्होंने बिना ही उसके उपदेश दिया। मगर वह उपदेश जनसाधारणको न देकर अपने भक्त अजुनको दिया और वह भी युद्धस्थलमें दिया। यह इस धर्मकी अपनी विशेषता है, क्योंकि एक तो वैदिक धर्ममें संन्यास मार्गका आदर नहीं था, दूसरे जो क्षत्रिय अपने क्षत्रियबन्धु महाबीर और बुद्धके त्याग मार्गसे आकृष्ट होकर उसे अपनाते थे उन्हें रोकना भी था। तीसरे, भक्तपर भगवानको कृपाका प्रदर्शन भी करना था, चौथे सबके लिये धर्मको सुलभ रखनेके साथ ही साथ वैदिक संस्कारोंमें पली गोप्यताका भी संरक्षण करना था। हमारा उक्त कथन कोरी कल्पना नहीं है किन्तु भारतके इतिहासज्ञों और दार्शनिकोंका भी यही मत है। दीवान बहादुर कृष्ण स्वामी आयंगरने लिखा है- “उस समय एक ऐसे धर्मकी आवश्यकता थी जो ब्राह्मण धर्मके पुनर्निर्माण कालमें बौद्ध धर्मके विरुद्ध जनताको प्रभावित कर सकता। उसके लिये एक मानव देवता और उसकी पूजाविधिकी आवश्यकता थी।'-ऐशियंट इं०, पृ० ५२८)। प्रसिद्ध इतिहासज्ञ ओझाजीने लिखा है-'बौद्ध और जैन धर्मके प्रचारसे वैदिक धर्मको बहुत हानि पहुँची। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ जै० सा० इ० पूर्व पीठिका इतना ही नहीं, किन्तु उसमें परिवर्तन करना पड़ा और वह नये साँचे में ढलकर पौराणिक धर्म बन गया। उसमें बौद्ध और जैनोंसे मिलती धर्म सम्बन्धी बहुत-सी नई बातोंने प्रवेश किया।' (राज. इति०, प्र० मा पृ० १०-११) ___ डाक्टर राधाकृष्णनने लिखा है-'जब जनता की आध्यात्मिक चेतना उपनिषदोंके कमजोर विचारसे, या वेदोंके दिखावटी देवताओंसे तथा जैनों और बौद्धोंके नैतिक सिद्धान्तोंके संदिग्ध आदर्शवादसे सन्तुष्ट नहीं हो सकी, तो पुनर्निमाणने एक धर्मको जन्म दिया, जो उतना नियमबद्ध नहीं था तथा उपनिषदोंके धर्मसे अधिक सन्तोषप्रद था। उसने एक संदिग्ध और शुष्क ईश्वरके बदले में एक जीवित मानवीय परमात्मा दिया। भगवद्गीता, जिसमें कृष्ण विष्णुके अवतार तथा उपनिषदोंके परब्रह्म माने गये हैं, पंचरात्र सम्प्रदाय और श्वेताश्वर तथा अर्वाचीन उपनिषदोंका शैवधर्म इसी क्रान्तिके फल हैं। (इं० फि०, जि० १, पृ० २७५-२७६)। सर राधाकृष्णन्ने गीता धर्मकी उत्पत्तिका कारण धार्मिक असन्तोष बतलाया है, जो उचित ही है । किन्तु उपनिषदोंके विचार और वेदोंके दिखावटी देवताओंके साथ जो जैन धर्म और बौद्ध धर्मको भी सम्मिलित कर लिया है वह उचित नहीं है, क्योंकि इन दोनों धर्मोंसे तो वैदिक धर्मानुयायिओंका सन्तोष हो ही नहीं सकता था। इन्हींकी प्रतिक्रियाके फल स्वरूप तो उन्हें एक संदिग्ध और शुष्क ईश्वर के बदले में जीवित मानवीय परमात्मा मिल सका है। अतः जैन और बौद्ध धर्मके बढ़ते हुए प्रभावको नष्ट करनेके लिए उत्तर कालमें शंकराचार्यने जो मार्ग अपनाया, वही मार्ग पूर्वकालमें गीताके रचयिताने भी अपनाया। संन्यास मार्गकी प्रबलताका कारण बतलाते हुए लोक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण मान्य तिलकने लिखा है-'सन्यास मार्गकी प्रबलताका कारण यदि शंकराचार्यका स्मार्त सम्प्रदाय ही होता तो आधुनिक भागवत सम्प्रदायके रामानुजाचार्य अपने गीता भाष्यमें शंकराचार्यकी ही नाई कर्म योगको गौण नहीं मानते । परन्तु जो कर्मयोग एकबार तेजीसे जारी था वह, जबकि भागवत सम्प्रदायमें भी निवृत्ति प्रधान भक्तिसे पीछे हटा जिया गया है तब तो यही कहना पड़ता है कि उसके बिछड़ जानेके लिए कुछ ऐसे कारण अवश्य उपस्थित हुए होंगे जो सभी सम्प्रदायोंको अथवा सारे देशको एक ही समान लागू हो सके । हमारे मतानुसार इनमेंसे पहला और प्रधान कारण जैन एवं बौद्ध धर्मोंका उदय तथा प्रचार है; क्योंकि इन्हीं दोनों धर्मोंने चारो वर्गों के लिए संन्यास मार्गका दरवाजा खोल दिया था और इसलिए क्षत्रिय वर्गमें भी संन्यास धर्मका विशेष उत्कर्ष होने लगा था।......शालिवाहन शकके लगभग छः सात सौ वर्ष पहले जैन और बौद्ध धर्मके प्रवर्तकोंका जन्म हुआ था और शंकराचार्यका जन्म शालिवाहन शकके ६०० वर्ष अनन्तर हुआ। इस बीचमें बौद्ध यतियोंके संघोंका अपूर्व वैभव सब लोग अपनी आंखोंके सामने देख रहे थे। इसलिए यति धर्मके विषयमें उनलोगोंमें एक प्रकारकी चाह तथा आदरबुद्धि शंकराचार्यके जन्मके पहले ही उत्पन्न हो चुकी थी। शंकराचार्यने यद्यपि जैन और बौद्ध धर्मोका खण्डन किया है तथापि यति धर्मके बारेमें लोगोंमें जो आदर बुद्धि उत्पन्न हो चुकी थी उसका उन्होंने नाश नहीं किया, किन्तु उसीको वैदिकरूप दे दिया और बौद्ध धर्मके बदले वैदिक धर्मकी संस्थापना करनेके लिए उन्होंने बहुत से प्रयत्नशील संन्यासी तैयार किये ।....... इन वैदिक संन्यासियों के संघको देख उस समय अनेक लोगोंके मनमें शंका होने लगी थी कि शांकर मतमें और बौद्ध मतमें क्या अंतर है ? प्रतीत होता Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका है कि प्रायः इसी शंकाको दूर करनेके लिए छान्दोग्योपनिषदके भाष्यमें आचार्यने लिखा है कि 'बौद्ध यतिधर्म और सांख्य यति धर्म दोनों वेदवाह्य तथा खोटे हैं। एवं हमारा संन्यास धर्म वेदके आधारसे प्रवृत्त किया गया है. इसलिए यही सच्चा है। (गी• र०, पृ० ५००-५०१) ___ अतः जैसे शंकराचायने जैन और बौद्ध यतियोंके प्रति जनता का आदर भाव देखकर उन धर्मोको पदच्युत करनेके लिये वेदांत धर्ममें भी संन्यास मार्गको अपनाया और उसे वेदके आधारसे प्रवृत्त हुआ बतलाया, जब कि वेद संहिता और ब्राह्मणोंमें यज्ञ यागादि कर्मप्रधान धर्मका प्रतिपादन है, वैसे ही गीताके रचयिता ने भी जैन और बौद्ध धर्मों में मानव रूप देवत्वकी प्रतिष्ठा और जनताके प्रति उनका आदर भाव तथा वैदिक देवताओंकी अप्रतिष्ठा देखकर एक मानव रूपधारी परमेश्वरकी सृष्टि करना उचित समझा। गीताकी रचनासे पूर्व यमुनाके तटपर वासुदेवकी भक्ति प्रचलित थी यह पाणिनीके उल्लेखसे स्पष्ट ही है। अतः उसे ही उत्तरकालमें विष्णुका रूप देकर उक्त आवश्यकता की पूर्ति कर दी गई। और चूकि हिंसाप्रधान वैदिक यज्ञोंके प्रति जनताकी अत्यन्त वितृष्णा हो चुकी थी और उनको पुनरुज्जीवित करना शक्य नहीं था, अतः श्री कृष्णको ही वेद और यज्ञ रूप बतलाकर दव्यमय यज्ञसे ज्ञानमय यज्ञको श्रेष्ठ बतलाया। अवतारवाद अवतारवादके सिद्धान्तको स्पष्ट रूपसे अवतरित करनेका श्रेय भी गीताको ही है। गीतामें कहा है-'जब धर्मकी हानि और अधर्मका उत्थान होता है, तब मैं जन्म लेता हूँ॥ तथा साधुओंकी रक्षाके लिये और दुष्टोंके निग्रहके लिए एवं धर्मकी स्थापनाके लिए Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण १६१ मैं प्रत्येक युगमें अवतार लेता हूं, यही अवतारवाद है। इसके सम्बन्धमें श्री ए० बार्थ (रि० इं०, पृ० १६६-१७० ) ने लिखा है-'यथार्थमें अवतारोंकी मालामें गूथे गये देवताको, जो वैदिक धर्मके देवताओंकी तरह केवल भावात्मक नहीं हैं किन्तु ठोस द्रव्य हैं, उच्च व्यक्तित्वसम्पन्न हैं, अधिक क्या मानव है, पूजनेकी प्रवृत्ति चलाकर ब्राह्मणोंने पुरानी समस्याको नई शैलीमें हल कर लिया ।' मि० बार्थ के अनुसार अवतारवादका जन्म जनतामें फैले हुए असन्तोषका परिणाम था। वैदिक देवता जहाँ प्राकृतिक व्यक्तियोंके रूप थे वहाँ भावात्मक भी थे उपनिषदोंका ब्रह्मवाद तो शुद्ध भावात्मक था। भावात्मक वस्तुसे जन साधारणका परितोष नहीं होता। उसे कुछ ठोस वस्तु भी चाहिये जो मूर्त रूप भी हो। जिसकी मात बनाकर पूजा वगैरह की जा सके। इतनी विशेषताओंके साथ यदि वह मानवरूप भी हो तो कहना ही क्या है? " असलमें श्री कृष्णको परमेश्वर मानना और अवतारवादका सिद्धान्त ये दो अलग अलग तत्त्व नहीं हैं। क्योंकि अवतारवाद का सिद्धान्त स्वीकार करने पर ही क्षत्रिय श्री कृष्णको परमेश्वरका अवतार माना जा सकता है। फिर जब यह कहा गया कि मैं प्रत्येक युगमें अवतार लेता हूँ, तब तो श्री कृष्णके सिवाय अन्य अवतारोंको मानना भी आवश्यक था। ___ अधिकांश विद्वानोंका मत है कि ईसासे तीन सौ वर्ष पूर्व वासुदेव कृष्ण विष्णुके अवतार माने जाने लगे थे। और उनके अवतारकी बात चलनेके बाद बाकी अवतार भी विष्णुके ही अवतार माने जाने लगे। यद्यपि ब्राह्मण ग्रन्थोंमें अवतारवादकी भावना पाई जाती है । शतपथ ब्राह्मणमें लिखा है कि प्रजापतिने मत्स्य कूर्म और वराहका अवतार लिया था, किन्तु विष्णुके अव ११ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ जै० सा० इ० - पूर्व पीटिका तारकी गन्ध भी नहीं है । सम्भवतया उक्त भावनाको ही लेकर अवतारवादके सिद्धान्तको अवतरित किया गया । चूंकि अवतारवादके सिद्धान्तका अवतार एक समस्याको हल करनेके लिये हुआ था और उस समस्याको हल करने के दो उपाय थे - एक उच्च व्यक्तित्व सम्पन्न मानवकी परमेश्वरके रूपमें प्रतिष्ठा, दूसरे अन्य धर्मोमें पूजित होनेवाले महापुरुषों अथवा विशिष्ट व्यक्तियों को भी उसी एक अपने परमात्माका अंश मानकर अपने अवतारोंकी माला में गूंथना, जिससे उधर आकृष्ट होनेवाले स्त्री-पुरुष उन व्यक्तियों को भी उसी एक विष्णुका अंशावतार मानकर विष्णुके पूर्णावतारकी ओर ही आकृष्ट हों तथा उनकी दृष्टि में पूर्णावतारी श्रीकृष्णकी तुलना में उन विशिष्ट व्यक्तियोंकी प्रतिष्ठा कम हो जाये । आजके समन्वयवादी व्यक्तियोंकी दृष्टि से यह भी कहा जा सकता है कि सब धर्मों के महापुरुषोंका समन्वय करनेके लिये ऐसा किया गया. क्योंकि गीताके नौवें अध्याय में कहा गया है कि जो भी अन्य देवताओंके भक्त लोग श्रद्धायुक्त होकर भजन करते हैं वे भी मेरा ही भजन करते हैं । किन्तु उस समन्वय में भी वही दृष्टि कार्य करती है। उसीके फलस्वरूप जैनोंके ऋषभ देव, सांख्योंके कपिल और बौद्धों बुद्धको विष्णु अवतारों में स्थान दिया गया । यहाँ यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि जैन धर्ममें २४ तीर्थंकर और बौद्ध धर्म - ५ बुद्ध माने गये हैं । बुद्धके निर्वाणके पश्चात्से ही बौद्ध २५ बुद्धोंको मानते आये हैं । इसी तरह जैनों में चौबीस तीर्थङ्करोंकी मान्यता भी अति प्राचीन है और दिगम्बर और वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों में इस विषय में ऐकमत्य है | किन्तु हिन्दू अवतारोंकी संख्या में क्रमिक विकास हुआ है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण १६३ सबसे अधिक अवतार संख्या २२-२३ श्रीमद्भागवतमें मिलती है । उसका रचनाकाल ईस्वी सातवीं शती है । अतः हिन्दू अवतारोंकी संख्या पर भी जैन-बौद्ध प्रभाव परिलक्षित होता है । जैन पुराणोंमें श्री कृष्ण जिस तरह हिन्दू पुराणोंमें ऋषभ देवका उल्लेख है उसी तरह जैन पुराणों में श्री कृष्णका न केवल उल्लेख है किन्तु विस्तृत चरित भी वर्णित है और उसके वर्णनका मुख्य कारण यह है कि जैन अनुश्रुति के अनुसार श्री कृष्ण २२ वें जैन तीर्थङ्कर श्री नेमिनाथ के चचेरे भाई थे । तथा जैन धर्मके ६३ शलाका पुरुषों में से थे। इसीसे जैन पुराणोंमें श्री कृष्णके प्रति प्रायः वैसा ही आदर भाव व्यक्त किया गया है जैसा श्रीमद्भागवत में किया गया है । किन्तु उन्हें मानव रूप में परमात्मा नहीं माना । नेमिनाथ और श्रीकृष्ण, दोनोका जन्म यदुकुल में हुआ था । उनके प्रपितामहका नाम शूर था और पितामहका नाम था अन्धकवृष्णी । शूरने मथुरा के निकट सौरिपुर नामक नगर की स्थापना की थी। सौरिपुर नरेश श्रन्धकवृष्णि के दस पुत्र थे । उनमें से बड़े पुत्रका नाम समुद्र विजय था । अन्धकवृष्णिने अपने बड़े पुत्र समुद्र विजयको राज्य देकर जिनदीक्षा धारण कर ली । उनके सबसे छोटे पुत्र का नाम वसुदेव था । वह अपने बड़े भाई समुद्र विजयके अनुशासन में रहता था और अनेक कलाओं में पारङ्गत था । गायन और वादनकला में वह इतना निपुण था कि जब वह गाता था तो उसके मनोहर स्वर और रूपसे आकृष्ट होकर नगरकी नारियाँ अपना-अपना काम छोड़कर उसके चारों ओर एकत्र हो जाती थीं । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका एक बार प्रमुख नागरिकोंने राजा समुद्र विजयसे इस बातकी शिकायत की और समुद्र विजयने वसुदेवको महलसे निकलनेकी मनाई कर दी। एक दिन अवसर पाकर वसुदेव महलसे निकल गया, और देश-देशान्तरोंमें घूमता हुआ एक बार एक युद्ध में सम्मिलित हुआ वहाँसे समुद्र विजय उसे लौटा लाये। लौटनेपर वसुदेवका परिचय कंससे हुआ। कंस उग्रसेनका पुत्र था। दैवज्ञोंके द्वारा कंसको अमंगल सूचक बतलाने पर उग्रसेनने उसका जन्म होते ही परित्याग कर दिया था और एक वणिक्ने उसका पालन किया था। एकबार जरासंधने समुद्रविजयको अपने एक शत्रुपर आकमण करनेकी आज्ञा दी। समुद्र विजयने कंसके साथ वसुदेवको अधीनतामें एक सेना भेजी। कंसने शत्रुको पकड़कर वसुदेवके सामने उपस्थित किया । वसुदेव उसे जरासन्धके पास ले गया। जरासन्धने प्रसन्न होकर मथुराका राज्य तथा अपनी पुत्री वसुदेवको देना चाही। किन्तु वसुदेवने अस्वीकार करते हुए कंसको उस पारितोषिकका अधिकारी बतलाया। और जरासंधने कसके साथ अपनी पुत्रीका विवाह करके उसे मथुराका राज्य दे दिया। ___ भागवत सम्प्रदायके ग्रन्थों में उक्त घटनाओंका संकेत नहीं है। किन्तु इन घटनाओंके वर्णनमें सत्यकी कुछ ऐसी छाप है जो विद्वानों को यह विश्वास दिलानेके लिये प्रेरित करती है कि जैन लोग उक्त घटनाओंकी जानकारीके सम्बन्धमें कोई स्वतंत्र जरिया रखते थे, और यह बात जिनसेनकृत हरिवंश पुराणकी उत्थानिकासे प्रमाणित होती है। जिनसेनने अपने हरिवंश १ देखो भाण्डा० इं० पत्रि०, जि० २३, पृ० १२० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण १६५ पुराणकी उत्थानिकामें लिखा है कि मैंने अपना यह हरिवंश चरित पूर्वाचार्योंके द्वारा प्रणीत ग्रन्थोंके आधारसे लिखा है। अतः यह आक्षेप, कि जैनोंने अपने पुराण हिन्दू पुराणोंके आधारपर घड़े हैं, अवश्य ही भ्रम पूर्ण, और निराधार है। बल्कि कतिपय ऐतिहासिक तथ्योंके सम्बन्धमें हिन्दू पुराणोंकी अपेक्षा जैन पुराण अधिक विश्वसनीय और विशेष सूचक हैं।' ( भां०, इं० पत्रिका, जि० २३, पृ० १२० )। २२वें तीर्थङ्कर नेमिनाथ जैन पुराणोंके अनुसार सौरिपुरमें समुद्रविजयके अरिष्टनेमि नामका एक पुत्र हुआ। उससे प्रथम समुद्रविजयके लघुभ्राता वसुदेवके वासुदेव श्रीकृष्णका जन्म हो चुका था। जरासन्धके आक्रमणके भयसे यादवगण शौरिपुर छोड़कर द्वारकामें जा बसे। उसके पश्चात् युवा होनेपर श्रीकृष्णने जरासन्धका वध किया और दिगविजय करके अर्धचक्रित्व पद प्राप्त किया। इधर नेमिनाथ भी युवा हो चले। __एक दिन राजसभामें सब यादव उपस्थित थे। एक सिंहासन पर श्रीकृष्ण और नेमिनाथ भी विराजमान थे। सभामें वीरताकी चर्चा चल पड़ी और तब सब अपने अपने बलका प्रदर्शन करने लगे। नेमिनाथने भी अपने बलका प्रदर्शन किया, जिससे श्रीकृष्ण. के चित्तमें नेमिनाथकी ओरसे शंका उत्पन्न हो गई। तबतक नेमिनाथ अविवाहित थे और कोई भी कन्या उनका मन आकृष्ट नहीं कर सकी थी। - एकबार वसंत ऋतुम सब यादवगण बन बिहारके लिये गये। अपनी पत्नियोंके साथ श्रीकृष्ण भी इस आनन्दोत्सवमें Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका सम्मिलित हुए और वे नेमिनाथको भी साथ ले गये । श्रीकृष्णकी रानियोंने अपने पतिका संकेत पाकर अपने देवर नेमिनाथको घेर लिया। वनक्रीडाके पश्चात् जलक्रीड़ा आरम्भ हुई। जलक्रीडाके अन्तमें नेमिनाथने अपने गीले वस्त्र उतारकर श्रीकृष्णकी रानी जाम्बवन्तीसे धोनेके लिये कहा। इस पर जाम्बवन्ती बिगड़कर बोली, मेरे पति श्रीकृष्ण इतने पराक्रम शाली और वीर हैं, वे भी मुझे ऐसी आज्ञा नहीं देते। ___ अपनी भावजके इस तानेसे क्षुब्ध होकर कुमार नेमिनाथने श्रीकृष्णके पाञ्चजन्य शंखको फूका। उसकी ध्वनि सुनकर श्रीकृष्ण भी विस्मयसे अभिभूत हो गये, और नेमिनाथसे इसका कारण पूछा । तब उन्हें ज्ञात हुआ कि जाम्बवन्तीके तानेसे क्षुब्ध होकर कुमारने ऐसा किया है। इस घटनाके पश्चात् ही श्रीकृष्णने कुमार नेमिनाथके पाणिग्रहण करानेका विचार किया। और भोजवशकी कन्या राजीमतीके साथ विवाह होना तय किया। विवाहकी तैयारियां हो रही थी। तभी एकदिन नेमि सजधजकर अनेक राजकुमारोंके साथ बनक्रीड़ाके लिये गये । वहाँ एक स्थान पर बहुतसे पशुओंको बंधा हुआ देख कर उन्होंने सारथिसे पूछा कि ये पशु किस लिये बन्द हैं। सारथिने कहा-आपके विवाहमें सम्मिलित हुए मांसभोजी नरेशोंके लिये। ___इस दुःखद संवादने नेमिनाथके मनको द्रवित कर दिया और वे मोक्ष लक्ष्मीके वरणके लिए लालायित हो उठे। समीप स्थित उर्जयन्त ( गिरिनगर ) पर्वतपर जाकर उन्होंने प्रव्रज्या धारण करली । और कैवल्य पद प्राप्त करके मुक्तिका मार्ग बतलाने लगे। बहुतसे मनुष्य उनके अनुयायी और शिष्य बन गये। ___एक दिन वसुदेव बलभद्र और कृष्णके साथ भगवान नरेशइस दुःखद् वरण के लिएर जाकर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण नेमिनाथकी वन्दनाके लिए गये और उनको नमस्कार करके समवसरणमें बैठ गये । उपदेश श्रवण करनेके पश्चात् बलदेवने भगवानसे प्रश्न किया-नाथ ! यह हमारी नगरी द्वारिकापुरी क्या इसी प्रकार सुरक्षित रहेगी या समुद्रमें डूब जायेगो ? कृष्णके जीवनका अन्त कैसे होगा ? मेरी इससे गहरी ममता है। ___ भगवान बोले-आजसे बारहवें वर्ष में मद्यपानके निमित्तसे द्वीपायन मुनिके क्रोधसे द्वारिकापुरीका विनाश होगा। और वनमें सोते हुए श्री कृष्णका अन्त जरत् राजकुमारके निमित्तसे होगा। ____ भगवानकी इस वाणीको सुनकर जरत्कुमार बहुत दुःखी हुआ और कुटुम्बका परित्याग करके ऐसे देशको चल दिया जहां श्री कृष्णसे उसका समागम ही न हो सकता हो । और श्री कृष्ण ने समस्त द्वारिका पुरीमें मद्यपानपर प्रतिबन्ध लगानेकी घोषणा कर दी तथा समस्त मद्य और मद्यपात्र एक पर्वतकी गुफ़ाके पास स्थित कुण्डमें फिकवा दिये। बारहवें वर्षको बीता जानकर द्वीपायन मुनि द्वारिका नगरी के बाहर स्थित पर्वतपर आकर ठहरे और तपमें निमग्न होगये । उधर कुछ यादव कुमार वनमें क्रीड़ा करनेके लिये आये । उन्होंने प्याससे पीड़ित होकर कुण्डमें फेंकी हुई पुरानी मदिराका पान कर लिया। मदिराने अपना प्रभाव दिखलाया। वे यादव कुमार मदोन्मत्त होकर नाचने गाने लगे। अचानक उनकी दृष्टि द्वीपायन मुनिपर जा पड़ी। 'यही द्वीपायन हमारी द्वारिकाको नष्ट करंगा । इसे हमें मार डालना चाहिये।' यह सोचकर वे उन्मत्त यादव कुमार उसे पत्थरोंसे मारने लगे। पत्थरोंकी चोटसे आहत होनेपर द्वीपायनका क्रोध झड़क उठा, भ्र कुटियाँ तन गई, वह दांतोसे ओष्ठ काटने लगा। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका यह देखते ही यादव कुमारोंका नशा उतर गया और वे भाग कर द्वारिकामें आये । किसीने जाकर बल्देव और श्री कृष्णसे यह समाचार कहा। दोनों भाई द्वारिकाका विनाशकाल आया जान दौड़े दौड़े द्वीपायनकी शरणमें आये और क्षमा माँगने लगे। रोषसे क्षुब्ध द्वीपायनने केवल दो अंगुलियोंके द्वारा यह सूचित किया कि तुम दोनों शेष बचागे। उसके पश्चात् द्वारिका भस्म हो गई। बल्देव और श्रीकृष्णने लोगोंके आर्तनादसे पीड़ित होकर समुद्र के पानीसे आगको बुझानेकी चेष्टा की । किन्तु जलने तेलका ही काम किया। द्वारिका भस्मसे शेष बचे दोनों भाई अत्यन्त व्यथित चित्तसे दक्षिण दिशाकी ओर चल दिये। मार्गमें थककर श्री कृष्ण एक वृक्षके नीचे लेट गये और बलदेव पानी लेनेके लिए चले गये। श्री कृष्णका समस्त शरीर पीताम्बरसे आछादित था और बांये घुटनेपर दक्षिण पैर रखा हुआ था। उस वनमें शिकारके लिये आये हुए जरत्कुमारकी दृष्टि उसपर पड़ी। सोते हुए श्री कृष्णको उसने हरिण समझकर अपना बाण चला दिया। बाण श्री कृष्णके पैर में लगा। बाणसे पीड़ित श्री कृष्णने जिस दिशासे बाण आया था, उस दिशाको लक्ष्यकर ऊँचे स्वरमें कहा-जिस अकारण वैरीने मेरा पैर छेदा है वह अपना नाम और कुल बतलाये; क्योंकि अज्ञात नाम-कुलवाले मनुष्यको रणमें न मारनेकी मेरी प्रतिज्ञा है। ___ यह सुनकर जरत्कुमार ने कहा-मैंवसुदेवका पुत्र और श्रीकृष्णका भ्राता हूँ। अपने निमित्तसे श्री कृष्णकी मृत्यु जानकर बारह वर्ष से इसी वनमें भ्रमण करता रहा हूँ। आजसे पूर्व मैंने किसी मनुष्यको इस वनमें नहीं देखा, आप कौन हैं ? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण १६९ यह सुनते ही श्री कृष्णने बड़े प्रेमसे पुकारा और जरत्कुमार भी धनुषवाण फेंककर श्री कृष्णके चरणोंमें विलाप करने लगा। श्री कृष्णने उसे समझाते हुए कहा-बलदेव पानी लेनेके लिए गये हैं। उनके लौटनेके पूर्व ही तुम यहाँ से चले जाओ । अन्यथा वह तुम्हें जीवित न छोड़ेंगे। __ जरत्कुमारके जाते ही श्री कृष्णने तीव्र वेदनासे पीड़ित होकर प्राण त्याग किया। श्रीकृष्ण और नेमिनाथका यह संक्षिप्त वृत्तान्त दोनोंके जीवनक्रम तथा मार्गपर प्रकाश डालनेके लिए पर्याप्त है । नेमिनाथ निवृत्तिमार्गी थे और श्री कृष्ण प्रवृत्तिमार्गी । नेमिनाथ अपने विवाहके निमित्तसे होनेवाली पशु हिंसाके कारण न केवल विवाह से ही विरक्त हुए, किन्तु संसारसे ही विरक्त होगये । किन्तु श्री कृष्ण अन्त तक प्रवृत्तिशील रहे-समस्त यादवोंका विनाश होनेपर भी उन्होंने निवृत्ति मार्गको नहीं अपनाया। अतः यदि उन्हें भागवत धर्मका संस्थापक माना जाता है तो स्पष्ट ही भागवत धर्म प्रवृत्तिमार्गी है। ___डा० कीथ ( ज. रा० ए० सो० १६१५, पृ० ८४२-८४३ ) तथा मैकनिकल (इं० थीज्म, पृ० ६३ ) ने श्री कृष्ण पूजाका प्रभाव जैन धर्मपर बतलाया है। डा. कीथका कहना है कि महावीरके जन्मकी कथा श्री कृष्णके जन्मकी कथासे ली गई है। इस संबन्धमें हम भगवान महावीरके सम्बन्धमें लिखते समय प्रकाश डालेंगे। जहाँ तक भक्तिवादका संबन्ध है, हमें यह स्वीकार करने में संकोच नहीं है कि श्री कृष्णकी भक्तिका प्रभाव जैन धर्मपर भी पड़ा है और उससे जैन धर्मका भक्तिप्रबाह विकृत और विरूप हुआ है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० जै० सा० इ० - पूर्व पीठिका नेमिनाथकी ऐतिहासिकता हम पहले लिख आये हैं कि छा० उप० में देवकीपुत्र श्रीकृष्णका निर्देश है, जो घोर आंगिरसके शिष्य थे। आङ्गिरस ऋषिने देवकी पुत्र श्रीकृष्ण को कुछ नैतिक तत्त्वोंका उपदेश दिया जिनमें अहिंसा भी है । उपनिषदों को ही सब धर्मोंका मूलाधार मानने वालोंका कहना है कि यहींसे जैनोंने अहिंसा तत्वको ग्रहण किया । (अर्ली हि० वैष्ण०, पृ० १२३ ) । श्री धर्मानन्द कौशाम्बीने ( भा० सं० श्र०, पृ० ३८ ) - 'घोर आंगिरस के नेमिनाथ होनेकी संभावना व्यक्त की है क्योंकि जैन ग्रन्थकारों के अनुसार श्रीकृष्णके गुरू नेमिनाथ तीर्थङ्कर थे । श्रीकौशाम्बी जीकी उक्त संभावना में कोई तथ्य दृष्टिगोचर नहीं होता क्योंकि घोर आंगिरस और नेमिनाथके एक व्यक्ति होनेका सूक्ष्मसा भी आभास नहीं मिलता । किन्तु छा० उ० के उल्लेखसे इतना व्यक्त होता है कि श्रीकृष्ण को किसीने अहिंसाका उपदेश दिया था। जैनोंके अनुसार वह व्यक्ति नेमिनाथ था जिसने पशुहिंसा के पीछे न केवल विवाह ही नहीं किया, अपि तु संसार कोही छोड़ दिया । प्रसिद्ध इतिहासज्ञ डा० राय चौधरीने अपने 'वैष्णव धर्मके प्राचीन इतिहास में नेमिनाथको श्रीकृष्णका चचेरा भाई लिखा है किन्तु उन्होंने इससे अधिक जैन ग्रन्थोंमें वर्णित नेमिनाथ के जीवन वृत्तान्तका कोई उपयोग नहीं किया । इसका कारण यह हो सकता है कि अपने उक्त प्रन्थमें डा० राय चौधरीने श्रीकृष्ण के ऐतिहासिक व्यक्ति होनेके सम्बन्ध में उपलब्ध प्रमाणोंका संकलन किया है । अतः उनकी दृष्टि विशेषरूपसे उसी ओर रही है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण १७१ कतिपय विदेशी विद्वानोंने डा० राय चौधरीके मतसे प्रभावित होकर श्रीकृष्ण वासुदेवको ऐतिहासिक व्यक्ति माना है, किन्तु नेमिनाथको ऐतिहासिक ,व्यक्ति माननेकी ओर उनका कोई झुकाव नहीं है। ___ पी० सी० दीवान ने अपने लेखमें ( भां० इं. पत्रिका, जि० २३, पृ० १२२ ) इसके दो कारण बतलाये हैं-प्रथम, जैन ग्रन्थोंके अनुसार नेमिनाथ और पार्श्वनाथके बीचमें ८४००० वर्षका अन्तर है। दूसरे, हिन्दू पुराणोंमें इस बातका निर्देश नहीं है कि वसुदेवके समुद्रविजय नामक बड़े भाई थे और उनके अरिष्टनेमि नामका कोई पुत्र था। प्रथम कारणके सम्बन्धमें श्री दीवानका कहना है कि हमें यह स्वीकार करना होगा कि हमारे वर्तमान ज्ञानके लिये यह सम्भव नहीं है कि जैन ग्रन्थकारोंके द्वारा एक तीर्थङ्करसे दूसरे तीर्थङ्करके बीच में सुदीर्घकालका अन्तराल कहने में उनका क्या अभिप्राय है इसका विश्लेषण कर सकें। किन्तु केवल इसी कारणसे जैन ग्रन्थोंमें वर्णित अरिष्ट. नेमिके जीवन वृत्तान्त को, जो अति प्राचीन प्राकृत ग्रन्थोंके आधार पर लिखा गया है, दृष्टिसे अोझल कर देना युक्तियुक्त नहीं है। __ दूसरे कारणका स्पष्टीकरण सरल है। भागवत सम्प्रदायके ग्रन्थकारोंने अपने परम्परागत ज्ञानका उतना ही उपयोग किया जितना श्रीकृष्णको परमात्मा सिद्ध करनेके लिये आवश्यक था। जैन ग्रन्थों में ऐसे अनेक ऐतिहासिक तथ्य वर्णित है. जैसा कि ऊपर दिखाया है, जो भागवत साहित्यके वर्णनमें नहीं मिलते । इसके सिवा अथर्ववेद के माण्ड्क्य , प्रश्न और मुण्डक उपनिषदोंमें अरिष्टनेमिका नाम आया है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ० - पूर्व पीठिका महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय १४६ में विष्णुसहस्र नाममें दो स्थानों पर 'शूरः शौरिर्जनेश्वरः' पद आया है । यथा १७२ 'अशोकस्तारणस्तारः शूरः शौरिर्जनेश्वरः ||५०॥ 'कालनेमि नहा वीरः शूरः शौरिर्जनेश्वरः ॥ ८२ ॥ ' इन दोनों में जो अन्तिम चरण है वह ध्यान देने योग्य है । विक्रम सम्वत्की १९ वीं शतीके आरम्भ में जयपुर में पं टोडरमल नामके एक जैन विद्वान हो गये हैं। उन्होंने अपने मोक्षमार्ग प्रकाश नामक ग्रन्थमें नीचेके श्लोकार्द्धको उद्धृत किया है । उसमें 'जिनेश्वरः' पाठ पाया जाता है। दूसरी उल्लेखनीय बात यह है कि इसमें श्रीकृष्णको 'शौरि' लिखा है। आगरा जिले में बटेश्वर के पास शौरिपुर नामक स्थान है। जैन ग्रन्थोंके अनुसार प्रारम्भ में यहीं यादवोंकी राजधानी थी । जरासन्धके भयसे यादव लोग यहीं से भागकर द्वारिकापुरीमें जा बसे थे। यहीं पर नेमिनाथका जन्म हुआ था । इसलिये उन्हें शौरि' भी कहा है और वे जिनेश्वर तो थे ही। हिन्दु पुराणों में शौरिपुर के साथ यादवोंका कोई सम्बन्ध मेरे देखने में नहीं आया । अतः महाभा'रत में श्रीकृष्णको 'शौरिः' लिखना विचारणीय है । महाभारत के किसी संस्करण से मैंने एक श्लोकका संग्रह किया था, वह श्लोक निम्न प्रकार है रेवताद्रौ जिनो ऋषीणामाश्रमादेव मुक्तिमार्गस्य नेमियुगादिर्विमलाचले कारणम् ॥ प्रभास पुराण में यह श्लोक मिलता है । इसमें गिरिनार पर्वतपर नेमि जिनका उल्लेख किया है और उन्हें मोक्षमार्गका कारण बतलाया है। 1 - Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण १७३ स्कन्द पुराणके प्रभास खण्डमें कुछ श्लोक इस प्रकार हैं भवस्य पश्चिमे भागे वामनेन तपः कृतम् । तेनैव तपसाकृष्टः शिवः प्रत्यक्षतां गतः ॥ पद्मासनः समासीनः श्याममूर्तिदिगम्बरः । नेमिनाथः शिवोऽथैवं नाम चक्रेऽस्य वामनः ॥ कलिकाले महाघोरे, सर्वपापप्रणाशकः । दर्शनात् स्पर्शनादेव कोटियज्ञफलप्रदः ॥ अर्थात् - अपने जन्मके पिछले भागमें वामनने तप किया। उस तपके प्रभावसे शिवने वामनको दर्शन दिये । वे शिव श्यामवर्ण, नग्न दिगम्बर और पद्मासनसे स्थित थे । वामनने उनका नाम नेमिनाथ रक्खा। यह नेमिनाथ इस घोर कलिकालमें सब पापोंका नाश करनेवाला है। उनके दर्शन और स्पर्शनसे करोड़ों यज्ञोंका फल होता है। जैन नेमिनाथको कृष्णवर्ण मानते हैं और उनकी मूर्ति भी अन्य जैन मूर्तियोंके अनुसार दिगम्बर और पद्मासन रूपमें स्थित होती है । अतः ऐसा प्रतीत होता है कि नेमिनाथकी श्यामवर्ण पद्मासनरूप जैन मूर्तिको शिवकी संज्ञा दे दी गई है। क्योंकि शिवका यह रूप नहीं है। इसीसे कलिकाल में उसे सर्व पापांका नाशक माना है। विद्वानोंसे यह बात अज्ञात नहीं है कि कलिकालके बहानेसे ब्राह्मणोंको अनेक पुरानी वैदिक रीतियोंको त्यागना पड़ा है और अनेक नये तत्त्वोंको स्वीकार करना पड़ा है। जान पड़ता है नेमिनाथकी मूर्तिकी शिवके रूपमें उपासना भी उसीका फल है। आज भी बद्रीनाथमें जैन मूर्ति बद्री विशालके रूपमें पूजी जाती है। ब्राह्मण धर्मकी यही तो विशेषता है। वह अन्य धर्मके Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका तत्त्वोंको अपनेमें इस ढंगसे पचाता आया है कि कालान्तरमें वे तत्त्व उसके ऐसे अभिन्न अंग बन गये कि मानों वे उसीके मूल तत्त्व हैं और जिस धर्मके वे मूल तत्त्व थे, उस धर्मने उन तत्त्वोंको ब्राह्मण धर्मसे लिया है। वैदिक कालसे लेकर पौराणिक काल तकके साहित्यका बारीकीसे अन्वेक्षण करनेसे यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है। उदाहरणके लिये उपनिषदोंके तत्त्वज्ञानको ही ले लें। वह वैदिक आर्योंकी देन नहीं हैं। किन्तु उसे उन्होंने इस तरहसे अपनाया मानो वह वेदका ही एक अंग है। इसी तरह उपनिषदोंके पश्चात् महाभारत और पुराणोंका संवद्धन करके उन्हें इस रूपमें ग्रथित किया कि जिस समय जिसको प्रभावशाली पाया उसको अपना ही अंग बना लिया और इस तरह उस ओर आकृष्ट होनेवाली जनताको उधर जानेसे रोक लिया। इतना ही नहीं, यदि अपने साहित्यमें दूसरे धर्मोके अनुकूल कोई बात दिखाई दी तो उसका सम्मान कर दिया । यथा-जिनेश्वरको जनेश्वर और जिनको जन कर दिया। या उस अंशको प्रक्षिप्त करार देकर नये संस्करणमेंसे निकाल दिया, इत्यादि। ऐसी परिस्थिति में वास्तविक प्राचीन स्थितिका दिग्दर्शन करा सकना शक्य नहीं है । फिर भी उपलब्ध वैदिक साहित्यके सिवाय जब कोई छान्य अवलम्बन न हो तो उसीको आधार बनाकर चलना ही पड़ता है। क्योंकि उपलब्ध जैन साहित्य वैदिक साहित्य जितना प्राचीन नहीं है यह स्पष्ट है । और बौद्ध साहित्य जैन साहित्यका समकालीन ही है। अतः गत्यन्तरका अभाव होनेसे वैदिक साहित्यको ही लेकर खोज बीन करना पड़ता है और उस खोज बीनसे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि जैन धर्म जिन मूल तत्त्वोंको अपनाये हुए है, वे मूल तत्त्व ऋग्वेदसे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण भी प्राचीन हैं और सिन्धुघाटी सभ्यता तक उनकी परम्परा जाती है। द्रविड़ सभ्यता और जैन धर्म हम पिछले पृष्ठोंमें लिख आये हैं कि ऋग्वैदिक कालसे ही भारतमें दो विभिन्न विचार धाराएँ प्रवाहित होती हुई दृष्टिगोचर होती हैं। एक धारा है वैदिक संस्कृतिकी और दूसरी धारा है वेद विरोधी, जिसे विद्वानों ने द्रविड़ विचारधारा या द्रविड़ संस्कृति माना है। प्राचीन द्रविड़ बड़े सुसंस्कृत और सभ्य थे। और उनकी अपनी सभ्यता थी। सिन्धुघाटीसे पूरबकी ओर बढ़नेके पश्चात धीरे-धीरे वैदिक धर्मने जो हिन्दू धर्मका रूप ले लिया. उसका एक प्रमुख कारण वैदिक आर्यों पर द्रविड़ विचार धाराका प्रभाव भी था। द्रविड़ लोग आर्योंके देवताओं और पुरोहितोंको पसन्द नहीं करते थे। इसीसे ऋग्वेदमें उन्हें दास, दस्यु और असुर बतलाया है । जब ब्राह्मणोंने देखा कि वे लोग लड़भिड़कर भी वश में नहीं आते तो अन्तमें उन्होंने द्रविड़ों के कुछ देवताओंको मान लिया। इससे उन्हें द्रविड़ोंकी सहानुभूति मिली और वे धीरे-धीरे वैदिक आर्योंके परिवर्तित धर्मकी सीमामें आने लगे। ___ अपनी सभ्यताके सर्वोच्च उन्नत कालमें उन द्रविड़ोंका क्या धर्म था, यह तथ्य आज भी अन्धकारमें हैं। किन्तु सिन्धुघाटीसे प्राप्त अवशेषोंके प्रकाशमें वैदिक आर्योंके देवताओं के साथ आधुनिक हिन्दू देवताओंकी तुलना करके यह मान लिया गया है कि शिव और दुर्गा द्रविड़ देवता हैं। तथा प्राचीन द्रविड़ लोग योगकी प्रक्रियासे भी परिचित थे। १-त्रीहि० इ०, पृ० १२ ! हि० फि० ई० वे०, जि० १, पृ० १ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ जै० सा० इ० पूर्व पीठिका प्राचीन द्रविड़ों और वैदिक आर्योंके धर्मका मिश्रण होनेपर द्रविड़ देवताओंकी पूजा आर्य और द्रविड़ दोनों करने लगे। किन्तु दोनोंकी पूजाविधिमें भेद था। इस मिश्रणके फलस्वरूप अनाय जादूगर और द्रविड़ पुजेरो ब्राह्मणोंमें सम्मिलित हो गये और धीरे-धीरे अनार्य जातियाँ भी अपने आर्य होनेका दावा करने लगी। तथा द्रविड़ लोग एक तरहसे यह भूल ही गये कि वे भारतमें आये हुए वैदिक आर्योंसे बहुत अधिक प्राचीन सभ्यताके उत्तराधिकारी होनेका दावा कर सकते हैं और उनके पूर्वज आर्य देवताओंको नहीं पूजते थे। (प्रीहि० इ० पृ० ३२-३८)। ये द्रविड़ लोग वैदिक आर्योंसे भिन्न थे इस लिये उन्हें अनआर्य कहा गया है। किन्तु ज्यों-ज्यों भारतमें वैदिक आर्योंका प्रभाव बढ़ता गया त्यों त्यों 'आर्य' शब्द श्रेष्ठताका वाचक बनता गया और अनार्य' शब्द म्लेच्छ का। फलतः प्रत्येक श्रेष्ठत्वाभिमानी अपनेको आर्य और अपने विरोधीको अनार्य या म्लेच्छ कहने लगा। जैन साहित्यमें ब्राह्मणोंको साक्षर म्लेच्छ कहा है और हिन्दू पुराणोंमें जैन धर्मको दैत्यदानवोंका धर्म कहा है। ____ पद्मपुराणके प्रथम सृष्टि खण्डमें जैनधर्मकी उत्पत्ति कथा इस प्रकार दी है- एक स्थान पर दैत्य तप करते थे। वहाँ दिगम्बर योगीका भेष धारण करके माया मोह पहुंचा और बोला-दैत्यों! तुम यह तप किस लिये करते हो ? दानवोंने कहा-परलोकमें सुख प्राप्तिके लिये। तब माया मोह बोलायदि मुक्ति चाहते हो तो आहत धर्मको धारण करो। यह मुक्तिका द्वार है। मायामोहके समझानेपर दैत्योंने वैदिक धर्म छोड़कर आहत धर्म धारण किया। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण १७७ विष्णु पुराण अध्याय १७-१८ में भी लगभग ऐसी ही कथा है, जो इस प्रकार है-एक बार देवों और असुरोंमें युद्ध हुआ। देव हार गये और असुर जीत गये। हारे हुए देव विष्णु भगवानकी शरणमें पहुंचे और प्रार्थना करने लगे कि महाराज ! कोई ऐसा उपाय बतलाइये, जिससे हम असुरों पर विजय प्राप्त कर सकें। देवोंकी प्रार्थना सुनकर विष्णु भगवानने अपने शरीरसे एक मायामोह नामका पुरुष उत्पन्न किया और देवताओंसे कहा-यह मायामोह अपनी मायासे उन दैत्योंको मोहितकर वेद मार्गसे भ्रष्ट कर देगा । तब वे दैत्यगण आपके द्वारा मारे जा सकेंगे। तब वे हदेवगण उस मायामोको लेकर उस स्थानपर गये जहाँ असुर लोग तप करते थे। उस मायामोहने नर्मदाके किनारे तपस्या करते हुए उन महा असुरोंको देखकर दिगम्बर साधुका भेष धारण किया। वह शरीरसे नग्न था उसका सिर मुड़ा हुआ था, और हाथमें मयूरके पंखोंकी पीछी थी। वह उन दैत्योंसे मीठी बाणीमें बोला-तुम लोग यह तप ऐहिक फलकी इच्छासे करते हो या परलोक सम्बन्धी फलकी इच्छा से ? तब असुर बोले-हम परलोकके सुखकी इच्छासे तप करते हैं आप हमसे क्या चाहते हैं ? मायामोह बोला-मुक्ति चाहते हो तो मेरा कहना मानो। तुम आहत धर्म धारण करो, यही मुक्तिका खुला द्वार है। इस धर्मसे बढ़कर मुक्ति देनेवाला कोई दूसरा धर्म नहीं है। इस प्रकार उस मायामोहके समझानेपर वे दैत्य वेदमार्गसे भ्रष्ट हो गये और आर्हत धर्मको धारण करनेसे आहत ( जैन) कहलाये। इसी प्रकारकी कथा शिवपुराण द्वितीय रुद्र हिसंता, खण्ड ५, अध्याय ४-५ में भी है। १२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका ___ यद्यपि ये कथाएँ जैन धर्मको असुरों-दैत्यों दानवोंका धर्म कहकर बदनाम करनेके लिये ही रची गई हैं। तथापि यदि इनमें कुछ तथ्यांश मान लिया जाये तो कहना होगा कि ऋग्वेदमें जिन अपने विरोधियोंको दास दस्यु असुर आदि शब्दोंसे पुकारा गया है, उनमें उस वेदविरोधी धर्मके अनुयायी भी हो सकते हैं जो आज जैनधर्म कहलाता है। अतः आधुनिक जैन धर्मका पूर्वरूप उन जातियोंमेंसे किसी एकका धर्म हो सकता है, जो सिन्धुघाटी सभ्यताके कालमें वर्तमान थीं, और उसीके पूर्वपुरुष योगी ऋषभदेव थे। किन्तु उस समय जैन धर्म किस नामसे उल्लिखित होता था यह अन्धकारमें है, क्योंकि महाबीरके समयमें जैन साधुओंका सम्प्रदाय निग्रन्थ सम्प्रदाय कहलाता था। उसके बाद उनका धर्म आहत धर्म कहा जाने लगा और फिर जैन धर्म कहा जाने लगा। इससे नाम भेद होना ही संभव है। एक बात और भी दृष्टव्य है। जैन शास्त्रोंमें ऋषभदेवको इक्ष्वाकु वंशीके साथ ही पुरुवंश नायक लिखा है। ऋग्वेदके अनुसार भी इक्ष्वाकु पुरुराजाओंकी ही एक श्रेणी थी। ऋग० (१-१०८-८ ) में अनु, द्रा, तुर्वश और यदुके साथ पुरुका भी निर्देश है । तथा ऋक (s-c-2) में पुरुओंको जीतनेके उपलक्षमें भरतोंके अग्निहोत्र करनेका निर्देश है। __ऋग्वेद तथा उसके पश्चात्के साहित्यमें भरतोंका विशेष महत्व बतलाया है। एक ऋचामें भरतोंको पुरुओंका शत्रु १-पुरु आये हैं। और इक्ष्वाकु के सम्बन्धमें पहले पृ० १५ पर लिख Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण १७९ बतलाया है । शतपथ ब्रा० (६-८- ४ ) में पुरुषोंको असुर राक्षस बतलाया है। इससे पुरुओंके प्रति वैदिक दृष्टिकोणका संकेत मिलता है । किन्तु पुरुलोग आर्य प्रतीत होते हैं क्योंकि ऋग्वेदकी अनेक ऋचाओं में मूलनिवासियों पर पुरुयोंकी विजयका निर्देश है। असल में आर्यों में भी अनेक भेद थे। सभी आर्य वैदिक नहीं थे । इससे आर्यों में भी परस्पर में युद्ध होते थे । उदाहरण के लिये, सर जार्ज ग्रियर्सनका मत है कि ब्राह्मणधर्मके पक्षपाती कुरुओंसे ब्राह्मण धर्म-विरोधी पञ्चाल आर्योंने पहले प्रवेश किया । ब्राह्मण विरोधी पार्टी योद्धा लोगों की थी, उन्होंने पुरोहित पार्टीको हराया। ( कै० हि० पृ० २७५ ) । अतः यह संभव है कि पुरुलोग अवैदिक ऋषभदेव के उपासक रहे हों। इसीसे वैदिक आर्योंका उनके प्रति शत्रुभाव रहा हो । ऋग्वेद में पुरुओंको सरस्वती के तटपर बतलाया है । पुरुराजाओं की असाधारण लम्बी सूची से पुरुजातिका महत्त्व स्पष्ट है । इक्ष्वाकु परम्परा मूलतः पुरुराजाओं की एक परम्परा थी । उत्तर इक्ष्वाकुओं का सम्बन्ध अयोध्यासे था । जैन शास्त्रोंमें अयोध्याको ही ऋषभदेवकी जन्मपुरी बतलाया है। उधर सांख्यायन श्रौत सूत्रमें हिरण्यगर्भकी उपाधि 'कौसल्य' बतलाई है। अयोध्याको कोसलदेस कहते थे । अतः कौसल्यका मतलब होता है कोसलका जन्मा हुआ या कोसलका राजा । यह हम पहले लिख आये हैं कि जैन शास्त्रोंमें ऋषभदेवको हिरण्यगर्भ भी कहा है और उनका जन्म अयोध्या नगरीमें बतलाया है । अतः यदि हिरण्यगर्भ ऋषभदेव थे तो उनका अयोध्या नगरीके होने का भी समर्थन होता ही है। किन्तु यह सब अभी अन्वेरणीय है । अतः अभी यह निश्चयपूर्वक कह सकना शक्य नहीं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका है कि जैनधर्म मूलमें आर्योंका धर्म था या द्रविड़ों का, और ऋषभदेव केवल आर्योंके पूर्वज थे या द्रविड़ों के भी ? किन्तु इतना निश्चित है कि द्रविड़ संस्कृति या द्रविड़ धर्मके सिद्धान्तोंसे जैन धर्मके सिद्धान्त बहुत मिलते जुलते हुए हैं। (प्रीहि० ई०, पृ० १२०)। सुप्रसिद्ध भाषाविद् डा० सुनीति कुमार चटर्जी ने लिखा है 'यह कहना सत्य नहीं है कि हिन्दू सभ्यताके सभी उदात्त एवं उच्च उपादान आर्योंकी देन थे। तथा जो निकृष्ट और हीन उपादान थे वे अनार्य मानसको उच्छृङ्खलताके द्योतक थे। आर्य चित्तके कुछ दृष्टिकोणोंके मूर्तरूप ब्राह्मण और क्षत्रियकी बिचार तथा संगठन करनेकी योग्यताको स्वीकार कर लेने पर भी, कितनी ही नई सामग्री तथा नूतन विचार धारा यह सूचित करती है कि भारतीय सभ्यताका निर्माण केवल आर्योंने ही नहीं किया, बल्कि अनार्योंका भी इसमें बड़ा भारी हिस्सा था। उन्होंने इसकी मूल प्रतिष्ठाभूमि तैयार की थी। देशके कई भागोंमें उनकी ऐहिक सभ्यता आर्यों की अपेक्षा कितनी ही आगे बढ़ी हुई थी। नगरवासी अनार्यकी तुलनामें आर्य तो अटनशील बर्बर मात्र प्रतीत होता था। धीरे-धीरे अब यह बात स्पष्टतर होती जा रही है कि भारतीय सभ्यताके निर्माणमें अनार्योंका भाग विशेष रूपसे गुरुतर रहा। भारतीय प्राचीन इतिहास एवं दन्तकथाओंमें निहित धार्मिक तथा सांस्कृतिक रीति-परिपाटी केवल अनार्योंसे आई हुई वस्तुका आर्य भाषामें रूपान्तर मात्र है; क्योंकि आर्योंकी ओरसे उनकी भाषा ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण देन बन गई थी, यद्यपि वह भी अनार्य उपादानोंसे बहुत कुछ मिश्रित होकर पूर्ण विशुद्ध न रह सकी। संक्षेपमें कर्म तथा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण १८१ परलोकके सिद्धान्त, योगसाधना, शिव देवी तथा विष्णुके' रूप में परमात्माको मानना, वैदिक हवन पद्धति के समक्ष नई पूजा रांतिका हिन्दुओं में आना आदि, तथा अन्य भी बहुतसी वस्तुका हिन्दूधर्म और विचार में आना, वास्तव में अनार्यो की देन है। बहुत सी पौराणिक तथा महाकाव्यों में आई हुई कथाएँ, उपाख्यान, और श्रद्ध' ऐतिहासिक विवरण भी आर्यों से पहलेके हैं । ( ० हि२, पृ० ३५-३६ ) ।' जैन धर्म में प्रारम्भ से ही कर्म, परलोक सिद्धान्त तथा योग साधनाका प्राधान्य रहा है और ये ही उसकी विचारधारा के मूलाधार हैं । वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ में प्रो० श्री नीलकण्ठ शास्त्रीका एक लेख 'जैन धर्मका आदि देश' शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। यहां हम उसका आरम्भिक अंश उधृत करनेका लोभ संवरण नहीं कर सकते। उन्होंने लिखा है 'जैन धर्म भी बौद्ध धर्मकी तरह वैदिक कालके आर्योंकी यज्ञ यागादिमय संस्कृतिकी प्रतिक्रिया मात्र था' कतिपय इतिहासकारों १ - सिन्धुघाटी सभ्यता के प्रकाश में आने से पूर्व यह विवेचन करने की प्रथा सी थी कि इन्द्र, अग्नि, वरुण और मित्रके स्थान में ब्रह्मा, विष्णु और शिवको अपनाकर वैदिक धर्म ब्रह्मा धर्मके रूपमें क्रमसे विकसित होकर प्रकाश में आया । किन्तु प्रभावशाली खोजों के फलस्वरूप स्वीकृत वर्तमान मत यह है कि यह प्रवृत्ति एक मिश्रित संस्कृतिकी उपज है, तथा भारत में हुए धार्मिक परिवर्तन मुख्य रूपसे श्रार्यो और द्रविड़ों तथा उनकी विभिन्न संस्कृतियों के संयोगकी देन है; क्योंकि प्राचीन द्रविड़ बहुत ही सुसभ्य और सुसंस्कृत थे । ( प्रो० हि० इं०, भू० पृ० ६ ) । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका के इस मतिको यों ही सत्य मान लेना चलता व्यवहार सा हो गया है । विशेषकर कितने ही जैन धर्मको तेईसवें तीर्थङ्कर श्री पार्श्वनाथ के पहले प्रचलित माननेमें भी आनाकानी करते हैं, अर्थात् वे लगभग नौवीं शती ईसा पूर्वतक ही जैन धर्मका अस्तित्व मानना चाहते हैं । प्राचीनतम युगमें मगध यज्ञ यागादिमय वैदिक मतके क्षेत्रसे बाहर था । तथा इसी मगधको इस कालमें जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म की जन्म भूमि होनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ है । फलतः कितने ही विद्वान् कल्पना करते हैं कि इन धर्मों के प्रवर्तक आर्य नहीं थे। दूसरी मान्यता यह है कि वैदिक आय के बहुत पहले आर्योंकी एक धारा भारतमें आई थी और आर्यों पूरे भारतमें व्याप्त हो गये थे। उसके बाद उसी वंशके यज्ञ यागादि संस्कृति वाले लोग भारतमें आये, तथा प्रार्च न वैदिक आर्योंको मगधकी ओर खदेड़कर स्वयं उसके स्थानपर बस गये । आर्योंके इस द्वितीय आगमनके बाद ही सम्भवतः मगधसे जैन धर्म का पुनः रप्रचा आरम्भ हुआ तथा वहींपर बुद्ध धर्मका प्रादुर्भाव हुआ। ३००२-५०० ईसा पूर्वमें ली फली 'सिन्धु कछार सभ्यता के भग्नावशेषोंमें दिगम्बर मत, योग, वृषभपूजा तथा अन्य प्रतीक मिले हैं, जिनके प्रचलनका श्रेय आर्यों अर्थात् वैदिक आर्योंके पूर्ववर्ती समाजको दिया जाता है। आर्यपूर्व संस्कृतिके शुभाकाक्षियोंकी कमी नहीं है, यही कारण है कि ऐसे लोगों में से अनेक लोग वैदिक आयोंके पहलेकी इस महान् संस्कृतिको दृढ़ता पूर्वक द्रविड़ संस्कृति कहते हैं। मैंने अपने 'मूल भारतीय धर्म' शीर्षक निबन्धमें सिद्ध कर दिया है कि तथोक्त अवैदिक लक्षण ( यज्ञ यागादि ) का प्रादुर्भाव अथर्ववेदकी संस्कृतिसे हुआ है। तथा मातृदेवियों वृषभ, नाग, योग, आदिकी पूजाके बहु संख्यक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण निदर्शनोंसे तीनों वेद भरे पड़े हैं। फलतः 'सिंधु कछार संस्कृति पूर्व वैदिक युगके बादकी ऐसी संस्कृति है जिसमें तांत्रिक प्रक्रियायें पर्याप्त मात्रामें घुल मिल गई थीं। प्राचीन साहित्य जैन तीर्थङ्करों तथा बुद्धोंको असंदिग्ध रूपसे क्षत्रिय तथा आर्य कहता है । फलतः जैन धर्म तथा बौद्ध धर्मकी प्रसूतिको अनार्यों में बताना सर्वथा असम्भव है।' 'अतएव जैन धर्मके मूल स्रोतको आर्य संस्कृतिको किसी प्राचीनतर अवस्थामें खोजना चाहिये, जैसा कि बौद्ध धर्मके लिये किया जाता है। अपने पूर्वोल्लिखित निबंध में मैं सिद्ध कर चुका हूं कि समस्त भारतीय साधन सामग्री यह सिद्ध करता है कि जम्बू द्वोपका भारत खण्ड हो आर्योंका आदि देश था। हमारी पौराणिक मान्यताका भारतवर्ष आधुनिक भौगोलिक सीमाओंसे बद्ध न था, अपितु उसके आयाम विस्तारमें पामीर पर्वत माला तथा हिन्दूकुश भी सम्मिलित था अर्थात् ४० अक्षांश तक विस्तृत था। प्राचीनतम जैन तथा वैदिक मतोंके ज्योतिष ग्रन्थों और पुराणों में भारतके उक्त विस्तारका स्पष्ट रूपसे प्रतिपादन किया है।" ____ यहाँ हम यह स्पष्ट कर देना उचित समझते हैं कि हमने जो आर्योंके भारतमें आगमनकी चर्चाकी है वह भारतकी वर्तमान सीमाको लेकर की है । जैन शास्त्रोंमें जो भारत वर्षका विस्तार बतलाया है उसमें तो आजका पूरा भूखण्ड समा जाता है । अस्तु. उपसंहार इस तरह प्राग ऐतिहासिक कालीन उपलब्ध साधनोंके द्वारा तत्कालीन स्थितिका पर्यक्षवेण करनेसे जो प्रकाश पड़ता है यद्यपि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका वह किसी निष्कर्षपर पहुंचनेके लिये अपर्याप्त है, तथापि उससे जैन धर्मके प्राग ऐतिहासिक अस्तित्वके संबन्धमें कुछ झलक अवश्य प्राप्त होती है और उसपरसे कम से कम इतना तो निश्चय पूर्वक कहा जा सकता है कि जैन धर्म किसी ब्राह्मण विरोधी भावनाका परिणाम नहीं है। किन्तु उसका उद्गम एक ऐसी विचार धाराका परिणाम है जो ब्राह्मण क्षेत्रसे बाहर स्वतंत्र रूपसे प्रवाहित होती आती थी। डा० जेकोबीने भी लिखा है-'इस सबसे यह संभाव्य होता है कि ब्राह्मणभिन्न तपस्वीवर्ग प्राचीन कालमें भी ब्राह्मण तपस्वियोंसे एक भिन्न और विशिष्ट वर्गके रूप में माना जाता था ।.........अतः अवश्य ही बौद्ध धर्म और जैन धर्मको ऐसे धर्म मानना चाहिये जो ब्राह्मण धर्मसे बाहर वृद्धिंगत हुए थे। तथा उनका निर्माण किसी तात्कालिक सुधारका परिणाम नहीं था। किन्तु सुदीर्घकालसे प्रचलित धार्मिक आन्दोलनके द्वारा उसका निर्माण हुआ था।' (से. बु० ई०, २२, प्रस्ता०, पृ० ३२ )। श्री रमेश चन्द्रदत्त उक्त विचार धाराका उद्गम ईसा पूर्व ग्यारहवीं शतीमें बतलाते हैं। उन्होंने लिखा है-'उत्सुक और विचारक हिन्दू ब्राह्मण साहित्यके थकाने वाले क्रिया काण्डसे आगे बढ़कर आत्मा और परमात्माके रहस्यकी खोज करते थे।' इस विषयमें पहले लिखा जा चुका है । आत्मा और परमात्माके रहस्यके अन्वेषकोंकी देन ही उपनिषदोंका तत्त्व ज्ञान है। इस ज्ञानके धनी क्षत्रिय थे। क्षत्रियोंसे ही ब्राह्मणोंने आत्मविद्याका ज्ञान प्राप्त किया था। भगवान ऋषभ देव भी क्षत्रिय थे और वे योगी तथा परमहंस थे। अतः यदि आत्मविद्याके वे ही परस्कर्ता रहे हों तो जैन धर्मका उद्गम भी उनसे ही होना संभव है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण १८५ किन्तु ऋषभदेवका ऐतिहासिक अस्तित्व भारतके प्राग ऐतिहासिक कालकी गम्भीर कन्दरामें छिपा है । अतः स्वर्गीय याकोबीका अनुसरण करते हुए हमें भी यही कहना पड़ता है कि जैन धर्मके प्राग ऐतिहासिक विकासके सम्बन्धमें कुछ झलक प्राप्त करके ही हमें संतोष करना पड़ता है. क्योंकि भगवान पार्श्वनाथसे पहलेका सब इतिवृत्त गम्भीर कोहरेसे आच्छन्न है।' ३-ऐतिहासिक युगमें काशी, कोसल और विदेह अब हम ऐतिहासिक युगमें प्रवेश करेंगे। हमारा यह युग ईसा पूर्व नौंवी शताब्दीके मध्यसे आरम्भ होता है। उसी समय काशी के राजा अश्वसेनके घर जैन धर्मके तेईसवें तीर्थङ्कर पार्श्वनाथने जन्म लिया था। ___ अंग, मगध, काशी, कोसल और विदेहमें ब्राह्मण सभ्यता का प्रवेश बहुत काल पश्चात् हुआ था। शत० ब्रा० (१-४-१) में लिखा है कि-'सरस्वती नदोसे अग्निने पूरबकी ओर प्रयाण किया। उसके पीछे विदेध माधव और गौतम राहु गण थे। सबको जलाते और मार्गकी नदियोंको सुखाते हुए वह अग्नि सदानीराके तटपर पहुंची। उसे वह नहीं जला सकी। तब माधव विदेघने अग्निसे पूछा-मैं कहां रहूँ'। उसने उत्तर दिया-तेरा निवास इस नदीके पूरब हो। अब तक भी यह नदी कोसलों और विदेहोंकी सीमा है।' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका ___ उक्त कथनमें वैदिक आर्योंके सरस्वती नदीके तटसे सदानीराके तटतक धीरे धीरे बढ़नेका वृत्तान्त निहित है। सदानीरा, जो आज कल गण्डक नदी कही जाती है. दोनों राज्योंकी सीमा थी। उसके पश्चिममें कोसल था और पूरबमें विदेह था । सदानीरा कोसलको विदेहसे पृथक करती थी । बहुत समय तक यह नदी आर्योंके संसारकी सीमा मानी जाती थी। इसके आगे ब्राह्मण लोग यथेच्छ नहीं आते जाते थे। वैदिक साहित्यमें कोसलके किसी नगरका नाम नहीं आता। शतपथ ब्रा के अनुसार कोसलमें ब्राह्मण सभ्यताका प्रसार कुरु पञ्चालके पश्चात् तथा विदेहसे पहले हुआ । रामायण तथा हिन्दू पराणोंके अनुसार कोसलका राजवंश इक्ष्वाकु नामके राजास चला था। इसी वंशकी शाखाओंने विशाला या वैशाली, मिथिला और कुशीनारामें राज्य किया। कोसलकी तरह विदेहका निर्देश भी प्राचीन वैदिक साहित्य में नहीं है। दोनोंका प्रथम निर्देश शतपथ बाह्मण (१, ४-१-१० ) में मिलता है। उल्लेखोंसे प्रकट होता है कि कोसल और विदेह परस्पर मित्र थे तथा उनमें और कुरु पञ्चालोंमें मत भेद होनेके साथ ही साथ शत्रुता भी थी। विद्वानोंका मत है कि विदेह राज जनक उपनिषदोंके दर्शनका प्रमुख संरक्षक था । उसके समयमें ही विदेहको प्राधान्य मिला। शतपथ ब्रा० (१, १-६-२१ ) में लिखा है कि राजा जनक की भेंट प्रथम बार कुछ ब्राह्मणोंसे हुई। उसने उनसे पूछा-आप अग्नि होत्र कैसे करते हैं ? अन्य ब्राह्मणोंमें से तो किसीका उत्तर ठीक नहीं था। याज्ञवल्क्यका उत्तर यद्यपि पूर्ण ठीक नहीं था Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण १८७ तथापि यथार्थताके विशेष निकट था। जनक यह बात उन ब्राह्मणोंसे कहकर तथा रथमें बैठकर चला गया। ब्राह्मणोंने इसे अपना अपमान समझा । तब याक्षवल्क्यने जाकर शंका निवारण की । तबसे जनक ब्राह्मण होगया । ___इससे प्रकट होता है कि शत० ब्रा० के काल तक वैदिक आर्य विदेह तक ही बढ़ सके थे। दक्षिण बिहार तथा बंगालमें ब्राह्मण धर्मका प्रसार ईस्वी सन् की तीसरी शताब्दीके मध्य तक हो सका था। इस तरह पूर्वीय भारतमें अपनी संस्कृतिको फैलानेमें वैदिक आर्यों को एक हजार वर्ष लगे। यद्यपि वह प्रवेश निश्चय ही उतना विस्तृत नहीं था (भा० इं० पत्रिका जि० १२, पृ० ११३)। ___कोसल और विदेहके साथ काशीको प्राधान्य भी उत्तर वैदिक कालमें मिला । अथर्ववेदमें प्रथम बार काशीका निर्देश मिलता है। काशीका कोशल और विदेह के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध था। काशीके एक राजा धृतराष्ट्रको शतानीक सहस्राजित ने हराया था। वह अश्वमेध यज्ञ करना चाहता था किन्तु शतानीकने उसे हरा दिया। फलस्वरूप काशीवासियोंने यज्ञ करना ही छोड़ दिया। (पो० हि० एं। ई०, पृ. ६२)। काशीराज ब्रह्मदत्त बौद्ध महागोविन्द सुत्तन्तमें भी काशीके राजा धतरट्टका निर्देश है, जो शतपथ० का धृतराष्ट्र ही प्रतीत होता है। उसे महा गोविन्द में भरतराज कहा है। डा० राय चौधुरीने लिखा हैं कि ऐसा प्रतीत होता है कि काशीके भरतवंशका स्थान राजाओंके एक नये वंशने ले लिया, जिनका वंश नाम ब्रह्मदत्त था । श्री Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका हारीत कृष्ण देवने यह सुझाव दिया था कि ब्रह्मदत्त वंशनाम है, किसी राजा विशेषका नाम नहीं है। और डा० डी० आर० भण्डारकर ने भी इस सुझावको मान लिया था। क्योंकि मत्स्य पुराण तथा वायु पुराणमें एक वंशका निर्देश है। जिसमें ब्रह्मदत्त नामके सौ व्यक्ति थे। महाभारत (२-८-२३ ) में भी सौ ब्रह्मदत्तोंका निर्देश है । बौद्ध जातक दुम्मेध' में राजा तथा उसके पुत्र का नाम ब्रह्मदत्त बतलाया है गंगमाला जातकमें स्पष्ट लिखा है कि ब्रह्मदत्त एक वंश परम्परागत उपाधि थी। एक प्रत्येक बुद्धने बनारसके राजा उदयको ब्रह्मदत्त कहकर पुकारा था। (पो० हि० ऐ. इं०, पृ० ६३ )। ब्रह्मदत्त विदेह के थे डा० राय चौधरीने लिखा है कि अनेक बौद्ध जातकोंसे यह प्रकट होता है कि ब्रह्मदत्त मूलतः विदेहके थे। उदाहरणके लिये, मातिपोसक जातकमें काशीके राजा ब्रह्मदत्तके विषयमें लिखा है 'मुत्तोम्हि कासीराजेन विदेहेन यसस्सिना' ति । यहाँ काशीराजको 'विदेह' बतलाया है। इसी तरह सम्बुल जातकमें काशीराज ब्रह्मदत्तके पुत्र युवराज सोट्ठीसेनको 'विदेह पुत्त' कहा है । ( पो० हि० एं० ई० पृ० ६४) । ____उपनिषदोंके कतिपय उल्लेखोंके आधार पर डा० राय चौधुरीका विश्वास है कि विदेह राज्यको उलटनेमें काशीके लोगोंका हाथ था; क्योंकि जनकके समयमें काशीराज अजात १-'शतं वै ब्रह्मदत्तानां वीराणां कुरुवः शताम् Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण १८९ शत्रु विदेहराज जनककी ख्यातिसे चिढ़ता था। वृहदा० उप० (३-८-२) में गार्गी याज्ञवल्क्यसे दो प्रश्न करनेकी अनुज्ञा लेते हुए कहती है 'यथा काश्यो वा वैदेहो वोग्रपुत्र उज्ज्यं धनुरधिज्यं कृत्वा द्वौ बाणवन्तौ सपत्नातिव्याधिनौ हस्ते कृत्वोपोत्तिष्ठेदेवमेवाहं त्वा द्वाभ्यां प्रश्नाभ्यामुपोदस्थाम् ।' 'याज्ञवल्क्य ! जिस प्रकार काशी या विदेहका रहनेवाला कोई उग्रपुत्र प्रत्यश्चाहीन धनुषपर प्रत्यञ्चा चढ़ाकर शत्रुको अत्यन्त पीड़ा देनेवाले दो फलवाले बाण हाथमें लेकर खड़ा होता है उसी प्रकार मैं दो प्रश्न लेकर तुम्हारे सामने उपस्थित होती हूँ।' जनकके उत्तराधिकारी लिच्छवि पाली टीका परमत्थ जोतिका (जि० १, पृ० १५८-६५ ) में लिखा है कि विदेहके जनक वंशका स्थान उन लिच्छवियोंने लिया, जिनका राज्य विदेहका सबसे अधिक शक्तिशाली राज्य था, तथा जो वज्जिगणके सबसे प्रमुख भागीदार थे । ये लिच्छवि काशीकी एक रानीके वंशज थे। इस उल्लेखसे यह प्रकट होता है कि सम्भवतया काशीके राजवंशकी एक शाखाने विदेहमें अपना राज्य स्थापित किया । ( पो. हि० ए० ई०, पृ. ७२ ) ___ इतिहासके जानकार इस बातसे सुपरिचित हैं, जैसा कि हम आगे लिखेंगे, कि विदेहके लिच्छवि वंशको जैन धर्मके अन्तिम तीर्थङ्कर भगवान महावीरको जन्म देनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ था और काशीकी वाराणसी नगरीमें तेईसवें तीर्थङ्कर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका पार्श्वनाथका जन्म हुआ था। अतः इन दोनों राज्योंमें राजनैतिकके साथ धार्मिक सम्बन्ध भी होना संम्भव प्रतीत होता है। लिच्छवि गणतंत्रकी स्थापनाका समय वैदिक कालका निर्धारण करते हुए स्व० डा० रा. दा. बनर्जी ने अपनी 'प्रीहिस्टोरिक इण्डिया' नामक पुस्तक (पृ० ४४ ) में लिखा है 'पुराणोंके अनुसार कुरुवंशी राजा परीक्षित मगधके राजा महापद्मसे १०५० वर्ष पूर्व जन्मा था। वायु पुराणके अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्यारोहणसे ४० वर्ष पूर्व महापद्मने राज्य करना प्रारम्भ किया था। अतः यदि चन्द्रगुप्तका राज्याभिषेक ३२२ ई० में माना जाये तो परीक्षितका राज्याभिषेक ई० पूर्व १४२२ में मानना होगा। पुरुषोंकी साक्षीके अनुसार ईसाकी ५ वीं शतीके मध्यमें भारतमें यह माना जाता था कि परीक्षित ईस्वी पूर्व १५ वीं शतीके अन्तमें मौजूद था। ... वैदिक साहित्यमें कृष्ण, पाण्डव और कौरवोंका निर्देश नहीं है किन्तु परीक्षितका है । अतः परोक्षित कल्पित व्यक्ति नहीं है, वास्तविक हैं। इस परीक्षितको सर्पने डसा था। इसीसे उसके पुत्र जनमेजयने नाग यज्ञ किया था। _ डा० राय चौधुरीने ( पो० हि० ए० ई., पृ० ४३ ) लिखा है-कि विदेहराज जनक और जनमेजयमें पाँच या छ पीढ़ियोंका अन्तर था। अत: जनमेजयके १५० या १८० वर्ष पश्चात् और परीक्षितसे दो शती पश्चात् जनकका होना संभव है। अतः यदि पौराणिक परम्पराके अनुसार हम परीक्षितको ईस्वी पूर्व चौदहवीं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण १६१ शतीमें रखते हैं तो हमें जनकको अवश्यही ईस्वी पूर्व १२ वीं शतीमें रखना होगा । और यदि आश्वलायन और गौतम बुद्धके . साथ गुणाख्य सांख्यायनकी एककालिकताको स्वीकार किया जाये तो हमें परीक्षितको ईस्वी पूर्व नौवीं शतीमें तथा जनकको ईस्वी पूर्व सातवीं शतीमें रखना होगा।' __यह पहले लिखा है कि विदेहके राज्यासनको बदलनेमें काशीका प्रमुख हाथ था और 'परमत्थ जोतिका' के अनुसार जनक राजवंशके पश्चात् विदेहमें लिच्छवियोंका राज्य हुआ, जो काशीकी एक रानीकी सन्तान थे। लिक्छवि राज्यकी स्थापनाका समय अज्ञात है । किन्तु इतना सुनिश्चित है कि ईस्वी पूर्वछठी शतीमें भगवान महावीर और गौतम बुद्धके समयमें विदेहमें लिच्छवि गणतंत्र सुदृढ़ रूपसे स्थापित हो चुका था। बुद्धने स्वयं लिच्छवियों के सम्बन्धमें कहा था'जिन्होंने तावत्तिंस देवता न देखे हों वे लिच्छवियोंको देख लें। लिच्छवियोंका संघ तावतिंश देवताओंका संघ है.....। अतः ईस्वीपूर्व छठी शतीमें विदेहका लिच्छवि गणतंत्र एक बहुत ही शक्तिशाली राज्य था और काशी और कोशल उसके प्रभुत्वको मानते थे। उस गणतंत्रका प्रमुख चेटक था जिसकी सबसे बड़ी पुत्री त्रिशला भगवान महावीरकी जननी थी। तथा सबसे छोटी पुत्री चेलना मगधराज बिम्बसार श्रेणिककी पटरानी तथा अजात शत्रु ( कुणिक ) की जननी थी । अजात शत्रुने ही वैशालीके प्रमुख अपने नाना चेटक पर आक्रमण करके उसे अपने राज्यमें मिला लिया था। (पो हि०ए० इं., पृ०१७१ ) और इस तरह सम्भवतया लिच्छवियोंका गणतंत्र समाप्त हो गया। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका उक्त घटनाओंको देखते हुए यह मानना पड़ता है कि चेटक सुदीर्घकाल तक लिच्छवि गणतंत्रका प्रमुख रहा, किन्तु उससे पूर्व उसका प्रभुत्व कौन था यह अज्ञात वै। श्वे० आगमोंमें महाबीरकी जननी त्रिसलाको चेटककी भगिनी बतलाया है, किन्तु उसके पिताका नाम नहीं दिया। इससे भी स्पष्ट है कि चेटकके पिताका नाम ज्ञात नहीं था। इसका कारण यह भी हो सकता है कि लिच्छवि गणतंत्रका प्रभुत्व होनेसे चेटक अपना विशिष्ट स्थान रखता था, किन्तु उसके पिताको यह सौभाग्य प्राप्त न रहा हो, क्योंकि गणतंत्रमें राजतंत्रकी तरह राज्यासन वंशपरम्परागत नहीं होता। किन्तु चेटकके पूर्व लिच्छवि गणतंत्रका प्रधान कौन था, यह भी अज्ञात है और चेटकसे पूर्व उक्त गणतंत्र स्थापित हो चुका था या नहीं, यह भी निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। प्रचलित मान्यताके अनुसार भगवान महावीरका निर्वाण ५२७ ई० पूर्व में हुआ और उनकी आयु उस समय लगभग ७२ वर्षकी थी। अतः उनका ई० पूर्व ५६६ में जन्म हुआ। अतः ई. पूर्व ६०० में लिच्छवि गणतंत्र अवश्य ही वर्तमान था, क्योंकि श्वे० आगमोंमें महावीरको वैसालिय-वैशालीका तथा उनकी माताको 'विदेहदत्ता' बतलाया है और महावीरके पिता सिद्धार्थ वैशालीके निकटथ कुण्डग्रामके अधिपति ( सामन्त ) थे। उनके साथ चेटकने अपनी भगिनी त्रिशलाका विवाह किया था। संभव है ईस्वी पूर्व सातवीं शतीके लगभग या उससे कुछ पूर्व लिच्छवियोंने जो काशीकी किसी रानीकी सन्तान थे, विदेह Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण १९३ में जनकोंके राजवंशको हटाकर लिच्छवि गणतंत्रकी स्थापना की हो। ___ जैन शास्त्रोंके अनुसार भगवान महावीरके जन्मसे २७८ वर्ष पूर्व भगवान पार्श्वनाथका जन्म काशी नगरीमें हुआ था। यतः महावीर भगवानका जन्म ईस्वी पूर्व ५९८ में हुआ था अतः भगवान पार्श्वनाथका जन्म ईस्वी पूर्व ८७७ में हुआ था। उनकी आयु सौ वर्षकी थी। तीस वर्षकी अवस्थामें उन्होंने प्रव्रज्या धारण की और ईस्वी पूर्व ७७७ में विहार प्रदेशमें स्थित सम्मेद शिखर ( पारसनाथ हिल ) से निर्वाण लाभ किया । ___ डा. राय चौधुरीने (पो० हि० एं० ई०, पृ० १२४ ) लिखा है कि कुम्भकार जातकके उल्लेखानुसार उत्तर पाश्चालका राजा दुम्मुख, कलिंगका राजा करण्डु, गन्धारका राजा नग्गजि ( नग्नजित) और विदेहका राजा नमि ये सब समकालीन थे। जैन उत्तराध्ययन सूत्र में इन सबको जैन धर्मका अनुयायी कहा है। चूंकि पार्श्वनाथको इतिहासज्ञ जैन धर्मका संस्थापक मानते हैं इसलिये डा० राय चौधुरीने इन राजाओंको ७७७ ई० पूर्वसे ५४३ ई० पूर्व तकके समयमें रखा है। यद्यपि उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया है कि उत्तराध्ययनके कथनपर निःशंक विश्वास नहीं किया जा सकता, तथापि उन्होंने यह स्वीकार किया है कि ये सभी राजा भगवान महावीरके पूर्ववर्ती थे, क्योंकि इनमेंसे कुछ का निर्देश एतरेय ब्रा० (७-३४ ) तथा शतपथ० (८, १-४-१०) में भी पाया जाता है। राजा नमिका पुत्र कलार जनक विदेहके जनकवंशका अन्तिम राजा था, मज्झिम निकायके मखादेव जातकसे यह प्रकट होता है। डा. राय चौधुरी (पो० हि एं० ई०, पृ०७१) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका का कथन है कि 'महाभारत ( १२-३०२-७ ) का कलार जनक और मखा देव जातकका कलार जनक एक ही व्यक्ति है ।' कलार जनकके पश्चात् ही विदेहमें वज्जी गणतंत्र स्थापित हुआ होगा। अतः कलार जनकका पिता नमि अवश्य ही भगवान् महावीरका पूर्ववर्ती हुआ। चूंकि उत्तराध्ययनके अनुसार वह जैन था और भगवान महावीरसे पहले जैन धर्मका उपदेश भगवान पार्श्वनाथने किया था, अतः राजा नमि अवश्य ही ईस्वी पूर्व ७७७ के लग भग या उसके पश्चात् होना चाहिये। उसके पश्चात् उसका पुत्र कलार जनक विदेहके राज्यासनपर बैठा । अतः ईस्वी पूर्व सातवीं शतीके लग भग ही विदेहमें लिच्छिवियोंने उसे हटा कर लिच्छवि गणतंत्र की स्थापना की होगी। पार्श्वनाथका वंश और माता पिता - दि० जैन साहित्यके अनुसार पार्श्वनाथ उप्रवंशी थे। किन्तु श्वेताम्बर' साहित्यके अनुसार इक्ष्वाकु वंशी थे। जैन मान्यताके अनुसार ऋषभ देवने वंशोंकी स्थापना की थी। वह स्वयं इक्ष्वाकु वंशी थे तथा उनके द्वारा स्थापित वंशोंमें एक उग्र वंश भी था। इससे उग्रवंश भी इक्ष्वाकु वंशकी ही एक शाखा होना संभव है। सूत्रकृताङ्गमें उग्रों, भोगों, ऐक्ष्वाकों ओर कौरवोंको ज्ञातृवंशी और लिच्छवियोंसे सम्बद्ध बतलाया है। इससे भी काशीके उग्र १-श्रेताम्बर उल्लेखोंके अनुसार भगिनी । ... २-ति० ५०, अ० ४, गा० ५५० । २-श्राभि० रा० में तित्थयर शब्द, पृ० २२६५ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण वंश तथा विदेहके लिच्छवि और ज्ञातृवंशियोंके पारस्परिक सम्बंध का समर्थन होता है ( पो० हि० एं० इ० पृ० ६६ ) । ___ पीछे वृहदा० उप० से गार्गी और याज्ञवलक्यके संवादका एक अंश उध्धृत कर आये हैं। उसमें गार्गी ने काशी और विदेहवासीको उग्रपुत्र कहा है-'काश्यो वा वैदेहो वा उग्रपुत्रः'। यहां 'उग्रपुत्र' अवश्य ही अपना विशेष अर्थ रखता है। उक्त उल्लेखोंके प्रकाशमें उग्र पुत्रका अर्थ उग्रवंशी होना संभव प्रतीत होता है । और चूकि काशी और विदेहके अधिवासी दोनोंको उग्रपुत्र कहा है । अतः काशीके उयों और विदेहके लिच्छवियोंकी एकताका भी इससे समर्थन होता है। ___ कलकत्ता विश्व विद्यालयमें डा० दे० रा. भण्डारकरने ईस्वी पूर्व ६५०-३२५ तकके भारतीय इतिहासपर कुछ भाषण दिये थे। उनमें उन्होंने बतलाया था कि बौद्ध जातकोंमें ब्रह्मदत्तके सिवाय वाराणसीके छ राजा और बतलाये हैं-उग्ग सेन, धनंजय, महासीलव, संयम, विस्ससेन और उदय भद्द। संभव है उग्रसेन या उग्रसेनसे ही काशीमें उग्रवंशी राज्यकी स्थापना हुई हो । विष्णु पुराण और वायु पुराणमें ब्रह्मदत्तके उत्तराधिकारी योगसेन, विश्वकसेन, और झल्लाट बतलाये हैं । डा० भण्डारकर ने पुराणोंके विश्वकसेन और जातकोंके विस्ससेनको तथा पुराणोंके उदकसेन और जातकोंके उदयभद्दको एक ठहराया था। जैन साहित्यमें पार्श्वनाथके पिताका नाम अश्वसेन या अस्स सेण बतलाया है। यह नाम न तो हिन्दू पुराणों में मिलता है और न जातकोंमें मिलता है। किन्तु गत शताब्दीमें रची गई पाश्वनाथ पूजनमें पार्श्वनाथके पिताका नाम विस्ससेन दिया है। यथा-तहां विस्ससेन नरेन्द्र उदार'। हम नहीं कह सकते कि कविके इस Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका उल्लेख का क्या आधार है। फिर भी जातकोंके विस्ससेण और पुराणोंके विश्वकसेनके साथ उसकी एकरूपता संभव है। प्रव्रज्या और उपसर्ग काशीराजके पुत्र क्षत्रिय पार्श्वनाथने तीस वर्षकी अवस्थामें जिन दीक्षा धारण की और तपस्यामें लीन होगये। उनके इस विरागका कारण एक घटना थी । एक दिन वह गंगाके तटपर विचरते थे। वहां कुछ साधु पंचाग्नि तप तपते थे । अग्निमें जलती हुई एक लकड़ीमें पार्श्वनाथने एक नाग युगलको पीड़ित देखा । उनका दयालु चित्त जहां उसके कष्टको अनुभव कर द्रवित हुआ वहां इस अज्ञान मूलक तपको देखकर खेद खिन्न भी हुआ। उन्होंने तुरन्त उस मृतप्राय नाग युगलको बचानेकी चेष्टा की और जीवन रक्षा अशक्य जानकर उसे धर्मोपदेश दिया। उसके प्रभाव से वह नाग युगल धरणेन्द्र और पद्मावती के नामसे नाग जाति के देवताओं का अधिपति हुआ। और पार्श्वनाथने जिन दीक्षा धारण करली। ___ एक बार निग्रन्थ पार्श्वनाथ विचरते बिचरते अहिच्छत्र ( बरेली जिलेमें रामनगरके पास ) पहुँचे और तपस्यामें लीन हो गये। उनके पूर्वजन्मका बैरी एक व्यन्तर देव उधरसे जाता था। उसने अपने बैरीको ध्यानस्थ देखकर घोर उपसर्ग किया। उस समय देवरूपधारी उस नागदम्पतीने आकर पार्श्वनाथकी रक्षा की। उसने सर्पका रूप धारण करके अपना विशाल फण पार्श्वनाथके ऊपर फैला दिया। उसीकी स्मृतिमें पार्श्वनाथकी मूर्तियों पर सर्पका फण बना होता है, और वही पार्श्वनाथका विशिष्ट चिन्ह माना जाता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण १६७ आजके विज्ञान युगके पुरातत्त्वज्ञ' और इतिहासज्ञ पार्श्वनाथके जीवनकी उक्त घटनाको एक पौराणिक रूपकके रूपमें ही ग्रहण करते हैं। अतः उक्त घटनासे वे यह निष्कर्ष निकालते हैं कि पार्श्वनाथके वंशका नागजातिके साथ सौहार्द पूर्ण सम्बन्ध था। पार्श्वनाथने नागोंको विपत्तिसे बचाया इसलिये नागोंने भी समय पर उनकी रक्षा की। ___ महाभारतके आदि पर्वमें जो नागयज्ञकी कथा है उससे सूचित होता है कि वैदिक आर्य नागोंके बैरी थे। नाग जाति असुरोंकी ही एक शाखा थी। और वह असुर जातिकी रीढ़की हड्डीके तुल्य थी। उसके पतनके साथ ही असुरोंका भी पतन हो गया । नागपुर आदि नगर आज भी उसकी स्मृति दिलाते हैं। महाभारतके आदि पर्वमें ही यह भी उल्लेख मिलता है कि नागोंका राजा तक्षक नग्न श्रमण हो गया था। जब नाग लोग गंगाकी घाटीमें बसते थे तो एक नाग राजा के साथ वाराणसीकी राजकुमारीका विवाह हुआ था (ग्लि. पो० हि, पृ. ६५) । अतः वाराणसीके राजघरानेके साथ नागोंका कौटुम्बिक सम्बन्ध भी था। और गंगा की घाटीमें ही (अहिक्षेत्र) तप करते हुए पार्श्वनाथकी उपसर्गसे रक्षा नागोंके अधिपतिने की थी। समकालीन धार्मिक स्थिति पहले लिख आये हैं कि शतपथ ब्राह्मणके कालतक काशी, कोशल और विदेह ब्राह्मण संस्कृतिके प्रभावमें आ चुके थे । १-नागोंने जैन तीर्थङ्करकी संकटसे रक्षाकी और नाग तीर्थङ्करके मित्र थे, ऐसा जैन कथाश्रोंसे मालूम होता हो'-हि° ध० स०, पृ० १३५। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ जै० सा० इ०.पूर्व पीठिका किन्तु उनका पूर्ण ब्राह्मणीकरण नहीं हुआ था ( शत० ब्रा०१,४-११०)। और यह भी लिख आये हैं कि डा० भण्डारकरके मतानुसार दक्षिणी विहार और बंगालमें ब्राह्मणधर्मका प्रसार ईस्वी सन् की तीसरी शतीके मध्य तक हो सका था और इस तरह पूर्वीय भारतमें अपनी संस्कृतिको फैलानेमें वैदिक आर्योंको एक हजार वर्ष लगे थे। इसका यह मतलब हुआ कि ईस्वी पूर्व ७५० से ईस्वी २५० तकके कालमें ब्राह्मण धर्मका प्रसार पूर्वीय भारतमें हो सका। और इसीके प्रारम्भके लगभग शतपथ ब्राह्मणकी रचना हुई थी। वृहदारण्यक उपनिषद् शतपथ ब्राह्मणका अन्तिम भाग माना जाता है । इसीसे आधुनिक विद्वान् उसका रचनाकाल आठवीं-शताब्दी ईस्वी पूर्व मानते हैं। इसी उपनिषद्से गार्गी याज्ञवल्क्यके संवादका एक उद्धरण भी पहले दिया है जिसमें काशी और विदेहका निर्देश है। अतः शतपथ ब्राह्मण तथा वृहदा० उ० अवश्य ही पार्श्वनाथके समयसे पूर्वके नहीं हैं। इन्हीं में हम प्रथम बार तापसों और श्रमणोंसे मिलते हैं। (वृ० उ०, ४-३-२२)। किन्तु उनका नाममात्र ही मिलता है। याज्ञवल्क्य जनकसे आत्माका स्वरूप बतलाते हुए कहते हैं कि इस सुषुप्तावस्थामें श्रमण अश्रमण और तापस अतापस हो जाते हैं। तपका महत्व भी हम ब्राह्मणकालमें ही पाते हैं। शतपथ ब्राह्मणमें तपसे विश्वकी उत्पत्ति बतलाई है। प्रतिदिन अग्नि होत्र करना एक प्रधान कर्म था। इसकी उत्पत्तिकी कथा इस प्रकार बतलाई है-प्रारम्भमें प्रजापति एकाकी था। उसकी अनेक होनेकी इच्छा हुई। उसने तपस्या की। उसके मुखसे अग्नि उत्पन्न हुई। चूकि सब देवताओं में अग्नि प्रथम उत्पन्न हुई इसीसे उसे अग्नि कहते हैं उसका यथार्थनाम 'अग्नि' है। मुखसे उत्पन्न Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण १९९ होनेके कारण अग्निका भक्षक होना स्वाभाविक था किन्तु उस समय पृथ्वीपर कुछ भी नहीं था। अतः प्रजापतिको चिन्ता हुई। तब उसने अपनी वाणीकी आहुति देकर अपनी रक्षा की। जब वह मरा तो अग्निपर रक्खा गया अग्निने केवल उसके शरीरको ही जलाया अतः प्रत्येक व्यक्तिको अग्निहोत्र अवश्य करना चाहिये।' इसी तरह तपसे विश्वकी उत्पत्ति बतलाई है। उक्त कथामें अग्निहोत्रके असम्बद्ध विवरणके साथ आध्यात्मिक विचारोंकी खिचड़ी पकाई गई है। कतिपय ब्राह्मण ग्रन्थों में कुछ स्थलोंमें पुनर्जन्मका निर्देश मिलता है, जो इस बातका सूचक है कि ब्राह्मणकालमें वैदिक आर्य पुनर्जन्मके सिद्धान्तसे परिचित हो चले थे। किन्तु वे अपने वंश परम्परागत अग्निहोत्रको कैसे छोड़ सकते थे अतः उसका उपयोग भो उन्होंने अग्नि होत्रके प्रचारके लिए ही किया। यदि नया जीवन प्राप्त करना चाहते हो तो अग्नि होत्र करो। पहले लिख आये हैं कि वैदिक आर्य यज्ञोंके बड़े प्रेमी थे। उनका सारा जीवन ही यज्ञमय था। और उनके यज्ञका उद्देश्य सांसारिक सुखोंकी प्राप्ति एवं वृद्धि था। वेदोंमें यज्ञका प्रतिपादन था। उनकी यही शिक्षा थी कि अगर हर तरह से सुखी और सम्पन्न रहना चाहते हो तो देवताओंको प्रसन्न करनेके लिये यज्ञ करो। वेदोंके मंत्रयुगके बाद ब्राह्मणोंका युग आया। यज्ञोंकी विधियोंका निर्धारण करना ब्राह्मण ग्रन्थोंका काम था। यद्यपि ब्राह्मणकालमें पुरोहितोंकी शक्ति खूब बढ़ी किन्तु वैदिकधर्मको अवनति भी ब्राह्मण कालसे ही आरम्भ हुई। यद्यपि ब्राह्मणोंमें मरणोत्तर जीवनका निर्देश मिलता है किन्तु पुनर्जन्म और कर्म Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका फलवादका प्रत्यक्ष विबरण नहीं मिलता। यह विवरण हमें उपनिषदोंमें मिलता है। वृहदा०उप०से याज्ञवल्क्य और जरत्कारव आर्तभागके सम्बादका विवरण पीछे दिया जा चुका है। आर्तभाग याज्ञवल्क्यसे कहता है-'याज्ञवल्क्य ! जब इस मृत पुरुषकी वाणी अग्निमें लीन हो जाती है, प्राण वायुमें, चक्षु श्रादित्यमें, मन चन्द्रमामें, श्रोत्र दिशामें, शरीर पृथ्वीमें, हृदयाकाश, भूताकाशमें रोम औषधियोंमें, और केश वनस्पतियोंमें, तथा रक्त और वीर्य जलमें स्थापित हो जाते हैं तब यह पुरुष कहाँ रहता है ?' याज्ञवल्क्य तुरत ही आर्तभागका हाथ पकड़कर यह कहते हुए एकान्तमें चले जाते हैं कि यह प्रश्न जन समुदायमें करनेके योग्य नहीं है। एकान्तमें वे इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि कर्म ही सब कुछ है। पुण्यकर्मसे पुरुष पुण्यवान होता है और पाप कर्मसे पापी होता है।' उस युगमें आत्मा और ब्रह्मकी जिज्ञासा पुरोहित वर्गमें कितनी बलवती थी यह पीछे उपनिषदोंके कुछ उपाख्यानोंके द्वारा बतलाया गया है। इसी युगके आरम्भमें काशीमें पार्श्वनाथने जन्म लेकर भोगका मार्ग छोड़ योगका मार्ग अपनाया था। उस समय वैदिक आर्य भी तपके महत्त्वको मानने लगे थे। किन्तु अपने प्रधान कर्म अग्निहोत्रको छोड़नेमें वे असमर्थ थे। अतः उन्होंने तप और अग्निको संयुक्त करके पश्चाग्नि तपको अंगीकार कर लिया था। ऐसे तापसियोंसे ही पार्श्वनाथकी भेंट गंगाके तटपर हुई थी। पार्श्वनाथका चातुर्याम पार्श्वनाथ श्रमण परम्पराके अनुयायी थे। वैदिक साहित्यमें सर्वप्रथम हम वृहदारण्यक उप० में इन श्रमणोंका निर्देश पाते हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण वाल्मीकि रामायणमें भी श्रमणोंका निर्देश है। जैन साहित्यमें पाँच प्रकारके श्रमण बतलाये हैं-निग्रन्थ, शाक्य, तापस, गौरुक और आजीवक। जैन साधुओंको निग्रन्थ श्रमण कहते हैं। महावीरका निर्देश बौद्ध त्रिपिटिकोंमें निगंठ नाटपुत्त ( निर्ग्रन्थ ज्ञानपुत्र ) रूपसे मिलता है। त्रिपिटकोमें निग्रन्थका उल्लेख बहुधा आया है। उस परसे डा० याकोवीने यह प्रमाणित किया था कि बुद्धसे पहले निग्रन्थ सम्प्रदाय वर्तमान था। अंगुत्तर निकायमें वप्प नामक शाक्यको निग्रन्थका श्रावक वतलाया है। इस निकायकी अट्ठकथामें लिखा है कि वह वप्प बुद्धका चाचा होता था। इसका मतलब यह हुआ कि गौतम बुद्धके जन्मसे पहले अथवा उनकी बाल्यावस्थामें निग्रन्थका धर्म शाक्य देशमें फैला हुआ था । महाबीर स्वामी तो बुद्धके समकालीन थे। अतः उन्होंने तो उस समय तक निग्रन्थ धर्मका प्रचार नहीं किया था। अतः उनसे पूर्व भी निग्रन्थ सम्प्रदाय बर्तमान था ऐसा मानना ही उचित है। आगे इस सम्बन्धमें विस्तारसे प्रकाश डाला जायेगा। ___ महाबीरके पूर्ववर्ती इस निग्रन्थ सम्प्रदायके नेता भगवान पाव नाथ थे। आधुनिक इतिहासज्ञोंके अनुसार वही निग्रन्थ सम्प्रदायके प्रवर्तक थे। पार्श्वनाथके निग्रन्थ सम्प्रदायका क्या रूप था और उन्होंने किस धर्मका उपदेश दिया था, इन बातोंकी पूरी जानकारी कर सकना शक्य नहीं है क्योंकि उनके समयका कोई साहित्य उपलब्ध नहीं है। फिर भी जैन और बौद्ध उल्लेखोंसे इतना अवश्य प्रकट होता है कि पार्श्वनाथने 'चतुर्याम' धर्मका उपदेश दिया था। चतुर्याम इस प्रकार थे-सर्व प्रकारके प्राणघातका त्याग, सब प्रकारके असत्य वचनका त्याग, सर्व प्रकारके अदत्तादान ( बिना दी हुई वस्तुका ग्रहण ) का त्याग Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका और सब प्रकारकी परिग्रहका त्याग। इनको 'याम' कहा है। 'यम्' का अर्थ है दमन करना। चार प्रकारसे आत्म दमनका नाम चातुर्याम था। इन चार यामोंका उद्गम वेदों या उपनिषदोंसे नहीं हुआ। किन्तु वेदोंके पूर्वसे ही इस देशमें रहनेवाले तपस्वी ऋषि मुनियोंके तपोधर्मसे इनका उद्गम हुआ है। (पा. चा०, पृ० १५)। छा० उप० लिखा है कि देवकीपुत्र श्रीकृष्णको आंगिरसऋषिने आत्मयज्ञका व्याख्यान किया था और तप, दान, आर्जव, अहिंसा और सत्यवचनको उसकी दक्षिणा बतलाया था। यह आंगिरस ऋषि कौन थे, कब हुए, यह अज्ञात है। जैन ग्रन्थोंके अनुसार श्रीकृष्णके गुरु तीर्थङ्कर श्री नेमिनाथ थे। श्री कौशाम्बी जीने उसी आधारसे नेमिनाथके आंगिरस ऋषि होनेकी संभावना व्यक्त की थी, किन्तु इस संभावनाके लिये प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं। फिर भी इससे इतना तो स्पष्ट है कि छान्दोग्य उपनिषद् के समय' अहिंसा सत्य, तप, आदि की ध्वनि वैदिक क्षेत्रमें भी १-'सव्वातो पाणातिवायात्रों वेरमणं, एवं मुसावायात्रों वेरमणं, सव्वातों आदिन्नादाणाओं वेरमणं, सव्वाश्रों वहिद्धादाणात्रों वेरमणं । " (स्था०, सू० २६६)। २-वृहदा रण्यक, छान्दोग्य, तैत्तिरीय और कौषीतकी ये चार उपनिषद सब उपनिषदोंमें प्राचीन माने जाते हैं । सब प्राचीन उपनिषद भी एक समय के नहीं हैं, विभिन्न कालोंमें उनकी रचना हुई है । उनमें जो परस्पर विरोधी अनेक बातें मिलती हैं। उनका एक कारण यह भी है । साधारणतया प्राचीन उपनिषदोंको बुद्ध पूर्वका माना जाता Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण गूंजने लगी थी। किन्तु आंगिरसको उसका मूल प्रवर्तक नहीं कहा जा सकता। घोर आंगिरसके सम्बन्धसे केवल इतना ही कहा जा सकता है कि ऐसे भी ऋषि थे जो जीवनमें अहिंसा सत्य आदिके व्यवहारको प्रश्रय देते थे। किन्तु चातुर्यामरूप धर्मके संस्थापक पार्श्वनाथ थे यह एक ऐतिहासिक तथ्य है। उन्होंने अपने इस धर्मका प्रचार सर्व साधारणमें किया और मुनि आर्यिका श्रावक श्राविकाके भेदसे चतुर्विध संघकी स्थापना की। हम आगे बतलायेंगे कि भगवान महावीरके समयमें पार्श्वनाथके अनुयायी मुनि और गृहस्थ वर्तमान थे। पार्श्वनाथके चातुर्याम धर्म तथा उनके प्रचारके सम्बन्धमें श्री कौशाम्बीजीने लिखा है-"पार्श्वनाथने इन यामोंको सार्वजनिक करनेका प्रयत्न किया। उन तथा उनके शिष्योंने लोगोंसे मिलनेवाली भिक्षापर निर्वाह करके सामान्य लोगोंमें इन यामोंकी शिक्षा देनेकी शुरुआत की। और उसका यह परिणाम हुआ कि ब्राह्मणोंके यज्ञयाग लोगोंको अप्रिय होने लगे। महावीर स्वामी, बुद्ध तथा अन्य श्रमणोंने इस दया धर्मके प्रचारको चालू रखा। और इस कारण ब्राह्मणोंकी श्रमणोंपर बिशेषतया जैनों और बौद्धोंपर वक्र दृष्टि हो गई। वास्तवमें है । प्रो० मोक्षमूलरने लिखा है कि समस्त वैदिक साहित्य बौद्ध धर्मके ( ई० पूर्व ५०० ) के लगभग ) पूर्वका है । बहुतसे विद्वानों का कहना है कि प्राचीनतम उपनिषदोंको ईस्वी पूर्व ६०० से पूर्व नहीं रखा जा सकता। डा० विन्टर नीट्स् ने उन्हें ईस्वी पूर्व ७५०-५०० के मध्यमें रखा है। अतः यह प्रायः निश्चित है कि उपनिषद भगवान पार्श्वनाथसे पूर्वके नहीं है । उनके कालसे ही उनका प्रणयन प्रारम्भ हुअा था। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ जै० सा० इ० - पूर्व पीठिका केवल ब्राह्मणोंका विरोध करनेके लिये पार्श्वनाथने इस चतुर्याम धर्मकी स्थापना नहीं की थी। मनुष्य मनुष्यके बीच में वैमनस्य नष्ट होकर समाज में सुख शान्ति लाना इस धर्मका ध्येय था । किन्तु पार्श्वनाथने ऋषि-मुनियों के पाससे अहिंसा ली। उसका क्षेत्र मनुष्य जातिके लिये ही संकुचित करना उनके लिये शक्य न था । जानबूझकर प्राणीकी हत्या करना अनुचित है. ऐसा पार्श्वनाथने प्रतिपादन किया। और उस समयकी परिस्थिति में सामान्य जनताको यह अहिंसा प्यारी लगी; क्योंकि राजा तथा सम्पन्न ब्राह्मण जनतासे खेतीके जानवरोंको जबरदस्ती छीनकर यज्ञभागों में उसका बध कर देते थे ।' ( पा० चा०, पृ० १५-१६) । आगे भगवान पार्श्वनाथ के द्वारा संस्थापित चतुर्याम धर्मके आधार पर ही भगवान महावीरने पञ्च महाव्रतरूप निग्रन्थ मार्गी तथा बुद्धदेव अष्टांग मार्ग की स्थापना की । किन्हीं विद्वानोंका ऐसा मत है कि पार्श्वनाथने केवल आचार रूप धर्मकी ही स्थापनाकी थी. दार्शनिक क्षेत्र में उनकी कोई देन नहीं है । संभवतया उनके इस मतका आधार तत्सम्बन्धी प्रमाणों का अभाव ही है; क्योंकि पार्श्वनाथका आत्मा, निर्वाण आदिको लेकर क्या मत था इसके जाननेका कोई साधन हमारे पास नहीं है । किन्तु पार्श्वनाथ के समय की स्थिति तथा भगवान महावीरके द्वारा प्रवर्तित जैन दर्शनके तत्त्वोंका पर्यवेक्षण करनेसे उक्त मत समीचीन प्रतीत नहीं होता । पार्श्वनाथका समय बड़ी उथल-पुथलका समय था । वह ब्राह्मण युग अन्त और औपनिषद् अथवा वेदान्त युगके आरम्भ का समय था । जहाँ उस समय शतपथ ब्राह्मण जैसे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण २०५ ब्राह्मण ग्रन्थका प्रणयन हुआ वहाँ वृहदारण्यकोपनिषद् के द्वारा उपनिषदों की रचनाका सूत्रपात्र हुआ। ऐसे उथल-पुथल के समय में बिना किसी दार्शनिक भित्तिके केवल चतुर्यामरूपी स्तम्भोंके आधारपर धर्मका प्रसाद नहीं खड़ा किया जा सकता । श्रहिंसा और सर्वस्व त्यागको अपनाकर निग्रन्थ बननेका कोई लक्ष्य तो होना ही चाहिये | आग जलाकर तपस्या करनेको बुरा समझकर भी तपस्याका मार्ग अंगीकार करनेवाले के सामने आत्मा, पुनर्जन्म और मोक्षकी कोई न कोई रूप रेखा अवश्य रही होगी। यह हम पहले लिख आये हैं कि पुनर्जन्मका विचार उस आर्येतर संस्कृतिकी देन है जो ऋग्वेदसे भी प्राचीन है । अतः श्रमण परम्पराके एक प्रमुख स्तम्भका उक्त तत्त्वोंके सम्बन्ध में कोई विचार प्रदर्शित न करना सम्भव प्रतीत नहीं होता । दूसरे, विद्वानोंसे यह बात अज्ञात नहीं है कि बुद्ध आत्मा निर्वाण आदि प्रश्नोंको अव्याकृत कहकर टाल देते थे । दीर्घनिकाय के पासादिक सुत्तमे बुद्धने इस बातका उत्तर दिया है। कि आत्मा आदिके झगड़े में वह क्यों नहीं पड़े। उन्होंने चुन्दसे कहा – 'चुन्द' अन्य सम्प्रदायोंके परिव्राजक यदि पूछें कि इस विषय में श्रमण गौतमने क्यों कुछ नहीं कहा ? तो उन्हें ऐसा कहना चाहिये - आसो ! न तो यह अर्थोपयोगी है, न धर्मोपयोगी इत्यादि । किन्तु भगवान महावीरने इस प्रकार के किसी भी प्रश्नको अव्याकृत कहकर नहीं टाला । इससे यद्यपि महावीरकी बहुदर्शिता और बहुज्ञतापर प्रकाश पड़ता है तथापि ऐसा भी आभास होता है कि आचार विषयक मन्तव्यों की तरह कतिपय दार्शनिक मन्तव्य भी भगवान् महावीरको उत्तराधिकारके रूप में परम्परासे प्राप्त हुए थे । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ जै० सा० इ० पूर्व पीठिका प्राचीन जैन सिद्धान्त ग्रन्थोंकी चर्चा आगे की जायेगी। उनमें अंग और पूर्व नामक सिद्धान्त ग्रन्थ भी थे, जो नष्ट हो गये । पूर्वोके विषयमें ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि वे भगवान् महावीरसे पहलेके थे इसीसे उन्हें पूर्व कहते थे। उन पूर्वांसे ही अंगोंके विकासके भी उल्लेख मिलते हैं। इस परसे डा० याकोवी का मत है कि महावीरके पूर्ववर्ती निन्थोंके वही धार्मिक ग्रन्थ थे। त्रिपिटकसे यह प्रकट है कि भगवान बुद्ध आचारविषयक नियमोंमें आवश्यकतानुसार परिवर्तन करते रहते थे। किन्तु जैनसाहित्यमें भगवान महावीरके सम्बन्धमें इस प्रकारका संकेत तक नहीं मिलता। इससे यह प्रकट होता है कि बुद्धने अपना पन्थ स्थापित किया था जब कि महाबीर उस निम्रन्थ मार्गके एक प्रवर्तक थे जो पाश्व नाथके समयसे चला आता था। अतः निग्रन्थ मार्गकी निश्चित आचार परम्परा तथा विचार परम्परा का कुछ अंश उन्हें अवश्य ही पूर्वागत प्राप्त होना चाहिये । अतः भगवान महाबीर द्वारा प्रवर्तित जैन दर्शनके सिद्धान्त केवल महावीरकी ही देन नहीं है उनमें भगवान पार्श्वनाथकी भी देन है, किन्तु उस देनका विभागीकरण करना शक्य नहीं है। तथापि जैन दर्शनकी प्राचीनताको स्पष्ट करनेके लिये डा० याकोबीके एक लेखके आधार पर यहाँ संक्षिप्त प्रकाश डाला जाता है। भारतीय दर्शनोंमें जैन दर्शनका स्थान हम पहले लिख आये हैं कि प्रोफेसर ड्य सन (Deussen) ने उपनिषदोंको चार समूहोंमें विभाजित किया है। प्रथम Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण समूहमें पाँच उपनिषद् आये हैं-वृहदारण्यक, छान्दोग्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय और कौषीतकी। दूसरे समूहमें कठक, ईश, श्वेताश्वर, मुण्डक और महानारायण आते हैं। और तीसरे समूहमें प्रश्न, मैत्रायणी, और माण्डूक्य आते हैं। यह हम पहले भी लिख आये हैं। श्वेताश्वर उ० में गुण (१-३), प्रधान (१-१०) शब्द तथा सांख्यके अन्य प्रमुख विचार मिलते हैं। उक्त द्वितीय तथा तृतीय समूहके उपनिषदोंमें भी सांख्यके कतिपय मौलिक विचार पाये जाते हैं। अतः डा० याकोवीका मत है कि उपनिषदोंके प्रथम और द्वितीय समूहके मध्यमें सांख्य दर्शनका उदय हुआ है। चूंकि योगदर्शनका निकट सम्बन्ध भी सांख्यके साथ है. इसलिये योगदर्शनका उदय भी उसी समय होना चाहिये । उत्तर कालीन कतिपय उपनिषदोंमें, जिनमें सांख्य सिद्धान्त पाये जाते हैं योगका नाम भी आता है। किन्तु उससे यह स्पष्ट नहीं होता कि वहाँ योग से मतलब योग दर्शन लिया है या योगाभ्यास ? ___ उस युगमें जो मौलिक परिवर्तन हुआ, सांख्य-योगका उदय केवल उसका एक चिन्ह मात्र है. वास्तविक कारण नहीं है । इसका वास्तविक कारण तो आत्माओंके अमरत्वमें विश्वास था, जो उस समय सर्वत्र फैला हुआ था। क्योंकि यह ऐसा सिद्धान्त था, जिसे मृत्युके पश्चात होनेवाले विनाशसे भीत जनताके बहुभागका समर्थन मिलना निश्चित था। आत्माओंके अमरत्वके सिद्धान्तने ही तर्क भूमिमें आकर जड़ तत्त्वकी भिन्नताको प्रदर्शित किया, जिसका प्राचीन उपनिषदोंमें अभाव है। ये दोनों सिद्धान्त प्रारम्भसे ही जैन और सांख्य Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका योग जैसे प्राचीनतम दर्शनोंके मुख्य भाग हैं। वैशेषिक और न्यायदर्शनका उदय तो बहुत बादमें हुआ है और इन दोनोंने भी उक्त दोनों सिद्धान्तोंको अपनेमें स्थान दिया है। बादरायणने ब्रह्मसूत्रमें वेदान्त दर्शनको निबद्ध किया है। यद्यपि यह कहा जाता है कि उन्होंने उपनिषदोंकी शिक्षाको ही व्यवस्थित रूप दिया है, किन्तु ब्रह्मसूत्रमें भी जीवको अनादि और अविनाशी माना है। शंकराचार्यने अपने भाष्यमें भले ही इसके विरुद्ध प्रतिपादन किया है। इसके लिये कलकत्ताके श्री अभयकुमार गुहका 'ब्रह्मसूत्र में जीवात्मा' शीर्षक निबन्ध पठनीय है। ___ कठ और श्वेताश्वर उपनिषदोंमें ब्रह्मसे आत्माओंका पृथक अस्तित्व माना है, यद्यपि दूसरी ओर उनमें दोनोंके ऐक्यका भी समर्थन मिलता है। किन्तु ब्रह्मसूत्र तो उन उपनिषदोंसे भी एक कदम आगे बढ़ गया है । अस्तु, इस तरह स्वतंत्र आत्माओंकी अमरतामें विश्वास ही विचारोंको नया रूप प्रदान करने में मुख्य कारण हुआ है। उसीने वैदिक युगका अन्त किया है। उसीके साथ पुनर्जन्म और कर्मका सिद्धान्त सम्बद्ध है जिनके विषयमें पहले लिख है । अस्तु, ___पहले लिख आये हैं कि जैन और सांख्य योग प्राचीनतम दर्शन हैं जो वैदिक युगके अन्तके साथ ही सम्मुख आते हैं। ये ऊपर बतलाये गये सिद्धान्तोंके, खासकर अमर आत्माओंका बहुत्व और जड़के पृथकत्वके समर्थक हैं। यद्यपि इन्होंने इन विचारोंको अपने-अपने स्वतंत्र ढंगसे विकसित किया है, फिर भी दोनोंमें कहीं-कहीं सादृश्यसा प्रतीत होता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण यहाँ हम विस्तारमें न जाकर संक्षेपमें दो एक मुद्दोंपर प्रकाश डालनेकी चेष्टा करेंगे। जैन और सांख्य-योग इस विषयमें एक मत है कि जड़ ( Maller ) स्थायी है। किन्तु उसकी अवस्थाएं अनिश्चित हैं। सांख्य मतके अनुसार एक प्रधान ही नानारूप होता है, किन्तु जैन धर्मके अनुसार केवल पुद्गल द्रव्य नाना अवस्थाओंमें परिवर्तित होता है-आकाश आदि द्रव्य परिवर्तनशील होते हुए भी अखण्ड और अविनाशी रहते हैं। ___ ऐसा प्रतीत होता है कि जबसे जड़ और चेतनका भेद विचारकोंके अनुभवमें आया तभीसे जड़के विषयमें उक्त मान्यता प्रचलित है। किन्तु उत्तरकालमें उक्त मूल सिद्धान्तमें परिवर्तन होना दृष्टि गोचर होता है । यह परिवर्तन है चार अथवा पांच भूतोंका एक दूसरेसे एकदम भिन्न और स्वतंत्र अस्तित्व माना जाना । यह मत चार्वाकोंका था। चार्वाक सांख्य योगसे अर्वाचीन है। न्याय-वैशेषिकने भी इसी मतको अपनाकर अपने ढंगसे विकसित किया। जैन और सांख्ययोगने इस मतका एक मतसे विरोध किया है, जो इस बातका सूचक है कि भूतवादी मत अर्वाचीन होना चाहिये। जैन पुद्गलको परमाणु रूपमें मानते हैं, किन्तु सांख्य प्रधान या प्रकृतिको व्यापक मानता है। जैनोंके अनुसार परमाणुओंके मेलसे जीव, धर्म द्रव्य, अधर्मद्रव्य, काल और आकाश द्रव्यके सिवाय शेष सब वस्तुएँ उत्पन्न हो सकती हैं। किन्तु सांख्य मतके अनुसार प्रधानमें सत्त्व रज और तम नामके तीन गुण हैं और इन्हींके मेलसे एक प्रधानसे महान् अहंकार आदि पांच तन्मात्रा पर्यन्त तत्त्वोंकी उद्धति १५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका होती है। और उन पाँच तन्मात्राओंसे पांचभूत बनते हैं । अतः मूल सांख्यमत परमाणुवादको नहीं मानता था। किन्तु सांख्य-योग दर्शनके कुछ ग्रन्थकार परमाणु वादको मानते थे ऐसा लगता है। ___ सांख्य कारिकाकी टीकामें गौड़पादने बिना विरोध किये परमाणुवादका कई जगह निर्देश किया है। योगसूत्र ( १.४० ) में भी उसे स्वीकार किया है । उसके भाष्य (१-४०,४३,४४,३-५२. ४-१४ वगैरहमें ) तथा वाचस्पति मिश्रकी टीका (१-४४ ) में भी परमाणुओंका अस्तित्व स्वीकार किया है। इन उल्लेखोंसे प्रमाणित होता है कि परमाणुवाद सिद्धान्त इतना अधिक लोकसम्मत था कि उत्तरकालमें सांख्ययोगने भी उसे स्वीकार कर लिया। अब आत्मतत्त्वको लीजिये आत्मतत्त्वके विषयमें जैन और सांख्ययोग कतिपय मूल बातोंमें सहमत है। आत्माएँ सनातन और अविनाशी हैं, चेतन हैं, किन्तु जड़कर्मोंके कारण, जो अनादि हैं, उनका चैतन्य तिरोहित है। मुक्ति होनेपर कर्मों का अन्त हो जाता है। किन्तु आत्माके आकारके विषयमें जैनोंका अपना एक पृथक मत है जो किसी भी दर्शनमें स्वीकार नहीं किया गया। जैन मानते हैं कि प्रत्येक आत्मा अपने शरीरके बराबर आकारवाला होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि मूलके सांख्य इस विषयमें कोई स्पष्ट मत नहीं रखते थे। क्योंकि योग भाष्य (१-३६ ) में पञ्चशिवका मत उध्धृत किया है जिसमें आत्माको अणुमात्र बतलाया है। जबकि ईश्वरकृष्ण तथा पश्चात्के सभी ग्रन्थकारोंने आत्माको व्यापक लिखा है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण २११ आत्माके कर्मबन्धन और कर्मोसे छुटकारेको लेकर भी सांख्ययोग और जैनमें बहुत भेद है। इसके सिवाय जैन दर्शन मानता है कि पृथिवी, जल, वायु, अग्नि और वनस्पतिमें भी जीव है और उसके केवल एक स्पर्शन इन्द्रिय होती है। सारांश यह है कि जड़ और आत्माको लेकर जैनदर्शन और सांख्य-योगमें इतना सुनिश्चित अन्तर है कि उसे देखते हुए यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि जैनोंने सांख्ययोगसे या सांख्ययोगने जैनोंसे कुछ लिया है। फिर भी सांख्य और जैन दर्शनकी आत्मविषवक कतिपय बातोंमें समानता देखकर जेकोबीका ऐसा अनुमान है कि ये दोनों दर्शन लगभग एक ही कालमें उदित हुए हैं। कौटिल्यके अनुसार उसके समयमें ( ३०० ई० पूर्व ) सांख्ययोग और लोकायत ये ही ब्राह्मण दर्शन वर्तमान थे। अतः अवश्य ही ये कौटिल्यकालसे प्राचीन हुए कहलाये। अब हम भगवान पार्श्वनाथके ऐतिहासिक व्यक्ति होनेके सम्बन्धमें कुछ प्रमाण उपस्थित करेंगे। भगवान पार्श्वनाथकी ऐतिहासिकता न केवल जैन साहित्यसे किन्तु बौद्ध साहित्यसे भी पार्श्व: नाथकी ऐतिहासिकता प्रमाणित होती है। उसके सम्बन्धमें सर्वप्रथम एक बात उल्लेखनीय है। और उसे हम अपनी ओरसे न लिखकर डा० याकोवीके ही शब्दोंको लेकर लिखना उचित समझते हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ जै० ० सा० इ० - पूर्व पीठिका बौद्ध साहित्य के उल्ल खोंके आधारपर बुद्ध से पहले निर्ग्रन्थ सम्प्रदायका अस्तित्व प्रमाणित करते हुए स्व० डा० याकोवीने लिखा है "यदि जैन और बौद्ध सम्प्रदाय एकसा प्राचीन होते, जैसा कि बुद्ध और महावीरकी समकालीनता तथा दोनों को दोनों सम्प्रदायोंका संस्थापक माननेसे अनुमान किया जाता है, तो हमें यह आशा करनी चाहिये थी कि दोनोंने अपने-अपने साहित्य में अपने प्रतिद्वन्दीका अवश्य ही निर्देश किया होगा । किन्तु बात ऐसी नहीं है. बौद्धोंने अपने साहित्य में यहाँ तक कि पिटकों में भी निग्रन्थोंका बहुतायत से निर्देश किया है किन्तु प्राचीन जैन सूत्रोंमें मुझे बौद्धोंका किञ्चित् भी निर्देश नहीं मिला । इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि बौद्ध निर्ग्रन्थ सम्प्रदायको एक प्रमुख सम्प्रदाय मानते थे किन्तु निर्यथ अपने प्रतिद्वन्दियोंकी उपेक्षा तक कर सकते थे । अतः उत्तरकाल में दोनों सम्प्रदायोंके जैसे पारस्परिक सम्बन्ध रहे उसके यह बिल्कुल विपरीत है। और यतः यह दोनों सम्प्रदायोंके समकाल में स्थापित होनेके हमारे अनुमानके भी विरुद्ध है अतः हम इस निर्णय पर पहुँचते हैं कि बुद्धके समय निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय कोई नवीन स्थापित सम्प्रदाय नहीं था । यही मत पिटकों का भी जान पड़ता है क्योंकि हम उनमें इसके विपरीत कोई उल्लेख नहीं पाते । ( इं० एंटि०, जि० ६, पृ० १६० ) । • Jain Educationa International मज्झिम निकायके महासिंहनाद सुत ( पृ० ४८-५० ) में बुद्धने अपने प्रारम्भिक कठोर तपस्वी जीवनका वर्णन करते हुए तपके वे चार प्रकार बतलाये हैं जिनका उन्होंने स्वयं पालन किया था। वे चार तप हैं - तपस्विता, रुक्षता, जुगुप्सा और प्रविविक्तता । तपस्विताका अर्थ है नंगे रहना, हाथमें ही For Personal and Private Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ २१३ भिक्षा भोजन करना, केश दाढ़ीके बालोंको उखाड़ना, कंटकाकीर्ण स्थल पर शयन करना । रूक्षता का अर्थ है - शरीर पर मैल धरण करना या स्नान न करना । अपने मैलको न अपने हाथ से परिमार्जित करना और न दूसरेसे परिमार्जित कराना । जुगुप्साका अर्थ है - जलकी बूंद तक पर दया करना । और प्रविविक्तताका अर्थ है - वनों में अकेले रहना । ये चारों तप निग्रन्थ सम्प्रदाय में आचरित होते थे । भगवान महावीरने स्वयं इनका पालन किया था तथा अपने निग्रन्थोंके लिये भी इनका विधान किया था । किन्तु बुद्धके दीक्षा लेनेके समय महावीर निर्मन्थ सम्प्रदायका प्रवर्तन नहीं हुआ था । अतः अवश्य ही वह निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय महावीर के पूर्वज भगवान पार्श्वनाथका था, जिसके उक्त चार तपोंको बुद्धने धारण किया था, किन्तु पीछे उनका परित्याग कर दिया था । म० नि० के उक्त सुतके कथनसे यह स्पष्ट है । I दि० जैनाचार्य श्री देवसेनने वि० सं० ६६० में पूर्वाचार्य प्रतिपादित गाथाओं का संकलन करते हुए दर्शनसार नामके एक ग्रन्थ रचा था जिसमें अनेक मतोंकी उत्पत्ति बतलाई गई है उसमें बौद्धमतकी उत्पत्ति बतलाते हुए लिखा है कि- 'पार्श्वनाथ' भगवानके तीर्थ में सरयू के पलाश नामक नगर में पिहितास्रव मुनिका शिष्ये बुद्ध कीर्ति मुनि हुआ जो महाश्रुतबड़ा भारी शास्त्रज्ञ था । मछलियोंका आहार करने से वह धारण की १–'सिरिपासणाइतित्थे सरयूतीरे पलासण्यरत्थो । मुणी ॥ ६ ॥ परिभहो । एतं ॥ ७ ॥ पियासवस्स सिस्सो महासुदो बुड्ढकित्ती तिमिपूरणासहि श्रहिगयपव्वज्जाश्रो धरिता पवडियं तेण रतंवरं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका गई प्रव्रज्यासे भ्रष्ट हो गया और उसने रक्ताम्बर धारण करके एकान्त मतकी प्रवृत्ति की। यहाँ बुद्ध कीर्ति बुद्धदेवके लिये ही आया है क्योंकि आगे गाथा १० में उसके मतका प्रदर्शन करते हुए कहा है कि पाप अन्य करता है और फल अन्य भोगता है। यह बौद्ध मतके क्षणिकवादका ही निरूप है। बुद्धको कठोर तपश्चर्यामें कुछ सार प्रतीत नहीं हुआ । इससे उन्होंने उसे छोड़ दिया। यह भी उनके जीवन वृत्तमें मिलता है। बौद्ध वाङमयके प्रकाण्ड पाण्डत और बुद्ध जीवनके विशिष्ट अन्वेषक श्री कौशम्बीने लिखा है कि'निर्ग्रन्थोंके श्रावक वप्प शाक्यके उल्लेखसे प्रकट है कि निग्रन्थोंका चतुर्याम धर्म शाक्यदेश तक प्रचलित था। परन्तु उस देश में निग्रन्थोंके आश्रम होनेका उल्लेख नहीं मिलता। इससे ऐसा लगता है कि निग्रन्थ श्रमण...... शाक्य देश पर्यन्त जाकर अपने धर्मका उपदेश करते थे। शाक्योंमें अलार कालामके श्रावक अधिक थे क्योंकि उसका आश्रम कपिलवस्तु नगर तक में था। गौतम बोधिसत्वने आलारके समाधिमार्गका अभ्यास किया था। और गृहत्याग करने पर तो प्रथम वह आलारके ही आश्रममें गये थे। और उन्होंने उसके योगमार्गका अभ्यास किया था। आलारने उन्हें समाधिके सात चरण सिखाये । उसके पश्चात् गौतम उद्रक रामपुत्रके पास गये और उससे समाधिका आठवाँ चरण सीखा। परन्तु उससे उनका समाधान नहीं हुआ क्योंकि उस समाधिसे मनुष्यके बीचकी कलह नहीं मिट सकती थी। तब बोधिसत्त्व उद्रक रामपुत्रका आश्रम छोड़कर राजगृह आये। वहाँ के श्रमण सम्प्रदायोंमें उन्हें निम्रन्थोंका चातुर्याम संवर विशेष पसन्द आया, क्योंकि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ २१५ वुद्धके द्वारा खोजे गये आर्य अष्टांगिक मार्गका समावेश चतुर्याममें हो जाता है ।' (पा० चा०, पृ० २४ )। सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक् वचन, सम्यक कर्मान्त, सम्यक् आजीव. सम्यक व्यायाम सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि ये बुद्धका आर्य अष्टांगिक मार्ग है। ___ श्री कौशाम्बीने आगे लिखा है कि इनके अवलोकनसे यह स्पष्ट है कि बुद्धने पार्श्वनाथके चार यामोंको पूर्ण रूपसे स्वीकार कर लिया था। उन यामोंमें उन्होंने अलार कालामकी समाधि और स्वयं खोजकर निकाली गई चार आर्य सत्य रूप प्रज्ञाको जोड़ दिया। तथा उन यामोंको तपश्चर्या और आत्मवादसे मुक्त कर दिया, क्योंकि लगातार वर्षों तक तपस्या करने पर उन्हें लगा कि देह दण्डन व्यर्थ ही नहीं उल्टा हानिकारक भी है। बुद्धने तपश्चर्याका परित्याग कर दिया था इससे लोग उन्हें तथा उनके अनुयायि शिष्यों को आराम पसन्द कहते थे। दीर्घ निकायके पासादिक सुत्तमें ( पृ० २५६ ) बुद्ध चुन्दसे कहते है'चुन्द ! ऐसा हो सकता है कि दूसरे मतवाले परिबाजक ऐसा कहें-शाक्यपुत्रीय श्रमण आरामपसन्द हो विहार करते हैं। ...."चुन्द ! ये चार प्रकारकी आरामपसन्दगो अनर्थ युक्त है -- कोई मूर्ख जीवोंका बध करके आनन्दित होता है, प्रसन्न होता है। यह पहली आराम पसन्दगी है १। कोई चोरी करके आनन्दित होता है यह दूसरी राम पसन्दगी है २ । कोई झूठ बोलकर प्रसन्न होता है यह तीसरी आराम पसन्दगी है। कोई पांचो भोगोंका सेवन करके आनन्दित होता है ये चौथी आराम पसन्दगी है ४ । ये चारों सुखोपभोग निकृष्ट हैं । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका हो सकता है चुन्द ! दूसरे मतवाले साधु ऐसा कहें - इन चार सुखोपभोग आराम पसन्दगीसे युक्त हो शाक्यपुत्रीय श्रमण विहार करते हैं। उन्हें कहना चाहिये-ऐसी बात नहीं है। उनके विषयमें ऐसा मत कहो, उन पर झूठा दोषारोपण न करो । इससे स्पष्ट है कि बुद्धके मतमें चार यामोंका पालन करना ही तपश्चर्या मानी जाती थीं । अतः बुद्धने पार्श्वनाथके चातुर्याम धर्म: को स्वीकार किया था। ___ डा. याकोवीने 'महाबीर और उनके पूर्वज' शीर्षक अपने एक लेख में लिखा है कि छै तीथिकोंके सम्बन्धमें 'जेम्स डी अलविस (James D -Alvis' ) ने अपने एक निबन्धमें लिखा था कि ऐसा प्रकट होता है कि 'दिगम्बर' साधुओंका एक प्राचीन सम्प्रदाय माना जाता था । तथा ये सभी विपक्षी तीर्थिक अपने सिद्धान्तोंमें अथवा धार्मिक क्रियाओंमें जैन धर्मके प्रभावको अपनाये हुए थे -गोशाल मक्खलिपुत्र नंगा रहता था, पूरण काश्यपने यह सोचकर कि दिगम्बर रहनेसे मेरी विशेष प्रतिष्ठा रहेगी, वस्त्र धारण करना स्वीकार नहीं किया। अजितकेश कम्वली वृक्षोंमें जीव मानता था और जो वृक्ष काटता था उसे दोषी करार देता था। प्रक्रुद्ध कात्यायन पानी में जीव मानता था। इस तरह उस समयके चार तोर्थिक जैन धर्मके सिद्धान्तोंसे प्रभावित थे । इससे प्रकट होता है कि महावीरके समय जैनाचार और विचार अवश्य ही प्रवर्तित थे। अतः निग्रन्थ महावीर से बहुत पहलेसे चले आते थे । ( इन्डि० एण्टि. जि०६)। बौद्ध त्रिपिटिकसे यह प्रकट है कि बुद्धके समय भारतवर्षमें श्रमणोंके कोई ६३ सम्प्रदाय विद्यमान थे। जिनमें से छै बहुत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ २१७ ही प्रमुख थे। इन प्रमुख छै सम्प्रदायोंके प्राचार्थ थे-पूरण काश्यप मक्खलि गोसाल, अजित केसकम्बल, प्रकुध कात्यायन, निगंठ नाथपुत्त ( महावीर ), और संजय बेलट्टिपुत्त । दीर्घ निकायके सामञ्जफलसुत्त ( पृ० २१) में इन छहोंका मत प्रतिपादित है। उसमें निगंठ नाथपुत्तको चतुर्याम संवरवादी कहा है। वे चार संबर इस प्रकार बतलाये हैं-१-निगंठ (निग्रन्थ ) जलके व्यवहारका वारण करता है (जिसमें जलके जीव न मरें)। २-सभी पापोंका वारण करता है। ३-सभी पापोंका वारण करनेसे धुतपाप होता है। ४-सभी पापोंके वारणमें लगा रहता है। ___ इसी तरह म०नि० ( पृ० २२५ ) में उपालि गृहपतिसे वातीलाप करते हुए गौतम बुद्धने कहा है- गृहपति ! यहाँ एक चातुर्याम संवरसे संवृत ( गोपित-रक्षित) सब वारिसे निवारित, सव वारि ( वारितों) को निवारण करनेमें तत्पर सब ( पाप-) वारिसे धुला हुआ, सब (पाप) वारिसे छूटा हुआ निग्रन्थ है।' यद्यपि निम्रन्थ साधु जो आज जैन कहलाते हैं शीत जलका व्यवहार नहीं करते और सब पापोंका वारण करनेमें भी तत्पर रहते हैं किन्तु इन बातोंको चतुर्यामोंमें कहीं भी नहीं गिनाया। अतः उक्त बौद्ध उल्लेख अवश्य ही भ्रान्त है। किन्तु इस भ्रान्तिमें ही पार्श्वनाथकी ऐतिहासिकताके बीज श्री याकोबीने देखें। उन्होंने लिखा है-'निश्चय ही यह जैन मान्यताका यथार्थ वर्णन नहीं है यद्यपि उसमें और जैन मान्यतामें कुछ विरोध भी नहीं है। जैसा कि मैंने अन्यत्र स्पष्ट किया है मेरे विचारसे 'चातुर्याम Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ जै० सा० इ.-पूर्व पीठिका संवर संवुतो' को समझने में बौद्ध टीकाकारने ही भूल नहीं की किन्तु मूल ग्रन्थकारने भी भूल की है क्योंकि पालीशब्द चातुर्याम और प्राकृतशब्द चातुज्जाम तुल्सा हैं। चातुज्जाम एक प्रसिद्ध जैन पारिभाषिक शब्द है जो महावीरके पांच महाव्रतोंके स्थानमें पार्श्व के चार व्रतोंको बतलाता है। अतः मेरा अनुमान है कि उस सिद्धान्तको, जो वास्तवमें महावीरके पूर्वज पार्श्वनाथका था, महावीरका बतलानेमें भूल की है। यह भूल महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यदि बौद्धोंने पार्श्व के अनुयायियोंसे उक्त चातुर्याम को न सुना होता तो निर्गन्थ सम्प्रदायके निर्देशकके रूपमें वे उसका प्रयोग न करते। तथा यदि बुद्धके समयमें महावीरके किये गये सुधारोंको सब निग्रन्थोंने स्वीकार कर लिया होता तो भी बौद्धोंने 'चातुर्याम संवर संवुतों' का प्रयोग न किया होता। अतः बौद्धोंकी बड़ी भूलको मैं इस जैन कथनकी कि महावीरके समय में पार्श्व के अनुयायी वर्तमान थे-सत्यताके प्रमाण रूपमें पाता हूँ ( से० बु० ई०, जि० ४५, प्रस्ता० पृ० २१) इस तरह बौद्ध त्रिपिटकोंके उल्लेखोंसे यह प्रमाणित होता है कि बुद्धके बाल्यकाल में भी निर्ग्रन्थ श्रावक वर्तमान थे तथा बुद्ध पार्श्वनाथके चतुर्यामसे न केवल परिचित थे किन्तु उन्होंने उसे ही विकसित करके अपने अष्टांगिक मार्गका निर्धारण किया था। और उनके समयमें पार्श्वनाथके अनुयायी निग्रन्थ वर्तमान थे। ___ अब हम जैन साहित्यसे इस सम्बन्धमें कुछ प्रमाण उपस्थित करेंगे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ कतिपय जैनउल्लेख उत्तराध्ययन सूत्रके २३ व अध्ययनका केशी गौतम संवाद भी इस सम्बन्धमें उल्लेखनीय है । उसमें लिखा है संबुद्धप्पा य सव्वण्णु तस्य लोगप्पदीवस्स केसी कुमारसमणे, १ - जिणे पासेति णामेणं, रहा, लोग पूइए । धम्मतित्थयरे जिणे ॥ १ ॥ सि सीसे महायसे । विजाचरणनारगे ॥ २ ॥ सीसघाउले | बुद्ध, सावत्थि पुरिमागए ॥ ३॥ हिना सुए गामाशुगामं रीयंते, तेंदुयं नाम उज्जाणं, तम्मी नगरमंडले । फासुए सेज्जसंथारे, तत्थवासमुवागए ॥ ४ ॥ ग्रह तेणेव कालेणं धम्मतित्थयरे जिणे । भगवं वद्धमाणुति, सव्वलोगम्भि विस्तुए ॥ ५ ॥ तस्स लोगपईवस्स श्रासि सीसे महायसे । भयवं गोयमे नाम, विज्जाचरणपारगे ॥ ६॥ सीससंघसमाउले | वारस गविबुद्धे गामाशुगामं रीयंते से विसावत्थी मागए ॥ ७ ॥ कोट्टगं गाम उज्जाणं तम्मि नयरमंडले । फासुए सिज्जसंथारे, तत्थ वासमुवागए ॥ ८ ॥ X X सीसारणं विन्नाय ग्रह ते तत्थ *...जे कुलमवेक्खंतो, तेंदुयं पुच्छामि ते महाभाग ! केसी प्रवितक्कयं । वणमागो ॥ १५ ॥ गोममव्ववी | इणमव्ववीं ।। २२ ।। "तो केसी श्रणुन्नार, गोयमं Jain Educationa International २१९ X For Personal and Private Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० जै० सा० इ० पूर्व पीठिका “पार्श्वनाथके एक महायशस्वी शिष्य श्रमण केशीकुमार थे, जो ज्ञान और चरित्रके पारगामी थे। वे अपने शिष्योंके साथ ग्राम ग्राम भ्रमण करते हुए श्रावस्ती नगरीमें आये और वहाँ तिण्डुक नामक उद्यानमें ठहरे ॥ उसी समय सर्वलोकमें विश्रुत धर्म तीर्थकर भगवान महावीरके शिष्य, द्वादशांगवेत्ता महायशस्वी भगवान गौतम भी ग्राम-ग्राममें विचरण करते हुए अपने शिष्यसंघके साथ श्रावस्ती नगरीमें पधारे और कोष्ठक नामक उद्यानमें ठहरे। दोनोंके गुणवान् संयमी और तपस्वी शिष्योंको यह चिन्ता (विचार) उत्पन्न हुई कि यह धर्म कैसा है और वह धर्म कैसा है ? महा मुनि पावने चातुर्याम और सान्तरोत्तर धर्मका कथन किया और महावीरने पञ्चशिता रूप तथा अचेलक धर्मका कथन किया। एक ही मोक्षरूपी कार्यके लिये प्रवृत्त इन दोनों धर्मों में भेदका क्या कारण है ? अपने-अपने शिष्योंके इस वितर्कको जानकर केशी गौतमने परस्परमें मिलनेका विचार किया। 'विनयके ममज्ञ गौतम केशीको ज्येष्ठकुल (पार्श्वनाथके शिष्य होनेसे ) का मानकर अपने शिष्य संघके साथ तैन्दुक चाउज्जामो य जो धम्मो, जो इमो पंचसिक्खियो। देसिनो वद्धमाणे पासेण य महामुणी ।। २३ ॥ एककज्जपवण्णाणं, विसेसे किं नु कारणं ? धम्मे दुविहे मेहावी ! कहं विप्पच्चों न ते ॥ २४ ॥ तो केसि बुवंतं तु, गोयमो इणमवन्वी । पन्ना समिक्खए धम्मतत्तं तत्तविणिच्छियं ॥ २५ ॥ पुरिमा उज्जुजडा उ, वक जड्डा य पच्छिमा । मज्झिमा उज्जुपन्ना उ तेण धम्मो दुहा कए ॥ २६ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पाश्वनाथ २२१ उद्यानमें गये । गौतमको आता देख श्रमण केशीकुमारने उनका यथोचित समादर किया और बैठने के लिये प्रासुक तृणोंका आसन प्रदान किया । तब केशीने गौतमसे पूछा-हे महाभाग ! महामुनि पार्श्वने चातुर्याम धर्मका और वर्धमानने पञ्च शिक्षारूप धर्मका उपदेश किया। एक ही कार्यके लिये प्रवृत्त धर्ममें भेदका कारण क्या है ? केशीका प्रश्न सुन कर गौतम बोले-धर्म तत्त्वकी समीक्षा बुद्धि पर निर्भर है। ऋषभ देव के शिष्य ऋजु जड़ थे और महावीरके शिष्य वक्र जड़ हैं । किन्तु बीचके बाईस तीर्थङ्करोंके तीर्थमें होने वाले शिष्य ऋजु और समझदार थे। इसीलिये धर्ममें भेद पड़ा।" केशी गौतम संवादसे यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि भगवान महावीरके समयमें भी पार्श्वनाथके अनुयायी श्रमण संघ मौजूद थे। अतः बौद्धोंने जो निम्रन्थके लिये चतुर्याम संवरसे संवृत बतलाया है वह भी अवश्य ही इस बातका सूचक है कि बुद्धकालमें पार्श्वनाथके अनुयायी निम्रन्थ मौजूद थे। श्वेताम्बरीय जैनागमोंमें ऐसे अनेक व्यक्तियोंका निर्देश है जिन्हें 'पासावच्चिज्ज' कहा गया है। इसका संस्कृतरूप पाश्वातत्यीय होता है। टीकाकारों ने इसका अर्थ 'पार्श्व स्वामीके १-प्रो० दलसुख मालवाणियाने उनकी संख्या ५१० बतलाई है उनमेंसे ५०३ साधु थे। देखो-जैनप्र० का उत्थान महावीराङ्क पृ० ४७ । ___२-'पापित्यस्य-पार्श्वस्वामिशिष्यस्य अपत्यं-शिष्यः पावापत्यीयः' ( सू० २-७ ) । 'पापित्यानां-पार्श्वजिनशिष्याणामयं पावपित्यीयः ( भग० १-६)। पार्श्वनाथशिष्यशिष्ये ( स्था० ६)। चातुर्यामिक साधौ ( भग० १५)। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका शिष्यके शिष्य' किया है। भगवती (१५) की टीकामें पाात्यीयका अर्थ करते हुए चातुर्यामिक साधु भी किया है। आचा०१ सू० ( २~१५-१५ ) में भगवान महाबीरके पिता सिद्धार्थको पार्थापत्यीय श्रमणोपासक और माता त्रिशलाको पार्थापत्यीय श्रमणोपासिका लिखा है। ___ इन पापित्यीयोंके सम्बन्धमें आगे और भी विशेष प्रकाश डाला जायेगा। यहाँ तो केवल यही बतलाने के लिये उनका उल्लेख मात्र किया गया है कि पार्श्वनाथ वास्तवमें एक ऐतिहासिक व्यक्ति थे। भगवान महावीर भगवान पार्श्वनाथकी ऐतिहासिकताके आधारोंपर प्रकाश डालनेके पश्चात् हम भगवान महावीरकी ओर आते हैं। निगंठ नाटपुत्त और वर्धमान महावीरका ऐक्य सबसे प्रथम इस शंकाका निवारण करना आवश्यक है कि बौद्ध पिटकोंमें निर्दिष्ठ निगंठ नाटपुत्त हो जैनोंके अन्तिम तीर्थङ्कर महाबीर हैं इसमें क्या प्रम ण है ? निगंठ नाटपुत्त निर्ग्रन्थोंके बड़े भारी संघके अधिपति थे यह बौद्ध पिटकोंके उल्लेखोंसे स्पष्ट है। अतः निर्ग्रन्थ साधु होनेके कारण उन्हें निगंठ (निग्रन्थ ) कहा गया है और निग्रन्थोंके आचार विचारके विषयमें जो कुछ बौद्ध साहित्यमें कहा गया है वह भी बहुत कुछ अंशोंमें जैन साधु के आचारसे भिन्न नहीं है। अतः आज जो जैन सम्प्रदायके १-महावीरस्स अम्मा पियरो पासावच्चिजा । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर २.३ नामसे ख्यात है बुद्धके समयमें उसे निर्ग्रन्थ कहते थे। इसमें सन्देहका कोई कारण नहीं प्रतीत होता। दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों इस बातसे सहमत हैं कि महावीर कुण्डपुर या कुण्ड ग्रामके राजा सिद्धार्थके पुत्र थे। और सिद्धार्थ दिगम्बरीय उल्लेखोंके अनुसार णाह वंश या नाथ वंशके क्षत्रिय थे और श्वेताम्बरीय' उल्ले खोंके अनुसार णाय कुलके थे । इसीसे महावीरको रणायकुलचन्द और णायपुत्त कहा है। णाह, णाय, णात ये सब शब्द एक ही अर्थके वाचक हैं। इसीसे बुद्धचर्या में श्री राहुलजीने नाटपुत्तका अर्थ- ज्ञातृपुत्र और नाथ पुत्र दोनों किया है। अतः दिगम्बरोंके अनुसार महाबीर नाथपुत्र थे तो श्वेताम्बरोंके अनुसार ज्ञातृपुत्र थे। अतः बौद्ध ग्रन्थोंमें निर्दिष्ट णाटपुत्त अवश्य ही जैन तीर्थङ्कर महाबीर हैं। उस समय जाति और देशके आधारपर इस तरहके नामोंके व्यवहार करनेका चलन था। जैसे बुद्धको शाक्यपुत्र कहा है क्योंकि वह शाक्य वंशके थे और उनका जन्म शाक्य देश ( कपिलवस्तु ) में हुआ था। इसीसे उनके अनुयायी श्रमण शाक्यपुत्रीय श्रमण ( बु० च०, पृ. ५५१ ) कहे जाते थे। इसी तरह महाबीर भी अपनी जाति तथा वंशके आधार पर १-कुण्डपुरपुरवरिस्सरसिद्धत्थक्खत्तियस्स णाहकुले । तिसिलाए देवीए देवीसदसेवमाणाए ॥ २३ ॥ -ज. घ०, भा० १, पृ० ७८ 'णाहोग्गवंसेसु वि वीर पासा' ॥ ५५० ॥ ति० प०, अ० ४ । 'उग्रनाथौ पार्श्ववीरौ'-दशभ०, पृ० २४८ । २–णातपुत्ते महावीरे एवमाह जिणुत्तमें'-सूत्र० १ श्रु १, १०, १ उ० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका णाटपुत्त कहे जाते थे। और उनके अनुयायी निग्रन्थ 'नाथ' पुत्रीय निर्गठ' (बु० च०, पृ०४८१) कहे जाते थे। १-श्री बेबरने अपनी पुस्तिका 'इन्डियन सेक्ट आफ दी जैनास्' में इस विषयपर प्रकाश डालते हुए लिखा है "बौद्ध त्रिपिटकोंका सिंहली संस्करण सबसे प्राचीन माना जाता है । ईस्वी पूर्व तीसरी शतीमें उसको अन्तिम रूप दिया गया ऐसा विद्वानोंका मत है। उसमें निगंठोंका एक विरोधी साधु सम्प्रदायके रूपमें बहुतायत से उल्लेख मिलता है। तथा संस्कृतमें लिखे गये उत्तरीय बौद्ध साहित्यमें निर्ग्रन्थोंको बुद्धका प्रतिद्वन्दी बतलाया है । उन निगंठों या निन्थोंके प्रमुखका नाम पालीमें नाटपुत्त और संस्कृत में शातिपुत्र दिया है। जिसका अर्थ होता है 'नाट अथवा ज्ञाति का पुत्र ।' वर्धमानने जिस वंशमें जन्म लिया था, उसका नाम ज्ञाति, ज्ञात या नाथ था। अतः बौद्ध ग्रन्थों में पाये जानेवाले नाट या ज्ञाति शब्दके साथ महावीरके वंशके नामकी समानता प्रत्यक्ष है। और चूकि प्राचीन बौद्ध साहित्यमें किसी ब्यक्तिके नामके स्थान में जिस वंशमें उसका जन्म हुआ है उसके पुत्रके रूपमें उसका उल्लेख करनेकी परम्परा प्रचलित थी, जैसे बुद्ध के लिए शाक्य पुत्र और उसके अनुयायी साधुओंके लिये 'शाक्य पुत्रीय श्रमण' शब्दोंका प्रयोग पाया जाता है । अतः यह अनुमान करनेमें कोई कठिनाई नहीं है कि निगंठों या निग्रन्थोंके प्रमुख नाटपुत्त या ज्ञातिपुत्र और ज्ञात वंशके उत्तराधिकारी तथा निर्ग्रन्थ अथवा जैन सम्प्रदायके अन्तिम तीर्थङ्कर वर्धमान एक ही व्यक्ति हैं। यदि हम इस विचारका अनुसरण करते हुए बौद्धोंके बुद्धके विरोधियोंसे सम्बन्ध रखनेवाली विभिन्न चर्चाोंको एकत्र करें तो यह स्पष्ट है कि वर्धमान के साथ निगंठ नाट पुत्तकी एकता सुनिश्चित है । ( इ० से० जै०, पृ. २६) ---------... नाटपुत्त के जीवन और व्यक्तित्वके सम्बन्धमें बौद्धोंकी चर्चा और भी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर २२५ इसके सिवाय म० नि० ( सागगामसुत्त ) में निग्रन्थ ज्ञातपुत्रका मरण भी पावामें बतलाया है जैसा कि जैन परम्परामें महाबीरका निर्वाण बतलाया है। यद्यपि बौद्ध साहित्यकी पावा जैन पाव' से भिन्न है, तथापि नाम साम्यसे व्यक्तिके ऐक्यका ही समर्थन होता है। जन्म स्थान भगवान महाबीरका जन्म कुण्डपुर या कुण्डग्राममें हुआ था। यह दोनों सम्प्रदायोंको मान्य हैं। किन्तु कुण्डपुर या कुण्डग्राम कहाँ था, इसमें विप्रतिपत्ति है। साधारणतया ऐसा माना जाता है कि कुण्डपुर एक बड़ा नगर था और सिद्धार्थ एक शक्तिशाली राजा थे। किन्तु आचा० सू० (२ श्रु०, ३ चू०, सू० ३६६ ) में कुण्डग्रामको एक सनिवेश कहा है। उसके अनुसार कुण्डपुर नामके दो सन्निवेश थे एक माहण कुण्डपुर और दूसरा खत्तियकुण्डपुर । अर्थात् एक कुण्डपुर ब्राह्मणोंका था और एक क्षत्रियों का था। माहण उल्लेखनीय है । वे बारम्बार कहते हैं कि निगंठ नाट पुत्त अपनेका अर्हत् कहते हैं और सर्वज्ञ होनेका दावा करते हैं । जैन वर्धमानको अर्हत् और सर्वज्ञ मानते ही हैं। धर्म परिवर्तनका इतिहास हमें बतलाता है कि नाटपुत्त और उनके शिष्य निग्रन्थ अपने शरीर को ढांकनेसे घृणा करते थे। वर्धमानके विषयमें भी हमसे ऐसा ही कहा जाता है ।......."अतः जैनोंका वर्धमान नाटपुत्त बुद्ध के प्रतिद्वन्दीके सिवाय दूसरा नहीं है । बौद्ध त्रिपिटकों तथा अन्य बौद्ध साहित्यके विवरणोंसे प्रकट होता है कि बुद्ध का यह प्रतिद्वन्दी बड़ा प्रभावशाली श्रतएव बड़ा खतरनाक था। तथा बुद्ध के समयमें ही उसका धर्म काफ़ी फैल चुका था । ( इ० से० जै०, पृ० ३६ )। १५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका कुण्डपुर दक्षिणकी ओर था और क्षत्रिय कुण्डपुर उत्तर की ओर। सन्निवेशका अर्थ-नगरके बाहरका प्रदेश, पड़ाव, और ग्राम नगर आदि स्थान भी है। ( पा० स० म० में 'सन्निवेश' शब्द )। इससे कुण्डपुर कोई महत्त्वका स्वतंत्र नगर प्रतीत नहीं होता। ___ संस्कृत' निर्वाण भक्तिमें, जिसे पूज्यपादकृत माना जाता है, 'विदेह कुण्डपुरे' लिखकर कुण्डपुरको विदेहमें बतलाया है। उस समय विदेह देशकी राजधानी वैशाली थी, और भगवान महाबीरकी जननी विदेहके लिच्छवि गणतंत्रके प्रमुख राजा चेटककी पुत्री थी। आचा० सू० (२-३-४००) में भगवानकी जननीके तीन नाम दिये हैं-तिसला, विदेह दिन्ना और पियकारिणी। इनमेंसे दिगम्बर परम्परामें दो नाम प्रचलित हैं त्रिसला और प्रियकारिणी। तीसरा नाम 'विदेहदिन्ना' विदेह देशकी होनेके कारण दिया गया है । अतः स्पष्ट है कि क्षत्रियाणी त्रिशला विदेह देश की थी। १-कुडपुरपुर वरिस्सर सिद्धत्थक्खत्तियस्स णाहकुले । तिसिलाए देवीए देवीसदसेवमाणाए ॥ २३ ।। अच्छित्ता णवमासे अट्ठयदिवसे चइत्त-सियपक्खे । तेरसिए रत्तीए जादुत्तरफग्गुणीए दु ॥ २४ ।। -जय० ध०, १ भा०, पृ० ७८ । २-"सिद्धार्थनृपतितनयो भारतवास्ये विदेहकुण्डपुरे । देव्यां प्रियकारिण्यां सुस्वप्नान् संप्रदयं विभुः ॥ ४॥" 'भरतेस्मिन् विदेहाख्ये विषये भवनाङ्गणे ॥ २५१ ॥ राज्ञः कुण्डपुरेशस्य वसुधारापतत्प्रथुः"॥२५२॥ उत्तरपु०, पर्व ७४ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर २२७ इसी तरह भगवान महावीरको 'नाए नायपुत्ते नायकुलनिव्वत्ते विदेहे विदेहजच्चे विदेह सूमाले तीसं वासाइं विदेहं सित्ति कट्ट, अगारमझे वसित्ता' (आचा० सू० २-३-४०२ सू०) इत्यादि लिखा है। जिसका आशय है कि भगवान महाबीर नाथ या ज्ञात. कुलके और विदेह देश के थे। .. किन्तु सूत्रकृताङ्ग' में भगवान महावीरको वैसालिय ( वैशालिक) कहा है। परन्तु श्वे० अंग ग्रन्थोंके प्रसिद्ध टीकाकार शीलाङ्कको भी 'वैशालिक' शब्दका ठीक-ठीक अर्थ ज्ञात नहीं था, ऐसा प्रतीत होता है। उन्होंने एक श्लोक उद्धृत करके भगवानको वैशालिक कहने में तीन हेतु दिये हैं-'उनकी माता विशाला' थी, वे विशाल कुलमें उत्पन्न हुए थे, तथा उनके वचन भी विशाल थे। इसलिये उन्हें वैशालिक कहते थे।' इसके सम्बन्धमें डा० याकोवीने (से० बु० ई०, जि० २२ की प्रस्ता०, पृ० ११) में लिखा है-'यह मतिभेद प्रमाणित करता है कि वैशालिक शब्दके वास्तविक अर्थक विषयमें कोई प्रामाणिक परम्परा नहीं थी। अतः उत्तरकालीन जैनोंने 'वैशालिक' का जो बनावटी अर्थ किया, उसकी पूर्ण उपेक्षा करना न्याय्य ही १-अरहा नायधुत्ते भगवं वेसालिए वियाहिए ॥ २२ ॥ -सू० १ श्रु०; २ अ, ३ उ० । २-'अर्हन् सुरेन्द्रादिपूजा) ज्ञातपुत्रो बर्द्धमान स्वामी ऋषभ स्वामी वा भगवान् ऐश्वर्यादिगुणयुक्तो विशाल्यां नगयों वर्धमानोऽस्माकमाख्यातवान् । ऋषभस्वामी वा विशालकुलोद्भवत्वाद् वैशालिकः । तथा चोक्तम्-विशाला जननी यस्य विशालं कुलमेव वा । विशालं वचनं चास्य तेन वैशालिको जिनः।'--सूत्र० १ श्रु०, २ अ०, ३ उ०, २२ सूत्र । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका है। 'वैशालिक' का अर्थ स्पष्ट रूपसे 'वैशालीका वासी' होता है। और जब कुण्डग्राम वैशालीका बाह्य भाग था तो महाबीरको वैशालिक कहना उचित ही है।' कुण्डग्राम वैशालीका ही एक वाह्य भाग था इसके समर्थनमें डा० याकोबीने बौद्ध साहित्यके आधारसे एक उपपत्ति दी है जो इस प्रकार है 'बौद्ध ग्रन्थ महावग्गमें हम पढ़ते हैं कि जब बुद्ध 'कोटिग्गाम' में थे तो निकटवर्ती राजधानी वैशालीके लिच्छवि और गणिका अम्बपाली उनके दर्शनार्थ आये थे। कोटिगगामसे वे नातिकाओंके निवासस्थानपर गये। वहाँ वे नातिका भवनमें ठहरे। नातिका भवनके निकट गणिका अम्बपालीका आम्रपालीबन' नामक उद्यान था। नातिकासे बुद्ध वैशाली गये जहाँ उन्होंने निग्रन्थोंके गृहस्थ शिष्य सेनापति सिंहको बौद्ध धर्ममें दीक्षित किया। अतः यह बहुत कुछ सम्भव है कि बौद्धोंका कोटिग्गाम ही जैनोंका कुण्डग्राम हो। नामोंकी समानताके सिवाय नातिकाओंका निर्देश भी इसीका समर्थन करता है क्योंकि नातिका स्पष्ट ही ज्ञात्रिक क्षत्रियोंका सूचक है। महावीर इन्हीं ज्ञात्रिक क्षत्रियोंके वंशज थे। अतः सम्भवतया कुण्डग्राम विदेह की राजधानी वैशालीके उपनगरोंमेंसे था।' (से० बु० ई०जि०२२, प्रस्ता०, पृ० ११) ___महापरिनिव्वाणसुत्तके राहुलजीकृत हिन्दी अनुवादके अनुसार बुद्ध राजगृहीसे अम्बलट्ठिका गये, वहाँसे नालन्दा, नालन्दासे पाटलिग्राम गये । उस समय मगधके महामात्य वजियोंको रोकनेके लिये पाटलिग्राममें पाटलीपुत्रनगरका निर्माण करते थे। पाटलिग्राममें गंगा नदीको पार करके बुद्ध Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर २२६ कोटिग्राम आये । कोटिग्रामसे नादिका और नादिकासे वैशाली आये । इस तरह पाटलीपुत्रसे वैसालीके रास्ते पर गंगा और वैशालीके बीच में कोटिग्राम अवस्थित था। कोटिग्राम और वैशालीके मध्यमें नादिका थी । डा० याकोवीने नातिका' शब्द पर टिप्पणीमें लिखा है-'जिस वाक्यमें 'नातिका आया है उसे टीकाकारने तथा आधुनिक अनुवादकों ने गलत समझा है ऐसा प्रतीत होता है। महापरिनिव्वाणसुत्तके अनुवादमें (से० बु० ई०. जि० ११) एक नोट ( पृ०२४) में, रे डेविड कहते हैं कि-'प्रथम तो दो बार नादिकाका प्रयोग बहु वचनमें किया है और तीसरी बार एक वचन में । बुद्धघोष उसकी व्याख्यामें कहते हैं कि एक ही जलाशयके तटपर एक ही नामके दो ग्राम थे। मेरी रायमें बहुबचन 'नातिका' शब्द क्षत्रियोंका वाचक है और एक वचन नातिका शब्द गिंजकावसथ' का विशेषण है.............।' मेरा विचार है कि 'नादिका' शब्द अशुद्ध है और नातिका शुद्ध है। श्री रे डेविडने अपने अनुवादकी शब्दसूचीमें यह लिखकर भी कि 'नादिका पटनाके पास है' गलती की है। महावग्गके वर्णनसे यह स्पष्ट है कि नातिका और कोटिग्गाम वैशालीके पास हैं। (से० बु० ई०, जि० २२, प्रस्ता० पृ० १० का टिप्पण नं० २)। राहुलजीने यद्यपि नादिका शब्द ही रखा है। किन्तु उनका अभिप्राय वही है, जो 'नातिका' शब्दको शुद्ध मानकर डा० याकोवी का था, क्योंकि राहुलजीने भी नादिका शब्दके टिप्पणमें लिखा है-'एक ज्ञातृयो ( -आति,=ज्ञात =ज्ञातर =जातर= जतरिया=जथरिया =जैथरिया) के गाँव में । नादिका = ज्ञातका = नत्तिका = त्वत्तिका = रत्तिका - रत्ती, जिसके नामसे वर्त Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० जै० सा० इ० पूर्व पीठिका मान रत्ती परगना (जि• मुजफ्फरपुर ) है। (बु० च०, पृ० ५२६, का टि०२)। नाटपुत्त ( महावीर ) पर टिप्पणीमें राहुलजीने लिखा है'नाटपुत्त' ज्ञातपुत्र । ज्ञातृ लिच्छवियोंकी एक शाखा थी, जो वैशालीके आसपास रहती थी। ज्ञातृसे ही वर्तमान जथरिया शब्द बना है। महाबीर और जथरिया दोनोंका गोत्र काश्यप है। आज भी जथरिया भूमिहार ब्राह्मण इस प्रदेशमें बहुत संख्या में है। उनका निवास रत्ती परगना भी ज्ञात = नत्ती= लत्तीरत्तीसे बना है।' ( बु० च०, पृ० ११०, का टि०३)। ऊपर उद्धृत जैन और बौद्ध उल्लेखोंके अनुसार कुण्डपुर या कुण्डग्राम विदेह देशमें वैशालीके निकट होना चाहिये । और चूंकि जिन ज्ञातृवंशी लिच्छवियोंके कुलमें महाबीरने जन्म लिया था, उनके वंशज आज भी जथरिया जातिके रूपमें बिहारके मुजफ्फरपुर जिले के रत्ती परगनामें निवास करते हैं, तथा मुजफ्फरपुर जिलेका बसाद ग्राम ही वैशाली था, अतः कुण्डग्राम भी उसीके निकट होना चाहिये। बौद्ध ग्रन्थोंका कोटिग्राम नातिका और वैशालीके बीचमें अवस्थित था। सम्भव है वही जैन साहित्यका कुंडग्राम हो जैसा कि डा० याकोबीका अनुमान है। आधुनिक' अन्वेषकोंका प्रायः यही मत है कि मुजफ्फरपुर जिलेमें स्थित वसाढ़ ही प्राचीन वैशाली है। अब कुंडग्रामको वासुकुंड कहते हैं और वह प्राचीन वैशालीका ही एक भाग था। वैशाली के तीन भाग थे-एक खास वैशाली ( बसाइ), एक कुंडपुर (वासुकुंड) और एक वानियगाम ( बनिया)। उनमें १-० ना० इं० पृ० ८४ का टि० ४ । २-प्रो. रा. ऐ० सो० बं० १८६८ में डा० हार्नले का भाषण पृ. ३० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर २३१ ब्राह्मण, क्षत्रिय और बनिये रहते थे। अब वे तीनों स्थान वसाढ़, वासुकुंड और और बनिया नामक गाँव से पहचाने जाते हैं। मातृकुल तथा पितृकुल यदि, जैसा कि प्राप्त उल्लेखोंके आधार पर अनुमान किया जाता है, कुण्डपुर वैशालीका एक उपनगर था, तो उसके स्वामी सिध्दार्थ, जो भगवान महावीरके पिता थे, अवश्य ही कोई बहुत बड़े राजा नहीं होने चाहिएँ। असलमें उस समय विदेहमें राजतंत्र नहीं था। किन्तु लिच्छवियों का गणतंत्र था। सबगण मिलकर अपना एक मुखिया चुन लेते थे और वही गणतंत्रका प्रधान होता था। उस समय उस लिच्छवियोंके गणतंत्रका प्रधान राजा चेटक था और दिगम्बर' उल्लेखोंके अनुसार राजा चेटक की पुत्री और श्वेताम्बरीय' उल्लेखोंके अनुसार राजा चेटककी बहिन त्रिशला या प्रियकारिणीका विवाह सिद्धार्थसे हुआ था। इस लिये सिद्धार्थ भले ही बड़े राजा न रहे हों, किन्तु उस गणतंत्रमें उनका एक प्रभावशाली व्यक्ति होना स्पष्ट है। बौद्ध ग्रन्थोंमें यद्यपि वैशाली नरेश चेटकका निर्देश नहीं है। किन्तु वैशालीका निर्देश बहुतायतसे पाया जाता १-'हम लोग लिच्छवि गण राजाओंके राज्यमें बसते हैं ।' बु० च०, पृ० ३१५१ २-'चेटकाख्योऽतिविख्यातो विनीतः परमार्हतः ॥३॥ "सप्तर्धयो वा पुरु यश्च ज्यायसी प्रियकारिणी ।'-उ० पु०, पर्व० ७५। ३-'समणे भगवौं महावीरे भगवश्रो माया चेडकस्य भगिणी भोई'-श्रा० चू, १ अ० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका है अंगुत्तर निकाय-अट्ठकथामें वैशालीकी समृद्धिका वर्णन करते हुए लिखा' है-"उस समय वैशाली ऋद्ध स्फीत ( =समृद्धिशाली) बहुजना= मनुष्योंसे आकीर्ण, सुभिक्षा ( =अन्नपान संपन्न ) थी। उसमें ७७७७ प्रासाद, ७७७७ कूटागार, ७७७७ आराम, ७७७७ पुष्करिणियां थीं।"......." राजगृहका नैगम वैशालीमें अपना काम समाप्त कर फिर राजगृह लौट गया । लौटकर जहाँ राजा मगध श्रेणिक बिंबसार था, वहाँ गया। जाकर राजा बिम्बसारसे उसने वैशालीकी समृद्धिका वर्णन किया। ___ उक्त वर्णनसे प्रकट होता है कि राजगृहीसे भी वैशालीका वैभव महान् था। और राजगृहीके स्वामी बिम्बसार श्रेणिकने वैशालीके वैभव, लिच्छवियोंके प्रभुत्व तथा वैशाली नरेश चेटककी पुत्रीके रूप-गुणसे आकृष्ट होकर अभय कुमारके द्वारा चेलनाका हरण कराया और उसके साथ विवाह किया। यह घटना भी वैशाली और उसके स्वामीके ही महत्त्वको प्रकट करती है। यदि चेटक श्रेणिकके साथ अपनी पुत्रीके विवाहके लिये राजी होता तो चेलनाका हरण करानेकी आवश्यकता न होती। श्रेणिकके पश्चात् जब उसी लिच्छवि कुमारी चेलनाका पुत्र कुणिक ( अजात शत्रु ) गद्दीपर बैठा तो उसने वज्जियों के इस गणतंत्रको नष्टभ्रष्ट कर डाला। १-बु० च०, पृ० २९७ । २-डा. रायचौधरीने लिखा है-'प्रो० रे डेविडस तथा कनिंघमके अनुसार वजियोंमें अाठ जातियां सम्मिलित थीं-जिनमें विदेह, लिच्छवि, ज्ञात्रिक और वजी सबसे प्रमुख थे । (पो० हि० एं० इ, पृ० ७३-७४ । डा० प्रधानका कहना है कि इस संगठनमें नौ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर २३३ बौद्ध महापरिनिव्वाण सुत्तों ( दी० नि०, पृ० ११७) लिखा है-'एक समय भगवान बुद्ध राजगृहमें विहार करते थे। उस समय राजा मगध अजात शत्रु वैदेहीपुत्र वज्जीपर चढ़ाई करना चाहता था। वह ऐसा कहता थामैं इन ऐसे महद्धिक (= वैभवशाली ) ऐसे महानुभाव वज्जियोंको उच्छिन्न करूँगा, वज्जिोंका विनाश करूँगा, उन पर आफत ढाऊँगा।' अजातशत्रुने बुद्धकी सलाह लेनेके लिये अपने मंत्रीको बुद्धके पास भेजा । बुद्ध ने कहा-१ - जब तक वज्जी सम्मतिके लिये बैठक करते रहेंगे, २--जब तक वज्जी एक हो बैठक करते हैं, एक हो उत्थान करते हैं, एक हो कर्तव्य करते हैं, ३-जब तक वज्जी अप्रज्ञप्त (= गैर कानूनी) को प्रज्ञप्त (= विहित ) नहीं करते, प्रज्ञप्त (=विहित ) का उच्छेद नहीं करते, ४-जब तक वज्जी वृद्धोंका आदर सत्कार करते है, उनकी बात मानते हैं, ५-जब तक वज्जी कुल स्त्रियों, कुल कुमारियोंके साथ जबर्दस्ती नहीं करते, ६-जब तक वज्जी अपने चैत्योंका सम्मान करते हैं और ७-जब तक वज्जी अर्हतोंको पूजते है, जब तक ये सात अपरिहाणीय धर्म वज्जियोंमें रहेंगे तब तक वज्जियोंकी वृद्धि ही होगी, हानि नहीं होगी। जातियाँ सम्मिलित थीं । जिनमें लिच्छवि, वजी ज्ञात्रिक और विदेह भी थे । इस संगठनको वजियों अथवा लिच्छवियोंका गणतंत्र कहा जाता था। क्योंकि नौ जातियों में से वजि और लिच्छवि सबसे प्रमुख थे। इन नौ लिच्छवि जातियों में नौ मल्लकी जातियाँ और काशी कौशलके १८ गण राजा सम्मिलित थे । ( जै० ना० इ० पृ०८५-८६)। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका उक्त विवरणसे लिच्छवियोंके सुदृढ़ संगठन पर प्रकाश पड़ता है। प्रसङ्गवश भगवान महावीरके वंशका अन्य राजवंशों से सम्बन्ध बतलाना अनुचित न होगा क्योंकि अन्वेषकोंका विश्वास है कि महावीर और बुद्धने अपने शासनका प्रचार करनेके लिये वंशानुगत सम्बन्धोंका पूरा-पूरा लाभ उठाया था। और भारतके मुख्य राजवंशोंके साथ उनका सम्बन्ध होना भी उनकी सफलताका एक कारण अवश्य था। ____जहाँ तक खोजोंसे पता चलता है महावीरके पितृकुलकी अपेक्षा मातृकुलका राजवंशानुगत सम्बन्ध अधिक व्यापक और अधिक प्रभावक था। उनका नाना चेटक लिच्छवि गणतंत्रका प्रधान था। इस गणतंत्र में आठ या नौ जातियाँ सम्मिलित थीं जिनमें लिच्छवि, वज्जी, ज्ञात्रिक और विदेह भी थे। यतः इन नौ जातियों में लिच्छवि और वज्जी सबसे प्रमुख थे। अतः यह संगठन लिच्छवियों अथवा वज्जियोंका गणतंत्र कहा जाता था। ये नौ लिच्छवि जातियाँ नौ मल्लकियों और काशी कोसलके अट्ठारह गणराजाओं से सम्बद्ध थी। जैन निरयावली सूत्रमें लिखा है कि जब चम्पाके राजा कुणिक (अजात शत्रु ) ने एक शक्तिशाली सेनाके साथ चेटकपर आक्रमण करनेकी तैयारी की तो चेटकने काशी कोशल के १८ गणराजाओं, मल्लकियों और लिच्छवियोंको बुलाकर १-से० वु० ई०, जि० २२, प्रस्ता० पृ० १३ । २-० ना० इ० पृ० ८५। ३-'नव मल्लइ नव लेच्छह, कासी-कोसलगा अट्ठारसवि गण-रायाणो'--भ० सू०."। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर २३५. उनसे पूछा कि आपलोग कुणिककी माँग पूरी करेंगे या युद्ध करेंगे ? इसी तरह पावामें महावीर स्वामीका निर्वाण होने पर उक्त १८ गणराजाओं के एकत्र होने तथा निर्वाण महोत्सव मनानेका उल्लेख कल्पसूत्र में है । इससे इस संगठन तथा चेटककी शक्तिमत्ता, ऐक्य तथा प्रभावशालिताका पता चलता है । फिर भी बौद्ध ग्रन्थोंमें चेटकका नाम भी न पाया जाना आश्चर्यजनक है । इसका कारण चेटकका भगवान महावीरका अनुयायी तथा सम्बन्धी होना संभव है, क्योंकि महावीरको बुद्ध अपना प्रबल प्रतिद्वन्दी मानते थे - जिसका समर्थन बौद्ध उल्लेखोंसे होता है। चेटकके सम्बन्धमें डा० याकोबीने ठीक ही लिखा है- 'जैनोंने अपने तीर्थङ्कर महावीरके परम भक्त तथा सम्बन्धी चेटककी स्मृतिको सुरक्षित रखा है। उन्हींके प्रभावके कारण वैशाली जैन धर्मका गढ़ बनी हुई थी, जबकि बौद्ध उसे पाखण्डियों और विद्रोहियोंका शिक्षालय मानते थे । ( से० बु० ई), जि० २२, प्रस्ता० पृ० १३ ) । अस्तु, चेटके सात पुत्रियाँ थीं । जिनमें से सबसे बड़ी त्रिसला ज्ञातृ क्षत्रिय सिद्धार्थसे विवाही थी और भगवान महावीरकी जननी थी । तथा छठी चेलना मगधके राजा श्रेणिक विम्बसारसे विवाही थी और इस तरह मातृ पक्षके द्वारा मगध के राजवंशके साथ महावीरका निकट सम्बन्ध था । चेलनाके साथ सम्बन्ध होनेसे पूर्व श्रेणिक' बौद्ध धर्मका अनुयायी था । चेलना के प्रभाव से ही वह महावीरका परम भक्त और उनकी उपदेश सभाका प्रधान श्रोता बना । १- देखो - बृ० क० को०, में श्रेणिक राजा की कथा । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका चेटककी शेष पांच पुत्रियोंके नाम इस प्रकार थे-मृगावती, सुप्रभा, प्रभावती, ज्येष्ठा और चन्दना। इसमेंसे मृगावती वत्सदेशकी कौशाम्बी नगरीके राजा शतानीकसे विवाही थी। सुप्रभा दशार्ण देशके हेमकच्छपुर नगरके राजा दशरथसे विवाही थी। प्रभावतीका विवाह कच्छदेशके रोरुक नगरके राजा उदयसे हुआ था । गान्धार देशके महीपुर नगरके राजा सत्यकने ज्येष्टाकी मांग की। किन्तु चेटकने उसे अपनी कन्या देना स्वीकार नहीं किया। तब उसने ऋद्ध होकर चेटकपर चढ़ाई कर दी। युद्ध में हारनेपर वह साधु हो गया। बादको ज्येष्ठा और चन्दना भी साध्वी हो गई। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार भगवान महाबीरकी जननी त्रिसला चेकटकी बहन थी। किन्तु फिर भी चेटकके सात ही पुत्रियां थीं। उनके नाम-प्रभावती, पद्मावती, मृगावती, शिवा, ज्येष्ठा, सुज्येष्ठा और चेलना थे। सबसे बड़ी प्रभावती' का विवाह सिन्धु सौबीर देशके वीताभय नगरके राजा उदयन से हुआ था। पद्मावती चम्पाके राजा दधिवाहनसे विवाही थी। मगावती कौशाम्बीके राजा शतानीकसे विवाही थी। शिवाका विवाह उज्जैनीके राजा चण्डप्रद्योतसे हुआ था। ज्येष्ठाका विवाह भगवान महावीरके भाई नन्दिवर्धनसे हुआ था। चेलना राजगृहीके राजा श्रेणिक से विवाही थी और सुज्येष्ठा साध्वी हो गई थी। १-उत्तर पु०, पर्व ७५, श्लोक १-१४ । २-वेसालिश्रो चेडो""सत्त धूताओ"श्राव० सू०। ३-सिंधुसौवीरेसु"वीतीभएनगरे"उदायणे नाम राया""तस्म.. प्रभावती नाम देवी । - भ० सू० ४६१। यहाँ राजा चेटककी कन्याओं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर २३७ ये सब सम्बन्ध इस बातके सूचक हैं कि अपने मातृकुलके द्वारा महावीर सौवीर, अंग, वत्स, अवन्ती, विदेह और मगधके और उनके सम्बन्धोंके विषयमें दिगम्बर तथा श्वेताम्बर मान्यताओं में जो अन्तर है उसपर प्रकाश डालना उचित होगा। दिगम्बरोंके अनुसार भगवान महावीरकी जननी त्रिशला अथवा प्रियकारिणी चेटककी सबसे बड़ी पुत्री थी । किन्तु श्वेताम्बरों के अनुसार वह चेटककी बहिन थी। चेटकके पिता वगैरहके सम्बन्धमें जानकारीका कोई साधन उपलब्ध नहीं है । दिगम्बरोंके अनुसार महावीरके कोई भाई नहीं था और न चेटकके कोई सुज्येष्ठा नामकी कन्या थी। श्वेताम्बरोंके अनुसार महावीरके नन्दिवर्धन नामका बड़ा भाई था और उससे चेटककी पांचवीं कन्या ज्येष्ठा विवाही थी । दिगम्बरोंके अनुसार ज्येष्ठा साध्वी हो गई और श्वेताम्बरोंके अनुसार सुज्येष्ठा साध्वी हो गई। दिगम्बरोंके अनुसार चन्दना चेटककी सबसे छोटी पुत्री थी । और श्वेताम्बरों के अनुसार चन्दना चेटककी दौहित्री तथा चम्पा नरेश दधिवाहनकी पुत्री थी। दिगम्बरोंके अनुसार चेटकके पद्मावती नामकी कोई कन्या नहीं थी और न चम्पा नरेशसे चेटककी किसी कन्याका विवाह हुआ था। श्वेताम्बरों के अनुसार चम्पापुरके राजा दधिवाहन और रानी पद्मावतीका पुत्र करकण्डु था। अर्थात् अजात शत्रुकी तरह करकण्डु भी चेटकका दौहित्र था। किन्तु इतिहाससे इसका समर्थन नहीं होता । यह हम पहले लिख आये हैं कि करकण्डु विदेहराज नमिका समकालीन था । और वह पार्श्वनाथके तीर्थमें हुआ था। दिगम्बरों के अनुसार उसके पिताका नाम दन्तिवाहन था और वह चम्पापुरका राजा था, तथा उसकी माताका नाम भी पद्मावती था। किन्तु वह पद्मावती कौशाम्बीके राजा १-वृ० क० को० में करकण्डु की कथा । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका राज घरानोंसे सम्बद्ध थे। और ये सब उस समयके सबसे अधिक शक्तिशाली राजा थे। उस समय लिच्छवि कुमारियोंका पाणि पीडन करके लिच्छवियोंका जामाता बनना क्षत्रियोंके लिये बड़े सम्मानकी बात वसुमत्रकी पुत्री थी। अस्तु -चेटककी केवल दो कन्याश्रोंके सम्बन्धमें दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परामें ऐकमत्य है-दोनोंके अनुसार मृगावतीका विवाह कौशाम्बीके राजा शतानीकसे और प्रभावतीका विवाह राजा उदयनसे हुआ था। किन्तु दिगम्बर उदयनको कच्छ देशके रोरुक नगरका राजा बतलाते हैं और श्वेताम्बर सिन्धु सौवीर देशके वीतामय नामक नगरका राजा बतलाते हैं। यह सिन्धु सौवीर देश कहां था, इस विषयमें मतभेद हैं। डा० रे डेविडस् ने अपने मानचित्र' में सौवीरको काठियावाड़ के उत्तरमें और कच्छकी खाड़ीके एक अोरसे दूसरी ओर तक दिखलाया है । बौद्ध परम्पराके अनुसार सौवीर देशकी राजधानी रोरुक थी। ( कै० हि०, जि० १, पृ० १७३)। अतः दिगम्बर उल्लेखका कच्छ ही सौवीर जान पड़ता है और वहीके रोरुक नगरके स्वामी उदयनसे चेटककी पुत्री प्रभावती विवाही थी। श्वेताम्बरीय उल्लेख के अनुसार इस उदयनने अवन्ती नरेश चण्डप्रद्योत पर - जिसे चेटककी पुत्री शिवा विवाही थी, चढ़ाई की थी। इस युद्धका कारण यह था कि प्रद्योत उदयनकी एक जिनप्रतिभा तथा दासीको लेकर भाग गया था। उदयनने प्रद्योतके पास अपना दूत भेजकर कहलाया कि मुझे दासीकी परवाह नहीं है, किन्तु जिन मूर्ति लौटा दो। प्रद्योतने नहीं लौटाई । तब उदयनने उस पर चढ़ाई की और प्रद्योतको बन्दी बना लिया। (जै० ना० इ०, पृ० ६१ का टि०२)। १-० ना०, इ, पृ०८६ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर २३९ समझी जाती थी। और गुप्तकाल तक भी समझी जाती रही; क्योंकि ई० ३०८ में पाटलीपुत्र नगरके पास एक गांवके छोटेसे राजा चन्द्रगुप्तको लिच्छवि वंशकी कन्या कुमारदेवी विवाही थी। चन्द्रगुप्तने ऐसे महान् वंशकी कन्यासे विवाह होनेको अपना बड़ा गौरव माना। उसने अपने सिक्कोंपर लिच्छवियोंकी बेटीके नामसे अपनी स्त्रीकी भी मूर्ति अंकित करवाई। उसकी सन्तान बड़े गर्वसे अपनेको लिच्छवियोंका दौहित्र कहा करती थी। ___ सारांश यह है कि लिच्छवियों तथा वैशालीके राजवंशके द्वारा महावीरके द्वारा प्रचारित धर्मको सब ओर ठोस समर्थन मिला और सौवीर आदि देशोंमें जैन धर्म खूब फैला। ___ गर्भ परिवर्तन श्वेताम्बर परम्परा में भगवान महावीरके गर्भ परिवर्तनकी एक कथा प्रवर्तित है, जिसका निर्देश आचारांग, कल्पसूत्र तथा अन्य अनेक ग्रन्थोंमें पाया जाता है और इसलिये उसकी प्राचीनतामें सन्देहको स्थान नहीं है, क्योंकि मथुरा' से प्राप्त अवशेषोंमें, जो अवश्य ही ईस्वी सन् की प्रथम शतीके माने गये हैं गर्भ परिवर्तनकी घटना अंकित की गई है। घटना इस प्रकार है-वैशालीके ब्राह्मण कुण्ड ग्राममें ऋषभ दत्त नामक ब्राह्मणकी पत्नी देवानन्दा रहती थी। उसने १--डा० बहुलरने लिखा है-'एक जैन पाषाणखननमें नैगमेश, एक वाल तीर्थङ्कर और एक शिशुके साथ स्त्री अंकित है, यह एक अति प्रसिद्ध कथाका अंकन है, जिसमें एक देवता देवानन्दा और त्रिशलाके गर्भ परिवर्तन करता है, (जै० नां० इ०, पृ. २१)। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० __ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका चौदह स्वप्न देखे जो तीर्थङ्करके जन्मके सूचक थे, इन्द्रने इस बातको अपने अवधि ज्ञानसे जाना तो उसे ज्ञात हुआ कि गर्भस्थ शिशु महान् तीर्थङ्कर महावीर होनेवाला है। अतः उसने तत्काल एक देवको एक हिरनके रूपमें भेजा और उसे देवानन्दाके गर्भसे त्रिशलाके गर्भमें परिवर्तित करनेकी आज्ञा दी, जिससे महावीरका जन्म भिक्षुक ब्राह्मण वंशमें न हों, क्योंकि जिन क्षत्रिय कुलमें ही जन्म लेते हैं। इस तरह भगवान महावीर' ८२ दिन तक देवानन्दाके गर्भमें रहें। भ० सू० में यह बात भगवान महावीरके मुखसे भी कहलाई गई कि देवानन्दा मेरी माता है। __इस घटनाके सम्बन्धमें डा० याकोवीने जो टिप्पणी दी है उसका आशय यहां दिया जाता है। 'दिगम्बर लोग इसे हास्यास्पद समझते हैं और नहीं मानते । किन्तु श्वेताम्बरोका इसकी सत्यतामें दृढ़ विश्वास है। इसमें कोई सन्देह नहीं हैं कि यह कथा प्राचीन है क्योंकि आचारांग, कल्पसूत्र तथा अन्य प्रन्थोंमें पाई जाती है। तथापि यह स्पष्ट नहीं होता कि क्यों इस प्रकारकी हास्यास्पद घटनाका आविष्कार तथा प्रचार किया गया। इस अन्धकारावृत विषय पर मैं अपनी सम्मति प्रकट करनेकी आज्ञा चाहता हूं। मेरा अनुमान है कि सिद्धार्थके दो पत्नियां थीं एक ब्राह्मणी देवानन्दा, जो महावीरकी वास्तविक माता थी, और एक क्षत्रियाणी त्रिशला। क्योंकि देवानन्दाके पतिका नाम 'ऋषभदत्त' अधिक प्राचीन प्रतीत नहीं होता । प्राकृत रूपके अनुसार उस अवस्थामें उसभदत्तके स्थान १-'समणे भगवं महावीरे"वासीइ""गभचाए साहरिए'क० सू०, सम्बो० टी०, पृ० ३५-३६ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर २४१ में 'उसभदिन्न' होना चाहिये था। इसके सिवाय यह नाम ऐसा है जो केवल जैन को ही दिया जासकता है, ब्राह्मण को नहीं। अतः मुझे इसमें सन्देह नहीं है कि देवानन्दाका दूसरा पति करार देनेके लिये जैनोंने ऋषभदत्त नामका आविष्कार किया है। अब सिद्धार्थ को लीजिये। त्रिशलाके साथ विवाह होनेसे उच्चवंशी तथा महान् प्रभुत्वशाली व्यक्तियोंके साथ उनका सम्बन्ध हो गया इसलिये सम्भवतया यह प्रकट करना कि महावीर त्रिशलाका दत्तक पुत्र नहीं किन्तु औरस पुत्र है अधिक लाभदायक समझा गया । क्योंकि इससे महावीर त्रिशलाके सम्बन्धोंका उत्तराधिकार प्राप्त कर सकता था । और चूकि जब महावीर तीर्थङ्कर हुये उनके माता पिताका स्वर्गवास हुए बहुत वर्ष हो चुके थे, इसलिये यह कथा सरलतासे प्रसारित हो सकी। किन्तु यतः मनुष्योंकी स्मृतिसे वास्तविक स्थितिका मिटा सकना शक्य नहीं था, इस लिये गर्भपरिवर्तनकी कथाका आविष्कार किया गया। गर्भपरिवर्तनका विचार जैनोंकी मौलिक रचना नहीं है किन्तु स्पष्ट ही, यह विचार उस पौराणिक कथाकी अनुप्रतिकृति है जिसके अनुसार श्रीकृष्णको देवकीके गर्भसे रोहिणीके गर्भ में परिवर्तित किया गया था।" (से० वु० ई., जि० २२, प्रस्ता? पृ० ३१ की टि० नं०२) महावीरके गर्भपरिवर्तनको समस्याको सुलझानेके लिये डा० याकोवीको भी क्लिष्ट कल्पनाका ही आश्रय लेना पड़ा है। किन्तु इसके मूलमें हमें तो ब्राह्मणत्व और क्षत्रियत्वके बीचमें बड़प्पनको लेकर उठे प्रचीन विरोधका ही आभास प्रतीत होता है। जैन और बौद्ध दोनों ब्राह्मणसे क्षत्रियको अधिक आदर प्रदान करते थे। इतना ही नहीं किन्तु ब्राह्मण वंशको नीच वंश तक मानते Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ जै० सा० इ० पूर्व पीठिका थे । कल्पसूत्रकी सुबोधनी टीकामें लिखा है कि महावीरने मरीचिके भव में नीचगोत्र कर्मका बन्ध किया था उसके कारण महावीरको ऋषभदत्त ब्राह्मणकी देवानन्दा ब्राह्मणी के गर्भ में रहना पड़ा । अतः गर्भपरिवर्तनकी घटनामें विशेष तथ्य प्रतीत नहीं होता । सम्भवतया इसीसे दिगम्बर' परम्परामें इसका संकेत तक नहीं मिलता । विवाह दिगम्बर परम्परा के अनुसार महावीर अविवाहित ही रहे । न उन्होंने स्त्रीसुख भोगा और न राजसुख । किन्तु श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार यद्यपि उन्होंने राजपद ग्रहण नहीं किया किन्तु विवाह करके स्त्रीसुख अवश्य भोगा । उनकी पत्नीका नाम यशोदा था और उससे एक कन्या भी हुई थी जो जमालिसे विवाही थी । किन्तु आवश्यक नियुक्तिकी गाथासे ऐसा प्रतीत होता है कि महावीर अविवाहित ही रहे थे। लिखा' है- "महावीर, अरि १ - - ' ततश्च्युत्वा तेन मरीचिभवबद्धन नीचै गोत्रकर्मणा .... ऋषभदत्तस्य ब्राह्मणस्य देवानन्दायाः ब्राह्मण्याः कुक्षौ उत्पन्नः' । २ – कै० हि०, जि० १, पृ० १५६ में दिगम्बरोंको लक्ष्य करके लिखा है कि गर्भ परिवर्तन के सम्बन्ध में उनका मत अधिक युक्त है। ३ - - ' वीरं श्ररिनेमिं पासं, मल्लिं च वासुपुज्जंच ॥ . ए ए मोच ण जिणे श्रवसेसा श्रासि रायाणो ॥ २४३ ॥ रायकुले विजाया विसुद्धवंसेसु खत्तियकुलेसु । न च इच्छियाभिसेया कुमारखासंमि पव्वइया' || २४४ || - श्रा० नि० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर २४३ ष्टनेमि, पार्श्व, मल्लि और वासुपूज्यको छोड़कर शेष तीथङ्कर राजा थे। और ये पांचों तीर्थङ्कर यद्यपि राजकुलमें और विशुद्ध क्षत्रियवंशमें उत्पन्न हुए थे फिर भी उन्हें राज्याभिषेक इष्ट नहीं हुआ और उन्होने कुमार अवस्थामें ही प्रव्रज्या ग्रहण करली।" आगे लिखा है-'जिहोने कुमार अवस्थामें प्रव्रज्या धारण की उन महावीर, अरिष्टनेमि, पाव, मल्लि और वासुपूज्यको छोड़कर शेष तीर्थङ्करोंने ही विषयोंक सेवन किया।' इसकी व्याख्या करते हुए टीकाकार मलयगिरिने लिखा है-'इस कथनका आशय यह है कि वासुपूज्य, मल्लि, महावीर, पार्श्वनाथ और अरिष्टनेमिके सिवाय शेष सब तीर्थङ्करोंने विषयोंका सेवन किया, किन्तु वासुपूज्य आदि पांच तीर्थङ्करोंने नहीं किया क्योंकि उन्होने कुमार अवस्थामें ही व्रतग्रहण कर लिया था।' आगमोदय समितिसे प्रकाशित आवश्यकनियुक्तिकी मलयगिरि टीकामें विषयोंका सेवन न करने वाले पांच तीर्थङ्करोंमें महावीर स्वामिका नाम नहीं छपा है । यह छापेकी ही भूल मालूम होती है क्योंकि उक्त कथन कुमार अवस्थामें ही प्रव्रजित होनेवाले सभी तीर्थङ्करोंके सम्बन्धमें है। १-'गामायारा विसया निसेविया ते कुमारवज्जेहिं । गामागराइएसु य केसि (सु) विहारो भवे कस्स' ॥२५५।। टीका--ग्रामाचारा नाम विषया उच्यन्ते, ते विषया निसेविताश्रासेविताः कुमारव :--कुमारभाव एव ये प्रव्रज्यां गृहीतवन्तः तान् मुक्त्वा शेषैः सर्वैस्तीर्थकृद्भिः । किमुक्त भवति ? वासुपूज्य-मल्लिस्वामिपार्श्वनाथ भगवदरिष्टनेमिव्यतिरिक्तः सर्वैस्तीर्थकृद्भिरासेविता विषयाः न तु वासुपूज्यप्रभृतिभिः, तेषां कुमारभाव एव ब्रतग्रहणाभ्युपगमात् । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका कुमार अवस्थासे मतलब ही अविवाहित अवस्थासे है, क्योंकि कुमारसे ही हिन्दीमें बहुप्रचलित कुंवारा शब्द निष्पन्न हुआ है । और नियुक्तिगाथा २५५ से उसी अर्थकी पुष्टि होती है। कुमार अवस्थामें प्रवजित होने वाले उक्त पांचो तीर्थङ्कर दिगम्बर मान्यताके अनुसार अविवाहित थे। किन्तु श्वेताम्बर मल्लिको छोड़कर शेष सबको विवाहित ही मानते हैं। अतः भगवान महावीरके अविवाहित होनेकी मान्यता एकांगी प्रतीत नहीं होती, श्वेताम्बरपरम्परामें भी उसका अस्तित्व पाया जाता है । कमसे कम आवश्यकनियुक्तिकार तो महावीरको अविवाहित ही मानते थे क्योंकि उक्त उल्लेखोंके साथ ही उन्होने अपने महावीरचरितमें उनके विवाह आदिका कोई संकेत नहीं किया है । अस्तु, महावीरके गर्भपरिवर्तनकी कथामें जिस प्रकार डा० याकोवी को कृष्णके गर्भपरिवर्तनकी अनुकृति प्रतीत होती है, हमें भी महावीरकी पत्नी यशोदाके नामके साथ बुद्धकी पत्नी यशोधरा का स्मरण हो आता है और लगता है कि महावीरके जीवनमें यशोदाका लाया जाना, कहीं बुद्धकी पत्नी यशोधराकी अनुकृतिका तो परिणाम नहीं है ? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर २४५ प्रव्रज्या तीस वर्षकी वयमें मगसिर बदी दसमीके दिन महावीरने समस्त परिग्रहको त्यागकर जिनदीक्षा ले ली। उन्होंने अपने शरीरके सब वस्त्र-आभरण उतारकर फेंक दिये, काले धुंघराले केशोंको जड़से उखाड़ डाला और इस तरह अन्तरंग तथा बहिरंग परिग्रहको त्यागकर वह सच्चे निन्थ बन गये । किन्तु श्वेताम्बरीय मान्यतामें इससे कुछ अन्तर है। आचारांग' चूणिमें महावीर भगवानकी प्रव्रज्या वर्णन करते हुए लिखा है-'इस विषयमें कुछ विशेष कथन करते हैं-- १--'मणुवत्तणसुहमतुलं देवकयं सेविऊणवासाइ। अट्ठावीसं सत्त य मासे दिवसे य वारसयं ।। २५ ॥ आभिणिबोहियबुद्धो छ?ण य मग्गसीस बहुलाए । दसमीए णिक्खंतो सुरमहिदो णिक्खमणपुजो ।। २६ ॥ -ज० ध०, भा० १, पृ० ७८। ति० प०, अध्याय ४, गा० ६६७ । हरि० पु० २-५१ । उत्त पु०, पर्व ७४, श्लो० ३०३-३०४ । 'मगसिरबहुलस्स दसमी पक्खेण पाईणगामिणीए छायाए पोरसीए अभिनिविट्ठाए "। कल्प सू० ११३ । २-'इह तु किंचि विसेसं भएणति--सो भगवं णिगिणो भविता एगदूरां वा से खंधे काउं पव्वइतो, तस्स पुण भगवतो एतं श्रालंबणं..." सो भगवं बद्धमाणो पारं गच्छतीति पारगो सीतपरिसहाणं वत्थमंतरेणा वि । जं पुण तं वत्थं खंधे ठितं घटितं वा तं अणुधम्मियं तस्स...." अहवा तित्थगराणं अयं अणुकालधम्मो ।'--श्राव० चू०। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका भगवान महावीर नग्न होकर और अपने कन्धे पर देवदूष्य रखकर प्रवजित हुए । उन भगवानका वह वस्त्र आलम्बनमात्र था। मैं इस दिव्य वस्त्रसे अपने शरीरको शीतसे बचाऊंगा या इससे अपनी लज्जा निवारण करूँगा, ऐसी भावना उनकी नहीं थी क्योंकि भगवान तो वस्त्रके विना भी शीत परीषहको सहन करने में समर्थ थे, फिर भी वह वस्त्र उनके कन्धेपर रखा रहा, उसका कारण यह था कि वह उनका धार्मिक कर्तव्य था क्योंकि अतीत कालमें जो तीर्थङ्कर प्रबजित हुए, वर्तमानमें जो प्रबजित होते हैं तथा भविष्यमें जो प्रव्रजित होंगे, उन सबने इसका पालन किया है, । कहा भी है--"सचेल धर्म महान् है, अन्य तीर्थङ्करोंने भी उसका पालन किया है, इसलिये महावीर भगवानने भी कन्धेपर वस्त्र रहने दिया, लज्जाके लिये नहीं।" . इस तरह श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार महावीर स्वामी १३ मास तक चीवरधारी रहे। उसके पश्चात् नग्न दिगम्बर होकर ही विचरे। जब महावीरका जैन संघ दिगम्बर और श्वेताम्बरके रूपमें विभाजित हुआ तो उसके पश्चात् कतिपय मध्यम मार्गी जैनोंने एक तीसरे यापनीय' संघकी स्थापना की थी। यह यापनीय संघ शायद श्वेताम्बरीय आगमोंको मानता था किन्तु नग्नताका --'समणे भगवं महावीरे संवच्छरं साहियं मास चीवरधारी हुत्था, तेण परं अचेलए पाणि पडिग्गहिए ।। ११७ ।। -कल्पसू०-१६ । २--देखो--'यापनीय साहित्य की खोज' जै० सा० इ०, पृ० ४१ से । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४७ भगवान् महावीर पोषक था। इस संघके एक आचार्य अपराजित सूरिने श्वेताम्बरोंकी उक्त मान्यताके सम्बन्धमें लिखा है.'भावनामें जो यह कहा है कि महावीर भगवान एक वर्ष तक वस्त्रधारी रहे उसके बाद अचेलक-नग्न हो गये, सो इसमें अनेक मत हैं। किन्हींका कहना है कि महावीरके कन्धेपर जिसने वस्त्र लटकाया था, उसने उसी दिन उस वस्त्रको ले लिया था। अन्य कहते हैं कि छै महीनोंमें वह वस्त्र कांटो वगैरहसे छिन्न भिन्न हो गया । कुछ कहते हैं कि कुछ अधिक एक वर्षके पश्चात् उस वस्त्रको खण्डलक ब्राह्मणने ले लिया। कुछ कहते हैं हवासे उड़ गया और महावीरने उसकी उपेक्षा कर दी। किन्हींका कहना है कि लटकाने वालेने उसे महावीर भगवानके कन्धेपर रख दिया। इस प्रकार अनेक मत होनेसे इसमें कुछ सार प्रतीत नहीं होता । यदि भगवान महावीरने सचेल लिंगको प्रकट करनेके लिये वस्त्रको ग्रहण किया था उन्हें उसका विनाश क्यों इष्ट हुआ ? सदा उसे धारण करना चाहिये था........तथा यदि महावीर भगवानको चेलप्रज्ञापना ( वस्त्रवाद ) इष्ट थी तो 'प्रथम' और अन्तिम जिनका धर्म अचेलक था' यह वचन मिथ्या ठहरता है । तथा 'नवस्थान' में कहा है -'जैसे मैं अचेल (नग्न) हूं वैसे ही अन्तिम जिन भी होंगे' १-भ. श्रा०, गा० ४२१ की टीका में। २-श्वेताम्बर साहित्य में लिखा है कि प्रथम जिन ऋषभदेव और अन्तिम जिन महावीरका धर्म बाचेलक्य-वस्त्ररहित था । किन्तु मध्यके बाईस तीर्थङ्करोंका धर्म सचेल भी था और अचेल भी था। यथा-आचेलक्को धम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स । मज्झिमगाणं जिणाणं होई सचेलो अचेलो व ॥ १२ ॥ पञ्चा, विव०१७ । Jain Educationa International acional For Personal and Private Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका इससे भी विरोध आता है। तथा यदि अन्य तीर्थङ्कर सवस्त्र थे तो महावीर भगवानकी तरह उनके वस्त्र त्यागका काल क्यों नहीं बतलाया ? हां, यह कहना उचित होगा कि जब महावीर सर्वस्वको त्याग कर ध्यानमें स्थित थे तो किसीने उनके कन्धेपर वस्त्र रख दिया, जो एक उपसर्ग था।" . महावीर भगवानके देवदूष्य धारण करनेके सम्बन्धमें अपराजित सूरिने जो अभिमत प्रकट किया है हमें भी वही उचित जान पड़ता है। आवश्यक' नियुक्तिमें लिखा है कि चौबीसों तीर्थङ्कर एक वस्त्रके साथ प्रव्रजित हुए। इसकी व्याख्या करते हुए भाष्यकार जिन भद्रगणि क्षमाश्रमणने लिखा' हैं____ "सभी जिन भगवान वज्रवृषभनाराच संहननके धारी होते हैं, चार ज्ञानवाले और सत्त्वसम्पन्न होते हैं, उनके हस्तपुट छिद्ररहित होते हैं. और वे परीषहों को जीतने वाले होते हैं । अतः वस्त्र पात्र आदि उपकरणोंसे रहित होने पर भी वनके अभावमें लगने वाले संयमकी विराधना आदि दोष उन्हें नहीं लगते। उनके लिये वस्त्र-पात्र संयमका साधन नहीं है अतः वे उनका १--'सब्वे वि एगदूसेण णिग्गया जिणवरा चउवीस" ॥२२७॥ २-निरुवमधिइ संहणणा चउनाणातिसयसत्तसंपण्णा । अच्छिद्दपाणिपत्ता जिणा जियपरीसहा सव्वे ॥ २५८१ ॥ तम्हा जहुत्तदोसे पावंति न वत्थपत्तरहिया वि । तदसाहणं ति तेसिं तो तग्गहणं न कुव्वंति ।। २५८२ ।। तहवि गहिएगवत्था सवत्थतिथोवएसणत्थं ति । अभिनिक्खमंति सव्वे तम्मि चुएऽचेलया हुति ॥२५८३॥ -विशे० भा। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : भगवान महावीर २४९ ग्रहण नहीं करते । तथापि सवस्त्र तीर्थका उपदेश करनेके लिये इन्द्रके द्वारा अर्पित एक देवदूष्य धारण करके दीक्षा लेते हैं। जब वह वस्त्र गिरजाता है तो सभी अचेल-वस्त्ररहित नग्न हो जाते हैं।" भाष्यकारके उक्त कथनका अभिप्राय यह है कि चौबीसों तीर्थङ्कर सुदृढ़ शरीर वाले तथा परीषहोंको सहनेमें समर्थ होते हैं इस लिये उन्हें वस्त्रकी आवश्यकता नहीं होती। तथा उनके हस्तपुट छिद्ररहित होते हैं, उससे ही वे आहार ग्रहण कर सकते हैं इसलिये उन्हें पात्रकी आवश्यकता नहीं होती। फिर भी सवस्त्र तीर्थका उपदेश देनेके लिये वे एक वस्त्र धारण करते हैं और उस वस्त्रके गिरजाने पर नग्न विचरण करते हैं। इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि तीर्थङ्करोंको अपने शिष्योंका नग्न रहना इष्ट नहीं था, यद्यपि वे स्वयं नग्नता ही पसन्द करते थे, अतः उन्होंने कुछ समय तक एक वस्त्र धारण किया। दूसरे शब्दोंमें यदि यह कहा जाये कि सवस्त्र परम्पराका पोषण करने के लिये ही देवदूष्यकी कल्पना की गई तो कुछ अयुक्त न होगा । अस्तु । आगे इस सम्बन्धमें विशेष विचार किया जायेगा। तपस्या और ज्ञानलाभ जैन साहित्यके अवलोकनसे प्रकट होता है कि महावीरने दुद्धर्ष तपस्या की थी। उनका तपस्वी जीवन रोमाञ्चकारी था । जिन दीक्षा धारण करनेके पश्चात् ही वे ध्यान मग्न हो गये थे और छै मास तक ध्यानस्थ रहे थे। छै मासके पश्चात् उन्होंने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका कूलपुर या कोल्लाग सन्निवेशमें प्रथम वार भिक्षा भोजन ग्रहण किया था। ___ पीछे बुद्धके द्वारा निर्दिष्ट जिन चार प्रकारकी तपस्याओंका निर्देश कर आये हैं उन चारोंका ही आचरण महावीरने किया था । दीक्षा लेते समय ही वे नग्न हो गये थे और उन्होंने अपने सिर और दाढ़ीके केशोंको स्वयं अपने हाथसे उखाड़कर फेंक दिया था। वे सदा अस्नान व्रत पालते थे और भूमि पर शयन करते थे। एकान्तवास उह प्रिय था। और वर्षाकालको छोड़कर सदा मौन विचरण करते थे। इस तरह उन्होने बारह वर्ष विताये थे। इन बारह वर्षों में उन्हें जिन कष्टोंका सामना करना पड़ा. उपसर्गो को सहना पड़ा उनको पढ़कर भी चित्त चंचल हो उठता था। इसीसे बुद्धने कठोर तपस्याका मार्ग छोड़कर मध्यम मार्ग अपनाया था। किन्तु महावीर तो महावीर थे, उनकी दृढ़ता स्पृहणीय थी। श्वेताम्बरीय आगमिक उल्लेखोंके अनुसार इन बारह वर्षों में एकाकी विहारी महावीरको अनेकों उपसर्गों और कष्टोंका सामना करना पड़ा। उनके कानोंमें कीले ठोके गये, सर्वाङ्गको धूलसे आच्छादित कर दिया गया, किन्तु महावीर अपने सन्मार्गसे विचलित नहीं हुए और न उन्होंने अपनी क्षमाशीलता और निर्वैर वृत्तिका ही परित्याग किया। दिगम्बर उल्लेखके अनुसार जब वे उज्जैनमें ध्यानस्थ थे तब रात्रिमें उनके ऊपर घोर उपसर्ग किया गया। किन्तु वे अपने ध्यानसे विचलित नहीं हुए। उनकी क्षमाशीलता और निर्वैर वृत्ति आदर्श थी। इसी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर २५१ आन्तरिक और बाह्य वृत्तिने उन्हें एक दिन 'जिन' बना दिया। वह दिन था वैसाख शुक्ला दसमी। उस दिन वह जृम्भिका' ग्रामके निकट बहनेवाली ऋजुकूला नदीके तट पर शालवृक्षके नीचे ध्यानस्थ थे। उसी दिन उन्हें केवल ज्ञानकी प्राप्ति हुई और वह सर्वज्ञ सर्वदर्शी बन गये तथा 'जिन', अर्हत्', तीर्थङ्कर आदि नामोंसे अभिहित हुए। १--उजुकूलणदीतीरे जंभियगामे वहिं सिलाव? । छट्टैणादातो अवररहे पादछायाए ॥२०॥ वइसाह जोएहपक्खे दसमीए खवगसेढिमारुद्धो । हतूण घाइकम्मं केवलणाणं समावण्णो ।। २६ ।। -ज० ध०, भा० १, पृ० ८० में उद्धृत । बहसाह सुद्धदसमी माघारिक्खम्हि वीरणाहस्स । रिजुकूलणदीतीरे अवरणहे केवलं णाणं ॥ ७११ ।। --त्रि० प्र०, अ०४॥ जंभियवहि उजुवालियतीर वियावत्त सामसाल अहे । छठेणुक्कुडुयस्स उ उप्पणं केवलं गाणं ॥ ५२५ ।। -प्रा०नि०, पृ० २६१ । ग्राम-पुर-खेट कर्वट-मटम्ब-घोषाकरान् प्रविजहार । उग्रैस्तपोविधानादश वर्षाण्यमरपूज्यः ।। १० ।। ऋजुकूलायास्तीरे शालगुमसंश्रिते शिलापट्टे । अपराण्हे षष्ठ नास्थितस्य खलु जम्भिकाग्रामे ॥११॥ वैसाखसितदशम्यां हस्तोचरमध्यमाश्रिते चन्द्र । क्षपकश्रेण्यारूढस्योत्पन्न केवलज्ञानम् ।। १२ ।। -निर्वाण भक्ति । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका सर्वज्ञता और सर्वदर्शित्व जैन सहित्यमें भगवान महावीरको सर्वज्ञ और सर्वदर्शी बतलाया है। सर्वज्ञता और सर्वदर्शित्वकी प्राप्ति उन्हें तपस्याके पश्चात् ही हुई थी। जन्मसे तो महावीर भी असर्वज्ञ और असर्वदर्शी थे। बारह वर्षकी कठोर साधनाके द्वारा आत्माकी पूर्णज्ञान शक्ति और पूर्णदर्शन शक्तिके आवारक चार घातिकर्मों को नष्ट करके उन्होने अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य रूप चतुष्टयको प्रकट किया। इसीसे वे सर्वज्ञ और सर्गदर्शी हो गये। यहां संक्षेपमें प्रकृत विषय पर प्रकाश डालना अनुचित न होगा। जैन सिद्धान्तमें ज्ञान और दर्शनको आत्माका गुण माना है। यद्यपि अल्पज्ञ अवस्थामें इन्द्रियोंके द्वारा ज्ञानकी उत्पत्ति देखी जाती है किन्तु ज्ञान जीवका ही गुण है, इन्द्रियोंका नहीं; क्योंकि इन्द्रियोंके विना भी ज्ञानकी उत्पत्ति देखी जाती है। अतः जैन दर्शनमें जीव ज्ञानदर्शनलक्षण वाला माना गया है। किन्तु सब संसारी जीवोंमें ज्ञान और दर्शन एकसा नहीं पाया जाता । उनमें तर-तमभाव देखा जाता है। किसी संसारी जीवमें ज्ञानका विशेष विकास पाया जाता है तो किसीमें स्वल्प । इस तर-तमभावको निष्कारण नहीं माना जा सकता। इसका कोई कारण अवश्य होना चाहिये। जैन दर्शनमें इस तर-तमता का कारण आवरण कर्म माना गया है। आवारक कर्मके ही कारण आत्माका पूर्णज्ञान अविकसित रहता है और उसके कतिपय अंश ही तर-तमताको लिये हुए विभिन्न संसारी जीवों में प्रकट देखे जाते हैं। आत्माके ज्ञान दर्शन आदिके आवारक कर्म भी सहेतुक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५३ भगवान् महावीर हैं, अहेतुक नही हैं, क्योंकि कर्मको अहेतुक माननेसे उनका विनाश नहीं बन सकता । अतः कर्म सहेतुक हैं तथा मूर्त हैं । और वे जीवसे सम्बद्ध हैं। क्योंकि यदि कर्मको जीवसे सम्बद्ध न माना जायगा तो कर्मका कार्य जो मूर्त शरीर है, उस मूर्त शरीर से जीवका सम्बन्ध नहीं बन सकता । अर्थात् यदि कर्मों से जीव को भिन्न माना जायगा तो कर्मोंसे भिन्न अमूर्त जीवका शरीरके साथ सम्बन्ध नहीं बन सकता। और शरीरके साथ जीवका सम्बन्ध सिद्ध है; क्योंकि शरीरके छेदे जाने पर जीवको दुःख होता है, जीवके गमन करने पर शरीर भी गमन करता है। जीवके रुष्ट होनेपर शरीरमें कम्प, दाह, आंखोंका लाल होना, भौंका चढ़ना आदि देखे जाते हैं। तथा जीवकी इच्छासे शरीरका गमन, आगमन, हाथ पैर सिर अंगुली आदिका संचालन देखा जाता है। अतः जीव शरीरसे सम्बद्ध है। यदि जीवको शरीर और कर्मोंसे असम्बद्ध माना जायगा तो सम्पूर्ण जीवोंके केवल ज्ञान, केवल दर्शन, अनन्तवीर्य आदि गुण प्रकट दीखने चाहिये जैसा कि मुक्तात्माओंमें देखा जाता है । अतः जीवका कर्मके साथ भी एक क्षेत्रावगाहरूप सम्बन्ध मानना चाहिये। यह शंका हो सकती है कि अमूर्त जीवका मूर्त शरीरके साथ सम्बन्ध कैसे हो सकता है। किन्तु जैन सिद्धान्तमें जीव और कर्मोंका अनादि सम्बन्ध स्वीकार किया गया है अतः उक्त शंकाको स्थान नहीं है। इस तरह जीव और कर्मोंका सम्बन्ध अनादि है। यदि उसे अनादि न माना जायगा तो वर्तमानमें भी जो जीव और कर्मका सम्बन्ध उपलब्ध होता है वह नहीं बन सकेगा। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका __ कर्म जीवके गुणोंका निमूल विनाश नहीं करते; क्योंकि ऐसा माननेपर जीव द्रव्यमें पाये जानेवाले गुणोंका अभाव हो जायेगा और उनका अभाव हो जानेपर जीव द्रव्यके भी अभावका प्रसंग प्राप्त होगा। कर्मोंकी अनादि सन्तान भी बीज और अंकुरकी सन्तानकी तरह नष्ट हो जाती है। कर्मोके आनेको आस्रव कहते हैं और रुकनेको संवर कहते हैं। श्रास्रवके कारण हैं--मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग। और संवरके कारण हैं-सम्यक्त्व, संयम और विरागता आदि। अतः आस्रवके विरोधी संवरके कारणोंके प्रकट होनेपर कर्मोकी आस्रवपरम्परा विच्छिन्न हो जाती है। और इस तरह नवीन कर्मों का बन्ध रुक जाता है। अब प्रश्न रहता है पूर्व संचित कर्मों के क्षयका। जैन सिद्धान्तमें योगके निमित्तसे कर्मो का बन्ध होता है और कषायके निमित्तसे कर्मों में स्थिति पड़ती है। इसलिये योग और कषायका अभाव हो जाने पर बन्ध और स्थितिका अभाव हो जाता है और उससे पूर्वसञ्चित कर्मों की निर्जरा हो जाती है। तथा तपसे भी पूर्वसञ्चित कर्मोंका क्षय होता है । कर्मोंका क्षय हो जाने पर पूर्णज्ञान--जिसे जैन सिद्धान्तमें केवल ज्ञान कहते है-उसी तरह प्रकट हो जाता है जैसे मेघ पटलके हटने पर सूर्य। _ अतः जैसे निरावरण सूर्य समस्त जगत्को प्रकाशित करता है वैसे ही निरावरण केवलज्ञान और केवलदर्शन समस्त जगत्को जानते देखते हैं। इसीसे केवलज्ञानीको सर्वज्ञ और सर्वदर्शी कहा जाता है। वह केवलज्ञानी असत्यार्थक प्रतिपादन नहीं कर सकता क्योंकि असत्य कथन करनेके कारण हैं-- Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर अज्ञान और राग द्वेष। इन दोनोंसे वह मुक्त है, अतः वह सत्यार्थका ही प्रतिपादन करता है । . इसीसे भगवान महावीर अपने बारह वर्षके साधना कालमें मौन ही रहे, उन्होंने किसीको कोई उपदेश नहीं दिया। बारह वर्षकी साधनाके पश्चात् सर्वज्ञ सर्वदर्शी हो जाने पर ही उन्होंने अपनी प्रथम धर्मोपदेशना की। उसी समयसे वे तीर्थङ्कर कहलाये। ___ भगवान महावीरकी सर्वज्ञता और सर्वदर्शित्वकी चर्चा उनके समयमें सर्वाविश्रुत थी, यह बात बौद्ध त्रिपिटिकोंसे भी प्रकट होती है। ___मज्झिम निकायके 'चूल-दुक्खक्खन्ध सुत्तन्त' (पृ० ५६) में बुद्ध महानाम शाक्यसे कहते हैं--"एक समय महानाम ! मैं राजगृहमें गृध्रकूट पर्वतपर विहार करता था। उस समय बहुत से निगंठ ( =जैन साधु ) ऋषिगिरिकी काल शिलापर खड़े रहने ( का व्रत ) ले, आसन छोड़, उपक्रम करते, दुःख कटु तीव्र वेदना झेल रहे थे। तब मैं महानाम ! सायंकाल ध्यानसे उठकर जहाँ ऋषिगिरिके पास कालशिला थी, जहाँ पर कि वह निगंठ थे, वहाँ गया। जाकर उन निगंठोंसे बोला-'आवुसो! निगंठो! तुम खड़े क्यों हो, आसन छोड़े दुःख कटुक तीव्र वेदना झेल रहे हो।' ऐसा कहने पर उन निगंठोंने कहा-श्रावुत ! निगंठ नाथपुत्त ( =जैन तीर्थङ्कर महावीर ) सर्वज्ञ सर्वदर्शी आप अखिल (=अपरिशेष) ज्ञान दर्शनको जानते हैं-चलते खड़े, सोते जागते, सदा निरन्तर (उनको) ज्ञान दर्शन उपस्थित रहता है। वह ऐसा कहते हैं-निगंठो ! जो तुम्हारा पहलेका किया हुआ कर्म है उसे इस कड़वी दुष्कर क्रिया ( =तपस्या ) से नाश करो और जो इस वक्त यहां काय वचन मनसे, संवृत्त ( =पाप न करनेके Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका कारण रक्षित, गुप्त ) हो, यह भविष्यके लिये पापका न करना हुआ । इस प्रकार पुराने कर्मों का तपस्यासे अन्त होने से, और नये कर्मोंके न करने से, भविष्यमें चित्त अन्-श्रास्रव (निर्मल) होगा। भविष्यमें आस्रव न होनेसे कर्मोंका क्षय (होगा), कर्मक्षयसे दुःखका क्षय, दुःखक्षयसे वेदना ( =झेलना) का क्षय, वेदनाक्षयसे सभी दुःख नष्ट होंगे। हमें यह विचार रुचता है = खमता है इससे हम सन्तुष्ट हैं।' ____ इसी तरह म०नि० के चूल सकुलुदायी सुत्तन्त (पृ० ३१८) में लिखा है__'एक समय भगवान बुद्ध राजगृहमें बेणुबन कलन्दक निकायमें विहार करते थे। उस समय सकुल उदायि परिव्राजक महती परिषद्के साथ परिव्राजकाराममें रहता था। भगवान् पूर्वाहण समय जहाँ सकुल उदायी परिव्राजक था, वहाँ गये। तब सकुल उदायी परिव्राजक ने कहा पिछले दिनों भन्ते ! (जो वह ) सर्वज्ञ सर्वदर्शी निखिल ज्ञान दर्शन होनेका दावा करते हैं-चलते, खड़े, सोते जागते भी ( मुझे ) निरन्तर ज्ञान दर्शन उपस्थित रहता है । कौन है यह उदायी सर्वज्ञ सर्वदर्शी..... "बुद्ध भगवानने पूछा 'भन्ते ! निगंथ नाटपुत्त ! ऊपरके दोनों उल्लेखोंसे यह स्पष्ट है कि भगवान महावीरके सर्वज्ञ सर्वदर्शी होनेकी बात श्रमण सम्प्रदायमें विश्रुत थी और सर्वज्ञ सर्वदर्शीका वही अर्थ लिया जाता था जो जैन शास्त्रोंमें वर्णित है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर प्रथम धर्मदेशना केवलज्ञान उत्पन्न होते ही देवतागण श्राकर केवलज्ञानी तीर्थङ्करका ज्ञानकल्याणक महोत्सव मनाते हैं, उनकी पूजा करते हैं और इन्द्रकी आज्ञासे उनके उपदेशके लिये समवसरणकी रचना करते हैं, ऐसी सामान्य जैन मान्यता है । तदनुसार ज़भकाके पास ऋजूकूलनदीके तट पर भगवान महावीरको केवलज्ञान उत्पन्न होने पर देवतागरणने आकर उनकी पूजा की ज्ञानकल्याणक महोत्सव मनाया। समवसरणकी रचना भी हुई। परन्तु इस प्रथम समवसरणमें महावीर भगवानकी वाणी नहीं खिरी और इसलिये उस दिन धर्मतीर्थका प्रवर्तन नहीं हो सका । ० आवश्यक नियुक्ति में लिखा है कि शेष सभी जैन तीर्थंकरोंका तीर्थ प्रथम समवसरण में उत्पन्न हुआ, किन्तु जिनेन्द्र -महाबीरका तीर्थं द्वितीय समवसरण में उत्पन्न हुआ । श्व ेताम्बर साहित्य में ( स्था० १० ठ० ) दस अच्छेरे 'आश्चर्य' बतलाये हैं, जिनमें से एक महाबीर भगवान पर उपसर्ग होना, दूसरा गर्भपरिवर्तन और तीसरा है अभव्यसभा । अर्थात् जृम्भिका ग्राममें महाबीर केवलज्ञान उत्पन्न होने पर समवसरणकी रचना हुई और उसमें देव मनुष्य तिर्यञ्च एकत्र भी हुए और कल्पका पालन करनेके ही लिये धर्मकथा भी हुई किन्तु किसीने भी व्रतधारण नहीं किये। महावीर से पूर्व अन्य किसी भी तीर्थङ्करके समयमें ऐसा नहीं हुआ । अतः यह घटना आश्चर्य जनक होनेसे छेरा (चर्य ) कहलाई । १ 'तित्थं चाउव्वणो संघो सो पदमए समोसरणे । उप्पण्णो उ जिणाणं वीरजिदिस्स वीयम्मि || " १७ Jain Educationa International २५७ For Personal and Private Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका आव० नि० (गा० ५३८ ) में 'बतलाया है कि केवलज्ञान उत्पन्न होनेपर भगवान महावीर रात्रिमें ही महासेनवन् नामक उद्यानको चले गये । इसकी टीकामें मलयगिरिने लिखा है 'भगवान महावीरको केवल ज्ञान उत्पन्न होनेके अनन्तर ही चारों प्रकारके देव आगये थे और उन्होंने हर्षित होकर ज्ञान कल्याणकका अद्भुत महोत्सव मनाया था। किन्तु भगवानने जाना कि यहाँ कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है जो प्रव्रज्या धारणकर सके । यह जानकर वे विशिष्ट धर्मकथामें प्रवृत्त नहीं हुए। किन्तु ऐसा कल्प है कि जहां केवल ज्ञान हो वहाँ केवलीको कमसे कम भी एक अन्तमुहूर्त तक ठहरना चाहिए और देवकृत पूजाको स्वीकार करना चाहिए, तथा धर्मोपदेश भी करना चाहिए। इस नियोगके अनुसार संक्षेपसे धर्मोपदेश करके भगवान महावीर वहांसे विहार कर गये; क्योंकि उन्होंने अपने ज्ञानसे जाना कि यहां से बारह योजनपर मध्यमा नामकी नगरीमें सोमिल नामक ब्राह्मण यज्ञ कर रहा है। वहां ग्यारह उपाध्याय आये हुए हैं । वे सव चरमशरीरी हैं और पूर्व जन्ममें उन्होंने गणधर लब्धिका उपार्जन किया है। यह जानकर देवताओंसे वेष्टित भगवान महावीर देवकृत प्रकाश के द्वारा रानिमें भी दिनका सा प्रकाश करते हुए मध्यमा नगरीके महासेन वन नामक उद्यानमें पधारे।' वहां दूसरे समवसरणकी रचना हुई और देवताओंने महावीर भगवानकी पूजा की। इसी दूसरे समवसरणमें भगवान महावीरको धर्म चक्रवर्तित्व प्राप्त हुआ १ 'उत्पन्न मि श्रणंते नट्ठम्मि अछाउमथिए नाणे । राइए संपत्तो महसेएवणम्मि उजाणे ॥ ५३८॥' २ "अमरनररायमहिश्रो पत्तो वरधम्मचकवट्टित्त। वीयम्मि समवसरणे पावाए मज्झिमाए उ ॥ ५३६ ॥ -श्राव०नि०, पृ० २६६ । । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर २५६ देवताओंका जय जयकार सुनकर यज्ञमें उपस्थित समूह बड़ा प्रसन्न हुआ और उसने समझा कि देवगण यज्ञमें पधार रहे हैं। किन्तु जब देवगण यज्ञमें न पधारकर समीपमें ही स्थित भगवान महावीरके समवरणमें चले गये तो जन समूह भी उधर ही चला आया, और यह बात सर्वत्र फैल गई कि यहां एक सर्वज्ञ आये हुए हैं और देव उनकी पूजा करते हैं। इन्द्रभूति नामक ब्राह्मण विद्वान इस बात को सुनकर क्रुद्ध होता हुआ यज्ञ मण्डपसे समवसरणकी ओर चला। उसे देवोंके द्वारा महावीरकी पूजा तथा उनकी सर्वज्ञताका प्रवाद सह्य नहीं हुआ । इन्द्रभूतिको देखते ही सर्वज्ञ सर्वदर्शी भगवानने उसका नाम और गोत्र उच्चारण करते हुए उसे अपने पास बुलाया। महावीरके मुखसे अपना नाम और गोत्र सुनकर प्रथम तो उसे कुछ अचरज हुआ, पीछे उसके अहंकारने उसे सुझाया कि मैं तो सर्वलोक प्रसिद्ध हूं, मुझे कौन नहीं जानता। यदि यह मेरे मनोगत संशयको बतलाये तो मैं सममूकि यह सर्वज्ञ है। ___ इतने में ही महावीरने कहा-'इन्द्रभूति गौतम ! तुझे जीवके अस्तित्वमें सन्देह है। अपने मनोगत सन्देहका निवारण होते ही इन्द्रभूतिने महावीरका शिष्यत्व स्वीकार करके उनके चरणोंमें प्रव्रज्या लेली और महावीरका प्रधान गणधर पद अलंकृत किया। इस तरह श्वेताम्बरीय साहित्यके अनुसार महावीरके तीर्थका प्रवर्तन मध्यमा नगरीके महासेनवनमें हुआ। वहांसे महावीरने राजगृहीकी ओर प्रस्थान किया और वहां उनका तीसरा समवसरण रचा गया। किन्तु दिगम्बर साहित्यके उल्लेख उक्त कथनके अनुकूल नहीं हैं। उनके अनुसार जृम्भिका ग्राममें केवल ज्ञान होनेके Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० जै० सा० इ० - पूर्व पीठिका पश्चात् भी भगवान महावीरका प्रव्रज्या के समयसे धारण किया गया मौन भंग नहीं हुआ और वे छियासठ दिन तक मौनपूर्वक विहार करते हुए राजगृही नगरीमें गये और उसके बाहर स्थित विपुलाचल पर विराजमान हो गये। वहीं उनका प्रथम समवसरण रचा गया । वहीं इन्द्रभूति गौतमने उनके पादमूल में प्रव्रज्या धारण की और वहीं उनकी प्रथम धर्मदेशना हुई। इस विषय में वीरसेन स्वामीने अपनी धवला और जयधवला टीकामें कतिपय प्राचीन गाथाओं को उद्धृत करते हुए विस्तृत वर्णन किया है । जयधवला में प्रश्न किया गया है कि महावीर ने धर्मतीर्थंका उपदेश कहाँ दिया ? इसका उत्तर देते हुए लिखा है कि 'जब महामंडलीक राजा श्रेणिक अपनी चेलना रानीके साथ सकल पृथ्वी मण्डलका उपभोग करता था तब मगध देशके तिलक के समान राजगृह नगरकी नैऋत्य दिशामें स्थित तथा सिद्ध और चरणोंके द्वारा सेवित विपुलगिरि पर्वतके ऊपर बारह सभाओं से वेष्ठित भगवान महावीरने धर्मतीर्थका उपदेश दिया ।' १ - - षट्षष्ठि दिवसान् भूयो मौनेन विहरन् प्रभुः । श्राजगाम जगत्ख्यातं जिनो राजगृहं पुरम् ||६१ ॥ श्रारुरोह गिरिं तत्र विपुलं विपुलश्रियम् । प्रवोधार्थ स लोकानां भानुमानुदयं यथा ॥६२॥ X X X समवस्थान मर्हतः ॥६८॥ इंद्रानिवायुभूताख्या: कौण्डिन्याख्याश्च पंडिताः । इन्द्रयायाताः प्रत्येकं सहिताः सर्वे शिष्याणां पञ्चभिः शतैः । त्यक्ताम्वरादिसम्बन्धाः संयमं प्रतिपेदिरे ||६६|| -- हरि० पु०, २ सर्ग । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. भगवान् महावीर फिर प्रश्न किया गया कि किस काल में भगवान महावीरने धर्मतीर्थका प्रवर्तन किया। इसका उत्तर देते हुए लिखा है कि'इस भरक्षक्षेत्र सम्बन्धी अवसर्पिणी कालके चौथे दुषम सुषमा नामक कालमें तेतीस वर्ष, छै मास और नौ दिन अवशिष्ट रहने पर धर्मतीर्थकी उत्पत्ति हुई।' इस कालका विवरण देते हुए लिखा है कि-'चौथे कालमें ७५ वर्ष आठ मास, १५ दिन शेष रहने पर आषाढ़ शुक्ला षष्ठीके दिन बहत्तर वर्षकी आयु लेकर भगवान महावीर गर्भमें आये। बहत्तर वर्षों में तीस वर्ष कुमार काल है, बारह वर्ष छद्मस्थकाल ( तपस्याकाल) है तथा तीस वर्ष केवलिकाल है। इस बहत्तर वर्ष प्रमाण कालको ७५ वर्ष ८ मास १५ दिन काल में घटा देने पर महावीरके मोक्ष जाने पर शेष बचे चतुर्थ कालका प्रमाण आता है। इस कालमें छियासठ दिन कम केवलिकालको मिला देनेपर अर्थात् तीन वर्ष, आठ मास, पन्द्रह दिनमें २६ वर्ष, नौ मास, २४ दिन मिला देनेपर तेतीस वर्ष छह महीना, नौ दिन होते हैं। चौथे कालमें इतना शेष रहने पर भगवान महावीरने धर्मतीर्थका प्रवर्तन किया अर्थात् प्रथम धर्मदेशना की। अतः दिगम्बर परम्पराके अनुसार केवलज्ञान होनेके छियासठ दिन पश्चात् श्रावणकृष्णा' प्रतिपदाके दिन प्रातःकालके समय १ इम्मिस्सेऽवसप्पणीए चउत्थसमयस्स पच्छिमे भाए । चोत्तीसवाससेसे किंचि विसेसूणए संते ॥५५॥ वासस्स पढममासे पढमे पक्खम्हि सावणे बहुले । पाडिवदपुन्वदिवसे तित्थुप्पत्ती दु अभिजिम्हि ।।५६॥ सावणबहुलपडिवदे रुद्दमुहुत्ते सुहोदए रविणो । अभिजिस्स पढमजोए जत्थ जुगादी मुणेयन्यो ॥५७॥ -धवला, पु० १, पृ० ६२-६३ में उद्धृत । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका आकाशमें अभिजित् नक्षत्रका उदय रहते हुए राजगृही नगरीके बाहर स्थित विपुलाचलपर महावीरकी प्रथम धर्मदेशना हुई। केवल ज्ञान होने पर भी छियासठ दिन तक धर्मदेशना न होनेका कारण बतलाते हुए जयधवला (भा० १, पृ० ७५-७६) में प्रश्नोत्तर रूपमें जो विवरण दिया गया है यहाँ हम उसे उद्धृत किये देते हैं। प्रश्न-केवलिकालमेंसे छियासठ दिन किसलिये कम किये गये हैं ? ___ उत्तर-भगवान महावीरको केवल ज्ञान हो जाने पर भी छियासठ दिन तक धर्मतीर्थकी उत्पत्ति नहीं हुई थी, इसलिये केवलिकालमें छियासठ दिन कम किये गये हैं। प्रश्न-केवलज्ञान उत्पन्न हो जाने पर भी छियासठ दिन तक दिव्यध्वनि क्यों नहीं खिरी ? एत्थावसप्पिणीए चउत्थकालस्स चरिमभागम्मि । तेत्तीसवास अडमास पण्णरस दिवससेसम्मि ॥६८।। वासस्स पढममासे सावणणामम्मि बहुल पडिवाए । अभिजीणक्खत्तम्मि य उप्पत्ती धम्मतित्थस्स ॥६६॥ -ति० १०१। श्रावणस्यासिते पक्षे नक्षत्रेऽभिजिति प्रभुः ।। प्रतिपद्यहि पूर्वाण्हे शासनार्थमुदाहरत् ।।६१॥ -हरि० पु०, २ सर्ग । १ पञ्चसेलपुरे रम्मे विउले पव्वदुत्तमे । णाणादुमसमाइण्णे देवदाणववंदिदे ॥५२॥ महावीरेणत्थो कहियो भवियलोयस्स । -धवला, पु० १, पृ० ६१ पर उद्धृत । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर २६३ उत्तर-गणधर न होने से। प्रश्न-सौधर्म इन्द्रने केवल ज्ञान होनेके समय ही गणधरको उपस्थित क्यों नहीं किया ? उत्तर-काललब्धिके बिना सौधर्म इन्द्र गणधरको उपस्थित करने में असमर्थ था। प्रश्न-जिसने अपने पादमूलमें महाव्रत स्वीकार किया है ऐसे पुरुषको छोड़कर अन्यके निमित्तसे दिव्यध्वनि क्यों नहीं खिरती। समाधान-ऐसा ही स्वभाव है और स्वभावके विषयमें कोई प्रश्न नहीं किया जा सकता। ___उक्त प्रश्नोत्तरोंसे ज्ञात होता है कि केवल ज्ञान उत्पन्न होनेके पश्चात् जो व्यक्ति तीर्थङ्करके पादमूलमें दीक्षा लेकर उनका शिष्यत्व स्वीकार करता है वही उनका गणधर बननेका अधिकारी होता है। छियासठ दिन तक किसी ऐसे व्यक्तिने महावीर भगवानके पादमूलमें दीक्षा लेकर उनका शिष्यत्व स्वीकार नहीं किया, जो इनका गणधर बननेकी योग्यता रखता हो। ___ जैसा कि पहले लिखा जा चुका है, श्वेताम्बरीय मान्यताके अनुसार जम्भिका ग्राममें केवल ज्ञान प्रकट होने पर भी महावीर भगवानकी धर्मदेसना इसलिये नहीं हुई कि वहाँ कोई ऐसा व्यक्ति उपस्थित नहीं था जो उनके पादमूलमें चारित्र धारण करके उनका शिष्यत्व स्वीकार कर सकता हो। दूसरे दिन महासेन नामक उद्यानमें इन्द्रभूति आदिके उनका शिष्यत्व स्वीकार करने पर ही उनकी धर्मदेशना हुई । अतः केवल ज्ञान प्रकट होनेके पश्चात् ही भगवान् महावीरकी धर्मदेशना न होने के सम्बन्धमें दोनों सम्प्रदायों की मान्यतामें प्रायः एकरूपता है । अन्तर है प्रथम देशनाके स्थान और काल में। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका समवसरण महावीर भगवान्की उपदेश सभाको समवसरण कहा जाता था । जैन साहित्यमें तीर्थङ्करोंके 'समवसरणोंका जो वर्णन मिलता है वह अनुपम है। वृहत्सभास्थानकी रचना कैसी की जाती थी यह उससे प्रकट होता है। संक्षेपमें समवसरणकी रचना इस प्रकार होती है-सबसे प्रथस धूलि साल नामक कोटके बाद चारों दिशाओंमें चार मानस्तम्भ होते हैं। इन मानस्तम्भों पर दृष्टि पड़ते ही अहङ्कारी व्यक्तियोंका अहङ्कार चूर-चूर हो जाता है। मानस्तम्भोंके चारों ओर सरोवर होते हैं। फिर निर्मल जलसे भरी हुई परिखा होती है, फिर पुष्प वाटिका होती है। उसके आगे पहला कोट होता है। उसके आगे दोनों ओर दो दो नाटक शालाएँ होती हैं, उनके आगे दूसरा उपवन होता है, उसके आगे वेदिका और फिर ध्वजाओंकी पंक्तियाँ होती हैं। फिर दूसरा कोट होता है। उसके आगे वेदिकासहित कल्पवृक्षोंका वन होता है। उसके बाद स्तूप और स्तूपोंके बाद मकानोंकी पंक्तियाँ होती हैं। फिर तीसरा कोट होता है। उसके भीतर सोलह दीवालोंके बीचमें बारह कोटे होते हैं। इन कोटोंके भीतर पूर्वादि प्रदक्षिणा क्रमसे पृथक-पृथक मनुष्य, देव और मुनिगण बैठते हैं। तदनन्तर पीठिका होती हैं और पीठिकाके ऊपर तीर्थकर विराजमान होते हैं। तीर्थकर पूरब अथवा उत्तर दिशा की ओर मुख करके बैठते हैं। उनके चारों ओर प्रदक्षिणारूप क्रमसे मुनिजन १, कल्पवासिनी देवियाँ २, आर्यिका तथा अन्य स्त्रियाँ ३, ज्योतिषोंको देवियाँ ४, व्यन्तरोंको देवियाँ ५, भवन१. विस्तृत वर्णन के लिये तिलोय पण्णति भा० १, गा० ७१२ ६३३ तथा महापुराण प्र० भाग पृ० ५१४-५३६ देखना चाहिये । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर २६५ वासिनी देवियाँ ६, भवनवासी देव ७, व्यन्तरदेव ८, ज्योतिष्कदेव, कल्पवासी देव १०. मनुष्य ११ और पशु १२ बैठते हैं। शान्तमूर्ति क्षमाशील तीर्थंकरके प्रभावसे समवसरणमें स्थित विरोधी प्राणी भी परस्परके विरोधको भूल जाते हैं और शान्तिपूर्वक उपदेश श्रवण करते हैं। दिव्यध्वनि और उसकी भाषा तीर्थङ्करों की वाणीको दिव्यध्वनि कहते हैं। दिव्य-ध्वनि अर्थात् अलौकिक आवाज । भगवानके मुखकमलसे निकलनेवाली इस ध्वनिकी दिव्यता यह होती है कि यद्यपि वह ध्वनि एक ही प्रकार की होती है तथापि उसका परिणमन सर्वभाषारूप होता है। समवसरणमें उपस्थित सभी प्राणी उसका अभिप्राय अपनी अपनी भाषामें समझ जाते हैं। इसीसे उसे सर्व भाषारूप कहा गया है। किन्हीं आचार्योंका मत है कि वाणीकी यह विशेषता देवकृत है। जिनसेनाचार्य ने उसे देवकृत नहीं माना बल्कि भगवानकी ही विशेषता माना है। इसी तरह कुछ आचार्योंने तीर्थङ्करकी वाणीको अनक्षरी' माना है किन्तु जिनसेनाचार्य ने उसका निषेध करते हुए अक्षररूप ही माना है। उनका कहना है कि अक्षर समूहके बिना लोकमें अर्थका परिज्ञान नहीं देखा जाता। १. 'एकतयोऽपि च सर्वनृभाषाः सोऽन्तरनेष्ट बहूश्च कुभाषाः। अप्रतिपत्तिमपास्य च तत्वं बोधयतिस्म जिनस्य महिम्ना ॥७०॥ -म० पु०, २३ ५० । २. 'देवकृतो ध्वनिरित्यसदेतद् देवगुणस्य तथा विहतिः स्यात् । साक्षर एव च वर्णसमूहान्नैव विनार्थगतिर्जगति स्यात् ।।७३।। -म० पु० २३ पर्व । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका ___भगवान महाबीरने अपना उपदेश अर्धमागधी भाषामें दिया था। उनके कालमें धर्मकी भाषा संस्कृत थी। किन्तु महाबीर और बुद्ध ने तत्कालीन लोक भाषाको ही अपने अपने उपदेशोंको माध्यम बनाया। जहां तक हम जान सके हैं ये दोनों ही प्रचारक किसी भाषाविशेष पर जोर नहीं देते थे। उनकी केवल यही भावना थी कि लोग धर्मको जाने और उसका अनु. सरण करें। भाषा विशेषके प्रयोगका महत्त्व उनकी दृष्टिमें नहीं था । चुल्लवग्ग (५-३३-१) में लिखा है कि एक बार दो भिनुओं ने बुद्धसे शिकायत की कि भिक्षु बुद्धबचनको अपनी अपनी भाषामें परिवर्तित कर रहे हैं। बुद्धने उत्तर दिया कि मैं भिक्षुओं को अपनी अपनी भाषाके प्रयोगकी अनुज्ञा देता हूं। यह निश्चित रूपसे नहीं कहा जा सकता कि बुद्धने किस भाषामें धर्मका प्रचार किया। किन्तु सबसे प्राचीन बौद्ध ग्रन्थ पालि भाषामें हैं और पालि निकायको त्रिपिटक कहते हैं। ____पालि भाषाका मूल कौन भाषा है और वह कहाँ उत्पन्न हुई इस विषयमें बड़ा विवाद है। किन्तु बौद्ध बुद्धकी भाषाको मागधी मानते हैं। डा० सुनीति कुमार चटर्जीका कहना है कि बुद्धके समस्त उपदेश बादके समयमें मागधी भाषासे मध्यदेशकी सौरसेनी प्राकृतमें अनुवादित हुए थे। और वे ही ईस्वी पूर्व प्रायः दो सौ वर्षसे पालि भाषाके नामसे प्रसिद्ध हुए।' किन्तु पालि भाषाका शौरसेनी और मागधीकी अपेक्षा पैशाचीके साथ ही अधिक सादृश्य है इसीसे डा० कोनो और सर ग्रियर्सनने पैशाची भाषा १. 'भगवं च णं अद्धमागहीए भासाए धम्ममाइक्खइ' -सम सू० । 'देवा ण अद्ध मागहाए भासाए भासंति' -भग० सू०॥ 'भासारिया जे णं अद्ध मागहाए भासाए भासंति -प्रज्ञा०' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर २६७ जिस देशमें प्रचलित थी उसीको पालिका उत्पत्तिस्थान बतलाया था। इससे यह स्पष्ट है कि बुद्धके उपदेशोंका माध्यम लोक भाषा ही थी। और भगवान महाबीरके उपदेशोंका माध्यम अर्धमागधी भाषा थी। इस भाषाकी यह विशेषता थी कि सब श्रोता इसका अभिप्राय अपनी अपनी भाषामें समझ लेते थे। भाषाकी इस विशेषताको देवताओंका अतिशय भी कहा गया है कि मागध जातिके देवोंके द्वारा उसका परिणामन इस रूपमें कर दिया जाता था जिसको सब श्रोता समझ सकते थे। यह तथोक्त देवकृत अतिशय आधुनिक युगके उन यंत्रोंका स्मरण दिलाते हैं जिनके द्वारा एक भाषामें कही गई बातको तत्काल विभिन्न भाषाओं में अनूदित कर दिया जाता है और इस तरह श्रोता अपनी अपनी भाषा में ही उसका अभिप्राय समझ लेते हैं। उक्त विशेषताको वक्ता भगवान् तीर्थङ्करका भी अतिशय बतलाया गया है। आजके वैज्ञानिक युगमें इसका आशय हम यह ले सकते हैं कि भगवान महाबीर अपना उपदेश एक ऐसी भाषामें देते थे जो भाषा किसी देश विशेषसे सम्बद्ध नहीं थी, यद्यपि उसमें उस देशकी भाषाके शब्दोंकी बहुतायत थी जिस देशमें भगवानकी प्रथम धर्म देशना हुई थी। वह देश मगध था, इसीसे भगवान की वाणी अर्धमागधी कही जाती थी। १६वीं शताब्दीके ग्रन्थकार श्रुतसागर' श्रुरिके अनुसार भगवानकी भाषाका अर्धभाग मगध देशकी भाषा अर्थात् मागधी भाषारूप था और आधा भाग अन्य सर्वभाषारूप था। १. 'सर्वार्धमागधीया भाषा भवति । कोऽर्थः ? अर्ध. भगवद्भाषाया मगधदेशभाषात्मकं अर्ध च सर्वभाषात्मकम्' -षट्प्रा० टी०, पृ० ६६ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ० - पूर्व पीठिका 'अर्धमागधी' शब्द 'अर्ध' और 'मागधी' इन दो शब्दोंके समास से निष्पन्न होता है । अर्धशब्दका अर्थ लगभग आधा और ठीक आधा दोनों होते हैं । व्याकरणके अनुसार जिस समासमें अर्ध शब्द अवयवीसे पूर्व में आता है वहाँ उसका अर्थठीक आधा होता है। अतः 'मागण्या अर्धम- अर्धमागधी' इस व्युत्पत्ति के अनुसार- जिस भाषा में ठीक आधी मागधी भाषा और आधी अन्य अन्य भाषाएँ रिलीमिली हों उसे अर्धमागधी भाषा कहते हैं । उदाहरण के लिए जिस भाषा में सौ शब्दोंमेंसे पचास शब्द मागधी भाषाके और पचास शब्द अन्य अन्य भाषाओं के मिलेजुले हों उसे अर्धमागधी कहा जा सकता है। श्रुतसागर सूरिने इसी व्युत्पत्तिको लक्ष्य में रखकर ही उक्त अर्थ किया है । साकी सातवीं शताब्दीके चूर्णिकार श्री जिनदास महत्तरने अर्धमागथी भाषाका अर्थ दो प्रकारसे किया है । यथा 'मगहद्धविसयभासा निबद्धं श्रद्धमागहं, श्रहवा अट्ठारसदेसी भासा - यितं श्रद्धमागधं ।' इनमें से दूसरे प्रकारका अर्थ तो स्पष्ट है - अट्ठारह प्रकारकी देशी भाषाओं में नियत सूत्रको श्रद्धमागध कहते हैं । अर्थात् अर्धमागधी भाषा अट्ठारह प्रकारकी देशी भाषाओंके मेलसे निष्पन्न भाषा होती है। किन्तु प्रथम प्रकार में मतभेद है २६८ पं० बेचरदासजीने उसका अर्थ इस प्रकार किया है- 'मगधदेशकी आधी भाषा में जो निबद्ध हो उसे अर्धमागध कहते हैं ।' ( जै० सा० सं०, भा० १, पृ० ३३ ) । किन्तु अपने 'पाइ सहमहणवके योद्धा में पं० हरगोविन्ददासने उसका अर्थ किया है'मगधदेशके अर्धप्रदेशकी भाषामें जो निबद्ध हो वह अर्धमागध ( पृ० २७ ) । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ भगवान् महावीर पं० हरगोविन्ददास अर्धमागधी शब्दकी 'अर्धमागध्याः' व्युत्पत्तिसे सहमत नहीं हैं। वह 'अर्धमगधस्येयं अर्धमागधी' व्युत्पत्तिको ही वास्तविक बतलाते हैं। इसके अनुसार अर्धमागधीका अर्थ होता है -मगध देशके अर्धाशकी जो भाषा वह अर्धमागधी है । निशीथ चूर्णिकारके अर्थका प्रथम प्रकार इसी व्युत्पत्तिके अनुकूल प्रतीत होता है । मगधार्धविषय भाषानिबद्धा' का अर्थ मगधदेशके अर्धप्रदेशकी भाषामें निबद्ध ही उपयुक्त हैमगधदेशकी आधी भाषामें निबद्ध ठीक नहीं है, क्योंकि अर्द्ध शब्द ऐसी स्थितिमें नहीं है जिससे उसे भाषाके साथ संयुक्त किया जा सके। किन्तु पं० हरगोविन्ददासने चूर्णिकारके दूसरे अर्थको बिल्कुल ही छोड़ दिया है क्योंकि वह उनकी 'अर्धमगधस्येयं' व्युत्पत्तिके प्रतिकूल और 'अर्धमागध्याः ' के अनुकूल है। उससे तो यही स्पष्ट होता है कि अर्धमागधी भाषा अनेक भाषाओंके मेलसे निष्पन्न भाषा थी। यही अर्थ तत्कालीन स्थिति तथा जैनपरम्परा के भी अनुकूल है। महावीर भगवानकी जन्मभूमि मगधदेश होनेसे उनकी भाषाका मुख्य सम्बन्ध मगधदेशके साथ होना उचित ही है। उसके साथ ही मगधके निकटवर्ती दूसरे प्रान्तोंकी भाषाओंके साथ मागधीका सम्पर्क होना स्वाभाविक है। अतः अन्य प्रान्तोंको भाषाओंसे मिश्रित मागधी भाषा ही अर्धमागधी होनी चाहिये। मार्कण्डेयने अपने प्राकृत व्याकरणमें मागधी भाषाका लक्षण बनाकर उसी प्रकरणके अन्तमें अर्थ मागधी भाषाका लक्षण इस प्रकार कहा है-'शौरसेन्या अदूरत्वादियमेवार्धमागधी ।' अर्थात् शौरसेनी भाषाके निकटवर्ती होनेसे मागधी ही अर्धमागधी है।' अर्धमागधीका उत्पत्ति स्थान मगध और शूरसेन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका का मध्यवर्ती प्रदेश माना जाता है। मगध देश और शूरसेन देश पास-पास होनेसे मगधकी भाषा मागधीका सूरसेन देशकी भाषा शौरसेनीके साथ सम्पर्क होनेसे अर्धमागधी भाषाकी उत्पत्ति हुई है। अतः उक्त लक्षणसे भी 'अध मागध्याः' व्युत्पत्ति का ही पोषण होता है। सर ग्रियर्सनने अपने प्राकृत भाषाओंके भौगोलिक विवरणमें यह स्थिर किया है कि जैन अर्ध मागधी मध्यदेश (शूरसेन ) और मगधके मध्यवर्ती देशकी भाषा थी। किन्तु क्रमदीश्वरने अपने प्राकृत व्याकरणमें अर्धमागधीका लक्षण भिन्न किया है-'महाराष्ट्री मिश्रा अर्ध मागधी; अर्थात् महाराष्ट्रीसे मिश्रित मागधी भाषा ही अर्धमागधी है।' सम्भवतया यह लक्षण अर्ध मागधी पर महाराष्ट्रीका प्रभाव पड़ने के पश्चात् रचा गया है; क्योंकि श्वे० जैन सूत्रोंकी अर्धमागधी में इतर भाषाओंकी अपेक्षा महाराष्ट्रीके लक्षण अधिक देखने में आते हैं। परन्तु इस लक्षण से भी यही प्रकट होता है कि अन्य भाषाओंसे मिश्रित मागधीको ही अधांमागधी कहते थे। अतः 'अर्धमागधी' में अर्ध शब्द मागधीके साथ समस्त है न कि मगध के साथ । मगध देशकी भाषा मागधी थी यह इतिहास सिद्ध है। आधे मगध देशकी भाषा उससे भिन्न कोई अन्य भाषा नहीं हो सकती जो अर्धमागधी कही जाती हो। फिर भी पं० हरगोविन्द दास जीने जो अर्ध मगधकी भाषाको अर्ध मागधी कहा है, उसका कारण शायद यह हो कि विद्वानोंका कहना है कि श्वे. जैन सूत्रोंकी भाषामें मागधीके लक्षण अधिक न मिलनेसे वह अर्धमागधी कहलानेके योग्य नहीं है । यह आपत्ति इसी बातको दृष्टिमें रखकर उठाई जाती है कि मागधीसे अर्धमागधी उत्पन्न हुई है। इसीके बचावके लिये शायद पण्डितजीने अर्धमागधीका अर्थ आधे मगधकी भाषा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर २७१ किया है। मगर इस परिभाषासे भी उक्त आपत्तिका परिहार नहीं होता क्योंकि जब मगधकी भाषा मागधी थी तो श्राधे मगधकी भाषा उससे सर्वथा भिन्न नहीं हो सकती। दूसरे, श्वेताम्बरीय आगम सूत्रों पर महाराष्ट्रीका गहरा प्रभाव परिलक्षित होनेका कारण यह है कि महाबीर निर्वाणसे ९८० वर्ष पश्चात् वलभीमें उनका संकलन, सम्पादन और लेखन हुआ तथा तबसे उनके संशोधन, संवद्धन, संरक्षा, पठन पाठन लेखन आदि का कार्य गुजरात और काठियावाड़में ही होता रहा। फिर भी अणेग, उदही, लोगालोगे, आदि शब्द उक्त आगमोंके किसी भी पृष्ठमें देखे जा सकते हैं, जो अर्ध मागधीके महाराष्ट्री चित्र मूल आधारके सूचक हैं। अतः अर्धमागधी एक ऐसी भाषा थी जो मागधी तथा अन्य प्रान्तोंकी भाषाओंके मेलसे निष्पत्र हुई थी। उसीको भगवान महाबीरने अपने उपदेशका माध्यम बनाया था। उसे सभी श्रोता. सरलतासे समझ सकते थे। महावीर भगवान के गणधर ___ दिगम्बर तथा श्वेताम्बर साहित्यमें महावीर भगवानके ग्यारह गणधर बतलाये हैं। उनमें प्रधान गणधर इन्द्रभूति गौतम थे। शेष गणधरों से कुछके नामोंमें अन्तर पाया जाता है। आचार्य गुणभद्रने अपने उत्तर पुराणमें ग्यारह गणधरोंके नाम इस प्रकार बतलाये हैं - इन्द्रभूति, वायुभूति, अग्निभूति, सुधर्मा, मौर्य, मौन्द्र, पुत्र, मैत्रेय, अकम्पन, अन्धवेल या अन्वचेल, और प्रभास ( पर्व २४, श्लो० ३७३-३७४)। श्वेताम्बर साहित्य में उनके नाम इस प्रकार पाये जाते हैं-इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति, व्यक्त, सुधर्मा, मंडिक (त), मौर्यपूत्र, अकम्पित, अचल भ्राता, मेतार्य और प्रभास। इन ग्यारह गणधरोंमेंसे दिगम्बर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ जै० सा० इ० - पूर्व पीठिका साहित्य से केवल एक इन्द्रभूतिके सम्बन्ध में ही थोड़ी सी जानकारी प्राप्त होती है । शेष गणधरोंके विषयमें कुछ भी ज्ञात नहीं होता । श्वेताम्बरी आगमोंसे भी गणधरोंके विषय में स्वल्प ही जानकारी प्राप्त होती है । यथा समवायांग सूत्र ११ में ग्यारह गणधरोंके नाम बताये हैं, सम० सू० ७४ में अग्निभूतिकी आयु ७४ वर्ष बतलाई है, सम० सू० ७८ में अकम्पित गणधरका आयु ७८ वर्ष बतलाई है । सम० सू० १२ में इन्द्रभूतिकी आयु ६२ वर्षे बतलाई है । कल्पसूत्र की स्थविरावली में कहा है कि भगवान महावीरके नौ गण और ग्यारह गणधर थे । इसका स्पष्टीकरण करते हुए कल्पसूत्र में ग्यारह गणधरोंके नाम गोत्र और प्रत्येक के शिष्यों की संख्या बतलाई है । गणधरोंकी योग्यता के विषय में लिखा है कि सभी गणधर द्वादशांग और चतुदश पूर्वके धारी थे । तथा सभी राजगृहसे मुक्त हुए। उनमें भी इन्द्र भूति और सुधर्मा के सिवाय शेष नौ गणधर भगवान महावीर के रहते हुए ही मुक्त हुए । उक्त स्थविरावली में यह भी लिखा है कि आज जो श्रमण संघ पाया जाता है वह सुधर्माकी परम्परा में है । शेष गणधर निस्सन्तान ही मुक्त हुए- उनकी शिष्य परम्पराका अभाव है। इन्द्रभूति के विषय में धवलामें लिखा है - उनका गोत्र गौतम था, वर्ण ब्राह्मण था, चारों वेद और छहों वेदांगोंमें वह पारंगत थे तथा शीलवान और ब्राह्मणोंमें श्रेष्ठ थे । जीव अजीव विषयक सन्देहको दूर करनेके लिये महावीर स्वामीके पादमूलमें उपस्थित १. ' गोत्तेण गोदमो विप्पो चाउव्वेय सडंगवि । गामेण इंदभूदित्ति सीलवं बह्मत्तमो ॥ ६१ ॥ - षट्खं, पु० १, पृ० ६५ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर २७३ हुए थे । महावीरका शिष्यत्व स्वीकार करने पर उनके प्रधान गणधर पद पर अधिष्ठित होने के वादकी दशाका वर्णन करते हुए लिखा हैवह मति श्रुत अवधि और मनः पर्यय नामक चार निर्मल ज्ञानोंसे सम्पन्न थे । उन्होंने दीप्त, उग्र और तप्त तपको तपा था । वे अणिमा आदि आठ प्रकारकी विक्रिया ऋद्धिसे भूषित थे । सर्वार्थसिद्धिके निवासी देवोंसे अनन्तगुण बलशाली थे। एक मुहूर्त में द्वादशांग के अथचन्तनमें और पाठ करनेमें समर्थ थे । वे अपने पाणिपात्र में दी गई खीरको अमृत रूपसे परिवर्तित करनेमें तथा अक्षय बनाने में समर्थ थे। उन्हें आहार और स्थान सम्बन्धी श्री ऋद्धि प्राप्त थी । वे सर्वावधि ज्ञानी और उत्कृष्ट विपुल मति मन:पर्ययज्ञानी थे । सात प्रकारके भयसे रहित थे । उन्होंने चारो कषायोंको नष्ट कर दिया था । पाँचों इन्द्रियोंको जीत लिया था । मन वचन और कायरूप तीन दण्डोंको भग्न कर दिया था । आठ मदोंको नष्ट कर दिया था | सदा दस धर्मोका पालन करने में वह तत्पर रहते थे । पाँच समिति और तीन गुप्तिरूप अष्ट प्रवचन माताओं का पालन करते थे । बाईस परीषहोंके विजेता थे । सत्य ही उनका अलंकार था । ० भगवती सूत्र (१-१७) में इन्द्रभूतिके गुणोंका वर्णन इस प्रकार है-उस समय श्रमण भगवान महावीरका प्रधान शिष्य इन्द्रभूति नामक अनगार था। उसका गोत्र गौतम था, सात हाथ ऊँचा था, समचतुरस्त्र संस्थान तथा वज्रवृषभनाराच संहननका धारी था, कसौटी पर अंकित सुवर्णकी रेखा तथा कमलकी केसरके समान गौर वर्ण था । उग्र दीप्त, तप्त और महातपका आचरण करनेवाला था । घोर तपस्वी और घोर ब्रह्मचर्य का पालक था, शरीरके संस्कारोंसे दूर रहता था, तेजोलेश्याका धारक था, चौदह पूर्वोका ज्ञाता और चार ज्ञान क० पा०, भा० १, पृ० ८३ । १. १८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ • सा० इ०-पूर्व पीठिका से सम्पन्न था तथा सर्वाक्षर सन्निपाती-श्रुतके समस्त अक्षरोंका वेत्ता था। भग० सू० (१४-७-५५१ ) से यह भी प्रकट होता है कि गौतम का भगवान महावीरके प्रति दृढ़ अनुराग था तथा उन दोनोंका पूर्व जन्मका सम्बन्ध था-आदि । __इस तरह दिगम्बर तथा श्वेताम्बर आगमोंसे इन्द्रभूति गौतम गणधरके सम्बन्धमें ही विशेष जानकारी मिलती है। उसके पश्चात् यदि किसी गणधरके सम्बन्धमें कुछ मिलता है तो वह हैं सुधर्मा । दिगम्बर परम्परामें भगवान महावीरकी शिष्य परम्परा को लिये हुए जितनी पट्टावलियाँ मिलती हैं उनमें इन्द्रभूतिके पश्चात् सुधर्माका नाम मिलता है। सुधर्मा' का ही दूसरा नाम लोहार्य अथवा लोहार्यका दूसरा नाम सुधर्मा था। सुधर्माके पश्चात् जम्बूका नाम आता है । दिगम्बर परम्पराके अनुसार इन्द्रभूतिसे ही सुधर्माको अंग और पूर्वका ज्ञान प्राप्त हुआ था। इस तरह दिगम्बर परम्परामें सुधर्माका नाम तो इन्द्रभूतिके पश्चात् आता है किन्तु उनके सम्बन्धमें अन्य कोई निर्देश नहीं मिलता। श्वेता० आगमोंसे भी सुधर्माके सम्बन्धमें कोई विशेष जानकारी नहीं मिलती। केवल इतना ही निर्देश मिलता है कि जम्बूके प्रश्न के उत्तरमें सुधर्माने अमुक आगमका व्याख्यान किया। १-'तेण वि लोहज्जस्स य लोहज्जेण सुधम्मणामेण । गणधर सुधम्मणा खलु जंबूणामस्स णिद्दिढ ॥ १० ॥ -ज. प० । २-क. पा०; भा० १, पृ० ८४ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर २७५ इस तरह भगवानके गणधरोंके विषयमें प्राचीन दिगम्बर साहित्य तथा श्वेताम्बर आगमोंसे इतनी जानकारी मिलती है। किन्तु आवश्यक नियुक्तिमें एक गाथाके' द्वारा ग्यारह गणधरोंके संशयोंका निर्देश किया गया है। इन संशयोंको दूर करनेके लिये ही वे ग्यारह व्यक्ति भगवान महावीरके समवसरणमें गये थे और संशय दूर होते ही उनके पादमूल में जिन दीक्षा धारण करके महावीर भगवानके शिष्य तथा गणधर बन गये थे। वे ग्यारह संशय इस प्रकार थे १ जीव है कि नहीं ? २ कर्म है कि नहीं ? ३ शरीर ही जीव है या इससे भिन्न है ? ४ भूत-पृथिवी जल आदि है या नहीं ? ५ इस भवमें जीव जैसा होता है परभवमें वैसा होता है कि नहीं? ६ बंध-मोक्ष है कि नहीं? ७ देव हैं कि नहीं? ८ नारकी हैं कि नहीं ? ह पुण्य पाप है कि नहीं ? १० परलोक है कि नहीं? ११ निर्वाण है कि नहीं ? १-जीवे कम्मे तजीव भूय तारिसय बंधमोक्खे य । देवा णेरइय या पुण्णे परलोय णिवाणे ॥ ५६६ ॥ -श्राव. नि। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका क्या पार्श्व और महावीरके धर्ममें भेद था ? पार्श्वनाथकी ऐतिहासिकता पर प्रकाश डालते हुए बौद्ध तथा श्वेताम्बरी साहित्यके आधारसे यह बतलाया है कि पार्श्वनाथका धर्म चतुर्याम रूप था। उसमें संशोधन करके भगवान महावीरने उसे पञ्च महाव्रतका रूप दिया। उत्तराध्ययन सूत्रके प्रसिद्ध केशी-गौतम संवाद में भी इसकी चर्चा है। पार्श्वनाथकी परंपराके आचार्य केशी और वर्धमान महावीरके प्रधान शिष्य गौतम दोनों श्रावस्तीके एक उद्यानमें मिलते हैं। केशी गौतमसे पूछता है कि पार्श्वनाथका धर्म चतुर्याम और 'सान्तरोत्तर' है और महावीरका धर्म पञ्च महाव्रत रूप तथा अचेलक है। इस अन्तरका क्या कारण है। प्रायः इतिहासज्ञोंने इस संवादको एक ऐतिहासिक तथ्यके रूपमें स्वीकार किया है और उसीपर से यह निष्कर्ष निकाला है कि महावीर ने पार्श्वनाथके धर्ममें सुधार किया था। प्रकृत विषय पर प्रकाश डालनेके लिये हमें जैन साहित्यका आलोडन करना होगा। जहाँ तक हम जानते हैं कि पार्श्व और महावीरके धर्ममें उक्त भेदकी चर्चाका दिगम्बर जैन साहित्यमें कोई संकेत तक नहीं १-चाउजामो य जो धम्मो, जो इमो पंच सिक्खियो। देसिश्रो वड्डमाणेण पासेण य महामुणी ॥ १२ ॥ अचेलगो य जो धम्मो जो इमो संतरुत्तरो। एगकजपवन्नाणं विसेसे किं नु कारणम् ॥ १३ ॥' -उत्त० २३ अ० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर २७७ है। किन्तु प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्कर तथा शेष बाईस तीर्थङ्करोंके धर्ममें अन्तर होनेका निर्देश दिगम्बर साहित्यमें भी मिलता है। मूलाचार, में जो दिगम्बर परम्पराका मान्य प्राचीन आचार ग्रन्थ है, लिखा है कि दूसरे अजितनाथ तीर्थङ्कर से लेकर तेईसवें पार्श्वनाथ पर्यंत बाईस तीर्थङ्करोंने सामायिक संयमका उपदेश दिया था। किन्तु प्रथम ऋषभ और अन्तिम महावीर तीर्थङ्करने छेदोपस्थापना संयमका भी उपदेश दिया था। इसी ग्रन्थमें आगे और लिखा है-प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्कर का धर्म प्रतिक्रमण सहित था अर्थात् दोष लगे या न लगे, किन्तु उसकी विशुद्धिके लिये प्रतिक्रमण करना आवश्यक था। किन्तु मध्यके बाईस तीर्थङ्करोंके धर्म में अपराध होने पर ही प्रतिक्रमण करनेका विधान था। इससे इतना तो स्पष्ट होता है कि पार्श्व और महावीरके धर्ममें थोड़ा अन्तर अवश्य था। पार्श्वनाथने सामायिक, परिहार. विशुद्धि, सूक्ष्म साम्पराय और यथाख्यात रूप चार ही चारित्रोंका विधान किया था तथा उनके धर्ममें साधुके लिये प्रतिक्रमण करना जरूरी नहीं था-दोष लगने पर ही प्रतिक्रमण किया जाता था। किन्तु महावीरने छेदोपस्थापनाका विधान करके चारकी जगह पाँच चारित्रोंका विधान किया और अपराध हो या न हो, साधु के लिये प्रतिक्रमण करना अनिवार्य कर दिया। १-'बावीसं यतित्थयरा सामायियसंजमं उदिसंति । छेदुवढावणियं पुण भयवं उसहा य वीरो य ॥ ३६ ॥ २-- सपडिकम्मो धम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्य य जिणस्स । अवराहे पडिकमणं मज्झिमयाणं जिणवराणं ॥ १२६ ॥ -मूला० ७ अ० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ जै० सा० इ० पूर्व पीठिका इस तरह पार्श्वनाथ के धर्ममें चार चारित्रोंका विधान तो दिगम्बर साहित्य में भी मिलता है और यह भी मिलता है कि उसमें एककी वृद्धि करके महावीर स्वामीने उनकी संख्या पाँच कर दी थी। किन्तु चतुर्यमका निर्देश नहीं मिलता। हाँ, अकलंकदेव के तत्वार्थवार्तिक में ( ० १ सू० ७ ) निर्देशादि का विधान करते हुए चारित्र के चार भेद भी बतलाये हैं- 'चतुर्धा चतुर्यमभेदात् । चार यमोंके भेदसे चारित्रके चार भेद हैं। तथा सामायिक आदिकी अपेक्षा पाँच भेद हैं । यहाँ चतुर्यम तथोक्त चतुर्याम के लिये आया हो, ऐसा प्रतीत होता है । जैनाचार के अनुसार निर्ग्रन्थ जैन साधु मुनिदीक्षा लेते समय सामायिक संयमको ही धारण करता है - 'समस्त पाप कार्यों का मैं त्याग करता हूँ इस प्रकार एक यमरूपसे व्रत धारण करने का नाम सामायिक' है और उसी एक यमरूप व्रतके भेद करके पाँच यमरूपसे धारण करनेका नाम छेदोपस्थापना' है । सामायिक संयम में दूषण लगा लेने पर छेदोपस्थापना चारित्र धारण कराया जाता है | मध्यके बाईस तीर्थङ्करोंके द्वारा छेदोपस्थापना तथा अनिवार्य प्रतिक्रमणका विधान न करने और प्रथम तथा अन्तिम तीर्थङ्कर १—–'संगहिय सयलसंजममेयज मणुत्तरं दुखगम्मं । जीवो समुव्वहंतो सामाइयसंजमा होई || १८७ ॥ - षट् खं०, पु० १, ५० ३७२ । २ -- छेतूणय परियायं पोराणे जो ठवेइ अप्पाणं । पंचजमे धम्मे सो छेदोबडावश्रो जीवो ॥ १८८ ॥ Jain Educationa International - षट् खं० पु० १, पृ० ३७२ । For Personal and Private Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर २७६ के द्वारा उनका विधान करने का कारण बतलाते हुए मूलाचार में लिखा है कि-प्रथम तीर्थङ्करके शिष्य सरल स्वभावी किन्तु जड़. बुद्धि थे। बारम्बार समझाने पर भी शास्त्रका मर्म नहीं समझ पाते थे और अन्तिथ तीर्थङ्कर के शिष्य कुटिल और जड़मति थे। अतः वे योग्य-अयोग्यको नहीं समझते थे। किन्तु मध्यके बाईस तीर्थङ्करोंके शिष्य हद बुद्धि, एकाग्रमन और प्रेक्षापूर्वकारी होते थे। इसीलिये उनके नियमों में अन्तर था। उत्तराध्ययन में भी गौतमने पार्श्व और महावीरके धर्ममें उक्त अन्तर होनेका कारण उनकी शिष्य परम्पराकी प्रवृत्ति और मानसको ही बतलाया है। सारांश यह है कि पार्श्वनाथकी परम्पराके निप्रन्थ सरलमति और समझदार होते थे, इसलिये अधिक विस्तार न करने पर भी वे यथार्थ आशयको समझ कर ठीक रीतिसे व्रतका पालन करते थे। किन्तु महावीरकी परम्पराके निम्रन्थ कुटिल और नासमझ थे। इसलिये महावीर १-'आदीए दुव्विसोधण णिहणे तह सुठु दुरणुपाले य । पुरिमा पच्छिमा वि हु कप्पाकप्पं ण जाणंति ॥ ३८ ॥ मज्झिमया दिढबुद्धी एयग्गमणा अमोह लक्खा य । तुम्हा हु जमाचरंति तं गरहंतावि सुज्झति ॥ १३२ ॥ -मूला०, ७ अ०। २-'पुरिमा उज्जुजडा उ वक्कजढा य पच्छिमा । मज्झिमा उज्जुप्पन्ना उ तेण धम्मो दुहा कए ।। २६ ॥ पुरिमाणं दुन्विसोझो उ चरिमाणं दुरणुपालश्रो। कप्पो मज्झिमगाणं तु सुविसुज्झो सुपालश्रो ॥ २७ ॥ -उत्तरा०, २३ अ०। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका ने परिग्रह त्याग व्रत में सम्मिलित स्त्री त्याग व्रत को पृथक् करके व्रतोंकी संख्या पाँच कर दी। स्था० सू० ( २६६ ) में कथित चतुर्याम का व्याख्यान करते हुए टीकाकार ने लिखा है-"मध्यके बाईस तीर्थङ्कर तथा विदेहस्थ तीर्थङ्कर चातुर्याम धर्म का तथा प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्कर पञ्चयाम धर्मका कथन शिष्योंकी अपेक्षासे करते हैं । वास्तवमें तो दोनों ही पञ्च पञ्च याम धर्मका ही प्रतिपादन करते हैं। किन्तु प्रथम तथा अन्तिम तीर्थङ्करके तीर्थंके साधु क्रमसे ऋजु जड़ और वक्रजड़ होते हैं अतः परिग्रह छोड़ने का उपदेश देने पर 'परिग्रह त्याग में मैथुन त्याग भी गर्भित है यह समझनेमें और समझकर उसका त्याग करनेमें असमर्थ होते हैं। किन्तु शेष तीर्थङ्करोंके तीर्थके साधु ऋजु और प्राज्ञ होनेके कारण तुरन्त समझ लेते हैं कि परिग्रहमें मैथुन भी सम्मिलित है क्योंकि बिना ग्रहण किये स्त्रीको नहीं भोगा जा सकता। ___ अतः पार्श्वनाथ और महावीर के धर्म में जो अन्तर प्रतीत होता है वह सैद्धान्तिक नहीं है किन्तु अपने अपने समय के शिष्यों १-टीका-'इयं चेह भावना । मध्यम तीर्थङ्कराणां विदेहकानाञ्च चतुर्यामधर्मस्य पूर्वपश्चिमतीर्थकरयोश्च पञ्चयामधर्मस्य प्ररूपणा शिष्यापेक्षया । परमार्थतस्तु पञ्चयामस्यैवोभयेषामप्पसौ, यतः प्रथम पश्चिमतीर्थङ्करसाधवः अजुजडा वक्रजडाश्चेति तत्त्वादेव परिग्रहो वर्जनीय इत्युपदिष्टे मैथुनवर्जनमवबोधुपालयितुं च न क्षमा । मध्यम विदेहजतीर्थसाधवस्तु ऋजुषाशास्तद्वोधु वर्जयितुं च क्षमा इति ।' -स्था० सू० २६६ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर २८१ की स्थिति को देखकर थोड़ा सा फेरफार किया गया है। अचेलक और सान्तरोत्तर धर्ममें भी वही दृष्टि परिलक्षित होती है । इसका विस्तृत विचार आगे संघभेदके प्रकरणमें किया जायगा; क्योकि संघभेदमें वस्त्र ही प्रधान कारण बना। निर्वाण ७२ वर्षकी अवस्थामें बिहार प्रदेशके पटना जिलेके अन्तर्गत पावा नामक स्थानसे भगवान् महावीरने मुक्तिलाभ किया। उनके मुक्त होनेको अवस्थाके सम्बन्धमें दिगम्बर और श्वेताम्बर वर्णनोंमें अन्तर पाया जाता है। श्वेताम्बरीय वर्णन के अनुसार भगवान् महाबीरका उपदेश सुनने के लिए विभिन्न देशोंके राजा पावामें पधारे। भ० महाबीर ने एकत्र जन समूहको छै दिन तक उपदेश दिया। सातवें दिन रात्रि के समय रात भर उपदेश दिया। जब रात्रि के पिछले पहर में सब श्रोता नींदमें थे, भ० महाबीर पर्यङ्कासनसे शुक्ल ध्यानमें स्थित हो गये। जैसे ही दिन निकलने का समय हुआ, महावीर प्रभुने निर्वाण लाभ किया। जब मनुष्य जागे तो उन्होंने देखा कि वीर प्रभु निर्वाण लाभ कर चुके हैं । उस समय गौतम गणधर के सिवाय उनके सभी शिष्य उपस्थित थे। १-~वासाणूणत्तीसं पंच य मासे य वीस दिवसे य । चउविह अणगारेहि य बारह दिणेहि ( गणेहि ) विहरित्ता ।। पच्छा पावा णयरे कत्तिय मासस्स किण्हचौद्दसिए । सादीए रत्तीए सेसरयं छेतु हिव्वाश्रो । -ज० ध०, भा० १, पृ०८१ में उद्धृत । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका दिगम्वरीय' उल्लेखके अनुसार, उनतीस वर्ष, पाँचमास और बीस दिन तक चार प्रकारके अनगारों और बारह गणों अर्थात् सभाओंके साथ बिहार करके भगवान महावीर पावामें पधारे और योग निरोधके द्वारा शेष चार अघाति कर्मोको भी नष्ट करके कार्तिक मासकी कुष्ण चर्तुदशीके दिन स्वाति नक्षत्रके रहते हुए रात्रिके समय निर्वाणको प्राप्त हुए। ____ 'श्वेताम्बरीय उल्लेखके अनुसार कार्तिक कृष्ण अमावस्या को स्वाति नक्षत्रके रहते हुए रात्रिके पिछले पहरमें महाबीर का निर्माण हुआ। इस तरह दोनों मान्यताओंमें २४ घंटोंका अथवा एक दिन रात का अन्तर है। वीरप्रभुका निर्वाण होनेके पश्चात् देवताओंने आकर मोक्ष कल्याणकका उत्सव मनाया और दीपोंकी मालिका संजोई। उस समय उस दीपमालिकासे पावा नगरीका समस्त आकाश आलोकित हो उठा। काशी और कोशलके अट्ठारह राजाओं, नौ लिच्छवियों और नौ मल्लोंने भी पावामें पधार कर दीप मालिकाका महोत्सव मनाया और कहा; क्योंकि केवल ज्ञानरूपी प्रकाश आज अस्त हो गया अतः हमें भौतिक प्रकाश करना चाहिये। जैन साहित्य के उल्लेखानुसार भारत में कार्तिक कृष्ण अमावस्याके दिन प्रति वर्ष जो दीपावली महोत्सव मनाया जाता १-'कत्तियमावसि सियमा समाइ भणिया जिणिंदाणं ।। ३१० ।। -अभि० रा०, पृ० २२६६ । २-ततस्तु लोकः प्रतिवर्षमादरात् प्रसिद्ध दीपालिकयाऽत्र भारते । समुद्यतः पूजयितु जिनेश्वरं जिनेन्द्रनिर्वाणविभूतिभक्तिभाक् । -हरि० पु० ६६ सर्ग श्लो० २१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर २८३ है, वह महावीर भगवान्के निर्वाणके उपलक्षमें ही प्रचलित हुआ था। महावीर निर्वाणका समय महावीर भगवान्के निर्वाण समयको लेकर पुरातत्त्वज्ञोंमें बहुत समयसे मतभेद चला आता है। यह मतभेद आधुनिक नहीं है। प्राचीन जैन साहित्यमें भी इस विषयको लेकर मतभेद पाया जाता है। उदाहरणके लिये प्राचीन दिगम्बर जैन ग्रन्थ तिलोयपएणति' में इस विषयके चार मतोंका निर्देश किया है। इन चारो मतोंमें वीर निर्वाणसे अमुक वर्षोंके पश्चात् शक राजाके होनेका निर्देश किया है। इसी तरह धवलाकार' वीरसेन १- 'वीर जिणे सिद्धिगदे चउसद इगिसट्ठिवास परिमाणे । कालम्मि अदिक्कते उप्पण्णो एत्थ सगरात्रो ॥१४९६॥ अहवा वीरे सिद्ध सहस्सणवकम्मि सगसयब्भहिए । पणसीदम्मि अतीदे पणमासे सगणिश्रो जादो ।।१४६७॥ चोद्दससहस्स सगसय तेण उदीवासकालविच्छेदे । वीरेसरसिद्धीदो उप्पण्णो सगणिो अहवा ।।१४६८।। णिव्वाणे वीरजिणे छव्याससदेसु पंचवरिसेसु । पणमासेसु गदेसु संजादो सगणिश्री अहवा' ।।१४६६।। -ति० प०, श्र० ४ । २-'पंचयमासा पंच य वासा छच्चेव होति वाससया । सगकालेण य सहिया यावेयव्वो तदो रासी' ।। ४१ ।। गुत्ति पयत्य-भयाई चोद्दस रयणाइ समइकंताई । परिणिव्वुदे जिणिंदे तो रज्जं सगणरिदस्स ॥ ४२ ॥ सत्त सहस्सा णवसद पंचाणउदी सपंचमासा य । अहकता वासाणं जहया तहया सगुप्पत्ती ।। ४३ ।। -षट् खं०, पु० ९, पृ० १३२-१३३ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका स्वामीने धवलामें भी तीन मतोंका निर्देश किया है जिनमेंसे दो मत त्रिलोकप्रज्ञप्तिके ही अनुरूप है। त्रि०प० में दत्त चतुर्थ मत के अनुसार तथा धवला के प्रथम मतानुसार वीर निर्वाणसे ६०५ वर्ष ५ मास पश्चात् शक राजा हुआ । श्री जिनसेनने अपने हरिवंश पुराणमें ( शक सम्वत् ७०५) तथा श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने (शक सं० १२५ के लगभग) अपने त्रिलोकसार' में इसी मत को स्थान दिया है जिससे स्पष्ट है कि उन्हें यही मत मान्य था। शकका यह समय ही शक सम्वत्की प्रवृत्तिका काल है। इसका समर्थन श्वेताम्बराचार्य मेरुतुंग की विचार श्रेणी में उद्धृत एक प्राचीन श्लोकसे होता है। उसमें बतलाया है कि महावीर निर्वाणसे ६०५ वर्ष बाद इस भारतवर्षमें शक सम्वत्की प्रवृत्ति हुई। शक सम्वत् और विक्रम सम्वत्में १३५ वर्षका अन्तर प्रसिद्ध है। ६०५ वर्षमें से १३५ वर्ष घटानेसे ४७० वर्ष अव १-वर्षाणां षट्शतीं त्यक्त्वा पञ्चायां मासपञ्चकम् । मुक्तिं गते महावीरे शकराजस्ततोऽभवत् ॥५५१॥ -ह. पु०, सगे ६० । २-पणछस्सयवस्सं पणमासजुदं गमिय वीरणिव्वुहदो । सगराजो तो कक्की चदुणव तियमहियसगमासं ॥८५० ।। -त्रि० सा०। ३-'श्री वीरनिवृतेर्वर्षे षभिः पञ्चोत्तरैः शतैः। शाकसम्वत्सरस्यैषा प्रवृत्ति भरतेऽभवत्' ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर २८५ शिष्ट रहते हैं। यही वीर निर्वाणके बाद विक्रम सम्वत्की प्रवृत्ति का काल है। इस प्रकार जैन ग्रन्थोंके आधार पर भारतमें वर्तमानमें प्रचलित विक्रम सम्वत्के प्रारम्भसे ४७० वर्ष पहले तथा ईस्वी सन् से ५२७ वर्ष पहले वीर भगवान् का निर्माण हुआ था। दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायोंके अनेक ग्रन्थोंके आधार पर यही निष्कर्ष निकलता है। परन्तु प्रसिद्ध जैन इतिहासज्ञ स्व० डा० हर्मन जेकोबीने श्री हेमचन्द्राचार्यके एक उल्लेखसे प्रेरित होकर प्रचलित वीर निर्वाण सम्वत्में शंका उपस्थित की थी । तत्पश्चात् जाल। चारपेन्टियर नामक एक विद्वानने इण्डियन एण्टिक्वेरीके ४३ वें भागमें इस विषय पर एक विस्तृत निबन्ध लिखा था। उसमें उन्होंने डा० जेकोबीके मतका समर्थन और सम्पोषण करते हुए यह सिद्ध करनेका प्रथम प्रयास किया था कि महावीरका निर्वाण विक्रम सम्वत्से ४७० वर्ष पूर्व नहीं किन्तु ४१० वर्ष पूर्व हुआ था। अतः उन्होंने यह सुझाव दिया था कि परम्पराके अनुसार जो काल गणना की जाती है उसमें से ६० वर्ष कम कर देने चाहिये। जाल चापेन्टियर के मुख्य मुद्दे इस प्रकार थे १-मेरुतुंगाचार्य आदि ने विचारश्रेणि आदि ग्रन्थों में जो प्राचीन गाथाएँ दी हैं उनमें निर्दिष्ट राजाओं में कोई पारस्परिक १-अपने लेखके नोटमें लेखकने महावीर निर्वाण पर लिखे गये लेखोंकी सूची इस प्रकार दी है-राईस, इं० एं० जि० ३, पृ० १५७ । इ. थामस, जि० ८, पृ० ३० । पाठक, जि० १२, पृ० २१ । और लिखा है कि जेकोबीके लेखके पश्चात् ये सब लेख स्वतः रद्द हो गये। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका सम्बन्ध नहीं है। इसी तरह महावीर के निर्वाण के ४७० वर्ष पश्चात् जिस विक्रम राजाके होनेका उल्लेख है, उसका इतिहास में कोई अस्तित्व नहीं है। इसलिये उन पुरानी गाथाओंमें जिस प्रकार काल गणना की गई है तथा जो राजाओंका राज्यकाल दिया है वह सब निमूल है। ___ २–बौद्ध साहित्यसे प्रकट है कि महावीर और बुद्ध दोनों समकालीन थे तथा बौद्ध ग्रन्थोंके अनुसार बुद्धका निर्वाण ईस्वी सन् से ४७७ वर्ष पूर्व हुआ था। जनरल कनिंघम और मोक्षमूलरने भी इस समयको माना है। बुद्धकी अवस्था मृत्यु समय ८० वर्षकी थी। यदि जैन गाथाओंके अनुसार महावीर का निर्वाण ई० स० पूर्व ५२७ वर्षमें हुआ होता तो उस समय बुद्धकी आयु केवल ३० वर्ष होनी चाहिये। परन्तु सब कोई मानते हैं कि ३६ वर्षकी उम्रसे पहले बुद्धको बोधिलाभ नहीं हुआ। ऐसी स्थितिमें उनके अनुयायी उस समय कहाँसे हो सकते हैं। अतः यह सिद्ध होता है कि यदि महावीरका निर्वाण जैनोंकी मान्यताके अनुसार हुआ तो बुद्धके साथ उनकी समकालीनता कैसे बन सकती है। ३-यह भी कहा जाता है कि महावीर और बुद्ध दोनों श्रेणिकके पुत्र अजातशत्रुके राज्यकाल में वर्तमान थे। ऐतिहासिक उल्लेखोंके अनुसार अजातशत्रु बुद्ध के निर्वाणसे आठ वर्ष पूर्व राजगद्दी पर बैठा था और उसने ३२ वर्ष तक राज्य किया था। अब यदि उक्त जैन गाथाओंके अनुसार महावीरका निर्वाणकाल माना जाता है तो उक्त बात घटित नहीं होती। अतः या तो महावीरके निर्वाण कालको और इधर लाना चाहिये या बुद्धके निर्वाणसमयको पीछे ले जाना चाहिए । परन्तु बुद्धका Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर २८७ निर्वाणकाल तो ठीक गणनाके अनुसार है जब कि महावीर का निर्वाण काल अनुमानके आधार पर कल्पित है । अतः उसमें ६० वर्ष कम करना चाहिये। ___इसके पश्चात् स्व. काशीप्रसाद जी जायसवालने विहार उड़ीसा रिसर्च सोसायटी के जर्नल में ( १६१५ सितम्बर) शैशुनाक और मौर्यकाल गणना' शीर्षकसे एक विद्वत्तापूर्ण निबन्ध लिखा। उसके अन्तमें उन्होंने महावीर और बुद्धके निर्वाण समयकी भी विद्वत्तापूर्वक विवेचनाकी तथा प्राचीन गाथाओं की गणनाको सप्रमाण सिद्ध करके जाल चापेन्टियरकी युक्तियों का निरसन किया। किन्तु उन्होंने भी १८ वर्षकी भूल बतला कर प्रचलित वीर निर्वाण सम्वत्में १८ वर्ष बढ़ानेका सुझाव दिया। प्रचलित काल गणना पर प्रकाश डालनेके लिये यहाँ हम स्व० जायसवाल जीके मुद्दों को भी दे देना उचित समझते हैं। १-अंगुत्तर निकायमें जो यह उल्लेख मिलता है कि जब महावीरका निर्वाण पावामें था तब बुद्ध जीवित थे, यह उल्लेख पूर्ण रूपसे मानने योग्य है। पहले किये गये ऊहापोहसे यह निष्कर्ष निकलता है कि चन्द्रगुप्त मौर्यके राज्यारोहणसे २१६ वर्ष पूर्व महावीरने निर्वाण पाया। इस प्रकार चन्द्रगुप्त महावीर निर्वाणसे २१६ वर्ष पश्चात् और बुद्ध निर्वाण से २१८ वर्ष पश्चात् गद्दी पर बैठा। इस तरह जैनोंकी काल गणनाके अनुसार चन्द्रगुप्त ईस्वी सन्से ३२६ या ३२५ वर्ष पूर्व गहीपर बैठा । इसमें चन्द्रगुप्त १-ये मुद्दे हम 'जै० सा० सं०, खं० १, अं० ४ से साभार उद्धृत करते हैं । लेखक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका के राज्यारोहणसे पहलेके २१८ वर्ष जोड़नेसे (३२६+२१८) ईस्वी पूर्व ५४४ आता है। यही बुद्ध निर्वाणका समय है । सीलोन, बर्मा और स्यामकी दन्तकथाओंके अनुसार भी बुद्ध निर्वाणका यही काल आता है। २-डा० हार्नले सरस्वती गच्छ की पट्टावली की १८वीं गाथा के आधार पर विक्रम सम्वत्के प्रारम्भ काल ४७० वर्ष पश्चात् में १६ वर्ष बढ़ाते हैं। गाथाका अर्थ यह है कि विक्रम १६ वर्षकी उम्र तक गद्दी पर नहीं बैठा अर्थात् १७वें वर्ष में उसका राज्याभिषेक हुआ। इसका यह तात्पर्य हुआ कि महाबीर निर्वाणके ४८७ वर्ष पश्चात् विक्रम गद्दी पर बैठा । इसका परिणाम यह निकला कि जैनोंने विक्रम संवत्के प्रथम वर्ष (ई० स० पूर्व ५८-५७) के अन्तमें और महावीर निर्वाणके पश्चात् ४७० वर्ष पूरा होनेके बीचमें १८ वर्षका अन्तर छोड़ दिया। ३-प्रद्योत के समयसे लेकर शक राज्य और विकम सम्वत् तककी जैन काल गणना नीचे अनुसार है जिस रात्रिमें महावीरका निर्वाण हुआ उसी रात्रिमें पालक अवन्तीकी गद्दी पर बैठा। पालकके राज्यके ६० वर्षके पश्चात् १-जं रयणि काल गश्रो अरिहा तित्थंकरो महाबीरो । तं रयणि अवंतिवई अहिसित्तो पालगो राया ॥१॥ सट्ठी पालगरगणो पणवरण सयं तु होइ नन्दाणं । अठसयं मुरियाणं तोस चिय पुस्तमित्तस्स ॥२॥ बलमित्त-माणुभित्ता सट्ठी वरिसाणि चत्त नहवहने । तह गद्दभिल्लरज्जं तेरस वरिसा सगस्स चउ ।। ३ ॥ -विचार श्रे० में उद्धृत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीर निर्वाण सम्वत् २८६ नन्दोंके राज्यका काल १५५ वर्ष बतलाया है । पुराणों के अनुसार नन्दवर्धनसे लेकर अन्तिम नन्द पर्यन्त १२३ वर्ष होते हैं । इतने वर्ष तक नन्दोंने राज्य किया । ३२ वर्ष जो अधिक हैं (१२३-३२-१५५ ) वे हमें उदायीके राज्यसे पहले अथवा दूसरे वर्षके आगे लाकर छोड़ देते हैं, अर्थात् पालक वंशकी तरह ध्यान खींचने लायक एक दूसरा काल उदायीके राज्यारोहण से प्रारम्भ होता है। किन्तु पुराणों के अनुसार अजात शत्रु के छठे वर्ष (पालकका राज्यरोहण काल ) और उदायीके राज्याभिषेकके बीचमें अपनेको ६४ वर्षका अन्तराल छोड़ना चाहिए । जब कि जैन काल गणनाके अनुसार पालकका राज्य काल ६० वर्ष ही है। इस तरह चन्द्रगुप्तके समयमें पुनः ४ वर्ष अन्तर आता है। और इससे चन्द्रगुप्त महावीरके निर्वाणके २१५ अथवा २१६ वर्ष पश्चात् गद्दीपर बैठा। इस प्रकार जुदी जुदी तारीखें आती हैं। मौर्योंके राज्य कालको दो वर्षसमूहोंमें विभाजित कर दिया है -१०८ और ३०। उसमें १०८ वर्ष मौर्य वंशके हैं और ३० वर्ष पुष्यमित्रके हैं। उसके पश्चात् बलमित्र भानुमित्रके ६० वर्ष सम्मिलित किये हैं। इस गणनाके अनुसार हम महावीर निर्वाणके पश्चात् ४१३ वर्ष तक पहुँच जाते हैं। इसके पश्चात् ४० वर्ष नहपानका राज्य काल बतलाया है। उसके पश्चात् १३ वर्ष गर्द भिल्लके राज्यके हैं और ४ शक राजा के हैं इन सबका जोड़ ४७० होता है। यहाँ गाथाओंकी गणना समाप्त हो जाती है। विक्रम संवत् और इस गणनाका परस्पर सम्बन्ध मिलाने से ऊपर लिखे अनुसार १८ वर्ष का अन्तर आता है। हेमचन्द्राचार्यके द्वारा दत्त जिस काल गणनाको आधार मानकर जेकोबी तथा चान्टियरने प्रचलित वीर निर्वाण सम्वत्में Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० जै० सा० इ० पूर्व पीठिका ६० वर्ष घटानेका सुझाव दिया था, उसे भूल भरा बतलाते हुए जायसवालने लिखा था कि हेमचन्द्रने अपनी कालगणनामें जो पालकके ६० वर्ष छोड़ दिये हैं यह उनकी एक मोटी भूल है; क्योंकि यदि हम प्रारम्भके ६० वर्षोंको छोड़ देते हैं तो चन्द्रगुप्त, स्थूल भद्र, सुबाहु और भद्रबाहुकी समकालीनतामें विरोध आता है और प्रो० जेकोवीने हेमचन्द्रकी इस भूल को अपनी गणनाका आधार बनाया है और ऐसा करने में पाली लेखोंमें आये हुए अशोकके भूलभरे समयका और उसके ऊपर बाँधी गई निर्वाण काल गणना का उनके ऊपर बहुत प्रभाव पड़ा है। ___पाली लेखोंमें दिये हुए समयके ऊपर बाँधी गई गणनासे उन लेखोंमें लिखी हुई अशोकके अभिषेककी तारीख तथा पूर्व परम्परासे चली आती हुई तारीखके मध्यमें लगभग ६० वर्षका अन्तर है । हेमचन्द्राचार्यकी भूलसे जैन काल गणनामें भी ६० वर्ष छूट जानेसे इन दोनों गणनाओंकी एकता ने उक्त विद्वानोंके मतको बल दिया है। परन्तु प्रद्योतका पुत्र पालक, जो अजातशत्रुका समकालीन था, महावीर निर्वाणके दिन गद्दी पर बैठा, यह मानना स्वाभाविक और सप्रमाण है। हेमचन्द्राचार्यके कथनके अनुसार महावीर निर्माणके पश्चात् तुरन्त ही नन्दवंशका राज्य शुरू हुआ, यह मान्यता एकदम भूलभरी और अप्रामाणिक है'। इस प्रकार प्रचलित निर्वाण सम्वत्में डा० याकोबी और जाल चापेन्टियरके द्वारा बतलाई गई ६० वर्षकी भूलको भ्रम पूर्ण बतलाते हुए स्व० जायसवालने १८ वर्ष बढ़ानेकी जो सम्मति दी उसका खुलासा इस प्रकार है Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर निर्वाण सम्वत् २६१ महावीरके निर्वाणसे गर्दभिल्ल तक ४७० वर्षका अन्तर जैन गाथाओंमें कहा है, जिसे दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों मानते हैं। किन्तु जैनोंके सरस्वती गच्छकी पट्टावलीमें विक्रम सम्वत् और विक्रम जन्ममें १८ वर्षका अन्तर माना है। यथा'वीरात् ४९२ विक्रम जन्मान्तर वर्ष २२ राज्यान्त वर्ष ४' । विक्रम विषयक गाथाकी भी यही ध्वनि है कि वह १७वें या १८वें वर्षमें सिंहासन पर बैठे । इससे सिद्ध है कि ४७० वर्ष जो वीर निर्वाणसे गर्दभिल्ल राजाके राज्यान्त तक माने जाते हैं वे विक्रमके जन्म तक हुए (४९२-०२ = ४७.)। अतः विक्रम जन्म ( म०नि० ४७० ) में १८ वर्ष और जोड़नेसे निर्वाणका वर्ष विक्रम सम्वत्से ५८८ वर्ष पूर्व निकलता है। १८ वर्षका फर्क गर्दभिल्ल और विक्रम सम्वत्के बीच गणना छोड़ देनेसे उत्पन्न हुआ मालूम होता है। 'यह याद रखनेकी बात है कि महावीर और बुद्ध दोनों समकालीन थे। बौद्धोंके सूत्रों में लिखा है कि जब बुद्ध शाक्य भूमिकी ओर जाते थे तब उन्हें सूचना मिली कि पावामें महावीरका निर्वाण हो गया। बौद्ध लोग लंका, श्याम, वर्मा आदि स्थानोंमें बुद्ध निर्वाणके आज (वि० सं० १९७१) ४५८ वर्ष बीते मानते हैं। सो प्रचलित वीर निर्वाण सम्वत्में १८ वर्ष जोड़ देनेसे यह मिलान खा जाता है कि महावीर बुद्धके पहले निर्वाणको प्राप्त हुए। नहीं तो, बुद्ध निर्वाणसे महावीरका निर्वाण १६-१७ वर्ष पहले सिद्ध होगा, जो प्राचीन सूत्रोंके कथनके विरुद्ध पड़ेगा'। . स्व० जायसवालके उक्त मतका निरसन पं० जुगलकिशोर जी मुख्तारने (अनेकान्त, वर्ष १, कि० १ में ) निस्तारसे किया। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका . १--मुख्तार साहबने अनेक ग्रन्थोंसे प्रमाण देकर यह प्रमाणित किया कि प्रचलित विक्रम सम्बत् विक्रमको मृत्युका सम्वत् है जो वीर निर्वाणसे ४७० वर्ष बाद प्रारम्भ होता है और इसलिए वीर निर्वाणसे ४७० वर्ष बाद विक्रमके राजा होनेकी जो बात कही आती है और उसके आधार पर प्रचलित वीर निर्वाण सम्वत् पर जो आपत्ति की जाती है, वह ठीक नहीं है । २-इसके सिवाय, नन्दिसंघकी एक पट्टानलीमें तथा विक्रम प्रबन्धमें भी जो यह लिखा है कि 'जिन कालसे ( महावीरके निर्वाणसे ) विक्रम जन्म ४७० वर्षके अन्तरको लिये हुए है' और दूसरी पट्टावलीमें जो आचार्यों के समयकी गणना विक्रमके राज्यारोहण कालसे उक्त जन्ममें १८ वर्षकी वृद्धि करके दी गई है वह सब उक्त शक कालको और उसके आधार पर बने हुए विक्रमकालको ठाक न समझनेका परिणाम है। ऐसी हालतमें कुछ जैन, अजैन तथा पश्चिमीय और पूर्वीय विद्वानोंने पट्टावलियोंको लेकर जो प्रचलित वीर निर्वाण सम्वत् पर यह आपत्ति की है कि उसकी वर्ष संख्यामें १८ वर्षकी कमी है जिसे पूरा किया जाना चाहिए, वह समीचीन मालूम नहीं होती और इसलिये मान्य किये जानेके योग्य नहीं है। ___३-साथ ही श्वेताम्बर भाइयोंने जो वीर निर्वाणसे ४७० वर्ष बाद विक्रमका राज्याभिषेक माना है और जिसकी वजहसे ... १–'सत्तरि चदुसदजुत्तो जिणकाला विक्कमो हवह जम्मो ।' २-'विक्कमरज्जारंभा प (पु ) रो सिरिवीरनिवुई भणिया । सुन्नं मुणि-वेय जुत्तो विक्कमकालाउ जिणकाले ।' -वि० श्रे, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर निर्वाण सम्वत् २६३ प्रचलित वीर निर्वाण सम्वत् में १८ वर्ष बढ़ाने की भी कोई जरूरत नहीं रहती उसे क्यों न ठीक मान लिया जाये, इसका कोई समाधान नहीं होता । ४ - ' इसके सिवाय जार्ल चापेंन्टियरकी यह आपत्ति बराबर बनी ही रहती है कि वीर निर्वाणसे ४७० वर्षके बाद जिस विक्रम राजाका होना बतलाया जाता है उसका इतिहास में कहीं भी कोई अस्तित्व नहीं है । परन्तु विक्रम सम्वत्को विक्रमकी मृत्युका सम्वत् मान लेने पर यह आपत्ति कायम नहीं रहती क्योंकि जाल चापेन्टियरने वीर निर्वाणसे ४१० वर्षके बाद विक्रम राजाका राज्यारम्भ होना इतिहास से सिद्ध माना है और उसका राज्यकाल ६० वर्ष तक रहा है । इससे प्रचलित विक्रम सम्वत्को उसका मृत्यु सम्वत मानने से यही समय उसके राज्यारम्भका आता है । मालूम होता है जाल चापेंन्टियर के सामने विक्रम सम्वत् के विषयमें विक्रमकी मृत्युका सम्वत् होनेकी कल्पना ही उपस्थित नहीं हुई और इसीलिये आपने वीर निर्वाणसे ४१० वर्षके बाद ही विक्रम सम्वत्का प्रचलित होना मान लिया और इस भूल तथा गल्ती के आधार पर ही प्रचलित वीर निर्वाण सम्वत् पर यह आपत्ति कर डाली कि उसमें ६० वर्ष बढ़े हुए हैं इसलिए उसे ६० वर्ष पीछे हटाना चाहिये । इस प्रकार मुख्तार साहबने अपने लेख में एक ओर स्व० जायसवाल के १८ वर्ष बढ़ानेके सुझावको और दूसरी ओर जाल चापेंन्टियर के ६० वर्ष घटानेके सुझावको सदोष बतलाकर प्रचलित वीर निर्वाण सम्वत्को ही ठीक ठहराया । हम पहले लिख आए हैं कि श्री जायसवालने जार्ल चार्जेन्टियर के इस सुझावका कि प्रचलित वीर निर्वाण सम्वत् में ६० वर्ष अधिक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका हैं, निरसन करते हुए हेमचन्द्राचार्य के भूलभरे उल्लेखको उसका आधार बतलाया था। मुख्तार साहबने भी जाल साहबके उक्त मतको अमान्य ठहराया किन्तु उन्होंने हेमचन्द्राचार्यके कथनको भूल भरा न बतलाकर यह स्पष्ट किया कि जायसवाल साहबको ही उसे समझने में भूल हुई है। उसका स्पष्टीकरण नोचे दिया जाता है-- . मेरुतुंगकी विचार श्रेणी में जो काल गणना दी है वह हम पीछे दे आये हैं उसमें महावीर निर्वाणसे ६० वर्ष तक पालक, १५५. वर्ष नन्द, १०८ वर्ष मौर्य, ३० वर्ष पुष्पमित्र, ६० वर्ष वलमित्र, भानुमित्र, ४० वर्ष नभोवाहन, १३ वर्ष गर्दभिल्ल तथा ४ वर्ष तक शकोंका राज्य क्रमशः बतलाया है जिसका जोड़ ४७० वर्ष होता है। श्वेताम्बरोंमें यही काल गणना मानी जाती है। परन्तु श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्र के 'परिशिष्ट पर्व' से ज्ञात होता है कि उज्जयिनीके राजा पालक का जो ६० वर्ष समय ऊपर बतलाया है उसी समय मगधके सिंहासन पर श्रेणिकका पुत्र कुणिक ( अजातशत्रु ) और कुणिकके पुत्र उदायीका राज्य क्रमशः रहा है । उदापीके निस्सन्तान मर जाने पर उसका राज्य नन्दको मिला । इसीसे परिशिष्ट पर्वमें श्री महावीर स्वामीके निर्वाणसे ६० वर्ष बाद नन्द राजाका होना लिखा' है। इसके पश्चात् मौर्यवंशके प्रथम सम्राट चन्द्रगुप्तका राज्यारम्भ बतलाते हुए वह श्लोक' दिया है जिसे जार्ल चापेन्टियरने अपने निर्वाणका १-अदन्तरं वर्धमान स्वामि निर्वाण वासरात् । गतार्या षष्ठिवत्सर्यामेष नन्दोऽभवन्नृपः ।। ६-२४३ ।। २-एवं श्री महावीर मुक्तेवर्षशते गते । पंचपंचाशदधिके चन्द्रगुप्ताऽभवन्नृपः ।। ८-३३६ ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर निर्वाण सम्वत् २६५ मुख्य आधार माना गया है। उसमें बताया है कि महावीर निर्वाण से १५५ वर्षे बाद चन्द्रगुप्त राजा हुआ। विचार श्रेणिकी गाथामें १५५ वर्षका समय केवल नन्दोंका बतलाया है और उसमें ६० वर्ष पहले पालकका समय दिया है। अतः उसके अनुसार चन्द्रगुप्तका राज्यरोहणकाल वीर निर्वाण से २१५ वर्ष बाद होता है। परन्तु हेमचन्द्रने १५५ वर्ष बाद बतलाया है । अतः ६० वर्षका अन्तर पड़ता है। ___ इस अन्तरको स्पष्ट करते हुए मुख्तार सा० ने लिखा है कि हेमचन्द्रने ६० वर्षकी यह कमी नन्दोंके राज्यकालमें की है, उनका राज्यकाल ६५ वर्ष बतलाया है, क्योंकि नन्दोंसे पहले उनके और वीर निर्वाणके बीचमें ६० वर्षका समय उन्होंने कुणिक श्रादि राजाओंका माना ही है। ऐसा मालूम होता है कि पहले से वीरनिर्वाणके बाद १५५ वर्षके भीतर नन्दोंका होना माना जाता था, परन्तु उसका यह अभिप्राय नहीं था कि वीरनिर्वाणके ठीक बाद नन्दोंका राज्य प्रारम्भ हुआ। बल्कि उससे पहले उदायी तथा कुणिकका राज्य भी उसमें शामिल था। परन्तु पीछेसे १५५ वर्षकी गणना अकेले नन्दोंके लिए रूढ़ हो गई और उधर पालक राजाके अभिषिक्त होनेकी घटना उसके साथ जुड़ । जानेसे काल गणनामें ६० वर्षकी वृद्धि हुई और उसके फलस्वरूप वीर निर्वाणसे ४७० बर्ष बाद विक्रमका राज्याभिषेक माना जाने लगा । हेमचन्द्राचार्यने दो श्लोकोंसे उक्त भूलका सुधार कर दिया। चन्द्रगुप्तके राज्यारोहण समयकी वर्ण संख्या १५५ में आगेके -५५ वर्ष ( १०८+३०+ ६०+१३+४ = २५५ ) जोड़ देनेसे ४१० होते हैं। यही वीर निर्वाणसे विक्रमका राज्यारोहण काल है। परन्तु महावीर निर्वाण और राज्यारोहण काल ४१० में राज्यकाल के ६० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ जै० सा० इ० पूर्व पीठिका वर्ष भी सम्मिलित कर लिये जावें। ऐसा किए जाने पर विक्रम संवत् विक्रम मृत्युका संवत् हो जाता है और फिर सारा झगड़ा मिट जाता है। अनेका०, वर्ष १, कि० १, पृ० २१-२२)। इस तरह मुख्तार साहबने जैन काल गणनाके आधार पर प्रचलित वीर निर्वाण सम्वत्को ही ठीक प्रमाणित किया । तत्पश्चात् मुनि कल्याण विजय जीने भी वीर निर्वाण सम्बत् और जैनकाल गणना शीर्षक एक महत्वपूर्ण निबन्ध लिखकर प्रचलित वीर निर्माण सम्बत्को ही ठीक प्रमाणित किया था। सन् १९४१ में मैसूर राज्यके अास्थान विद्वान् पं० ए० शान्ति राज' जी शास्त्रीने प्रचलित वीर निर्माण सम्वत् पर आपत्ति की। आपकी आपत्तिका मुख्य आधार था त्रिलोकसारकी गाथा ८५०, जिसमें वीर निर्माणसे ६०५ वर्ष ५ मास बाद शकराजाकी उत्पत्ति बतलाई है। पं० जीका कहना था कि उक्त गाथामें प्रयुक्त हुए 'सगराजो'-शकराजःशब्दका अर्थ पुरातन विद्वानों द्वारा विक्रम ग्रहण किया गया है अतएव वही अर्थ ग्राह्य है। अपने इस कथनके प्रमाणमें आपने त्रिलोकसारकी माधवचन्द्र कृत संस्कृत टीकाको उपस्थित किया था। उसमें टीकाकारने शक राजका अर्थ विक्रमांक (-मार्क ) शकराज किया है। अतः शास्त्री जीने विक्रम सम्वत् ६०५ वर्ष पूर्व वीरका निवाण माननेका सलाह दी थी। किन्तु टीकाकारने यदि 'भ्रमवश' शकका अर्थ विक्रम शक कर दिया हो तो उसे किसी निर्णयका आधार नहीं बनाया जा सकता। अन्य किसी भी ग्रन्थकारने उक्त शक कालको विक्रमका काल नहीं माना । त्रिलोकसारके पूर्ववर्ती धनाला टीकामें वीरसेन स्वामी १-अनेकान्त, वर्ष ४, पृ० ५५६ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर निर्वाण सम्वत् २६७ ने स्पष्ट लिखा है कि ६८३ वर्षमें से ५७ वर्ष ७ मास कम करने पर पाँच मास अधिक ६०५ वर्ष होते हैं। वह वीर जिनेन्द्र के निर्वाण प्राप्त होनेके दिन से लेकर शककालके प्रारम्भ होने तकका काल है । इस काल में शक नरेन्द्रका काल जोड़ देने पर वर्धमान जिनके मुक्त होनेका काल आता है । अपने इस कथन के समर्थन में वीरसेन स्वामीने एक प्राचीन गाथा' भी उद्धृत की है। उसका भी यही अभिप्राय है कि शककाल में ६०५ वर्ष ५ मास जोड़ देने से वीरजनेन्द्रका निर्वाणकाल आ जाता है । तिलोय प० और हरिवंश पुराणमें भी महावीर निर्वाण और शकराजाका अन्तरकाल ६०५ वर्ष ५ मास बतलाते हुए शकको 'विक्रमार्क' नहीं कहा। अतः उक्त गाथामें आगत शकराज शब्दसे विक्रम संवतका निर्देश नहीं लिया जा सकता इण्डि० ए० जि० १२ में स्व० के० बी० पाठकने भी वीरनिर्वाण सम्वत् सम्बन्धी अपने लेखमें त्रिलोकसारकी टीकाकी भूलकी चर्चा की थी और टीकाकारोंके द्वारा भूल किये जानेके एक दो उदाहरण भी दिये थे | आपने लिखा था- 'त्रिलोकसार में - 'पण छस्सयबस्स पणमास जुदं गमिय वीरणिव्वुइदो । सगराजो ।' के टीकाकार माघवचन्द्र ने शक राजाका अर्थ 'विक्रमाङ्क शकराज' किया । मूल ग्रन्थ में इस तरह का कोई निर्देश नहीं है। देशी टीकाकारोंसे इस तरह की भूलें हुई है । उदाहरणके लिए — माघनन्दि श्रावकाचारी प्रशस्तिको रखा जा सकता है। इसकी प्रशस्ति में बतलाया है कि वीर नि० सं० १७८० में प्रधाबी संवत्सरमें ज्येष्ठ होति वाससया । १ - 'पंच य मासा पंच य वासा छच्चेव सगकाले य सहिया थावेयव्त्रो तदो रासी ॥ ४१ Jain Educationa International - षट खं०, पु० ६, पृ० १३२ । For Personal and Private Use Only Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका शुक्लापंचमीके दिन यह ग्रन्थ पूजा के लिये स्थापित किया गया । उसमें यह भी लिखा है कि वीरनिर्वाण के ६०५ वर्ष बीतने पर शक राजा हुआ। अतः १७८० में से ६०५ वर्ष घटाने पर ११७५ शेष बचते हैं। प्रधावी संवत्सर शकसं० ११७५ में ही पड़ता है। अतः प्रधावी संगत्सर में-शक सं० ११७५ में वीरनिर्वाणको हुए १७८० वर्ष बीते थे। अतः शक सम्बत्से ६०५ वर्ष पूर्व वीरनिर्वाण हुआ यह सिद्ध है। किन्तु प्रशस्तिकी कनड़ी टोकामें वीरनिर्वाणसे ६८३ वर्ष तककी प्राचार्य परम्परा बतलाकर लिखा है -'आचारांग पाठी आचार्योंसे लेकर प्रधावी संवत्सरकी जेष्ठ शुक्ला पंचमी तक-जब ग्रन्थ पूजा के लिए स्थापित किया गया-५०६७ वर्ष हुए । अतः १०६७+ ६८३ जोड़नेसे १७८० होते हैं। आगे लिखा है कि वीर स्वामी का निर्वाण सम्वत् १६२२० प्रवर्तित है। और यह भी लिखा है कि वीर जिनके मोक्षसे ६०५ वर्ष ५ मास बाद शक राजा हुआ। ___यहाँ गल्ती हुई है और वह यह हुई है कि बीर प्रभुके तीर्थ काल २१००० मेंसे १७८० को घटाकर शेष १६२२० को निर्माण काल मान लिया है । अतः ऐसी भूलोंके आधार पर ऐतिहासिक निर्णय नहीं किए जा सकते।। . माघनन्दि श्रावकाचारकी प्रशस्तिके उक्त उल्लेखसे यह भी प्रमाणित होता है कि लगभग सात सौ वर्षों पूर्व शक सम्वत्से ६०५ वर्ष पूर्व ही वीर निवाण सम्बत् माना जाता था। अतः प्रचलित वीर निर्वाण सम्वत्की मान्यताके पीछे सात सौ वर्षों की परम्पराका उल्लेख भी उसकी प्रामाणिकताकी ही पुष्टि करता है। अब भगवान महावीरके समकालीन व्यक्तियों तथा कतिपय अन्य संकलनाओंकी दृष्टिसे प्रचलित वीर निर्वाण सम्वत् पर विचार किया जाता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ वीर निर्वाण सम्वत् समकालीन व्यक्ति जैन तथा बौद्ध उल्लेखों के अनुसार महात्मा बुद्ध, आजीविक सम्प्रदायके संस्थापक मक्खलि गोशाल, वैशाली नरेश चेटक । मगधराजा श्रेणिक या बिम्बसार और श्रोणिक पुत्र अभय और कुणिक या अजातशत्रु, ये इतिहासप्रसिद्ध व्यक्ति भगवान् महाबीरके समकालीन थे। उनके सम्बन्धमें जैन उल्लेखों से नीचे लिखे तथ्य प्रकाश में आते हैं लिच्छवि गण तंत्रके प्रमुख चेटकराजकी सबसे बड़ी पुत्री की कुक्षिसे महाबीर का जन्म हुआ था और सबसे छोटी पुत्री चेलना राजा श्रेणिककी पटरानी और कुणिककी जननी थी। __ जैन ग्रन्थकारोंके द्वारा निबद्ध श्रेणिक चरितके अनुसार श्रेणिकके पिताने श्रेणिकको अपने राज्यसे निकाल दिया था। मार्गमें एक ब्राह्मणका साथ होगया। उसकी बुद्धिमती पुत्रीसे श्रेणिकने विवाह किया। उससे अभयकुमार नामक पुत्र हुआ। पिताकी मृत्यु हो जानेके पश्चात् श्रेणिकको मगधका राज्य मिला, और बड़ा होने पर अभयकुमार राजमंत्री हुआ। अभय कुमारके मंत्रित्वकालमें राजा श्रेणिक चेटककी सबसे छोटी पुत्री चेलना पर आसक्त हो गये और चेटकसे उसकी याचना की। चेटकके द्वारा अस्वीकृत किये जाने पर अभयकुमार ने छलसे चेलना का हरण करके श्रेणिकके साथ उसका विवाह करा दिया। उस समय राजा श्रेणिक जैनेतर धर्मावलम्बी थे और १-वृ० क० को, कथा ५५ . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका चेलना जैन थी । चेलनाके प्रयत्नसे ही राजा श्रेणिकने जैन धम धारण किया और भगवान महाबीर की उपदेश सभा का प्रधान श्रोता बना। जब लगभग ४२ वर्षकी अवस्थामें महाबीर भगवानको केवल ज्ञान प्राप्त हुआ और राजगद्दीके बाहर स्थित विपुलाचल पर उनका पदार्पण हुआ उस समय राज गृहीमें राजा श्रेणिक चेलनाके साथ निवास करते थे। हरिषेणने अपने कथा कोशमें श्रेणिककी कथाके अन्तमें लिखा है कि जब चतुर्थ कालमें तीन वर्ष, आठ मास और सोलह दिन शेष रहे तब महाबीर भगवानका निर्वाण हुआ तथा पंचम कालके इतने ही दिन बीतने पर राजा श्रोणिक की मृत्यु हुई। अर्थात् भगवान महाबीरके निर्वाणसे सात वर्ष पाँच मास पश्चात् श्रेणिककी मृत्यु हुई । किन्तु जैन और बौद्ध उल्लेखोंसे इसका समर्थन नहीं होता। यह सर्वविदित है कि कुणिकने बड़ा होने पर अपने पिता श्रेणिकको कारागारमें डाल दिया था और १-"कत्थ कहियं ? सेणियराए सचेलणे महामंडलिए सयलबसुहा मंडल भुजंते" । ज० ध०, भा० १, पृ० ७३ २-किन्तु अब सभी ऐतिहासिक अजात शत्रु (कुणिक) पर लगाये गये इस इलजाम को झूठा मानते हैं । वह कई अंशोंमें बुद्ध के प्रतिद्वन्दी देवदत्तको सहारा देता था इसी कारण उस पर यह इल्जाम लगाया होगा ऐसा उनका कहना है । भा० इ० रू० पृ० ४६३ । वृ० क० को० में हरिषेणने भी इस घटना की चर्चा नहीं की है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर निर्वाण सम्वत् ३०१ वहीं उसकी मृत्यु हुई। श्रेणिककी मृत्युके पश्चात् कुणिकको बड़ा पश्चात्ताप हुआ और वह चित्तकी शान्तिके लिये महाबीर और बुद्ध के पास गया । श्वेता० जैन सूत्रों में महाबीर भगवानके साथ श्रेणिकविषयक जितने प्रसंग आये हैं, उनसे अधिक प्रसंग कुणिक सम्बन्धी मिलते हैं। उनमे यह भी लिखा है कि श्रेणिककी मृत्युके पश्चात् कुणिक और उसके भाई हल्ल विल्लका आपस में झगड़ा हुआ । हल्ल विहल्ल अपने नाना चेटक के पास चले गये । कुणिकने चेटकपर आक्रमण कर दिया और वैशालीको बरबाद कर दिया । अब गोशालकको लीजिये । भगवती सूत्रके १५ वें शतक में उसका वर्णन विस्तारसे दिया है। उसके अनुसार जब गोशालकने क्रुद्ध होकर महाबीर भगवान पर अपनी तेजोलेश्या का प्रयोग किया और कहा कि तू छ मासमें मर जायेगा, तब महाबीरने उससे कहा- गोशाल; मैं अभी १६ वर्ष तक इस पृथ्वीपर बिहार करूंगा । और तू अपनी तेजो लेश्यासे स्वयं ही जलकर सातवें दिन मर जायेगा । अर्थात् गोशालककी मृत्युसे १६ वर्ष बाद तक भगवान महाबीर जीवित रहे । मरने से पूर्व गोशालक अपने शिष्यों को कुछ बातें बतलाई जिनमें मुख्य 'आठ चरिम' हैं । उन आठ चरिमों में एक 'महाशिला कंटक' युद्ध भी है। अजातशत्रुका चेटकके साथ जो युद्ध हुआ था उसे ही 'महाशिला कण्टक' युद्ध कहा है । अतः गोशालककी मृत्युसे पहले यह युद्ध हो चुका था ! यह तो हुआ जैनग्रन्थोंसे प्राप्त भगवान महाबीर के समकालीन इतिहासप्रसिद्ध व्यक्तियोंका विवरण । अब बौद्ध साहित्यको लीजिये । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका ____ जैन ग्रन्थों में महाबीरके समकालीन व्यक्ति के रूपमें बुद्धका संकेत तक भी नहीं मिलता। किन्तु बौद्ध त्रिपिटकोंमें निगंठ नाटपुत्त-निर्ग्रन्थ ज्ञातृ पुत्रका निर्देश तथा एक प्रबल प्रतिद्वन्दी के रूपमें विवरण बहुतायतसे मिलता है। जैसा कि हम पहले भी लिख आये हैं । अतः उससे यह स्पष्ट है, कि दोनों व्यक्ति समकालीन थे। ___ इसी तरह मगध राज बिम्बसार (श्रेणिक ) और उसका पुत्र अजातशत्रु ( कुणिक ) भी बुद्धके समकालीन थे। बुद्धचर्या (पृ०४१३) में लिखा है कि बुद्ध प्रवृजित होनेके पश्चात् राजगृहीमें आये । विम्वसारने उनसे वहाँ ठहरनेकी प्रार्थना को किन्तु बुद्धने कहा मैं सत्यकी खोजमें हूँ। तथा विम्बसारने उनसे प्रार्थना की कि बोधिलाभ होने पर राजगृही पधारना। तदनुसार जब बुद्धको बोधिलाभ हो गया तो वे राजगृही आये और विम्बसार उनका उपासक बन गया। अर्थात् जब बुद्धने घर छोड़ा तब राजगृहीके सिंहासन पर श्रेणिक आसीन था। बुद्धके जीवन काल में ही श्रेणिककी मृत्यु हुई और अजात शत्रुके राज्यके आठवें वर्षमें बुद्धका निर्वाण हुआ। अब हम प्रचलित वीर निर्वाण सम्बत्को सामने रखकर उक्त समकालीन व्यक्तियोंके उक्त घटना क्रमपर विचार करेंगे। पाठक जानते हैं कि सन् १६५६ की बैसाखी पूर्णिमाको विश्व भरमें महात्मा बुद्धकी २५०० वी निर्वाण जयन्ती मनाई गई थी। तदनुसार ( २५०-१६५६ = ५४४ ) बुद्धका निर्वाण ईस्वी पूर्व ५४४ में हुआ था। सिंहल आदि बौद्ध देशोंमें बुद्धके निर्वाण का यही काल माना जाता है। जैसे जैन परम्परामें महावीरका Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर निर्वाण सम्वत् निर्वाण ईस्वी पूर्व ५२७ में माना जाता है वैसे ही उक्त बौध्द देशोंमें बुद्घका निर्वाण ईस्वी पूर्व ५४४ में माना जाता है । और जैसे महावीर निर्वाणके प्रचलित कालको लेकर विद्वानोंमें मतभेद चला आता है, वैसे ही प्रचलित उक्त बुद्ध निर्वाणके काल को लेकर विद्वानोंमें उससे भी अधिक मतभेद चला आता है। किन्तु जायसवालने बौद्ध अनुश्रुतिके प्रत्येक गोलमालको सुलझा कर ५४४ ई० पूर्व में बुद्ध निर्वाणकी स्थापना की थी ( ज० रा० ऐ० सो०, जि० १, पृ० ६७ आदि)। अतः हम परम्परासे प्रचलित उक्त दोनों निर्बाणकालोंको ही सामने रखकर उक्त समकालीन व्यक्तियोंके घटना क्रमपर विचार करेंगे। बुद्ध की आयु ८० वर्ष थी और महावीरकी आयु ७२ वर्ष के करीब थी। चूकि बुद्धका निर्वाण ईस्वी पूर्व ५४४ में हुआ अतः उनका जन्म ईस्बो पूर्व ६२४ में होना चाहिए । तथा चूकि महावीरका निर्वाण ईस्वी पूर्व ५२७ में हुआ अतः उनका जन्म ईस्वी पूर्व ५६६ में होना चाहिए। इस तरह बुद्धसे महाबीर करीब २५ वर्ष छोटे ठहरते है। बुद्धने करीब २६ वर्षकी अवस्थामें घर छोड़ा और लगभग ३६ वर्षकी अवस्थामें उन्हें बोधि लाभ हुआ। महावीरने ३० वर्षकी अवस्थामें घर छोड़ा और लगभग बयालीस वर्षकी अवस्थामें उन्हें केवल ज्ञान हुआ। अर्थात् प्रचलित निर्वाणकालके अनुसार बुद्धको ५८८ ईस्वी पूर्व में बोधिलाभ हुआ और महाबीरको ५५७ ईस्वी पूर्व में बोधिलाभ हुआ। इस तरह बोधिलाभके पश्चात वे दोनों महापुरुष लगभग १२-१३ वर्ष तक अपने अपने धर्मके शास्ताके रूपमें प्रतिस्पर्धी के रूपमें साथ साथ विचरण करते रहे। बौद्ध पालि साहित्यमें निग्रन्थ ज्ञात पुत्रके सम्बन्धमें जो उल्लेख मिलते हैं, १२ वर्षके Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका सुदीर्घकालमें उनका घटित होना जरा भी असंभव नहीं कहा जा सकता। ___ हाँ, जब महावीर अपने धर्म प्रचारके क्षेत्रमें अवतरित हुए तब बुद्ध वृद्ध हो चुके थे जब कि महावीर प्रौढवयमें पदार्पण कर चुके थे और इसलिए स्वभावतः उनमें कार्यक्षमता अधिक थी। बौद्ध पालि साहित्यमें महावीरका ही प्रबल प्रतिद्वन्दीके रूप में अधिक निर्देश मिलनेका यह भी एक कारण हो सकता है। अब इन महापुरुषोंके उक्त कालकी संगतिको अन्य समकालीन व्यक्तियोंके साथ भी मिलाकर देख लेना चाहिये। बौद्ध पाली साहित्यमें बुद्धके विरोधी छै शास्ताओंमें मक्खलि गोशालका नाम भी आता है, जो महावीरका भी समकालीन था। भगवती सूत्रके अनुसार गोशालकने महावीरके जिन होनेसे दो वर्ष पूर्व ही अपनेको 'जिन' घोषित कर दिया था और महावीरके निर्वाणसे १६ वर्ष पूर्व उसकी मत्यु हुई। चूँकि महावीरको जिनत्वकी प्राप्ति ईस्वी पूर्व ५५७ में हुई, अतः गोशालक ईस्वी पूर्व ५५६ में 'जिन' हुआ और ईस्वी पूर्व ५४३ में उसकी मत्यु हुई। अर्थात बुद्धसे एक वर्ष पश्चात् उसका मरण हुआ। इस तरह 'जिन' होनेके पश्चात गोशालक भी १५ वर्ष तक प्रतिद्वंदी के रूपमें बुद्धके समकालमें विचरण करता रहा। अतः उसके कालकी संगति भी ठीक बैठ जाती है। अब राजा श्रेणिक और तत्पुत्र अजातशत्रुको लीजिये। चूँ कि बुद्धका निर्वाण ई० पूर्व ५४४ में हुआ और उससे ८ वर्ष पूर्व अजातशत्रु मगधके राज्यासन पर बैठा। अतः ५५२ ई० पूर्नमें Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर निर्वाण सम्वत् ३०५ अजातशत्रु' गद्दी पर बैठा और लगभग इसी समय श्रेणिककी मृत्यु हुई। चूँकि भगवान महावीरको केवलज्ञान ई० पूर्व ५५७ में हुआ अतः श्रेणिक केवल ४-५ वर्ष तक ही भगवान महावीर के उपदेशोंसे लाभान्वित हो सका । ई० पूर्व ५५२ में राज्यासन पर बैठते समय अजातशत्रुकी आयु २३ वर्ष अवश्य होनी चाहिये; क्योंकि इतनी अवस्था हुए बिना पिताको कारागारमें डाल कर राज्यासनपर बैठनेको हिम्मत नहीं हो सकती । अतः अजातशत्रुका जन्म ई० पूर्व ५७५ में होना चाहिए । और उससे कमसे कम एक वर्ष पूर्ण चेलन के साथ राजा श्रेणिकका विवाह होना चाहिए । राजा श्रेणिकके साथ चेलनाका विवाह कराने में श्रेणिकपुत्र अभयकुमारका हाथ था और वह उस समय मगधका प्रधान मंत्री था । अतः उस समय उसकी आयु कमसे कम लगभग २४ वर्ष तो अवश्य होनी चाहिए । अतः कहना होगा कि भगवान महावीर और श्रेणिकपुत्र अभयकुमार लगभग समवसक थे । अतः यदि ईस्वी पूर्व ६०० के लगभग अभयकुमारने जन्म लिया हो तो उस समय श्रेणिककी आयु १८ - १६ वर्षकी अवश्य १ - दीघनिकाय ( सामञ्जफलसुत्त ) में अजातशत्रुकी भगवान महावीर से भेंट होने के समय महावीरको 'श्रद्धगतो वयो'- अर्धगतत्रय लिखा है । श्रजातशत्रु पिताकी मृत्युके पश्चात् ही भेंटके लिये गया था । अतः यदि वह ५५२ ई० राज्यासनपर बैठा और उसके पश्चात् महावीर स्वामीके पास गया तो उस समय महाबीर स्वामीकी श्रवस्था ५१-५२ के लगभग होना चाहिये । अतः दीघनिकाय के इस उल्लेखकी संगति भी उक्त काल निर्णयके प्रकाश में ठीक बैठती है । पूर्व में २० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका होनी चाहिए । और इस तरह श्रेणिकका जन्म ईस्वी सनसे ६१६ वर्ष पूर्व होना चाहिये। महावंशमें लिखा है- 'बिम्बसार और युवराज सिद्धार्थ ( बुद्ध ) परस्परमें मित्र थे। उन दोनोंकी तरह उनके पिता भी परस्परमें मित्र थे। बुद्ध बिम्बसारसे ५ वर्ष बड़े थे । जब बुद्ध २६ वर्षके थे, उन्होंने ग्रह त्याग किया। ६ वर्षके पश्चात् बोधिलाभ करने पर ३५ वर्षकी अवस्थामें बुद्ध बिम्बसारसे मिले। बिम्बसार १५ वर्षकी अवस्थामें राज्यासन पर बैठे । जब बिम्बसारको राज्य करते हुए १५ वर्ष बीत गये तो बुद्धने अपना धर्म प्रवर्तन प्रारम्भ किया। बिम्बसारने ५२ वर्ष राज्य किया१५ वर्ष बुद्धको बोधिलाभ होनेसे पूर्व और ३७ वर्ष पश्चात्" । जैन घटनाओंके आधार पर अनुमानित हमारे उक्त काल निर्णयके साथ महावंशका उक्त कथन भी बहुत अंशोंमें मिल जाता है। बुद्धका निर्बाण ५४४ ई० पूर्वमें माननेपर बुद्धका जन्म उससे ८० बर्ष पूर्व ६२४ ई० पूर्व में होना चाहिए और चूँ कि श्रेणिक उनसे ५ वर्ष छोटे थे, अतः श्रेणिकका जन्म ६१६ ई० पूर्वमें होना चाहिए, जैसाकि हमने ऊपर बतलाया है । चूकि बुद्धका निर्वाण ५४४ ई० पूर्व में हुआ और अजातशत्रु उससे ८० वर्ष पूर्व मगधके राज सिंहासन पर बैठा । अतः श्रोणिकने ई० पूर्ण ५५२ तक राज्य किया। महावशके अनुसार श्रेणिक १५ वर्षकी अबस्थामें राजा हुआ और ५२ बर्ष उसने राज्य किया। इस कथनमें और श्रेणिक सम्बन्धी हमारी उक्त काल गणनामें केवल ४ वर्षका अन्तर पड़ता है। यदि श्रेणिकका जन्म ई० पूर्व ६१६ के स्थानमें ईम्बी पूर्व ६५ मान लिया जाये तो १५ बर्षको अवस्थामें उसका राज्यासन पर बैठना और ५२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर निर्वाण सम्वत् ३०७ वर्ष तक राज्य करना अक्षरशः प्रमाणित हो जाता है और उससे जैन शास्त्रोंमें वर्णित घटनाओंकी संगतिमें भी कोई अन्तर नहीं आता। किन्तु ऐसा करनेसे एक तो बुद्ध और श्रेणिकके बीचमें महाबंशमें जो ५ बर्षका अन्तर बतलाया है उसमें ५ बर्षकी. वृद्धि हो जाती है। दूसरे जैन ग्रन्थोंमें अभयकुमारकी उत्पत्ति के पश्चात् ही श्रेणिकको मगधके राज्यासनका स्वामी होना बतलाया है। अतः १५ बर्षको उम्रसे पहले देश निकाला, विवाह, पुत्रोत्पत्ति आदि घटनाओंका घटना सुसंगत प्रतीत नहीं होता । उसमें चार बर्णकी वृद्धि करनेसे एक ओर महावंशका यह कथन कि बुद्धसे बिम्बसार पाँच बर्ष छोटे थे, और दूसरी ओर जैन ग्रन्थों में वर्णित श्रेणिकके बाल-जीवनकी घटनाएं सुसंगत बैठ जाती हैं। अतः जैनोंमें परम्परासे प्रचलित बीर निर्वाण कालको और बौद्धोंमें परम्परासे प्रचलित बुद्ध निर्वाण कालको ही ठीक मान कर चलनेसे बुद्ध, महावीर, गोशालक, श्रेणिक, अभयकुमार और अजातशत्र आदिकी समकालीनता तथा जैन और बौद्ध ग्रन्थों में वर्णित घटनाओंकी संगति ठीक बैठ जाती है। उक्त घटनाओंके प्रकाशमें निर्धारित उक्त काल क्रमकी तालिका नीचे दी जाती है। साथमें तुलनाके लिये भी का० प्र. जायसवाल और मुनि कल्याण विजय जीके मत भी दिये जाते। नाम जन्म बोधिलाभ निर्वाण जायसवाल मुनि कल्याणविजय महाबीर ५६ ५५७ ५२७ महा०नि० महा०नि० ई० पू. ई० पू० ई० पू० ५४५ ई०पू० ५२८ ई० पू० बुद्ध ६.४ ५८८ ५४४ बु०नि० बु० नि० ई० पू० ई० पू० ई० पू० ५४४ ई०पू० ५४४ ई०पू० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका नाम जन्म बोधिलाभ निर्वाण जायसवाल मुनि कल्याणविजय गोशालक x ५९६ ५४३ ई० पू० ई० पू० श्रेणिक ६१६ राजगद्दी ५५२ ६०१-५५२ ६०१-५५२ ई० पू० ६०० ई० पू० ई० पू० ई० पू० ई० पू० राज्यकाल अभयकुमार ६०० ई० पू० अजातशत्रु ५७५ ५५२ २० ५५२-५१८ ५५२-५१८ ई० पू० ई० पू० ई० पू० राज्यकाल उक्त संगतिके साथ जो एक बड़ी विसंगति सामने आती है वह है बौद्ध पालि साहित्यमें बुद्धके जीवनकालमें महावीरका पावामें निर्वाण होनेका उल्लेख । मज्झिमनिकायके सामगामसुत्त (पृ० ४४१ ) में लिखा है 'एक समय भगवान् शाक्य देशमें सामगाममें बिहार करते थे। उस समय निगंठ नाटपुत्त अभी अभी पावामें मरे थे। उनके मरने पर निगंठ लोग दो भाग हो भंडन कलह विवाद करते एक दूसरेको मुखरूपी शक्तिसे छेदते बिहरते थे."आदि ।' म०नि० के उपालिसुत्तमें (पृष्ठ २२२ में लिखा है कि उपालि नातपुत्तका अनुयायी था। वह बुद्धके साथ वाद करनेके लिये गया। किन्तु उसका परिणाम उल्टा ही हुआ, बुद्धने उसे अपना शिष्य बना लिया। उसके पश्चात् उपालिने अपने घर जाकर द्वारपालको यह आदेश दे दिया कि निग्रन्थोंको अन्दर नहीं आने देना। पीछे जब महाबीर भगवान अपनी शिष्य मण्डलीके साथ उपालिके घर गये तो उपालिके मुखसे बुद्धकी प्रशंसा सुनकर वह Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर निर्वाण सम्वत् ३०६ उसे सह न सके और उनके मुखसे गर्म लोहु निकल पड़ा अर्थात् मुँहसे रक्तका वमन हुआ। बौद्ध पालि साहित्यमें वर्णित इस घटनाके ऊपर कतिपय बिद्वानोंने बहुत जोर दिया है। और उन्होंने इस घटनाको मरण सम्बन्धी उक्त घटनाके साथ जोड़कर यह कल्पना की है कि उपाली वाली घटनाके कुछ ही समय पश्चात् पावामें महाबीरका मरण हो गया। किन्तु जाले चान्टियर आदिने इस बातको स्वीकार नहीं किया। उसके कारण निम्न प्रकार हैं-जैन उल्लेखोंके अनुसार जिस पावामें महावीर भगवानका निर्वाण हुआ था वह पावा पटना जिलेमें नालन्दाके पास है। किन्तु बौद्ध साहित्यमें जिस पावाका निर्देश है वह शाक्य भूमिमें है क्योंकि उस समय बुद्ध शाक्य देशके सामगाममें स्थित थे और चुन्द पावासे चलकर सामगाम आया था। अतः उक्त निर्देश प्रामाणिक नहीं माना जा सकता। डा० जेकाबीने भी (से० बु० ई० जि० ४५, पृ० १६) यही बात लिखी है और उसे प्रामाणिक नहीं माना है। इसके सिवाय महाबीरके निर्वाणके पश्चात् ही जो उनके अनुयायी निग्रन्थों में लड़ाई झगड़ा होनेका उल्लेख किया है उसका भी समर्थन किसी जैन स्रोतसे नहीं होता। सम त दि० श्वे. जैन १-जाल चापेन्टियरने महावीरके समयनिर्णय सम्बन्धी अपने लेख में ( इं० ए० जि० ४३ ) उक्त चर्चा करते हुए लिखा है कि स्पेंस हार्डीने 'मैन्युअल श्राफ बुद्धिज्म' में तथा वीगन्डेटने ( से० बु० ई. जि० १३, पृ. २५६ ) लिखा है कि उपालि के विरोध के कारण महाबीरका मरण हुआ। राहुल जीने म० नि० के अपने अनुवाद के टिप्पण में भी ( ४४१ पृ०, टि० २) यही बात लिखी है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा. इ०-पूर्व पीठिका साहित्यमें महावीर निर्वाणसे भद्रबाहु स्वामी पर्यंत १६० वर्षके अन्तराल में इस प्रकारके किसी विवादका संकेत तक नहीं है। बुद्धके निर्वाणसे ५०० वर्ष पश्चात् ईसाकी प्रथम शताब्दीमें तत्कालीन बौद्ध भिक्षुओंकी स्मृतिके आधारपर उपलब्ध त्रिपिटक ग्रन्थोंको लंकामें लिपिबद्ध किया गया था। उस समयतक जैन धर्ममें दिगम्बर श्वेताम्बर भेद उत्पन्न हो चुका था। तथा पावामें भगवान महाबीरका निर्वाण होनेकी बात तो सर्वविश्रुत थी। ऐसा प्रतीत होता है कि त्रिपिटकोंके संकलयिताओंने इन घटनाओंको समकालीन समझकर एकत्र निबद्ध कर दिया, तथा उन्होंने पावाको वही पावा समझ लिया जिससे वे विशेष रूपसे परिचित थे। अतः बौद्ध ग्रन्थोंके इस उल्लेखके आधार पर प्रचलित निवाण सम्वत्को गलत प्रमाणित नहीं किया जा सकता। ___ यदि त्रिपिटकोंके उल्लेखोंका तुलनात्मक रूपसे परिशीलन किया जाये तो उनमें परस्पर विरुद्धता मिल सकती है । यहाँ हम केवल दो उल्लेखोंको उदाहरणके रूपमें उपस्थित करते हैं। संयुत्त निकायके जटिल' सुत्तमें लिखा है कि एक बार कौसलाधिपति प्रसेनजित्ने बुद्धसे भेट की और उनके प्रश्नके उत्तरमें बुद्धने कहा कि 'अनुत्तर सम्यक संबोधिको जान लिया' ऐसा मेरे विषयमें ही कहना उचित है । तब प्रसेन जित्ने कहा 'हे गौतम ! वह जो श्रमण ब्राह्मण संघ के अधिपति, गणाधिपति, गणके आचार्य, ज्ञात यशस्वी, तीर्थङ्कर, बहुत जनों द्वारा साधु सम्मत हैं-जैसे पूर्णकाश्यप, मक्खली गोशालक, निग्गंठ नाटपुत्त, संजय वेलढिपुत्त, प्रक्रुद्ध कात्यायन, अजितकेश कम्बली। बुद्ध च०, पृ०, ६६, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर निर्वाण सम्वत् वह भी पूछने पर यह दावा नहीं करते। फिर जन्मसे अल्पवयस्क और प्रव्रज्यामें नये आप गौतमके लिये तो कहना ही क्या है ? ___ इस कथनसे तो यही प्रकट होता है कि बुद्ध अन्य सब विपक्षी शास्ताओंसे लघु.वयस्क थे। किन्तु दीघ निकायके 'सामञ्जफल मुत्त में अजातशत्रुसे भेंटके समय महावीरको 'श्रद्धगतो वयो' लिखा है। अर्थात् अजातशत्रुके राज्यारम्भके समय महावीर लगभग पचास वर्षके थे। यह कथन प्रचलित निर्वाण सम्वत्के आधार पर ऊपर निर्धारित कालक्रमके तो अनुकूल है क्योंकि उसके अनुसार ई० पू० ५५२ के लगभग अजातशत्रु राजा हुआ, और उस समय महावीर भगवानकी आयु ४७ वर्षकी थी। उसके पश्चात ही अजातशत्रु पिताकी मृत्युके सन्तापका शमन करनेके लिये विभिन्न शास्ताओंके पास गया था । किन्तु जटिलसुत्तके उक्त कथनके साथ उसकी संगति नहीं बैठतो, क्योंकि बुद्धका निर्वाण अजातशत्रुके राज्यके आठवें वर्षमें हुआ माना जाता है। और बुद्धकी आयु ८० वर्षकी था। अतः उक्त भेंटके समय बुद्धकी आयु ७५ वर्ष होनी चाहिये, और अद्धगतोवयो महावीरकी ५० वर्ष, जैसा कि हमने बतलाया है। अतः त्रिपिटिकोंमें दत्त घटनाओंके कालक्रमको सर्वथा प्रामाणिक नहीं माना जा सकता । और इसलिये उसमें दत्त महावीर भगवानको मृत्युकी घटनाको प्रमाण कोटिमें नहीं रखा जा सकता। इस प्रकार प्रचलित वीर निर्वाण सम्वत्के अनुसार महावीर भगवानका निर्वाण वि० स० से ४७० वर्ष पूर्व, शक सम्वत्से ६०५ बर्ष पूर्व और ई० सन्से ५२७ वर्ष पूर्व माननेसे बुद्ध, गोशालक, श्रेणिक, अजातशत्रु आदि समकालीन व्यक्तियोंके साथ उसका Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका सामजस्य बैठ जाता है। अब हम वीर निर्वाणसे उत्तरकाल में होनेवाले विशिष्ट व्यक्तियोंके कालक्रमके साथ उसके सामञ्जस्य पर विचार करेंगे। ___महावीरके पश्चात्की राज्यकाल गणना भगवान् महावीरके निर्वाण और चन्द्रगुप्त मौर्यके राज्याभिषेक का अन्तरकाल हेमचन्द्रने' १५५ वर्ष और जिनसेन' (७८३ ई०) तथा मेरुतुंगने ( १३०० ई०)२१५ वर्ष दिया है। जिनसेन और मेरुतुंग महावीरके निर्वाण और अवन्तीकी गद्दीपर पालकके राज्याभिषेकको समकालीन बतलाते हैं। जिनसेनके पूर्वज यति. वृषभने तथा मेरुतुंगके पूर्वज तित्थोगाली पइन्नय' के कर्ताने भी ऐसा ही लिखा है। जिनसेन और मेरुतुंगने उन्हींका अनुसरण किया है। - पालकके पिताका नाम प्रद्योत अथवा चण्डप्रद्योत था। मझिम निकाय ( पृ० ४५५) में लिखा है कि मगधराज अजातशत्रु राजा प्रद्योतके भयसे नगरको सुरक्षित कर रहा था। यह घटना बुद्धके निर्वाणसे पश्चात् की है। उक्त सभी जैन ग्रन्थोंमें पालकका राज्यकाल ६० वर्ष लिखा है । मेरुतुंगने विचार श्रेणीमें १-एवं च श्री महावीरमुक्तेवर्षशते गते । पञ्चपञ्चाशदधिके चन्द्र. गुप्तोऽभवन्नृपः । ३३६।।- परि० ५०,८। २-हरिवंश पु० ६० स०, ४८८-८६ श्लोक । ३-वि० श्रे० । ४-जक्काले वीर जिणो णिस्से यससंपयं समावण्णो । तक्काले अभिसित्तो पालयणामो अंतिसुदो ||१५०५|| -ति०प०, अ० ४ ॥ ५-'जं रयणि सिद्धिगो अरहा तित्थंकरो महावीरो । तं रयणिमवंतीए अभिसित्तो पालो राया ।।' ६-'पालकस्य राज्ञः षष्ठि (६०) वर्षाणि राज्यमभूत । तावता Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर निर्वाण सम्वत् ३१३ पालकका राज्यकाल ६० वर्ष बतलाकर लिखा है कि पाटलीपुत्रमें कुणिकपुत्र उदायीको किसीने मार दिया और इस तरह महावीर निर्वाणसे ६० वर्षके पश्चात् नन्द राजा हुआ। तिलोयपएणति और जिनसेनके हरिवंशके अनुसार पालकके पश्चात् १५५ वर्ष तक विजय वंशका राज्य रहा। तत्पश्चात् मुरुण्डों ( मौर्यो) का राज्य हुआ। और तित्थोगाली पइन्नय, तीर्थोद्धार प्रकरण तथा विचार श्रेणीके अनुसार पालकके पश्चात् १५५ वर्ष तक नन्दोंका राज्य हुआ, तत्पश्चात मौर्यों का राज्य हुआ । इससे स्पष्ट है कि हेमचन्द्र तथा अन्य जैन ग्रन्थकारोंमें महावीर निर्वाण और चन्द्रगुप्त मौर्य के अन्तर कालको लेकर ६० वर्षका मत भेद है। ___किन्तु उक्त सभी जैन ग्रन्थकार, जिनमें हेमचन्द्र भी हैं महाबीरके निर्वाणसे ६० वर्षके पश्चात् नन्दवंशका राज्यारम्भ मानते हैं। अतः नन्दवंशके राज्यारम्भ कालको लेकर उनमें कोई मतभेद नहीं है । मतभेद है नन्दवंशके राज्यकालको लेकर। अन्य जैन ग्रन्थकार नन्दवंशका राज्य काल १५५ वर्ष बतलाते हैं । तब हेमचन्द्र महावीर निर्वाणसे लेकर चन्द्रगुप्तमौर्य के राजाभिषेक तकका काल १५५ वर्ष बतलाते हैं । अतः १५५ में से ६० वर्ष कम कर देने पर हेमचन्द्रके मतानुसार नन्दवंशका राज्यकाल ६५ वर्ष होता है । बौद्ध कालगणना बौद्धग्रन्थ दीपवंश और महावंशमें अजातशत्रुसे लेकर शैशुनाग, नन्द और मौर्य राजाओंके राज्यकालकी अवधि दी है। पाटलीपुत्रेऽपुत्रे कुणिकपुत्रे उदायिनृपे उदायि नृपमारकेण हते "नन्दो राज्येऽभिषिक्तः' उक्त च परिशिष्टपर्वाण-'अनन्तरं वर्धमानस्वामिनिर्वाणवासरात् । गतायां षष्ठिवत्सर्यामेष नन्दोऽभवन्नृपः ।।'-वि० श्रे०। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका महावंशमें लिखा है-'अजात शत्रुके पुत्र उदयभट्टने अपने पिता अजातशत्रुको मारकर १६ वर्ष राज्य किया। उदयभट्ट के पुत्र अनुरुद्धने अपने पिताको मारकर राज्य किया और अनुरुद्धके पुत्र मुण्डने अपने पिताको मारकर राज्य किया। दोनोंने आठ वर्ष राज्य किया । मुण्डके पुत्र नागदासकने मुण्डको मारकर २४ वर्ष तक राज्य किया। इस तरह इस वंश को पितृघाती वंश जानकर क्रुद्ध नागरिकोंने नागदासकके अमात्य सुसुनागको राजा बनाया। उसने १८ वर्ष राज्य किया। १- अजात सत्तपुत्तो तं धातेत्वादायभद्दको । रज्जं सोलसवस्सानि कारेसि मित्त दुब्भिको ॥१॥ उदयभद्दपुत्तो तं घातेत्वा अनुरुद्धको । अनुरुद्धस्स पुत्तो तं घातेत्वा मुण्डनामको ॥ २ ॥ मित्तद्दुनो दुम्मतिनो ते पि रज्जं अकारय। तेसं उभिन्न रज्जेसु अवस्सानतिक्कमु ॥३॥ मुण्डस्स पुत्तो पितरं घातेत्वा नागदासको । चतुवीसति वस्सानि रज्जं कारेसि पापको ॥ ४ ।। पितुघातकवंसोयं इति कुद्धा थ नागरा । नागदासकराजानं अपनेत्या समागता ॥ ५॥ सुसुनागोति पातं अमच्च' साधुसंमतं । रज्जे समभिसिञ्चिसु सव्वेसं हितमानसा ॥ ६ ॥ सो अट्ठारस वस्सानि राजा रज्जं अकारयि । कालासोको तस्स पुत्तो साधीसतिकारयि ।। ७ ।। अतीते दसमे वस्से कालासोकस्स राजिनो । संधुद्ध परिनिव्वाणा एवं वस्ससतं अहु ।। ८॥ -महावंश, ४ परि। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर निर्वाण सम्वत् ३१५ उसके पुत्र कालासोकने २८ वर्ष राज्य किया । कालासोकको राज्य करते हुए १० वर्ष बीतने पर बुद्धके परिनिर्वाणको १०० वर्ष हुए। ___ काला'सोकके पुत्र दस भाई थे। उन्होंने २२ वर्ष राज्य किया। फिर क्रमसे हनन्द हुए । उन्होंने भी २२ वर्षे राज्य किया । मौर्य क्षत्रियोंके वंशमें श्री चन्द्रगुप्त हुए । ब्राह्मण चाणक्यने नौवें धननन्दको मारकर चन्द्रगुप्तको सकल जम्बूद्वीप का राजा बनाया। उसने २४ वर्ष राज्य किया। उसके पुत्र १-'कालासोकस्स पुत्ता तु अहेसुदस भातुका । द्वावीसति ते वस्सानि, रज्जं समनुसासिसु ॥ १४ ॥ नव नन्दा ततो पासु कमेनेव नराधिपा। ते पि द्वावीस वस्सानि रज्जं समनुसासिसु ॥ १५ ॥ मोरियानं खत्तियानं वंसे जातं सिरोधरं । चंदगुत्तोति पज्ञातं चाणक्को ब्राह्मणो ततो॥ १६ ॥ नवमं धननन्दं तं घाटेवा चंडकोषवा । सकले जंबुदोपस्मि, रज्जे समभिसिञ्चि सो ॥ १७ ॥ सो चतुवीस वस्सानि, राजा रज्ज अकारयि । तस्स पुत्तो विंदुसारों अट्ठवीसति कारयि ॥ १८ ॥ विदुसार सुता आसुसतं एको च विस्सुत्ता । असोको आसि तेसं तु पुञ्जतेजो बलिद्धिको ॥ १६ ॥ वेमाति के भातरो सो हत्वा एकूनकं सतं । सकले जंबुदीपस्मि एकरज्जं अपापुणि ॥ २० ॥ जिननिव्वाण तो पच्छा, पुरे तस्साभिसेकतो। साहारसं वस्ससतद्वयं एवं विजानियं ।। २१॥" -महावंश, ५ परि० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका बिन्दुसारके १०० पुत्र थे। उनमें अशोक बड़ा तेजस्वी और बलवान था । उसने अपने ६६ भाईयोंको मारकर सकल जम्बूद्वीप में राज्य किया। बुद्ध निर्वाण और अशोकके अभिषेक काल के बीच में २१८ वर्षकार अन्तर है। अतः महावंशके अनुसार बुद्ध निर्वाणसे २४ + १६+ c+ २४ + १८+२८+ २२+२२ = १:२ वर्ष के पश्चात् चन्द्रगुप्त हुआ । चूकि बुद्धका निर्वाण ई० पूर्व ५४४ में हुआ और महाबीरका निर्वाण ई० पूर्व ५२७ में हुआ। अतः १७ वर्षका अन्तर होनेसे बौद्धकाल गणनाके अनुसार महाबीरके निर्वाणसे १६२ - ११७ = ४५ वर्ष पश्चात् चन्द्रगुप्त राजा हुआ। ___ बौद्ध ग्रन्थोंमें अजातशत्रुका राज्यकाल ३२ वर्ष लिखा है और चूँकि अजातशत्रुके राज्यके आठवें वर्ष में बुद्धका परिनिर्वाण हुआ अतः उक्त कालगणनामें अजातशत्रुके राज्यकालके २४ वर्ष ही गिनाये गये हैं। अन्यथा अजातशत्रुके राज्यारम्भसे लेकर चन्द्रगुप्त के राज्याभिषेक तक १७०वर्ष होते हैं । इन १७०वर्षों में नवनन्दोंका राज्यकाल केवल २२ वर्ष बतलाया है। . २-श्री जायसवालने इस बौद्धकाल गणनाको गलत ठहराकर बुद्ध निर्वाण और चन्द्रगुप्त के राज्याभिषेकके बीचमें २१८ वर्षका अन्तर बतलाया है । बुद्धका निर्वाण अजात शत्रुके राज्यके आठवें वर्षमें हश्रा अतः अजातशत्रुसे चन्द्रगुप्त के राज्याभिषेक तक का काल ३५+३५+३३+४+४३+२८+१२ % २२६ वर्ष होता है इसमें एक वर्ष अधिक है अतः २२६ – १ = २२५ हुए। इसमें अजातशत्रु के राज्य के ७ वर्ष कम कर देनेसे २१८ वर्ष शेष रहते हैं । (ज० वि० उ. रि० सो, जि० १, पृ.६५) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१७ वीर निर्वाण सम्वत् पौराणिक कालगणना हिन्दु पुराणकारोने भी शैशुनाग, नन्द और मौर्य राजाओंके राज्यकालका वर्णन किया है। विष्णु, मत्स्य, भागवत, ब्रह्माण्ड और वायुपुराणमें उनकी कालगणना मिलती है। किन्तु विष्णु पुराण, और भागवत में प्रत्येक राजाका राज्यकाल नहीं दिया, केवल उनके नाम तथा उनके वंशका राज्यकाल दिया है। शेष तीनों पुराणों में प्रत्येक राजाके साथ उनके राज्यकालके वर्ष भी दिये हैं। परन्तु उनमें भी एकरूपता नहीं है । अनेक नामोंमें और राज्यकालके वर्षों में एक दूसरेसे भिन्नता है। श्रीमद्भागवतमें (स्क० १२, अ०१ ) जो राजवंशावली दी है, उसका स्थान नहीं बतलाया कि ये राजवंश किस देश में राज्य करते थे। किन्तु विष्णुपुराणमें ( अ०१३) उन्हें मगध देशका शासक बतलाया है, और लिखा है कि बृहद्रथ वंशके अन्तिम राजा रिपुञ्जयको उसका मंत्री सुनिक मार देगा और अपने पुत्र प्रद्योतका राज्याभिषेक करेगा। विष्णु, भागवत और मत्स्यपुराण में दत्त वंशावली इस प्रकार हैविष्णु पुराण मत्स्य पुराण प्रद्योत प्रद्योत बालक २३ वर्ष भागवत बलाक पालक पालक २८ , विशाखयूप विशाखयूप विशाखयूप ५३ , १ --भागवतमें पुरञ्जय नाम है और मंत्रीका नाम शुनक है । मत्स्य में मंत्रीका नाम पुलक है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका राजक सूयक २१ , जनक १२५ । १२५ ,, नन्दिवर्धन नन्दिवर्धन नन्दि इस प्रकार विष्णु पु० में प्रद्योतवंशके ६ राजा गिनाये हैं। ओर मत्स्यमें ४ ही गिनाये हैं-प्रद्योतका नाम ही नहीं हैं । विष्णु और भागवत दोनों पुराणों में लिखा है कि ये पाँच प्रद्योत एक सौ अड़तीस वर्ष तक पृथ्वीका पालन करेंगे। इसके पश्चात् दोनों पुराणों में शिशुनागवंशी राजाओंका निर्देश है । मत्स्यमें लिखा है कि राजा सूर्यक वाराणसीमें अपने पुत्रको बैठाकर गिरिवन ( मगध ) में चला जायेगा। तीनों पुराणों में तत्पश्चात् शिशुनागवंशी राजाओंकी नामावली इस प्रकार दी हैबिष्णु षु० भागबत पु० मत्स्य पुराण शिशुनाभ शिशुनाग शिशुनाक ४० बर्ष काकवर्ण काकवणे काकवर्ण क्षेत्रमा क्षेत्रधर्मा क्षेत्रधोमा ३६ ,, क्षतौजा क्षेमजित २४ , विधिसार ( बिम्बसार ) विधिसार विन्ध्यसन २८ ., २६ ., क्षेत्रज्ञ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर निर्वाण सम्वत् अजातशत्रु अजातशत्रु अण्वायपन है, भूमिमित्र १४ ., अर्भ दर्भक अजातशत्रु २७ वंशक २४ , उदयन अजय उदासी ३३ ,, नन्दिवर्धन नन्दिवर्धन नन्दिवर्धन ४० ,, महानन्दि महानन्दि महानन्दि ४३ ,, महापद्मनन्द महापद्मपतिनन्द महापद्म ८८,, आठ पुत्र आठ पुत्र आठ पुत्र १२, इस प्रकार इन तीनों पुराणोंमें प्रद्योतोंका राज्यकाल १३८ वर्ष (मत्स्यमें १२५ वर्ष ), शिशुनागोंका ३६२ वर्ष और नन्दोंका १०० वर्ष बतलाया है। मत्स्यमें विन्ध्यसेन ( विम्बसार ) और अजात शत्रुके मध्यमें दो नाम ऐसे हैं जो अन्यत्र नहीं पाये जाते। इसीसे उसमें शिशुनागवंशी राजाओंकी संख्या १२ हो गई है। किन्तु उनका राज्यकाल ३६२ वर्ष ही बतलाया है जब कि प्रत्येक राजाके राज्यकालका संकलन करनेसे उसमें १८ वर्षकी कमी रह जाती है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० जै० सा• इ०-पूर्व पीठिका उक्त बंशावलियोंमें दत्त राजाओंके नामोंके अवलोकनसे पता चलता है कि मगधके प्रसिद्ध शिशुनागवंशी राजा बिम्बसारके ठीक नामका पता पुराणकारोंको नहीं था, जब कि बौद्ध और जैन ग्रन्थकार उससे सुपरिचित थे। मगध और अवन्तीके राजवंश उक्त पुराणोंमें प्रद्योतको अन्तिम वृहद्रथ राजाका उत्तराधिकारी कहा है. और पाँच प्रद्योतोंके पश्चात् शिशुनागवंशी राजाओंका निर्देश किया है । इससे ऐसा भ्रम होना स्वाभाविक है कि प्रद्योतबंश मगधमें राज्य करता था और उसके पश्चात् शिशुनागवंशी राजाओंका राज्य मगधमें हुआ। किन्तु यह प्रायः माना जाता है कि प्रद्योतवशने मगधमें राज्य नहीं किया और न मगधसे उसका कोई सम्बन्ध था। प्रद्योतवंशके संस्थापक राजा प्रद्योतको अवन्तीका ही राजा माना जाता है, जो भगवान महावीर, बुद्ध और मगधराज श्रेणिकका समकालीन था । इतिहासमें भी अवन्तिराज प्रद्योतका ही वर्णन मिलता है। कुमारपाल प्रतिबोध (पृ०७६-८३) में उज्जैनीके प्रद्योतको कथा है। उसके अनुसार मगधके राजकुमार अभयने प्रद्य तका बन्दी बनाया और प्रद्योतने अभयकुमारके पिता श्रेणिक ( बिम्बसार ) के चरणोंमें सीस नवाया । जैन ग्रन्थोंके अनुसार इसी प्रद्योतके पुत्रका राज्याभिषेक भगवान महावीरके निर्वाणके दिन अवन्तीकी गद्दी पर हुआ और उसने ६० वर्ष राज्य किया। जैन काल गणनामें मगधके नन्दवंशके पूर्व अवन्तीके पालककी काल गणना क्यों दी गई इस विषयको लेकर प्रायः ऊहापोह चलता है। पुराणोंके अवलोकनसे पता चलता है कि मगध और Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर निर्वाण सम्बत् . ३२१ अवन्ती के राजवंशोंमें इस प्रकारका व्यतिक्रम नया नहीं है और उसको लेकर इतिहासजोंमें ऊहापोह होता आया है। श्री जायसवाल जी का कहना है कि 'मगधने जब अवन्तिको जीता तो अवन्तिका वृत्तान्त प्रसंगवश मगधके इतिहासमें आया। यह वृत्तान्त मूल पाठमें एक कोष्ठक में या पाद टिप्पणीके रूप में पढ़ा जाता था। उसके अन्त में यह पाठ था स ( त ) त्सुतो नन्दिवर्धनः । हत्वा तेषां यशः कृत्स्नं शिशुनाको भविष्यति ।। यहाँ शिशुनाकका अर्थ था शैशुनाक-शिशुनाक वंशज और वह नन्दिवर्धनका विशेषण था। किन्तु बादमें पिछले लेखकों और प्रतिलिपिकारोंने यह न समझकर कि इसे कोष्ठकमें पढ़ना चाहिये, नन्दिवर्धनको प्रद्योतवंशका अन्तिम राजा तथा शिशुनाक का अर्थ पहला शिशुनाक राजा समझकर प्रद्योतांशको मगधमें शिशुनाकोंका पूर्ववर्ती मान लिया, और उनके वृत्तान्तको बार्हद्रथों और शैशुनाकोंके बीच रख दिया ।' पार्जीटरने भी इस स्पष्ट गलतीको सुधार कर प्रद्योतोंके वृत्तान्तको पुराण पाठमें मगध के वृत्तान्तसे अलग रख दिया है। और इस तरह से अब यह विषय प्रायः निर्विवाद माना जाता है। ( भा० इ० रू., जि०, १ पृ० ४६६)। अवन्तिराज प्रद्योत 'प्रायः' इस लिये कि कोई कोई विद्वान् अवन्तिके प्रद्योतोंसे मगधके प्रद्योतोको भिन्न मानते है। दोनोंको एक माननेमें उनकी एक आपत्ति इस प्रकार है 'पुराणोंमें मगधके राजाके रूपमें जिस प्रद्योतका वर्णन है उसका राज्यकाल पुराणों के अनुसार २३ वर्ष है । किन्तु अवन्ति २१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ ० सा० इ० पूर्व पीठिका राज प्रद्योतका काल इससे बहुत अधिक होना चाहिये। जैन और बौद्ध परम्पराके अनुसार चण्ड प्रद्योत किम्बसारका समकालीन था । तथा वह अजातशत्रुका भी समकालीन था। पुगणोंके अनुसार बिम्बसारका राज्यकाल २८ वर्ष और अजातशत्रुका २७ वर्ष था। पुराणोंके अनुसार अजातशत्रुका उत्तराधिकारी दर्शक था। भासकी स्वप्नवासवदत्तासे इसका समर्थन होता है। उससे प्रकट होता है कि मगधपर दर्शकके राज्यके प्रारंभिक वर्षों में अवन्तिमें चण्ड प्रद्योत महासेन राज्य करता था। इन सब बातों को दृष्टिमें रखते हुए चण्डप्रद्योतका सुदीर्घ काल तक अवन्तिमें राज्य करना सिद्ध होता है। जब कि पौरणिक प्रद्योतका राज्यकाल २३ वर्षा था।' : जल नि० उ. रि० सो०, जि०७ पृ० ११० ) - जैनाचार्य हेमचन्द्रके परिशिष्ट पर्वसे पता चलता है कि उज्जयिनीके राजा पालकके समयमें मगधके सिंहासनपर श्रेणिक पुत्र कुणिक ('अजातशत्रु) और कुणिकके पुत्र उदायीका क्रमशः राज्य रहा है । उदायीके निस्सन्तान मर जाने पर उसका राज्य नन्दको मिला। दक्खिनी बौद्ध अनुश्रुतिमें भी अजातशत्रु के ठीक बाद उदायीका राज्य बताया है। दीपवंशमें उंदपीके बाद अनुरुद्ध मुरंड और तब नागदासक है । उत्तरी बौद्ध अनुश्रुतिके ग्रन्थ दिव्यावदानमें मुण्डके बाद काकवणिका नाम है । परन्तु पुराणोंमें अजातशत्रु और उदपीके बीच दर्शक है। श्री जायसवालका कहना था कि नागदासक = दर्शक शिशुनाग ( शैशुनाक ) में शिशुनाग खाली विशेषण है । यह विशेषण लगाने की आवश्यकता उस समय इसलिये थी कि उसके समकालीन विनय पामोक्ख ( बौद्ध संघके चुने हुए मुखिया ) का नाम भी दर्शक था। काकवणि भी दर्शकका ही विशेषण है, क्योंकि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२३ वीर निर्वाण सम्वत् शिशुनाकका बेटा काकवर्ण था। इस लिए उसका कोई भी वंशज काकवर्णि कहला सकता है, इस तरह नागदासक दर्शक और काकवर्णि एक ही व्यक्ति हैं। प्रो० दे० रा० भण्डारकर भी नागदासक और दर्शकको एक ही मानते थे। किन्तु भासकी प्रामाणिकता उन्हें स्वीकृत नहीं थी। उन्होंने सिद्ध किया है कि दर्शकको यदि अजातशत्रका बेटा माना जाये तो उसके गद्दी पर बैठनेके समय उदयन कमसे कम ५६ वर्षका रहा होगा। इस दशामें ५७ वर्षकी उम्र में उसका दर्शककी बहिन पद्मावतीसे विवाह करना सर्वथा असंगत है। और भासने अपने समयकी गलत अनुश्रुतिका अनुसरण किया है ( भा० इ०, रू०, पृ० ४६७ ) । भासने स्वप्नवासवदत्तामें मगध नरेश दर्शककी बहिन पद्मावतीसे वत्सराज उदयनका विवाह कराया है। इससे पहले अवन्तिपति प्रद्योतकी पुत्री वासवदत्ताके साथ उसका विवाह हो चुका है। मगध नरेशकी बहिन पद्मावतीके साथ विवाह करानेके लिए उदयनका मंत्री योगन्धरायण वासवदत्ताको रूप बदलकर राजगृहीमें पद्मावतीके पास रख देता है और ऐसा रूपक रचता है जिससे वासवदत्ताके मरनेका संवाद, फैल जाता है। बातचीतमें वासवदत्ता पद्मावतीसे कहती है तू महासेनकी होने वाली बहू हैं । पद्मावती पूछती हैमहासेन कौन है ? वासवदत्ता उत्तर देती है उज्जैनीका राजा प्रद्योत है। इतनेमें धाय आकर कहती है कि महाराज उदयनका कुल रूप वय आदि देखकर महाराजने उसे पद्मावती देना स्वयं ही स्वीकार किया है। सोमदेव रचित कथासरित्सागरमें भी यह कथा, आई है। उसमें लिखा है 'वत्सराज उदयन वासवदत्ताको पाकर विषय Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका सुखमें मग्न हो गया और राज्यका कुल भार अपने मंत्री योगन्धरायणको सौंप दिया। तब मंत्रीने उदयनका राज्य बढ़ानेका विचार करते हुए सोचा कि हमारा एक शत्रु मगधराज प्रद्योत है, उसकी कन्या पद्मावतीकी याचना करने से वह हमारा मित्र हो जायेगा। आगे उसने वासवदत्ताको छिपाकर उक्त प्रकारसे पद्मावतीके साथ उदयनका विवाह करा दिया। नाटक तथा कथाके उक्त आख्यानसे तो यही प्रकट होता है कि पद्मावतीके साथ विवाहके समय उदयन तरुण होना चाहिये और वासवदत्ताके द्वारा पद्मावतीको अपने पिता प्रद्योतकी बहू बनानेकी बात कहनेसे तो प्रद्योत उस समय वृद्ध प्रमाणित नहीं होता है। चूँ कि प्रद्योतकी पुत्री वासवदत्ता उदयनसे विवाही थी इसलिये प्रद्योत और उदयनकी अवस्थामें बीस बरसका अन्तर तो होना ही चाहिये; क्योंकि वासवदत्ताके विवाह के समय उसके दोनों भाई पालक और गोपाल भी तरुण थे। अतः पद्मावतीके विवाहके समय प्रद्योतकी अवस्था ५० वर्ष और उदयनकी अवस्था तेंतीस बर्षे होना चाहिये। किन्तु अवन्तीपति प्रद्योत मगधराज श्रेणिक और उसके पुत्र अजातशत्रुका समकालीन था। यदि यह मान लिया जाय कि प्रद्योत श्रेणिककी तरह १५ वर्षकी अवस्थामें गद्दी पर बैठा और वह श्रेणिकपुत्र अभयकुमारका समवयस्क था, क्योंकि कुमारपाल प्रतिबोधके अनुसार अभयकुमारने प्रद्योतको बन्दी बनाया था, तो अजातशत्रुकी मृत्युके समय (ई० पू० ५२० अनुमानित) उसकी अवस्था ८० वर्षकी और वत्सराज उदयनकी अवस्था ६० वर्षकी होना चाहिये । ऐसी वृद्धावस्थामें पद्मावतीके साथ उदयनके विवाहको रचानेमें वासवदत्ताका सहयोग, पद्मावती का उदयनके प्रति आकर्षण और महाराज दर्शकका पद्मावतीके Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर निर्वाण सम्वत् ३२५ लिये स्वयं उदयनको पसन्द करना आदि बातें, जो नाटकमें वर्णित हैं, घटित नहीं हो सकती और न वासवदत्ता ही पद्मावती को अपने ८० वर्षके वृद्ध पिता प्रद्योतकी भावी पत्नी कहनेकी धृष्टता कर सकती है। अतः डा० भण्डारकरका भासके विषय में जो मन्तव्य है कि उसने किसी गलत अनुश्रुतिके आधारपर महाराज दर्शककी बहिन पद्मावतीके साथ उदयनका बिवाह रचाया है, उचित प्रतीत होता है। दूसरे, कथा सरित्सागर में पद्मावतीको मगधराज प्रद्योतकी पुत्री बतलाया है। यह मगधराज प्रद्योत वही पौराणिक प्रद्योत जान पड़ता है, जिसके अस्तित्वमें विवाद है। तीसरे, जैन ग्रन्थों में अजातशत्रु (कुणिक ) के पद्मावती नामकी कोई कन्या नहीं बतलाई, प्रत्युतः उसकी रानीका नाम पद्मावती था। अतः भासके नाटकके आधारपर प्रद्योतको मगध राज दर्शकका समकालीन नहीं माना जा सकता। फिर भी पुराणोंमें जो उसका राज्य. काल २३ वर्ष बतलाया है, ऐतिहासिक घटनाओंको देखते हुए बहुत कम है। - हाँ यदि प्रद्योतको अजातशत्रुका समवयस्क माना जाये और जैन मान्यताके अनुसार महावीरके निर्वाणके समय (ई० पूर्व ५२७) उसकी मृत्यु मानी जाय तो उसका राज्यकाल २३ वर्ष होना संभव है। किन्तु उस अवस्थामें कुमारपाल प्रतिबोधमें दत्त चण्डप्रद्योतकी कथामें जो राजा श्रेणिक और तत्पुत्र अभय१- परिपन्थी च तत्रैकः प्रद्योतो मगधेश्वरः । पाणिग्राहः स हि सदा पश्चात्कोपं करोति नः ॥१६॥ तत्तस्य कन्यकारत्नमस्ति पद्मावतीति यत् । तदस्य वत्सराजस्य कृते याचामहे वयम् ॥२०॥ (३-१) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका कुमारके साथ चण्डप्रद्योतकी जीवन घटनाये दी हैं वे घटित होना संभव नहीं है। उन घटनाओंको देखनेसे तो चण्ड प्रद्योत श्रेणिकका लघु समकालीन अवश्य होना चाहिये और ऐसी अवस्थामें उसका राज्यकाल २३ वर्ष संभव प्रतीत नहीं होता तथा उसकी अवस्थाको देखते हुए जैन ग्रन्थोंका यह कथन कि जिस दिन भगवान महावीरका निर्वाण हुआ उसी दिन अवन्तिके सिंहासन पर पालकका अभिषेक हुआ, सत्य प्रतीत होता है। अतः जो विद्वान् पौराणिक प्रद्योतका राज्यकाल २३ वर्ष बतलाया जानेके कारण उसे अवन्तिपति चण्ड प्रद्योतसे पृथक मानते हैं, उनकी आपत्ति अनुचित नहीं कही जा सकती। किन्तु मगध के सिंहासन पर प्रद्योत नामके किसी राजाका होना, जिसके पुत्रका नाम भी पालक था, इतिहाससे प्रमाणित नहीं होता। अतः पुराणोंका उक्त कथन किसी भ्रान्तिका फल जान पड़ता है। और उस भ्रान्तिके बाज कुमारपाल प्रतिबोधमें दत्त चण्ड प्रद्योत को कथामें निहित हैं। अवश्य ही कुमा० प्र० १३ वीं शताब्दीकी रचना है किन्तु उसका आधार स्वतंत्र प्रतीत होता है। ___कथामें वर्णित घटना इस प्रकार है-चण्डप्रद्योतने एक वेश्याकी सहायतासे अभयकुमारको अपना बन्दी बना लिया । जब अभयकुमार उज्जैनीसे राजगृह लौटकर आया तो उसने भी चण्ड प्रद्योतको अपना बन्दी बनानेके लिए छलपूर्ण कौशलका सहारा लिया। वणिकका वेष धारण करके अभय दो गणिकाओंके साथ उज्जैनी पहुंचा और राजमार्गके एक आवासमें रहने लगा। एक दिन प्रद्योतकी दृष्टि उन गणिकाओं पर पड़ी। वह उनके रूपपर मुग्ध हो गया। इधर अभयने प्रद्योतके समान एक व्यक्तिका नाम प्रद्योत रखकर उसे पागल बना दिया और उसे अपना भाई बतलाया । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर निर्वाण सम्वत् ३२७ वह उसे बाँधकर प्रति दिन राजमार्गसे वैद्यके घर ले जाता और वह आदमी यह चिल्लाता हुआ जाता -मैं प्रद्योत हूँ । ये मुझे बाँधकर लिये जाते हैं । सब लोग यह जान गये कि इसके भाईका नाम प्रद्योत है और यह पागल है । एक दिन रात्रि में वेश्या सक्त प्रद्योत अभय के निवास स्थान पर पहुँचा और पकड़ लिया गया। दिन निकलनेपर उसे खाटमें बाँधकर राजमार्गसे लेकर सब लोग चल दिये । वह बहुत चिल्लाया- 'मैं प्रद्योत हूँ ये मुझे बाँधे लिये जाते हैं। मगर पुरवासी तो प्रति दिनकी इस चिल्लाहट से सुपरिचित थे । अतः वे चुप रहे और प्रद्योत बन्दी बनाकर राजगृह पहुँचा दिया गया । इस घटना से ( अभयकुमार के भाई ) मगधराज प्रद्योतकी भ्रान्ति चल पड़ी हो तो कोई आश्चर्य नहीं है। कथा सरित्सागर में जो पद्मावतीको मगधराज प्रद्योतकी पुत्री बतलाया वह भी उसी भ्रान्तिका फल हो सकता है। भासने पद्मावतीको मगधराज दर्शककी बहन बतलाया है। पुराणों के अनुसार दर्शक अजातशत्रुका पुत्र था । और अजातशत्रु अभय कुमारका भाई तथा मगधका राजा था। . अस्तु, जो कुछ हो, किन्तु मगधके सिंहासन पर प्रद्योतवंश राज्य होना इतिहास सिद्ध नहीं है । अतः इस प्रासंगिक चर्चाको यहीं समाप्त करके हम आगे बढ़ते हैं । पुराणोंके प्रद्योतांश विषयक सन्दर्भको मगधके वृत्तान्तसे अलग करके, कोष्टक या टिप्पणी के रूपमें पढ़नेसे यह स्पष्ट हो जाता है कि दोनों राजवंश नन्दिवर्धन पर आकर समाप्त होते हैं । और दोनों वंशोंकी कालगणना करने पर अवन्तिका नन्दिर्धन और मगधका नन्दिवर्धन समकालीन प्रतीत होते हैं । अन्तमें Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका स्पष्ट रूपसे अवन्तिके नन्दिवर्धनको शैशुनाक कहा ही है । फलतः दोनों न केवल समकालीन हैं किन्तु एक हैं। मगध द्वारा अवन्तिकी विजय तो निश्चित है ही। इसीसे श्रीजायसवालजीने ( ज० वि०. उ० रि० सो० जि० १) यह परिणाम निकाला था कि मगधके राजाओंमें से नन्दिवर्धनने ही अवन्तिको जीता था। जैनग्रन्थोंके अनुसार अवन्तिमें पालकके वंशके बाद नन्दवंशने राज्य किया। नन्दिवर्धन नन्द कहलाता था। पुराणके एक पाठमें उसका नाम वर्तिवर्धन भी है । ( भा० इ० रू०, जि० १, पृ०५००)। किन्तु बादको पटनासे प्राप्त मूर्तियोंसे यह जाना गया कि पटनामें भी कोई राजा अज था। और तब यह स्पष्ट हुआ कि अज और उदपी एक ही हैं। तथा अवन्तिका अजक भी वही है और उसीने अवन्तिको जीता था। बात यह है कि पुराणोंके अनुसार प्रद्योतका उत्तराधिकारी पालक और उसका उत्तराधिकारी विशाखयूप है, विशाखयूपके बाद एक राजाका नाम अजक है। किसी-किसी प्रतिमें उसे विशाखयूप से पहले रख दिया है । कथा सरित्सागरके अनुसार पालकका भाई गोपालबालक था और मृच्छकटिकके अनुसार पालकको गद्दीसे उतारकर प्रजाने गोपालकको आर्यक नामसे राजा बनाया था । उधर श्रीमद्भागवतमें मगधवंशमें उदयके स्थान पर 'अजय' आता है। और नन्दीवर्धनको अाजेय लिखा है जिससे उदयीका नाम अज सिद्ध होता था । बादको उक्त मूर्तियोंसे यह ज्ञात होनेपर कि पटना में भी कोई राजा अज था, स्पष्ट हुआ कि अज और उदयी एक ही हैं तथा वही अवन्तिका अजक भी है । (ज० वि० उ० रि० सो० १६१६) । संभवतः अवन्तिको जीतकर भी वह अपने राज्यमें नहीं मिला सका। यह काम उसके उत्तराधिकारी नन्दवर्धनने किया। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ नन्दोंके १५५ वर्ष अब हम नन्दोंकी ओर आते हैं। जैन अनुश्रुतिके अनुसार अवन्तिमें पालकके राज्यके बाद नन्दोंने १५५ वर्ष राज्य किया । और जैनाचार्य हेमचन्द्र के परिशिष्ट पर्वके अनुसार उज्जैनीके राजा पालकके समयमें मगधके सिंहासनपर श्रेणिकपुत्र कुणिक (अजातशत्रु) और कुणिकके पुत्र उदायीका क्रमशः राज्य रहा । उदायीके निस्सन्तान मारेजाने पर उसका राज्य नन्दको मिला। भागवत् , विष्णु, मत्स्य आदि पुराणोंमें अज अथवा उदयीके उत्तराधिकारीका नाम नन्दिवर्धन बतलाया है। और मगध तथा अवन्तिके राज्यवंशोंमें उसका नाम आता है। अतः नन्दीवर्धन मगध और अवन्ती दोनोंका राजा था। पुराणों में पांच प्रद्योतोंका राज्यकाल १३८ वष बतलाया है, जिसमें २३ वर्ष प्रथम प्रद्योतके हैं। अवन्तिपति प्रद्योतके राज्यकालकी घटनाओं से यह स्पष्ट है कि उसका राज्यकाल २३ वर्ष से बहुत अधिक वर्षों तक रहा है अतः २३ बर्षकी गणना ठीक नहीं है। इसलिए ५३८ में से २३ वर्ष कमकर देनेपर पालकके राज्यभिषेकसे लेकर नन्दिवर्धनकी मृत्युतकका काल ११५ वर्ष होता है। ___ यह प्रसिद्ध है कि चन्द्रगुप्तमौर्यसे पहले नन्दोंका राज्य था। नन्दोंकी दो पीढ़ियोंने राज्य किया। पहली पीढीमें महापद्मनन्द था और दूसरी पीढ़ीमें उसके आठ बेटे। ये सब मिलकर नौ नन्द थे। वायु पु० में महापद्मनन्दका राज्यकाल ८ वर्ष दिया है, किन्तु बाकी पुराणोंमें महापद्मके ८८ वर्ष और दूसरी पीढ़ीके १२ वर्ष Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका मिलाकर १०० वर्ष पूरे किये हैं। इस प्रकार नन्दोंके १०० वर्ष राज्य करनेकी अनुश्रुति है। जैनाचार्य हेमचन्द्रने महाबीर निर्वाण से १५५ वर्ष पश्चात् चन्द्रगुप्तका राजा होना लिखा है। तथा महाबीर निर्वाणसे ६० वर्ष पश्चात् नन्दका राजा होना लिखा है। अतः उन्होंने १५५-६० = ६५ वर्ष तक नन्दोका राज्य बतलाया है जो १०० वर्षकी पौराणिक अनुश्रुतिसे मेल खाता है। . किन्तु अन्य जैन ग्रन्थकारोंने १५५ वर्ष तक नन्दोंका राज्य बतलाया है और इस तरह हेमचन्द्र तथा उनकी काल गणनामें ६० वर्षका अन्तर पड़ता है। वही अन्तर हम वायु पुराण तथा अन्य पुराणोंकी कालगणनामें पाते हैं । वायु पुराण महापद्मनन्दका राज्यकाल २८ वर्ष बतलाता है, किन्तु अन्य पुराणोंमें ८८ वर्ष बतलाया है । अतः ८८-२८ %D६० वर्षका अन्तर स्पष्ट है। ___ इस परसे ऐसा प्रतीत होना स्वाभाविक है कि महापद्मनन्दके राज्य कालको लेकर दो अनुश्रुतियाँ प्रचलित थीं। एक अनुश्रुतिके अनुसार उसने ८८ वर्ष राज्य किया और दूसरी अनुश्रृं तिके अनुसार उसने ८ वर्ष राज्य किया। अन्य जैन ग्रन्थकारोंने प्रथम अनुश्रुतिको अपनाकर नन्दोंका राज्यकाल १५५ वर्ष बतलाया। किन्तु हेमचन्दने दूसरी अनुश्रुतिको अपनाकर नन्दोंका राज्यकाल ६५ वर्ष बतलाया है। अतः हेमचन्द्रके अनुसार महावीर निर्वाणसे ११५+२८ :५२ = १५५ वर्ष पश्चात् चन्द्रगुप्त राजा हुआ। और अन्य ग्रन्थकारोंके अनुसार ११५+ ८८+१२% २१५ वर्ष पश्चात् चन्द्रगुप्त राजा हुआ। इसपर एक आशङ्का यह की जा सकती है कि इस तरहसे तो नन्दोंका राज्यकाल हेमचन्द्र के अनुसार २८+१२ = ४० वर्ष Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर निर्वाण सम्वत् ३३१ और अन्य जैनग्रन्थकारों के अनुसार ८८ + १२ = १०० वर्ष होता है ६५ या १५५ वर्ष नहीं होता । इस श्राशङ्काका उत्तर यह है. जैसा कि जायसवाल जीने ( ज० वि० उ० रि सो०, जि०१ ) स्पष्ट किया है कि जैनग्रन्थकारोंने श्रज उदयीके वंशजोको भी नन्दराजा मान लिया है । नन्दिने मगधके राज्य में अवन्तिको मिलाया इससे उसे नन्दिवर्धन कहा है । उसका मूल नाम नन्द था, नन्दि नहीं था । भविष्य पुराणमें नन्दवर्धन नाम है । इसी तरह नन्दिवर्धनके उत्तराधिकारी महानन्दिका नाम भी महानन्द था । भविष्य पु० में उसे नन्द कहा है। तथा नवनन्दका अर्थ नये नन्द था । जो बादको नौ नन्दके रूपमें माना जाने लगा । तथा उन नौ नन्दोंने क्रमशः राज्य किया, यह मान लेना स्वाभाविक ही था। इस तरहसे नन्दोंके वास्तविक राज्यकालमें बहुत वर्षों की वृद्धि होगई । पुराणों के अनुसार नन्दिवर्धनसे लेकर अन्तिम नन्द तकका कुल राज्यकाल - १२३ वर्ष है । इनमें से जायसवाल जी २८ + १२ : ४० वर्ष नवनन्दोंके और ४० + ४३ = ८३ वर्ष पूर्व नन्दोंके मानते हैं । पूर्व नन्दों में एक नन्दिवर्धन था और दूसरा था महानन्दी, नन्दिवर्धनका राज्यकाल ४० वर्ष था और महानन्द का ४३ वर्ष । श्री जायसवाल ने लिखा है कि पालक के ६० वर्षके पश्चात् जैनकाल गणना में नन्दोंके १५५ वर्ष बतलाये हैं। पुराणों में नन्दों का राज्य (४० + ४३ + २८ + १२) १२३ वर्ष बतलाया है । अतः ( १५५ - १२३ शेष ३२ वर्ष उदायीके लेनेसे १५५ वर्ष पूरे हो जाते । (ज० वि० उ०रि० सो०, जि० १, पृ० १०२ ) श्री जायसवाल जीने ३२ वर्ष जोड़कर जैनकाल Jain Educationa International नन्दोंके १२३ वर्षों में उदायीके राज्यके गणना में बतलाये नन्दोंके १५५ वर्षो For Personal and Private Use Only Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका की पूर्ति की है। और पालकके ६० वर्षके पश्चात् उदायीका राज्याभिषेक माना है। किन्तु तिलोयपएणति, तित्था० पइन्नय आदि दिगम्बर तथा श्वेताम्बर ग्रन्थोंमें महावीर निर्वाणके दिन अवन्तीकी गद्दीपर अभिषिक्त पालकका राज्यकाल ६० वर्ष बतलाया है और हेमचन्द्राचार्यने अपने परिशिष्ठ पर्वमें मगधकी गद्दीपर महावीरके निर्वाणसे उदायीके राज्यान्त तकका काल ६० वर्ष बतलाया है। अर्थात् पालक और उदायीका राज्यकाल एक साथ समाप्त हुआ। - हेमचन्द्रने लिखा ( परि० पर्व, सर्ग६, श्लो० १-६-२४३ ) है कि उदायीसे सभी राजा त्रस्त थे और उन्होंने यह समझ लिया था कि जब तक उदायी जीवित है हम सुखसे नहीं रह सकते । अवन्ती नरेश भी उनमेंसे एक था, अतः एक राज्यभृष्ट राजपुत्र अवन्ती नरेशसे सलाह करनेके बाद साधु बन गया और उसने छलसे उदायीका बध करदिया । उदायीके कोई सन्तान नहीं थी, अतः नाईपुत्र नन्द मगधके सिंहासन पर बैठा । __अवन्तीपतिसे अभिसन्धि करके उदायीका अपघात किया जाना यह सूचित करता है कि उदायीने पालकवंशकी भी वही दशाकी थी जो अन्य राजाओंकी की थी। और सम्भवतया यह घटना उदायीके जीवनके अन्तसे कुछ ही पूर्वकी होगी। इसीसे जहाँ महावीर निर्वाणके ६० वर्ष बीतने पर पालकवंशका अन्त हुआ वहीं मगधके राज्यासन पर उदायीका भी अन्त हो गया। उदायीके पश्चात् मगध के सिंहासनपर जिस नापित नन्दके बैठने का निर्देश हेमचन्दने किया है, वह अवश्य ही महापद्मनन्द है, उसीको पुराणोंमें शूद्राका पुत्र तथा यूनानी लेखकोंने नाईका पुत्र बतलाया है । उसीके कालको लेकर ६० वर्षका मतभेद पुराणोंमें है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर निर्वाण सम्वत् अतः १५५ वर्षकी संख्या पूरी करनेके लिये पुराणोंके नन्दकालके १२३ में उदायीके ३२ वर्ष नहीं जोड़े जा सकते । श्री जायसवालने ईस्वी पूर्व ४६७ में उदायीका अन्त माना है सो वीरनिर्वाण ५२७ ई० पू० में ६० वर्ष घटानेसे वही समय आता है। उदायीके पश्चात् मगधके राज्यासन पर बैठनेवालोंकी तालिका तथा कालगणना जायसवाल' जीने इस प्रकार दी है। १-जायसवालजीको उदायीके उत्तराधिकारियोंमें परिवर्तन करना पड़ा है उसका विवरण नीचे दिया जाता है खारवेल के प्रसिद्ध हाथी गुफा वाले शिलालेखकी छठी पंक्ति में एक बाक्य इस प्रकार आया है-नन्दराज तिवस सतोघाटितम्'। इसका अर्थ डा० स्टेन कौनोंने किया-'नन्दराज के समय सं० १०३ में खोदी गई नहर' । कोनौके मतमें यह वीर सम्वत् है । और वे वीर निर्वाण सम्वत्का प्रारम्भ ईस्वी पूर्व ५२७ में मानते थे । अतः उनके मतसे ५२७-१०३ - ४२४ ई० पूर्वमें नन्दराजा था। श्रीजायसवालने 'नन्दराज तिवस सतो घाटितम्' का अर्थ किया'नन्दराजके सं० १०३ में खोदी' उनका कहना है कि यदि 'नन्दराजने सं० १०३ में खोदी' यह अर्थ इष्ट होता तो 'तिवससत नन्दराज अोघाटित'' पाठ होता । ( ज० वि० उ० रि० सो०, जि० १३, पृ० २३३ ) अतः श्रीजायसवाल के अनुसार खारवेलके शिलालेखमें नन्दसंवत्का निर्देश है। उन्होंने कुछ प्रमाणों के आधार पर यह प्रमाणित किया कि 'नन्द सम्बत् किसी समय प्रचलित था । अलवरुनीने लिखा है कि ईस्वी पूर्व ४५८ में एक सम्बत्का प्रारम्भ हुअा था। उसे वह हर्षवर्धन सम्वत् बतलाता है, और बतलाता है कि उसके समय तक ( ११वीं शताब्दी ई० ) मथुरा और कनौजमें वह सम्वत् प्रचलित था। किन्तु ४५८ ई.. पूर्व में हर्षवर्धन नामके किसी राजाका अस्तित्व प्रसिद्ध नहीं है । अतः Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ जै० सा० इ० - पूर्व पीठिका ४६७-४५८ ई० पू० ४५८-४१८ "" ४१८-४१० 39 मुण्ड महानन्दी महानदी के दो बेटे ३७४-३६६, ४०६-३७४ "" महापद्मनन्द ३६६-३३८ "" अनुरुद्ध नन्दिवर्धन धननन्द चन्द्रगुप्त मौर्य ३३८-३२६ "" ३२६-२५-३०२ ई० पू० यह हर्षवर्धन नन्दवर्धन होना चाहिये हैं । और प्राचीन भारत में ऐसा प्रयोग ४० २३८ ) । क्योंकि हर्ष और नन्द समानार्थक करनेकी प्रथा थी' । ( वही, बेरुनीने इस सम्बत् को मथुरा और कन्नौज में प्रचलित पाया था । उसने लोगों से सुना कि इस सम्बत् के प्रवर्तक राजाने टैक्स घटा दिये थे क्योंकि उसे पृथ्वी में से बहुत धन मिला था । यह बात नन्दोंके गढ़े हुए कोशोंका स्मरण कराती है । यह प्रसिद्ध है कि नन्दवर्धनने प्रद्योतके अवन्तिराज्यको जीत लिया था और मथुरा अवन्तिराज्यका एक अंग था । अतः मथुरा और अन्तर्वर्ती कन्नौज नन्दवर्धन के मगध साम्राज्य के अन्तवर्गत थे । अतः उन प्रदेशों में नन्द सम्वत्का प्रचलित होना स्वाभाविक था । Jain Educationa International उक्त प्रमाणों के आधार पर श्रीजायसवाल जीने खारवेल के शिलालेखमें निर्दिष्ट सम्बत्को नन्दसम्वत् माना जो ई० पूर्व ४५८ में प्रचलित किया गया था चार जिसका प्रचलनकर्ता नन्दवर्धन था । जायसवाल जीको नन्दिवर्धनका राज्याभिषेक काल ४५८ ई० पू० निर्धारित करने के लिये मगध राजवंशकी नामावली में भी थोड़ा सा उलट कर करना पड़ा । (ज० वि० उ०रि० सो० जि० १३, पृ० २३९ ) उन्होंने मगधराज उदायीका अन्तकाल ४६५ ई० पू० माना है । जैन For Personal and Private Use Only Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर निर्वाण सम्वत् ३३५ . अर्थात् उदयीके अन्त और चन्द्रगुप्त मौर्यके राज्याभिषेकके बीचमें जायसवाल जीके अनुसार ४७-३२५ = १४२ वर्षका काल गणनाके अनुमार भी महावीरके निर्वाणसे उदायीके राज्यान्त तक का काल ६० वर्ष बतलाया है । अतः ५२७ ई० पू० में ६० वर्ष घटानेसे ४६७ ई० पू० काल पाता है । पाली ग्रन्थोंमें नन्दवर्धनके अव्यवहित पूर्वमें दो राजाओंके नाम और दिये हैं, जो पुराणों में नहीं हैं। वे नाम हैं अनुरुद्ध और मुण्ड । अनुरुद्धका राज्यकाल नौ वर्ष और मुण्डका राज्यकाल ८ वर्ष बतलाया है। अत: उदायी के पश्चात् कालक्रम इस प्रकार बैठता है। अनरुद्ध ६ वर्प. ४६७-४५८ ई० पू० मुण्ड ८ , ४५८-४४६ , नन्दवर्धन ४० वर्ष, ४४६-४०९ ,, पुराणों में नन्दोंके सौ वर्ष बतलाये हैं । जिनमें नन्दवर्धनके ४० वर्ष और महानन्दके ४३ वर्ष है । १७ वर्ष शेष रहते हैं । जायसवाल जीने अनुरुद्ध और मुण्डको भी नन्दोमें सम्मिलित करके ९-८% १७ वर्ष पूरे किये हैं । क्योंकि जैन अनुश्रुति के अनुसार मगध में उदायीके पश्चात् नन्दोंका राज्य हुआ था । अनुरुद्ध और मुण्ड में से किसी एक को नन्द. वर्धन के नीचे रख देनेसे नन्दवर्धनका राज्याभिषेक काल ४५८ ई० पू० श्रा जाता हैं। यदि अनुरुद्ध और मुण्ड दोनोको नन्दवर्धन के पश्चात् रख देते हैं तो जैन और पौराणिक अनुभूतियाँ अापसमें मिल जाती हैं, जो उदायीके पश्चात् नन्दोंका. राज्य बतलाती हैं। किन्तु ऐसा करने से ४५८ ई० पू० में नन्दवर्धन के राज्यका नौवां वर्ष होता है । अतः अनुरुद्ध और मुण्ड दोनोंको नन्दवर्धन के पश्चात् न रखकर एक को ही रखना पर्याप्त है । इस तरहसे श्री जायसवालजीने उदायोके पश्चात् अनुरुद्ध और मुण्ड में से एकको रखकर तथा उसके पश्चात् नन्दवर्धनको रखकर ई० पू० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ जै० सा० इ० पूर्व पीठिका अन्तर है। इसमें पालकवंश अथवा उदयी तकके ६० वर्ष जोड़ देनेसे वार निर्वाण और चन्द्रगुप्त मौर्यके राज्याभिषेकका अन्तर २०२ वर्ष आता है। अर्थात् वीर निर्वाणसे २०२वें वर्ष में चन्द्र. गुप्त मौर्यका राज्याभिषेक हुआ। किन्तु जैन ग्रन्थों में वीर निर्वाण से (६०+१५५= २१५ ) बर्ष पश्चात् चन्द्रगुप्तके राजा होनेका निर्देश है। अतः १२ वर्षका अन्तर स्पष्ट है और इसके अनुसार ५२७-२१५३१२ ई० पू० में चन्द्रगुप्तका राज्याभिषेक होना चाहिये। __ इतिहासके प्रेमियोंसे यह बात छिपी हुई नहीं है कि चन्द्रगुप्त मौर्यके राज्याभिषेकके काल को लेकर भी इतिहासज्ञामें मतभेद है। और वह मतभेद भी १३-१४ वर्षका ही है । अर्थात् ३२६-२५ ई. पूर्वसे लेकर ३१२ ई० पूर्व तकके बीचमें चन्द्रगुप्त सिहांसन पर बैठा, यह सुनिश्चित रीतिसे माना जाता हैं। अतः महावीर निर्वाणसे २१५ वर्ष पश्चात् मौर्यों का राज्य होनेका जैन निर्देश सर्वथा गलत नहीं कहा जा सकता। और इसलिये इस दृष्टिसे भी प्रचलित वीर निर्वाण सम्वत् ही ठीक प्रतीत होता है। असल में जैनग्रन्थों में महावीर निर्वाणके पश्चात् होनेवाले राजवंशोंकी कालगणना तो दो है किन्तु उन राजवंशोंमें होनेवाले राजाओंका न तो नाम दिया है और न प्रत्येकका राज्यकाल ही दिया है। अतः पुराणों और वौद्धग्रन्थों में दी गई राजकाल गणनाके साथ उनका समीकरण कर सकना शक्य नहीं है। फिर भी इतना सुनिश्चित है कि वीर निर्वाणके पश्चात्की जो राज्यकाल गणना दी है, प्रचलित वीर निर्वाण सम्वत् उसके अविरुद्ध ४५८ नन्दवर्धनका राज्याभिषेक माना और उसे ही नन्द सम्वत्का प्रवर्तक बतलाया। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य काल गणना है। सभी जैन महावीर निर्वाण और विक्रमके मध्यमें ४७० वर्षका अन्तर माननेमें एकमत हैं। तथा शक राजासे ६०५ वर्ष पूर्व वीर निर्वाण होने में भी सबका ऐकमत्य है। अतः विक्रम सम्वत्से ४७० वर्ष, शकसम्वत् से ६०५ वर्ष और ईस्वीसन से ५२७ वर्ष पूर्व वीरका निर्वाण मानना ही समुचित है। ____आचार्य काल गणना जैन ग्रन्थों में जैसे वीर निर्वाणके पश्चात् होनेवाले प्रमुख गजवंशोंकी काल गणना दी है वैसे ही तत्पश्चात् होनेवाले महा. वीरके प्रमुख शिष्य-प्रशिष्योंकी भी परंपराका उल्लेख कालक्रमसे किया है। दिगम्बर जैनोंके त्रिलोक प्रज्ञप्ति, धवला, जय धवला आदि ग्रन्थों और पट्टावलियोंमें तथा श्वे जैनोंकी स्थविरावली और पट्टावलियोंमें उसका वर्णन पाया जाता है। दि० जैनोंके अनुसार भगवान महाबीरके निर्वाणके पश्चात् ६२ वर्ष में तीन केवली हुए और तत्पश्चात् १०० वर्षमें ५ श्रुतकेवली हुए। ति०प० में लिखा है-जिस दिन वीर प्रभुका निर्वाण हुआ १-'जादो सिद्धो वीरो तद्दिवसे गोदमो परमणाणी । जादो तस्मि सिद्ध सुधम्मसामी तदो जादो ॥१४७६।। तम्मि कदकम्मणासे जंबूसामित्ति केवली जादो । तत्यवि सिद्धिपवरणे केवलिणो णस्थि अणुबद्धा ॥१४७७॥ वासट्ठी वासाणि गोदमपहुदीण णाणवंताणं । धम्मपयट्टणकाले परिमाणं पिंडरूवेण ॥१४७८॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका उसी दिन उनके प्रधान शिष्य गौतम केवलज्ञानी हुए। उनके मुक्त होने पर सुधर्मा स्वामी केवलज्ञानी हुए । उनके मुक्त होनेपर जम्बू स्वामी केवलज्ञानी हुए। जम्बू स्वामीके मुक्त होनेपर कोई अनुबद्ध केवली नहीं हुआ। इन तीनों के धर्मप्रवर्तनका सामूहिक काल ६२ वर्ष है। आगे लिखा है-नन्दि, नन्दिमित्र, अपराजित, चौथे गोवर्द्धन और पाँचवें भद्रबाहु, ये पाँच पुरुषश्रेष्ठ जगतमें विख्यात श्रुतकेवली श्री वर्धमान स्वामीके तीर्थमें हुए। इन पाँचोंके कालका सम्मिलित प्रमाण सौ वर्ष होता है। इनके पश्चात् पंचम कालमें भरत क्षेत्रमें कोई श्रुतकेवली नहीं हुआ। ___ इन्द्रनन्दि श्रुतावतारमें तीनों केवलियोंका पृथक पृथक काल भी दिया है। तथा नन्दिसंघकी प्राकृत पट्टावलीमें ( जै. सि० भा०, भाग १, कि० ४) भी प्रत्येक केवली और श्रुतकेवलीका पृथक पृथक काल दिया है, जो इस प्रकार है१---"णंदीय णंदिमित्तो विदिश्रो अवराजिदो तइजो य । गोवद्धणो चउत्यो पंचमश्रो भद्दबाहुत्ति ॥१४८२॥ पंच इमे पुरिसवरा चउदसपूवी जगम्मि विवादा । ते बारस अंगधरा तित्थे सिरिवड्डमाणस्स ॥१४८३॥ पंचाण मेलिदाणं कालपमाणं हवेदि वाससदं । वीदम्मि पंचमए भरहे सुदकेवली णत्थि ॥१४८४॥ -तिलोयप०, अ० ४ । ज० ५१ भा० १, पृ०८५ । धवला, पु० १, पृ० ६६ । हरि० पु०, सर्ग ६६, श्लो० २२ । इन्द्र० श्रुता०, श्लो ७२-७८। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य काल गणना _____३ केवली पाँच श्रुतकेवली गौतम गणधर १२ वर्ष १ विष्णुकुमार' १४ वर्ष २ सुधर्मास्वामी' ११ ,, २ नन्दिमित्र १६ ३ जम्बू स्वामी ३८, ३ अपराजित २२,, - ४ गोवर्धन ६२ वर्ष ५ भद्रबाहु २६ ,, १०० वर्ष इस तरह भगवान महावीरके निर्वाणसे भद्रशाहु श्रुतकेवली पर्यन्त १६२ वर्ष होते हैं। श्वेताम्बरीय स्थविरावलीके अनुसार महावीर निर्वाणके १-धवला (पृ० ६६, भा० १) में तथा श्रवणवेलगोलाके शिलालेख नं० १ में दूसरे केवलीका नाम लोहार्य ही पाया जाता है । किन्तु जयधवला, हरिवंश पु०, श्रुतावतार तथा शिलालेख नं० १०५ ( २५४ ) में उसके स्थानपर सुधर्माका नाम है । जम्बूद्वीप पण्णतिमें स्पष्ट लिखा है कि लोहार्यका नाम सुधर्मा भी था । यथा तेणवि लोहजस्स य लोहज्जेण य सुधम्मणामेण | गणहर सुधम्मणा खलु जंबुणामस्स णिइिंढें ॥१०॥ २-तिलोयपएणति जम्बूद्वीपपएणति, अादिपुराण व श्रुतस्कन्धमें नन्दि या नन्दि मुनि नाम आता है विष्णु और नन्दि भी एक ही श्राचार्य के दो नाम प्रतीत होते हैं । यह संभव है कि प्राचार्यका पूरा नाम विष्णु नन्दि हो, संक्षेपमें उन्हें कहीं विष्णु और कहीं नन्दि कहा गया हो। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० जै० सा० इ० पूर्व पीठिका पश्चात् होनेवाले युगप्रधान आचार्योंका कालक्रम इस प्रकार' दिया है१ सुधर्मा २० ५ यशोभद्ग ५० वर्ष २ जम्बू ४४ ६ संभूतिविजय ८, ३ प्रभव ११, ७ भद्रबाहु १४, ४ शयंभव २३ ,, ८स्थूलभद्र ४५, २१५ , इस काल गणनाकी विशेषता यह है कि जिस प्रकार महावीर निर्वाणके पश्चात् होने वाले राजवंशोंकी काल गणनाके २१५ वर्ष (पालकसे लेकर नन्दांशके अन्त तक ) गिनाये हैं उसी प्रकार महावीर निर्वाणके पश्चात् होनेवाले युगप्रधान आचार्योंका काल भी २१५ वर्षके हिसाबसे गिनाया है। अर्थात् उधर नन्दनाशके अन्तके साथ और इधर स्थूलभद्रके स्वर्गवासके साथ महावीर निर्वाणके २१५ वर्ष पूरे होते हैं। इसके अनुसार वीर निर्वाणके १७० वर्ष बीतने पर भद्रबाहु स्वामीका स्वर्गवास हुआ। जैसा कि आचार्य हेमचन्द्रने भी अपने परिशिष्ट' पर्वमें लिखा है। श्वे. स्थविरावलीमें गौतम १-'सिरि वीराउ सुहम्मो वीसं चउचत्तवासजंबुस्स । पभवेगारस सिज्जंभवस्स तेवीस वासाणि ।। पन्नास जसोभद्दे, संभूहस्सट्ठ भद्दबाहुस्स । चउदस य थूलभद्दे, पणयालेवं दुपन्नरस ।' -वि० श्रे २- श्री वीर मोक्षात् वर्षशते सप्तत्यग्रे गते सति । भद्रबाहुरपि स्वामी ययौ स्वर्ग समाधिना ॥-प०प० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य काल गणना ३४१ गणधरको, जो महावीरके प्रधान शिष्य थे, महावीरके निर्वाणके पश्चात् युगप्रधान पट्टपर आसीन न कराकर सुधर्माको आसीन कराया है। किन्तु कल्पसूत्रके अनुसार महावीर स्वामीका निर्वाण होनेके पश्चात् गौतमको केवल ज्ञानकी प्राप्ति हुई और वे १२ वर्ष तक प्रधान पद पर प्रतिष्ठित रहे। तत्पश्चात् उन्होंने अपना पद सुधर्मा स्वामीको दिया और वे आठ वर्ष तक उस पद पर आसीन रहे। इस तरह स्थविरावलीमें जो सुधर्माके २० वर्ष गिनाये हैं, उनमें १२ वर्ष गौतमके और ८ वर्ष सुधर्माके हैं। किन्तु दोनोंका अलग अलग उल्लेख न करके सुधर्माके ही २० वर्ष बतलाने में क्या हेतु है यह हम नहीं कह सकते। ___जम्बू स्वामी केवलीके पश्चात होने वाले युगप्रधान आचार्यों में भद्रबाहु ही एक ऐसे हैं, जिन्हें दोनों सम्प्रदायोंने माना है। जम्बू स्वामीके पश्चात और भद्रबाहु स्वामीसे पहले होनेवाले ४ प्राचार्योंके नाम दोनों सम्प्रदायोंमें भिन्न भिन्न हैं और उनका काल भी समान नहीं है । इसलिये यह स्पष्ट है कि वे एक दूसरेसे बिल्कुल भिन्न व्यक्ति हैं। किन्तु भद्रबाहुका युगप्रधानत्व दोनों सम्प्रदायोंको स्वीकार्य है। इन्हींके समयमें संघभेद हुआ। इसलिये भी भद्रबाहुका स्थान अखण्ड जैन परम्पराकी दृष्टिसे बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। दि० जैन ग्रन्थ तथा शिलालेख इन्हें मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्तका समकालीन सिद्ध करते हैं। और विदेशी तथा एतद्देशीय इतिहासज्ञोंने भी उनकी सत्यताको स्वीकार किया है। .. किन्तु उक्त काल गणनाको देखते हुए चन्द्रगुप्त मौर्य और भद्रबाहुकी समकालीनता सिद्ध नहीं होती और उन दोनोंके बीच में वही प्रसिद्ध ६० वर्षका अन्तर पड़ता है। अर्थात् यदि भद्रबाहु के समय वीर नि० १६२ में ६० वर्ष बढ़ा दिये जायें तो चन्द्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका गुप्त मौर्य और भद्रबाहुकी समकालीनता ठीक बन जाती है। अथवा चन्द्रगुप्त मौर्यके कालमेंसे ६० वर्ष पीछे हटा दिये जायें जैसा कि हेमचंद्राचार्यने महावीर निर्वाणसे २१५ वर्षकी परम्पराके स्थानमें १५५ वर्ष पश्चात चंद्रगुप्तका राजा होना लिखा है तो दोनोंकी समकालीनता बन सकती है। प्राचार्य हेमचंद्रने ऐसा विचारपूर्वक ही किया है और इसलिये उनके समयमें दोनोंकी समकालीनताको एक वास्तविक तथ्यके रूपमें माना जाता था , यह स्पष्ट है, क्योंकि यदि उसमें उन्हें थोड़ा सा भी संदेह होता तो हेमचंद्र २१५ वर्षकी चली आई हुई प्राचीन जैन गणनामें संशोधन करनेका साहस न करते। भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त - आगे हम श्रुत केवली भद्रबाहु और चन्द्रगुप्तको समकालीन बतलाने वाले उल्लेखोंका साधार निर्देश करते हैं दिगम्बर साहित्यमें इस बिषयका सबसे प्राचीन उल्लेख हरिघेणकृत बृहत्कथा कोशमें ( कथा १३१ ) पाया जाता है। यह ग्रन्थ शक सम्वत् ८५३ का रचा हुआ है। इसमें बतलाया है कि भद्रबाहु पुण्ड्रवर्धन देशके निवासी एक ब्राह्मणके पुत्र थे। उन्होंने एक दिन खेलते हुए एकके ऊपर एक, इस तरह चौदह गंटू रख दिये । चतुर्थ श्रुत केवली गोवर्धन उधरसे कहीं जाते थे। उन्होंने भद्रबाहुको उसके पितासे माँग लिया और उसे पढ़ा लिखाकर विद्वान बना दिया। पीछे भद्रबाहुने अपने गुरुसे मुनि दीक्षा ले ली, और वह गोवर्धन के स्वर्गगमनके पश्चात् पञ्चम श्रुत केवली हुए। __एक दिन वे उज्जनी नगरीमें भिक्षाके लिये गये। उस समय वहाँका राजा श्रीमान् चन्द्रगुप्त था और वह महान् श्रावक था। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य काल गणना ३४३ भद्रबाहुने जैसे ही एक शून्यगृहमें प्रवेश किया। एक शिशुने कहा-'यहाँसे जल्दी चले जाओ।' दिव्यज्ञानी भद्रबाहुने शिशुके यह बचन सुनकर जाना कि यहाँ बारह वर्ष तक वर्षा नहीं होगी। ऐसा जानकर वे भोजन किये बिना ही लौट गये। उन्होंने संघसे यह समाचार कहा कि मेरी आयु थोड़ी है अतः मैं तो यहीं ठहरूँगा आप लोग समुद्रके समीप चले जायें। यह सुनकर नरेश्वर चन्द्रगुप्तने भी उनके पास जिन दीक्षा ले ली । मुनि होनेके पश्चात् चन्द्रगुप्तका नाम विशाखाचार्य हो गया और वे दस पूर्वियोंमें प्रथम हुए तथा संघके अधिपति बना दिये गये। उनके साथ सब संघ भद्रबाहुकी आज्ञानुसार दक्षिणापथ देशमें स्थित पुन्नार नगरको चला गया। भद्रबाहु मुनिने भाद्रपद देशमें जाकर समाधि मरण पूर्वक शरीर त्याग दिया। ___ इस कथामें भद्रबाहुको श्रुतकेवली तथा उनके गुरुका नाम गोवर्धन दिया है और चन्द्रगुप्त नरेश्वरको दीक्षा देनेके पश्चात् उनका उत्तराधिकारी विशाखाचार्य बतलाया है। समस्त दिगम्बर जैन साहित्यमें तथा शिलालेखोंमें गोवधनको चतुर्थ श्रुतकेवली बतलाया है और उन्हें भद्रबाहु श्रुत केवलीका पूर्वज बतलाया है। तथा भद्रबाहुको पुडवर्धन देशके कोटिमत नगरका वासी बतलाया है। अतः यह निर्विवाद है कि वृ• क० कोशमें जिस भद्रबाहुका आख्यान दिया है वे श्रुतकेवली भद्रबाहु ही हैं, और उनके समयमें चन्द्रगुप्त नामका यदि कोई राजा हुआ है तो वह मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त ही है। चन्द्रगुप्त नामक अन्य राजा तो बहुत समय पश्चात् हुए हैं। अतः उनके श्रुतकेवली भद्रबाहुके समकालीन होनेका प्रश्न ही नहीं है। श्री सत्यकेतु बिद्यालंकारने अपने मौर्य साम्राज्यके इतिहासमें Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका (पृ. ४२४ ) लिखा है-'हम इस अनुश्रुतिमें कोई संदेह नहीं करते कि चन्द्रगुप्त नामका उजयिनीका एक राजा आचार्य भद्रबाहुके साथ श्रवणवेल गोलामें आया था और वहाँ पहुँचकर अनशन व्रत करके स्वर्गलोक सिधारा था। परन्तु प्रश्न यही है कि चन्द्रगुप्त है कौन सा ? जैन साहित्यके अनुसार यह अशोकका पौत्र है।' किन्तु भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त द्वितीयकी, जो इतिहासमें संप्रति के नामसे ही प्रसिद्ध है , समकालीनता संभव नहीं है। अशोक के पौत्र सम्प्रतिका राज्याभिषेक २० ई० पू० में हुआ। अर्थात् चन्द्रगुप्त प्रथमके राज्याभिषेकसे सौ वर्षसे भी अधिक कालके पश्चात । उस समय भद्रबाहुका अस्तित्व किसी भी तरह संभव ननी है। यद्यपि श्वेताम्बर साहित्यमें मम्प्रतिको जैन धर्मका महान् उद्धारक लिखा है। आर्य सुहस्तीने उसे जैन धर्म में दीक्षित किया था। किन्तु एक तो श्वेताम्बर पट्टावलियोंके अनुसार भद्रबाह श्रतकेवलीके ७५ वर्ष पश्चात् आर्य सुहस्ती पट्टासीन हुए थे। दूसरे, सम्प्रतिके राजपाट त्याग कर जिन दीक्षा लेनेका कोई निर्देश नहीं है। तीसरे, सम्प्रतिका चन्द्रगुप्त नाम भी कहीं नहीं मिलता, श्वेताम्बर साहित्यमें सम्प्रति नामसे ही उसका उल्लेख मिलता है। अतः भद्रबाहु श्रुतकेवलीका समकालीन चन्द्रगुप्त नामक राजा मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त ही हो सकता है। इतिहासमें उसकी राज्य समाप्तिका उल्लेख नहीं मिलता और न उसकी मृत्यु होनेका ही निर्देश है। इससे यह बहुत संभव माना जाता है कि उसने राज्य त्यागकर श्रुतकेवली भद्रबाहुसे मुनि दीक्षा ली। डा० स्मिथने ( आक्स० हि० इ०, पृ० ७५-७६ ) लिखा था'चन्द्रगुप्त मौर्यका राज्यकाल किस प्रकार समाप्त हुआ इसपर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४५ प्राचार्य काल गणना ठीक प्रकाश एकमात्र जैन कथाओंसे ही पड़ता है। जैनियोंने सदैव उक्त मौर्य सम्राटको बिम्बसारके सदृश जैन धर्मावलम्बी माना है और उनके इस विश्वासको झूठ कहनेके लिये कोई उपयुक्त कारण नहीं है। इसमें जरा भी सन्देह नहीं है कि शैशुनाग नन्द और मौर्य राजवंशोंके समयमें जैनधर्म मगध प्रान्तमें बहुत जोर पर था।x x एक बार जहाँ चन्द्रगुप्तके. धर्मावलम्बी होनेकी बात मान ली तहाँ फिर उनके राज्यको त्यामकर जैन विधिके अनुसार सल्लेखना विधिके द्वारा मरण करनेकी बात सहज ही विश्वसनीय हो जाती है। जैन ग्रंथ कहते हैं कि जब भद्रबाहुकी द्वादशवर्षीय दुर्भिक्षवाली भविष्यवाणी उत्तर भारत में सच होने लगी तब आचार्य बारह हजार जैनियों ( मुनियों) को साथ लेकर अन्य सुदेशकी खोजमें दक्षिणको चल पड़े। महाराज च द्रगुप्त राज्य त्याग कर संघके साथ हो लिये। यह संघ श्रवणबेलगोल पहुँचा। यहाँ भद्रबाहुने शरीर त्याग किया। राजर्षि चन्द्रगुप्तने उनसे बारह वर्ष पीछे समाधिमरण किया। इस कथाका समर्थन श्रवणवेल गोला आदिके नामों, ईसाकी सातवीं शताब्दीके उपरान्तके लेखों तथा दसवीं शताब्दीके ग्रन्थोंसे होता है। इसकी प्रामाणिकता सर्वतः पूर्ण नहीं कही जा सकती। किन्तु बहुत कुछ सोच विचार करनेपर मेरा झुकाव इस कथनकी मुख्य बातोंको स्वीकार करनेकी ओर है। यह तो निश्चित ही है कि जब ईस्वी पूर्व ३२२ में या उसके लगभग चन्द्रगुप्त सिंहासनारूढ़ हुए थे तब वे तरुण थे। अतएव जब २४ वर्षके पश्चात् उनके राज्यकालकी समाप्ति हुई तब वे पचास वर्षकी अवस्थासे नीचे ही होंगे। अतः इतनी कम अवस्थामें उनका राज्य त्याग देने और लुप्त हो जानेका उक्त कारण ही प्रतीत होता है। राजाओंके इस प्रकार विरक्त हो जानेके अन्य भी उदाहरण हैं । और बारह वर्ष Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका का दुर्भिक्ष भी अविश्वसनीय नहीं है । संक्षेपमें अन्य कोई वृत्तान्त उपलब्ध न होनेके कारण इस क्षेत्रमें जैन कथन ही सर्वोपरि प्रमाण है।' ( जै० शि० सं०, भाग १, भूमिका पृ० ६८-७० से ) डा० स्मिथने सातवीं शतीके जिन शिलालेखोंका निर्देश किया है उनमें श्रबण वेलगोलाके चन्द्रगिरिपर स्थित पार्श्वनाथ वस्तीके पासका शिलालेख ( नं० १ ) इस सम्बन्धमें सबसे प्राचीन प्रमाण है। यह लेख श्रवण वेलगोलाके शिलालेखोंमें सबसे प्राचीन माना जाता है । इसमें लिखा है-'महावीर स्वामीके पश्चात् गौतम, लोहार्य, जम्बू, विष्णुदेव, अपराजित, गोवर्द्धन, भद्रबाहु विशाख प्रो.ष्ठल, कृतिकार्य, जय, सिद्धार्थ, धृतिषेण, बुद्धिलादि गुरु परम्परामें होनेवाले भद्रबाहुके त्रैकाल्यदर्शी निमित्त ज्ञानके द्वारा उज्जनीमें यह कथन किये जानेपर कि वहाँ बारह वर्षका दुर्भिक्ष पड़नेवाला है, सारे संघने उत्तरायणसे दक्षिण पथको प्रस्थान किया और क्रमसे वह बहुत समृद्धियुक्त जनपदमें पहुंचा। भद्रबाहु स्वामी संघको आगे बढ़नेकी आज्ञा देकर आप प्रभाचन्द्र नामक एक शिष्य सहित कटवप्रपर ठहर गये और उन्होंने वहीं समाधिमरण किया। द्वितीय भद्रबाहुकी स्थिति इस शिलालेखमें भद्रबाहुको श्रुतकेवली न बतलाकर निमित्त. ज्ञानी बतलाया है तथा चन्द्रगुप्तके स्थानमें प्रभाचन्द्र नामका प्रयोग किया है। किन्तु श्रवण वेलागोलाके शिलालेख नं० १७, १- श्री भद्रबाहु सचन्द्रगुप्त मुनीन्द्रयुग्म ...। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य काल गणना ३४७ १८, ४०, ५४ और १०८' में भद्गबाहुको श्रुतकेवली तथा चन्द्रगुप्तको उनका शिष्य बतलाया है । यहाँ यह स्पष्टीकरण कर देना उचित होगा कि दि० पट्टावलिमें भद्रबाहु नामके दो आचार्योंका उल्लेख ५-'श्री भद्रः सर्वतो यो हि भद्रबाहुरिति श्रुतः। श्रुतकेवलि नाथेषु चरमः परमो मुनिः ॥ ४ ॥ 'चन्द्रप्रकाशोज्ज्वल सान्द्र की श्री चन्द्रगुप्तोऽजनि तस्य शिष्यः ।" २-यो भद्रबाहुः श्रतकेवलीनां मुनीश्वराणाभिह पश्चिमोऽपि । अपश्चिमोऽभूद् विदुषां विनेता सर्वश्रुतार्थप्रतिपादनेन ॥ ८ ॥ तदीय शिष्यो जनि चन्द्रगुप्तः समग्रशीलानतदेववृद्धः । -जै० शि० सं०, भाग १ । ३-ति० प० अ० ४, गा० १४९०, श्रुतस्कन्ध गा० ७६, श्रुताव० श्लोक ८३, ज० ध०, भाग १, पृष्ठ ८६, धवला पु० १, पृष्ठ ६६ में द्वितीय भद्रबाहुका नाम नहीं आया । 'जहबाहु', जयबाहु, जसबाहु नाम पाया जाता है । भद्रबाहु नाम केवल पट्टावलीमें पाया जाता है । ति० ५० आदिके अनुसार यह जयबाहु ( भद्रबाहु ) आचारांगधारियोंकी परम्परामें तीसरे थे । और महावीर निर्वाणसे ६२+१००+१८३+ २.० % ५६५ पर्षों के पश्चात् आचारांगधारियों की परम्परा प्रारम्भ हुई । तथा चार आचारांगधारियोंका काल ११८ वर्ष बतलाया है । अतः यदि अन्तिम आचारांगधारो लोहाचार्यका काल ५० वर्ष माना जाये तो ११८-५० = ६८ वर्षको ५६५ में जोड़नेसे ( ५६५ +६८-६३३) महावीर निर्वाणसे ६३३ वर्ष पश्चात् दूसरे भद्रबाहुका अन्तकाल आता है। अर्थात् ६३३-५२७%3D१०६ ई० या ६३३--४७० =१६३ विक्रम सम्सत्में द्वितीय भद्रबाहुका मरण हुआ। किन्तु नन्दी संघकी पहावलीमें सामूहिक काल के साथ ही साथ प्रत्येक प्राचार्यका पृथक् २ काल भी दिया है। किन्तु उसमें प्रथम तीन केवलियों, पाँच श्रुत केव Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका मिलता है, एक तो अन्तिम श्रुत केवली भद्रबाहु, और दूसरे वे भद्रबाहु हैं, जिनसे सरस्वती गच्छकी नन्दि आम्नायकी पट्टावली लियों और ग्यारह दशपूर्वियोंका समय तो क्रमशः वही ६२+ १०० + १८३ वर्ष बतलाया गया है और उसका जोड़ ३४५ वर्ष कहा है । इसके अागे जिन पाँच एकादश अंगधारियोंका समय अन्यत्र २२० वर्ष बतलाया है , यहाँ उनका समय १२३ वर्ष बतलाया है। इनके पश्चात् आगेके जिन चार श्राचार्यों को अन्यत्र आचारांगधारी कहा है उन्हें यहाँ (नं० पट्टा० ) दस, नौ और आठ अंगके धारी कहा है । तथा इनका समय भी ११८ वर्षके स्थान में ६६ वर्ष कहा है। इस पहावलीकी काल गणनाके अनुसार वीर निर्वाणसे ६२+१८० + १८३ + १२३+ २४ = ४६२ वर्षके पश्चात् द्वितीय भद्रबाहु हुए और उनका काल २३ वर्ष बतलाया है। अर्थात् ५२७-४६२ ईस्वी सन्से ३५ वर्ष पूर्व या विक्रम सम्वत् ४६२-४७०%D२२ में द्वितीय भद्रबाहु हुए । किन्तु पट्टावलामें 'लिखा है 'बहुरि महावीर स्वामी पीछे ४९२ च्यारि से वाण वर्ष गये, सुभद्राचार्यका र्तमान वर्ष २४ सो विक्रम जन्म तैं बावीस वर्ष । बहुरि ता का राज्य ते ४ वर्ष दूसरा भद्रबाहु हुअा जानना । ( इं० ए०, जि० २१, पृ० ५७ आदि ) श्राशय यह है कि इस पट्टावलीमें 'तदुक्तं विक्रम प्रबन्धे' लिखकर दो गाथाएँ उद्बत की हैं, जिनमें बतलाया है कि वीर 'निर्वाणसे ४७० वर्ष पश्चात् विक्रमका जन्म हुश्रा, ८ वर्ष तक बालकोड़ा की: १६ वर्ष तक भ्रमण किया और ५६ वर्ष तक राज्य किया। इस प्रमाण के अनुसार विक्रमका जन्म वीर निर्वाण सं० ४७० में हुआ। अतः ( ४६२-४७० = २२ ) विक्रमके जन्मसे २२ वर्ष पीछे सुभद्रा. चार्यका अन्त हुआ । तत्पश्चात् भद्रबाहु द्वितीय पट्टपर बैठे। तथा १८ वर्षकी उम्र में विक्रमका राज्यारोहण हुश्रा । अतः (२२-१८% ४) विक्रमके राज्यके ४ वर्ष बीतनेपर द्वितीय भद्रबाहु पहासीन हुए । विक्रम Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राचार्य काल गणना ३४६. प्रारम्भ होती है । दूसरे भद्रबाहुका समय ईश्वी सन्से ५३ वर्ष पूर्व पाया जाता है । अतः दोनों भद्रबाहुओं के मध्य में तीन शता के राज्यारोहणसे विक्रम सम्बत्का चलन मानकर डा० प्लीट वगैरइने वि० सं० ४ या ईस्वी पूर्व ५३ में द्वितीय भद्रबाहुका होना माना है । किन्तु वीर निर्वाण सम्वत् और विक्रम सम्वत् के मध्य ४७० वर्षके अन्तर १८ वर्षकी वृद्धि कर देनेसे अथवा वीर निर्वाण से ४८८ वर्ष पश्चात् विक्रम सम्वत्का प्रचलित होना माननेसे जो नई श्रापत्तियाँ उठ खड़ी होती हैं उनका निर्देश श्री जुगलकिशोर मुख्तारने ( अनेकान्त, वर्ष १, वि० १, पृष्ठ १९ में ) स्पष्ट रूप से किया है । अतः वीर निर्वाणसे ४७० वर्ष पश्चात् विक्रम सम्वत्की प्रवृत्ति मानना ही उचित है और तदनुसार विक्रम सम्वत् २२ से वि० सं० ४५ तक भद्रबाहु द्वितीयका काल श्राता है । सरस्वती गच्छकी पट्टावली में इन्हें ब्राह्मण बतलाया है तथा श्रायु. ७७ वर्ष बतलाई है । क० को० की कथाके श्रुतकेबली भद्रबाहु भी ब्राह्मण थे । और श्वेताम्बर परम्पराके तथोक्त श्रुतकेवली और वराह मिहिर के भाई भद्रबाहु भी ब्राह्मण थे । उनकी आयु भी ७६ वर्ष बतलाई है | सरस्वतीच्छुकी पट्टावली में भद्रबाहुके शिष्य के तीन नाम बतलाये हैं - गुप्तिगुप्त, अलि और विशाखाचार्य । श्रुतकेवली भद्रबाहु के शिष्यका नाम भी विशाखाचार्य था तथा दिगम्बर जैन ग्रन्थोके जसवाहु श्रादि और नं० सं० पट्टावली के भद्रबाहु ( द्वितीय ) के शिष्यका नाम लोहाचार्य था । नन्दि पट्टावली के अनुसार लोहाच. यके शिष्य द्विलि और श्रद्वलिके शिष्य माघनन्दि थे । किन्तु सरस्वती ग० पट्टावली में लोहाचार्यको उमास्वामीके पश्चात् रखा है जो किसी भी तरह ठीक नहीं है | अतः द्वितीय भद्रबाहु और उनके शिष्य गुप्तिगुप्त की स्थिति सर्वथा सदग्ध नहीं है । यदि दूसरे भद्रबाहु वराहमिहिर के भाई थे, तो कहना होगा कि दिगम्बर परम्परा के द्वितीय भद्रबाहु श्वेताम्बर परम्पराके: Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका ब्दियोंका अन्तराल है। इनके शिष्यका नाम गुप्तिगुप्त पाया जाता है। डा० प्लीटके मतानुसार ये द्वितीय भद्रबाहु ही दक्षिण गये थे और उनके शिष्य गुप्तिगुप्तका ही नामांतर चन्द्रगुप्त था। मुनि कल्याण विजय जीने भी इसी मतका समर्थन किया है। किन्तु उन्होंने द्वितीय भद्रबाहुके ईस्वी पूर्व ५३ में अथवा विक्रमकी प्रथम शतीमें होनेको गलत बतलाया है क्योंकि श्वेताम्बरीय साहित्यमें भद्रबाहुको ज्योतिषी वराहमिहिरका भाई लिखा है और वराहमिहिरका काल शक सम्वत् ४२७ ( ई०५०५) निश्चित है। जैसे दिगम्बर जैन परम्परामें द्वितीय भद्रबाहुको चरमनिमित्त धर लिखा है वैसे ही श्वेताम्बर परम्परामें भी भद्रबाहुको निमितवेत्ता और भद्रबाहु संहिताका कर्ता लिखा है। किन्तु उल्लेखनीय बात यह है कि श्वेताम्बर ग्रन्थकारोंने वराहमिहिरके भाई निमित्तवेत्ता भद्रबाहु को ही श्रुतकेवली भी लिखा है । और यह भूल नई नहीं हैं. बहुत पुरानी है। इसी भूलके कारण नियुक्तियोंका कर्ता भी श्रुतकेवली भद्रबाहुको ही समझा जाता रहा है, जिसका परिमार्जन वृहत् कल्पसूत्रके दो भागकी प्रस्तावनामें मुनि पुण्यविजय जीने युक्ति पुरःसर किया है। भद्रबाहु सम्बन्धी इस चिरकालीन भूलके फलस्वरूप भद्रबाहु का जीवनवृत्त तक अस्त व्यस्त हो गया प्रतीत होता है। उदाहरणके लिये श्वेताम्बर परम्परामें भद्रबाहुके गुरुका नाम यशोभद्र है। किन्तु दिगम्बर परम्परामें द्वितीय भद्रबाहुके गुरुका नाम यशोभद्र है और श्रुतकेवली भद्रबाहुके गुरुका नाम गोवर्धना चार्य है। द्वितीय भद्रबाहुसे भिन्न थे क्योंकि दोनोंके मध्यमें भी कई शताब्दियोंका अन्तराल है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य काल गणना ३५१ श्रवण वेलगोलाके जिस शिलालेख नं० १ का ऊपर जिक्र किया उससे भी ऐसा अर्थ निकल सकता है कि शायद दूसरे भद्रबाहु दक्षिणको गये थे ! जैसा कि डा० प्लीट और मुनि कल्याण विजय जीका भी मत है । परन्तु यह मत भी आपत्तिपूर्ण है क्योंकि प्रथम तो द्वितीय भद्रबाहु के समय में चंद्रगुप्त नामके किसी राजाका कोई संकेत नहीं मिलता, दूसरे चंद्रगुप्त और गुप्ति गुप्तको एक माननेके लिये भी कोई प्रमाण नहीं है, तीसरे जिस दुर्भिक्षके कारण भद्रबाहको उत्तरापथसे दक्षिणापथको जाना पड़ा, द्वितीय भद्रबाहु के समय में उस दुर्भिक्षका कोई निर्देश नहीं मिलता। इन कारणोंसे ही डा० फ्लीटके मतको विद्वानोंका समर्थन नहीं मिल सका । अतः हरिषेण कथा कोशमें जो भद्रबाहुकी कथा दी है उसमें प्रामाणिकता है । यद्यपि उसमें चन्द्रगुप्तको उज्जैनीका राजा बतलाया है, किन्तु यह कथन भी आपत्तिजदक नहीं हैं, क्योंकि हम पहले बतला आये हैं कि शिशुनागवंश और नन्दवंशके राज्य में उज्जैनीका राज्य भी सम्मिलित था । तथा यद्यपि चन्द्रगुप्त 'मौर्य की प्रधान राजधानी तो पाटलीपुत्र ही थी, किन्तु कुछ अन्य राजधानियाँ भी थीं, जिनमें उज्जनका नाम भी है और जो पश्चिम खण्डकी राजधानी थी ( मा० इ०रू० भा० २, पृ० ५५८ ) । फिर कथामें चन्द्रगुप्तको उज्जैनीका राजा नहीं बतलाया । बल्कि यह बतलाया है कि जब भद्रबाहु उज्जैनी में पधारे तो उस समय उस नगर में महान श्रावक राजा चन्द्रगुप्त था । अतः उससे यह भी ध्वनित होता है कि उस समय चन्द्रगुप्त उज्जैन आया हुआ था । मौर्य चन्द्रगुप्तका जैन श्रमणोंके प्रति विशेष आकर्षण था यह इतिहास सिद्ध है । मेगस्थनीजने, जो चन्द्रगुप्तके दरबार में सेल्यू Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका कसका राजदूत था, लिखा है कि ये श्रमण ब्राह्मणों और बौद्धोंसे भिन्न थे इनका महाराज चन्द्रगुप्तके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध था । वे स्वयं अथवा अपने अनुचरोंके द्वारा बड़ी विनय तथा भक्तिके साथ श्रमणोंकी पूजा किया करते थे। मि० जार्ज सी० एम० वर्डवुकने लिखा है- 'चन्द्रगुप्त और विन्दुसार दोनों जैन थे। किन्तु चन्द्रगुप्तके पौत्र अशोकने बौद्ध धर्म स्वीकार किया था। ___ डा० जायसवालने लिखा है-'ये मौर्य महाराज वेदोंके कर्मकाण्डको नहीं मानते थे और न ब्राह्मणोंकी जातिको अपनेसे ऊँचा मानते थे । भारतके ये व्रात्य अवैदिक क्षत्रिय सावकालिक साम्राज्य अक्षय 'धर्मविजय' स्थापित करनेकी कामनावाले हुए। (मौ० सा० इ० की भूमिका ) - चन्द्रगुप्त मौर्यको जब जैन और बौद्ध क्षत्रिय बतलाते हैं तब ब्राह्मण पुराण उसे मुरा नामकी दासीका पुत्र बतलाते हैं। मुद्राराक्षस नाटकसे प्रकट है कि चाणक्य चन्द्रगुप्तको वृषल कहता था। जिन क्षत्रिय जातियोंपर ब्राह्मणोंका कोप हुआ वे वृषल कहलाई। इन सब बातोंसे यह स्पष्ट है कि चन्द्रगुप्त मौर्य ब्राह्मण धर्मावलम्बी नहीं था। शेष रहे बौद्ध धर्म और जैन धर्म । सो मौर्यवंशमें बौद्ध धर्मका प्रवेश अशोकके द्वारा हुआ। चन्द्रगुप्तका पूर्वाधिकारी नन्द जैन था, यह बात खारवेलके शिलालेखसे स्पष्ट है, क्योंकि उस शिलालेखकी १२वीं पंक्तिमें बतलाया है कि नन्द कलिंगपर चढ़ाई करके कलिंग जिनकी मूर्ति ले गया था । बृहस्पति मित्रको हराकर खारवेल उस मूर्तिको पुनः कलिंग ले आया। इस घटनासे श्री जायसवाल ने यह सिद्ध किया है कि नन्द राजा जैन थे। ( ज० वि० उ० रि० सो, जि० १३, पृ० २४५) अतः पाटलीपुत्रके राज घरानेमें चन्द्रगुप्तसे पहलेसे ही जैन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य काल गणना ३५३ धर्म प्रचलित था। शायद इसीसे पुराणों में महापद्म नन्दके विषयमें लिखा है कि 'अबसे शूद्र राजा होंगे। अस्तु, ___ इसके सिवाय प्राचीन दि० जैन ग्रन्थ तिलोयपरणतिमें लिखा है कि 'मुकुटधारी राजाओंमें अन्तिम राजा चन्द्रगुप्तने जिन दीक्षा धारण की। इसके पश्चात् मुकुटधारियोंने दीक्षा ग्रहण नहीं की। ___ यह प्राचीन उल्लेख भी इस बातको प्रमाणित करता है कि चन्द्रगुप्त नामक राजाने जिन दीक्षा धारण की थी। उसके पश्चात् किसी राजाने जिन दीक्षा धारण नहीं की। यह उल्लेख भी हरिषेण कथाकोश और श्रवणवेलगोलाके शिलालेखोंमें उल्लिखित चन्द्रगुप्तका ही निर्देशक है, क्योंकि उस एक चन्द्रगुप्तके सिवाय किसी अन्य चन्द्रगुप्तके जिन दीक्षा धारण करनेका कोई संकेत नहीं है, और वह चन्द्रगुप्त भद्रबाहु श्रुतकेवलीका लघु समकालीन मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त ही है। तथा ति०प० में उक्त गाथा ऐसे प्रकरणसे सम्बद्ध है जिसका सम्बन्ध भगवान महावीरके निर्वाण पश्चात् होनेवाली आचार्यके परम्परासे है। उस प्रकरणमें सबसे प्रथम भगवान् महावीरके १-महानन्दिसुतश्चापि शूद्रायां कलिकांशजः । उत्पत्स्यते महापद्मः सर्वक्षत्रान्तको नृपः। ततः प्रभृति राजानो भविष्याः शूद्रयोनयः । एकराट् स महापद्मो एकच्छत्रो भविष्यति ॥ -मत्स्य पु०, २७१ अ०। २-'मउडधरेसु चरिमो जिणदिक्खं धरदि चंदगुत्तो य । तत्तो मउडधरादु पव्वज्जं णेव गेण्हति ।।१४८१॥ -ति० ५०, १०४। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ ० सा० इ०-पूर्व पीठिका निर्वाणके पश्चात् क्रमसे होनेवाले तीन केवलज्ञानियोंका निर्देश है। उसके पश्चात् बतलाया है कि अन्तिम केवलज्ञानी श्रीधर हुए, अन्तिम चारण ऋषि सुपार्श्वचन्द्र हुए, अन्तिम प्रज्ञाश्रमण वज्रयश हुए और अंतिम अवधिज्ञानी श्री नामक ऋषि हुए। तत्पश्चात् अंतिम चंद्रगुप्त राजाके दीक्षा लेनेवाली गाथा है। उसके पश्चात् क्रमसे होनेवाले पाँच श्रुतकेवलियोंका निर्देश है, जिनमें अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु थे। __भगवान महावीरके निर्वाणगमनके ३ वर्ष ८॥ मास पश्चात् पंचमकाल प्रारम्भ हुआ। पंचमकालमें ऋद्धि सिद्धिका योग क्वचित् ही होता है। चतुर्थकालमें उत्पन्न हुए मनुष्य पंचमकालमें मुक्त हो सकते हैं, जैसे जम्बूस्वामी। किन्तु पंचम कालके जन्मे हुए जीव मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकते । इसी तरह ऋद्धियोंका लाभ भी उत्तरोत्तर हीन होता होता बन्द हो जाता है। अतः केवली और श्रुत केवलियोंके मध्यमें जिन अन्तिम विशिष्ट व्यक्तियोंका निर्देश किया है, महावीर निर्वाणसे कई शताब्दी पश्चात् उनका होना संभव प्रतीत नहीं होता। बहुत संभव तो यही प्रतीत होता है कि श्रुत केवलियोंके थोड़े बहुत आगे या पीछे ही वे महापुरुष हुए हों और शायद इसीलिए उनका निर्देश अन्तिम केवलीके पश्चात् तथा श्रुत केवलियोंके पहले किया है। और इस दृष्टिसे भी जिन दीक्षा लेनेवाले अन्तिम राजा चन्द्रगुप्त श्र तकेबली भद्रबाहुके समयमें होनेवाले मौर्य चन्द्रगुप्त ही हो सकते हैं। अतः भद्रबाहु श्रुतकेवली और मौर्य चन्द्रगुप्तकी समकालीनतामें कोई सन्देह करना उचित प्रतीत नहीं होता । खारवेलके शिलालेखसे समर्थन इसके सिवाय दिगम्बर तथा श्वेताम्बर अनुश्रुतियाँ यह बत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राचार्य काल गणना ३५५ लाती हैं कि भद्रबाहु के समय में बारह वर्षका भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा और उसके कारण बहुत सा श्रुत विच्छिन्न हो गया । खारवेल के हाथीगुफावाले शिलालेखकी १६ वीं पंक्ति में आगत एक वाक्यको पहले इस प्रकार पढ़ा गया था - 'मुरियकालं वोछिनं (नें ? ) चोयठि अगस निकंतरियं उपादायाति ।' और इसका अर्थ किया गया था - मुख्यिकाल के १६४वें वर्षको वह पूर्ण करता है ( शि० ले० सं० भा० २ ) किन्तु पीछे श्रीजायसवाल ने बड़े श्रम साथ अध्ययन करके इसका संशोधन इस प्रकार किया 'मुरियकाल वो छिनं च चोयठि अंग सतिकं तुरियं उपादयति ।' और उसका अर्थ बतलाया - मौर्यकाल में विच्छिन्न हुए चौसठ भागवाले चौगुने अंगसप्तिकका उसने उद्धार किया ।' अथवा तुरियका अर्थ चतुर्थ (पूर्व ) भी किया जा सकता है. जिसके ६४ भागों में सात अथवा सौ या १६४ अंग थे ।' इन अर्थों को करके श्री जायसवाल ने लिखा है- जैन आगमोंके इतिहासके और अधिक गहरे अध्ययन से हम यह निर्णय करने में समर्थ होंगे कि इन तीनों में से कौन सा अर्थ ग्राह्य है । किन्तु चन्द्रगुप्त के समय में जैन मूल ग्रन्थोंके विनाशको लेकर जैन परम्परा में जो विवाद चलता है, उसका लेखके उक्त पाठसे आश्चर्यजनक समर्थन होता है । इससे यह स्पष्ट है कि उड़ीसा जैन धर्मके उस सम्प्रदायका अनुयायी था, जिसने चन्द्रगुप्तके राज्य में पाटलीपुत्र में होनेवाली वाचनामें संकलित आगमोंको स्वीकार नहीं किया था ।' (ज० वि० उ०रि० सो० जि० १३, पृ० २३६ ) । उक्त शिलालेख उक्त पाठसे यह स्पष्ट हो जाता है कि दिग म्बर तथा श्वताम्बर परम्परामें भद्रबाहु श्रुतकेवलीके समय से श्रतका विच्छेद होनेकी जो अनुश्र तियाँ हैं, वे मौर्यकाल से सम्बद्ध 2 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका हैं और इसलिये भद्रबाहु श्रुतकेवलीका चन्द्रगुप्त मौर्यके काल में होना सिद्ध है। ऊपरके समस्त विवेचनके आधारपर यह मानना पड़ता है कि आचार्योंकी काल गणनामें अवश्य ही कुछ भूल है। यद्यपि दि० जैन ग्रन्थों और पट्टावलियोंमें जो वीर निर्माणके पश्चात् होनेवाले जैनाचार्योंकी काल गणना दी है, जिसके अनुसार वीर निर्वाणके पश्चात् ६८३ वर्ष तक अंगज्ञानकी परम्परा चालू रही, वह सर्वत्र एकरूप पाई जाती है, उसमें ऐसी गुंजाईश नहीं दिखाई पड़ती, जिसके आधार पर कुछ वर्षों की भूल प्रमाणित की जा सके। किन्तु नन्दिसंघकी प्राकृत पट्टावली अन्य सब पट्टावलियोंसे विलक्षण है और प्राचार्योंके काल निर्णयमें यदि उसका उपयोग किया जाये तो भद्रबाहु श्रुतकेवली और चन्द्रगुप्त मौर्यकी समकालीनता बन सकती है, किन्तु है वह क्लिष्ट कल्पना ही। अन्य दि० जैन ग्रन्थोंके अनुसार महावीर निर्वाणके पश्चात् लोहाचार्य तक ६८३ वर्ष पूरे होते हैं। किन्तु नन्दि पट्टा० के अनुसार वीर निर्वाणसे लोहाचार्य तक ५६५ वर्ष ही होते हैं। इस तरह दोनों काल गणनाओंमें ११८ वर्षका अन्तर है। किन्तु यह अन्तर केवल एकादश अंगधारी तथा अन्य जैन ग्रन्थोंके अनुसार आचारागंधारी किन्तु नन्दि पट्टा० के अनुसार दस नौ आठ अंगधारी आचार्योंके हो कालमें है। ३ केवली, ५ श्रुतकेवली और ११ दस पूर्वधारी आचार्योकी काल गणनामें कोई अन्तर नहीं है। किन्तु यदि इस ११८ वर्ष में से जो नन्दि पट्टा० के अनुसार अर्हद्बलिसे लेकर भूतवलि पर्यंत पाँच आचार्योको दिये गये हैं-५० वर्ष पाँच श्रुतकेवलियों में सम्मिलित कर दिये जायें तो आचार्य कालगणनाके अनुसार भी श्रुतकेवली भद्रबाहु और चंद्रगुप्तमौर्यकी समकालीनता Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य काल गणना ३५७ बन जाती है। और पाँच श्रुतकेवलियोंके बतलाये गये १०० वर्ष कालमें ५० वर्षकी वृद्धि कोई अधिक नहीं है क्योंकि आगे पाँच एकादश अंगधारियोंका काल दो सौ बीस वर्ष बतलाया गया है, जो पाँच श्रुतकेवलियोंके कालसे दूनेसे भी अधिक है। यदि इन दोनों कालोंका समीकरण कर दिया जाये तो दोनोंका काल १६०१६० वर्ष हो जाता है। इस तरह यदि पाँच श्रुतकेवलियोंका काल एक सौ साठ वर्ष हो जाता है तो समस्या सुलझ जाती है और ६० वर्षकी कमी स्पष्ट हो जाती है। किन्तु श्वेताम्बर परंपरा में भी भद्रबाहु श्रुतकेवलीका लगभग वही काल माना जाता है जो दिगम्बर परम्परामें माना जाता है। इसीसे आचार्य हेमचंद्रको भगवान महावोरके निर्वाणसे चंदुगुप्त मौर्यके राज्य तककी राज. काल गणनामें ६० वर्ष कम करना पड़े। हेमचन्द्रने वीर निर्वाणसे एक सौ पचपन वर्ष पश्चात् चन्द्रगुप्त राजाको होना लिखा है तथा वीर निर्वाणसे एक सौ सत्तर वर्ष बीतनेपर भद्रबाहुका स्वर्गगत होना लिखा है । अतः हमें श्वेताम्बरीय काल गणनाको भी देखना होगा। ___ श्वेताम्बर पट्टावलियोंके अनुसार वीर निर्वाणसे २१५ वर्ष पर्यन्तकी राज्यकाल गणना और आचार्य काल गणना इस प्रकार हैं १-पालक' ६०+ नवनन्द १५५ = २१५ वर्ष । २ - गौतम १२+ सुधर्मा ८+ जम्बू ४४+ प्रभव ११+ शय्यंभव २३ + यशोभद्र ५० + संभूति विजय ८+ भद्रबाहु १४+ स्थूलभद्र ४५ = २१५ वर्ष । तत्पश्चात् मौर्य राज्यकाल १०८ वर्षमें-महागिरि ३०, सुहस्ति ४६, गुणसुन्दर ३२ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका आर्यसुहस्ती और सम्प्रति कल्पसूत्र स्थविरावलीके अनुसार आर्य यशोभद्रके दोशिष्य थे-संभूति विजय और भद्रबाहु। संभूति विजयके शिष्यका नाम स्थूलभद्र था। और स्थूलभद्रके दो शिष्य थे-आर्य महागिरि और सुहस्ती। आर्य भद्रबाहुका स्वर्गवास वीर निर्वाणसे १७० वर्ष पश्चात् हुआ। स्थूलभद्र बीर निर्वाण १७० से २१५ तक आचार्य पदपर रहे। उनके पश्चात् आर्य महागिरि ३० वर्ष तक और तत्पश्चात् सुहस्ती ४६ वर्ष तक पट्टासीन रहे। ___श्वेताम्बरीय उल्लेखोंके अनुसार स्थूलभद्र अन्तिम नन्दके मंत्री शकटालके पुत्र थे। और उनके शिष्य सुहस्तीने अशोकके पौत्र सम्प्रतिको जैन धर्ममें दीक्षित करके जैन धर्मका महान उद्धार कराया था। स्थूलभद्रका स्वर्गवास चन्द्रगुप्तके राज्यकालमें हुआ और चन्द्रगुप्तके राज्यकाल में ही आर्य सुहस्तीने उनसे दीक्षा ली। तत्पश्चात् आर्य सुहस्ती सम्प्रतिके राज्यकाल तक जीवित रहे । अर्थात् आर्य' सुहस्तीने चन्द्रगुप्त मौर्य, तत्पुत्र विन्दुसार, तत्पुत्र अशोक और अशोकके पौत्र सम्प्रतिका राज्यकाल देखा। श्री जायसवाल जीने चन्द्रगुप्तका राज्यकाल ई० पू० ३२६ से ३०२ तक तथा सम्प्रतिका राज्यकाल ई० पू० २२० से २११ तक ठहराया है। अर्थात् चन्द्रगुप्त और सम्प्रतिके मध्यमें एक शताब्दी १-पट्टा० समु०, पृ० १७ । २-श्वेताम्बर चन्द्रगुप्त के राज्याभिषेक और सुहस्तीकी मृत्युके बीचमें ११० या १०६ वर्षका अन्तर गिनते हैं । (परि. पर्व०, जेकोबी की प्रस्तावना ) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य काल गणना ३५६ का अन्तर है। इस सुदीर्घ कालकी पूर्तिके लिये मुनि श्री कल्याण विजय जीने आर्य सुहस्तीके साथ स्थूलभद्रकी संगति बैठानेके लिये आचार्य पदारोहण कालकी समाप्तिके पश्चात् भीस्थूलभद्रको जीवित माना है। फिर भी सम्प्रतिके इतिहास सम्मत कालके साथ आर्य सुहस्तीकी संगति नहीं बैठ सकी है , क्योंकि मुनि जीने वीर निर्वाणके २६श्वे वर्षमें सुहस्तीका स्वर्गवास माना है। और इतिहासके अनुसार (५२७-२०१ = २३६ ई० पू०) उसी वर्ष अशोकका अन्त हुआ था। जायसवाल जीने लिखा है कि जैन रिकार्डोंमें इसके स्पष्ट चिन्ह हैं कि सम्प्रति चन्द्रगुप्तके १०५ वर्ष पश्चात् अर्थात् अशोककी मृत्युके १६ वर्ष बाद राज्यासन पर बैठा ( ज० वि० उ० रि० सो०, जि० १, पृ० ६४-६५) वायु पुराण और तारानाथ आदिके अनुसार अशोकका उत्त. राधिकारी उसका बेटा कुनाल था । उसका राज्यकाल पाठ बरस लिखा है। विष्णु पुराणके अनुसार अशोकका पोता दशरथ था। मत्स्य पुराणमें भी उसका नाम है । बारवर (गया जिला) के पास नागार्जुनी पहाड़ी पर दशरथकी बनवाई हुई तीन गुफाएँ है जिनमें उसके दान सूचक अभिलेख हैं। दिव्यावदान और श्वे, जैन अनुश्रुतिके अनुसार अशोकका पोता सम्प्रति था। मत्स्य और विष्णु पुराणमें दशरथके बाद सम्प्रति या संगतका नाम है। जायसवाल जीने इसका यह परिणाम निकाला है कि सम्प्रति दशरथका छोटा भाई और उत्तराधिकारी था। अतः उन्होंने अशोकके पश्चात् ८ वर्ष तक कुनालका, उसके बाद ८ वर्ष तक दशरथका और उसके बाद सम्प्रतिका राज्यकाल ठहराया है। __ श्वेताम्बरीय साहित्यमें सम्प्रतिकी कथा इस प्रकार दी हैआर्य सुहस्तीने कौशाम्बी नगरीमें आहारके अभिलाषी एक दरिद्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० जै० सा० इ० - पूर्व पीठिका व्यक्तिको दीक्षा दी । वह मरकर कुणालका पुत्र हुआ। अंधे कुणालने अपने पिता अशोकसे राज्य माँगा । अशोकने कहाअंधेको राज्यसे क्या प्रयोजन ? कुणाल बोला- मैं अपने पुत्रके लिये राज्य माँगता हूँ । मेरे सम्प्रति ( अभी ) पुत्र हुआ है । इस परसे अशोकने उसका नाम 'सम्प्रति' रखा। बड़ा होने पर सम्प्रति उज्जैनीका राजा हुआ। एक बार आर्य सुहस्ती उज्जैनी में पधारे। सम्प्रतिने उन्हें देखा और उसे पूर्व जन्मका स्मरण हो आया । सम्प्रतिने आर्य सुहस्तिसे श्रावकके व्रत धारण किये और उनका परम भक्त बन गया । अपने पूर्व जन्मके दारिद्र्यका स्मरण करके सम्प्रतिने नगर के चारों द्वारोपर भोजन शालाएँ स्थापित कीं, जिनमें दीन अनाथ भोजन कर सकते थे I जो भोजन शेष बचता था वह भोजनशाला के प्रबन्धकोंका होता था । यह जानकर राजाने यह आज्ञा दी कि जो अन्न शेष बचे वह साधुओं को दिया जाये, क्योंकि साधु लोग 'राजपिण्ड' होनेसे मेरे घर भोजन नहीं करते। इसी तरह सम्प्रतिने सब व्यापारियोंमें यह घोषणा करा दी कि साधुओंको अन्न-पान; तेल aa वगैरह बिना मूल्य दिया जाये और उसका मूल्य राजकोष से लिया जाये । अब साधुओं को प्रचुर मात्रा में सब आवश्यक वस्तुएँ मिलने लगीं तो आर्य महागिरिने अर्थ सुहस्तिसे इसका कारण पूछासुहस्तीने यह जानते हुए भी कि इस प्रकारका अन्न वस्त्र साधुके लिये अग्राह्य है, अपने शिष्य सम्प्रतिके मोहसे उसका समर्थन किया। तब आर्य महागिरिने सुहस्ती से कहा – आप ऐसे बहुश्रुत होकर भी यदि शिष्यके मोहसे ऐसा कहते हैं तो आजसे मेरा तुम्हारा विसंभोग है -- हम तुम एक मण्डलीमें नहीं रह सकते । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य काल गणना सुहस्तीने अपने दोषोंकी आलोचना करके तथा अपने अपराधकी क्षमा मांगकर आर्य महागिरिसे मिलाप कर लिया। ( अभि० रा० में 'संग्रह शब्दसे) __ इस कथाके अनुसार तो आर्य महागिरि भी सम्प्रतिके राज्य कालमें वर्तमान थे। किन्तु पट्टावलीके अनुसार सहुस्तीसे महागिरि तीस वर्ष बड़े थे अतः उनका स्वर्गवास भी सुहस्तीसे तीस वर्ष पूर्व हो चुका था क्योंकि दोनोंका आयुमान सौ सौ वर्ष माना गया है और अधिक वृद्धि करनेकी गुंजाइश नहीं है । मुनि कल्याण विजय जीने आर्य महागिरिका स्वर्गवास वीर निर्वाणाब्द २६१ में और सुहस्तीका स्वर्गवास वीर निर्वाण २६१ में माना है और अशोकका राज्यकाल वीर निर्वाण २६५ तक माना है। इसका तो यह मतलब हुआ कि सम्प्रतिने अशोकके राज्यकालके अन्दर ही राज्यपद प्राप्त कर लिया था और अशोकने जो कुछ बौद्ध धर्मके लिये किया, सम्प्रतिने अपने दादा अशोकके राज्यकालमें ही वही सब जैन धर्मके लिये किया । किन्तु यह संभव प्रतीत नहीं होता। इसीसे श्री जायसवालने लिखा था-सम्प्रति और सुहस्तीका समय एकदम गलत है। __ असलमें राज्यकाल गणना और प्राचार्य काल गणनाकी संगति बैठानेके लिये ही मुनि कल्याण विजय जीको कालकी खींचातानी करनी पड़ी है, फिर भी वह संगति नहीं बैठ सकी है। इससे हमारा इतना ही आशय है कि प्राचार्य काल गणनामें अवश्य ही कुछ वर्षोंकी भूल है और उसमें सुधार हुए बिना सम्प्रति और सुहस्ती तथा महागिरिकी कालावधि संगत नहीं बैठ ____१-ज० वि० उ० रि० सो, जि० १, पृ० १०४ का फुटनोट नं० १३७ में। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ जै० सा० इ० - पूर्व पीठिका सकती । यदि भद्रबाहु श्रुतकेवलीकी कालावधिको चन्द्रगुप्त मौर्यके काल के साथ सम्बद्ध कर दिया जाता है तो आर्य महागिरि, सुहस्ती तथा सम्प्रतिके जीवनसम्बन्धी अनुश्रुतियोंकी संगति भी बैठ जाती है । नंदमंत्री शकटाल अब हम पुनः नन्दके मंत्री शकटालकी ओर आते हैं क्योंकि श्वेताम्बर साहित्य में स्थूलभद्रको उसका पुत्र कहा है । चन्द्रगुप्तके भारतीय आख्यानोंके लिये गुणाढ्यकी वृहत्कथा को सबसे प्राचीन माना जाता है । यद्यपि यह ग्रन्थ अनुपलब्ध है किन्तु उसके दो संस्कृत रूपांतर उपलब्ध है— एक क्षेमेन्द्रकी वृहत्कथामंजरी और दूसरा सोमदेवका कथा सरित्सागर । यद्यपि य दोनों रचनाएँ ईसाकी ११वीं शती तथा उसके भी बादकी हैं। किन्तु इतिहासज्ञोंका मत है कि उनमें वृहत्कथाकी मूलवस्तु सुरक्षित है । ( भा० इं० पत्रिका, जि० १२, पृ० ३१० ) गुणाढ्ने चन्द्रगुप्तके विषयमें जो कथा दी है वह इस प्रकार है— इंद्रदत्त वर्षका शिष्य था और पाणिनि, कात्यायन, वररुचि, और व्याडिका सहाध्यायी था । गुरुने उससे दक्षिणामें बहुतसा धन माँगा | इंद्रदत्त अयोध्याके राजा नन्दके पास गया जो निन्यानबे करोड़ सुवर्ण मुद्राओंका स्वामी था । किन्तु वहाँ जानेपर उसे मालूम हुआ कि नन्द अभी अभी मर गया है । इंद्रदत्त नन्दके मृत शरीर में प्रविष्ट हो गया और व्याडि उसके शरीरकी रता करने लगा । नन्दके मृत शरीर में प्रविष्ट होने के बाद इंद्रदत्तने वररुचिको आवश्यक धन दे दिया । नन्दके मंत्री शकटालने जब देखा कि कृपण नंद बड़ा उदार हो गया है ती उसे संदेह हुआ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य काल गणना ३६३ उस समय नंदका पुत्र चंद्रगुप्त बालक था। अतः उसने यह उचित समझा कि इंद्रदत्त नंदके शरीरमें ही बना रहे. और इसलिये शकटालने छलसे इंद्रदत्तका शरीर जला दिया। इंद्रदत्तने शकटालको उसके पुत्रोंके साथ एक कूपमें डाल दिया , और उन्हें थोड़ा सा भोजन देने लगा। शकटालके सब पुत्रोंने स्वयं भोजन न करके अपने पिताको भोजन ग्रहण करनेके लिये विवश किया, जिससे वह बदला ले सके । वररुचि इंद्रदत्तका मंत्री था वह स्वयं शासनका भार उठाने में असमर्थ था, अतः उसने इंद्रदत्तपर दबाव डाला कि वह शकटालको पुनः मंत्री बनावे। इंद्रदत्त इन दोनों मंत्रियोंको राज्यभार सौंपकर योगानंदके रूपमें विषयासक्त हो गया। _ 'एक बार वररुचि इंद्रदत्तका कोपभाजन बना। इंद्रदत्तने उसके वधकी आज्ञा दे दी। किंतु शकटालने वररुचिको छिपाकर उसकी रक्षा की। वररुचिकी मृत्युकी झूठी खबर पाकर उसके सम्बंधियोंने भी प्राण त्याग दिये। इससे इंद्रदत्तकी बड़ी बदनामी हुई । तब शकटालने चाणक्यकी सहायतासे योगानन्द और उसके पुत्र हिरण्यगुप्तको मार कर चंद्रगुप्तको उसके पिताके राज्यासनपर बैठाया। वृहत्कथामें शकटालसे चाणक्यके भेंटकी कथा इस प्रकार पाई जाती है-'शकटालने चाणक्यको एक कटीली घासकी जड़े खोदते देखा, जो उसके पैरमें चुभ गई थी। उसे अपने मतलबका व्यक्ति समझकर शकटालने योगानंदके महल में होनेवाले श्राद्धके लिए निमंत्रित कर दिया। तथा गुप्तरूपसे उसके स्थानपर दूसरे व्यक्तिको बैठा दिया। जब चाणक्य आया और उसने स्थानको घिरा हुआ पाया तो क्रुद्ध हो, शिखा खोल नंदको नष्ट करनेकी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका प्रतिज्ञा की। शकटालने अपनी सफाई देकर चाणक्यके द्वारा योगानंद और उसके पुत्रको मरवा डाला ।' ___ हरिषेण कृत जैन वृहत्कथाकोशमें भी शकटालकी कथा है । जो इस प्रकार है_ 'पाटलीपुत्रमें नन्द नामका राजा था। उसके मंत्रीका नाम शकटाल था। उधर वररुचि, नमुचि, वृहस्पति और इंद्रदत्त पढ़नेके लिये गये , और वेदपारंगत होनेके पश्चात् गुरु दक्षिणाके लिये नन्दके पास गये। इसी समय नन्दका मरण हो गया। नमुचि नन्दके शरीरमें प्रवेश करके पाटलीपुत्रमें राज्य करने लगा और उसने वररुचि आदिके लिये एक हजार गौ प्रदान की। उन्होंने वे गायें किसीके द्वारा अपने उपाध्यायके लिये भिजवा दीं। और वररुचि वगैरह योगानंदकी सेवामें रहने लगे। ___ एक दिन शकटालने योगानंदको परीक्षाके लिये उसे मदिरा पिला दो । योगानंदने शकटालको उसके सौ पुत्रोंके साथ भयानक कारागारमें डाल दिया। पश्चात् घटनावश नन्दने शकटालको कारागारसे निकालकर पुनः मंत्री बना दिया। शकटाल मन ही मन रुष्ट होकर अवसरकी ताकमें रहने लगा। ____ एक दिन वररुचिने नन्दके कहनेपर कविता पाठ किया। शकटालने अवसरसे लाभ उठाकर नन्दसे कहा कि राजन् ! वररुचि दुष्ट बुद्धि है और आपके अन्तःपुरको नष्ट करना चाहता है । नन्द ने वररुचिको मार डालनेकी आज्ञा दे दी। राजाके किङ्करोंने वररुचिको तो छोड़ दिया और उसके बदले में किसी दूसरेके प्राण ले लिये। राजाका भ्रम दूर होनेपर वररुचि पुनः नन्दका सेवक हो गया। उधर शकटाल महापद्म नामक जैनाचार्यके निकट साधु हो गया। एक दिन शकटाल मुनि भिताके लिये राजमहलकी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य काल गणना ३६५ ओर गये । द्वेषी वररुचिने उन्हें राजाके अन्तःपुरमें पहुँचा दिया । जब वह भोजन करके चले गये तो वररुचिने नन्दसे कहा कि यह शकटाल भिक्षाके बहानेसे आपके अन्तःपुरमें रमण करनेके लिये गया था। नन्दने रुष्ट होकर शकटालको मारनेके लिये अपने आदमी भेज दिये। सब वृत्तांत जानकर शकटालने छुरीसे अपना पेट फार डाला और शांतभावसे मृत्युका आलिंगन किया। ___ इस कथामें यद्यपि चंद्रगुप्त और चाणक्यका कोई वृत्तांत नहीं आया, किंतु कथावस्तु गुणाढ्यको कथासे कुछ मेल अवश्य खाती है। वृहत्कथा कोशकी रचना भगवतो आराधना नामक एक प्राचीन जैन प्रथमें आये हुए दृष्टांतोंके आधार पर हुई है। उसमें शकटाल मुनिके सम्बंधमें जो गाथा आई है वह इस प्रकार है सगडालएण वि तहा सत्तग्गहणेण साधिदो अत्थो । वररुह पश्रोगहेतुं रुढे णंदे महापउमे ॥२०७६।। इस गाथाका अर्थ स्पष्ट है कि-'वररुचिके प्रयोगके द्वारा महापद्म नन्दके रुष्ट हो जाने पर शकटालने भी शस्त्र ग्रहणके द्वारा अपना प्रयोजन सिद्ध किया। किंतु आराधनाके टीकाकार श्री अपराजित सूरिको सम्भवतया शकटाल और महापद्मनन्दके जीवन वृत्तांतका परिचय नहीं था। शायद इसीसे उन्होंने 'महापउमे' महापद्म धर्माचार्यस्य समीपे प्रतिपन्नदीक्षण' किया हैअर्थात् शकटालने महापद्म धर्माचार्यके निकट दीक्षा ली थी। इसीसे 'रुट्ठ णंदे' शब्दोंका अर्थ उन्होंने छोड़ दिया है। और हरिषेणको शकटाल और नंदकी कथा ज्ञात होने पर भी उन्होंने अपने पूर्ववर्ती अपराजित सूरिके व्याख्यानका ही अनुसरण अपनी कथामें किया प्रतीत होता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ जै० सा० इ०-पूर्व पोटका हरिषेण कृत जैन वृहत्कथा कोशमें चाणक्यकी भी कथा है । ऐसा प्रतीत होता है कि हरिषेणने शकटालकी कथासे चाणक्य वाला अंश अलग करके चाणक्यकी कथाका निर्माण किया है। गुणाढ्यकी कथामें चाणक्यका जो वृत्तांत दिया है वृहत्कथाकोशमें भी चाणक्यकी कथामें वही वृत्तांत दिया है किंतु कथाकोशमें यद्यपि शकटालको नंदका मंत्री बतलाया है किंतु शकटालको नंद वंशके विनाशका प्रेरक न बनाकर 'कवि' नामक एक अन्य मंत्रीके द्वारा यह कार्य कराया गया है। अर्थात् नन्द कविको कूपमें डालता है उसका परिवार मर जाता है और वह बदला लेनेके लिये जीवित रहता है । नन्द द्वारा मुक्त होने पर वह पुनः मंत्री बनता है और जंगल में चाणक्यको घासकी जड़ें उखाड़ता देखकर उसे अपने इष्टकी सिद्धि में सहायक बनाता है और नंदके द्वारा चाणक्यका अपमान कराकर नंदवंशका नाश कराता है। श्वेताम्बरीय साहित्यमें भी चाणक्यकी कथा लगभग उक्त प्रकारसे ही पाई जाती है । तथा शकटालका वृत्तांत स्थूलभद्रके पिताके रूपमें पाया जाता है। उसमें भी शकटालको नौवें नंदका मंत्री तथा वररुचिको उसका प्रशंसक बतलाया है। वररुचिकी करामातका भण्डाफोड़ कर देनेके कारण वररुचि शकटालसे रुष्ट हो जाता है और यह मिथ्या प्रवाद फैलाता है कि 'शकटाल नन्दको मारकर राजा होना चाहता है। राजा भी इस मिथ्या प्रवादके कारण शकटालसे रुष्ट हो जाता है। तब शकटाल अपने वंशको बचानेके लिये अपने छोटे पुत्रसे कहता है कि जब मैं राजाको नमस्कार करूँ तब मेरा सिर काट डालना। पिताके अनुरोधसे पुत्र वैसा ही करता है। शकटालके दो पुत्र बतलाये हैं, छोटा पुत्र नन्दका मंत्री बन जाता है और बड़ा पुत्र स्थूलभद्र ३० वर्षकी वयमें साधु हो जाता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य काल गणना ३६७ ऊपरकी कथाओंसे यह स्पष्ट है कि शकटाल महापद्मनन्द अथवा अंतिम नन्दका मंत्री था। अंतिम शैशुनाक राजाका उत्तराधिकारी महापद्मनन्द था। पुराणोंके अनुसार वह महानन्दीका शूद्रासे पैदा हुआ बेटा था। हेमचन्द्राचार्यने उसे (परि० पर्व०, सर्ग ६, श्लो० २०२) नापितकुमार कहा है । एक यूनानी लेखकने लिखा है कि वह एक नाई था, किंतु रानी उसपर आसक्त हो गई थी और धीरे धीरे वह राजकुमारोंका अभिभावक बनकर अंतमें उन्हें मारकर स्वयं राजा बन बैठा। उसका दूसरा नाम उग्रसेन था । महापद्मको पुराणोंमें 'सर्वक्षत्रान्तकृत्'-सब क्षत्रियोंका उत्पाटक कहा है। महापद्मनन्दके बेटेने केवल १२ वर्ष राज्य किय । उसके ही समयमें सिकंदरने भारतवर्षपर चढ़ाई की और चन्द्रगुप्त मौर्यने नन्दवंशका राज्य हस्तगत किया। (भा० इ० रू०, पृ० ५२८)। ___ गुणाढ्यकी वृहत्कथा तथा जैन वृहत्कथाकोशको कथामें बतलाया है कि जब वररुचि वगैरह नन्दके पास पहुंचे तो उसकी मृत्यु हो गई। इससे ऐसा अनुमान करना संभव है कि शकटालके सामने ही महापद्मनन्दकी मृत्यु हो गई थी और उसके उत्तराधिकारी अंतिम नन्दका मंत्रा भी शकटाल था क्योंकि उसे नौवें अर्थात् अन्तिम नन्दका मंत्री भी कहा है। महापद्मनन्दके समय ही चाणक्यके अपमानवाली घटना घटी, जिसमें शकटालका या उसके अन्य सहयोगीका हाथ था। महापद्मके मर जानेपर उसके पुत्रका बारह वर्ष तक ही राज्य कर सकना उसी षड्यंत्रका परिणाम था जिसका सूत्रपात महपद्मनन्दके जीवनकालमें हुआ था। शकटालके पुत्र स्थूलभद्रका नाम तो क्या, संकेत तक भी दिगम्बर जैन ग्रन्थोंमें तथा जैनेतर साहित्यमें नहीं है। फिर भी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका यदि यह मान लिया जाये कि स्थूलभद्र नन्द मंत्री शकटालके पुत्र थे तो उक्त कथाओंको देखते हुए यह मानना होगा कि महापद्म नन्दके समयमें शकटाल युवा थे। महापद्मनन्दका राज्यकाल ईस्वी पूर्व ३६६ से प्रारम्भ होता है क्योंकि ईस्वी पूर्व ४०६ तक तो नन्दिवर्धन वगैरहका राज्यकाल समाप्त होता है। उनके पश्चात् ४३ वर्ष महानन्दीने राज्य किया और महानन्दीका पुत्र महापद्मनन्द था। तथा महापद्म और उसके पुत्रोंने ४० वर्ष राज्य किया तत्पश्चात् ईस्वी पूर्व ३२६-३२५ के लगभग चन्द्रगुप्त मौर्य मगधके सिंहासन पर बैठा । ___अतः अन्तिम नन्दके मंत्री शकटालका जन्म ईस्व' पूर्व ४०० से पहले नहीं होना चाहिये । किंतु मुनि कल्याण विजय जीने पट्टावलियोंके अनुसार स्थूलभद्रका जन्म ईस्वी पूर्व ४०० से पहले अर्थात् वीर निर्वाणके २६वें वर्षमें बतलाया है। तथा तीस वर्षकी अवस्थामें उन्होंने दीक्षा ली थी। अर्थात् शकटालके महापद्मनन्दका मंत्री होनेसे पूर्व ही स्थूलभद्रने दीक्षा ले ली थी। किंतु श्वेताम्बर अनुश्रुतिके ही अनुसार महापद्मनन्दका रोषभाजन होनेके पश्चात् शकटालकी मृत्यु होनेपर स्थूलभद्रने दीक्षा ली थी। अतः ईस्वी पूर्व ४०० के लगभग शकटाल पुत्र स्थूलभद्रका जन्म होना संभव नहीं हैं. हाँ शकटालका जन्म होना संभव है। अतः स्थूलभद्रका जन्म ईस्वी पूर्व ३७० के लगभग होना चाहिये । और तीस वर्षकी वयमें ईस्वी पूर्व ३४० के लगभग उन्हें प्रव्रजित होना चाहिये। वह समय महापद्म नन्दके राज्यका अन्तिम समय था और शकटालने वृद्धावस्थामें पदनिक्षेप किया था। बालब्रह्मचारी भद्रबाहु श्रुतकेवली भी शकटालके समवयस्क हो सकते हैं। उन्होंने भी सौ वर्षके लगभग आयु पाई हो यह संभव है । यद्यपि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य काल गणना श्वेताम्बर पट्टावलीमें उनकी आयु ७६ वर्षके लगभग बतलाई है, किन्तु सरस्वती गच्छकी दिगम्बर पट्टावलीमें द्वितीय भद्रबाहुकी उतनी ही अवस्था बतलाई है और श्वेताम्बर अनुश्रुतियोंमें दोनों भद्रबाहुओंमें ऐसा गड़बड़ घोटाला कर दिया गया है कि दोनोंका अस्तित्व एकमें ही गर्भित हो गया है । अतः यह संभव है कि द्वितीय भद्रबाहुकी आयु प्रथम भद्रबाहुको भी दे दी गई हो । अतः भद्रबाहु श्रुतकेवलीका समय ई० पूर्व ४०० से ईस्वी पूर्व ३०० के लगभग ही मानना चाहिये। अर्थात् वीर निर्वाण १२७ से २२७ तक। तथा स्थूलभद्रका समय वीर निर्वाण सं० १५७ से २५७ तक, और आर्य सुहस्तीका वीर नि० सं० २०० से ३०० के लगभग मानना चाहिये। ऐसा माननेसे भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त, स्थूलभद्रके पिता शकटाल और अन्तिम नन्द तथा आर्य महागिरि आर्य सुहस्ती और सम्प्रतिका लोक विश्रुत साहचर्य बन जाता है। आचार्य हेमचन्द्रने अपने परिशिष्ट पर्वमें चन्द्रगुप्त मौर्यके राज्यकाल में ही बारह वर्षके दुर्भित, अङ्गोंका सङ्कलन और भद्रबाहुका स्वर्गगमन आदि बतलाया है। किन्तु राज्य त्याग कर चन्द्रगुप्तके भद्रबाहुके साथ जानेकी चर्चा नहीं की है यद्यपि चन्द्रगुप्तका समाधिपूर्वक मरण बतलाया है । इसका एक ही कारण हो सकता है कि चूँ कि इस अनुश्रतिका दिगम्बर जैन मान्यताके साथ गहरा सम्बन्ध है, अतः उन्होंने इसे स्थान देना उचित नहीं समझा होगा । दिगम्बर परम्परामें भी अनेक श्वेतांब. रीय अनुश्रुतियोंको स्थान नहीं दिया गया है। किंतु इससे ऐतिहासिक तथ्यको ओझल नहीं किया जा सकता। अतः चन्द्रगुप्त मौर्य और भद्रबाहु श्रुतकेवलीकी समकालीनता अवश्य ही एक ऐतिहासिक तथ्य प्रतीत होती है और इसलिये Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका' दोनों ही परम्पराओंमें भगवान महावीरके पश्चात्की आचाय परम्पराका जो काल दिया है वह निर्दोष नहीं है। और इसलिये उसके आधार पर किसी निर्दोष तथ्यका उद्भावना करना संभव नहीं है। यहाँ हमने वीर निर्वाणके समयका निर्धारण करनेकी दृष्टिसे प्रचलित वीर निर्वाण सम्वत्को ही ठीक मानकर उसके आधारपर महावीर भगवानके समकालीन व्यक्तियोंके कालक्रम तथा घटनाओंका सम्बन्ध बैठाया । पश्चात् महावीर निर्वाणके पश्चात् होनेवाले राजाओं तथा राजवंशोंके कालक्रमके साथ उसकी संगति बैठाई और फिर आचार्योंकी काल गणनाके प्रसंगमें भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त मौर्यके इतिहास प्रसिद्ध साहचर्यको लेकर १०० वर्षमें होनेवाले पाँच श्रुतकेवलियोंके कालक्रममें कतिपय वर्षोंकी भूल होनेकी आशंका प्रकट की है। . इस परसे यह कहा जा सकता है कि जाल चापेन्टियरने जो प्रचलित वीर निर्वाण सम्वत्में ६० वर्ष अधिक बतलाकर ६० वर्ष करनेकी सम्मति दी थी उसे ही मान्य क्यों न कर लेना चाहिये । क्योंकि उससे भद्रबाहु और चन्द्रगुप्तकी समकालीनता बन जाती है। किन्तु ऐसा करनेसे यद्यपि भद्रबाहुका समय चन्द्रगुप्तके पास आ जाता है जैसा कि हेमचन्द्राचार्यने किया है। किन्तु विक्रम सम्वत् और वीर निर्वाण मम्वत्के बीचका प्रसिद्ध ४७० वर्षका अन्तर तथा शक राजा और वीर निवाण सम्वतके बीचका ६०५ वर्षका प्रसिद्ध अन्तर गड़बड़ा जाता है, और इनके पीछे प्राचीन जैन अभिलेखोंका इतना जबरदस्त बल है कि उसको रौंद करके आगे बढ़ना शक्य नहीं है। अतः वीर निर्वाणका जो काल माना जाता है वही उचित है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद संघ-भेद भद्रबाहु naras fर्वाणकालकी चर्चा के प्रसंगसे श्रुतकेवली और मौर्य चन्द्रगुप्तका विवरण आ जानेके पश्चात् भगवान महावीर के संघ में विभेद होनेकी चर्चा करना उचित होगा, क्योंकि इन दोनों महापुरुषोंके कालमें ही उसका सूत्रपात हुआ माना जाता है । जैन धर्म से परिचित जनोंसे यह बात अज्ञात नहीं है कि जैन के अनुयायी मुख्य रूपसे दो सम्प्रदायों में विभाजित हैं । एक सम्प्रदाय दिगम्बर जैन कहलाता है और दूसरा सम्प्रदाय श्व ेताम्बर जैन । दोनों सम्प्रदाय भगवान पार्श्वनाथ और भगवान महाarrat अपना धर्मगुरु मानते हैं और दोनोंकी उपासना एकसी श्रद्धा भक्तिके साथ करते हैं । किन्तु दोनोंमें जिस मुख्य बातको लेकर मतभेद है वह दोनोंके नामोंसे ही स्पष्ट है । दिगम्बर-दिशायें ही जिनका वस्त्र ह अर्थात् जो नग्न गुरुओंका उपासक सम्प्रदाय है वह दिगम्बर कहलाता है। और श्व ेताम्बर अर्थात सफेद वस्त्र धारण करनेवाले गुरुओं का उपासक संप्रदाय श्वेताम्बर कहलाता है । अतः दोनों नामोंसे यह स्पष्ट है कि साधुओं के वस्त्र पहनने और न पहननेको लेकर ही दोनों संप्रदायोंकी सृष्टि हुई है । यह संघ भेद कैसे हुआ इस सम्बन्धमें दोनों सम्प्रदायोंमें विभिन्न कथाएँ पाई जाती हैं किंतु उनसे भी यही प्रकट होता है कि वस्त्रके कारण ही संघभेद हुआ। सबसे प्रथम हम दिगम्बर साहित्य में श्वेताम्बर संघकी उत्पत्तिके सम्बंधमें जो कथा पाई जाती है उसीको देते हैंहरिषेण वृहत्कथा कोश ( वि० सं० १८६ ) में देवसेन के दर्शनसार में (वि० सं० EES ) और भाव संग्रह में तथा रत्ननंदिके भद्रबाहु चरित्र में श्वेताम्बर संघको उत्पत्तिकी कथा दी है। Jain Educationa International ३७१ For Personal and Private Use Only Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका देवसेनने अपने दर्शनसार में लिखा है-'विक्रम राजाकी मृत्युके १३६ वर्ष बाद सौराष्ट्र देशके वलभीपुरमें श्वेतपट ( श्वेताम्बर ) संघ उत्पन्न हुआ।११।। श्री भद्रबाहु गणिके शिष्य शांति नामके आचार्य थे। उनका जिनचंद्र नामका एक शिथिलाचारी दुष्ट शिष्य था ॥१२॥ उसने मत चलाया कि स्त्रियोंको उसी भवमें मोक्ष प्राप्त हो सकता है। केवल ज्ञानी भोजन करते हैं और उन्हें रोग होता है ॥१३॥ वस्त्र धारण करने वाला भी मुनि मोक्ष प्राप्त कर सकता है। महावीरका गर्भ परिवर्तन हुआ था। जैनके सिवाय अन्य लिंगसे भी मुक्ति हो सकती है तथा प्रासुक भोजन सर्वत्र किया जा सकता है ।।१४।। कहना न होगा कि स्त्रीकी मुक्ति, केवलि मुक्ति, सवस्त्र साधुकी मुक्ति, महावीर भगवानका गर्भ परिवर्तन आदि जो बातें श्वेताम्बर मतके सम्बन्धमें ऊपर बतलाई हैं, उन्हें दिगम्बर सम्प्रदाय नहीं मानता और मुख्य रूपसे इन्ही बातोंको लेकर दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायमें मतभेद है। १-एक्कसए छत्तीसे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्य । सोरठे वलहीए उप्पण्णो सेवडो संघो ॥११॥ सिरिभद्दबाहुगणिणो सीसो णामेण संति श्राइरिओ। तस्स य सीसो दुट्ठो जिणचंदो मंदचारित्तो ॥ १२ ॥ तेण कियं मयमेयं इत्थीणं अत्थि तब्भवे मोक्खो। केवलणाणोण पुण अण्णक्खाणं तहा रोगो ॥१३॥ अंबरसहियो वि जई सिझई वीरस्स गन्मचारत्तं । परलिंगे विय मुत्ती फासुयभोजं च सव्वत्थ ॥१४॥ -भा० इं० पत्रि०, जि० १५, भाग ३-४, पृ० २०२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद ३७३ किंतु भद्रबाहु गणिके शिष्य आचार्य शांति और उनके शिष्य जिनचन्द्रका पता श्वेताम्बर या दिगम्बर परम्परामें नहीं लगता। यद्यपि श्वेताम्बर परम्परामें शांतिसूरि' और शांतिचन्द्र गणि नामके प्राचार्य हुए , किंतु वे देवसेनके पश्चात् हुए हैं। इसी तरह जिनचन्द्र नामके भी आचार्य श्वेताम्बर परम्परामें हुए हैं। किन्तु वे भी विक्रमकी ११वीं और १५वीं शताब्दीमें हुए हैं।। हाँ, विक्रमकी सातवीं शतीमें जिनभद्र गणि क्षमा श्रमण नामके एक प्रसिद्ध जैनाचार्य श्वेताम्बर परम्परामें हो गये हैं, जिन्होंने अपने विशेषावश्यक भाष्यमें वस्त्रपात्रवादका खूब समर्थन १-'वि० षरणवत्यधिक सहस्र १०६६ वर्षे श्रीउत्तराध्ययन टीका• कृत थिरापद्र गच्छीय वादिवेताल श्री शान्तिसूरिः स्वर्गमाक्' । -तपा० पट्टा० ( पट्टा० समु० पृ० ५४ ) मुनि कल्याण विजय जीने 'वीर निर्वाण सम्वत् और जैन काल गणना' (पृ० ११७ ) में एक गाथा उद्धृत की है जिसका भाव यह है कि युग प्रधान तुल्य वादिवेताल शान्तिसूरिने वालभ्य संघके कार्यके लिये बल भी नगरीमें उद्यम किया है ।' मुनि जीका अनुमान है कि वलभीमें जो देवर्द्धिगणिने सम्मेलन बुलाया उसमें एक परम्पराके उपप्रमुख वादि वेताल शान्तिसूरि थे। शायद इन्हीं शान्तिसूरिसे उक्त कथामें तात्पर्य हो। २-पहा० समु०, पृ० ७५-७६ । ३-देखो-जिण चंद सूरि' शब्द अभि० राजे । ४-मण-परमोहि-पुलाए' श्राहार-खवग-उवसमे कप्पे । संजमतिय-केवलि सिझणा य जंबुम्मि वुच्छिण्णा ॥२५६३॥ -विशे० भा० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका किया और जम्बू स्वामीके पश्चात् जिनकल्पके विच्छिन्न होनेकी घोषणा करके एक तरहसे उसपर रोक ही लगा दी थी। इन्हींके समयमें इनसे कुछ वर्ष पूर्व नियुक्तियोंके रचयिता द्वितीय भद्रबाहु भी हो गये हैं। इन द्वितीय भद्रबाहु और जिनभद्र गणिके गुरुशिष्य भावके सम्बन्धमें कुछ कह सकना हमारे लिए शक्य नहीं है। क्योंकि जिनभद्रने अपने विशेषावश्यक भाष्यमें भद्रबाहुकृत आवश्यक नियुक्तिका व्याख्यान करने जाकर भी न रचयिता भद्रबाहुका ही नाम लिया और न उनकी कृति आवश्यक नियुक्तिका ही नाम लिया। प्रवचनको प्रणाम करके गुरुके उपदेशानुसार आवश्यक अनुयोगका व्याख्यान करनेकी प्रतिज्ञा की है। यह एक विचित्र सी बात है कि जिस कृतिका व्याख्यान किया जाये उसका नाम तक भी न लिया जाये। इसीसे टीकाकार हेमचन्द्रने यह शङ्का की है कि इस भाष्यमें भद्रबाहु प्रणीत सामायिक नियुक्तिका व्याख्यान किया जायेगा। तब इसे आवश्यकानुयोग क्यों कहा ? टीकाकारने तर्कपद्धतिका आश्रय लेकर शङ्काका समाधान तो कर दिया, किंतु एक सरल जिज्ञासुके लिये तो उक्त शङ्का अन्य अनेक आशङ्काएँ उत्पन्न करनेवाली है, जिनके विस्तारमें जाना यहाँ अप्रासंगिक होगा। - इन जिनभद्रको श्वेताम्बर मतका संस्थापक या प्रवर्तक तो नहीं माना जा सकता, किन्तु प्रबलपोषक और समर्थक होनेमें तो रंचमात्र भी संदेह नहीं है। अतः जिनभद्र नामसे यदि इन्हींका १-कयपवयणप्पणामो वोच्छं चरणगुणसंगहंसयलं । श्रावस्सायाणुओंगं गुरूवए साणु सारेण ॥१॥ -वि० भा० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद ३७५ निर्देश देवसेनने किया हो तो यह असंभव नहीं है। एक दूसरे देवसेनने अपने भावसंग्रहमें श्वेताम्बर मतकी उत्पत्तिकी पूरी कथा दी है , जो इस प्रकार है 'उज्जनी नगरीमें भद्रबाहु नामके आचार्य थे। वे निमित्तज्ञानी थे। उन्होंने संघको वुलाकर कहा कि एक बड़ा भारी दुर्भिक्ष होगा जो बारह वर्षों में समाप्त होगा। इसलिये सबको अपने अपने संघोंके साथ अन्य देशोंको चले जाना चाहिये । यह सुनकर सब गणधर अपने अपने संघोंको लेकर उन उन देशोंको विहार कर गये, जहाँ सुभिक्ष था। उनमेंसे एक शांति नामके आचार्य अपने शिष्योंके साथ सौराष्ट्र देशकी वलभी नगरीमें पहुँचे। परन्तु उनके पहुँचनेके बाद वहाँ पर भी बड़ा भारी अकाल पड़ गया। भूखे लोग दूसरोंका पेट फाड़कर और उनका खाया हुआ भात निकाल कर खा जाने लगे। इस निमित्तको पाकर सबने कम्बल, दण्ड, तूम्बा, पात्र, आवरण और सफेद वस्त्र धारण कर लिये , ऋषियोंका आचारण छोड़ दिया और दोनवृत्तिसे भिक्षा ग्रहण करना और बैठकर याचना करके वस. तिकामें जाकर स्वेच्छापूर्वक भोजन करना शुरु कर दिथा। उन्हें इस प्रकार आचरण करते हुए कितना ही समय बीतने पर जब सुभिक्ष हो गया तो शांति आचार्यने उनसे कहा कि अब इस कुत्सित आचारणको छोड़ दो और अपनी निंदा गर्दा करके फिरसे मुनियोंका श्रेष्ठ आचारण ग्रहण कर लो। इन वचनोंको सुन कर उनके एक प्रधान शिष्यने कहा कि अब उस दुर्धर आचरणको कौन धारण कर सकता है ? उपवास, भोजनका न मिलना, तरह तरहके दुस्सह अन्तराय, एक स्थान, अचेलता मौन, ब्रह्मचर्य, भूमि पर सोना, हर दो महीनेमें केशोंका लोच करना, वाइस Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका परीषहोंको सहना आदि बड़े ही कठिन आचरण हैं। इस समय हम लोगोंने जो आचरण ग्रहण कर रक्खा है वह इस लोकमें भी सुखदायक है। इस पंचम कालमें हम उसे नहीं छोड़ सकते । तब शान्त्याचार्यने कहा कि चारित्रसे भ्रष्ट जीवन अच्छा नहीं, यह जैन मार्गको दूषित करता है। जिनवर भगवानने निम्रन्थ प्रवचनको ही श्रेष्ठ कहा है, उसको छोड़कर अन्य मार्गका अवलम्बन लेना मिथ्यात्व है। इस पर रुष्ट होकर उस शिष्यने अपने दीर्घ दण्डसे गुरुके सिर पर प्रहार किया जिससे मरकर वह व्यन्तर हो गया। तब वह शिष्य संघका स्वामी बन गया और प्रकृट रूपसे श्वेताम्बर हो गया। वह लोगोंको उपदेश देने लगा और कहने लगा-सग्रन्थ लिंगसे मोक्षकी प्राप्ति होती है। अपने अपने ग्रहण किये हुए पाषण्डोंके सदृश उन लोगोंने शास्त्रोंको रचना को और उनका व्याख्यान करके लोगोंमें उसी प्रकारके आचरणकी प्रवृत्ति चला दी। (भाव सं०, गा०५३-७०)। हरिषेणकृत वृहत्कथाकोशसे भद्रबाहुकी कथाका कुछ अंश श्रुतकेवली भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त मौर्यके प्रकरणमें दे आए हैं। जिसमें दुर्भिक्षके कारण श्रुतकेवली भद्रबाहुसे चन्द्रगुप्तके दीक्षा लेने और उसका विशाखाचार्य नाम होने तथा उसके साथ संघके दक्षिणा पथको चले जानेका निर्देश है। आगेकी कथा इस प्रकार है-'सुभिक्ष हो जाने पर भद्रबाहु गुरुका शिष्य विशाखाचार्य समस्त संघके साथ दक्षिणापथके देशसे मध्य देशमें लौट आया। रामिल्ल, स्थविर स्थूल और भद्राचार्य तीनों दुर्भिक्ष कालमें सिन्धु देशमें चले गये थे । इन्होंने वहाँसे लौटकर कहा कि वहाँ के लोग दुर्भिक्ष पीड़ितोंके हल्लेके कारण दिनमें नहीं खा पाते थे, इससे रातको खाते थे। उन्होंने हमसे कहा कि आप लोग भी रातके समय हमारे घरसे पात्र लेकर आहार ले जाया करें। उन लोगों Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद ३७७ के ऐसा कहने पर हम लोग वैसा करने लगे । एक दिन एक कृशकाय निर्ग्रन्थ साधु हाथमें भिक्षा पात्र लेकर श्रावक के घर गया । अँधेरे में उस नग्न मुनिको देखकर एक गर्भिणी श्राविकाका, जो नई आई थी भयसे गर्भपात हो गया। तब श्रावकों ने आकर साधुओंसे कहा - 'समय बड़ा खराब है। जब तक स्थिति ठीक नहीं होती तब तक आप लोग बायें हाथ से अर्ध फालक ( आधे वस्त्र खण्ड ) को आगे करके और दाहिने हाथ में भिक्षा पात्र लेकर रात्रि में आहार लेनेके लिये आया करें। जब सुभिक्ष हो जायेगा तो प्रायश्चित लेकर पुनः अपने तपमें संलग्न हो जाना' | श्रावकों का वचन सुनकर यतिगण वैसा करने लगे । जब सुभित हो गया तो रामिल्ल, स्थविर स्थूल और भद्राचार्यने सकल संघको बुलाकर कहा- अब आप लोग अर्धफालकको छोड़कर निथरूपताको धारण करें। उनके वचनोंको सुनकर कुछ साधुओंने निग्रन्थ रूप धारण कर लिया । रामिल्ल, स्थविर स्थूल और भद्राचार्य भी विशाखाचार्य के पास गये और उन्होंने अर्ध वस्त्र को छोड़कर मुनिका रूप नैयन्ध्य धारण कर लिया । जिन्हें गुरुका वचन रुचिकर प्रतीत नहीं हुआ, उन शक्तिहीनोंने जिनकल्प और स्थविर कल्पका भेद करके अर्धफालक सम्प्रदायका चलन किया । सौराष्ट्र देशमें वलभी नामकी नगरी है । उसमें वप्रवाद नाम का मिध्यादृष्टि राजा राज्य करता था । उसकी पटरानीका नाम स्वामिनी था । वह अर्धफालक वाले साधुओं की भक्त थी । एक दिन राजा अपनी रानी के साथ महल में बैठा हुआ गवाक्षोंके द्वारा अपने नगरकी शोभा देखता था । उसी समय अर्धपालक संघ भिक्षाके निमित्त से राजाके महल में आया । अर्धफालक संघको Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० ३७८ न देखकर राजाको बड़ा कौतुक हुआ और वह अपनी रानीसे बोला देवि ! तुम्हारा यह अर्धफालक संघ तो ठीक नहीं प्रतीत होता, तो यह वसे वेष्ठित ही है और न नग्न ही है । एक दिन राजाने उस संघसे कहा कि तुम लोग अर्धवस्त्रको छोड़कर निन्थताको अपना लो । यदि निर्ग्रन्थ रूपको धारण करने में तुम लोग असमर्थ हो तो इस अर्धफालककी विडम्बनाको छोड़कर मेरे आदेश से अपने शरीरको ऋजु वस्त्रसे ढांककर विहार करो। उस दिनसे प्रवाद राजाकी आज्ञासे प्रेमीहृदय लाट देश वासियोंका काम्बल तीर्थ प्रवर्तित हुआ । इसके पश्चात् दक्षिणापथ में स्थित सावलिपत्तनमें उस काम्बल सम्प्रदायसे यापनीय संघ उत्पन्न हुआ ।' ० सा० इ० - पूर्व पीठिका Jain Educationa International भट्टारक रत्ननन्दिने सम्भवतः देवसेन और हरिषेणकी कथाओंको सम्बद्ध करके अपने भद्रबाहु चरित्रको लिखा है । इसीसे उनकी कथामें परिवर्तन भी देखा जाता है। उनके परिवर्तित कथा भागका संक्षिप्त रूप इस प्रकार है- 'भद्रबाहु स्वामी - की भविष्य वाणी होनेपर बारह हजार साधु उनके साथ दक्षिणकी भोर विहार कर गये । परन्तु रामल्य, स्थूलाचार्य और स्थूलभद्र आदि मुनि उज्जैनीमें ही रह गये । दुर्भिक्ष पड़ने पर उनके शिष्य विशाखाचार्य आदि लौटकर उज्जैनी श्राये । उस समय स्थूलाच ने अपने साथियोंसे कहा कि शिथिलाचार छोड़ दो। पर उन्होंने क्रोधित होकर स्थलाचार्यको मार डाला। इन शिथिलाचारियोंसे अर्धंफालक सम्प्रदायका जन्म हुआ। इसके बहुत समय बाद उज्जयिनीमें चन्द्रकीर्ति नामका राजा हुआ । उसकी कन्या वलभीपुरके राजाको ब्याही गई । उस कन्याने अर्धफालक साधु के पास विद्याध्ययन किया था, इसलिये वह उनकी भक्त थी । एक बार उसने अपने पति से उन साधुओं को अपने यहाँ For Personal and Private Use Only Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य काल गणना ३७६ बुलानेके लिये कहा। राजाने बुलानेकी आज्ञा दे दी। वे पाये और उनका खूब स्वागत सत्कार हुआ। परन्तु राजाको उनका वेष अच्छा न लगा। वे रहते तो थे नग्न, पर ऊपर वस्र रखते थे। रानीने अपने पतिके मनका भाव जानकर साधुओंके पास पहिननेके लिये श्वेतवस्त्र भेज दिये। साधुओंने भी उन्हें स्वीकार कर लिया। उस दिनसे वे सब साधु श्वेताम्बर कहलाने लगे। उनमें जो प्रधान था उसका नाम जिनचन्द्र था।' ऐतिहासिक दृष्टिसे इन कथाओंका मूल्यांकन करनेके लिये उनमें वर्णित बातोंके सम्बन्धमें थोड़ा प्रकाश डाल देना उचित होगा। ___ उक्त कथाओं में जहाँ तक भद्रबाहु श्रुतकेवलीके समयमें बारह वर्षके दुर्भिक्ष पड़ने तथा संघके साथ उनके दक्षिणापथको जानेका प्रश्न है, उसके सम्बन्धमें हम पिछले प्रकरणमें लिख आये हैं। अतः उसके सम्बन्धमें यहाँ कुछ न लिखकर शेष बातोपर प्रकाश डालते हैं। उत्तर प्रांतमें ही रह जाने वाले साधुओंमें तीन को प्रमुख बतलाया है-रामिल्ल, स्थविर स्थूल और भद्राचार्य इनमें से एक रामिल्ल नामके किसी साधुका पता श्वेताम्बर परम्परामें नहीं चलता। हाँ, स्थविर स्थूलभद्र भद्रबाहुके समकालीन और उत्तराधिकारी माने गये हैं। तथा दिगम्बर परम्परामें श्रुतकेवली भद्रबाहुको जो स्थान प्राप्त है, वहो स्थान श्वेताम्बर परम्परामें स्थूलभद्रको प्राप्त है। श्वेताम्बर सम्प्रदायकी आचार्य परम्पराका आरम्भ श्रुतकेवली भद्रबाहुसे न होकर स्थूलभद्रसे होता है। उनके यहाँ श्रु त केवली भद्रबाहुकी शिष्य परम्पराका १–'तं जहा-थेरस्स ण अज्जजसभहस्स""अंतेवासो दुबे थे। थेरे अज संभूअविजए थेरे अज भद्दवाहू"। थेरस्स णं अज Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका अभाव है। और स्थूलभद्र'को अन्तिम श्रुतकेवली लिखा है। अतः भद्रबाहुके समय उत्तर भारतमें रह जानेवाले मुनियोंके प्रधानके रूपमें स्थूलभद्रका नाम तो इतिहास सिद्ध है। किन्तु सुभिक्ष हो जाने पर जो स्थूलभद्रका पुनः विशाखाचार्यका अनुयायी निम्रन्थ होना बतलाया गया है, वह ठीक नहीं है। स्थूलभद्र तथोक्त स्थविर परम्पराके ही अनुयायी बने रहे और इसीसे उन्हें श्वेताम्बर परम्परामें अग्रस्थान प्राप्त हुआ। हरिषेणने 'रामिल्लः स्थविरो योगी भद्राचार्योऽप्यमी त्रयः' लिख कर उनकी संख्या तीन बतलाई है और आगे 'रामिल्लस्थविर स्थूल भद्राचार्याः' लिखा है। वैसे स्थविर स्थूल भद्राचार्य एक ही व्यक्तिका नाम हो सकता है क्योंकि उक्त स्थूलभद्र आचार्य स्थविर थे और योगी भी थे। उन्होने योगकी प्रक्रियाके द्वारा सिंहका रूप धारण करके अपनी बहनको डरा दिया था। किंतु हरिषेण तीनकी गणना करते हैं, इसलिये भद्राचार्यको पृथक् नाम मान करके उससे जिनभद्र गणि क्षमा श्रमणका ग्रहण होना सम्भव है क्योंकि देवसेनने श्वेताम्बर पक्षके प्रमुखका नाम 'जिनचन्द्र' लिखा है। इसमें 'जिन' नाम है और भद्र या चन्द्र उसका पूरक है। जिनभद्र के सम्बन्धमें हम लिख आए हैं कि वे श्वेताम्बर सम्प्रदायके प्रबल पोषक प्राचीन आचार्योंमेंसे अन्यतम थे । किन्तु उनका समय स्थूलभद्रसे लगभग नौ शताब्दी पश्चात् है। किन्तु संभूथ विजयस्स" अंतेवासी थेरे अज्ज थूलभद्दे "। थेरस्स णं अज थूलभद्दस्स"अंतेवासी दुबे थेरा॥' -क० सू० स्थविः । १-'योगीन्द्रः स्थूलभद्रोऽभूदथान्त्यः श्रुतकेवली ।' -पट्टा० समु०, पृ० २५ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद जिनभद्र और हरिषेणके बीचमें लगभग तीन शताब्दियोंका अन्तर है। अतः सम्भव है उनका नाम सुनकर हरिषेणने उन्हें भी स्थूलभद्रका सहयोगी समझ लिया हो। अस्तु, देवसेन सूरिकी कथामें दुर्भिक्षके समय वलभी नगरीमें गये हुए साधुओंका दुर्भिक्षके कारण वस्त्र पात्र कम्बल आदि ग्रहण करना बतलाया गया है। किन्तु हरिषेणकृत कथा में पहले अर्धफालक सम्प्रदायकी उत्पत्ति बतलाई है अर्थात् शिथिलाचारी साधु बायें हाथ पर वस्त्र खण्ड लटकाकर आगे कर लेते थे-जिससे नग्नताका आवरण हो जाता था-पीछे वलभी नगरीमें उन्होंने पूरा शरीर ढाकना शुरु कर दिया और कम्बल वगैरह रखने लगे। देवसेनकी कथाके उक्त अंशसे हरिषेणकी कथाका अर्धफालक वाला उक्त अंश बुद्धिग्राह्य तो है ही , मथुरासे प्राप्त पुरातत्त्वसे भी उसका समर्थन होता है। अधफालक सम्प्रदाय जै० हि० भाग १३, अङ्क ६-१० में श्री नाथूराम जी प्रेमीने दर्शनसारकी विवेचनाके परिशिष्टमें रत्ननन्दिके भद्रबाहु चरित्र में आगत उक्त कथाका विश्लेषण करते हुए लिखा था-दिगम्बर ग्रन्थोंके अनुसार भद्रबाहु श्रुतकेवलीका शरीरान्त वीर निर्वाण सम्वत् १६२ में हुआ है और श्वेताम्बरोंकी उत्पत्ति वीर नि० सं० ६०३ (विक्रम संवत् १३६ ) में हुई है। दोनोंके बीच में कोई साढ़े चार सौ वर्षका अन्तर है। रत्ननन्दि जीको इसे पूरा करनेकी चिन्ता हुई पर और कोई उपाय न था इस कारण उन्होंने भद्रबाहुके समयमें दुर्भिक्षके कारण जो मत चला था, उसको श्वेताम्बर न कहकर अर्धफालक कह दिया और उसके बहुत वर्षों बाद ( साढ़े चार सौ वर्षके बाद) इसी अर्धफालक सम्प्रदाय Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ जै० सा० इ० - पूर्व पीठिका के 'साधु जिनचन्द्र के सम्बन्धकी एक कथा और गढ़ दी और उसके द्वारा श्वेताम्बर मतको चला हुआ बतला दिया । वास्तव में फालक नामका कोई भी सम्प्रदाय नहीं हुआ । भद्रबाहु चरित्र से पहले किसी भी ग्रन्थ में इसका उल्लेख नहीं मिलता। यह भट्टारक रत्ननन्दिकी खुदकी 'ईजाद' है ।' उस समय तक हरिषेण कृत कथाकोश प्रकाश में नहीं आया था। संभवतः इसीसे प्रेमी जीने अर्धफालक संप्रदायको रत्ननन्दिकी खुदकी ईजाद लिख डाला। किंतु हरिषेण कृत कथाकोश से यह स्पष्ट है कि रत्ननन्दिने अपनी कथामें 'खुदकी ईजाद' नहीं घुसेड़ी, जो कुछ लिखा है वह उन्हें परम्परासे ही प्राप्त हुआ था । अतः रत्ननन्दि से कई शताब्दि पूर्व दसवीं शती में अर्धफालक सम्प्रदायका अस्तित्व माना जाता था, हरिषेणके 'कथाकोशसे यह स्पष्ट है । यदि उसे किसीकी 'ईजाद' कहा जा सकता है तो वह व्यक्ति आचार्य हरिषेण हैं । किंतु जैसे अर्धफालक सम्प्रदायको रत्ननन्दिकी 'ईजाद' करार देनेमें जल्दबाजी की गई, यदि वैसी ही जल्दबाजी उसे हरिषेणकी ईजाद करार देने में की गई तो यह दूसरी बड़ी भूल होगी; क्योंकि यद्यपि हरिषेणसे पहले के किसी ग्रन्थ में इस सम्प्रदायका कोई निर्देश अभी तक नहीं मिला है, किन्तु मथुरा के कंकाली टीले से प्राप्त जैन अवशेषोंमेंसे एक शिलापट्ट में १ - कथाकोश में कहा है कि जब तक सुभिक्ष न हो साधु अपने बाएँ हाथसे वस्त्रको आगे करके तथा दाहिने हाथ में भिक्षापात्र लेकर श्राहारके लिये निकलें । यथा- यावन्न शोभनः कालः जायते साधवः स्फुटम् । तावच्च वामहस्तेन पुरः कृत्वाऽर्धफालकम् ॥५८॥ २ - आजकल यह शिलापट्ट लखनऊ के संग्रहालय में सुरक्षित है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सघ भेद ३८३ एक जैन साधु बिल्कुल उसी रूपमें अङ्कित है जिस रूपका निर्देश कथाकोशमें किया गया है। और उसे जैनयति कृष्णकी मूर्ति बतलाया है। 'जैन साहित्यनो इतिहास' में उसके सम्बन्ध में इस प्रकार परिचय दिया गया है 'आ ऐक जैन स्तूप नो भाग छे के जे उक्त मथुरानी कंकाली तीला टेकरीमांथी निकलेल छे । ते स्तूपना वे भाग पाडेला छे । उपलो भाग सांकड़ो छे अने तेना मध्यमां स्तूपनी आकृति छे स्तूपनी बने बाजुए जिननी बच्चे श्राकृतिओ छे । कुल ते चार आकृति ( मूर्ति ) छेल्ला चार तीर्थङ्कर नमि, नेमि, पार्श्व ने वर्धमाननी छे। नीचे ना भागमां कहनी मूर्ति छे के जेना मानमां श्रा स्तूप बनाववामां आव्यो हतो | कहनी मूर्तिने वस्त्र पहेरावेलां होता थी ते श्व ेताम्बर मूर्ति मानी शकाय । आमां आवेल मूल लेख कोई अनिर्णीत लिपिमां छे । आरंभमां ६५ नी साल होवानुं जणाय छे के जे बखते वासुदेवनु राज्य हतुं ।' इसमें बतलाया है कि नीचे के भागमें करहकी मूर्ति है जिसके सन्मानमें यह स्तूप बनाया गया। करहकी मूर्ति वस्त्र पहिने होने से उसे श्वेताम्बर मूर्ति कहा जा सकता है। इसमें का मूल लेख किसी ऐसी लिपिमें है जिसका निर्णय नहीं हो सका, सम्वत् ६५ के साल में जब वासुदेवका राज्य था तबकी यह होनी चाहिये ।' इसमें श्री देसाई जीने करहकी मूर्तिको वस्त्र पहिने होनेसे श्वेताम्बर होना तो स्वीकार्य कर लिया किंतु उसके वस्त्र धारण के | ढंगके विषय में कुछ नहीं लिखा । श्री चिम्मनलाल शाहने भी १ १ - भिक्षापात्रं समादाय दक्षिणेन करेण च । गृहीत्वा नतमाहारं कुरुध्वं ० ना० इं० Jain Educationa International भोजनं दिने ॥ ५६ ॥ - हरि० क० को०, पृ० ३१८ For Personal and Private Use Only Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका इस विषयमें मौन धारण कर लिया है। किन्तु श्री वुहलरने (इं० एण्टि०, जि० २, पृ० ३१६ ) लिखा था-नेमिष देवताके बाएँ घुटनेके पास एक छोटी सी आकृति नंगे मनुष्यकी है जो बाएँ हाथमें वस्त्र होनेसे तथा दाहिना हाथ ऊपरको उठा होनेसे एक साधु मालूम होता है। लखनऊ संग्रहालयके तत्कालीन अध्यक्ष डा. वासुदेव शरण अग्रवालने उक्त शिलापट्टके सम्बन्धमें लिखा था-पट्टके ऊपरी भागमें स्तूपके दो ओर चार तीर्थङ्कर हैं, जिनमेंसे तीसरे पाश्वनाथ ( सर्पफणालंकृत ) और चौथे संभवतः भगवान महावीर हैं। पहले दो ऋषभनाथ और नेमिनाथ हो सकते हैं। पर तीर्थङ्कर मूर्तिर्योंपर न कोई चिन्ह है और न वस्त्र । पट्टमें नीचे एक स्त्री और उसके सामने एक नग्न श्रमण खुदा हुआ है। वह एक हाथ में सम्मानी और बाएँ हाथमें एक कपड़ा ( लंगोट ) लिए हुए है, शेष शरीर नग्न है। (जै० सि० भा०, भाग १०, कि० २, पृ० ८० का फुटनोट)। चित्रके देखनेसे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि कण्हने बाएँ हाथसे वस्त्र खण्डको मध्यसे पकड़ा हुआ है और सामने करके उससे उन्होंने अपनी नग्नता मात्रको छिपाया हुआ है। संभवतः श्वेताम्बर सम्प्रदायके पूर्वज अर्धफालक सम्प्रदायका यही रूप था। यह सम्भव है कि उसे अर्धफालक सम्प्रदाय नामसे न कहा जाता हो और दिगम्बरोंने ही वस्त्र खण्ड रखनेके कारण उन्हें यह नाम दे दिया हो । मगर श्वेताम्बर साधुओंका प्रारम्भिक रूप यही प्रतीत होता है । क्योंकि श्वेताम्बराचार्य हरिभद्र के संबोध प्रकरणसे प्रकट होता है कि विक्रमकी ७वीं ८वीं शताब्दी तक श्वेतांबर साधु भी मात्र एक कटिवस्त्र ही रखते थे। तथा जो साधु उस कटिवस्त्रका उपयोग Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद ३८५ निष्कारण करता था वह कुसाधु माना जाता था । तथा प्रारम्भ में शरीरका गुह्य अंग ही ढांकनेका विशेष खयाल रहता था । गुह्य अङ्गके ढाकने वाले वस्त्र खण्डको 'चोलपट्ट कहते थे । चोलपट्टका' प्रमाण स्थविर के लिये दो हाथ और युवाके लिये चार हाथ था । तथा वह चौकोर होता था । हमारे विचार से चुल्लपटसे चोलपट्ट शब्द बना प्रतीत होता है। चुल्ल' का अर्थ हैद्र । अतः चुल्ल पट्टा अर्थात् क्षुद्र वस्त्र होता है । प्रारम्भ में वस्त्रको दाहिने हाथ से पकड़कर नग्नताको ढांका जाता होगा जैसा कि मथुरासे प्राप्त करके शिलापट्ट पर अङ्कित चित्र स्पष्ट है । पीछे उसे धागेके द्वारा कमरमें बांधा जाने लगा होगा। आर्य रक्षित के पिता सोमदेवका श्व ेताम्बर साहित्य में जो वर्णन पाया जाता है उससे भी यही प्रकट होता है । सोमदेव अन्य सब उपकरणोको छोड़ने के लिये तैयार हो जाता है परन्तु अधोवस्त्र छोड़ने के लिये तैयार नहीं होता । तब आर्य रक्षित बड़े कौशल से उससे धोती छुड़वाते हैं और धोतीकी जगह कटिमें धागे से चोलपट्ट बँधवा देते हैं । यह घटना विक्रमकी दूसरी शताब्दी के आरम्भकी बतलाई जाती है। उधर मथुरासे प्राप्त आयागपट्ट भी लगभग उसी समयका है । उसपर सं० ६५ अति है । उस समय कौशाण वंशके अन्तिम सम्राट वासुदेवका राज्य था । अतः अर्धस्फालक सम्प्रदायका अस्तित्व किसीकी कल्पनाका विषय न होकर वास्तविक ही है और वही वर्तमान श्वेताम्बर १ 'चोलस्य पुरुषचिन्हस्य परः प्रावरणवस्त्र चोलपदृः' । - श्रमि० रा० । २ दुगुणो चउग्गुणो वा हत्थो चउरंस चोलपट्टीय । थेर जुवाणट्ठा वा सण्हे थूलम्मि य विभासा ॥ २२० ॥ २५ Jain Educationa International - प्रव० सारो० ६१ द्वार । For Personal and Private Use Only Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ जै० सा० इ०-पूर्व ठिका सम्प्रदायका पूर्वज भी है। अतः हरिषेणका कथन वास्तविक ही प्रतीत होता है। किन्तु कथामें जिस ढंगसे अर्धफालकसे श्वेताम्बर सम्प्रदायकी उत्पत्ति बतलाई है उसमें वास्तविकताकी प्रतीति नहीं होती। किसी नगरीके राजाके आदेश मात्रसे अर्धेफालकसे श्वेताम्बर बन जाना संभव प्रतीत नहीं होता। असलमें शिथिलाचारिता एक ऐसी वस्तु है जिसका प्रवेश होनेपर यदि उसे न रोका गया तो उसका बढ़ना ही स्वाभाविक है। विनयपिटकका महावग्ग इसपर अच्छा प्रकाश डालता है। बौद्ध संघमें साधु पहले फटे चिथड़े ही धारण करते थे, गृहस्थों के द्वारा दिये गये चीवर धारण करनेका नियम नहीं था। बुद्धने जब गृहपति चीवर धारण करनेकी आज्ञा दे दी तो उसके पश्चात् वस्त्रोंका ढेर लग गया। यही स्थिति हम श्वेताम्बर सम्प्रदायमें भी पाते हैं। पं० बेचरदास जीने 'जैन साहित्यमें विकार' नामक पुस्तकके 'श्वेताम्बर दिगम्बरवाद' नामक अध्यायमें इस पर साधार प्रकाश डाला है। अतः कथाका वह अंश ‘कविकी ईजाद' हो तो आश्चर्य नहीं है । किन्तु वलभी नगरीमें श्वेताम्बर सम्प्रदायकी उत्पत्ति बतलानेमें अवश्य ही ऐतिहासिक तथ्य निहित है क्योंकि वर्तमानमें उपलब्ध श्वेताम्बरीय आगमोंका संकलन वलभी नगरीमें ही किया गया था। और उनकी संकलना तथा लेखनके पश्चात् श्वेताम्बर-दिगम्बर भेदकी एक ऐसी अटूट दीवार खड़ी हो गई जिसने दोनोंको सर्वदाके लिये पृथक कर दिया। इसीसे श्वेताम्बर सम्प्रदायकी उत्पत्ति वलभी नगरीमें बतलाई गई प्रतीत होती है। उक्त कथामें एक उल्लेखनीय बात यह भी है कि उसमें जिन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद ३८७ १ कल्प और स्थविर कल्पके भेदको पीछेसे कल्पित बतलाया है और श्वेताम्बरीय आगमिक साहित्य के अवलोकनसे भी उसका समर्थन होता है । आचारांग सूत्र में तो ये दोनों भेद हैं ही नहीं, अन्य भी प्राचीन अंगों में नहीं हैं। हाँ, कल्पसूत्र नियुक्ति में हैं । और इसलिये उसे उसी समयकी उपज कहा जा सकता है । उक्त कथा पर एक आपत्ति यह की आती है कि उसमें संघ उज्जैनीसे दक्षिणकी ओर गया ऐसा लिखा है । डा० फ्लीटका कहना है कि संघकी दक्षिण यात्रा ऐतिहासिक सत्य है, चाहे वह उज्जैनी से गया हो या और कहींसे । ( इण्डि०, एण्टि०, जिल्द २१, पृ० १५६ ) " अब हम श्वेताम्बर साहित्यसे उस कथाको देते हैं जिसमें बोटिक सम्प्रदायकी उत्पत्ति बतलाई है । १ - 'इष्टं न यैगुरोर्वाक्यं संसारार्णवतारकम् । जिन स्थविरकल्पं च विधाय द्विविधं भुवि ॥६७॥ अर्धफालक संयुक्तमज्ञातपरमार्थकै । तैरिदं कल्पितं तीर्थं कातरैः शक्तिवर्जितैः ॥ ६८ ॥ - हरि० क० को० । २ - 'छव्वाससयाइं नवुत्तराई तहश्रा सिद्धिं गयस्त वीरस्स । तो वोडियाण दिट्ठी रहवीरपुरे समुप्परगा ॥। २५५० ॥ रहवीरपुरं नगरं दीवगमुजाण मजकरहे य । सिवभूईस्सुवहिम्मि पुच्छा थेराण कहणा य ।। २५५१ ।। बोडियशिवभूईश्रो वोडियलिंगस्स होई उपपत्ती । कोडिन कोट्टवीरा परंपराफासमुप्पन्ना || २५५२ ।। - विशे० भा० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ जै० सा० इ० पूर्व पीठिका रथवीरपुरमें शिवभूति नामका एक क्षत्रिय रहता था। उसने अपने राजाके लिये अनेक युद्ध जीते थे। इसलिये राजा उसका विशेष सन्मान करता था , और इससे वह बड़ा घमण्डी हो गया था और रात्रिको बहुत विलम्बसे घर आता था। एक दिन वह बहुत रात गये घर लौटा । उसकी मांने द्वार नहीं खोला और उसे खूब बुरा भला कहा। तब वह साधुओंके उपाश्रयमें चला गया और उनसे व्रत देनेकी प्रार्थना की। साधुओंने उसे व्रत नहीं दिये। तब वह स्वयं :केशलोच करके साधु बन गया। राजाने शिवभूतिको एक बहुमूल्य रत्नकम्बल दिया। प्राचार्यने उसे लेनेसे मना किया। किन्तु शिवभूति नहीं माना। एक दिन आचार्यने शिवभूतिकी अनुपस्थितिमें उस रत्नकम्बलको फाड़कर उसके पैर पोंछनेके श्रासन बना डाले। इससे शिवभूति रुष्ट हो गया। एक दिन श्राचार्य जिन कल्पका वर्णन कर रहे थे। उसे सुनकर शिवभूति बोला-आजकल इतनी परिग्रह क्यों रखते हैं ? जिनकल्पको क्यों नहीं धारण करते ? आचार्यने उत्तर दिया-जम्बू स्वामी के पश्चात् जिन कल्पका विच्छेद हो गया। संहनन आदिके अभावमें आजकल उसका धारण करना शक्य नहीं है। इसपर शिवभूति बोला-'मेरे रहते हुए जिनकल्पका विच्छेद कैसे हो सकता है, मैं ही उसे धारण करूँगा। आचार्य तथा स्थविरोंने उसे बहुत समझाया किन्तु वह नहीं माना और वस्त्र त्याग कर चला गया। उसकी बहन उसे नमस्कार करनेके लिये गई। वह भी उसे देखकर नंगी हो गई। जब वह भिक्षाके लिये नगरमें गई तो एक गणिकाने उसे वस्त्र पहिना दिया। नंगी स्त्री बड़ी बीभत्स लगती है, यह सोचकर शिवभूतिने भी उसे सवस्त्र रहनेकी आज्ञा दे दी। पश्चात् शिवभूतिने कौडिन्य और कोट्टवीर नामके दो व्यक्तियोंको अपना शिष्य बनाया। इस तरह वीर निर्वाणके ६०६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद ३८९ वर्ष बीतनेपर रथवीरपुरमें बोटिक शिवभूतिसे बोटिकोंका मत उत्पन्न हुआ। श्वेताम्बर परम्पराके अनुसार भगवान महावीरके तीर्थकालमें सात निन्हव उत्पन्न हुए। आगमकी यथार्थ बातको छिपाकर अन्यथा कथन करनेको निन्हव कहते हैं। इस तरहकी घटनाएँ सम्प्रदायोंकी उत्पत्तिमें कारण हुआ करती हैं। किन्तु इन सात निन्हवोंके कारण कोई नया सम्प्रदाय उत्पन्न नहीं हुआ और एकको छोड़कर शेष सभी निन्हवोंके कर्ता आचार्य समझानेसे मान गये। ____ स्थानांग' सूत्रमें सातो निन्हवोंके नाम, स्थान और कर्ता आचार्यों का निर्देश पाया जाता है। आवश्यक नियुक्ति में उनका काल भी दिया है। किन्तु स्थान और काल आठ निन्हवोंका दिया है। तथा उपसंहार करते हुए भी सात ही निन्हवोंका निर्देश किया १-'समणस्स णं भगवत्रो महावीरस्स तित्थंसि सत्त पवयणणिराहगा पण्णत्ता । तं जहा-बहुरया, जीवपएसिया, अव्वत्तिया, सामु. च्छेइया, दोकिरिया, तेरासिया, अबद्धिया। एएसिं णं सत्तण्हं पवयणणिण्हगाणं सत्त धम्मायरिया होत्था-जमाली, तिस्प्तगुत्ते, अासाढे, प्रासमित्ते, गंगे, छल्लुए, गोट्ठा माहिल्ले । एएसिं णं सत्तएहं पवयणणिराहगाणं सत्त उप्पत्तिनगरे होत्था। तं जहा-सावत्थी, उसभपुरं, सेयविया, मिहिल, उल्लुगातीरं पुरिमंतरंजि, दसपुर, णिण्हग उम्पत्ति नगराई ॥ -स्था०, सूत्र ५८७ । २-श्राव नि०, गा० ७७६-७८३ । ३-एवं एए कहिश्रा अोसप्पिणिए उ निण्या सत्त । वीरवररस पषयणे सेसाणं पवयणे नत्थि ॥७८४ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० जै० सा० इ० - पूर्व पीठिका 1 है । आव० नि० पर विशेषावश्यक भाष्यकार जिनभद्र गणि क्षमाश्रमणने अपने भाष्य में बतलाया है कि यह आठवाँ निन्हव वोटिक मत है, और उन्होंने ही वोटिक मतकी उत्पत्ति कथा भी दी हैं। इस तरह से इस आठवें निन्हवके जन्मदाता वे ही जान पड़ते हैं । और इसलिये दिगम्बर कथाओंके जिनभद्र ये जिनभद्र ही हो सकते हैं । उन्होंने ही सर्वप्रथम जम्बू स्वामीके पश्चात् जिनकल्प का विच्छेद होनेकी घोषणा की थी । कथामें भी यही बतलाया गया. है कि जिनकल्पका विच्छेद होनेके पश्चात् शिवभूतिने नग्न होकर जिनकल्पका प्रवर्तन किया और इस तरह वोटिक मत चल पड़ा । किन्तु इससे दिगम्बर मत अर्वाचीन प्रमाणित नहीं होता क्योंकि जब जिनकल्पको दिगम्बरत्वका प्रतिरूप माना गया है और जम्बूस्वामी तक उसका प्रचलन रहा है तथा उसे ही शिवभूतिने धारण किया तो उसने नवीन मत कैसे चलाया । जो पुराना था तथा एक पक्षने जिसके बिच्छेद होनेकी घोषणा कर दी थी। उसीका पुनः प्रवर्तन करना नवीन मतका चलाना तो नहीं है । यदि जिनकल्प पहले कभी प्रचलित न हुआ होता तथा जैन परम्परामें उसे आदर प्राप्त न हुआ होता तो उसे नवीन मत कहा जा सकता था । किन्तु उत्तरकालीन श्वेताम्बर साहित्य में जिनकल्पका समादर पाया जाता है । श्वताम्बरीय गमिक साहित्य के टीकाकारोंने प्रायः प्रत्येक कठिन चारको जिनकल्पका आचार बताया है। उसके सम्बन्ध में केवल इतना ही विरोध था कि पञ्चम कालमें उसका विच्छेद हो गया है, क्योंकि उसका धारण कर सकना शक्य नहीं है । सत्तेया दिट्ठोश्रो जाइजरा मरणगब्धवसहीणं । मूलं संसारस्य उ हवंति निग्गंथरूणं ॥ ७८६ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only - प्रा० नि० । Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद शिवभूतिको भी यही कहकर समझाया गया था। किन्तु उसने यही उत्तर दिया कि असमर्थके लिये जिनकल्पका विच्छेद भले हो हुआ हो समर्थके लिये उसका विच्छेद कैसे हो सकता है ? एक बात और भी है, दिगम्बर कथाओं में श्वेताम्बरोंकी बाबत प्रायः यही लिखा है कि जिनकल्पका धारण करना बड़ा कठिन है इसलिये हमने स्थबिर कल्पको धारण किया है । यही बात श्वे. ताम्बरीय कथामें भी प्रकारान्तरसे कही गई है। उससे संघभेदकी उत्पत्तिके आशयमें अन्तर नहीं पड़ता। दिगम्बर लेखक दिगम्बर वेशको जैन मुनिका साधारण प्राचार मानकर दुर्भिक्षजनित परिस्थितियोंके कारण उत्पन्न हुई शिथिलाचारिताको श्वेताम्बर सम्प्रदायकी उत्पत्तिका जनक बतलाते हैं। और श्वेताम्बर लेखक जम्बू स्वामी के पश्चात् विच्छिन्न हुए जिनकल्पका पुनः संस्थापन करनेको दिगम्बर मतकी उत्पत्तिका जनक बतलाते हैं। तथा जिनकल्पके विच्छेदका कारण काल आदिकी कठिनताको बतलाते हैं, जो कि अशक्तताका ही सूचक है। किन्तु दोनोंके आशयोंमें इस ऐक्यके होते हुए भी एक मौलिक अन्तर भी है । दिगम्बरोंके अनु. सार श्वेताम्बर सम्पदाय (साधुओंका वस्त्र परिधान ) कभी था ही नहीं, श्रुतकेवली भद्रबाहुके समयसे ही उसका प्रारम्भ हुआ। किन्तु श्वेताम्बरोंके अनुसार जिनकल्प (दिगम्बरत्व ) की प्रवृत्ति जम्बू स्वामी तक अविच्छिन्न रूपसे चली आती थी। उसके १-'उवहिविभागं सोऊ सिवभई अजकण्हगुरुमूले । जिणकप्पियाइयाण गुरुकीस नेयाणिं ॥२५५३।। जिणकप्प्योऽणुचरिजह नोच्छिन्नोत्ति भणिए पुणो भणइ । तदसत्तस्सोच्छिजउ बुच्छिजह किं समत्थस्स ।।२५५४।। -विशे० भा० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ जै० सा० इ० - पूर्व पोठिका पश्चात् ही उसका विच्छेद हुआ, और शिवभूतिने उसे पुनः प्रच लित करके दिगम्बर सम्प्रदाय की सृष्टि की। अतः जब दिगम्बरोंके अनुसार श्वेताम्बर सम्प्रदाय नया है । तब श्व ेताम्बरों के अनु सार दिगम्बर पन्थ नया नहीं है किन्तु अति प्राचीन है । केवल बीच में ही उसका विच्छेद हो गया था । तः श्वताम्बर कथा के अनुसार भी दिगम्बर पन्थ नया प्रमाणित नहीं होता । किन्तु उसमें जो जम्बू स्वामीके पश्चात् ही जिनकल्पका विच्छेद तथा शिवभूतिके द्वारा उसकी पुनः प्रवृत्ति आदि बतलाई है उसका समर्थन अन्य स्रोतोंसे नहीं होता और न यह बात ही गले उतरती है कि आदर्श मार्गका एकदम लोप हो जाये तथा अपवाद मार्गका सार्वत्रिक चलन हो जाये । और फिर एक शिवभूतिके द्वारा, जो न तो ऐतिहासिक व्यक्ति ही है और न कई प्रभावशाली पुरुष ही प्रतीत होता है, पुनः दिगम्बर मार्गका प्रचलन इतने जोरोंसे हो जाये । इन्हीं कारणों से किसी ऐतिहासज्ञ विद्वानने संघ भेदकी उत्पत्तिमें व ेताम्बर कथाको प्रश्रय नहीं दिया जब कि दिगम्बर कथाकी घटनाको अनेक इतिहासज्ञोंने स्थान दिया है। १ - नीचे कुछ इतिहासज्ञोंके मत दिये जाते हैं कैम्ब्रिज हिस्ट्री में भद्रबाहु के दक्षिणगमनका निर्देश करके आगे लिखा है - 'यह समय जैन संघके लिये दुर्भाग्यपूर्ण प्रतीत होता है और इसमें कोई सन्देह नहीं है कि ईस्वी पूर्व ३०० के लगभग महान संघभेद का उद्गम हुआ जिसने जैन संघको श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदायों में विभाजित कर दिया । दक्षिण से लौटे हुए साधुत्रोंने, जिन्होंने दुर्भिक्ष काल में बड़ी कड़ाई के साथ अपने नियमोंका पालन किया था, मगध में Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद ३६३ उक्त आपत्तियोंके अतिरिक्त उक्त कथामें एक बड़ी आपत्ति यह है कि वह कथा वोटिक सम्प्रदायकी उत्पत्तिसे सम्बद्ध है। उसमें बतलाया' है कि वोटिक शिवभूतिसे वोटिक सम्प्रदाय उत्पन्न रह गये अन्य अपने साथी साधुअोंके प्राचारसे असन्तोष प्रकट किया; तथा उन्हें मिथ्या विश्वासी और अनुशासनहीन घोषित किया' । -कै• हि०, ( संस्क० १६५५) पृ० १४७ । श्रार० सी० मजूमदारने लिखा है-'जब भद्रबाहु के अनुयायी मगधसे लौटे तो एक बड़ा विवाद उठ खड़ा हुआ । नियमानुसार जैन साधु नग्न रहते थे किन्तु मगध के जैन साधुअोंने सफेद वस्त्र धारण करना प्रारम्भ कर दिया । दक्षिण भारतसे लौटे हुए जैन साधुअोंने इसका विरोध किया। क्योंकि वे पूर्ण नग्नताको महावीरकी शिक्षाओंका श्रावश्यक भाग मानते थे। विरोधका शान्त होना असम्भव पाया गया और इस तरह श्वेताम्बर (जिसके साधु सफेद वस्त्र धारण करते हैं ) और दिगम्बर (जिसके साधु एकदम नग्न रहते हैं) सम्प्रदाय उत्पन्न हुए । जैन समाज अाज भी दोनों सम्प्रदायोंमें विभाजित है ।'-एंशि० इं. पृ० १७६ । श्री पं० विश्वेश्वरनाथ रेऊने लिखा है-कुछ समय बाद जब अकाल निवृत्त हो गया और कर्नाटकसे जैन लोग वापिस लौटे तब उन्होंने देखा कि मगधके जैन साधु पीछेसे निश्चित किये गये धर्म ग्रन्थोंके अनुसार श्वे तवस्त्र पहनने लगे हैं। परन्तु कर्नाटकसे लौटनेवालोंने इस बातको नहीं माना। इससे वस्त्र पहनने वाले जैन साधु श्वेताम्बर और नग्न रहनेवाले दिगम्बर कहलाये।' -भा० प्रा० रा०, भाग २, पृ० ४१ । हा० .-पृ० ११, हि० इं० लि., (विन्टर ) जि० २, पृ० ४३१.३२ । १-वोडिय सिषभईश्रो वोडियलिंगस्स होइ उप्पत्ती'। -विसे० भा०, गा० २५५२ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका हुआ। वोटिकका अर्थ दिगम्बर जैन सम्प्रदाय कैसे किया गया और कैसे 'वोटिक' शब्द निष्पन्न हुआ, यह हम नहीं जानते; क्योंकि श्वेताम्बर साहित्यमें इस विषयका कोई स्पष्टीकरण हमारे देखनेमें नहीं आया । शिवभूतिको भी वोटिक कहा गया है। शायद इसीसे उसके द्वारा प्रवर्तित सम्प्रदायको भी बोटिक संज्ञा दी गई है। किन्तु ऐसी स्थितिमें शिवभूतिके द्वारा प्रवर्तित वोटिक सम्प्रदाय ही दिगम्बर जैन सम्प्रदाय है, यह कैसे कहा जा सकता है । इसके सम्बन्धमें जर्मन ओरियन्टल सोसायटीके जर्नलमें डा० याकोवीने एक विस्तृत लेख प्रकाशित कराया था। उसमें उन्होंने लिखा है कि वोटिक संप्रदायकी उत्पत्ति दिगंबर संप्रदायके बहुत काल पश्चात् हुई है। तथा श्वेताम्बरोंसे दिगम्बरोंका पार्थक्य भद्रबाहुके समयसे क्रमशः हुआ है। खेद है कि जर्मन भाषामें होनेके कारण हम उस लेखके विषयसे पूर्ण रूपसे परिचित नहीं हो सके। फिर भ' उसके उक्त सारांशसे यह स्पष्ट है कि जेकोबी वोटिक सम्प्रदाय को एक भिन्न सम्प्रदाय मानते थे। अतः श्वेताम्बर साहित्यकी उक्त कथासे दि० जैन सम्प्रदायकी उत्पत्ति प्रमाणित करना संभव नहीं है। और इसलिये उक्त आपत्तियों के प्रकाशमें प्रकृत विषय पर उक्त कथा असंगत ठहरती है। जब कि दिगम्बर साहित्यम पाई जाने वाली कथा अनेक दृष्टियोंसे सुसंगत प्रतीत होती है। संघभेदके मूल कारण वस्त्रपर विचार दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायोंको कथाओंसे तथा दोनोंके नामसे यह तो स्पष्ट है कि दोनों साधुओंके वस्त्र परिधान या नग्नताके विवादको ही संघ भेदका मूल कारण मानते हैं। अतः यहाँ साधुओंके वस्त्र परिधान के सम्बन्धमें विचार करना आवश्यक है। इस समस्याको दो कालोंमें विभाजित कर देना उचित होगा -एक भगवान महावीर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद ३६५ तथा उनके पूर्वका समय और एक भगवान महावीरके पश्चात्का समय । . भ० महावीर तथा उनके पूर्व वस्त्रकी स्थिति कतिपय विद्वानोंका ऐसा मत है कि भगवान महावीर सुधारक थे-उन्होंने भगवान पार्श्वनाथकी परम्परामें अनेक सुधार किये-चतुर्यामके स्थानमें पञ्चमहाव्रतकी परिपाटी प्रवर्तित की। इसी तरह पाव नाथकी सचेल परम्पराके स्थानमें अचेल परम्पराको स्थापित किया। यह मत उत्तराध्ययनके केशी गौतम संवादके आधार पर ही स्थापित हुआ है। ____ पार्श्वनाथके चतुर्यामकी चर्चा में केशी गौतम संवादका एक अंश ही हमने उद्धृत किया था और दूसरा अंश जो सचेलता और अचेलतासे सम्बद्ध है, आगेके लिये छोड़ दिया था। वह अंश इस प्रकार है-केशी गौतमसे पूछता है-'महावीरने अचे१-हा० जै०, पृ० ४६ । से० बु० ई०, जि० ४५, प्रस्तावना पृष्ठ २२। २-अचेलश्रो अ जो धम्मो जो इमो संतरुत्तरो । देसिश्रो वद्धमाणेणं पासेण य महामुणी ॥ २६ ॥ एककजपवन्नाणं विसेसे किनु कारणं । लिंगे दुविहे मेहावी ! कहं विप्पच्चो न ते ॥३०॥ केसिं एवं वुवाणं तु गोयमो इणमव्ववी। विन्नाणेण समागम्म, धम्मसाहणमिच्छियं ।। ३१ ।। पच्चयत्थं तु लोगस्स नाणाविहविगप्पणं । जत्तत्थं गहणत्यं च लोगे लिंगपोयणं ॥ ३२॥ अह भवे पइन्ना उ मोक्खसम्भूयसाहणा। णाणं च दंसणं चेव चरितं चेव निच्छए ॥ ३३ ॥ --उत्तरा०, २३ अ०। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका लक धर्मका उपदेश दिया और पार्श्वनाथने 'संतरुत्तर' धर्मका उपदेश दिया। एक ही मोक्षकार्यके लिये दो प्रकारका लिंग बतलानेकी क्या आवश्यकता थी ? गौतम उत्तर देते हैं-पार्श्वनाथ और महावीरने अपने अपने ज्ञानसे जानकर धर्मके साधन बतलाये हैं। तथा लोगोंके विश्वासके लिये, लोकयात्राके लिये और ज्ञानको प्राप्तिके लिये लिंगकी आवश्यकता होती है। निश्चयसे तो ज्ञान, दर्शन और चरित्र ही मोक्षके साधन हैं। ___ गौतमके द्वारा केशोके प्रश्नका जो समाधान कराया गया है वह बहुत चलता हुआ सा है। अतः उसके सम्बन्धमें कुछ कहनेसे पहले केशीके प्रश्न पर प्रकाश डालना उचित प्रतीत होता है। केशीने भगवान महावीरके धर्मको अचेल बतलाया, सो ठीक ही है, इसके सम्बन्धमें यहाँ कुछ कहनेकी आवश्यकता नहीं है। केशीने पाश्वनाथके धर्मको 'संतरुत्तर' कहा है जिसका संस्कृत रूप 'सान्तरोत्तर' होता है। इस 'सान्तरोत्तर' शब्दकी व्याख्यामें भी टीकाकारोंने वही गड़बड़ी की है जो 'अचेल' शब्दकी व्याख्या में की गई है। हमारे सामने उत्तराध्ययनकी दो टीकाएँ वर्तमान हैं और दोनों में 'सान्तरोत्तर' का अर्थ किया गया है.-'सान्तर' अर्थात् वर्धमान स्वामीके साधुओंकी अपेक्षा प्रमाण और वर्णमें विशिष्ट तथा ३-'सान्तराणि-वर्द्धमानस्वामियत्यपेक्षया मानवर्णविशेषतः सवि. शेषाणि, उत्तराणि-महामूल्यतया प्रधानानि प्रक्रमात् वस्त्राणि यस्मिन्नसौ -सान्तरोत्तरो धर्मः देशितः'। - उत्तरा०, टी० नेमिचन्द, पृ० २६६ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद ३६७ 'उत्तर' अर्थात् महामूल्य होनेके कारण प्रधान, ऐसे वस्त्र जिसमें धारण किये जायें वह धर्म सान्तरोत्तर है। इसका आशय यह हुआ कि पार्श्वनाथके धर्ममें साधुओंको महामूल्यवान् और अपरिमित वस्त्र पहननेकी अनुज्ञा थी। इस व्याख्याके अनुसार केशी अवश्य ही राजसी वस्त्रोंमें होंगे। फिर भी अचेल गौतमको पार्श्वनाथके निग्रन्थ सम्प्रदायके उस आचार्यको देखकर रंचमात्र भी आश्चर्य नहीं हुआ, यह आश्चर्य है । असलमें टीकाकारोंने 'संतरुत्तर' का यह अर्थ 'अचेल' शब्दके अर्थको दृष्टिमें रखकर किया है। जब अचेलका अर्थ वस्त्राभावके स्थानमें क्रमशः कुत्सित चेल, अल्पचेल और अमूल्य चेल किया गया तो संतरुत्तर ( सान्तरोत्तर ) का अर्थ अपरिमित और महामूल्य वाले वस्त्र होना ही चाहिये था। किन्तु यह अर्थ करते समय टीकाकार यह शायद भूल ही गये कि आचारांग सूत्र २०६ में भी 'संतरुत्तर' पद आया है और वहाँ उसका अर्थ क्या लिया गया है ? __ तीन वस्त्रधारी साधुके लिये आचारांगमें बतलाया है कि जब शीत ऋतु बीत जाये और ग्रीष्म ऋतु आ जाये तो वस्त्र यदि जीर्ण न हों तो कहीं रख दे , अथवा 'सान्तरोत्तर' हो जाये। टीकाकार आचार्य शीलांकने यहाँ सान्तरोत्तरका अर्थ किया' है १-'सान्तरमुत्तरं-प्रावरणीयं यस्य स तथा क्वचित् प्रावृणोति क्वचित् पार्श्ववर्ति विभर्ति ।'-प्राचा० सू० २०६, टीका । डा० याकोबीने अपने उत्तराध्ययनके अनुवादमें 'अचेल और सन्तुरुत्तर' का अर्थ इस प्रकार किया है-'महावीरके धर्ममें वस्त्रका निषेध था किन्तु पार्श्वने एक अन्तर और एक उत्तर (एक अधोवस्त्र और एक ऊपरी वस्त्र ) इस तरह दो वस्त्रोकी आज्ञा दी थी। ( से ० बु० ई०, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका 'सान्तर है उत्तर-ओढ़ना जिसका' अर्थात् जो आवश्यकता होने पर वस्त्रका उपयोग कर लेता है, नहीं तो पासमें रखे रहता है । प्राचार्यने उसका खुलासा करते हुए लिखा है-'शीत चले जाने पर वस्त्रको छोड़ देना चाहिये। अथवा यदि क्षेत्र ऐसा हो जहाँ अभी भी ठंढी हवा बहती हो तो शीतसे बचनेके लिये और अपनी शक्तिको तोलने के लिये 'सान्तरोत्तर' हो जाये। अर्थात् वस्त्रका परित्याग न करके उसे पासमें रखे रहे, आवश्यकता हो तो उसका उपयोग कर ले। केशीने जो पार्श्वनाथके धर्मको सान्तरोत्तर' बतलाया है वहाँ पर भी सान्तरोत्तरका यही अर्थ सुसंगत जान पड़ता है। उससे प्रकट होता है कि पार्श्वनाथके साधु सर्वथा अचेल विहार नहीं करते थे किन्तु पासमें वस्त्र रखते थे। आवश्यकता देखते थे तो उसका उपयोग कर लेते थे। और यह छूट उनके लिये इसलिये दी गई थी क्योंकि वे सरल हृदय और ज्ञानी थे। सुविधाके रहस्यको समझते थे-उसका दुरुपयोग करनेकी दुर्बुद्धि उनमें नहीं थी। इसीलिये पार्श्वनाथके धर्मको श्वेताम्बर साहित्यमें सचेल और अचेल दोनों बतलाया है। सान्तरोत्तरके उक्त अर्थके साथ उसकी संगति ठीक बैठ जाती है । जब पार्श्वनाथके। साधु वस्त्रका उपयोग करते थे तो वे सचेल कहे जाते थे और जब वस्त्रका उपयोग नहीं करते थे तो वे अचेल कहे जाते थे। किन्तु उनका आदर्श अचेलता थी सचेलता नहीं। भगवान महावीरने अपने शिष्योंकी स्थितिको देखकर उसमें इतना सुधार कर दिया कि हमारे साधु जि० ४५, पृ० १२३ ) । श्वेताम्बर टीकाकारों के 'बहुमूल्य और अपरिमित वस्त्र' जैसे अर्थसे या० याकोबीका अर्थ अधिक सुसंगत प्रतीत होता है अन्तर और उत्तर वस्त्रसे सहित जो हो वह सान्तरोत्तर है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद ३६६ अचेल ही रहेंगे। 'सान्तरोत्तर' वाली बात उन्होंने समाप्त कर दी। फिर भी पार्श्वनाथके साधुओंकी सरलता और समझदारीके कारए वस्त्रकी जो छूट सर्वसाधारणके लिये थी, भगवान महावीरने वह छूट केवल असमर्थ साधुओंके लिये ही रखी , और उसके साथ अनेक शर्ते लगा दी, जिससे साधु वस्त्रको अपवाद मार्ग ही समझ उत्सर्ग मार्ग न समझ बैठे। किन्तु उनके शिष्योंकी 'बक्रजड़ता' ने काल पाकर अपना रंग दिखाया और उन्होंने ऐसी रचनाएँ रची कि उत्सर्ग मार्गको धता बताया और अपवाद मार्ग को उत्सर्ग मार्ग बना दिया। श्वेताम्बर साहित्यके परिशीलनसे उक्त तथ्य सामने आता है। इस विषयको और भी स्पष्ट करने वाले भगवान पार्श्वनाथके अनुयायी जो साधु भगवान महावीरके समयमें वर्तमान थे उनके विषयमें भी विचार करनेकी आवश्यकता है ? .... पार्श्वस्थ-शिथिलाचारी साधु श्वेताम्बरीय आगमोंमें पार्श्वनाथके अनुयायियोंके लिये 'पासावञ्चिज 'शब्द आया है। जिसका संस्कृत रूप 'पापित्यीय' होता है और अर्थ होता है-पार्श्वस्वामीके परम्परा शिष्य । एक दूसरा शब्द भी पाया जाता है जो पार्श्वनाथके अनुया. यिओंके लिये व्यवहृत होता था। बह शब्द है-पासत्थ । इसके दो संस्कृत रूप होते हैं-एक पार्श्वस्थ और एक पाशस्थ । पाशस्थ का अर्थ होता है 'पाशमें फँसा हुआ'। और पार्श्वस्थका अर्थ होता है-पार्श्वमें स्थित । यह 'पासत्थ' शब्द उत्तर काल में शिथिलाचारी साधुके लिये व्यवहृत हुआ है। इस परसे ऐसा लगता है कि महावीर भगवानके समयमें पाव के अनुयायी साधु शिथि. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ० -पूर्व पीठिका लाचारी हो गये थे । अथवा पार्श्व के अनुयायी साधुओंको महावीर के अनुयायी शिथिलाचारी मानते थे 1 ४०० और ऐसा होना कोई असंभव नहीं है । इस सम्बन्धमें डा० जेकोबीने ठीक ही लिखा है- 'उत्तराध्ययन सूत्रके केशी- गौतम संवादसे अनुमान किया जाता है कि पार्श्व और महावीर के बीचमें मुनिधर्मी नैतिक अवस्था में पतन हुआ था और यह तभी संभव है जब अन्तके दोनों तीर्थङ्करों के बीच में काफी लंबा अन्तराल रहा हो । और इसका इस साधारण परंपरा से कि पार्श्व के २५० वर्ष बाद महावीरका अवतरण हुआ, पूर्ण रूप से समर्थन होता है ।' ( से० बु० ई० जि० ४५, पृ. १२२-१२३ ) दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायोंमें पार्श्वस्थ शिथिलाचारी साधुका एक भेद है । भगवती आराधना में कहा है कि पार्श्वस्थ मुनि इन्द्रिय, कषाय और विषयोंसे पराजित होकर चरित्रको तृणके समान समझता है अतः उससे भ्रष्ट हो जाता है । जो मुनि पार्श्वस्थ मुनिकी सेवा करते हैं वे भी पार्श्वस्थ बन जाते हैं। व्यवहारसूत्र में लिखा है-— पार्श्वस्थ मुनि वसतिकारकका निषिद्ध भोजन करता है, वर्जित कुलोंमें जाकर भोजन करता है । आदि १ इंद्रिय कसायगुरुपत्तणेण चरणं तरणं व पस्संतो i गिद्धम्मो हु सवित्ता सेवदि पासत्थसेवा || १३०० ॥ २ सेजायर कुल निस्तिय, ठवणकुल पलोयणा अभिहडे य । पुव्वि पच्छा संथव, निड़ अग्ग पिंड भोइ पासत्थो || २३० || Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद ४०१ सूत्रकृतांग में पार्श्वस्थोंको अनार्य, बाल और जिनशासनसे विमुख रतलाते हुए स्त्री प्रासक्त भी बतलाया है, और लिखा है कि वे ऐसा कहते हैं कि जैसे फुन्सी फोड़ेको मुहूर्त भर दबा देने से उसका मवाद निकलकर शान्ति मिल जाती है वैसे ही समागमकी प्रार्थना करने वाली स्त्रीके साथ समागम करनेसे शान्ति मिलती है इसमें दोष क्या ? पहले हम लिख आये हैं कि पार्श्वनाथके धर्ममें चार यम थे-अहिंसा, सत्य, दत्तादान और अपरिग्रह । ब्रह्मचर्य अपरिग्रहमें ही गर्भित था, क्योंकि स्त्रीका ग्रहण किये बिना अब्रह्मसेवन नहीं किया जा सकता। किन्तु भगवान् महावीरने चतुर्यामके स्थानमें पञ्चमहाव्रत स्थापन किये और अपरिग्रहोंमें गर्भित ब्रह्मचर्यको स्पष्ट रूपसे निर्दिष्ट करनेके लिये एक पृथक् व्रतका स्थान दिया। इस परिवर्तनके प्रकाशमें पार्श्वस्थोंके विषयमें सूत्रकृतांगके उक्त कथनका निरीक्षण करनेसे यह प्रकट होता है कि चार यमोंमें ब्रह्मचर्यका निर्देश न होनेसे पार्श्वस्थ मुनियोंमें दुराचारकी प्रवृत्ति भी चल पड़ी थी, और सम्भवतः इसीसे भगवान महावीरको ब्रह्मचर्यका पृथक् निर्देश करना पड़ा था। १ 'एवमेगे उ पासत्था पन्नवंति अणारिया । इत्थीवसं गया बाला जिणसासणपरम्मुहा ।।६।। टी-'सदनुष्ठानात् पार्श्वे तिष्ठन्तीति पार्श्व स्थाः, . स्वयूथ्या वा पाच स्थावसन्नकुशीलादयः स्त्रीपरीषहजिताः।' -सूत्रकृता० ३ ०,४ उ० । 'जहा गंडं पिलागं वा परिपीलेज मुहुत्तगं । एवं विन्नवणित्थीसु, दोसो तत्थ को सिया ॥१०॥ -सूत्र०, २१०४ उ० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ जै० सा० इ. पूर्व पीठिका ___ भगवती सूत्र आदि श्वेताम्बरीय आगमिक साहित्यसे ज्ञात होता है कि पार्श्वनाथके अनुयायी साधुओंने भगवान महावीर तथा उनके अनुयायी स्थविरोंके पास जाकर पुनः प्रव्रज्या ग्रहण की। यहाँ उदाहरणके लिये कालास नामक पार्खापत्यकी प्रव्रज्याका वर्णन दिया जाता है। .. - पार्थापत्यीय कालास वेसियपुत्त ( कालाश्य वैशिक पुत्र ) नामक अनगार (साधु ) जहाँ स्थविर थे वहाँ गया और बोलाश्री महावीर जिन के शिष्य सामायिक नहीं जानते, सामायिकका अर्थ नहीं जानते, संयम नहीं जानते, संयमका अर्थ नहीं जानते, संवरको नहीं जानते, संवरका अर्थ नहीं जानते, विवेक नहीं जानते, विवेकका अर्थ नहीं जानते, उत्सर्ग नहीं जानते, उत्सगका अर्थ नहीं जानते। ___ तब स्थविर कालास वेसियपुत्तसे इस प्रकार बोले-आर्य ! हम सामायिक जानते हैं। सामायिकका अर्थ जानते हैं, और सामायिकसे लेकर व्युत्सर्ग पर्यन्त सब जानते हैं। कालास वेसिकपुत्त पुनः बोला-यदि आर्य ! आप सामायिकको जानते हैं, और सामायिकसे व्युत्सर्ग तक सबका अर्थ जानते हैं तो बतलाइये इनका क्या अर्थ है ? स्थविर बोले-आर्य ! आत्मा ही सामायिक है...."आत्मा ही व्युत्सर्ग है। . यह सुनकर कालासवेसिय पुत्तने पूछा-तो क्रोध मान माया लोभको त्याग कर उनकी गर्दा क्यों करते हैं ? संयमके लिये। गर्दा संयम है या अगर्दा ? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद ४०३ गर्दा संयम है। किन्तु केवल गाँसे ही सब दोषोंका क्षय नहीं होता। सब मिथ्यात्व अविरति आदिको जानकर ( उनका परित्याग करनेसे) आत्मा संयममें लगता है, संयममें जुटता है, संयममें स्थिर होता है। ___ यह सुनकर कालासवेसिय पुत्तने स्थविरकी वन्दना की उन्हें नमस्कार किया और बोला-भगवान् ! न जानने न सुनने, न प्राप्त होने, विस्तारसे न समझाये जाने आदिके कारण अदृष्ट, अश्रुत, अविज्ञात,अव्याकृत, अव्युच्छिन्न और अनवधारित पदोंका न मैंने श्रद्धान किया, न प्रेम किया, न मैंने उनमें रुचि की। आप जैसा कहते हैं वैसा ही हो। तब भगवान् बोले-आर्य जो कुछ मैंने कहा है उसपर श्रद्धा करो, विश्वास करो, रुचि करो। तब कालासवेसिय पुत्तने भगवान्की वन्दना करके नमस्कार किया और बोला-मैं आपके पास चातुर्याम धर्मसे सप्रतिक्रमण पश्चमहाव्रत धारण करना चाहता हूं । देव ! इसमें रोके नहीं। __ तब कालासवेसिय पुत्तने भगवान्की वन्दना की, उन्हें नमस्कार किया और चातुर्याम धर्मसे सप्रतिकमण पञ्चमहाव्रत धारण किया। और जिसके लिये नग्नपना, मुण्डितपना, अस्नान, दन्तधावन न करना, छाता न रखना, जूता न पहिरना, भूमि पर सोना, काष्ठपर काष्ठके तख्ते पर सोना, केश लोंच, ब्रह्मचर्यपूर्वक निवास, परघर गमन, लाभालाभ, अनुकूल-प्रतिकूल, बाईस परीषह और उपसर्गको सहा जाता है उस अर्थ पर आरोहण करके कालासवेसिय पुत्त सिद्ध बुद्ध मुक्त और परिनिवृत्त हो गया। -भ० सू० ७७, १ श०,६ उ०। इसी तरह एक और गांगेय' नामक पार्थापत्यीय अनगार १-'तप्पभिई च णं से गंगेये अणगारे समणं भगवं महावीरं पञ्च Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ० - पूर्व पीठिका भगवान महावीर के पास जाकर उनसे नरक-स्वर्ग में उत्पत्तिको लेकर अनेक प्रश्न करता है और उनके उत्तरोंसे सन्तुष्ट होकर यह मान लेता है कि महावीर सर्वज्ञ सर्वदर्शी हैं। तथा उनसे फिरसे प्रव्रज्या लेता है । ४०४ कालासवेसिय पुत्त तथा गांगेयके इस विवरण से कई तथ्य प्रकट होते हैं । प्रथम, पार्श्वनाथ के अनुयायी अनगारोंको यदि वे महावीरके अनुयायी बनना चाहते थे, तो पुनः दीक्षा लेनी पड़ती थी । पार्श्वनाथके धर्म में दीक्षित होनेसे ही उन्हें भगवान महावीर नहीं अपना लेते थे। दूसरे, पार्श्वनाथ के अनुयायी अनगारोंको धर्मकी परम्पराका ज्ञान नहीं रहा था, सामायिक आदिका स्वरूप और यथार्थ प्रयोजन अज्ञात और अश्रुत हो चले थे, उन्हें जानने और सुनने के साधन क्षीण हो गये थे । सम्भवतः इसी से 'पासत्थ' शब्द जो यथार्थ में पार्श्व स्वामी में स्थित अर्थात् पार्श्वस्वामीके अनुयायीका वाचक था, शिथिलाचारी और अज्ञानी साधुके लिये व्यवहृत होने लगा था । किन्तु उस समय ऐसे भी पार्श्वापत्यीय संघ थे जो स्वतन्त्र विहार करते थे और भगवान महावीरके संघ में सम्मिलित नहीं हुए थे । इसके उदाहरण के रूपमें एक तो केशीको ही उपस्थित किया जा सकता है, जो श्रावस्तीके उद्यानमें संघ सहित ठहरा भिजाणइ सव्वन्नु सव्वदरिसी, तए ांसे गंगेये अणगारे समणं भगकं महाबीरं तिक्खुत्तो श्रायाणिण पयाहिणं करेइ, करेत्ता बंदेद्द, नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी - इच्छामि णं भंते ! तुज्झं अंतियं चाउज्जामानो धम्माल पंच महव्वइयं । एवं जहा कालासवेसिय पुत्तो तहेव भाणि - यव्वं जाव सव्वदुक्खप्पहीणे । सेवं भंते सेवं भचे ! ( सूत्र ३७६ ) । । Jain Educationa International --- - भ० सू०, ६ शत०, ५ उ० For Personal and Private Use Only Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद ४०५ हुआ था और गौतम स्वयं जिससे मिलनेके लिये गये थे। दूसरे एक ऐसे ही बड़े संघका निर्देश भगवती' में है, जिसमें ५०० अनगार थे। इन्हें बहुश्रुत बतलाया है। इससे यह कहा जा सकता है कि सभी पापित्य अज्ञानी नहीं थे, ज्ञानी भी थे। और सम्भवतया इसीसे वे महावीरके पास नहीं गये। ___इनके न जानेका एक कारण यह भी हो सकता है कि महावीर इन पापित्यीय अनगारोंको पुनः दीक्षित करके ही अपने धर्ममें सम्मिलित करते थे। और इससे भगवान महावीरकी आचारके प्रति दृढ़ताका पता चलता है। __ पापित्यीयोंकी शिथिलाचारिता उनसे अज्ञात नहीं थी। "सान्तरोत्तर' वस्त्रका दुरुपयोग देखकर ही उन्होंने 'अचेल' धर्म प्रतिष्ठित किया था और इसीसे पार्वापत्यीयोंको भी नग्नताकी दीक्षा लेना पड़ती थी। ये बात सब पार्थापत्यीयोंको रुचिकर नहीं हो सकती थी। इससे अनेक पार्थापत्यीय साधु भगवान महावीर के पास प्रव्रजित नहीं हुए। किन्तु आगे जाकर उन्होंने भी भगवान महावीरका धर्म अंगीकार किया, या वे ऐसे ही बने रहे, इसके जाननेका कोई साधन नहीं है। सम्भव है महावीरके पश्चात् उक्त पार्थापत्यीय अनगार भी महावीरके अनगारोंमें सम्मिलित हो गये हों और श्रावस्तीके उद्यानमें हुए केशो-गौतम संवादने उसकी भूमिका तैयार कर दी हो।। आश्चर्य इभी पर है कि केशीने गौतमसे जो पार्श्वनाथ और और महावीरके धर्ममें अन्तरको लेकर प्रश्न किये, ये प्रश्न किसीने १ 'तेण कालेणं पासावञ्चिजा थेरा भगवंतो "बहुस्सुया बहु परिवारा पंचहि अणगारसएहिं सद्धिं'।-भ० सू० १०७, २ श°, ५ उ० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका भी भगवान महावीर स्वामीसे क्यों नहीं किये ? अनेक पार्श्वपत्ययों के भी भगवानसे प्रश्न करनेका वर्णन भगवती आदि में पाया जाता है । किन्तु ऐसे महत्वके प्रश्न भगवानसे किसीने नहीं किये, और न भगवान के श्रीमखसे उनपर कुछ प्रकाश डाला गया । गौतमने भी भगवानसे बहुत से प्रश्न किये किन्तु उन्होंने भी दोनों धर्मोके अन्तर के सम्बन्धमं भगवान् से कोई प्रश्न नहीं किया । यह बात उत्तराध्ययनमें निर्दिष्ट केशी गौतम संवाद के सम्बन्ध में सन्देह को उत्पन्न करती है । * फिर भी श्वेताम्बर साहित्यसे प्राप्त विवरणके आधार वर इतना ही कहा जा सकता है कि भगवान पार्श्वनाथके धर्ममें साधुओंके लिये सान्तरोत्तर वस्त्रकी व्यवस्था थी— अर्थात् साधु वत्र पास में रखते थे और आवश्यकता के समय उसे ओढ़ लेते थे । किन्तु यह स्थिति उस समयकी थी जब पार्श्वनाथ के शिष्यों में शिथिलाचार आ चुका था । अतः पार्श्वनाथ भगवान ने साधुओंके व के विषय में वास्तवमें क्या यही नीति निर्धारित की थी यह निस्सन्देह रूपसे नहीं कहा जा सकता । फिर भी इतना मानकर चला जा सकता है कि वस्त्रके विषय में जितनी कड़ी नीति भगवान महावीरने अपनायी, उतनी पार्श्वनाथने नहीं अपनाई। उन्हें अपने साधुत्रों की सरलता और समझदारी पर विश्वास था । उनसे यह आशा की जाती थी कि वे प्राप्त सुविधाके तथ्य को समझकर उसका दुरुपयोग नहीं करेंगे। किन्तु महावीर भगवान के समय में स्थिति बदल चुकी थी । अतः उन्होंने अचेल' को आवश्यक कल्प निर्धारित करना उचित समझा । दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायोंमें साधुओं के दस कल्प बतलाये हैं । कल्प व्यवस्था या सम्यक् आचारको कहते Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद ४०७ हैं। ये कल्प स्थित और अस्थितके भेदसे दो प्रकारके हैं। श्वेताम्बर साहित्यके अनुसार प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्करके अनुयायी साधुओंके लिये दसों कल्प स्थित कल्प हैं क्योंकि उन साधुओंको दसों कल्पोंका सतत सेवन करना होता है। वे दस कल्प' इस प्रकार हैं -१ आचेलक्य-अचेलपना, २ उद्दिष्ट त्याग, ३ वसतिकर्ताके पिण्डादिका त्याग, ४ राजपिण्डका त्याग, ५ कृति कर्म, ६ महाव्रत, ७ पुरुषकी ज्येष्ठता, ८ प्रतिक्रमण, ६ एक मास तक एक स्थान पर रहना और १० वर्षाकालमें चार मास तक एक स्थान पर रहना। __ इन दस कल्पोंमें से आचेलक्य', उद्दिष्ट त्याग, प्रतिक्रमण, राजपिण्डका त्याग, मास और पर्युषणा ये छै कल्प मध्यके बाईस तीर्थङ्करोंके कालमें अस्थितकल्प हैं क्योंकि उनके अनुयायियोंके लिये इनका सतत सेवन करना आवश्यक नहीं है। उनके लिये केवल चार कल्प स्थित हैं-वसति कर्ताके पिण्डका त्याग, चतुर्याम, पुरुषकी ज्येष्ठता और कृति कर्म । उक्त कथनका सारांश यह है कि आचेलक्य धर्म प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्करके साधुओंके लिये तो अवश्य आचरणीय है १-श्राचेलक्कुस्सिय सिजायर-रायपिंड-किइकम्मे । वय जेट्ठ-पडिक्कयणे मासं पजोसवण कप्पो ॥ -वृ० क०, ४ उ० । भ० प्रा० गा० ४२१ । २-श्राचेलक्कुसिय-पडिक्कमण रायपिंड-मासेसु । पज्जुसणकप्पम्मि य अट्ठियकप्पो मुणेययो ॥८॥ सिजायर पिंडम्मिय चाउजामे य पुरिसजेटे य । कितिकम्मरस य करणे ठियकप्पो मज्झिमाणं पि ॥१०॥ -पञ्चा०, विव० १७ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४.८ . जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका किन्तु मध्यके बाईस तीर्थङ्करोंके साधुओंके लिये अवश्य आचरणीय नहीं है । इसीसे प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्करका धर्म अचेल बतलाया है और शेष बाईस तीर्थङ्करोंका धर्म सचेल अचेल दोनों बतलाये हैं। यहाँ ध्यान देनेकी बात यह है कि जैसे प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्करका धर्म अचेल ही बतलाया है वैसे मध्यके शेष बाईस तीर्थङ्करोंका धर्म सचेल ही नहीं बतलाया। किन्तु अचेलके साथ साथ सचेल भी बतलाया है। अर्थात् जब कि प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्करके साधुओंके लिये अचेल रहना अनिवार्य था तब मध्यके बाईस तीथङ्करोंके साधुओंके लिये अचेल रहना अनिवार्य नहीं था, परिस्थितिवश वे सचेल भी रह सकते थे। इस भेद का कारण था उस समयके साधुजनोंकी मनोवृत्ति, जिसका निर्देश पार्श्वनाथके चतुर्यामका वर्णन करते समय किया गया है। फिर भी स्पष्टीकरणके लिये पञ्चाशकसे नटका दृष्टान्त उद्धृत किया जाता है। प्रथम तीर्थङ्करका कोई साधु भिक्षाके लिये गया। मार्गमें नट का खेल देखकर देरसे लौटा । किन्तु चूंकि वह ऋजु-सरलहृदय था इसलिये उसने गुरुसे निवेदन कर दिया कि मैंने नटका खेल देखा है। आचार्यने उसे मना करते हुए कहा कि साधुको नटका खेल नहीं देखना चाहिये । उसने गुरुकी आज्ञा स्वीकार कर ली। दूसरे दिन वह पुनः भिक्षाके लिये गया और मार्ग में किसी बहु. रुपियाका स्वांग देखकर लौटा और गुरुसे पूर्ववत् निवेदन कर दिया। गुरु बोले-हमने तो कल तुमसे मना किया था। वह बोला-आपने तो नटका खेल देखनेके लिये मना किया था, मैंने तो बहुरुपियेका स्वांग देखा है। उसे देखनेके लिये तो आपने मना नहीं किया था। तब आचार्यने इस प्रकारके सर्व विनोदोंको देखना त्याज्य बतलाया और साधुने स्वीकार करके फिर नह Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... संघ भेद ४०९ देखा । इस तरह प्रथम जिनके साधु हृदयके सरल किन्तु बुद्धिके मन्द होते थे। जितना कहा जाता उतना ही सरलतासे मान लेते थे। आगे विचार नहीं करते थे । यही बात उस समयके गृहस्थोंकी भी थी। अतः उन सबको ऋजु किन्तु जड़ कहा है। ___ मध्यके बाईस तीर्थङ्करोंके अनुयायी शिष्य सरल होनेके साथ साथ बुद्धिमान भी थे। अतः नटके खेल देखनेका निषेध करने पर अपनी बुद्धिसे ही वे समझ जाते थे कि इस प्रकारके सभी विनोद त्याज्य हैं। किन्तु अन्तिम जिन महावीरके शिष्य बुद्धिहीन होनेके साथ साथ कुटिलमति भी थे इसलिये उन्हें वक्रजड़' कहा है। वे यदि नटका खेल देखकर लौटते तो प्रथम तो कहते ही नहीं थे और देरसे लौटनेका कारण पूछने पर तरह तरहके बहाने बना देते थे। इसलिये प्रथम और अन्तिम जिनके साधुओंके लिये 'अचेल' अवश्य करणीय कहा गया था। किन्तु इतना स्पष्ट निर्देश करने पर भी उनकी तथोक्त वक्रजड़ताने 'अचेल' और नाग्न्य जैसे स्पष्ट शब्दोंके अर्थमें भी परिवर्तन करके वस्त्र परिधानकी गुंजाइश ही नयीं निकाली किन्तु आचेलक्य नामक स्थितिकल्पका एक तरहसे सफाया ही कर दिया। भ० महावीरके पश्चात् वस्त्रकी स्थिति पर प्रकाश प्रकृत बिषय पर प्रकाश डालनेके लिये सबसे प्रथम हम १-वंका उ ण साहंती पुट्ठा उ भणंति उगह कंटादी । पाहुणग सद्ध ऊसव गिहिणो वि य वाउलंतेव ।।५३५८॥ 'पश्चिमतीर्थकरसाधवो वक्रत्वेन किमप्पकृत्यं प्रतिसेव्यापि न कथयंति नालोचयन्ति, जडतया च जानन्तोऽजानन्तो वा भूयस्तथैवापराधपदे प्रवर्तन्ते । एवं गृहिणोऽपि वक्रजड़तया साधून व्यामोहयन्ति ।' ____-वृ० कल्प। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका आचारांग सूत्रको ही लेना उचित समझते हैं क्योंकि उसमें मुनियोंके प्रचारका वर्णन है यहाँ यह स्मरण रखना चाहिये कि मुनियोंके दस कल्पों में एक 'कल्प अचेलक्य है और एक कल्प पञ्च महाव्रत है । हिंसाका त्याग, असत्यका त्याग, अदत्तका त्याग, ब्रह्मचर्य और परिग्रहका त्याग ये पाँच महाव्रत हैं । अचेलक्यको परिग्रह त्यागसे अलग गिनाया है । आचारांग लोकसार नामक पाँचवें अध्ययन में परिग्रहके त्यागका उपदेश देते हुए लिखा है - "लोकमें जितने परिप्रह वाले हैं उनकी परिग्रह अल्प हो या बहुत, सूक्ष्म हो या स्थूल, सचेतन हो या अचेतन, वे सब इन परिग्रह वाले गृहस्थों में ही अन्तभूत होते हैं । इन परिग्रह वालोंके लिये यह परिग्रह महाभय का कारण है । संसारकी दशा जानकर इसे छोड़ो । जो इस परिप्रहको जानता भी नहीं है उसे परिग्रहसे होनेवाला भय नहीं होता ' ।' १ आगे भी सूत्र १५२ में इसी बातका समर्थन किया है कि. लोक में जितने भी अपरिग्रही साधु हैं वे सब अल्प परिग्रहका भी त्याग कर देने पर ही अपरिग्रही होते है । आचारांगके उक्त कथनसे यह स्पष्ट है कि अपरिग्रही साधके लिये थोड़ा सा भी परिग्रह रखना उचित नहीं माना गया । ऐसी १ - 'श्रावंती केयावंती लोगंसि परिग्गद्दा वंती से अप्पं वा बहु वा अणु ं वा थूलं वा चित्तमंत वा चित्तमंतं वा एएसु चेत्र परिग्गहावंती, एतदेव एगेसिं महव्भयं भवइ, लोगवितं च गं उवेहाए, एए संगे वियात्रा ।। १५० ।। ' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद ४११. स्थितिमें श्वेताम्बर सम्प्रदायमें जो साधुके लिये अनेक प्रकारकी उपधियाँ बतलाई हैं उनकी संगति नहीं बैठ सकती। यह बात आचारांग चूर्णिके रचयिताको तथा टीकाकारको भी खटकी । अतः उन्होंने उक्त सूत्रकी अपनी अपनी व्याख्याओंमें इस आपत्ति को पूर्व पक्षके रूपमें रखकर उसका जो समाधान किया वह भी दृष्टव्य है। आव० चू० में लिखा है-'यदि अल्प या बहुत, सूक्ष्म या स्थूल, चेतन या अचेतन वस्तुको ग्रहण करना परिग्रह है तो जो ये शरीर मात्र परिग्रह वाले और हस्तपुटमें आहार करने वाले हैं, वे ही अपरिग्रही हुए । जैसे वोटिग (दिगम्बर साधु) वगैरह क्योंकि उनके पास अल्प भी परिग्रह नहीं होती। और जब वे ही अपरिग्रही हैं तो शेष व्रत भी उन्हींके होंगे, ब्रत होने पर संयम और संयम से मोक्ष भी उन्हींको होगा। किन्तु ऐसा नहीं है क्योंकि वोटिकोंके पास जो जलपात्र और उनका शरीर है वही परिग्रह है । वही उनके भयका कारण है। ___आचार्य शीलांकने उक्त सूत्रको अपनी टीकामें भी प्रा० चू० की तरह ही शङ्का समाधान लिखा है-वोटिक भी पीछी रखते हैं शरीर रखते हैं, भोजन ग्रहण करते हैं। शायद कहा जाये कि ये सब चीजें धर्ममें सहायक हैं तो वस्त्र पात्र वगैरह भी धर्मके साधन हैं, अतः दिगम्बरका आग्रह रखना व्यर्थ है। उक्त समाधानसे टीकाकारोंकी मनोवृत्तिका पता चलता है, सभीने प्रायः इसी प्रकारके कुतर्कका आश्रय लिया है । अस्तु, आगे आ०चा० सू० ( १८२ ) में अचेलताकी प्रशंसा करते हुए लिखा है Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका “इस प्रकार सु-आख्यात धर्मवाला और आचार का परिपालंक जो मुनि कर्मबन्धके कारण कर्मोंको छोड़कर अचेल - वस्त्ररहित रहता है उस भिक्षुको यह चिन्ता नहीं सताती, मेरा वस्त्र जीर्ण हो गया है वस्त्र भागूँगा या जीर्ण वस्त्रको सीने के लिये धागा मागूँगा, सूई मागूँगा, फटे वस्त्रको सीऊँगा, यदि वस्त्र छोटा हुआ तो उसमें अन्य वस्त्रको जोड़कर बड़ा करूँगा, बड़ा हुआ तो फाड़कर छोटा करूँगा तब उसे पहनूंगा या ओहूँगा । अथवा भ्रमण करते हुए उस अचेल भिक्षुको तृणस्पर्श होता है, ठंड लगती है, गर्मी लगती है, डांस मच्छर काटते हैं । अचेलपने में - लाघव मानता हुआ वह भिक्षु परस्परमें अविरुद्ध अनेक प्रकारकी परीषहों को सहता है । ऐसा करनेसे वह तपको भले प्रकार धारण करता है । जैसा भगवानने कहा है उसे ही सम्यक जानो । इस प्रकार चिरकाल तक संयमका पालन करनेवाले महावीर भगवानने भव्यजीवोंको जो तृणस्पर्श आदिका सहन करना बतलाया है उसे सहन करो || सू० १८२ ।' ४१२ (१) “एयं खु मुणी श्रायाणं सया सुक्खायधम्मे विहूयकप्पे निज्झोसइत्ता जे चेले परिवुसिए तस्स गं भिक्खुस्त नो एवं भवइ - परिजुए मे वत्थे वत्थं जाइस्सामि, सुत्तं जाइस्सामि, सूइं जाइस्सामि, संधिस्सामि, सीविस्सामि, उक्कसिस्सामि, वुक्कसिस्सामि, परिहिस्सामि, पाणिस्सामि । अदुवा तत्थ परिक्कमंतं भुजो अचेलं तगफासा फुसंति, सीयफासा फुसंति, तेउकासा फुसंति, दंसमसकफासा फुसंति, एगयरे अन्नयरे विरूवरूवे फासे अहियासेइ चेले लाघवं श्रागममाणे । तेवे से अभिसमन्नागए भवइ, जहेयं भगवया पवेइयं तमेव अभिसमिच्चा, सव्वश्रो, सव्वत्ताए संमतमेव समभिजाणिजा । एवं afi महावीराणं चिररायं पुव्वाइं वासाणि रोयमाणं पास हिया • सियं ॥ सूत्र १८२ ॥” • Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद ४१३ - इस प्रकार अचेलकतामें लाघव बतजाकर आगे विमोक्षाध्ययनमें वस्त्रका विधान करते हुए कहा है__"जो भिक्षु तीन वस्त्र और चौथा पात्र रखता है उसे ऐसा नहीं होता है कि चौथा वस्त्र मायूँगा । ( यदि उसके पास बस्त्र न हो और शीतकाल आ जाये तो उसे ) एषणाके अनुसार ही वस्त्र माँगने चाहिये और जैसे मिलें वैसे ही रखने चाहिये। उन्हें धोना नहीं चाहिये, धोकर रँगे हुए वस्त्र नहीं रखने चाहिये । प्रामान्तरको जाते हुए वस्रोंको छिपाना नहीं चाहिये। इस प्रकार वह अवमचेलक-अर्थात् अल्पवस्त्रवाला साधु होता है । यह वस्त्रधारी साधुकी सामग्री है । जब शीतकाल बीत जाय और ग्रीष्म ऋतु श्राजाय तथा वस्त्र यदि जीर्ण न हुए हों तो उन्हें कहीं रख दे (और नग्न विचरण करे, यदि शीतकाल चले जाने पर भी ठंड पड़ती हो तो ) वस्त्रोंको अपने पास रखे, जब आवश्यक हो तब ओढले, आवश्यकता न हो तब उतार दे। अथवा तीनमें से दो वस्त्र रख ले, अथवा एक शाटक रख ले अथवा अचेल हो जाये। सू० २०८, २०६ ।।" * इससे आगे दो वस्त्र रखने वाले भिक्षुके सम्बन्धमें भी यही विधान किया है और लिखा है कि जिस भिक्षुको यह मालूम हो कि मैं अशक्त हूं और गृहस्थोंके घर जाकर भिक्षाचार नहीं कर १ "जे भिक्खु तिहिं वत्येहिं परिवुसिए, पायच उत्थेर्हि तस्स णं नो एवं भवइ चउत्थं वत्थं जाइस्सामि, से अहेसणिजाई वत्थाई जाइजा अपरिगहियाइं वत्थाई धारिजा, नो धोयरत्ताई वत्थाई धारिजा, अपलि श्रोवमाणे गामंतरेसु अोमचेलिए, एवं खु वत्थधारिस्स सामग्गियं ।' 'अह पुण एवं जाणिजा-उवाइकते खलु हेमंते गिम्हे पडिवन्ने अहापरिजुन्नाई वत्थाई परिहविजा, अदुवा संतरुत्तरे अदुवा अोमचेले अदुवा एगसाडे अदुवा अचेले ॥सू० २०८, २०९॥" Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ जै० सा० ३०-पूर्व पीठिका सकता उसको यदि कोई भोजन लाकर दे तो उसे लौटा देना चाहिये। आगेके सूत्रमें ऐसे रोगी साधुके लिये भक्तपरिज्ञाके द्वारा जीवन त्याग देना आवश्यक बतलाया है किन्तु आचार खण्डन करनेका निषेध किया है । आगे लिखा है 'जो भिक्षु अचेल संयमको धारण करता है उसे यदि यह विचार आये कि मैं तृण स्पर्शकी बाधा सह सकता हूँ, शात स्पर्श की बाधा सह सकता हूं, उष्ण स्पर्शकी बाधा. सह सकता हूँ, डांस मच्छरकी बाधा सह सकता हूं किन्तु लज्जाके प्रच्छादनको छोड़ने में असमर्थ हूं तो वह कटिबन्ध-लंगोटी धारण करता है।' ___ इस तरह आचारांगमें वस्त्रधारी साधुके लिये भी मात्र शीत ऋतुमें तीन वस्त्रोंका विधान किया है और प्रीष्मऋतुमें संतरुत्तर अथवा ओमचेल अथवा एकशाटक अथवा अचेल ही रहनेका निर्देश किया है। ___ स्थानांग में पाँच बातोंको लेकर अचेलको प्रशस्त बतलाया है- प्रति लेखना अल्प होती है, २ प्रशस्त लाघव रहता है, विश्वास करने योग्य रूप है, तपकी अनुज्ञा है और विपुल इन्द्रिय निग्रहका कारण है। तथा स्थानांग में भी वस्त्र धारण करनेके तीन कारण बतलाये हैं-१ लज्जा निवारण, ग्लानि निवारण और परीषह निवारण १-सूत्र २२० । २-पंचहि ठाणेहिं अचेलए पसत्थे भवह । तं जहा-अप्पा पडिलेहा, लाघविए पसत्थे, रूवे वेसासिए, तवे अणुण्णाए, विउले इंदियनिग्गहे । (सू० ४५५)-स्था० ५ ठा०, ३ उ० ३-तिहिं ठाणेहिं वत्थं धरेजा । तं०-हिरिपत्तियं, दुगुंछापत्तियं परीसहपत्तियं ।। १७१ सू०।-स्था। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद ४१५ शीत उष्ण डांस मच्छरकी परीषहसे बचना । इस सूत्रकी टीकामें एक गाथा' उद्धृत है, जिसमें बतलाया है कि लिंगके विकारोंको ढांकनेके लिये वस्त्र बतलाया है। सारांश यह है कि उक्त पाँच कारणोंसे प्रशस्त तो अचेल ही है किन्तु जो साधु शीत आदिके कष्टको सहन करनेमें असमर्थ हो, या लज्जाको जीतने में अशक्त हो, स्त्रीको देखकर जिसके अंगमें विकार उत्पन्न हो जाता हो या जिसका पुरुष चिन्ह ऐसा हो जिसे देखकर ग्लानि पैदा हो, तो उसके लिये ऋतु अनुसार तीन वस्त्रोंकी अनुज्ञा थी। यह आचारांग आदिके अवलोकनसे स्पष्ट होता है। .... किन्तु तथोक्त प्राचीन उपलब्ध आगमोंमें पाई जानेवाली उक्त स्थितिको भी उत्तर कालके ग्रन्थकारों और टीकाकारोंने भरसक भ्रष्ट करके वस्त्र पात्रवादके प्रचारको ही अपना लक्ष्य बनाया , और उसीके पोषणमें अपनी शक्ति और श्रद्धाका उपयोग किया । इसके लिये सबसे प्रथम जिनकल्प और स्थविर कल्पका आश्रय लिया गया । (किसी प्राचीन अंगमें इनका निर्देश मेरे देखने में नहीं आया। वृहत्कल्पसूत्र में ही मुझे उनका प्रथम निर्देश मिला है।) और आचारांगके अचेलकता प्रतिपादक उल्लेखोंको जिनकल्प का प्रतिपादक करार दिया गया। आगमोंमें जो कठोर आचरण वर्णित था वह सब जिनकल्पका आचार बतलाया गया। और फिर जिन कल्पके विच्छिन्न होनेकी घोषणा कर दी गई कि जम्बू १-'श्राह च-वेउनि वाउडे वाइए य हिरि खद्ध पजणणे चेव । एसिं अणुग्गट्ठा लिंगुदयट्ठा य पट्टो उ ॥" २--'छब्विहा कप्पठिई पन्नत्ता, तं जहा-जिण कप्प लिई, थेर कप्प. ट्ठिा ति वेमि ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ जै० सा० इ० पूर्व पीठिका स्वामीके मोक्ष जानेके पश्चात् कोई जिनकल्प धारण नहीं कर सकता। इस घोषणाका श्रेय जिन भद्रगणि क्षमाश्रमण महाराजको है उनके बिशेषावश्यक भाष्यमें ही जिनकल्पका विच्छेद करनेवाली गाथा पाई जाती है। वस्त्रका जोरदार समर्थन भी उसीमें मिलता है। तथा अचेलके वास्तविक अर्थमें परिवर्तन भा उनकी कृतिमें 'देखा जाता है। अचेलक और नाग्न्यके अर्थमें परिवर्तन आचारांगके अचेलकता प्रतिपादक वाक्योंको जिनकल्पका करार देकर और जिनकल्पके विच्छिन्न होनेकी घोषणाके पश्चात् दूसरा कार्य यह किया गया कि अचेल और नागन्य जैसे स्पष्ट शब्दोंके भी अर्थमें परिवर्तन कर डाला गया। 'वृहत्कल्पसूत्र और विशेषावश्यकभाष्यमें अचेलके दो भेद किये हैं-एक संताचेल (वस्त्र रहते हुए भी अचेल ) और एक असंत चेल ( वस्त्राभाव होनेसे अचेल )। तीर्थङ्करोंको असंतचेल बतलाया है क्योंकि देवदूष्यके गिर जानेके पश्चात् उनके पास सर्वदा ही वस्त्रका अभाव रहता है। शेष सभी साधुओंको जिनमें जिनकल्पी भी आ जाते हैं, संताचेल कहा है क्योंकि उनके पास रजो ३-'मण परमोहि-पुलाए श्राहारग-खवग उवसमे कप्पे । संजमतिय केवलिसिझणा य जंबुम्मि वुच्छिण्णा ॥२५६३॥" -वि० भा० २-दुविहो होति अचेलो, संताचेलो असंतचेलो य । तित्थगरा असंत चेला संताचेला भवे सेसा ॥-० को Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद ४१७ हरण और मुंहपट्टी अवश्य रहती है. अतः वे वस्त्र रहते हुए भी अचेल कहे जाते हैं । इस पर यह शङ्का की गई कि वस्त्र रहते हुए अचेल कैसे कहा जा सकता है ? तो उत्तर दिया गया कि शास्त्र में, लोकमें, वस्त्रके रहते हुए भी अचेल कहनेकी रूढ़ि है। ___ सारांश यह है कि अचेलके दो भेद किये गये एक मुख्य और एक गौण । मुख्य अचेल केवल तीर्थङ्कर थे। आजकल के लोगोंके लिये मुख्य अचेलपना उपकारी नहीं हो सकता । अतः जो मुनि एषणा समितिके द्वारा प्राप्त निर्दोष, जीर्ण, निस्सार और अल्प वस्त्र धारण करते हैं या कदाचित् वस्त्र धारण करते हैं वे सचेल होते हुए भी उपचारसे अचेल कहे जाते हैं। जैसे कोई मनुष्य नदीको पार करते समय अपने सब वस्त्र उतार कर सिर पर रख लेता है तो लोग वस्त्र होते हुए भी उसे नंगा ही कहते हैं वैसे ही वस्त्र रहते हुए भी मुनि अचेल कहे जाते हैं। तथा जैसे कोई स्त्री फटी हुई जीर्ण साड़ी पहिने हुए है। वह जुलाहेके पास जाकर कहती है-हे जुलाहे ! मेरे लिये जल्दी १-'सदसंत चेलगोऽचेलगो य जं लोगसमयसंसिद्धो । तेणाचेला मुणा संतेहि जिणा असंतेहि ।।२५६८ ॥ परिसुद्धजुण्णकुच्छिय थोवाऽनिययन्नभोगभोगेहिं । मुणश्रो मुच्छारहिया संतेहिं अचेलया होति ।।२५६०॥ जह जलमवगाहंतो बहुचेलो वि सिरवेट्ठियकडिल्लो । भएणइ नरो अचेलो तह मुणो संतचेला वि ॥२६००॥ तह थोवजुन्नकच्छियचेलेहि वि भन्नए अचेलोत्ति । जह तुर सौलिय लहुँदो वोत्ति नग्गिया मोत्ति ॥२६०१॥' -विशे० भा० २७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका साड़ी बुनकर दो, मैं नंगी फिरती हूं। वैसे ही साधु भी अल्प, जीर्ण और निस्सार वस्त्र धारण करनेके कारण अचेल कहा जाता है। इसी तरह 'दशवैकालिकमें एक गाथा आई है जिसमें बतलाया है कि नग्न साधुको आभूषणोंसे क्या प्रयोजन ? इस गाथा के 'नगिणस्स' शब्दका अर्थ चूर्णिकारने तो नग्न ही किया है। यथा-'नगिणो णग्गो भएणइ'। किन्तु टीकाकार हरिभद्र सूरिने नग्नके उचरितनग्न और निरुपचरित नग्न दो भेद करके कुचेलवान साधुको उपचरितनग्न और जिनकल्पीको निरुपचरित नग्न कहा है। ___ इस तरह अचेलका उपचरित अर्थ जीर्ण फटा हुआ और निस्सार कुचेल अर्थ करके इस प्रकारके वस्त्रधारी साधुको उपचार से अचेल कहा गया। किन्तु जब इस प्रकारका कुत्सित वस्त्र अरुचिकर प्रतीत हुआ तो अचेलका अर्थ अल्पमूल्यचेल ( कम कीमती वस्त्र ) कर दिया गया। अर्थात् जो न फटा हो, न जीर्ण हो, न कुत्सित हो, किन्तु कम कीमतका हो, ऐसे वस्त्रधारी साधु भी अचेल ही हैं। इस तरह आचारांगसूत्र वृत्ति, स्थानांगसूत्रवृत्ति, उत्तराध्ययन्सूत्रवृत्ति, विशेषावश्यक भाष्य सवृत्ति; वृहत्कल्प भाष्य, पञ्चाशक, जीतकल्प, प्रवचन सारोद्धार आदि सभी श्वेताम्बराय ग्रन्थोंमें अचेलताके आश्रयसे सचेलताका ही पोषण मिलता है, जो कि आचारांगके प्रतिकूल है । हम पहले लिख आये हैं कि आचारांग १-नगिणस्स वा वि मुण्डस्स दीहरोमनहसिणो । मेहुण-उवसंतस्स किं विभूसाई कारिनं ॥३४॥ २-'नग्नस्य वापि' कुचेलवतोऽप्युपचरितनग्नस्य । निरुपचरित नग्नस्य वा जिनकल्पिकस्येति सामान्यमेव सूत्रम् ।' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद ४१६ के अनुसार अचेलका अर्थ वस्त्रका अभाव ही है; क्योंकि सूत्र २०६ में बतलाया है कि वस्त्रधारी साधु भी ग्रीष्म ऋतुमें या तो सान्तरोत्तर हो जाये, या ओमचेल हो जाये, या एक साटक हो जाये या अचेल हो जाये। ___ शीलांकने इन शब्दोंकी व्याख्या करते हुए लिखा' है-'शीत ऋतु बीत जाने पर वस्त्रोंको छोड़ देना चाहिये। अथवा क्षेत्र विशेषके कारण यदि ठंढी हवा चलती हो तो शीतका परीक्षा और अपनी शक्तिको देखकर सान्तरोत्तर हो जाये-अर्थात् शीतकी आशङ्कासे वस्त्रका परित्याग न करके षासमें रक्खे । आवश्यकता होने पर ओढ़ ले। अथवा 'अवमचेल' हो जाये-एक वस्त्रको त्यागकर दो वस्त्र पास रखे, और धीरे धीरे शीतके चले जाने पर दूसरे वस्त्रको भी छोड़कर 'एकशाटक' हो जाये। अथवा शीतका अत्यन्त प्रभाव हो जाने पर उस एक वस्त्रको भी छोड़कर अचेल हो जाये । अचेलके मुखवस्त्र और रजोहरण मात्र उपधि होती है। उक्त सूत्रके अनुसार निर्वस्त्र साधु अचेल, एक वस्त्रधारी एक शाटक, दो वस्त्रधारी अवमचेल और वस्त्रको पास रखकर १ 'अपगते शीते वस्त्राणि त्याज्यानि, अथवा क्षेत्रादिगुणाद् हिमकणिनि वाते वाति सत्यात्मपरितुलनार्थ शीतपरीक्षार्थं च सान्तरोत्तरो भवेत्-सान्तरमुत्तरं प्रावरणीयं यस्य स तथा, क्वचित्पावृणोति क्वचि. पार्श्ववर्ति विभर्ति शीताशङ्कया नाद्यापि परित्यजति, अथवाऽवमचेल एककल्पपरित्यागात् द्विकल्पधारीत्यर्थ; अथवा शनैः शनैः शीतेऽपगच्छति सति द्वितीयकल्पमपि परित्यजेत् तत एकशाटकः संवृत्तः, अथवाऽऽत्यन्तिके शीताभावे तदपि परित्यजेदतोऽचेलो भवति असो मुखवस्त्रिकारजोहरणमात्रोपधिः।'-श्राचा० सू० वृत्ति, पृ० २५२। , Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪ર૭ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका भी आवश्यकताके समय ही उसका उपयोग करनेवाला सान्तरोत्तर कहलाता है। __ अतः अचेलताके अर्थमें जो परिवर्तन किया गया वह आचारांगके प्रतिकूल है । तथा उत्तराध्ययनके भी प्रतिकूल है। उत्तराध्ययनमें अचेल परीषहका वर्णन करते हुए लिखा है- मेरे वस्त्र जीर्ण हो गये हैं अतः इनके नष्ट हो जाने पर मैं अचेल रहूँगा अथवा सचेल रहूँगा ( कोई मुझे वस्त्र दे दे तो ) भिक्षुको यह चिन्ता नहीं करनी चाहिये। एक समय साधु अचेल तो एक समय सचेल रहता है अचेलताको धर्मका उपकारक जानकर ज्ञानीको विकल नहीं होना चाहिये।' यहाँ यह बतला देना उचित होगा कि श्वेताम्बर तथा दिगम्बर दोनों सम्प्रदायोंमें साधुके लिये २२ परीषहोंको जीतना आवश्यक बतलाया है। परीषहका मतलब अचानक उपस्थित होने वाली बाधा या कष्ट है। उन बाईस परीषहोंमें शीतपरीषह, दंसमशक परीषह और अचेल या नागन्य परीषह भी है। वस्त्र रहते हुए भी बस्त्रके पर्याप्त न होनेपर शीत परीषह हो सकती है। उसी तरह पूरे शरीरको ढांकने लायक वस्त्र न होने पर डांस मच्छरका भी कष्ट हो सकता है। किन्तु नागन्य परीषह नग्न रहनेकी बाधा - १ 'परिजुन्नेहि वत्थेहिं होक्खामित्ति अचेलए । अहवा सचेलए होक्खं इति भिक्खू न चिंतए ॥१२॥ एगया अचेलए होइ, सचेले यावि एगया। एयं धम्महियं नच्चा नाप्पी णो परिदेवए ॥१३॥' -उत्तरा०,२ अ०॥ टीकाकार नेमिचन्दने भी यहाँ अचेलका अर्थ चेलविकल किया हैअल्प चेल आदि नहीं । ले० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद ४२१ तो तभी सता सकती है जब पुरुषेन्द्रिय भी निरावरण हो । किन्तु नाग्न्य परीषह जैसे स्पष्ट शब्दके अर्थमें भी जो खींचातानी की गई है उसका एक उदाहरण यहाँ दिया जाता है। तत्त्वार्थ सूत्रके व्याख्याकार श्री सिद्धसेन गणिने लिखा है'नाग्न्य परीषहका यह आशय नहीं है कि कोई उपकरण ही न रखा जाये, जैसे कि दिगम्बर साधु होते हैं। किन्तु प्रवचनमें कहे हुए विधानके अनुसार नागन्य होना चाहिये।' बीचमें शिष्य प्रश्न करता है कि साधुके दस कल्पोंमें 'आचेलक्य' कल्प भी तो भावश्यक है ? उसका उत्तर देते हुए गणि जी कहते हैं-'तुम्हारा कहना ठीक है किन्तु वह आचेलक्य जिस प्रकार कहा गया है उसी प्रकार करना चाहिये। तीर्थङ्करकल्प-जिनकल्प एक भिन्न ही है, तीर्थङ्कर जन्मसे तीन ज्ञानके धारी होते हैं और चारित्र धारण करने पर चार ज्ञानके धारी होते हैं। इसलिये उनका पाणिपात्र भोजीहोना और एक देवदूष्य धारण करना उचित है। किन्तु साधु तो उसके द्वारा उपदिष्ट आचारका पालन करते हैं, जीर्ण, खण्डित, और समस्त शरीरको ढांकनेमें असमर्थ वस्त्र ओढ़ते हैं, इस प्रकार वस्त्र रखते हुए भी वे अचेलक ही हैं। जैसे नदी उतरते समय सिर पर कपड़ा लपेटे हुए मनुष्य सवस्त्र होने पर भी नग्न कहाता है वैसे ही गुह्य प्रदेशको ढांकनेके लिये चोलपट्ट धारण करने वाला साधु भी नग्न ही है।' ___ मालूम होता है गणि जीके समयमें चोलपट्ट धारण करनेकी परम्परा थी। इसीसे उन्होंने वस्त्रधारीके नग्न परीषहका समर्थन नहीं किया। किन्तु चोलपट्ट रहते हुए अन्य परीषह तो हो सकती हैं किन्तु नाग्न्य परीषह नहीं हो सकती। इसका समर्थन नाग्न्य १-सूत्र ६-६ की व्याख्या । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका परीषहके समर्थनमें दिये हुए आर्यरक्षितके उदाहरणसे भी होता है। कथा इस प्रकार है-आचार्य आयरक्षितने अपनी माता, भार्या भगिनी आदि सभी स्वजनोंको साध्वी बना दिया किन्तु उसके पिताने समझाने पर भी लज्जावश साधु पद स्वीकार नहीं किया। वह कहता-कैसे श्रमण बनें ? यहाँ मेरी पुत्रियाँ हैं, बहनें हैं, नातनी हैं । इनके आगे मैं नंगा नहीं हो सकता। जब आचार्यने बहुत कहा तो वह बोला-'यदि मुझे दो वस्त्र, कमंडल छाता, जूता और यज्ञोपवीतके साथ प्रव्रजित कर सकते हो तो मैं साधु बनने के लिये तैयार हूँ ।' आचार्यने उसकी बात मानकर उसे दीक्षा दे दी। ___ एक दिन आचार्य साधु संघके साथ चैत्य वन्दनाके लिये गये । वहाँ पहलेसे सिखाकर तैयार किये गये बालकोंने कहा-'इस छाते वाले साधुके सिवा हम सब साधुओंकी वन्दना करते हैं । वह वृद्ध बोला—इन्होंने मेरे पुत्र पौत्र सबकी वन्दना की। मेरी वन्दना नहीं की। क्या मैंने दीक्षा नहीं ली ? तब बालक बोलेदीक्षा ली होती तो छाता कमण्डलु वगैरह तुम्हारे पास कैसे होता ? वृद्धने प्राचार्यसे कहा-पुत्र ! बालक भी मेरी हँसी करते हैं। अतः मैं छाता नहीं रखू गा। इसी तरह प्रयत्न करके धोतीके सिवाय सब चीजोंका त्याग वृद्धसे करा दिया गया। किन्तु किसी भी तरह वह धोती त्यागने के लिये तैयार नहीं हुआ। ___ एक दिन एक साधुका स्वर्गवास हो गया। तब आचार्यने वृद्धसे धे.तीका त्याग करानेके लिये अन्य साधुओंसे कहा-जो साधु इस मृत साधुको कन्धों पर उठायेगा , उसे बड़ा पुण्य होगा। वृद्धने पूछा-पुत्र ! क्या इससे बहुत निर्जरा होगी। १-उत्त०, २ अ०, पृ० २३ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद ४२३ प्राचार्य बोले-इसमें बहुत उपसर्ग हो सकते हैं यदि सह सको तो ठीक है। उसने स्वीकार किया। सब साधु उसके पीछे हो गये। जब उस वृद्धने उस मृत साधुको अपने हाथोंमें उठा लिया तो सिखाये हुए बालकोंने साधुकी धोती खोल दी। लज्जासे पीड़ित होकर ज्योंही वह उस शवको नीचे रखने लगा तो दूसरे साधुओं ने कहा-नीचे मत रखो। इतनेमें किसीने तन्तु द्वारा एक चालपट्टक उसकी कटिमें बाँध दिया। वह लज्जावश उस शवको द्वार तक ही पहुँचाकर लौट आया और आचार्यसे बोला-पुत्र ! आज बड़ा उपसर्ग हुआ । तब आचार्य बोले-इन्हें धोती लाकर पहना दो। वृद्ध बोला-जो हुआ सो हुआ, धोती रहने दो, चोलपट्टक ही ठीक है। __अतः चोलपट्टक मात्रके रहते हुए उपबरित नाग्न्य परीषह हो सकती है किन्तु दो तीन वस्त्रोंके रहते हुए तो उपचरित नाग्न्य परीषह भी संभव नहीं है, अस्तु । ___ इन्हीं आर्य रक्षितके स्वर्गवासके पश्चात् श्वेताम्बर सम्प्रदायमें धीरे धीरे उपधियोंकी संख्या वृद्धि हुई, यह बात श्वेताम्बर विद्वान् भी स्वीकार करते हैं। मुनि कल्याण विजय जीने लिखा है-'आर्य रक्षितके स्वर्गवासके पश्चात् धीरे धीरे साधुओंका निवास बस्तियों में होने लगा। और इसके साथ ही नग्नताका भी अन्त होता गया। पहले बस्तीमें जाते समय बहुधा जिस कटिबन्धका उपयोग होता था वह बस्तीमें बसनेके बाद निरन्तर होने लगा। धीरे धीरे कटिवस्त्रका भी आकार प्रकार बदलता गया। पहले मात्र शरीरका गुह्य अंग ही ढकनेका विशेष ख्याल रहता १-श्र० भ० म०, पृ० २६२ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका था पर बादमें सम्पूर्ण नग्नता ढांक लेनेकी जरूरत समझी गई और उसके लिये वस्त्रका आकार प्रकार भी बदलना पड़ा। फलतः उसका नाम कटिबन्ध मिटकर चुलपट्ट-छोटा वस्त्र पड़ा।' यह तो हुआ वस्त्रके विषयमें। अन्य उपाधियोंके विषयमें वे लिखते हैं - 'पहले प्रति व्यक्ति एक ही पात्र रखा जाता था। पर आर्य रक्षित सूरिने वर्षाकालमें एक मात्रक नामक अन्य पात्र रखनेकी जो आज्ञा दे दी थी उसके फल स्वरूप आगे जाकर मात्रक भी एक अवश्य धारणीय उपकरण हो गया। इसी तरह झोलीमें भिक्षा लानेका रिवाज भी लगभग इसी समय चालू हुआ, जिसके कारण पात्रनिमित्तक उपकरणोंकी वृद्धि हुई। परिणाम स्वरूप स्थविरोंके कुल १४ उपकरणोंकी वृद्धि हुई, जो इस प्रकार है-१ पात्र, २ पात्रबन्ध, ३ पात्र स्थापन ४ पात्र प्रमार्जनिका, ५ पटल, ६ रजत्राण, ७ गुच्छक, ८-६ दो चादरें, १० ऊनी वस्त्र ( कम्बल ) ११ रजोहरण, १२ मुख वस्त्रिका, १३ मात्रक और १४ चोलपट्टक। यह उपधि औधिक अर्थात् सामान्य मानी गई और आगे जाकर इसमें जो उपकरण बढ़ाये गये वे 'औपग्रहिक' कहलाये । औपाहिक उपधिमें संस्तारक, उत्तर पट्टक, दंडासन और दंड, ये खास उल्लेखनीय हैं। ये सब उपकरण आजके श्वेताम्बर जैन मुनि रखते हैं।' आचार्य हरिभद्रने (ई० ७२०-७८०) अपने संबोध' प्रकरणमें अपने समयके चैत्यवासी कुगुरुओंका वर्णन करते हुए लिखा है कि वे केशलोच नहीं करते, प्रतिमा धारण करते शरमाते हैं । शरीर परका मैल उतारते हैं, पादुकाएँ पहिनकर फिरते हैं और बिना कारण कटि२-'कीवो न कुणइ लोयं लजइ पडिमाइ जल्लमुवणेई । सोवाहणो य हिंडइ बंधइ कटिपट्टयमकज्जे' ॥३४॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद ४२५ वस्त्र बांधते हैं। उन्होंने उन्हें 'क्लीब' कहा है। इससे प्रकट होता है कि विक्रमकी सातवीं आठवीं शताब्दी तक श्व ेताम्बर साधु भी कारण पड़ने पर ही वस्त्र धारण करते थे । सो भी कटिवस्त्र | यदि कटिवस्त्र भी निष्कारण धारण किया जाता था तो धारण करनेवाले साधुको कुसाधु माना जाता था । ऊपर के विवेचनसे स्पष्ट है कि श्वेताम्बर सम्प्रदाय में शक्ति या लाचारी में ही वस्त्रका उपयोग करनेकी आज्ञा थी । उसीका दुरुपयोग करके वस्त्रका समर्थन किया गया और आपवादिक मार्गको औत्सर्गिक मार्गका रूप दे दिया । मंखलिपुत्त गोशालकका जीवनवृत्त किन्हीं विद्वानों का ऐसा विश्वास है कि महावीरने जो अचेल कताको अपनाया, यह उनपर उनके शिष्य और बादको आजीविक सम्प्रदाय के गुरु मखलिपुत्त गोसालकका प्रभाव है । अतः नीचे उसी पर प्रकाश डाला जाता है । जीविकों का कोई साहित्य प्राप्त नहीं है जिसके आधार पर उनके विषय में कोई जानकारी प्राप्त की जा सके । हाँ, श्वेताम्बर जैन और बौद्ध साहित्य में आजीविक सम्प्रदाय के संस्थापक मंखलिपुत्त गोशालकका वर्णन मिलता है । भगवती सूत्र ( १५ श० १ उ० ) में गोशालक की जीवनी विस्तारसे दी है। प्रथम यहाँ हम उसे दे देना उचित समझते हैं । 'वह मंखलि नामक एक मंख ( चित्रपट दिखाकर जीवन निर्वाह करने वाला भिक्षुक) का पुत्र था । एक ब्राह्मणकी गोशाला १ - इन्साइ० इ०रि०, पृ० १५८ से २६८ । से० बु० ई०, जि० ४५, प्रस्ता० पृ० २६ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ जै० सा० इ० - पूर्व पोठिका में उसका जन्म हुआ था इसलिये उसे गोशालक कहते थे । जब गोशालक युवा हुआ तो वह भी अपने पिताकी तरह हाथमें चित्रपट लेकर अपना जीवन निर्वाह करने लगा । उस समय भगवान् महावीर तीस वर्ष तक घर में रहकर प्रत्र - जित हो चुके थे। और प्रथम वर्षावास बिताकर द्वितीय वर्षावास नालन्दा के बाहर तन्तुवाय शाला में बिताते थे । उस समय मंखलिपुत्र गोशालक हाथमें चित्रपट लिये, गाँव गाँव में भिक्षा मांगता हुआ वहाँ आया, और अन्यत्र स्थान न मिलने से उसी तन्तुवाय शाला में 'भाण्ड' रखकर ठहर गया । एक मासके उपवासके पश्चात् भगवान महावीर पारणा के लिये राजगृही गये। वहाँ आहार होनेके उपलक्ष में पञ्चाश्चर्य हुए । सब लोगों में इसीकी चर्चा थी । गोशालक ने भी यह बात सुनी, और उसकी सत्यताका निर्णय करनेके लिये वह राजगृही गया । वहाँसे लौटकर वह महावीर भगवानके पास आया और विधिपूर्वक नमस्कार करके बोला- आप मेरे गुरु हैं और मैं आपका शिष्य हूं । भगवान् चुप रहे, कुछ उत्तर नहीं दिया । एक दिन भगवान वहाँसे विहार कर गये । गोशालकने उन्हें सर्वत्र खोजा । न मिलने पर पुनः उसी तन्तुवाय शाला में आया और अपने वस्त्र, भाण्ड, जूते, चित्रपट वगैरह एक ब्राह्मणको दान कर दिये और दाढ़ी मूँछ तथा सिरके बाल मुँड़ा लिये । वहाँसे निकलकर घूमता फिरता वह कोल्लाग सन्निवेश में आया । उस समय महावीर यहीं ठहरे थे और सर्वत्र उनकी ही चर्चा थी । उसे सुनकर गोशालकने सोचा - धर्माचार्य धर्मोपदेशक श्रमण भगवान महावीरकी जैसी ऋद्धि, युक्ति, यश, बल, वीर्य, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद सत्कार, पुरस्कार, पराक्रम है वैसा किसी अन्य श्रमण अथवा ब्राह्मएका नहीं है । अतः यह चर्चा अवश्य उन्हींकी है । यह सोच कर वह खोजता खोजता उनके पास पहुँचा और विधिपूर्वक नमस्कार करके बोला- आप मेरे गुरु हैं, मैं आपका शिष्य हूं । इसके पश्चात् गोशालक छै वर्ष तक महावीर भगवानके साथ रहा । एक दिन शरदऋतु प्रारम्भमें भगवान महावीर गोशालक के साथ सिद्धार्थ ग्रामसे कुर्मग्राम गये । मार्गमें एक हरे भरे तिलके पेड़ को देखकर गोशालकने भगवानसे पूछा - भगवान ! यह तिल वृक्ष निष्पन्न होगा या नहीं ? तथा ये सात तिलपुष्प जीव यहाँसे निकलकर कहाँ उत्पन्न होंगे ? भगवान बोले- यह तिल वृक्ष निष्पन्न होगा । और ये सात तिलपुष्प जीव यहाँसे निकलकर इसी तिलवृक्षकी एक फली में सात तिलरूपसे उत्पन्न होंगे। गोशालकको भगवानके इस कथन पर विश्वास नहीं हुआ । उसने वह तिलका पेड़ उखाड़ कर डाल दिया । अचानक उसी समय जोरकी वर्षा हुई। उससे वह तिल वृक्ष पुनः जम गया और वे सात तिलपुष्प जीव उसीकी फलिकामें सात तिल रूप से उत्पन्न हुए । ४२७ जब दोनों कुर्मग्राम से सिद्धार्थ ग्रामको लौटे तो उस तिल वृक्षको दोनोंने देखा । किन्तु गोशालकको तब भी विश्वास नहीं हुआ । उसने तिलकी फलीको फोड़कर देखा तो उसमें सात तिल थे । इस परसे गोशालकको यह हुआ कि इसी तरहसे सभी जीव मरकर पुनः लौटकर उसी शरीर में उत्पन्न हो जाते हैं । वह भगवान महावीर से अलग हो गया । और श्रावस्ती में एक कुम्हारी के आवास में रहने लगा । तथा अपनेको 'जिन' कहने लगा । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका एक बार भगवान महावीर विहार करते हुए श्रावस्ती पधारे। गौतम गणधरने उनसे यह बात कही। तब भगवानने गौतमसे गोशालकका उक्त चरित वर्णन किया । गोशालकके कानमें भी यह बात पहुँची। वह आजीविक संघके साथ महावीर स्वामीके पास आया और बोला-'आप ठीक कहते हैं कि मंखलिपुत्त गोशालक मेरा शिष्य है। किन्तु तुम्हारा वह शिष्य मरकर देवलोकमें उत्पन्न हुआ है और मैं गौतमपुत्र अर्जुनके शरीरको त्यागकर मंखलिपुत्त गोशालकके शरीरमें आ गया हूँ। यह मेरा सातवाँ शरीर प्रवेश है'। भगवान महावीरने इसका प्रतिवाद किया और उसपरसे गोशालक रुष्ट हो उठा। बोला-मेरी तेजोलेश्याके प्रभावसे पित्तज्वरसे आक्रान्त होकर तुम छै मासमें ही मर जाओगे। तब महावीर बोले-अभी मैं १६ वर्ष तक और बिहार करूँगा। किन्तु गोशालक ! तुम अपनी ही तेजोलेश्याके प्रभावसे ७ दिनके पश्चात् ही मर जाओगे। गोशालकने भगवान पर तेजोलेश्याका प्रयोग किया। किन्तु वह तेजोलेश्या उनका कुछ भी बिगाड़ न कर सकनेके कारण गोशालकके लिये ही काल साबित हुई। संक्षेपमें यह गोशालकका जीवन वृत्तान्त है। इसके अनुसार गोशालक भिक्षावृत्तिसे आजीविका करनेवाले एक मंखलि नामके भिक्षुका पुत्र था। युवावस्थामें अकेला ही भिक्षावृत्ति करता हुआ महावीरके पास आया। उस समय महावीर दूसरा वर्षावास कर रहे थे। और इसलिए उन्हें प्रव्रजित हुए पौने दो वर्ष हुए थे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद . ४२६ चूकि श्वेताम्बर आगमोंके अनुसार भी महावीर केवल एक वर्ष तक चीवरधारी रहे थे । अतः जब गोशालकने उन्हें देखा तब वे अवश्य ही नग्न होना चाहिये। इसके विपरीत गोशालक के पास उस समय वस्त्र कमण्डलु जूता आदि उपकरण थे। जिन्हें उसने महावीरका शिष्य बननेसे पूर्व किसी ब्राह्मणको दे दिया। महावीरको अनायास प्राप्त आहार तथा पूजा सत्कारने उसे उनकी ओर आकृष्ट किया। तत्पश्चात् 'महावीरने ही उसे प्रव्रजित किया, मुण्डित किया, शिक्षित किया और बहुश्रुत बनाया। किन्तु कुछ बातोंको लेकर महावीरसे उनका मतभेद हो गया। और वह 'श्रावस्तीमें एक कुम्हारीके घरमें रहने लगा। महावीरसे अलग होनेके कारण ही उसने आजीविकोंका संघ बनाया। और अपनेको 'जिन कहने लगा। उसके अन्दर महावीरकी तरह ही चौबीसवां तीर्थङ्कर बननेकी भावना थी। इसलिये अपने आजीविक संघका निर्माण भी उसने मोटे तौर पर उसी बाह्य भूमि पर किया होगा, जिसपर महावीरका निग्रन्थ संघ स्थापित था । अतः गोशालककी नग्नता का प्रभाव महावीर पर प्रतीत नहीं होता किन्तु महावीरको नग्नता से प्रभावित गोशालकने अपने आजीविक सम्प्रदायके साधुओंको नग्न रहनेका नियम बनाया यही अधिक सम्भव है। १-'साडिअाश्रो य पाडियायो य कुडियाश्रो य चित्तफलगं च माहणे अायामेइ ।' -भ० १५ श०, १ उ० । २-'भगवया चेव पव्वाविए, भगवया चेव मुण्डाविए, भगवया चेव सेहाविए, भगवया चेव सिक्खाविए, भगवया चेव बहुस्सुई कए।' -भ०, १५ श०। ३-'तए णं गोसाले मंरवलिपुत्ते......"सावत्थि णयरिं""हालाहलाए कुभकारीए कुभकारावणंसि आजीविय संघ संपरिवुडे "विहरइ ।' -भ० १५ श०। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३. ज० सा० इ० पूर्व-पीठिका ___ बौद्ध उल्लेखोंसे भी प्रकट होता है कि अच्छी आजीविकाके लोभसे ही गोशालकने नंगा रहना पसन्द किया। दीघनिकायकी टीकामें बुद्ध घोषने लिखा है कि-'गोशालका नाम मक्खलि था, गोशालामें पैदा होनेसे वह गोशाल कहलाया। एक दिन तेलपात्र टूट गया। मालिकने उसे पकड़नेके लिये उसका वस्त्र पकड़ लिया। वह वस्त्र छोड़कर भाग आया और नंगा रहने लगा; क्योंकि नंगे रहनेसे अच्छी आजीविका मिलनेकी श्राशा थो।' . बुद्धघोषके उक्त कथनसे भी हमारी ही बातका समर्थन होता है। आजीविकाके लोभसे ही उसने नंगा रहना स्वीकार किया। उसने महावीरको नग्न अवस्थामें अच्छा आहार और आदर सत्कार पाते देखा। अतः वह उसे जंच गई। और उसने भी नग्नताको ही आदर्श बनाया। प्रकृत विषय पर और भी प्रकाश डालनेके लिये आजीविक सम्प्रदायके सम्बन्धमें प्रकाश डालना जरूरी है। गोशाल और परिव्राजक डा० याकोबीका कहना है कि बौद्ध उल्लेख गोशालकको नन्द वक्ख और किस्स संकिक्कके अचेलक परिव्राजक सम्प्रदायका, जो प्राचीन साधु सम्प्रदाय था उत्तराधिकारी बतलाते हैं। 1-The Budhist records, however, speek of him as the successor of Nanda vkha, and kiss samkikka, and of his sect, the Achelaka paribb. gakas, as a longestablished order of monks' ( से० ७० ई०, जि० ४५, प्रस्ता० पृ० २९) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद ४३१ डा० वरुआ' ने भी 'आजीविक' शीर्षक अपने विद्वत्तापूर्ण निबन्धमें इसी बातका समर्थन विस्तारसे किया है। और इसीके आधार पर गोशालक तथा उनके आजीविक सम्प्रदायके सम्बन्धमें बहुत सा ताना बाना बुना गया है। अतः प्रथम उसपर प्रकाश डालना आवश्यक है। केवल मज्झिमनिकायके महासचक सुत्तन्त (पृ० १४४) और और सन्दक सुत्तन्त (पृ० २६९ ) में उक्त तीनों नाम इस प्रकार आये हैं सञ्चक निगंठपुत्त गौतम बुद्धके पास जाता है और वार्तालाप करता है। बुद्ध पूछते हैं --अग्निवेश तूने काय भावना सुनी है ? तो सञ्चक उत्तरमें कहता है_ 'जैसे कि यह नन्दवात्स्य, कृश सांकृत्य, मक्खली गोशाल (मानते हैं ) । भो गौतम ! यह अचेलक (= नग्न), मुक्त आचार साप्ताहिक भी आहार करते हैं। ऐसे इस प्रकार बीचमें अन्तर देकर अर्धमासिक आहारको ग्रहण करते हैं।' ___ सन्दक सुत्तन्तमें सन्दक परिव्राजक और भिक्षु आनन्दमें हुए वार्तालापका वर्णन है। आनन्दके उत्तरोंसे प्रसन्न होकर अन्तमें सन्दक कहता है-'यह आजीवक पूत तो अपनी बड़ाई करते हैं, तीनको ही मार्गदर्शक बतलाते हैं। जैसे कि, नन्दवात्स्य, कृश सांकृत्य और मक्खलि गोशाल। - इन दोनों ही बौद्ध उल्लेखोंमें सच्चक निम्रन्थपुत्र और सन्दक परिव्राजक दोनोंने ही नन्दवात्स्य आदि तीनोंको आजीविकोंका मुखिया बतलाया है। सन्दकतो परिव्राजक था यदि २-ज० डि० ले०, जि० २, पृ० १-८० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ० पूर्व-पीटिका नन्दवात्स्य और कृश सांकृत्य अचेल परिव्राजक सम्प्रदाय के होते तो वह तो कमसे कम उन्हें आजीविकों का मार्ग दर्शक न बतलाता । दूसरे, ऊपर तीनोंका जिस रूप में निर्देश किया गया है उससे यह भी स्पष्ट नहीं होता कि नन्दवात्स्य और कृश सांकृत्य दोनों पूर्व में हो चुके थे प्रत्युत 'यह' शब्द से तो ऐसा प्रतीत होता है कि वे दोनों भी उस समय वर्तमान थे । हाँ, मक्खलि गोशालका नाम अन्त में होने से यह अनुमान अवश्य किया जा सकता है कि वह उन तीनोंमें सम्भवतया लघु था । किन्तु बौद्ध पिटक साहित्य में जहाँ कहीं भी बुद्ध विरोधी छे शास्ताओंका निर्देश किया गया है वहाँ मखलिगोशालका ही नाम आया है । ४३२ शायद कहा जाये कि नन्दवात्स्य और कृश सांकृत्याने आजीविक सम्प्रदायकी स्थापना की होगी और उसका उत्तराधिकारी मक्खलि गोशालक होगा । किन्तु यह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि जैसा कि हम आगे देखेंगे आजीविक सम्प्रदाय मक्खलि गोशालक से प्राचीन नहीं है । उसीने उसकी स्थापना की थी । अतः नन्दवात्स्य और कृश सांकृत्यका अचेल परिव्राजक सम्प्र-दायसे सम्बन्ध तथा मक्खलि गोशालका उनका उत्तराधिकारो होना प्रमाणित नहीं होता । प्रत्युत बौद्ध उल्लेखों से ये तीनों साधी प्रतीत होते हैं। जैसा डा० हार्नलेने लिखा है । उन्होंने लिखा है'बौद्ध साहित्य में गोशालकके दो साथी बतलाये हैं- किस्स संकिच और नन्दवख । महावीर से अलग होनेके पश्चात् इन तीनोंने श्रावस्ती में एक सम्प्रदायके नाते नेताके रूपमें एकाकी जीवन बिताना आरम्भ किया । ( ई० इ० रि०, जि० १, पृ० २६७ ) इसके सिवा गोशालक के सम्बन्ध में बुद्ध घोषने दीघनिकाय की टीका में जो कुछ लिखा है वह ऊपर लिख आए हैं । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद ४३३ इस तरह जैन और बौद्ध उल्लेख गोशालकका जन्म गोशाला में बतलाते हैं । जैन उल्लेख उसे मंखलिका पुत्र बतलाते हैं किन्तु बौद्ध उल्लेख उसका नाम मक्खलि बतलाते हैं । दोनों यह बतलाते हैं कि उसने नंगे होकर आजीविका की ' दोनोंके अनुसार उसका यह कार्य आजीविका के लिये था । इसीसे उसका सम्प्रदाय आजीविक कहलाया । 'आजीविक' शब्द संस्कृत भाषा के 'आजीव' शब्दसे बना है । आजीवका अर्थ है - आजीविका, रोजी । यह आजीविक शब्द आजीव, आजीविय आजीविक आदि विभिन्न रूपों में कतिपय जैन आगमों और बौद्ध पिटक साहित्य में मिलता है । किन्तु कौटिल्य अर्थशास्त्र के सिवाय ई० सन् तकके समस्त प्राचीन ब्राह्मण साहित्य में नहीं मिलता । डा० हार्नलेने लिखा है कि 'गोशालक साधुके आजीवके विषय में अपना एक विशिष्ट दृष्टिकोण रखता था । सम्भवतया इसीसे वह और उसके शिष्य 'आजीविक' कहलाये । किन्तु जैन और बौद्ध उल्लेख गोशालक पर अनैतिक आचरणका दोषारोपण करते हैं, जैसा कि हम आगे बतलायेंगे । इससे ऐसा लगता है कि उसकी धार्मिक तपस्या मोक्ष के लिये नहीं थी किन्तु आजीविका के लिये थी । अतः प्रारम्भमें आजीविक नाम जीविकापरक था, 1 * १ 'डा० बरुआ ने ( भाग इं० पत्रिका, जि०८, पृ० १८७ ) लिखा है कि यदि जीविक शब्दका वही अर्थ है जो विरोधी सम्प्रदाय लेते हैं तो एक धार्मिक सम्प्रदायने, जो भले ही निरुद्देश्य स्वार्थी और दुराचारी रहो, उसे अपने सम्प्रदाय के नाम के रूपमें कैसे अपना लिया ? किन्तु इतिहास में निश्चय ही ऐसे उदाहरणोंकी कमी नहीं है, जहाँ कल्पित घृणासूचक नामोंने धीरे धीरे असली नामोंका स्थान ले लिया । २८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ जै० सा० इ० पूर्व-पीठिका पीछे से वह एक सम्प्रदाय के रूप में व्यवहृत होने लगा ।' - इं० इ० रि०, जि० १, पृ० २५६ । इस तरह जैन और बौद्ध उल्लेखोंसे तो गोशालकका अचेल परिव्राजक होना सिद्ध नहीं होता । हम लिख आये हैं कि आजीविक सम्प्रदायका संस्थापक गोशालक जैनों के कथन के अनुसार मंखलिका पुत्र था और बौद्धोंके अनुसार उसका ही नाम मक्खलि था । किन्तु गोशालकको मस्करी भी कहा जाता है । और पाणिनिके अनुसार मस्करीका अर्थ परिव्राजक होता है । इसी परसे डा० हालेका कहना है कि यतः गोशालक मंखलिपुत्त या मक्खलि ( मस्करी ) कहलाता था अतः वह प्रथम एकदण्डी था पीछे उसने महावीर के साथ रहना शुरू किया, जैसा कि डा० याकोबीका भी कथन है । किन्तु डा० हार्नले यह भी स्वीकार करते हैं कि मंखलिया मक्खलिका संस्कृत रूप मस्करी नही है । जैन आगमिक साहित्य में 'ख' शब्दका प्रयोग भिक्षुक जातिके लिये हुआ है किन्तु 'मस्करी' के 'मस्क' शब्दका तो कोई अर्थ ही नहीं, वह तो मस्कर से बना है | अतः यहाँ इस सम्बन्ध में भी विचार किया जाता है। 1 मस्करी और गोशालक पाणिनि ने अपने व्याकरणमें मस्करी शब्द परिव्राजक के अर्थ में सिद्ध किया है। इसकी व्याख्या करते हुए भाष्यकार पत. ञ्जलि ने लिखा है कि मस्करी वह साधु नहीं है जो हाथ में मस्कर १ ' मस्कर -मस्करिणौ वेणुपरिब्राजकयो:' ( ६-१-१५४ ) । २ ' न वै मस्करो ऽस्यास्तीति मस्करी परिव्राजकः । किं तर्हि ? मा कृत कर्माणि शान्तिर्वः श्रेयसीत्याहातो मस्करी परिव्राजकः । - भाष्य ( ६-१ १५४ )। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद ४३५ या बांसकी लाठी लेकर चलता हो। फिर क्या है ? मस्करी वह है जो यह उपदेश देता है कि कर्म मत करो, शान्तिका मार्ग ही श्रेयस्कर है। _____ डा. वासुदेवशरण अग्रवालका कहना है कि 'यहाँ मस्करीका का अर्थ मक्खलि गोशालसे है, जिन्होंने आजीवक सम्प्रदायकी स्थापना की थो। पतंजलिने स्पष्ट यही अर्थ लिया है।' किन्तु डा० बरुआका कहना है कि पाणिनिकी व्याख्या-बांसका दण्ड लेने वाले परिव्राजकको मस्करी कहते हैं-केवल उन्हें ही लागू नहीं होती जिन्हें जैन और बौद्ध ग्रन्थोंमें आजीविक कहा है। यही बात पतञ्जलिके सम्बन्धमें भी है। अर्थात् डा० बरुआके अभिप्रायानुसार मक्खलि गोशालकके सिवाय अन्य परिब्राजक भी जो दण्डधारी थे मस्करी कहलाते थे। पतञ्जलिकी व्याख्यासे भी यही ध्वनित होता है। पाणिनिने गोशालक' शब्दकी भी व्युत्पत्ति की है। जो गोशालामें जन्म ले वह गोशालक है। जैन और बौद्ध उल्लेखोंके अनुसार मक्खलि या मंखलिपुत्तका जन्म गोशालामें हुआ था। पाणिनि मस्करी और गोशालकसे परिचित थे यह स्पष्ट है । किन्तु उन्होंने दोनोंका सामानाधिकरण्य नहीं किया । अतः गोशालक ही मस्करी था या मस्करी शब्द गोशालक और उसके अनुयायिओंके लिये ही व्यवहृत होता था यह नहीं कहा जा सकता। एक बात और भी ध्यान देनेकी है। जैन आगमोंमें गोशालक को मंखलिपुत्त कहा है और बौद्ध त्रिपिटकोंमें मक्खलि कहा १ पा० मा०, पृ० ३७६ । २ भां० इं० पत्रिका, जि०८, पृ० १८४ । ३ गोशालायां जातः गोशालकः ( ४-३-३५ )। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका है। दोनोंमें गोशालकको मस्करी नहीं कहा । और मंखलि या मक्खलि और मस्करी ये दोनों शब्द स्वतन्त्र हैं । किन्तु दोनोंमें कुछ इस प्रकारका साम्य है, जिससे मंखलि या मक्खलि मस्करीका भ्रष्ट रूप लगता है और शायद इसीसे दोनों को एक समझ कर गोशालकके लिये मस्करी शब्दका व्यवहार प्रचलित हो गया। ____ वराहमिहिर ( ई० ५५० ) ने अपने वृहज्जातक' ( १५-१) और लघुजातक ( १२-१२) में ७ प्रकारके साधुओंका निर्देश किया है, जिनमें आजीविक भी हैं। वराहमिहिरके टीकाकार भट्टोत्पलने ( ई० ६५० ) कालिकाचार्यके एक पद्यके आधार पर आजीविकोंको एकदण्डी बतलाया है। उसने लिखा है कि एकदण्डी अथवा आजीविक नारायणके भक्त थे। हषचरितमें बाणभट्टने मस्करिका निर्देश किया है। डा० बरुआका कहना है कि इसमें कोई सन्देह नहीं है कि हर्षचरितका 'मस्करी' वराहमिहिरके आजीविकका ही स्थानापन्न है। जब कि टीकाकारके अनुसार मस्करी परिव्राजकका तुल्यार्थक है। किन्तु डा. अग्रवालका लिखना है कि 'वस्तुतः मस्करी भिक्षु ही उस समय पाशुपत थे। पाशुपत भैरवाचार्य और उनके शिष्यको बाणने मस्करी कहा है ( ह. च०, पृ० १६१)। शीलांकने भी एकदण्डियोंको शिवभक्त बतलाया है । किन्तु पाँचवें उछवासमें १ 'एकस्थैश्चतुरादिभिर्बलयुतैर्जाता पृथग्वीर्यगैः । शाक्याजीविकभिक्षवृद्धचरका निग्रन्थवन्याशनाः॥' २ 'तापस वृद्ध श्रावक रक्तपटाजीविभिक्षचरकाणाम् निम्रन्थानां चार्कात् पराजितैः प्रच्युतिलिभिः ॥१२॥' ३ भां० ई पत्रिका, जि० ८, पृ० १८४ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद ४३७ बाणने 'यथावदभिगतात्मतत्त्वाश्च संस्तुता मस्करिणः' लिखकर मस्करी साधुओंको आत्मतत्त्वको ठीक प्रकारसे जानने वाले और सम्यक प्रकारसे स्तुत कहा है। इसका मतलब यह हुआ कि बाण के द्वारा उल्लिखित मस्करी साधु आत्मतत्वके यथावत् ज्ञाता और विशेष आदरणीय माने जाते थे। जहाँ तक हम जानते हैं मस्करी साधुओंके लिये इस प्रकारके सम्मानास्पद विशेषण अन्यत्र नहीं 'पाये जाते। उक्त स्थलके अध्ययनमें डा० अग्रवालने लिखा है-'यहाँ बाणने स्वयं हो सम्प्रदायका नाम दे दिया है । पाणिनिने मस्करी परिव्राजकोंका उल्लेख किया है। कुछ इन्हें मंखलि गोशालकका अनुयायी आजीविक मानते हैं। बाणके समयमें इनके दार्शनिक मतोंमें कुछ परिवर्तन हो गया होगा। अपने मूलरूपमें मस्करी भाग्य या नियतिवादी थे। जो भाग्यमें लिखा है वही होगा, कर्म करना बेकार है, यही उनका मत था। किन्तु बाणने उनके मतका ऐसा कोई संकेत नहीं किया ।'-ह० च०, पृ० ११२ । बाणने एक पांडरिभिक्षु' नामक सम्प्रदायका निर्देश किया है। डा० अग्रवाल पांडरिंभिक्षको आजोविक बतलाते हैं । वे लिखते हैं कि निशीथचूर्णि ( ग्रन्थ ४, पृ० ८६५ ) के अनुसार आजीविकोंकी संज्ञा पाण्डरिभिक्षु थी ! ये लोग गोरसका बिल्कुल व्यवहार न करते थे। इससे वाणका यह कथन मिल जाता है कि उनके शरीर जलसे सींचे गये थे। ह० च०, पृ० १०७ ।। किन्तु हर्षचरितके आठवें उछवासमें बाणने जो अनेक सम्प्र. दायोंके नाम दिये हैं उनमें भी मस्करीका निर्देश है तथा पांडुरिभिक्षुका भी निर्देश है । यदि बाणभट्टके द्वारा उल्लिखित पांडुरिभिक्षु Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका आजीविक हैं तो निश्चय ही बाणभट्टके द्वारा निर्दिष्ट मस्करी आजीविक नहीं है। उक्त बातोंको लक्ष्यमें रखते हुए डा० बरुआका यह कथन कि हर्षचरितमें निर्दिष्ट मस्करी वराहमिहिरके आजीविकका स्थानापन्न है, निस्सन्देह तो नहीं माना जा सकता। . ____ इस तरह विभिन्न उल्लेखोंके प्रकाशमें मस्करी और मक्खलि गोशालककी तथा मस्करी और आजीविकोंकी एकरूपता भी सन्देह रहित नहीं है। इस विषयमें हम अपनी ओरसे कुछ न लिखकर आजीविकोंके विशिष्ट अभ्यासी डा० वरुआका मत ही लिख देना उचित समझते हैं। वह कहते हैं--'उक्त विषयमें जितने उदाहरण दिये गये हैं उनमें एकरूपता नहीं है। क्योंकि कुछ अन्य ब्राह्मण ग्रन्थोंमें, यथा जानकी हरण और भट्टिकाव्यमें आजीविकको मस्करी और एकदण्डीका तुल्यार्थक कहा है। किन्तु ये प्रयोग निराबाध नहीं हैं क्योंकि कतिपय जैन और बौद्ध ग्रन्थोंमें आजीविकोंको स्पष्ट रूपसे परिव्राजकों या परमहंसोंसे भिन्न बतलाया है। और परिव्राजकों या परमहंसोंके एकदण्डी और त्रिदण्डी दो मुख्य विभाग थे। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि आजीविकों और परिब्राजकोंका पार्थक्य उतना ही प्राचीन है जितना प्राचीन मक्खलि गोशालकका समय है। और एक बौद्ध ग्रन्थके अंशसे कोई भी इसका अनुमान लगा सकता है। कुछ अन्य बौद्ध निकायोंमें भी इस प्रकार के अंश पाये जाते हैं जिनमें बौद्धोंने स्वयं आजीविकोंको परिव्राजकों और त्रिदण्डियोंसे भिन्न बतलाया है।'-भा० ई० पत्रि०, जि०८, पृ० १५ । आगे डा० वरुआने लिखा है - 'एक दृष्टिसे प्राचीन जैन और बौद्ध ग्रन्थोंमें अत्यन्त समानता है १-'कूनपन्नास आजीवसते, एकूनपन्नास परिभाजकसते'-दीघ० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद ४३६ जहाँ कहीं उनमें 'आजीविय' या 'आजीवक' नाम आता है, स्पष्ट रूपसे या निर्विकल्प रूपसे वह गोशालक और उसके शिष्यों अथवा अनुयायिओंसे सम्बन्ध रखता है।' ___ अतः प्रारम्भमें गोशालकके परिव्राजक सम्प्रदायके मुखिया होनेकी डा० याकोबीकी धारणा साधार प्रतीत नहीं होती। क्या गोशालक पापित्यीय था ? देवसेनके दर्शनसार ( वि० सं० ६६० ) में जैसे प्रारम्भमें बुद्धको पार्श्वनाथकी परम्पराके निग्रन्थका शिष्य बतलाया है वैसे ही मस्करीपूरण साधुको भी पाश्व नाथकी परम्परामें दीक्षित हुआ बतलाया है। लिखा है-'महावीर भगवानके तीर्थमें पार्श्वनाथ तीर्थङ्करके संघके किसी गणीका शिष्य मस्करीपूरण नामका साधु था। उ: ने लोकमें अज्ञान मिथ्यात्वका उपदेश दिया। अज्ञानसे मोक्ष होता है। मुक्त जीवोंको ज्ञान नहीं होता। जीवोंका पुनरागमन नहीं होता वे मरकर भव भवमें भ्रमण नहीं करते।' पं० आशाधरने अनगारधर्मामृतकी टीका ( वि० सं० १३०० । पृ०६) में लिखा है-'मस्करीपूरण नामक एक ऋषि पार्श्वनायके तीर्थमें उत्पन्न हुआ था। जब भगवान महावीरको केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ तो वह उनके समवसरण में इस इच्छासे गया कि मेरे जानेसे इनकी बाणी खिरेगी। किन्तु वाणी नहीं खिरी । तब उसे यह ईर्षा हुई कि अपने शिष्य गौतमको उपस्थितिमें तो १-'सिरिवीरणाहतिहत्थे बहुस्सुदो पाससंघगणिसोसो। मक्कडिपूरण साहू अण्णाणं भासए लोए ॥२०॥ अण्णाणादो मोक्खो णाणं णत्थीति मुत्तजीवाणं । पुणरागमनं भमणं भवे भवे णत्थि जीवस्स ।।२१॥'-द० सा०। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ० पूर्व पीठिका महावीरकी वाणी खिरती है, मैं ग्यारह अङ्गों का पाठी हूँ, फिर भी मेरे रहते हुए वाणी क्यों नहीं होती। यह सर्वज्ञ नहीं है । यह जानकर वह वहाँसे चल दिया और उसने अज्ञानसे मोक्ष होता है. यह मत चलाया' । ४४० दोनों उल्लेखों में साधुका नाम मस्करिपूरण लिखा है । बौद्ध ग्रन्थोंसे यह प्रकट है कि बुद्ध कालीन है शास्ताओं में से एक पूरण काश्यप था, और एक मक्खलि गोशालक था । गोशालकको तो मस्करी लिखा मिलता है किन्तु पूरण काश्यपको मस्करी लिखा कहीं नहीं देखा गया । संभव है मक्खलिंको ही मस्करीपूरण समझ लिया हो । अनगार धर्मामृतमें जो महावीर के समवसरण में मस्करीपूरके जानेका निर्देश किया है उससे उक्त संभावना की ही पुष्टि होती है। क्योंकि पूरण काश्यप और महावीरके परिचयका निर्देश तो कहीं नहीं मिलता किन्तु महावीर और मक्खलि गोशालकका मिलता है । किन्तु उनके जिस अज्ञान मतका दर्शनसार में उल्लेख है उससे उनके मतका ठीक स्पष्टीकरण नहीं होता । बौद्ध ग्रन्थ दीघनिकाय के सामञ्ज फलसुत्तमें पूरण काश्यपका मत दिया है । उसका सारांश इतना ही है कि न बुरे कर्म करने से पाप होता है और न अच्छे कर्म करनेसे पुण्य होता है । इसी सूक्तमें मक्खलि गोशालकका मत देते हुए उसे नियतिवादी कहा है। किन्तु बौद्ध ग्रन्थ मिलिन्द प्रश्न में लिखा है कि सम्राट् मिलिन्द ने गोशालक से पूछा 'अच्छे बुरे कर्म हैं या नहीं ? और अच्छे बुरे कर्मों का फल है या नहीं ? गोशालकने उत्तर दिया- अच्छे बुरे कर्म भी नहीं है और उनके फल भी नहीं है । यह उत्तर पूरणकाश्यपके मतके ही अनुरूप है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद ४४१ दीघनिकायकी टीकामें बुद्ध घोषने गोशालकका मत दिया है कि वह मनुष्योंको छ विभागोंमें विभाजित करता था। किन्तु गुंतरनिकायमें उस मतको पूरण काश्यपका मत माना है । ( इ० इ० रि, जि० १, पृ० २६२) बौद्ध ग्रन्थोंके उक्त उल्लेखोंसे यह प्रकट होता है कि मक्ख ल गोशालक और पूरण कश्यपके मतोंमें कुछ समानता थी । शायद इसीसे भ्रमवश दोनोंको एक समझ लिया गया। मक्खलि गोशालकके जीवनके विषयमें बौद्ध साहित्यमें जो कथा मिलती है वह हम लिख आये हैं उससे मिलती जुलती हुई कथा पूरण काश्यपके जीवनके विषयमें भी मिलती है। लिखा है'यह एक म्लेच्छ स्त्रीके गर्भसे उत्पन्न हुआ था। उसका नाम काश्यप था। इस जन्मसे पहले वह ६६ जन्म धारण कर चुका था। वर्तमान जन्ममें उसने सौ जन्म पूर्ण किये थे, इस कारण लोग उसको पूरण काश्यप कहने लगे थे। उसके स्वामीने उसे द्वारपालका काम सौंपा था। परन्तु वह उसे पसन्द नहीं आया और वह नगरसे भागकर बनमें रहने लगा। एक बार चोरोंने उसके वस्त्र वगैरह छीन लिये। परन्तु उसने कपड़ोंकी परवाह नहीं की और वह नंगा ही रहने लगा। उसके बाद वह अपनेको पूरणकाश्यप बुद्धके नामसे प्रकट करने लगा और कहने लगा कि मैं सर्वज्ञ हूँ। एक बार जब वह नगरमें गया तो लोग उसे वस्त्र देने लगे, परन्तु उसने लेनेसे इन्कार कर दिया और कहा-'वस्त्र लज्जा निवारणके लिये पहने जाते हैं और लज्जा पापका फल है। मैं अर्हत् हूँ और सब पापोंसे मुक्त हूँ इसलिये मैं लज्जासे अतीत हूँ।' लोगोंने काश्यपके कथनको ठीक माना और उसकी पूजा की। उनमेंसे पाँच सौ मनुष्य उसके शिष्य हो गये। सारे जम्बू Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० ४५२ द्वीप में यह घोषित हो गया कि वह बुद्ध है और उसके बहुतसे शिष्य हैं। ० सा० इ० - पूर्व पीठिका उक्त बातोंके प्रकाश में गोशालक मस्करी और पूरणकाश्यपके जीवनवृत्त में तथा कतिपय सिद्धान्तों में समानता प्रतीत होती है । इससे दोनोंके ऐक्यका भ्रम होना सम्भव है। नौवीं - दसवीं शताब्दी के कतिपय जैन ग्रन्थोंमें केवल मस्करीका निर्देश मिलता है । आचार्य नेमिचन्द्र ने अपने गोम्मटसार जीवकाण्डकी गा० १६ Hariat अज्ञानवादी बतलाया है तथा यह भी बतलाया है। कि मस्करी मुक्तिसे पुनरागमन मानता था । यद्यपि मक्खलि गोशालक के मुक्ति सम्बन्धी विचार पूर्णतया ज्ञात नहीं है । तथापि तथोक्त अज्ञानवादी मस्करी मक्खलि गोशालक ही ज्ञात होता है । और दर्शनसार के अनुसार वह तथा सम्भवतया पूरण काश्यप भी प्रारम्भ में पार्श्वनाथके निग्रन्थ सम्प्रदाय के साधु थे । श्वेताम्ब रीय आगम में लिखा है कि गोशालकका पार्श्वपत्ययों से घनिष्ठ सम्बन्ध था अतः गोशालक प्रारम्भ में पार्श्वनाथका अनुयाया रहा हो, यह संभव है । महावीर और गोशालक के सम्मिलनका उद्देश्य तथा पारस्परिक आदानप्रदान डा० याकोबीका अनुमान है कि महावीर और गोशालक अपने अपने सम्प्रदायों को मिलाकर एक कर देनेके इरादे से मिले थे और चूँकि वे दोनो बहुत समय तक एक साथ रहे इसलिये उन दोनों में ऐकमत्य होनेका अनुमान करना स्वाभाविक है । कुछ Jain Educationa International वे लिखते हैं- 'मैं ० २३ के टिप्पण में बतला आया हूं कि 'सव्वे सत्ता, सव्वे पाना, सव्वे भूता, सव्त्रे जीवा' यह कथन गोशा लक और जैनों में समान है। तथा टीका से हम जानते हैं कि तिर्यञ्चों For Personal and Private Use Only Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४३ घ भेद का एकेंद्रिय द्वीन्द्रिय आदिमें विभाजन, जो जैन ग्रन्थोंके लिये साधारण बात है, गोशालक भी मानता था। लेश्यावादका विचित्र जैन सिद्धान्त भी गोशालकके मनुष्योंको छै भागोंमें विभाजित करनेके सिद्धान्तसे बिलकुल मिलता जुलता है। इसके सम्बन्धमें मैं यह विश्वास करनेके लिये तैयार हूं कि जैनोंने इस सिद्धान्तको आजीविकोंसे लिया और अपना बना लिया ' आदरणीय विद्वानके उक्त उद्गारोंको अस्वीकार करते हुए हमें बहुत ही संकोच होता है। दोनोंके कतिपय सिद्धान्तोंमें समानताका होना तो अवश्यंभावी था, क्योंकि दोनों एक साथ वर्षों तक रहे थे। किन्तु ऐसी स्थितिमें एकतरफा यह विश्वास कैसे किया जा सकता है कि इस सिद्धान्तको जैनोंने आजीविकोंसे लिया। प्राप्त प्रमाणोंके आधार पर हमें तो इससे विपरीत स्थिति ही दृष्टिगोचर होती है। जैन सिद्धान्तके अभ्यासियोंसे यह बात छिपी नहीं है कि समस्त जीवोंकी दशाओंका ज्ञान करानेके लिये १४ मार्गणाओं और १४ गुण स्थानोंका गम्भीर सांगोपांग वर्णन उच्च कोटिके जैन ग्रन्थों में पाया जाता है। लेश्या मार्गणाओंका ही एक भेद है और जिन योग और कषायके मेलसे लेश्याकी निष्पत्ति होती है उन योग और कषायोंकी चर्चासे जैन सिद्धान्त भरा हुआ है। * यदि यही मान लिया जाये कि इस सिद्धान्तको जैनोंने आजीविकोंसे लिया है तो आजीविकोंने उसे किससे लिया। जिस अचेलक परिव्राजक सम्प्रदायका उत्तराधिकारी गोशालकको कहा जाता है, उसमें तो इस सिद्धान्तके होनेका कोई संकेत नहीं मिलता। तब गोशालकने इस सिद्धान्तको किससे लिया। उसका स्वयंका आविष्कृत तो हो नहीं सकता। इसके सम्बन्धमें डा० हानलेने जो विचार प्रकट किये हैं, वह भी मननीय हैं। उन्होंने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '४४४ ० सा० इ० पूर्व-पीठिका . लिखा है-'इस सम्बन्धमें यह उल्लेख करना मनोरंजक है कि बुद्धघोषने अपनी टीकामें जो गोशालकके मनुष्य जातिको छै भागोंमें विभाजित करनेवाले सिद्धान्तका कथन किया है वह अंगुत्तर निकायके आधार पर किया है और अंगुत्तर निकायमें इस सिद्धांत को पूरणकाश्यपका बतलाया है। यदि यह केवल मूल ग्रन्थसे सम्बन्धित भूल नहीं है तो यह प्रमाणित करती है कि मनुष्य विभाग वाला सिद्धान्त बुद्धके विरोधी छैो शास्ताओंके लिये समान रूपसे मान्य था।'-इं० इ० रि०, जि० १, पृ. २६२ । ____ उक्त स्थितिमें इकतरफा निर्णय नहीं किया जा सकता। इसी तरहकी कतिपय समानताओंको देखकर कुछ विद्वानोंने जैन धर्मको बौद्ध धर्मकी एक शाखा समझ लिया था। उसका निराकरण करके डा• याकोवीने जैन धर्मको एक स्वतंत्र और बौद्ध धर्मसे प्राचीन सिद्ध किया । तब जैनों और आजीविकोंकी कतिपय बातों में समानता देखकर यह निर्णय नहीं किया जा सकता कि जैनोंने आजीविकोंसे अमुक बात ली है या महावीरके धर्म पर गोशालक का बड़ा प्रभाव पड़ा। आचार सम्बन्धी नियम महावीरके आचार सम्बन्धी नियमों पर गोशालकका प्रभाव बतलाते हुए डा० याकोवीने लिखा है-'आचार सम्बन्धी नियमों के सम्बन्धमें संगृहीत प्रमाण करीब करीब यह प्रमाणित करनेकी स्थितिमें हैं कि महावीरने अधिक कठोर आचार गोशालकसे लिये हैं क्योंकि उत्तराध्ययनमें ( २३ अ० गा० १३) कहा है कि पाश्वका धर्म 'सान्तरोत्तर' था-साधुको एक अन्तर वस्त्र और एक उत्तर वस्त्र धारण करनेकी अनुमति देता था। किन्तु महावीरके धर्ममें साधुके लिये वस्त्रका निषेध था। जैन सूत्रोंमें नंगे साधुके Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद ४४५ लिये अचेलक शब्द बहुतायतसे आता है। किन्तु बौद्ध अचेलकों और निर्ग्रन्थोंमें भेद करते हैं। धम्मपदकी बुद्धघोषकृत टीकामें कुछ भिक्षों के सम्बन्धमें यह कहा है कि वे अचेलकोंसे निग्रन्थों को प्राथमिकता देते हैं, क्योंकि अचेलक बिल्कुल नग्न होते हैं। (सब्वसो अपतिक्खन्ना)। जब कि निग्रन्थ मर्यादाकी रक्षाके लिये एक प्रकारके आवरणका उपयोग करते हैं। किन्तु उन भिक्षोंने गलत' समझ लिया बौद्ध अचेलकके द्वारा मक्खलि गोशाल ओर उसके पूर्वज किस संकिक और नन्दवक्खके अनुयायिका निर्देश करते हैं और मज्झिम निकायमें उनके नियमोंका विवरण देते हैं।। उत्तराध्ययनके जिस उल्लेखकी चची डा० याकोवीने उपरकी है उसके सम्बन्धमें हम पहले लिख आये हैं। इसमें पार्श्वनाथकी परम्पराके केशी श्रमण पार्श्वनाथके धर्मको सान्तरोत्तर और महा-- वीरके धर्मको अचेलक बतलाते हैं। 'सान्तरोत्तर' का एक अधोवस्त्र और एक उत्तरवस्त्र अर्थ जो डा० याकोवीने किया है वह श्वेताम्बरीय टीकाकारोंके अर्थोंको देखते हुए तो बहुत ही उचित है। किन्तु आचारांग सूत्रमें उसके प्रयोगको देखते हुए यह भी १-टिप्पणी में डा० याकोवीने लिखा है-'सेसकं पुरिमसमप्पिता व पतिक्खादेति' यह शब्द बिल्कुल स्पष्ट नहीं है। किन्तु भेदसे उसका श्राशय स्पष्ट हो जाता है। मेरा विश्वास है कि पालि 'सेसक' शब्द शिश्नकके लिये आया है। यदि यह ठीक है तो उक्त पदका अर्थ इस प्रकार होगा । 'वे ( अपने शरीरके ) अग्र भागके लगभग ( एक वस्त्र ) धारण करके अपने गुप्त अंगको ढांक लेते हैं । २. श्राचार्य शीलाङ्गने अपनी टीकामें यही अर्थ किया है--सान्तर मुत्तरं-प्रावरणीयं यस्य स तथा क्वचित् प्रावृणोति, क्वचित् पार्श्ववर्ति विभर्ति' । श्राचा० सू० टी० (सू० २०९)। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका अर्थ होता है कि वस्त्रको पास रखे और आवश्यकता हो तो उसका उपयोग कर ले । ऐसा अर्थ करनेसे श्वेताम्बरीय' ग्रन्थों में ही जो पार्श्वनाथके धर्मको सचेन और अचेल दोनों बतलाया है उसकी संगति भी बैठ जाती है। तथा क्यों पार्श्वनाथने 'सान्तरोत्तर और महावीरने अचेलक धर्म रखा, इसका जो समाधान गौतमने किया, उसकी संगति बैठ जाती है। ____ आचारांग सूत्र के अनुसार वस्त्रधारणके तीन कारण बतलाये हैं-परीषह सहने में असमर्थता, इन्द्रियविकार और लज्जाशीलता। ऐसे असमर्थ साधुओंको गुह्य प्रच्छादनकी या वस्त्रधारणकी आज्ञा पार्श्वनाथके धर्ममें रही हो यह संभव माना जा सकता है। क्योंकि बौद्ध उल्लेखोंसे भी निर्ग्रन्थोंके सवस्त्र होनेका समर्थन मिलता है। किन्तु हमें यह न भुला देना चाहिये कि महावीरके समयमें पार्श्वपत्यीयोंमें शिथिलाचारने ही नहीं, किन्तु दुराचार तकने प्रवेश कर लिया था। डा० याकोवीने भी इसे मान्य किया था । इसका वर्णन पीछे किया भी जा चुका है। अतः महावीरके समयमें वर्तमान पार्खापत्यीयोंके आचरणके आधार परसे यह नहीं कहा जा सकता कि पार्श्वनाथने उसी आचार धर्मका नियम अपने साधुओंके लिये रखा था। और बौद्ध पिटक साहित्यमें जिन निर्ग्रन्थोंकी चर्चा है, डा० याकोबीके अनुसार भी वे प्रायः पार्श्वनाथीय परम्पराके निर्ग्रन्थ थे। किन्तु बौद्ध ग्रन्थों में ही ऐसे भी निग्रन्थोंका उल्लेख है जो नंगे रहते थे। यहाँ हम कतिपय बौद्ध उल्लेखोंको देते हैं १-'श्राचेलको धम्मो पुरिमस्स य पछिमस्स य जिणस्स । मझिमगाण जिणाणं होई सचेलो अचेलो य ।।१२।।' पञ्चा० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद ४४७ अंगुत्तर निकायमें तो 'निग्गंठा एकसाटका 'लिखकर निग्रन्थों को एकशाटक बतलाया है। किन्तु बुद्धघोषने दीघनिकायकी टीकामें तथा धम्मपदकी टीका में, जिसका उल्लेख डा० याकोवीने अपने लेखमें किया है, निग्रन्थोंको गुह्यांग मात्र ढाकने वाला बतलाया है। डा० याकोबीने ही अपने 'महावीर और उसके पूर्ववर्ती' शीर्षक लेखमें बतलाया है कि बुद्धघोषने धम्मपदकी टीकामें लिखा है कि जो निम्रन्थ नग्न रहते है वे उत्तम निग्रन्थ माने जाते हैं। __स्पेंस हार्डीने अपनी पुस्तक 'ए मैन्युअल आफ बुद्धिज्म' (पृ० २३१ ) में लिखा है कि श्रावस्तोका मृगार सेठ निग्रन्थोंका भक्त था । उसने अपनी पुत्रवधू विशाखाको जो बुद्धकी भक्त थी, अपने निग्रन्थोंके दर्शनार्थ बुलाया। जब उसने नंगे निगंठोको देखा तो वह अचकचा कर लौट गई। __बुद्धचर्या (पृ० ३२६ ) में राहुल जीने इस घटनाका वर्णन करते हुए नंगे निगंठोंका निर्देश किया है। ___ इस तरह प्राचीन बौद्ध साहित्यमें निम्रन्थोंके दो रूप मिलते हैं, नंगे और कौपीनधारी या एकशाटक । उनमें पार्थापत्यीय निम्रन्थ भी सम्मिलित हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि वस्त्र को लेकर पार्श्वनाथ और महावीरके धर्ममें कितना अन्तर था ? तथा पार्श्वनाथके अनुयायिओं द्वारा ग्राह्य और महावीरके द्वारा त्याज्य वस्त्रकी क्या स्थिति थी। ___ पीछे, भगवान बुद्धसे पहले निग्रन्थ सम्प्रदायका अस्तित्व सिद्ध करते हुए, मज्झिम निकायके महासीहनादसुत्तसे बुद्धकी पूर्वचर्याका वर्णन दे आये हैं और यह बतला आये हैं कि बुद्धने निग्रन्थोंकी चर्याका भी पालन किया था क्योंकि उसमें उन्होंने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ जै० सा० इ०-पूर्व पोटिका अपने नंगे रहने, केश लोच करने और हाथमें भोजन करनेका निर्देश किया है और ये सब आचार दिगम्बर निग्रन्थ साधुके हैं। अतः बुद्ध के समयमें तथा उससे पहले भी नंगे निम्रन्थ थे, यह प्रमाणित होता है। ___ मज्झिम निकायके महासचक सुत्तंत (पृ० १४४ ) में सच्चक निगंठपुत्तने ठीक वही आचार. जो बुद्धने पाला था-आजीविकोंका बतलाया है। जिसके सम्बन्धमें डा० याकोबी यह संभावना करते हैं कि महावीरने उन नियमोंको अचेलकों अथवा आजीविकोंसे लिया। आजीविकोंके सम्बन्धमें प्रकाश डालते हुए यह बतलाया है कि बौद्ध साहित्यमें जहाँ कहीं आजीविकोंका वर्णन है वहाँ आजीविकोंसे गोशालकके अनुयायी अभिप्रेत है। गोशालक ही आजीविक सम्प्रदायका संस्थापक था और वह बुद्धका समकालीन था। अतः बुद्धने अपने जीवनके पूर्व भागमें यदि उक्त कठोर तपश्चरण किया था तो निश्चय ही उन्होंने आजीविकोंको प्रव्रज्या नहीं ली थी, क्योंकि उस समय आजीविक नहीं थे। किन्तु निग्रन्थ सम्प्रदाय बुद्धसे पहले भी वर्तमान था। और एक जैन उल्लेखके अनुसार बुद्धने उस निग्रन्थ सम्प्रदायके एक आचार्यसे प्रव्रज्या धारण की थी। ___ यदि जरा देरके लिये यह मान लिया जाये कि उक्त कठोर आचरण आजीविकोंका था तो प्रश्न होता है कि उन्होंने यह कठोर प्राचार किससे लिया, क्योंकि डा० याकोवीने जैन सूत्रोंकी प्रस्तावनामें ( सं० बु० ई०, जि० २२, पृ० ३४ आदि) यह लिखा है कि जैनों और बौद्धोंने अपने साधु धर्मके आचार गौतम धर्म सूत्र और बौद्धायन धर्म सूत्रसे लिये हैं। उक्त धर्मसूत्रों के नियमोंमें न तो नग्न रहनेका विधान है, न Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद ४४९ हस्तभोजन है और न केशलु च हैं । उसके कतिपय नियम निम्न प्रकार हैं १ एक साधुको कुछ भी संचय नहीं रखना चाहिये । अर्थात् अपरिग्रही होना चाहिये । २ ब्रह्मचारी होना चाहिये । ३ वर्षाऋतु में उसे अपना स्थान परिवर्तन नहीं करना चाहिये । ४ उसे केवल भिक्षा के लिये ही ग्राममें जाना चाहिये । ५ मनुष्यों के भोजन कर चुकनेके पश्चात् ही उसे भिक्षा माँगनी चाहिये । ( जैन मुनि पहले जाते हैं ) । ६ सब प्रकारकी इच्छाओं को रोकना चाहिये । ७ उसे अपनी नग्नता छिपाने के लिये एक वस्त्र धारण करना चाहिये । ८ बौद्धायनके अनुसार उसे एक पीतपट पहिनना चाहिये । ६ उसे पौदों और वृक्षोंका कोई भाग नहीं लेना चाहिये, सिवाय उसके जो स्वतः अलग हो गया हो । १० एक गाँव में एक ही रात रहना चाहिये । ११ उसे या तो बाल कटाना चाहिये या जटाजूट रखना चाहिये ! १२ उसे बीजोंको नष्ट नहीं करना चाहिये । १३ जल छाननेका वस्त्र रखना चाहिए । १४ एक लकड़ी रखना चाहिये । १५. जो भोजन, बिना कहे, बिना पूर्व तैयारीके, अचानक प्राप्त हो जाये वही साधुको ग्रहण करना चाहिये और उतना ही ग्रहण करना चाहिये जितना जीवन धारण के लिये आवश्यक हो । गौतम धर्मसूत्र और बौद्धायन धर्मसूत्र बद्धसे प्राचीन हैं ऐसा कतिपय विद्वानों का मत है। इसलिये बौद्धधर्मने उनका अनुकरण २६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका किया हो, यह संभव है। किन्तु जब पाश्व नाथको ऐतिहासिक व्यक्ति तथा जैन धर्मका, जो कि प्राचीनतम साधु धर्मों में से माना जाता है, संस्थापक माना जाता हो, जो निश्चय ही उक्त सूत्रोंसे पूर्व हुए थे ; तब यह कैसे कहा जा सकता है कि जैनोंने अपने नियमांमें उक्त नियमोंका ही अनुकरण किया है।। हम पहले लिख आये हैं कि वैदिक धर्ममें चार आश्रमकी व्यवस्था बहुत बादमें आई है और चौथे संन्यास आश्रमके प्रति उसकी उतनी आस्था नहीं रही है। तथा श्रमणोंकी परम्परा बहुत प्राचीन है और श्राश्रम शब्द भी उसी धातुसे निष्पन्न हुआ है, जिससे श्रमण । अतः आश्रमोंका सम्बन्ध श्रमणोंके साथ ही जान पड़ता है। और इस तरह उक्त नियम श्रमण परम्पराके साधारण नियम हो सकते हैं। किन्तु हमें तो यहाँ यह बतलाना है कि केशलोंच, नग्नता और हस्त भोजन तथा भोजन सम्बन्धी अन्य कड़े आचार उक्त नियमोंमें नहीं हैं, जिन्हें बुद्धने एक समय पालन किया था। ऐसी स्थितिमें यह सम्भावना नहीं की जा सकती कि महावीरने कठोर नियम गोशालकसे लिये। प्रत्युत गोशालक और महावीरका जिस प्रकारका सम्बन्ध बतलाया गया है उससे यही प्रमाणित होता है कि गोशालकने अपने आजीविक सम्प्रदायकी स्थापना महावीरके निग्रन्थ सम्प्रदायके आधार पर की। ___ डा० याकोवीने एक उपपत्ति यह दी है कि सच्चकने निर्ग्रन्थ पुत्र होते हुए भी अचेलक आजीविकोंकी काम भावनाका तो निर्देश किया किन्तु निम्रन्थोंकी काम भावनाका निर्देश नहीं किया जब कि जैन साधुओंको कतिपय क्रियाएँ अचेलक आजीविकोंके तुल्य हैं। इस परसे उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला है कि सच्चक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद ४५१ पार्श्वनाथका अनुयायी निम्रन्थ था और पार्श्वनाथके अनुयायी निग्रन्थोंमें कठोर आचार नहीं पाला जाता था। ___ यह हम पहले बतला आये हैं कि पार्श्वनाथके अनुयायी शिष्योंमें भगवान महावीरके समय तक धीरे धीरे शिथिलाचार आ गया था और वे सुखशील भी बन गये थे। सञ्चक निग्रन्थ भी उनमें से हो सकता है। दूसरी बात यह है कि सच्चक गौतम बुद्धके सामने ऐसे श्रमण ब्राह्मणोंकी चर्चा करता है जो या तो केवल कायिक भावनामें तत्पर हो विहरते हैं या केवल चित्तकी भावनामें हो विहरते हैं । वह कहता है___'भो गौतम ! कोई कोई श्रमण ब्राह्मण कायिक भावनामें तत्पर हो विहरते हैं, चित्तकी भावनामें नहीं। वह शारीरिक दुःखमय वेदनाको पाते हैं । " भो गौतम ! यहाँ कोई श्रमण ब्राह्मण चित्तकी भावनामें तत्पर हो विहरते हैं. कायाकी भावनामें नहीं। भो गौतम वह चैतसिक दुःखवेदनामें पड़ते हैं।' (बु. च०, पृ० १४४) जो केवल काय भावनामें तत्पर हो विहरते हैं उनमें उसने मक्खलि गोशाल और उसके अनुयायिओंको रखते हुए उनकी बुराई की है कि वे खूब खाते पीते और मौज भी करते हैं । चित्त भावनाके विषयमें पूछने पर सच्चक मौन रह जाता है। जब बुद्ध उसे भावितकाय और भावित चित्त कैसे हुआ जाता है यह बतलाते हैं तो सच्चक कहता है-'भो गौतम ! मेरा विश्वास है कि आप गौतम भावितकाय और भावितचित्त हैं ?' तब गौतम कहते हैं-'जरूर, अग्निवेश! तूने तानेसे यह बात कही है।' उक्त वार्तालापसे प्रकट होता है कि सच्चक केवल काय भावना वालों और केवल तिच भावना वालोंका मखोल करनेके लिये बुद्ध Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका के पास आया था और कायभावनामें आजीविकोंको और केवल चित्तभावना वालोंमें गौतम बुद्धको मानता था। आनन्दके कथन से यह भी स्पष्ट है कि वह वकवादी और पंडितमानी था। अतः प्रथम तो निग्रन्थोंकी बुराई करना उसे इष्ट नहीं हो सकता । दूसरे यह भी सम्भव है कि वह निम्रन्थोंको भावितकाय और भावितचित्त मानता हो। इसलिये उसने निग्रन्थोंकी कायभावनाकी चर्चा न करके उनके विरोधी आजीविकोंकी चर्चा की हो। अतः उसके वार्तालाप परसे यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि पाश्वनाथके धर्ममें कठोर आचार नहीं था और महावीरने ही उसे स्थान दिया। हाँ, पार्श्वनाथके अनुयायी निग्रन्थों में जो शिथिलाचार आ गया था, उसे दूर करने के लिये महावीरने अपने निप्रन्थ सम्प्रदायके लिये कठोर आचारकी व्यवस्था की हो यही सम्भव प्रतीत होता है किन्तु वे नियम गोशालकसे लिये हों, यह तो किसी भी तरह सम्भव प्रतीत नहीं होता। ___ डा० याकोवीने अपने विद्वत्तापूर्ण निबन्ध 'महावीर और उसके पूर्ववर्तियों पर' के अन्तमें स्वयं यह बात स्वीकार की है कि दिगम्बर प्राचीन हैं और उस समयके सर्व शास्ताओं पर जैनधर्मका प्रभाव था। वह लिखते हैं-छै तीर्थङ्कर शीर्षक 'जेम्स डी 1-In James d'alwis praper on the 'six Tirthakas' the 'Digambaras' appear to have been regarded as an old order of ascetics, and all of those heretical teachers betray the influence of jainism in their doctrines or religious practices, as we shall now point out. -Ind. Ant. जि०६ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद ४५३ विस के लेखसे प्रकट है कि 'दिगम्बर' साधुओंके एक प्राचीन सम्प्रदाय के रूप में माने जाते रहे हैं। तथा सभी विरोधी धर्मगुरु अपने सिद्धान्तों और धार्मिक आचरणों पर जैन धर्मके प्रभावको अपनाये हुए हैं जैसा कि अब हम बतलायेंगे । गोशाल मक्खलि पुत एक रईसका दास था । उसके मालिकने उसे उसके वस्त्रोंसे बांध दिया । वस्त्र ढीले थे, इससे गोशालक उनसे छूटकर नंगा भाग खड़ा हुआ । इस स्थितिमें वह दिगम्बर जैनोंके या बौद्धोंके पास गया । अपना एक सम्प्रदाय कायम किया । जैनोंके अनुसार वह महावीरका शिष्य था फिर उससे स्वतन्त्र हो गया । " पूरणकश्यपने यह सोचकर कि दिगम्बर रहनेसे मेरी विशेष प्रतिष्ठा होगी, कपड़े पहनना स्वीकार नहीं किया । अजित केश कम्बली वृक्षों में जीव मानता था । पूकुद्ध कात्यायन पानी में जीव मानता था ।'' इस तरह उस समयके चार तीर्थङ्कर जैनधर्मके सिद्धान्तों से प्रभावित थे। इससे प्रकट होता है कि जैन विचार और चार महावीर के समय में अवश्य ही प्रचलित रहे हैं । इससे भी पता चलता है कि निग्रन्थ महावीर से बहुत पहले से चले आते थे ।' डा० याकोवीके ही उक्त शब्दों के प्रकाशमें हमें उनके अभिमत - के विरुद्ध कुछ विशेष कहने की आवश्यकता नहीं रह जाती । डा० हलरने भी महावीरके निम्रन्थ सम्प्रदायका महत्व बतलाते हुए लिखा है- बुद्धके प्रतिद्वन्दी अन्य सम्प्रदायोंका -वर्णन करते हुए बौद्ध ग्रन्थोंमें लिखा है कि उन्होंने निर्ग्रन्थोंकी नकल की है और वे नंगे रहते हैं । अथवा लोग उन्हें निम्रन्थ समझते हैं क्योंकि उन्हें घटनावश वस्त्र त्यागना पड़ा है। यदि वर्धमानका सम्प्रदाय महत्वशाली न होता तो इस प्रकारके उद्गारोंका प्रकटीकरण शक्य न होता । (इं० से० जै० पृ० ३६ ) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૫૪ जै० सा० इ० - पूर्वपीठिका अतः डा० या कवीका यह कथन कि महावीरने गोशालकका अनुसरण किया ठीक नहीं प्रतीत होता । 'महावीर और गोशालकके मिलनका उद्देश्य' डा० याकोबी ने लिखा है- 'महावीरने जो आजीविकोंके कतिपय धार्मिक विचारों और क्रियाओं को अपनाया, इसे हम एक प्रकारका उपहार मानते हैं जो गोशालक और उनके शिष्यों को अपने वश में करनेके लिये दिया गया था । ऐसा लगता है कि यह कुछ समय तक तो सफल हुआ, किन्तु अन्त में दोनों परस्पर में गड़ गये । और यह अनुमान करना शक्य है कि झगड़ा इस बात पर हुआ कि सम्मिलित सम्प्रदायका प्रमुख कौन बने ? गोशालक के साथ अस्थायी सन्धि कर लेनेसे महावीरकी स्थिति दृढ़ हो गई । यदि हम जैनोंके विवरण पर विश्वास करें तो गोशालकका दुखद अन्त उसके सम्प्रदाय के लिये अवश्य ही भयानक आघात हुआ ।' ( से० बु० ई०, जि० ४५, पृ० ३० ) उक्त कथनसे यही प्रकट होता है कि महावीरने गोशालकको प्रसन्न करनेके लिये उसके कुछ आचार अपनाये और गोशालक के साथ अस्थायी सन्धि करनेसे महावीरकी स्थिति दृढ़ हो गई । Jain Educationa International प्रथम बातके सम्बन्धमें हम प्रकाश डाल चुके हैं। अतः यहाँ दूसरीके सम्बन्धमें डालते हैं। डा० याकोवीने जैन सूत्रोंकी अपनी उसी प्रस्तावना में, जिसमें उक्त बात कही है, लिखा है कि 'जब बौद्ध धर्म स्थापित हुआ उस समय निग्रन्थ एक प्रमुख सम्प्रदायके रूप में वर्तमान थे । तथा अन्यत्र बौद्ध ग्रन्थोंमें निगन्थोंका बहुतायत से उल्लेख तथा इसके विपरीत जैन आगमों में बौद्धोंका किचित भी निर्देश न देखकर उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि For Personal and Private Use Only Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद ४५५ बौद्ध निर्गन्थोंको एक प्रनुख सम्प्रदाय मानते थे जब कि जैन अपने विरोधियोंकी परवाह नहीं करते थे। यह तो हुई बुद्धके समय निग्रन्थ सम्प्रदायकी स्थिति जिसके प्रमुख निग्रन्थ ज्ञातृपुत्र महावीर थे। महावोरके सम्बन्धमें डा० याकोवीने जैन सूत्रों के प्रथम भागकी अपनी प्रस्तावनामें उनके मातृकुल और पितृकुलका परिचय देते हुए लिखा है कि यह हम इसलिये दे रहे हैं कि हम इसके ज्ञानसे यह जान सकने में समर्थ हो सकें कि महावीर अपने मिशनमें सफलता कैसे प्राप्तकर सके। ___ जहाँ तक ज्ञात होता है पितृकुल और मातृकुल के सम्बन्धोंकी दृष्टिसे महावीरकी लौकिक स्थिति बुद्धसे यदि इक्कीस नहीं थी तो उन्नीस भी नहीं थी। तथा वह प्राचीन निग्रन्थ सम्प्रदायके तीर्थङ्कर थे। बौद्ध निकाय ग्रन्थोंमें यत्र तत्र उनकी चर्चा करते हुए लिखा है कि बड़ी भारी निर्ग्रन्थोंकी परिषदके साथ निगंठ नाटपुत्त अमुक जगह वास करते थे। इसके विपरीत गोशालक कुलकी दृष्टिसे हीन था, मांगता खाता फिरता था। अब वह महावीरके पास आया तब उसकी कोई स्थिति नहीं थी। बौद्ध निकाय ग्रन्थोंमें यद्यपि छै शास्ताओंमें उसका नाम भी सर्वत्र आता है, किन्तु मुझे तो एक भी ऐसा उल्लेख नहीं मिला, जहाँ उसे भी आजीविकोंकी बड़ी परिषदके साथ वास करता बतलाया हो, उत्तरा० सूत्र० के आद्रक और गोशालक संवादमें गोशालक महावीर भगवानपर यह आरोप लगाता है कि पहले महावीर एकाकी रहते थे और अब बहुतसे निग्रन्थोंके साथ रहते हैं। इस पर डा० हानलेने लिखा है कि-गोशालकके साथ भी बहुतसे आजीविक रहते थे। अतः संघके प्रमुखका बहुतसे साधुओंसे घिरे रहना कोई दोष नहीं है। किन्तु इस Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ जै० सा० इ० - पूर्व पीठिका आपसे यह प्रकट होता है कि महावीरने बुद्धकी तरह थों का एक संघ स्थापित कर लिया था । महावीरके अनुयायी छोटे या बड़े समुदायोंमें विभिन्न स्थानों में फैले हुए थे, जो एक संघ एक नियम और एक नेताके अधीन थे। इसके विपरीत गोशालक के अनुयायी संख्या में थोड़े थे और उसीके साथ रहते थे । अन्य भी आजीविक संघ थे किन्तु वे नन्दवत्स्य और कृश सांकृत्य के अधीन थे। निन्थों और बौद्धोंकी तरह आजीविकोंका एक संघ नहीं था । अपने अत्यधिक सफल प्रतिद्वन्दीके विरुद्ध गोशालक का उक्त दोषारोपण उसकी अपनी अयोग्यताको ही बतलाता है ।' - ( इं० इ०रि० ) ऐसी स्थिति में मैं नहीं समझता कि महावीरको गोशालकको प्रसन्न करनेकी क्या आवश्यकता थी ? गोशालककी स्थिति तो ऐसी जान पड़ती है कि जिसके साथ स्नेह होजानेसे आदर मिलने की संभावना नहीं, और विद्वेष होजानेसे भयकी सम्भावना नहीं । 9 डा० याकोबीकी अपेक्षा डा० हार्नलेका मत ही इस विषय में अधिक साधार प्रतीत होता है। वे लिखते हैं- 'महावीर से मिलनेमें गोशालकका क्या उद्देश्य था यह निश्चय कर सकना कठिन है । यह हो सकता है कि उस धार्मिक उत्साही महावीरकी संगतिसे गोशालक स्वभावमें अपेक्षाकृत उत्तम सहज ज्ञान अस्थायी रूपसे जाग्रत हुआ हो । अथवा यह हो सकता है कि, जैसाकि जैन विवरण बतलाता है, गोशालकने महावीर से अपने व्यवसाय के लिये उपयोगी शक्तिशाली उपायोंको सीखनेकी आशा की हो । डा० बरुने' 'आजीविक' सम्बन्धी अपने निबन्धमें बतलाया १ - मां० इं० पत्रिका, जि०८, पृ० १८३ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद ४५७ है कि आजीविक शब्दका प्रयोग भारतीय साहित्यमें इन तीनके लिये किया गया है (१) विस्तृत अर्थमें परिव्राजकोंके लिए (२) संकुचित अर्थमें पूरणकस्सप, मक्खलि गोशाल आदि पांच तीर्थकोके धार्मिक सम्प्रदायोंके लिए। और (३) अत्यन्त संकुचित अर्थमें मक्खलि या मक्खलि पुत्र गोशालके शिष्यों और अनुयायिओंके लिये। तथा भ रतीय साहित्यमें जिन विभिन्नरूपोंमें आजीवकोंका उल्लेख पाया जाता है उन्हें चार श्रेणियोंमें रखा जा सकता है-(१) अचेलक साधु, जो अचेल, अचेलक खपणइ, क्षपणक, नग्न, नग्नपव्वजित नम्नक, नग्नक्षपणक कहे जाते थे। (२) एक परिव्राजकोंका समुदाय जो अपने साथ एक वांसकी लकड़ी या एक लकड़ी रखता था । और मस्करी, एदण्डी, एकदण्डी, लट्ठीहत्थ, और वेणु परिव्राजक कहा जाता था। (३) सिरमुंडे वैरागी, जो घर २ भिक्षा मांगते हैं और जिन्हें मुण्डियमुण्ड या 'घर मुडनिय समण' कहा है । ( ४ ) सन्यासियोंकी एक श्रेणी, जिनके जीवनका व्यवसाय भिक्षावृत्ति था जो नग्नताको अपनी स्वच्छता और त्यागका एक बाह्य चिन्ह बनाये हुए थे, किन्तु अन्तरंगमें एक गृहस्थसे अच्छे नहीं थे। उन्हें आजीव, आजीवक, आजीविय, आजीविक और जीवसिद्धो क्षपणक कहा है। कहना न होगा कि ऊपर का नम्बर तीन और नीचेका चार परस्परमें सम्बद्ध हैं। अर्थात् गोशालकके अनुयायी या शिष्य, जो आजीविक कहे जाते थे, यद्यपि संन्यासी थे, किन्तु जीविकाके खोजी मात्र थे। और संन्यासके आवरणमें एक गृहस्थसे अच्छे नहीं थे जैसा कि आगे स्पष्ट किया जायेगा। ऐसे गोशालककी संगतिसे महावीर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ जै० सा० इ० - पूर्व पीठिका ? और उसके सम्प्रदायको लाभ पहुँचनेकी कोई संभावना नहीं की जा सकती। और इसलिये गोशालक महावीरको आदर पूर्वक भिक्षा मिलते देखकर उनके साथ रहनेके लिये उत्सुक हुआ हो, यही संभव प्रतीत होता है । अब प्रश्न रहा, महावीर से गोशालक पृथक क्यों हुआ डा० याकोवीका कहना है कि सम्मिलित संघका प्रमुख कौन बने इसको लेकर इन दोनों में झगड़ा हुआ जान पड़ता है । भगवती सूत्र तो उनके भेदका कारण सैद्धान्तिक मतभेदका होना बतलाता है । तिलके पौदेवाली घटना के बादसे उनमें वैमनस्य पैदा हुआ किन्तु पृथक होनेके पश्चात् गोशालकने श्रावस्ती में एक कुम्हारी के घरमें रहकर अपना पृथक संघ बनाया और अपनेको चौबीसवां तोर्थङ्कर कहना शुरू किया । इससे यह भी स्पष्ट है कि उसके मन में तीर्थङ्कर बनने की अभिलाषा थी । और महावीर से पृथक होकर वह उनसे पहले तीर्थङ्कर बन गया, क्योंकि भ० सू० के अनुसार जब महावीरको जिन दीक्षा लिये पूरे दो वर्ष भी नहीं हुए थे, तभी गोशालक उनके पीछे लग गया और छै वर्ष तक साथ रहा। महावीर स्वामीने लगभग तीस वर्षकी अवस्था में जिन दीक्षा ली, और बारह वर्ष के तपश्चरणके पश्चात् उन्हें केवल ज्ञानकी प्राप्ति के साथ ही साथ तीर्थङ्कर पद प्राप्त हुआ । इस तरह उन्हें ४२ वर्षकी अवस्थामें तीर्थङ्कर पद प्राप्त हुआ । और जब वह ३८ के थे, तभी गौशालकने उनसे सम्बन्ध विच्छेद कर लिया और अपना संघ कायम कर दिया। इस घटना के पश्चात् श्रावस्ती में ही उनकी भेंट हुई। उस समय महावीरको तीर्थङ्कर हुए चौदह वर्ष बीते थे । और गोशालकके आजीविक संघको स्थापित हुए १६ वर्ष हो चुके थे । किन्तु तीर्थङ्कर पदको लेकर कलह सम्बन्धविच्छेदका मूल Jain Educationa International For Personal and Private Use Only ܢ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद ४५६. कारण नहीं जान पड़ता । उसके मूल में कुछ अन्य कारण भी हैं,. जैन और बौद्ध उल्लेखोंसे जिनका समर्थन होता है। डा० हार्नलेने लिखा है कि इस जैन वक्तव्यकी, कि गोशालक एक कुम्हारीके घर में रहा था, सत्यतामें सन्देह करनेका कोई कारण प्रतीत नहीं होता । यह कार्य गोशालक के वास्तविक चरित्र पर प्रकाश डालता है और गोशालक के प्रति बुद्धके घृणा भावसे भी उसका समर्थन होता है' - इं० इ० रि०, जि० १, पृ० २६० । वे और भी कहते हैं— 'गोशालकका एक स्त्री स्थानको अना मुख्य आवास बनाना बतलाता है कि गोशालकका मतभेद सैद्धान्तिक नहीं था, किन्तु चरित्र विषयक था । पार्श्व के चार यामों में परिवर्तन करके महावीरने ब्रह्मचर्यको पृथक स्थान दिया था । इससे मालूम होता है कि पार्श्व के कमजोर साधुयोंमें अनैतिकता प्रवेश कर गई थी। इसी बात परसे गोशालक महावीर से पृथक हो गया ।' पार्श्वपत्य और गोशालक डा० हार्नले उक्त कथनका स्पष्टीकरण करनेके लिये पार्श्व - पत्ययों और गोशालकके पारस्परिक सम्बन्ध में प्रकाश डालना आवश्यक है । भगवती सूत्र में (१५-१ ) लिखा है कि एक समय गोशालक - के समीप छै दिशाचर आये। टीकाकारने दिशाचरोंको पार्श्वस्थ और चूर्णिकारने पार्श्वपत्यीय बतलाया है। अर्थात् वे पार्श्वनाथकी परम्पराके थे । वे छहों अपनी बुद्धिसे पूर्वगत आठ महा निमित्तोंका विचार करते थे । वे आठ महानिमित्त हैं - दिव्य, उत्पात, अन्तरिक्ष, भौम, स्वर, अंग, लक्षण और व्यंजन । इनसे प्राणियों 1 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “४६. जै० सा० इ० पूर्व पीठिका के जीवन मरण, सुख दुःख और लाभ अलाभकी जानकारी होती है। ये ज्योतिषसे सम्बद्ध हैं । इन्हींके आधार पर गोशालकने यह सिद्धान्त स्थापित किया कि सब प्राणियोंके लिये ये छ बातें अनतिक्रमणीय हैं---जीवन मरण, सुख दुःख, लाभ अलाभ । इनको टाला नहीं जा सकता, जिसके भाग्यमें जो बदा है वह होता है। यही गोशालकका प्रसिद्ध दैववादका सिद्धान्त है। सम्भवतः अपने इस सिद्धान्तको अपने जीवन व्यवहारमें उतारनेके कारण ही उस पर अब्रह्मचर्यावासका दूषण जैन और बौद्ध दोनोंने लगाया है जो साधार प्रतीत होता है। क्योंकि शुद्ध दैववादके सिद्धान्तका परिणाम 'अनैतिक आचरण' है। जब पाप पुण्य केवल देवाधीन हैं, पुरुषका उसमें कुछ भी कर्तृत्व नहीं है, तब नैतिक होनेका प्रयत्न करनेकी आवश्यकता ही क्या है ? किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं लेना चाहिये कि चूंकि गोशालकके दैववादका सिद्धान्त पूर्वोसे लिया गया था इसलिये महावीर और गोशालकमें सैद्धान्तिक मतभेद नहीं था, जैसा कि डा० हानलेका कथन है। जैन धर्ममें इस प्रकारके दैववादको कोई स्थान नहीं है, क्योंकि जैन धर्म में यद्यपि 'कर्म' का महत्त्व है किन्तु पुरुषार्थ के द्वारा पूर्वकृत कर्मोको परिवर्तित ही नहीं, किन्तु नष्ट भी किया जा सकता है । अस्तु, ऊपरके उल्लेखसे स्पष्ट है कि गोशालक पार्थापत्यीयोंके भी संसगमें था। ___ अब हम सूत्र कृतांगसे कुछ उदाहरण और देते हैं जिनसे भी उक्त बातका समर्थन होता है सूत्रकृतांगसे पता चलता है कि तिलके पौदेको लेकर गोशा लकने जिस प्रकारकी आपत्ति की थी, उसी प्रकारका कुतर्क पावापत्य भी करते थे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद ४६१ सूत्र० (२ श्रु० ७ अ० ) में बतलाया है कि उदक पेढालपुत्र नामक पार्श्वपत्यीय निर्ग्रन्थ गौतम स्वामीसे आकर बोला- हे गौतम ! कुमारपुत्र नामके आपके एक निर्ग्रन्थ नियम ग्रहण करनेके लिये आये हुए श्रावकोंसे इस प्रकार त्याग कराते हैं --- 'राजा आदिके अभियोगोंको छोड़कर त्रस प्राणियों को दण्ड देनेका त्याग है । यह त्याग कराना ठीक नहीं है क्योंकि इस प्रकार त्याग करानेवाले पुरुष अपनी प्रतिज्ञाका उल्लंघन करते हैं । और इसका कारण यह है कि प्राणी परिवर्तनशील है इसलिये स्थावर प्राणी भी कभी त्रसप्राणी हो जाता है और सप्राणी स्थावर रूप में उत्पन्न होता है । अतः जब वे सप्राणी स्थावर रूप में उत्पन्न होते हैं तो वे सकायको दण्ड न देनेकी प्रतिज्ञा करने वालों द्वारा घात करनेके योग्य हो जाते हैं । अतः उनका त्याग ठीक नहीं कहलाया; क्योंकि जिसको घात न करनेका उन्होंने नियम लिया था, वे ही सजीव स्थावर पर्याय में उनके द्वारा घाते जाते हैं ।' उक्त शंकाका समाधान करने पर उदक पुन: उसी प्रश्नको पूकारान्तर से पूछता है - हे गौतम! ऐसी एक भी पर्याय नहीं है जिसके घातका त्याग श्रावक कर सके; क्योंकि प्राणी परिवर्तनशील है, कभी स्थावर त्रस हो जाते हैं और कभी त्रस स्थावर हो जाते हैं । वे सबके सब जब स्थावर कायमें उत्पन्न हो जाते हैं तो श्रावकों के घातके योग्य होते हैं। इस प्रकार के प्रश्न पार्थ्यापत्ययोंकी उस प्रकृति और स्थिति पर प्रकाश डालते हैं जो गोशालककी मनःस्थिति से मिलती हुई है। अब प्रकृत स्त्री भोगके विषय में पार्श्वस्थोंकी वाचालताका Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ जै० सा० इ० - पूर्व पीठिका नमूना देखिये - सूत्र ०१ ( १ श्रु०, ३०, ४ उ० ) में प्रारम्भमें शीतल जल, बीज और हरी वनस्पतिका भक्षण करनेवालोंकी चर्चा करके लिखा है कि स्त्रीके वशमें रहने वाले और जैन शास्त्र से विमुख मूर्ख अनार्य पार्श्वस्थ ऐसा कहते हैं— जैसे फोड़ेको दबा देना चाहिये वैसे ही समागमकी प्रार्थना करनेवाली स्त्रीके साथ समागम करना चाहिये। इसमें दोष क्या है ? जैसे भेड़, पक्षी बिना हिलाये जल पीते हैं वैसे ही समागमकी प्रार्थना करनेवाली स्त्री के साथ समागम करनेमें क्या दोष है ? इस प्रकार मैथुन सेवनको निरवद्य बतलाने वाले मिध्यादृष्टि अनार्य पार्श्वस्थ हैं। प्रारम्भमें जो शीत उदक, हरे बीजका सेवन करनेवालोंकी चर्चा की है, वह स्पष्ट ही गोशालकका मत है और अन्त में जो पार्श्वस्थों का स्त्री विषयक मन्तव्य दिया है, वह भी गोशालक के अनुकूल है। अतः गोशालक प्रारम्भमें पार्श्वनाथकी परम्परा में दीक्षित हुआ हो यह सम्भव है । तथा वह पार्श्वपत्यीयोंके प्रभाव में हो यह बहुत कुछ सम्भव जान पड़ता है । आजीविक सम्प्रदाय नग्न रहताथा, इसमें तो कोई विवाद ही नहीं है । किन्तु उत्तरकाल के कतिपय लेखकोंने तो नग्नताको १ हंसु महापुरिसा पुव्विं तत्ततवोधणा । उदय सिद्धिमावन्ना तत्थ मंदो विसीयति ॥ | १ || + + + एवमेगे तु पात्था, पन्नवंति णारिया | इत्थीवसं गया बाला जिणसास परम्हा || जहा गंड पिलागं वा परिपीलेज मुहुत्तगं । एवं विन्नवत्थी दोसो तत्थ को सिश्रा ॥ १० ॥ - सू० १ ० ३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only ०, ४ उ० । Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद आजीविकोंके साथ ही बांध दिया है और जो नग्न सो आजीवक' ऐसी ब्याप्ति सी बनाकर दिगम्बर जैनोंको ही गोशालकका अथवा आजीविकोंका उत्तराधिकारी सिद्ध कर डाला है। आजीविक और दिगम्बर आजीविकों और दिगम्बरोंमें तीन बातोंको लेकर समानता पाई जाती है - दोनों नग्न रहते थे, दोनों हस्तभोजी थे और दिगम्बरोंकी तरह शायद आजीविक भी केशलुच करते थे। इस नग्नताके कारण किन्हीं किन्हीं ग्रन्थकारोंको भी दोनों की एकतामें भ्रम हो गया, ऐसा प्रतीत होता है । और उसी भ्रमके आधार पर कल्पनाओं और अनुमानोंका ताना बाना बुनकर बीसवीं शतीके कतिपय अन्वेषक विद्वानोंने आजीविकोंको दिगम्बर जैनोंका पूर्वज मान लिया, जिनमें डा० हानलेका नाम उल्लेखनीय है। उन्होंने लिखा है कि सूत्र कृतागंकी टीकामें शीलांकने आजीविकों त्रैराशिकों और दिगम्बरोको एक बतलाया है। किन्तु उनका यह कथन भ्रमपूर्ण है । शीलाकंके दो वाक्य इस प्रकार हैं १ श्राजीविकादीनां परतीथिकानां दिगम्बराणां चासदाचारनिरूपणयाह २ ते गोशालकमतानुसारिणो दिगम्बरा वा...", अ०३,उ० ३, गा० १७ की टीका । पहले वाक्यका अर्थ है-'आजीविक' आदि परतीर्थिकों और दिगम्बरोंके असदाचारका निरूपण करनेके लिये कहते हैं।' इस वाक्यमें स्पष्ट ही आजीविकों और दिगम्बरोंको एक नहीं बतलाया । यदि 'परतीर्थकानां' पदको 'दिगम्बराणां के साथ भी लगाया जाये तो अर्थ होगा- 'आजीविक आदि और दिगम्बर परतीर्थिकोंके। सूत्र कृतांगके हिन्दी टीकाकारने यही अर्थ किया Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका है। यद्यपि मुझे अपना उक्त अर्थ ही अधिक सुसंगत प्रतीत होता है। शीलांक आजीविकोंको परतीथिंक बतलाता है, दिगम्बरोंको नहीं, तथापि यदि दूसरा अर्थ हो ठोक मान जाये तो भी आजीवक और दिगम्बर एक नहीं ठहरते । 'च' शब्दके होनेसे आजीवकादि और दिगम्बरमें विशेषणविशेष्य भाव इष्ट नहीं है। इसीतरह दूसरे वाक्यमें जो 'वा' शब्द बीचमें पड़ा है वह 'च' का स्थानापन्न है। अतः उसका अर्थ होता है- 'वे गोशालक मतावलम्बी तथा दिगम्बर सम्प्रदायवाले'। इस वाक्यमें 'गोशालकमतानुसारी' पद पूर्व वाक्यके 'आजीविकादि' पदका स्थानापन्न है। अतः दोनों वाक्योंके द्वारा शीलाङ्कने आजीविक आदि गोशालक मतानुसारियों और दिगम्बरोंको एक नहीं माना है। और यदि माना है तो शीलाङ्कका उक्त लेख भी भ्रान्त है और उससे कोई भी बुद्धिमान' सहमत नहीं हो सकता; क्योंकि आजीविकों और दिगम्बरोंमें मौलिक सैद्धान्तिक भेद है । इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है शीलांकने जिस गाथा' १२ की टीकाके प्रारम्भमें 'श्राजीवकादीनां परतीथिकानो' आदि लिखा है, उस गाथामें जैनमुनि आजो. विक आदि परतीथिकोसे कहता है कि तुम लोग कांसा आदिके पात्रोंमें भोजन करते हो, रोगी साधुके लिये गृहस्थांके द्वारा आहार मंगाते हो । इस प्रकार तुम लोग बोज और कच्चे जलका उपभोग करते हो और उद्दिष्ट भोजन करते हो। १-'भारतीय विद्या' जि० ३ पृ० ३६ में गोपाणिका 'श्राजीविक सेक्ट' शीर्षक लेख । २ 'तुम्भे भुजह पाए सु, गिलाणो अभिहडंमि वा । तं च बीअोदगं मोच्चा, तमुद्दिसादि जं कडं ॥१२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद ४६५ यहाँ चार आरोप आजीविकों पर लगाये हैं- शीत जलका व्यवहार, बीज भक्षण, उदिष्ट भोजन और बीमार रोगीके लिये गृहस्थके पात्रमें आहार लाकर उसे खिलाना । गोशालक आर्द्रक संवादमें, जिसका पीछे उल्लेख किया है, गोशालक कहता है कि शीतोदक बीज काय, उदिष्ट भोजन तथा स्त्री सेवन करनेसे हमारे साधुको पाप नहीं लगता । यहाँ गोशालकने उक्त चार बातोंमें से तीन कहीं है, पात्र भोजन नहीं लिया है, उसके स्थान पर स्त्री सेवन रखा है।। इसका मतलब यह है कि आजीविक साधु उक्त ४ चीजोंका सेवन करने में दोष नहीं मानते थे। और चुंकि इसकी उत्थानिकामें शीलांकने दिगम्बरोंको भी सम्मिलित कर लिया है, अतः शीलाङ्क के अनुसार दिगन्बरोंमें भी शीतल जल वगैरहके व्यवहारमें दोष नहीं माना जाता था। संभवतः इसी से डा. हार्नलेने दोनोंको एक मान लिया जान पड़ता है। ___ डा० हानले साहब का कहना है कि 'वास्तवमें दिगम्बर और श्वेताम्बरोंमें भी उक्त चार बातोंको लेकर ही मत भेद है । शीतल जल और बीजके भक्षण पर रोक किसी भी प्रकारके जीवकी सुरक्षाके लिए है। किन्तु कहा जाता है कि दिगम्बर केवल पशुपक्षी वगैरहकी सुरक्षाकी ओर ही ध्यान देते हैं जब कि श्वेताम्बर जीव मात्रकी सुरक्षाके पक्षपाती हैं। ब्रह्मचर्यके दोनों पक्षपाती हैं किन्तु श्वेताम्बर भिक्षा पात्र रखते हैं, दिगम्बर नहीं रखते । नग्नताको लेकर विरोध तो दोनोंके नामोंसे ही स्पष्ट है । (इं० इ० रि०, जि० १, पृ० २६७ ) दिगम्बर मुनि आजीविकोंकी तरह शीतल जल और बीज कायका सेवन करते हैं तथा वे केवल पक्षी पशु आदि स्थूल जीवों Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका की सुरक्षा पर ही विशेष ध्यान देते हैं, ये बातें बतलाती हैं कि डा० हानलेने दिगम्बर ग्रन्थोंका अवलोकन नहीं किया था तथा संभवतया शीलांककी टीकाके आधार पर उक्त बातें लिख दी हैं। अपने मतके उत्तराधके समर्थन में उन्होंने Jas, Burgess के एक लेख 'दिगम्बर जैन एकोनो ग्राफी' (इं० ए०, जि० ३२, पृ०४६०) का उल्लेख किया है। वर्गेसने अपने लेखमें लिखा है कि 'श्वेताम्बर लोग सब प्रकारके प्राणियोंके जीवनके प्रति अत्यन्त सावधान होते हैं, जबकि दिगम्बर केवल परिमित रूपसे ही वैसे होते हैं। ___इस लेखकने ऐसा किस आधार पर लिखा हम नहीं कह सकते; क्योंकि उसने अपने उक्त लेखमें अपने कथनके समर्थनमें कोई प्रमाण उपस्थित नहीं किया। दिगम्बर परम्परामें श्रावकके ग्यारह भेद हैं । थोड़ासा हेरफेरके साथ श्वेताम्बर परम्परामें भी उक्त भेद गिनाये हैं। उन्हें श्रावक प्रतिमा कहते हैं । श्वेताम्बर परम्पराके अनुसार तो प्रतिमारूप श्रावक धर्म विच्छिन्न हो गया, किन्तु दिगम्बर परम्परामें उसकी प्रवृत्ति आज भी है। श्रावकके उन ग्यारह भेदोंमें पाँचवां भेद सचित्त' त्याग है। श्वेताम्बरोंमें इसका स्थान सातवां हैं। इसका पालक श्रावक सचित्त जल, पत्र पुष्प, बीज वगैरह का सेवन नहीं करता। ऐसी स्थितिमें जब पञ्चम १ 'मूल फल शाक शाखा करीर कन्द प्रसून वीजानि । नामानि योति सोऽयं सचित्तविरतो दयामूर्तिः ।।१४१।। -रत्न श्रा०॥ "हरिताङ्करबीजाम्बुलवणाद्यप्रासुकं त्यजन् । जाग्रतकृपश्चतुनिष्ठः सचित्तविरतः स्मृतः ॥ -सागार० ७ अ०८ श्लो. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद ४६७ श्रावकके लिए भी शीतल जल और बीजका सेवन वर्जित है, तब मुनिका तो कहना ही क्या है ? __दिगम्बर जैन साधु ४६ दोषोंको बचाकर आहार करता है। उन दोषोंमें एक दोषका नाम उन्मिश्र' है। पृथिवी, अप्रासुक जल, . हरित काय, बीज और त्रसोंसे मिश्रित आहारको उन्मिश्र कहते हैं। अर्थात् यदि भोजनमें शीतल जल और बीजका मिश्रण हो जाये तो वह आहार उन्मिश्र दोषसे युक्त होनेके कारण दिगम्बर जैन साधुके लिये अग्राह्य है। ऐसी स्थितिमें यह कहना कि दिगम्बर जैन साधु शीतल जल और बीजोंको ग्रहण करते हैं, बिल्कुल निराधार और असत्य है। इससे भी भयानक एक दूसरी भूल है। ___ डा० हानलेने लिखा है कि दिगम्बर साधु ५ फीट ऊँचा एक दण्ड हाथमें लिये रहते हैं, यह उनके आजीविक होनेका दूसरा प्रमाण है, क्योंकि आजीविक एकदण्डी थे। (इं० इ. रि०, पृ०२६७) दिगम्बर साधु एक मयूरके पंखोके पीछी और कमण्डलुके सिवाय और कोई उपकरण अपने पास नहीं रखते। जिस ५ फिट ऊँचे दण्डको हाथमें लिए रहनेका निर्देश डा० हानलेने किया है, वह श्वेताम्बर साधुओंका उपकरण है, दिगम्बर जैन साधुओंका नहीं। यदि यह दण्ड आजीविकोंकी देन है तो श्वेताम्बर साधुओं को भी आजीविक मानना होगा क्योंकि जैनोंमें वे ही एकदण्डी १ "पुढवी श्राऊ य तहा हरिदा वीया तसा य सजीवा । पंचेहि तेहिं मिस्सं पाहारं होदि उम्मिस्सं ॥४७२॥ मूलाचा०' "पृथ्व्या ऽ प्रासुकया ऽ द्भिश्च वीजेन हरितेन यत् । मिश्रं जीवत्त्र सैश्चान्न महादोषः स मिश्रकः ॥३६॥" --अनगार०, अ०५ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ० पूर्व-पीटिका हैं। अतः यदि आजीविकोंके नग्न रहनेसे दिगम्बरोंको आजीविकों का उत्तराधिकारी माना जाता है तो आजीविकोंके एक दण्डी होने से दण्डधारी श्वेताम्बरोंको भी आजीविकोंका उत्तराधिकारी बतलाना होगा। किन्तु यह सब भ्रान्त कल्पनाएँ हैं। और उनके आधार पर आजीविकों और दिगम्बरोंका ऐक्य प्रमाणित नहीं किया जा सकता। ___ खेद है कि आजके कोई कोई लेखक स्वयं अध्ययन न करके उक्त प्रकारकी भ्रान्त धारणाओंके आधार पर ही कागज काले करते हुए पाये जाते हैं। इसका एक उदाहरण श्री रामघोषका वह लेख है जो उन्होंने ओरियन्टल कांफ्रसके द्वितीय अधिवेशनमें पढ़ा था । उस लेखका शीर्षक है- 'अशोकका धर्म'। यह लेख डा० हार्नलेके उक्त लेखको सामने रखकर ही लिखा गया है। श्री घोपने भी लिखा है कि दिगम्बर साधु ५ फीट ऊँचा दण्ड रखते हैं, शीतल जल और वीज ग्रहण करते हैं। यदि दिगम्बर जैनोंके. साहित्यका अध्ययन करके श्री घोषने अपना लेख लिखा होता तो डा० हानलेकी भ्रान्तियोंका ही पिष्टपेषण करनेका कष्ट उन्हें न उठाना पड़ता। डा०हानले विदेशी थे और उन्होंने अपना लेख १६वीं शती के अन्तमें उस समय लिखा था जब दगम्बर जैन साहित्य प्रकाशमें नहीं आया था। किन्तु श्रीघोषने तो अपना लेख उससे चौथाई शताब्दी पश्चात् १६२२ में लिखा है, जब दिगम्बर जैन साहित्य काफी प्रकाशित हो चुका था। उपलब्ध दिगम्बर जैन साहित्यका प्रारम्भ ईसाकी प्रथम शताब्दीसे होता है। उसमें आजीविकोंकी छाया तकका संकेत नहीं मिलता और ऋषभ देवसे लेकर वर्धमान महावीर पयन्त चौबीस तीर्थङ्करोंका ही एकमात्र गुणगान आदि किया गया है। हां भोजनके Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद ४६६ ४६ दोषोंमें से एक दोषका नाम 'आजीव' भी है। अपनी जाति कुल, शिल्पकर्म, तपस्या, प्रभुत्व आदिको बतलाकर भोजन प्राप्त करना 'आजीव" नामका दोष है। यह पहले लिखा ही है कि 'आजीव' से ही आजीविक शब्द निष्पन्न हुआ है। और आजीविक साधु श्राजीव या आजीविकाके विषयमें अपना एक विशिष्ट दृष्टिकोण रखते थे। सम्भव है कि वे अपनी जाति आदिका बखान करके भोजन प्राप्त करते हों। और उनकी उस वृत्तिके आधार पर आजीव नामक दोषकी रचना हुई हो। किन्तु यह दोष यदि आजीविकोंकी वृत्तिसे संबन्ध रखता है तो उससे दिगम्बर जैनों और आजीविकोंका बैमत्य ही प्रकट होता है, ऐक्य या एकमत्य नहीं प्रकट होता। - यहाँ यह बतला देना भी उचित होगा कि श्वेताम्बर साहित्यमें भी 'आजीव' नामक भोजन दोष गिनाया है। असल में दिगम्बर और श्वेताम्बरोंमें मुख्य भेद वस्त्र परिधानका है, उनके अन्य आचारों और विचारोंमें यत्किंचित् अन्तर होते हुए भी प्रायः ऐक्य ही है। मूल सिद्धान्तोंमें, तत्त्व व्यवस्थामें कोई अन्तर नहीं हैं, और इसका कारण यह है कि दोनों महावीरके द्वारा उपदिष्ट तत्त्वपरम्पराको मानते हैं। यदि दिगम्बर सम्प्रदाय आजीविकोंसे निकला होता या आजीविक ही आगे चल कर दिगम्बर जैन सम्प्रदायके रूपमें परिवर्तित हो गये होते तो आजीविक सम्प्रदायके संस्थापक गोशालककी विचारधाराका कुछ अंश तो उसमें अवश्य ही परिलक्षित होता। ५-जादी कुलं च सिप्पं तवकम्मं ईसरत्त श्राजीव | तेहिं पुण उप्पादो श्राजीव दोसो हवदि एसो ॥३१॥ -मूलाचा, पिण्ड० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ० - पूर्व पीठिका ऐतिहासिक अभिलेखोंसे यह स्पष्ट है कि गोशालक के पश्चात् भी उसका आजीविक सम्प्रदाय जीवित रहा । श्रजीविकोंका सबसे प्राचीन उल्लेख गयाके निकट बारबर पहाड़ियों पर निर्मित गुफ़ा - की दीवारों पर अङ्कित है । उसमें लिखा है कि प्रियदर्शी अशोकने अपने राज्यके १३ वें वर्ष में यह गुफा आजीविकों को प्रदान की । अशोक स्तम्भों पर अङ्कित लेखामें भी आजीविकोंका निर्देश पाया जाता है । अशोकके उत्तराधिकारी दशरथने भी नागार्जुन पहाड़ी पर आजीविकोंके लिये गुफ़ाएँ निर्मित कराई थीं। इस तरह बारबर पहाड़ीकी दो गुफाओं और नागार्जुन पहाड़ीकी तीन गुफाओं में उन्हें जीविकोंके लिये प्रदान किये जानेका लेख अङ्कित है । इससे स्पष्ट है कि ईस्वी पूर्व दूसरी शती तक गोशालकका आजीविक सम्प्रदाय प्रवर्तित था; क्योंकि उसके लिए गुफ़ाएँ प्रदान की गईं थीं। इसके पश्चात् इस प्रकारका कोई उल्लेख न मिलने से यह अनुमान किया जाता है कि ईवो पूर्व दूसरी शती के अन्तमें भारतवर्ष से एक सम्प्रदायके रूपमें आजीविकोंका लोप हो गया । किन्तु मुझे इससे सन्देह है क्योंकि १३ वीं शती तक के साहित्य में आजीविका निर्देश पाया जाता है । ४७० So हार्नका कहना है कि शीलांकने अपनी टीका में और हलायुध ने अपनी अभिधानरत्न माला में दिगम्बरों और आजीवि कों को एक बतलाया है। तथा प्राचीन तमिल साहित्य में जैन के लिये जीविकका प्रयोग पाया जाता है इस लिए ६ठी ईस्वी शताब्दी से जबकि बराह मिहिर ने आजीवक शब्दका प्रयोग किया, यह शब्द दिगम्बर जैनोंका सूचक था ( इं० इ०रि०, जि० १, पृ० ०६६ ) । to हार्नका उक्त कथन भी सुसंगत प्रतीत नहीं होता । यह हम पहले लिख आये है कि शीलांकने अपनी टीका में जीविकों Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद और दिगम्बरोंको स्पष्ट रूपसे एक नहीं बतलाया। हां, हलायुधने' अपनी अभि० र० (२-१६०) में नग्नाट, दिगम्बर, चपणक, श्रमण जैन, जीव, और निन्थको एकार्थवाची अवश्य बतलाया है 1 तथा 'रजोहरणधारी और श्व ेतवासको सिताम्बर कहा है । ४७१ हलायुध के द्वारा प्रयुक्त शब्दोंको देख कर हमें ऐसा लगता है कि नंगे साधुओंके लिये प्रयुक्त होने वाले शब्दों को उन्होंने एकार्थवाची मान लिया है। इससे उनके द्वारा प्रयुक्त 'आजीव' शब्दको दिगम्बरोंके वाचकके रूपमें गम्भीरता के साथ नहीं लिया जा सकता । दूसरे, हलायुध के समकालीन भट्टोत्पलने, जो कि वराह मिहिर का टीकाकार है, कालिकाचार्यके एक प्राकृत पद्यके आधार पर आजीविकोंको एक दण्डी बतलाया है । भट्टोत्पल ( ई० ८५० के लगभग ) ने लिखा है एक दण्डी अथवा आजीविक नारायण के भक्त थे। शीलांकने एक दण्डियोंको शिवका भक्त बतलाया है । अतः हलायुधका आजीविको और दिगम्बर जैनोंको एकार्थवाची बतलाना प्रमाण कोटि में लिये जानेके उपयुक्त प्रतीत नहीं होता । तथा वराहमिहिर ने प्रव्रज्या योग बतलाते हुए जिन सात प्रकारके साधुओंका निर्देश किया है उनके नाम बृहज्जातकमें इसप्रकार हैंशाक्य, आजीविक, भिक्षु, वृद्ध, चरक, निर्ग्रन्थ और वन्याशन | ------ १- 'नग्नाटो दिग्वासाः क्षपणः श्रमणश्च जीवको जैनः । वो मलधारी निर्ग्रन्थः कथ्यते सद्भिः ॥ १६०॥' २ - 'रजोहरणधारी च श्वतवासाः सिताम्बरः ॥ १८६॥ ' ३ – 'शाक्याजीविकभिक्षुवृद्धचरका निर्मन्थवन्याशनाः - वृ० जा० ( १५-१ ) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૭૨ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका और लघुजातकमें हैं तापस'- वृद्धश्रावक, रक्तपट आजीविक भिक्षु; चरक और निम्रन्थ । यहाँ शाक्य और रक्तपट एक हैं तथा वन्याशन और तापस एक हैं। इसलिये वृहज्जातक और लघु. जातकके नाम निर्देशमें कोई अन्तर नहीं है। लघुजातक (१२-१२) की टीकामें उद्धृत एक श्लोकमें भी प्रत्रज्यायोगके लिये सात प्रकारके साधुओंका निर्देश किया है जो इसप्रकार है- वानप्रस्थ, कापाली, बौद्ध, एकदण्डी त्रिदण्डी, योगी और नग्न । यहां तापससे वानप्रस्थ, वृद्धश्रावकसे कापालिक, रक्तपटसे बौद्ध, आजीविकसे एकदण्डी, भिक्षुसे त्रिदण्डी, चरकसे योगी और निग्रन्थसे नग्नका ग्रहण किया गया है। और यही अर्थ वराहमिहिरको भी मान्य था। अतः उन्होंने निग्रन्थसे दिगम्बर जैनोंका ग्रहण किया है न कि आजीविकोंसे, उनके वृहत्संहिता नामक ग्रन्थके अवलोकनसे ही यह बात स्पष्ट हो जाती है। __वृ० सं० के प्रतिमा प्रतिष्ठापनाध्यायमें वराहमिहिरने बतलाया है कि कौन किस देवताका भक्त है । लिखा है-भागवत विष्णुके १-तापस-वृद्ध-श्रावक-रक्तपटाजीवि-भिक्षु-चरकाणां । निर्ग्रन्थानां चार्कात् पराजितैः प्रच्युतिर्बलिभिः ॥ -लजा० १२-१२', २–'वानप्रस्थोऽथ कापाली, बौद्धः पादेकदण्डिनः । त्रिदण्डी योगिनो नग्नः प्रव्रज्यार्कादितः क्रमात् ॥ ३-'विष्णो र्भागवतान् मगांश्च सवितुः शम्भोः सभस्मद्विजान् मातृणामपि मण्डलक्रमविदो विप्रान् विदुर्ब्रह्मणः । शाक्यान् सर्वहितस्य शान्तमनसो नग्नान् जिनानां विदुः ये यं देवमुपाश्रिताः स्वविधिना तैस्तस्य कार्याः क्रियाः ॥१६॥ -वृ० सं०, ६० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद ४७३ मग, सूर्यके, भस्माश्चित द्विज शम्भुके, मातृमण्डलवेत्ता माताओंके, शाक्य बुद्धके, और नग्न जिनके उपासक या प्रतिष्ठापक होते हैं। यहाँ नग्न शब्द निग्रन्थोंके लिये ही आया है, आजीविकोंके लिये नहीं आया। क्योंकि यद्यपि गोशालकने अपनेको जिन, कहलाना चाहा था इसलिये यह कहा जा सकता है कि आजीविक भी जिन के उपासक थे, किन्तु प्रथम तो आजीविकोंके विषयमें यह कहीं नहीं लिखा कि वे जिनके उपासक थे। दूसरे आजीविकोंके जिनोंकी प्रतिमा बनाकर पूजनेका कोई निर्देश नहीं मिलता, न उनके मन्दिर और मूर्तियाँ ही मिलती हैं। ___इसके सिवाय वराहमिहिरने बृ० सं० के प्रतिमालक्षणाध्यायमें विष्णु, बलदेव, शाम्ब, प्रद्युम्न, ब्रहा, स्कन्द, शम्भु, बुद्ध और जिनकी प्रतिमाका लक्षण बतलाया है। यहाँ उन्होंने जिनका निर्देश 'अर्हतां देव' 'आहतोंका देव' रूपसे किया है। लिखा है-अर्हन्त देवकी प्रतिमाके दोनों बाहू जानुपर्यन्त होने चाहिएँ, उनके वक्षस्थल श्रीवत्ससे अंकित होना चाहिये, मूर्ति प्रशान्त हो, तथा नग्न, तरुण और रूपवान होना चाहिये। ये सब लक्षण दिगम्बर जैन मूर्तियोंमें आज भी पाये जाते हैं। यही सच्चा निम्रन्थ रूप है। अतः निग्रन्थ', नग्न और अहत् शब्दोंका प्रयोग वराहमिहिरने एक ही अर्थमें किया है । वह अर्थ है दिगम्बर जैन । उस समय तक श्वेताम्बरोंमें भी सवस्त्र मूर्तियों का १-प्राजानु लम्बवाहुः श्रीवत्साङ्क प्रशान्तमूर्तिश्च । दिग्वासास्तरुणो रूपवांश्च कार्योऽर्हतां देवः ॥४५॥ २-भट्टोत्पलने वृहज्जातक ( १५-१ ) की टीकामें जहाँ श्राजीविकका अर्थ एकदंडी भिक्षु किया है, वहाँ निर्ग्रन्थका अर्थ नग्न क्षपणक किया है । यथा-'निर्ग्रन्थः नग्नः क्षपणकः प्रावरणरहितः' । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका चलन नहीं हुआ था- यह भी वराहमिहिरके उक्त उल्लेख से प्रकट होता है। प्रश्न होता है कि जैन सम्प्रदायके लिये प्रसिद्ध प्राचीन निम्रन्थ शब्दके होते हुए भी डा० हानलेने वराहमिहिरके द्वारा प्रयुक्त आजी वक शब्दसे ही क्यों दिगम्बर जैनोंका ग्रहण किये जानेकी कल्पना की ? जहाँ तक हम जान सके हैं इसके दो कारण हो सकते हैं प्रथम, डा० हार्नले निग्रन्थोंको सवस्त्र मानते हैं इसलिये उनके अभिप्रायानुसार निम्रन्थोंसे दिगम्बर जैनोंका ग्रहण नहीं हो सकता। दूसरे उनकी मान्यताके अनुसार वराहमिहिरके समयमें आजीविक सम्प्रदाय लुप्त हो गया था, फिर भी उन्होंने आजीविकोंका ग्रहण किया, इससे भी शायद डा• हानलेको यह हुआ कि उस समय पाये जाने वाले दिगम्बर जैन साधुओंके लिये हो आजीविक शब्दका प्रयोग किया गया है। प्रथम कारणके सम्बन्ध में हम पहले भी लिख चुके हैं कि महावीर, जो निग्रन्थ सम्प्रदाय के प्रधान थे, नग्न रहते थे और अपने समयमें पाये जाने वाले पार्थापत्योंको पुनर्दीक्षा देकर ही अपने संघमें सम्मिलित करते थे। उनका वस्त्रपरित्यागका नियम ढुलमुल नहीं था। अतः महावीरके निग्रन्थ साधु अवश्य ही नग्न होने चाहियें। फिर वराहमिहिरके समयमें तो दिगम्बर जैन साधुके लिये ही निग्रन्थ शब्दका व्यवहार होता था। डा० बुलहरने लिखा है कि चीनी यात्री हुएन्त्सांगके वर्णनसे जो निम्रन्थोंको लि-ही' लिखता है प्रकट है कि ईसाकी सातवीं शतीके आरम्भमें भो वे अपने नियमोंके प्रति जागरूक थे। हुएन्त्सांगने लिखा है-'कि लि-ही (निर्ग्रन्थ) अपने शरीरको नग्न रखते 1 The LI-HI ( Nirgranthas ) distinguish them selves by leaving their bodies naked and pull Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद ४७५ हैं, केशोंका लोंच करते हैं । उनके शरीरका समस्त चर्म फटा हुआ था, उनके पैर कठोर और चपटे हैं जैसाकि नदी किनारेके वृक्ष होते हैं' । अतः छठी शताब्दी के मध्यके विद्वान् वराहमिहिरने निग्रन्थोंका निर्देश अवश्य ही दिगम्बर जैनोंके लिये किया है । इसलिये प्रथम कारणसे आजीविक शब्दका प्रयोग दिगम्बर जैनोंके अर्थ में प्रयुक्त किया जाना उचित प्रतीत नहीं होता । इसके सिवाय ईसाकी सातवीं शती के आरम्भके विद्वान् कवि बाणभट्ट ने अपने हर्षचरित में जैनोंके लिये 'आहत' शब्दका प्रयोग किया है, जो इस बातको पुष्ट करता है कि वराहमिहिर के समय से जैन लोग अथवा महावीर के निग्रन्थ सम्प्रदाय के अनुयायी तथा भक्त आर्हत (अर्हन्त देवके उपासक ) कहे जाने लगे थे क्योंकि वराहमिहिरने अर्हतां देवः' के द्वारा जैनों का निर्देश किया है । तथा बाणने मोरपिच्छ रखनेवालोंको क्षपणक' और नग्नाटक* कहा है । मोरकी पीछी केवल दिगम्बर जैन साधु ही रखते हैं, और वे नंगे ही भ्रमण करते हैं । अतः बाणके द्वारा प्रयुक्त ing out their hair. Their skin is all cracked, their feet are hard and chapped, like rotling trees that one sees near rivers. - इं० से० जै०, --- -- पृ० २, का टि० नं० २ | 'जैनैः श्रानैः पाशुपतैः पाराशारिभि:' - ६० च० पृ० १३६ । ३ ' शिक्षित क्षपणकवृत्तय इव मयूरपिच्छचयान् उच्चिन्वन्तः ह० च० a पृ० १०४ । ४ 'अभिमुख माजगाम शिखिपिच्छलाच्छनो नग्नाटकः ' - ६० च०, पृ० ३२७ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका - क्षपणक और नग्नाटक शब्द भी दिगम्बर जैन साधुके लिये ही आया है। वराहमिहिरने भी 'नग्नान जिनानां' पद्यमें इन्हीं नंगे साधुओंका निर्देश किया है। तत्कालीन तथा उत्तरकालीन साहित्य में जैन साधुओंको क्षपणक और नग्नाटक कहे जानेके अन्य भी अभिलेख मिलते हैं। वराहमिहिरसे पूर्व में हुए दिगम्बर जैनाचार्य समन्तभद्रने एक पद्यमें अपनेको 'नग्नाटक और 'मलमलिनतनुः' कहा है। बाणने भी शिखिपिच्छलाञ्छन नग्नाटकको 'उपचित वहलमलपटलमलिनिततनुः बतलाया है, क्योंकि दिगम्बर जैन मुनि नग्न रहनेके साथ ही स्नान भी नहीं करते । अतः उनके शरीरका मलसे मलिन हो जाना स्वाभाविक है। 'ज्योतिर्विदाभरण' ग्रन्थके एक पद्यमें राजा विक्रमादित्यकी एक सभाके नवरत्नोंके नाम गिनाये हैं. जिनमें वराहमिहिर आदिके साथ एक क्षपणकको भी गिनाया है किन्तु उस क्षपणकका नाम नहीं लिखा। श्री सतीशचन्द्र विद्याभूषणने ( हिस्ट्री आफ इण्डि. यन लॉजिक पृ०५) लिखा है कि जिस क्षपणकको हिन्दू लोग विक्रमादित्यकी सभाको भूषित करने वाले नवरत्नोंमें से एक समझते हैं वह सिद्धसेन जैनाचायके सिवाय दूसरा नहीं ; क्योंकि बौद्ध ग्रन्थोंमें भी जैन साधुओंको क्षपणक' नामसे अंकित किया है। प्रमाणके लिये विद्याभूषण महाशयने अवदान कल्पलताके दो पद्य भी उद्धृत किये हैं। अत: इसमें सन्देह नहीं है कि जैन साधुको क्षपणक भी कहते थे। उक्त उल्लेखोंके आधारसे भी यही प्रमाणित होता है कि वराहमिहिरने आजीविकोंका निर्देश दिगम्बर जैनोंके लिये न करके १ 'धन्वन्तरिः क्षपणकोऽमरसिंह-शंकुबेताल भट्टघट-खर्परकालिदासाः । ख्यातो वराहमिहिरो नृपतेः सभायां रत्नानि वै वररुचिर्नवविक्रमस्य ।' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद ४७७ आजीविकोंके लिये ही किया है। आजीविक सम्प्रदायके वर्तमान न रहते हुए भी उसकी प्रव्रज्याका योग बतलानेका कारण यह हो सकता है कि प्राचीन ग्रन्थोंमें योग चर्चित होगा। उसीको वराहमिहिरने अपने ग्रन्थमें भी निबद्ध कर दिया, क्योंकि उन्होंने अपने जातक' ग्रन्थोंके प्रारम्भमें यह बात स्वीकार की है कि पूर्व शास्त्रोंको देखकर मैंने अपने ग्रन्थोंको रचा है । वराहमिहिरके पश्चात् भी १३ वीं शती तकके दूसरे साहित्यकारोंके द्वारा आजीविकोंका निर्देश उसी रूप में किया हुआ देखा जाता है। उदाहरणके लिये दिगम्बर जैन ग्रन्थोंमें ही हम आजीविक सम्प्रदायका निर्देश पाते हैं । वराहमिहिरसे एक शताब्दीके पश्चात् होनेवाले दिगम्बर जैनाचार्य अकलंकने अपने तत्त्वार्थवार्तिकमें ( ४-२०-१०) तापसो, परिव्राजकोंके साथ आजीविकोंका भी निर्देश किया है और बतलाया है कि परिव्राजक मरकर पाँचवें स्वर्गमें और आजीविक मर कर बारहवें स्वर्ग तक जन्म लेता है उससे ऊपर निग्रन्थ ही जा सकते हैं। दसवीं शतीके जैनाचार्य नेमिचन्द्रने अपने त्रि० सा० ( गा० ५४७ ) में भी उक्त कथन करते हुए आजीविकोंका निर्देश किया है। जैनाचार्य वीरनन्दिके आचारसारमें (११-१२८) उक्त कथनको दोहराते हुए आजाविकोंका निर्देश किया है। इस तरहसे आजीविकोंका आजीविक रूपमें ही ईसाकी बारहवीं शती तकके दिगम्बर जैन ग्रन्थोंमें उल्लेख मिलता है। अतः आजीविकों और दिगम्बर जैनोंके ऐक्यकी कल्पना भ्रमजन्य है। इस तरहका भ्रम नया नहीं है। डा० वरुआने अपने उक्त लेखमें लिखा है कि कौटिल्यार्थशास्त्रमें बौद्धोंको आजीविक बतलाया है, तथा दिव्याव१ 'होराशास्त्रं वृत्तैर्मया निबद्ध निरीक्ष्य शास्त्राणि ।। यत्तस्याप्याभिः सारमहं संप्रवक्ष्यामि ॥ २ ॥ ल• जा० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ ६.० सा० इ० पूर्वपीठिका दानमें जैनोंको आजीविक बतलाया है। इस भ्रमका विश्लेषण करते हुए डा० वरुआने लिखा है कि पुण्ड्रवर्धनमें जैन और आजीविक दोनों सम्प्रदाय साथ साथ रहते थे और दोनोंके विचारोंमें तथा बाह्य रूपमें इतना कम अन्तर था कि एक बौद्ध दर्शकके लिये दोनोंमें भेद कर सकना कठिन था। (ज० डि० ले०, जि० २, पृ०७५)। हम डा० वरुआके उक्त विश्लेषणसे सहमत होते हुए भी वह माननेमें असमर्थ हैं कि जैनों और आजीविकोंके विचारोंमें भी बहुत कम अन्तर था और इसका स्पष्टीकरण गत विवेचनसे हो जाता है। हाँ. बाह्य रूपमें विशेष अन्तर न था और इससे किसी दर्शकको दोनोंके ऐक्यका भ्रम होना स्वाभाविक था। किन्तु दोनों सम्प्रदायोंके बीचमें साम्प्रदायिक खिंचाव अवश्य था, भगवती और सूत्रकृतांगका गोशालक सम्बन्धी विवरण इसका सूचक है ही, उत्तरकालीन दिगम्बर जैन ग्रन्थोंके आजीविक सम्बन्धी उल्लेख भी उसके पोषक हैं। अतः आजीविकों और दिगम्बर जैनोंके ऐक्यकी कल्पनामें कोई सार प्रतीत नहीं होता । नाग्न्य आदिको लेकर भ्रम वश ही किन्हीं लेखकोंने दोनोंको एक मान लिया है। जैन आधारोंसे तो जैनों और आजीविकोंमें पारस्परिक विरोधका ही आभास मिलता है तथा उसका समर्थन शिलालेखोंसे भी होता है। जिसकी विस्तृत चर्चा डा० बनर्जी शास्त्रीने अपने आजीविक शीर्षक लेखमें (ज० वि० उ० रि० सो०, जि० १२, पृ० ५३ ) की है। उसका सारांश यहाँ दिया जाता है। गयाके निकट जो बारबर पहाड़ियाँ हैं, ईसाकी छठी-सातवीं शतीमें मौखरि अवन्तिवर्माके समयमें प्रवर पहाड़ियाँ कही जाती Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ .. संघ भेद थीं। मध्यकालमें उनका नाम गोरथगिरि भी था, यह बात श्री जैक्सनके द्वारा खोज निकाले गये दो लेखोंसे प्रमाणित हुई है। कलिंग चक्रवर्ती खारवेलके हाथी गुफावाले शिलालेखका पुनः अध्ययन करनेसे यह नाम प्रकाशमं आया है। उस शिलालेखमें लिखा है कि अपने राज्यके आठवें वर्षमें खारवेलने एक बड़ी सेनाके द्वारा गोरथगिरि पर आक्रमण किया। सात गुफाओं मेंसे बारबर पहाड़ीकी दो और नागार्जुन पहाड़ीकी तीन गुफाएँ अशोक तथा उसके उत्तराधिकारी दशरथके द्वारा आजीविकोंके लिये प्रदान की गई थीं। यह बात गुफाओंमें अंकित शिलालेखमें निबद्ध है। किन्तु तीन शिलालेखोंमेंसे 'आजीविक' शब्दको छेनीसे काटकर मिटा दिया गया है, जबकि अन्य किसी शब्दको छुआ नहीं गया है। यह किसने किया-बौद्धोंने जैनोंने या ब्राह्मणोंने। ___Hultzsch का मत है कि मौखरि अवन्तिवर्माने यह कार्य किया। किन्तु बनर्जीका कहना है कि यह मत ठीक नहीं है क्योंकि प्रथम तो ६-७ वीं शतीका अवन्तिवर्मा ईस्वी पूर्व तीसरी शतीकी अशोक ब्राह्मी लिपिसे परिचित था, इसके लिये कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है। दूसरे, उस समय आजीविक विष्णु और कृष्णके भक्त माने जाते थे। अतः हिन्दू आजीविकोंसे क्यों घृणा करेंगे? यदि उन्हें ऐसा करना ही था तो अशोकका नाम 'देवानांप्रिय' भी मिटाना चाहिये था। अतः हिन्दुओंका यह कार्य नहीं है। बौद्ध लोग अपने ही एक धर्मप्रेमी राजाकी कृतिको बिगाड़नेकी चेष्टा करें ऐसी आशा नहीं करनी चाहिये। शेष रहते हैं जैन । जैनों और आजीविकोंका पारस्परिक विद्वेष इस निश्चयकी ओर ले जाता है कि यह काम जैनोंका है। निर्णय करनेके लिये केवल एक ही बात रहती है कि यह कार्य किसी भटकते हुए जैनका है अथवा किसी ऐतिहासिक व्यक्तिका Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० जै० सा० इ०-पूर्व पाठिका है ? इसका उत्तर हमें हाथी गुफाके शिलालेखसे मिलता है। जिन भगवानका अनुयायी खारवेल अशोक-दशरथके कालके पश्चात् ही अपने राज्यके आठवें वर्षमें गोरथगिरि पर गया था। और एक धार्मिक जैनके रूपमें उसने गोशालकके अनुयायी आजीविकोंका नाम वहाँसे मिटानेका प्रयत्न किया था। ___ डा. राधाकुमुद मुकर्जी ने उक्त घटनाके सम्बन्धमें शास्त्रीके उक्त मतका समर्थन करते हुए लिखा है-'डा बनर्जी शास्त्रीने एक अधिक निर्णयात्मक कल्पना सामने रखी है। उन्होंने उक्त कृत्य जैन राजा खारवेलका बतलाया है क्योंकि उसके सम्प्रदायका आजीविकोंके साथ परम्परागत विरोध था। और इस तरह उक्त घटना मंखरिके समयसे, जब कि अशोककालीन ब्राह्मी लिपि प्रायः भुला दी गई थी, बहुत पहले घटित प्रमाणित होती है।' (अशोक, पृ० २०६) पुरातत्त्वके क्षेत्रमें घटित उक्त घटनासे भी आजीविकोंके प्रति जैनोंके विरोधी दृष्टिकोणका ही समर्थन होता है। अतः आजीविकों और दिगम्बर जैनोंके ऐक्यकी कल्पना या आजीविक सम्प्रदायसे दिगम्बर जैनोंकी उत्पत्तिकी कल्पनामें कोई तथ्य प्रतीत नहीं होता। अतः महावीरकी नग्नता विषयक मान्यतामें गोशालकका प्रभाव परिलक्षित नहीं होता। नग्नता प्राचीन परम्परासे सम्बद्ध है प्रकृत विषय 'नग्नता' पर यदि इतिहास और पुरातत्त्वकी दृष्टि से विचार किया जाये तो भी निर्वस्त्रताका ही समर्थन होता है। आज हिन्दू देवी देवताओंकी नग्न मूर्तियाँ नहीं बनाई जाती और नंगे देवताओंको घृणाकी दृष्टिसे देखा जाता है, यद्यपि शिव Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद ४८१ प्रचलित है । किन्तु एक समय हिन्दुओं में भी नग्न' लिंगकी पूजा मूर्तियों का एकदम अभाव नहीं था । डा० डी०आर० भण्डारकर के Some aspects of ancient Indian culture' से पता चलता है कि बंगाल, बिहार और उड़ीसा में शिवको नग्न ही अंकित करनेकी परिपाटी रही है. चाहे शिवका रूप नटराजका हो, या पार्वती परिणयका हो या अर्धनारीश्वरका हो । बंगाल के पहाड़पुर में जो शिवकी प्रतिमा है, और उड़ीसा चौदुर ( Chaudwar ) में जो उमामहेश्वरकी प्रतिमा है उनमें उर्ध्वलिंग अंकित है । दक्षिण में तथा भारतके अन्य भागों में पाई गई लकुलीश की मूर्तियाँ भी इसी रूप में मिलती हैं। इसी तरह बालकृष्णकी भी नग्न मूर्तियाँ पाई जाती हैं। इस तरह की एक पीतल की मूर्ति बम्बई के संग्रहालय में है, एक मद्रास के संग्रहालय में है । बेलूर के एक मन्दिर में रति कामकी नग्न मूर्ति पाई. जाती है । यक्षियोंकी भी नग्न मूर्तियाँ पाई जाती हैं। प्रश्न होता है कि नग्न मूर्तियोंकी परम्पराका उद्भव कबसे है और क्यों इस परम्पराका लोप हिन्दुओंमें होगया । यहाँ यह स्पष्ट कर देना अनुचित न होगा कि 'शिव' द्रावण अथवा अनार्य देवता था । उसे आयने पीछे से अपने देवताओं में सम्मिलित कर लिया । इस विषय में हम पहले लिख आये हैं । अपनी उक्त पुस्तक में डा० भण्डारकरने कृष्णको भी अनार्य प्रमाणित किया है उसके विस्तार में हम जाना नहीं चाहते । सिन्धु घाटी सभ्यता द्रविड़ सभ्यता थी । मोहेजोदड़ो और हड़प्पा से प्राप्त सीलों और पाषाणों पर अंकित मूर्तियाँ प्रायः नग्न हैं । वहाँसे प्राप्त १ - भां० इं० पत्रिका, जि० २३, पृ० २१४ आदि । ३१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४-२ जै० सा० इ० - पूर्व पीठिका जिन मूर्तियोंको योगी की अथवा शिवकी कहा जाता है वे सब नग्न हैं । अतः यह स्पष्ट है कि द्रविड़ सभ्यता में नग्न मूर्तियों का प्रचलन था । और नग्न मूर्तियों की परम्परा द्रविड़ सभ्यताकी देन है । किन्तु यह उल्लेखनीय है कि सिन्धुघाटीसे जितनी नग्न मूर्तियाँ प्राप्त हुई है उतनी नग्न मूर्तियाँ सिन्धुघाटी सभ्यताके पश्चात् से लेकर अब तक के काल में भी प्राप्त नहीं हुईं। इससे प्रकट होता है कि आर्यों के श्रगमनके पश्चात्से नग्न मूर्तियों में कमी आनी शुरु हो गई । सम्भवतः आर्योंने द्रविड़ देवताओं को अपने देवताओं में सम्मिलित करने के साथ ही उन्हें अपने ढंग से वस्त्र वेष्ठित भी करना शुरु कर दिया । देवमूर्तियों की तरह द्रविड़ यति भी नग्न ही रहते थे। संन्यास आश्रमको स्वीकार करलेनेके पश्चात् आर्योंने उनमें भी वस्त्रका प्रवेश करा दिया । किन्तु नग्न मुनियोंकी, जिन्हें परमहंस कहा गया है, मान्यता में कमी नहीं आई । बुद्ध के समकालीन है विरोधी शास्त्राओं में से महावीर, गोशालक और पूरणकाश्यप नग्न रहते थे, यह सिद्ध है । बुद्धने भी अचेलक तपस्वीका मार्ग अंगीकार किया था । पीछे उसे छोड़ दिया । प्रारम्भ में बुद्धने भी अपने भिक्षुओं को वस्त्र के विषय में इतनी सहूलियते नहीं दी थी। अट्ठकथामें लिखा है कि भगवान के बुद्धत्व प्राप्ति बीस वर्ष तक किसी भिक्षुने गृहपति चीवर (गृहस्थ के द्वारा दिया गया वस्त्र ) धारण नहीं किया। सब पांसुकूलिक' ही रहे ( विनय पि०, पृ० २७३ ) । जीवक कौमारभृत्यकी प्राथना पर ही उन्होने गृहपति चीवर तथा कम्बलकी अनुज्ञा दी थी। इस अनुज्ञा के पश्चात् से ही भिक्षु संघ में चीवरों की बाढ़ आ गई और चीवरोंके १ – मार्गमें फेंके गये चिथड़ोंको धारण करनेवाले । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद संग्रह, भण्डार, बंटवारा, रंगाई, धुलाई आदिके लिये व्यवस्थापक नियुक्त करने पड़े । बौद्ध भिक्षुओंकी इस प्रकारकी प्रवृत्तियों का भी प्रभाव मगधवासी सुखशील जैन साधुओं पर अवश्य पड़ा। जैन मूर्तिकला से भी नग्नताका ही समर्थन होता है। एक भी प्राचीन जैन मूर्ति ऐसी नहीं मिली है जो सवत्र हो अथवा जिसके गुह्य प्रदेश में वस्त्रका चिन्ह अंकित हो । मथुरा के कंकाली टीलेसे प्राप्त सभी मूर्तियाँ नग्न हैं । सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ श्री वीसेण्ट स्मिथने 'दी जैन स्तूप एण्ड अदर एन्टीकुटीस आफ मथुरा' नामक पुस्तक प्रकाशित की थी । उसमें बहुत सी जिन प्रतिमाओं के चित्र भी दिये हैं, जिनमें कुछ प्रतिमाएँ बैठी हुई हैं और कुछ खड़ी हुई हैं। बैठी हुई मूर्तियों पर बत्रका कोई चिन्ह दृष्टिगोचर नहीं होता । परन्तु खड़ी मूर्तियाँ स्पष्ट रूप से नग्न हैं, और उनपर अंकित लेखों में जो गण गच्छ आदि दिये हुए हैं वे श्व ेताम्बर ग्रन्थ कल्पसूत्र की स्थविरावली के अनुसार दिये हुए हैं। उनसे भी पूर्वकी मौर्य - कालीन जो जैन मूर्ति पटना के संग्रहालय में सुरक्षित है, वह भी नग्न है । यह मूर्ति हड़प्पासे प्राप्त एक मूर्तिकी हूबहू प्रतिकृति है । हड़प्पासे प्राप्त मूर्ति अकृत्रिम यथाजात नग्न मुद्रा वाले एक सुदृढ़ युवा की मूर्ति है। भारत सरकार के पुरातत्त्व विभागके संयुक्त निर्देशक श्री टी० एन० रामचन्द्रन्का इसके विषय में कहना है कि 'हड़प्पाकी मूर्ति काके उपरोक्त गुण विशिष्ट मुद्रा में होनेके कारण यदि हम उसे जैन तीर्थङ्कर अथवा ख्यातिप्राप्त तपोयुक्त जैन सन्त की प्रतिमा कहें तो इसमें कुछ भी असत्य न होगा' । ४८३ अत: जैन मूर्तिकला की दृष्टिसे भी जैन परम्परा में नग्नताका ही प्रचलन प्रकट होता है। यदि जैन धर्म वैदिक धर्मसे प्राचीन १ -- अनेकान्त, वर्ष १४, कि० ६, पृ० १५८ | Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ जै० सा० इ०-पूर्व पोठिका सिन्धुघाटी सभ्यतासे सम्बद्ध है तो वह अवश्य ही नग्नताका उपासक होना चाहिये। संघ भेदका काल संघ भेदके कारण वस्त्रको समस्या पर विस्तारसे प्रकाश डालने के पश्चात् हम पुनः संघ भेदके कालकी ओर आते हैं। श्रीमती स्टिवेन्सनने (हा. जै०, पृ० ७६) लिखा है- 'संभावना यह है कि जैन समाजमें सदासे दो पक्ष रहे हैं- एक वृद्धों और कमजोरोंका, जो पार्श्वनाथके समयसे वस्त्र धारण करते आते हैं और जिसे स्थविरकल्प कहते हैं । यह स्थविरकल्पी पक्ष श्वेताम्बर सम्प्रदायका पूर्वज है और दूसरा पक्ष जिनकल्प है, जो नियमोंका अक्षरशः पालन करता था, जैसाकि महावीरने किया था, यह पक्ष दिगम्बरोंका अग्रज है।' ___ श्रीमतीजीकी इस संभावनामें हमें भी सत्यांश प्रतीत होता है क्योंकि उत्सर्ग अपवाद सापेक्ष्य होता है। अत: उत्सर्ग मार्गमें वृद्ध और कमजोरोंके लिये कुछ अपवादोंकी छूट होना संभव है। किन्तु जैसा उत्सर्ग अपवाद सापेक्ष्य होता है वैसे ही अपवाद भी उत्सर्ग सापेक्ष्य होता है। परन्तु यदि अपवादको ही उत्सर्ग मान लिया जाये और उत्सर्गकी सर्वथा उपेक्षा कर दी जाये तो उत्सर्ग और अपवाद मागियोंमें अलगाव होजाना ही अधिक संभव है। और यही संभावना जैनसंघके भेदके मूलमें जान पड़ती है। ___ श्वेताम्बर साहित्यके आधारसे यह बतला आये हैं कि भगवान महावीरके समयमें जो पार्श्वनाथकी परम्पराके साधु थे वे प्रायः शिथिलाचारी हो गये थे और उनमेंसे अनेकोंने महावीरके सन्मुख चतुर्याम धर्मसे पञ्च महाव्रत रूप धर्मको अंगीकार किया Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद था, जिनमें पार्श्वनाथकी परम्पराके केशी प्राचार्य भी थे। किन्तु कुछ पार्थापत्यीय ऐसे अवश्य थे, जो महावीरके संघमें सम्मिलित नहीं हुए थे। फिर भी उन्होंने भगवान पार्श्वनाथ और भगवान महावीरके धर्ममें कोई अन्तर पाड़कर ऐसा सम्प्रदाय भेद नहीं उत्पन्न किया जो केवल पार्श्वनाथको या केवल महावीरको ही अपना धर्मगुरु मानता हो, और दूसरे तीर्थङ्करको अपना धर्मगुरु न मानता हो। इसका कारण भगवान महावीर जैसे समर्थ धर्मगुरु का व्यक्तित्व था, जिन्होंने युवावस्थासे ही कठोर संयमी जीवन विताकर 'निग्रन्थ' नामको सार्थक बनाया था और सुखशील निम्रन्थोंको भी सच्चा निर्ग्रन्थ बननेकी भावनाको जागृत किया था। भगवान महावीरके ही अनुपम आर्दश तथा प्रभावके कारण उनके निर्वाणके पश्चात् भी किसी तरहका मत भेद उत्पन्न नहीं हो सका और गौतम गणधर, सुधर्मा स्वामी तथा जम्बू स्वामी तक भगवान महावीरका जैनसंघ अखण्ड रूपसे प्रवर्तित हुआ । जम्बू स्वामीके पश्चात् किसी प्रकारके अलगावका भाव उत्पन्न हुआ हो तो असं. भव नहीं है; क्योंकि भगवान महावीरके इन तीनों उत्तराधिकारियों को दोनों सम्प्रदाय अपना धर्मगुरु मानते हैं। यद्यपि इतना अन्तर अवश्य प्रतीत होता है कि दिगम्बर परम्परा गौतम गणधरको ही विशेष महत्त्व देती है, जब कि श्वेताम्बर परम्परा सुधर्माको विशेष महत्त्व देती है । सुधर्माके शिष्य जम्बू स्वामी थे। जम्बू स्वामीके 'पश्चात् कोई अनुबद्ध केवलज्ञानी नहीं हुआ। और इस तरह केवल ज्ञानियोंकी परम्पराका अन्त होगया। जम्बू स्वामीके पश्चात्से ही दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परा की गुर्वावलिमें अन्तर पड़ता है और उनमें एक श्रुतके ली भद्रबाहु ही ऐसे व्याक्त हैं, जिन्हें दोनों मान्य करते हैं। इसपरसे ऐसा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका संशय होना स्वाभाविक है कि क्या जम्बू स्वामीके पश्चात् ही कोई ऐसा विवाद खड़ा हुआ था, जिसके कारणसे दोनों परम्पराके श्राचार्योंकी नामावलीमें अन्तर पड़ गया? दिगम्बर साहित्य तथा पट्टावलियोंके अनुसार जम्बू स्वामीके पश्चात् क्रमशः विष्णु,नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु ये पांच श्रुतकेवली हुए और श्वेताम्बर परम्पराके अनुसार प्रभव, शय्यंभव, यशोभद्र संभूति विजय और भद्रबाहु ये पांच चतुर्दशपूर्वी हुए। संभूति विजय और भद्रबाहु ये दोनों यशोभद्रके शिष्य थे । इनमेंसे सभूतिविजयके शिष्य स्थूल भद्र हुए और उनसे श्वेताम्बरोंकी गुर्वावलि चलो। ____ यह हम पहले लिख आये हैं कि श्वेताम्बर साहित्यमें जम्बू स्वामीके पश्चात् जिन दस बातोंका विच्छेद बतलाया गया है उनमें एक जिनकल्प भी है। विशेषावश्यकमें उस उल्लेखको भाष्यकार जिनभद्रने जिनवचन बतलाया है। वि० भा० में यह चर्चा शिवभूतिकी कथाके प्रकरणमें आई है। जब शिवभूति जिनवर द्वारा निर्दिष्ट होनेसे जिन कल्प धारण करनेके लिये उद्यत ही हो गया और किसी भी तरह नहीं माना १-'उत्तम धिइसंघयणा पुन्न विदोऽतिसइणो सया कालं । ज़िणकप्पिया वि कप्पं कयपरिकम्मा पवज्जंति ॥२५६१॥ तं जह जियवयणाश्रो पवजसि; पवज तो स छिन्नोत्ति । अस्थिति कहं पमाणं कह बुच्छिन्नोति न पमाणं ॥२५६२॥ मणपरमोहि पुलाए आहारग खवग-उवसमे कप्पे । संजमतिय-केवलि सिझणाय जंबुम्मि बुच्छिणा ॥२५६३॥ -वि० भा०। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद ४८७ तब उससे कहा गया कि यदि जिनवरका वचन होनेसे तुम जिनकल्पको अंगीकार करते हो तो यह भी अंगीकार करो कि जम्बू स्वामीके पश्चात् जिनकल्पका विच्छेद हो गया क्योंकि जिनवरने ऐसा कहा है ? ___श्वेताम्बरीय आगमोके विद्वान पं० बेचरदास जीने जिनकल्पके विच्छेदकी उक्त घोषणाके विषयमें लिखा था-यह बात मैं विचारक पाठकोंसे पूछता हूँ कि जम्बू स्वामीके बाद कौन सा २५वां तीर्थङ्कर हुआ कि जिसका वचन रूप यह उल्लेख माना जाये ? इस उल्लेखका एक ही उद्देश्य हो सकता है-जम्बू स्वामी के बाद जिनकल्पका लोप बतलाकर जिनकल्पके आचरणको बन्द कराना और जो उस ओर प्रवर्तित हों, उन्हें उस प्रकारका आचरण करनेसे रोकना। पं० वेचरदास जीके मतानुसार इसीमें श्वेताम्बरत्व और दिगम्बरत्वके विषवृक्षकी जड़ समाई हुई है, तथा इसके वीजारोपणका समय भी वही है जो जम्बू स्वामीके निर्वाणका समय है ( जै० सा० वि०, पृ० १०२-१०५ ) । जिनकल्पका विच्छेदवाला उल्लेख कबका है और किसने इसे रचा है इसका निर्णय करना तो शक्य नहीं है फिर भी इसे देवर्द्धिगणिके समयका. माना जा सकता है। यह भी संभव है कि इस प्रकारका आशय पहलेसे चला आता हो और इसीसे सूत्र ग्रन्थोंमें भी इसे देवणि गणिने समाविष्ट कर दिया हो. ऐसा । पं० वेचरदास जीका कथन है। जो कुछ हो, पर उक्त बातोंसे यह स्पष्ट है कि जम्बू स्वामीके बादसे ही सुखशील शिथिलाचारी पक्षने अंगड़ाई लेना शुरू कर दिया था और भद्रबाहुके समयमें बारह वर्षके भयंकर दुर्भिक्षके थपेड़ोंने तथा श्रुतकेवली भद्रबाहुकी दक्षिण यात्राने उसे उठकर बैठनेका अवसर दिया। तथा बौद्ध साधुओंके Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ मगध में बढ़ते हुए प्रभावने' और उनके आचार विचार ने उसे खड़ा कर दिया । और इस तरह भद्रबाहके काल में ही संघभेदका बीज बोया गया । जै० ० सा० इ०-पूर्व पीठिका भद्रबाहुके समय में जैनसंघमें विवाद होनेकी चर्चा श्वेताम्बर परम्परामें भी मिलती है। और जैनसंघका वह विवाद श्रुतकेवलि भद्रबाहु के कारण उन्हीं से हुआ था । परि० प०, सर्ग ६ श्लोक ५५-७६ में लिखा है कि- 'भयंकर दुभिक्ष पड़ने पर साधु संघ निर्वाह के लिये समुद्रके तटकी ओर चला गया । इस काल में अभ्यासवश साधुओं के हृदयमें स्थित श्रुत विस्मृत हो गया । दुष्काला अन्त होने पर पाटलीपुत्रमें संघ सम्मिलित हुआ और जिसको जिस अंगका जो अध्ययन या उद्देश स्मत था वह संकलित किया गया । इस तरहसे श्री संघने ग्यारह अंगोंका संकलन किया और दृष्टिवाद के लिये विचार करने लगा । उसे ज्ञात हुआ १ 'महावीर निर्वाण के बाद जम्बू स्वामी तक के समय में बुद्धदेव के मध्यम मार्गने काफी लोकप्रियता प्राप्त कर ली थी और सम्राट अशोक के समय में तो वह प्रायः सर्वव्यापी हो चुका था । उस समय चारों ओर बौद्ध स्थापित किये गये । बौद्ध श्रमण लंका श्रादि देशों में प्रचारार्थ गये । इस मध्यममार्गकी प्रवृत्ति जितनी लोकोपयोगी थी, उतनी हो भिक्षुत्रोंके लिये सरल और सुखद थी । श्री वर्धमान स्वामीके कठिन ' त्यागमार्गसे खिन्न हुए जैन साधुत्रों पर बौद्धोंके इस सरल और लोकोपयोगी मध्यममार्गका असर होना सहज बात है । जम्बू स्वामीके पश्चात् जिनकल्प विच्छिन्न होनेके कथनका अभिप्राय यह हो सकता है कि पूर्वके कठोर मार्ग में नरमाई श्राई और धीरे धीरे वनवासीसे चैत्यवासी बन गये | देखो - जै० सा० वि०, पृ० १८२-१८६ | जै० सा० इ० ( गु० ) पृ० ६४ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद ४८६ कि चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु नेपालदेशके मार्गमें विराजमान हैं। संघने उन्हें लिवा लानेके लिये दो मुनियोंको भेजा। मुनियोंने जाकर निवेदन किया कि संघने आपको पाटलीपुत्र आनेका आदेश दिया है । भद्रबाहुने कहा-मैंने महाप्राण नामक ध्यानको प्रारम्भ किया है. वह बारह वर्षों में समाप्त होगा। उसके पश्चात् ही मैं आऊँगा । मुनियोंने जाकर संघसे सब वृत्तांत कहा। तब संघने दूसरे दो मुनियोंको बुलाकर आदेश दिया तुम जाकर आचार्य भद्रबाहुसे कहना कि जो श्री संघका शासन नहीं मानता उसे क्या दण्ड देना चाहिये। जब वे कहें कि उसे संघसे बहिष्कृत कर देना चाहिये तो आचार्यसे जोर देकर कहना कि तुम इसी दण्डके योग्य हो' । मुनियोंने जाकर भद्रबाहुसे उक्त बात कही और उन्होंने वही उत्तर दिया। पीछे भद्रबाहुने कुछ मुनियों को अपने पास भेजने पर उन्हें वाचना देना स्वीकार किया । संघने पाँच सौ साधुओंको उनके पास भेजा, जिनमेंसे केवल एक स्थूलभद्र ही वहाँ रुके, शेष सब उद्विग्न होकर चले आये । महा. प्राण ध्यान पूरा होने तक स्थूलभद्रने कुछ कम दस पूर्वोका अध्ययन समाप्त किया। इसके पश्चात् भद्रबाहु पाटलीपुत्र लौट आये। स्थूलभद्रसे कुछ गल्ती हो गई जिसके कारण फिर उन्होंने शेष पूर्वोका ज्ञान स्थूलभद्रको नहीं दिया और पूर्वज्ञान किसी अन्यको देनेसे भी मना कर दिया ।' तित्थोगाली पइन्नय ( गा०७३०-७३३) में लिखा है कि भद्रबाहुके उत्तरसे नाराज होकर स्थविरोंने कहा-संघकी प्रार्थना का अनादर करनेसे तुम्हें क्या दण्ड मिलेगा, इसका विचार करो। भद्रबाहुने उत्तर दिया-मैं जानता हूँ कि संघ इस प्रकारके वचन बोलनेवालेका बहिष्कार कर सकता है। तब स्थविर बोले-तुम Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૯૦ जै० सा० इ० पूर्व-पीठिका संघकी प्रार्थनाका अनादर करते हो इसलिये श्रमण संघ तुम्हारे साथ बारहों प्रकारका व्यवहार बन्द करता है" । उक्त उल्लेखोंसे जहाँ एक ओर संघके साथ भद्रबाहुकी खींचतान होने पर प्रकाश पड़ता है वहाँ यह भी स्पष्ट हो जाता है कि पाटलीपुत्रकी वाचनामें भद्रबाहु उपस्थित नहीं थे । इसपरसे डा० कोवी ने लिखा था कि पाटलीपुत्र नगर में जैनसंघने जो अंग संकलित किये थे वे केवल श्वेताम्बर सम्प्रदाय के ही थे, समस्त जैन संघ नहीं थे, क्योंकि उस जैन संघ में भद्रबाहु सम्मिलित नहीं थे ( से० बु० ई०, जि० २२, की प्रस्ता० पृ० ४३ ) । हमारा विचार है कि भद्रबाहुकी अनुपस्थिति में की गई प्रथम वाचनाने संघभेदकी नींवमें रोड़ा डालनेका काम किया और भीमें किये गये अंगोके लेखन कार्यने संघभेदकी दीवारको स्थायी कर दिया। संभवतया इसीसे दिगम्बर कथा में श्वेताम्बर सम्प्रदाय को उत्पत्ति वल्भी नगरीमें हुई बतलाई है। अतः विवादको बढ़ाने में अंगसंकलनका भी महत्त्वपूर्ण स्थान होना संभव है, क्योंकि जब तक किसी नई प्रवृत्तिके पीछे शास्त्रबल नहीं रहता, तब तक उस नवीन प्रवृत्तिको एक तो बल नहीं मिलता, दूसरे पर पक्ष भी उसे परम्परा विरुद्ध मानकर उधर से 'किनाराकशी' करके बैठ जाता है । किन्तु जब उस नवीन प्रवृत्तिको शास्त्रोंके द्वारा भी पोषा जाता है तो विवादका उग्ररूप धारण कर लेना स्वाभाविक है । और ऐसे शास्त्रों के मूर्तरूप धारण कर लेने पर तो विवादका स्थायी न होना ही आश्चर्य कारक है । अतः दिगम्बर कथाओं में जो भद्रबाहुके समय में संघभेदकी उत्पत्ति और वल्मी में श्वेताम्बर सम्प्रदायकी उत्पत्ति बतलाई है, उसके मूल में अन्य बातोंके साथ अंगों की संकलना भी अवश्य Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद ४६१ प्रतीत होती है। यद्यपि दिगम्बर साहित्यमें पाटलीपुत्र या वलभीमें होने वाली किसी भी परिषद्का संकेत तक भी नहीं है , तथापि वल्भीमें श्वेताम्बर सम्प्रदायकी उत्पत्ति बतलानेसे यह स्पष्ट है कि वलभीमें हुई वाचनामें जो संकलित आगम ग्रन्थोंको पुस्तकारूढ़ किया गया उससे श्वेताम्बर-दिगम्बर भेद स्थायी होगया। वलभी वाचनाका समय वीर निर्वाण सं० ६८० और वाचनान्तरसे ६६३. है जो वि० सं०५१० और ५२३ होता है किन्तु दोनों सम्प्रदायोंमें दिगम्बर श्वेताम्बर भेदका काल' वि०. सं० १३६-१३. बतलाया है। और उक्त वलभी वाचना उससे लगभग पौने चार सौ वर्ष बाद हुई। तथा श्वेताम्बर कथाका कोई भी ऐतिहासिक आधार न होनेसे तदनुसार विक्रमकी द्वितीय शताब्दीमें दिगम्बरोंकी उत्पत्ति होनेके भी किन्हीं चिन्होंका पता लगना शक्य नहीं है। ___ मथुराके कंकाली टीलेसे प्राप्त जैन अवशेष कनिष्क, और हुविष्क और वासुदेवके समयके हैं जिनका समय ईसाको प्रथम तथा द्वितीय शताब्दी माना जाता है । वहाँसे प्राप्त शिलालेखोंके सम्बन्धमें डा० बुलहरने लिखा है कि-'शिलालेखोंमें जो आचार्यों और उनके गण-गच्छोंका उल्लेख मिला है वह जैनोंके इतिहासके लिये कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। शिलालेखोंका कल्पसूत्रके साथ मेल खाजाना एक तो यह प्रमाणित करता है कि मथुराके जैन १–'वायणंतरे पुण अयं तेण उए संवच्छरे काले गच्छइ इइ दीसई: कल्पसूत्र। २-छत्तीसे वरिस सए विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स । सोरटे वलहीए उप्पण्णो सेवडो संघो ॥११॥ -दर्शनसार Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ जै० सा० इ० - पूर्व पीठिका श्वेताम्बर सम्प्रदाय के थे और दूसरे जिस संघभेदने जैन सम्प्रदाय को परस्पर विरोधी दो सम्प्रदायों में विभाजित कर दिया वह ईस्वी सन्के प्रारम्भ होनेसे बहुत पहले हो चुका था ।' (इं० से० जै०, पृ० ४४ ) इसका मतलब तो यही होता है कि श्रुतकेवली भद्रबाहुके समय में ही संघभेद हुआ, जैसाकि दिगम्बर कथाओं में बतलाया गया है । क्योंकि ईस्वी सन्के प्रारम्भसे बहुत पहले तो वही समय ऐसा आता है । ऐसी स्थितिमें देवसेनने अपने दर्शनसार में जो वि० सं० १३६ में वलभी नगरीमें श्वेताम्बर संघकी उत्पत्ति होनेका निर्देश किया है उसका क्या आधार है, हम नहीं कह सकते, क्योंकि उस समय में वलभीमें कोई ऐसी घटना होने का संकेत तक भी नहीं मिलता । वलभी वाचनासे लगभग डेढसौ वर्ष पूर्व वि० सं० ३५७-३७० के मध्यमें तो मथुरामें वाचना होनेका निर्देश श्वेताम्बर साहित्य में पाया जाता है । मथुराके पश्चात् ही श्वेताम्बर सम्प्रदायका जोर सौराष्ट्रमें हुआ था । जैसाकि हमने पहले भी लिखा है 'वृहत्कथाकोश और दर्शनसार की रचनाके समय वलभीके सम्मेलनको हुए केवल चार पांच शताकियाँ ही बीती थीं, तथा उसीमें अन्तिम रूपसे निर्णीत होकर श्वेताम्बरीय जैन आगम पुस्तक रूप धारण करके सर्वत्र प्रसारित हुए थे । शायद इसीसे वलभीमें श्वेताम्बर संघके उत्पत्ति होनेका निर्देश दिगम्बर कथाओंमें किया है। किन्तु वि० सं० १३६ या १३ में जो संघभेदका उल्लेख मिलता है, उसके लिये और भी अन्वेषणकी आवश्यकता है । 5 संघभेदका प्रभाव और विकास दिगम्बर और श्वेताम्बर के रूपमें प्रकट हुए संघभेदका प्रभाव यदि किसी पर विशेष रूपसे पड़ा अथवा संघभेदके कारण यदि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सघ भेद ४६३ किसीकी गम्भीर क्षति पहुँची तो वह प्राचीन जैन साहित्य है, जिसे जैन परम्परामें अङ्ग या आगम कहते हैं। दोनों सम्प्रदायोंके साहित्यमें अङ्गोंके विस्तारका जो महत् परिमाण दिया है, उसे पढ़कर सखेद आश्चर्य होता है। यदि उसका शतांश भाग भी शेष रहता तो आज जैन माहित्य सर्वोपरि होता और उसके द्वारा न जाने कितने ऐतिह्य और तथ्य प्रकाशमें आते । उसके साथ ही जैन परम्पराका बहुत सा इतिहास, यहाँ तक कि भगवान महावीर का बहुत सा जीवन वृत्तान्त भी लुप्त हो गया और उसमें भी सम्प्रदाय गत मतभेद उत्पन्न हो गये ।। अतः अखण्ड जैन परम्पराके अन्तिम गुरु और भगवान महावीरके द्वारा उपदिष्ट सम्पूर्ण द्वादशांगके अन्तिम उत्तराधिकारी श्रुतकेवली भद्रबाहुके अवसानके साथ ही साथ एक तरहसे जैन श्रुत परम्पराका ही अवसान हो गया। और दिगम्बर परम्पराका तो एकमात्र धनी-धरोहरी ही जाता रहा। इसीसे उनके प्रभावमें पाटलीपुत्रमें जो प्रथम आगमवाचना हुई कही जाती है, उसे सम्पूर्ण जैन परम्पराका समर्थन प्राप्त नहीं हो सका। और भद्रबाहुके पश्चात् दिगम्बर तथा श्वेताम्बर परम्पराकी गुर्वावलियाँ सर्वथा भिन्न हो गई। और इस तरह दोनोंका साहित्य भी जुदा जुदा हो गया। किसी भी धर्मके मूल आधार तीन होते हैं-देव, शास्त्र और गुरु । इन तीनोंके भेदसे सम्प्रदायगत अथवा धर्मगत भेदकी निष्पत्ति होती है। अर्थात् जिस धर्म या सम्प्रदायके ये तीनों आधार भिन्न होते हैं वह एक पृथक धर्म अथवा सम्प्रदाय होता है। जैन परम्परामें प्रारम्भिक मतभेद वस्त्रको लेकर उत्पन्न हुआ। नग्न गुरुओंका उपासक सम्प्रदाय दिगम्बर कहलाया और सवस्त्र गुरुओंका उपासक सम्प्रदाय श्वेतांबर कहलाया। अतः दोनों Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ 10 सा० इ० पूर्व-पीठिका सम्प्रदायोंके गुरु भिन्न भिन्न हो गये। दिगम्बर सम्प्रदायने सवस्त्र गुरुओंको मान्य नहीं किया तो श्वेताम्बर सम्प्रदायने नग्न गुरुओं को मानना छोड़ दिया। दिगम्बर आचार्योंने यह घोषणा की कि सवस्त्र साधुको मुक्ति लाभ नहीं हो सकता तो श्वेताम्बर आचार्यों ने कहा कि वस्त्र धारण किये बिना कोई मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता। इस तरह दोनों के गुरु भिन्न भिन्न हो गये। शास्त्रभेद तो श्वेताम्बरीय वाचनाओंके एकपक्षीय होनेसे ही स्पष्ट है। किन्तु गुरुभेद पूर्वक ही शास्त्र भेद हुआ प्रतीत होता है। क्योंकि जब गुरु भिन्न हो गये तो जिस गुरुको नहीं मानते उसके वचनोंको मान्य कैसे किया जा सकता है। . किन्तु गुरु और शास्त्रभेद होने पर भी दोनों बहुत समय तक एक हा प्रकारकी मूर्ति की उपासना करते रहे। और इस तरह दोनोंके आराध्य चौबीस तीर्थङ्करोंकी मूर्तियां अभिन्न रहीं। किन्तु वस्त्रवादके बढ़ते हुए पोषणने अन्तमें मूर्तियोंको भी अपना शिकार बनाकर ही छोड़ा। और इस तरह गुरु और शास्त्रके साथ देवमूर्तियां भी भिन्न हो गईं। इस प्रकार संघभेदकी तीनों सीढ़ियाँ क्रमशः स्थापित हुईं। भद्रबाहु श्रुतकेवलीके पश्चात्से गुरु भेद स्थायी रूपसे स्थापित हो गया। एकपक्षीय आगमवाचनासे प्रारम्भ हुआ शास्त्रभेद वलभीमें आगमोंकी संकलना और पुस्तकारूढ़ताके साथ स्थायी हो १-'ण वि सिझई वत्थधरो जिणसासणे जइवि होइ तित्थयरो । णग्गो विमोक्खमग्गो सेसा उम्मग्गया सव्वे ॥२३॥-सूत्र प्रा० । २-जै० सा० वि०, पृ. ५६ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ भेद ४६५ गया । तथा देवमूर्तियोंमें पहले वस्त्रका और फिर अँग रचनाका समावेश करके देवको भी पृथक कर दिया गया और इस तरह संघभेदका चिरस्थायी कर दिया गया। फिर भी यह सन्तोषकी बात है कि बौद्ध धर्मके अन्तर्गत सौत्रान्तिक, वैभाषिक, योगाचार और माध्यमिक भेदोंकी तरह जैन धर्मके अन्तर्गत तात्विक भेदोंके आधार पर दार्शनिक सम्प्रदायोंकी सृष्टि नहीं हुई। और समन्तभद्र सिद्धसेन और अकलंक जैसे दार्शनिकोंने समान भावसे अपनाया। यह कम प्रसन्नताकी बात नहीं है। - श्रुतकेवली भद्रबाहु पर्यन्त अखण्ड जिन शासनकी वैजयन्ती फहराती रही। उसके पश्चात् जिन शासन विभक्त हुआ और जैन साहित्यकी सुरक्षा तथा निर्माणकी चिन्ताने श्रुतधरों श्रुत प्रेमियोंको आन्दोलित किया। ___ उसके फलस्वरूप जो कुछ किया गया उसीका वर्णन आगे किया जाता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ श्रृतावतार भगवान महावीरके उपदेशोंको सुनकर उनके गणधरोंने जो ग्रन्थ रचे हैं उन्हें श्रुत' कहते हैं। 'श्रुत' का अर्थ है-'सुना हुआ'। अर्थात् जो गुरु मुखसे सुना गया हो वह श्रुत है। भगवान महावीरके उपदेशोंको उनके मुखसे उनके गणधरोंने श्रवण किया और उनके गणधरोंसे उनके शिष्योंने और उन शिष्योंसे उनके प्रशिष्योंने श्रवण किया। इस तरह श्रवण द्वारा प्रवर्तित होनेके कारण ही उसे श्रुत कहा जाता है। श्रुतकी यह परम्परा बहुत समय तक इसी तरह श्रुति द्वारा प्रवर्तित होती रही । सम्पूर्ण श्रुतके अन्तिम उत्तराधिकारी श्रुतकेवली भद्रबाहु थे । उनके समयमें बारह वर्षका भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा और संघभेदका सूत्रपात हा गया। आगम संकलना श्वेताम्बरीय मान्यताके अनुसार दुर्भिक्षका अवसान होने पर पाटलीपुत्रमें एक साधु सम्मेलन हुआ और उसमें जिन जिन श्रुतधरोंको जो जो श्रुत स्मृत था उसका संकलन किया गया । इसे पाटलीपुत्री वाचना कहते हैं। १-'निरावरण ज्ञानाः केवालिनः । तदुपदिष्टं बुद्धयतिशयर्द्धियुक्तगणधरानुस्मृतं ग्रन्थरचनं श्रुतं भवति ।'-सर्वार्थ०, अ० ६, सूत्र १३ । 'गुरुसमीपे श्रूयते इति श्रुतम्'-अनु० । २-पाटलीपुत्री वाचनाका वर्णन तित्थोगाली पइन्नामें, हेमचन्द्रकृत परिशिष्ट पर्व के नौवें सर्गमें तथा स्थूलभद्रको कथाओंमें मिलता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतावतार ४६७ मगधमें मौर्य साम्राज्यके पतन और शुंगवंशी पुष्यमित्रके उदयके पश्चात् जैन धर्मका वहां से स्थानान्तर होना स्वाभाविक था। मगधसे हटनेके पश्चात् जैनधर्मका केन्द्र मथुरा बना । कुशानवंशी राजाओंके समयमें वहां जैनधर्मका अच्छा स्थान था। वीर निर्वाण सम्वत् ८२७ और ८४० के मध्यमें मथुगमें एक वाचना होनेका उल्लेख मिलता है। इसके प्रमुख स्कन्दिल सूरि थे। ज्ञात होता है कि स्कन्दिल सूरिके पश्चात् मथुरासे भो जैन संस्कृतिका प्राधान्य उठ गया। इसीसे तीसरी वाचना सुदूर वलभी नगरीमें की गई। ___यह वाचना पाटलीपुत्री वाचनासे आठ सौ वर्षोंके पश्चात् देवर्द्धि गणिकी प्रमुखतामें हुई थी। उस समय भी बारह वर्षका भयंकर दुर्भित पड़ा था, जिससे बहुत सा श्रुत नष्ट तथा विच्छिन्न हो गया था। इस वाचनाको सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि पहलेकी वाचनाओंकी तरह इसमें केवल वाचना नहीं हुई, किन्तु उसके द्वारा संकलित और व्यवस्थित सिद्धान्तोंको पुस्तकारूढ़ करके उन्हें स्थायित्व प्रदान किया गया और इस तरह एक हजार देखो-धर्मघोष कृत ऋषिमण्डल प्रकरण पर पद्म मुन्दिर रचित वृत्त में, शुभशील कृत भरतेश्वर बाहुबलिकी वृत्ति में, हरिभद्र कृत उपदेशपदकी मुनिचन्द्र सूरि रचित वृत्तिमें स्थूलभद्र कथा तथा जयानन्द सूरिकृत स्थूल भद्र चरित्र तथा प्रावश्यक कथा। १–'वारस संवच्छरिए महते दुभिक्खे काले भत्तहा अण्णएएतो हिंडियाणं गहण-गुणण गुप्पेहाभावात्रों विप्पणढे सुत्ते, पुणो सुब्भिक्खे काले जाए महुराए महंते साधुसमुदए खंदिलायरियप्पमुःसंघेण जो अं संभरइत्ति इव संघडियं कालियसुयं । जम्हा एव महुराए कयं तम्हा माहुरी वायणा झण्णइ ।' -जिनदासमहत्तर कृत नन्दि चूणि । ३२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ जै सा० इ०-पूर्व पीठिका वर्षसे जो सिद्धान्त स्मृतिके आधारपर प्रवाहित होते आते थे, उन्हें मूर्त रूप मिल गया। शायद इसीसे वलभीका नाम दिगम्बर सम्प्रदायमें भी स्मृत रहा क्योंकि हरिषेण कथाकोश वगैरहमें वलभीमें ही श्वेताम्बर सम्प्रदायकी उत्पत्ति बतलाई है। सिद्धान्तोंके पुस्तकारूढ़ हो जानेके पश्चात् फिर कोई वाचना नहीं हुई क्योंकि उसकी आवश्यकता ही नहीं रही। वर्तमान श्वे० जैन आगम उसी वाचना की उपज हैं। समय सुन्दर गणिने अपने समाचारी शतकमें देवद्धि गणिके उक्त सत्प्रयत्नका वर्णन इस प्रकार किया है-'श्री' देवर्द्धि गणि क्षमा श्रमणने, द्वादश वर्षीय दुर्भिक्षके कारण बहुतसे साधुओंका मरण तथा अनेक बहुश्रुतोंका विच्छेद हो जानेपर श्रुतभक्तिसे प्रेरित होकर भावि जनताके उपकारके लिए वीर निर्वाण सम्बत ९८० में श्री संघके आग्रहसे बचे हुए सब साधुओंको वलभी नगरी में बुलाया । और उनके मुखसे विच्छिन्न होनेसे अवशिष्ट रहे कमती बढ़ती, त्रुटित, अत्रुटित आगम पाठोंको अपनी बुद्धिसे क्रमानुसार संकलित करके पुस्तकारूढ़ किया। इस तरह यद्यपि मूलमें सूत्र गणधरों के द्वारा गूथे गये थे, तथापि देवर्द्धिके द्वारा पुनः संकलित १-"श्रीदेवद्धिंगणिक्षमाश्रमणेन श्रीवीराद् अशोत्यधिकनवशतकवर्षे जातेन द्वादशवर्षीयदुर्मिक्षवशात् बहुतरमाधुव्यापत्तौ च जातायां ""भविष्यद् भव्यलोकोपकाराय श्रुतभक्तये च श्रीसंघाग्रहात् मृतावशिष्ठतदाकालीनसर्वसाधून् बलम्पामाकार्य तन्मुखाद् विच्छिन्नाशिष्ठान् न्यूनाधिकान् त्रुटिताऽत्रुटितान् श्रागमालापकान् अनुक्रमेण स्वमत्या संकलय्य पुस्तकारूढा कृताः। ततो मूलतो गण धरभावितानामपि तत्संकलनानन्तरं सर्वेषामपि श्रागमानां कर्ता श्रीदेवर्द्धि गणिक्षमाश्रमण एव जातः ।" Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतावतार ४६६ किये जानेसे देवद्धि गणि क्षमाश्रमण ही सब आगमों के कर्ता हुए। गणिजीका उक्त कथन वर्तमान जैन आगमोंके विषयमें वास्तविक स्थित हमारे सामने रखता है। यथार्थमें एक हजार वर्ष तक जो सिद्धान्त स्मृतिके अधारपर प्रवाहित होते आए हों, उनकी संकलना और सुव्यवस्थामें इस प्रकारकी कठिनाइयोंका होना स्वाभाविक है। आज भी जीर्ण शीर्ण प्राचीन प्रतिके आधारपर किसी ग्रन्थका उद्धार करनेवालोंके सामने इसी प्रकार की कठिनाइयां आती हैं। प्राचीन शिलालेखोंका सम्पादन करने वाले अस्पष्ट और मिट गये शब्दोंकी संकलना पूर्वापर सन्दर्भके अनुसार करते देखे जाते हैं। अत: देवर्द्धि ने भी त्रुटित आदि पाठोंको अपनी बुद्धिके अनुसार संकलित करके पुस्तकारूढ़ किया होगा। इसपरसे यदि उन्हें समस्त आगमोंका कर्ता न भी कहा जाये को भी आज जो आगम उपलब्ध हैं, उनको यह रूप देनेका श्रेय तो उन्हें ही प्राप्य है। किन्तु मुनि श्री कल्याण विजयजी देवद्धिगणिको यह श्रेय देनेके लिये तैयार नहीं हैं, वह उन्हें केवल लेखकके रूप में देखते हैं। अपने 'वीर निर्वाण सम्वत् और जैन काल गणना' शीर्षक विद्वत्तापूर्ण निबन्धमें मुनिजीने इस विषयपर विस्तारसे लिखा है। देवर्द्धिके कार्यके सम्बन्ध में नया मत मलयगिरि ने ज्योतिष्करण्डकी' टीका ( पृ० ४१ ) में और १-'दुर्भिक्षातिक्रमे सुभिक्षप्रवृत्तौ द्वयोः संघयोर्मेलापकोऽभवत् । तद्यथा एको वलभ्यां, एको मथुरायां, तत्र च सूत्रार्थसंघटनेन परस्परवाचनाभेदो जातः । -ज्योति० टी०, पृ० ४१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका विनय विजयने लोकप्रकाशमें' उक्त वाचनाओंका निर्देश किया है ! उससे व्यक्त होता है कि दुर्भिक्षके पश्चात् एक साथ दो सम्मेंलन हुए एक मथुरामें और एक वलभीमें । लोकप्रकाशमें इतना विशेष लिखा है कि वलभी सम्मेलनके प्रमुख देवर्द्धि थे और मथुरा सम्मेलनके प्रमुख स्कन्दिलाचार्य थे। किन्तु श्वेताम्बर स्थविरावलीके अनुसार देवर्द्धिसे स्कन्दिलाचार्य बहुत पहले हुए थे। अतः दोनोंकी समकालीनता संभव नहीं है। ____ भद्रेश्वर की कथावलीमें इनसे कुछ भिन्न ही उल्लेख मिलता है उसमें लिखा है-'मथुरामें श्रुतसमृद्ध स्कन्दिल नामक आचार्य थे और वलभी नगरी में नागार्जुन नामक आचार्य थे। दुष्काल पड़ने पर उन्होंने अपने साधुओंको भिन्न-भिन्न दिशाओंमें भेज दिया। सुकाल होने पर वे पुनः मिले। और जब अभ्यस्त शास्त्रोंका परावर्तन करने लगे तो उन्हें ज्ञात हुआ कि वे पढ़े हुए शास्त्रोंको प्रायः भूल चुके हैं। श्रुतका विच्छेद न हो, इसलिये आचार्योने सिद्धान्तका उद्धार करना शुरू किया। जो विस्मृत नहीं हुआ था, उसे वैसे ही स्थापन किया और जो भूला जा चुका था वह स्थल पूर्वापर सम्बन्ध देखकर व्यवस्थित किया गया।' १- सतः सुभिक्षे संजाते संघस्य मेलकोऽभवत् । वलभ्यां मथुरायां च सूत्रार्थघटनाकृते ।। वलभ्यां संगते संघे देवर्द्धिगणिरग्रणीः । मथुरायां संगते स्कन्दिलाचार्योऽग्रणीरभूत् ।।'' "ततश्च वाचनाभेदस्तत्र जातः कचित् क्वचित् । विस्मृतस्मरणे भेदो जातु स्यादुभयोरपि ॥" -लो० प्र० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतावतार ५०१ आगे कथावलीमें कहा है कि 'सिद्धान्तोंका उद्धार करनेके बाद स्कन्दिल और नागार्जुन सूरि परस्परमें मिल नहीं सके, . इस कारणसे इनके उद्धार किए हुए सिद्धान्त तुल्य होने पर भी उनमें कहीं कहीं वाचना भेद रह गया, जिसको पिछले आचार्यों ने नहीं बदला और टीकाकारोंने अपनी टीकाओंमें नागार्जुनीय ऐसा पढ़ते हैं इत्यादि उल्लेख करके उन वाचना भेदोंको सूचित किया है। ( 'वी. नि० सं० जै० का०, पृ० ११०-१११ से उद्धृ त )। इस परसे मुनिजी वलभी वाचनाको देवर्द्धिगणिकी नहीं, किन्तु नागार्जुन की वाचना मानते हैं। उन्होंने लिखा है- जिस कालमें मथुरामें आर्य स्कन्दिलने आगमोद्धार करके उनकी वाचना शुरू की उसी कालमें वलभी नगरीमें नागार्जुन सूरिने भी श्रमणसंघ इकट्ठा किया और दुर्भिक्षवश नष्टावशेष आगम सिद्धान्तोंका उद्धार किया।......."इस सिद्धान्तोद्धार और वाचनामें आचार्य नागार्जुन प्रमु व स्थविर थे, इस कारणसे इसे नागार्जुनी वाचना भी कहते हैं।' (पृ० ११०-१११) __ ऐसी स्थितिमें यदि वलभी वाचना नागार्जुन की थी तो देवर्द्धिगणिने वलभीमें क्या किया, यह प्रश्न होना स्वाभाविक है। मुनि जीका कहना है कि-'उपयुक्त वाचनाओंको सम्पन्न हुए करीब डेढ़ सौ वर्षसे अधिक समय व्यतीत हो चुका था, उस समय फिर वलभी नगरीमें देवर्द्धिगणि क्षमा श्रमणको अध्यक्षतामें श्रमण संघ इकट्ठा हुआ और पूर्वोक्त दोनों वाचनाओं के समय लिखे गये सिद्धान्तोंके उपरान्त जो जो ग्रन्थ प्रकरण मौजूद थे, उन सबको लिखाकर सुरक्षित करनेका निश्चय किया। इस श्रमण समवशरणमें दोनों वाचनाओंके सिद्धान्तोंका Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका परस्पर समन्वय किया गया और जहाँ तक हो सका भेद भाव मिटाकर उन्हें एक रूप कर दिया और जो जो महत्त्वपूर्ण भेद थे उन्हें पाठान्तरके रूपमें टीका-चूर्णियों में संग्रहीत किया। कितनेक प्रकीर्णक ग्रन्थ जो केवल एक ही वाचनामें थे वैसे के वैसे प्रमाण माने गये। उपयुक्त व्यवस्थाके बाद स्कन्दिलकी माथुरी वाचनाके अनुसार सब सिद्धान्त लिखे गये, जहाँ जहाँ नागाजुनी वाचनाका मतभेद और पाठभेद था वह टीकामें लिख दिया गया, जिन पर पाठान्तरोंको नागार्जुनानुयायी किसी तरह छोड़नेको तैयार न थे, उनका मूलसूत्रमें भी वायणंतरे पुण इन शब्दोंके साथ उल्लेख कर दिया ।" ( पृ० ११३-११७ ) संक्षेपमें मुनिजीका मत यह है कि-'स्कन्दिलाचार्यके समयमें वलभीमें मिले हुए संघके प्रमुख आचार्य नागार्जुन थे और उनकी दी हुई वाचना ही वालभी वाचना कहलाती है। देवर्धिगणिकी प्रमुखतामें भी जैन श्रमण संघ इकट्ठा हुआ था, यह बात सही है । पर उस समय वाचना नहीं हुई, पर पूर्वोक्त दोनों वाचनागत सिद्धान्तोंका समन्वय करनेके उपरान्त वे लिखे गये थे, इसीलिये हम इस कार्यको देवर्द्धिगणिकी वाचना न कहकर 'पुस्तक लेखन' कहते हैं।' ___ मुनिजीने इस अवसर पर संघर्ष भी होनेकी संभावना व्यक्त करते हुए लिखा है-'यद्यपि देवद्धिके पुस्तक लेखनके कार्यका विशेष प्रकाश करनेवाला कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता, तथापि कार्य की गुरूता देखते हुए यह कहना कुछ भी असंभावित नहीं होगा कि इस कार्यसंघटनके समयमें दोनों वाचनानुयायी संघोंमें अवश्य ही संघर्षण हुआ होगा। अपनी-अपनी परम्परागत वाचनाको ठीक मनवानेके लिये अनेक कोशिशे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतावतार हुई होगी और अनेक काट छांट होनेके उपरान्त ही दोनों संघोंमें समझौता हुआ होगा। हमारे इस अनुमानको पुष्टिमें निम्नलिखित' गाथा उपस्थितकी जा सकती है जिसका भाव यह है कि-युग प्रधानतुल्य गंधर्व वादिवे ताल शान्तिसूरिने वालभ्यसंघके कार्यके लिये वलभी नगरीमें उद्यम किया।' (पृ० ११७ ) यह ठीक है कि कतिपय आगमोंमें वाचनान्तरका निर्देश पाया जाता है और टीकाकारोंने उन्हें नागार्जुनीयोंकी वाचना कहा है। तथा भद्रेश्वरने भी उन टीका ग्रन्थोंको देखकर ही अपनी कथावलीमें वैसा लिख दिया है। किन्तु वलभीमें होने वाली उक्त नागार्जुनीय वाचनाका निर्देश किसी प्राचीन ग्रन्थमें नहीं मिलता। जबकि जिनदास महत्तर कृत नन्दि चूर्णिमें तथा हरिभद्र कृत नन्दि टीकामें माथुरी वाचनाका कथन मिलता है। नागार्जुनकी वालभी वाचना सम्बन्धी उक्त सभी उल्लेख विक्रमकी १२ वीं शतीसे पश्चात् के हैं। दूसरे, वादि वेताल शान्ति सूरिको वलभीमें नागार्जुनीयोंका पक्ष उपस्थित करनेवाला बतलाया है। प्रभावक चरित । पृ० १३३-१३७ ) में लिखा है कि शान्त्याचार्य को राजा भोजने वादिवेतालका विरुद दिया था। अतः वे राजा भोजके समकालीन थे। उनकी मृत्यु वि० सं० ५०९६ में हुई। ऐसी स्थितिमें देवर्द्धिके १-'वालब्भ संघकज्जे उज्जमिनं जुगपहाणतुल्लेहिं । गंधब्बवाइवेयालसंतिसूरीहिं बलहीए ॥२॥ यह गाथा एक दुषमा संघ स्तोत्रयंत्र की प्रति के हाशिये पर लिखी हुई है | - पृ० ११७ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ जै० सा० इ० - पूर्व पीठिका समय वलभी में उनका होना असंभव ही है । और इसलिये उस पर से वलभीमें भी जिस संघर्षकी सम्भावना मुनिजीने की है, वह निराधार ही प्रतीत होती है । तीसरे, यदि इस तरहका संघर्ष हुआ होता तो मूल सूत्रों में 'वायांतरे पुण' के स्थान में 'णागज्जुणीया उण एवं पदंति' लिखा हुआ मिलता । ' वाचनान्तर' जैसा साधारण निर्देश तो बिना किसी संघर्षके कोई भी ईमानदार संकलयिता कर सकता है क्यों कि इससे उसकी प्रामाणिकताका पोषण होता है । दूसरे माथुरी वाचनानुगत आगमोंमें और उनमें निर्दिष्ट वाचनान्तर के मतोंमें कोई ऐसा महत्वपूर्ण सैद्धान्तिक मतभेद दृष्टिगोचर नहीं होता जिसको लेकर पारस्परिक संघर्षकी परिस्थिति पैदा होने की संभावना की जा सके । फिर भी हमारा उससे विशेषप्र योजन न होनेसे हम इस संघर्ष के संघर्ष से विरत होते हैं और मुख्य मुद्देकी ओर आते हैं। I मुनिजीके मतानुसार उस समय पहले तो उक्त दोनों वाचनाओं ( माथुरी और नागार्जुनकी बलभी वाचना ) के समय लिखे गये सिद्धान्तोंके उपरान्त जो जो ग्रन्थ प्रकरण मौजूद थे उन सबको लिखाकर सुरक्षित करनेका निश्चय किया गया। तत्पश्चात् दोनों वाचनाओंके सिद्धान्तोंका परस्पर समन्वय किया गया और जहां तक हो सका भेद भाव मिटाकर उन्हें एक रूप कर दिया और जो महत्त्वपूर्ण भेद थे उन्हें पाठान्तरके रूपमें चूर्णियों में संगृहीत किया । कितनेक प्रकीर्णक ग्रन्थ जो केवल एक वाचना में थे वैसे के वैसे प्रमाण माने गये ।' आगे मुनिजी लिखते हैं । - ' उपर्युक्त व्यवस्थाके बाद स्कन्दिल Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतावतार ५०५ की माथुरी वाचनाके अनुसार सब सिद्धान्त लिखे गये । जहाँ जहां नागाजुनी वाचनाका मतभेद और पाठ भेद था वह टीकामें लिख दिया गया पर जिन पाठान्तरोंको नागार्जुनानयायी किसी तरह छोड़नेको तैयार न थे उनका मूलसूत्र में भी वायणंतरे पुण' इन शब्दोंके साथ उल्लेखकर दिया।' ( वी० नि० जै० का० पृ० ११५ -११७) ___ मुनिजीके उक्त कथन परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं। यदि सब सिद्धान्त माथुरी वाचनाके अनुसार लिखे गये और जहां जहां नागार्जुनी वाचनाका पाठ भेद या मतभेद था वह टीकामें लिख दिया गया तो फिर दोनों वाचनाओंके सिद्धान्तोंका परस्पर समन्वय करने और भेदभाव मिटाकर एक रूप करनेकी बात नहीं रहती। और यदि उक्त प्रकारसे समन्वय किया गया तो यह नहीं कहा जा सकता कि सब सिद्धान्त माथुरी वाचनाके अनुसार लिखे गये। दोनों वाचनाओंका समन्वय करके और भेद भाव मिटाकर जो वस्तु तैयार की गई उसे उभयवाचनानुगत कहना होगा न कि किसी एक वाचनानुगत । उदाहरणके लिये आजकल अनेक प्रतियों को सामने रखकर किसी एक ग्रन्थका सम्पादन कार्य किया जाता है। उसमें श्राधुनिक वैज्ञानिक पद्धति के अनुसार एक प्रतिको आदर्श मानकर उसे मूल ग्रन्थका रूप देते हैं और अन्य प्रतियों के पाठान्तरोंका निर्देश टिप्पणमें कर देते हैं। कुछ सम्पादक ऐसा भी करते हैं कि उन्हें जहाँ जिस प्रतिका जो पाठ शुद्ध प्रतीत होता है वहाँ वह पाठ मूल में दे देते हैं और इस तरह सब प्रतिओंके आधार से अपने मूल ग्रन्थका रूप देते हैं। इस रूपको किसी एक प्रतिका अनुसारी नहीं कहा जा सकता। उसे तो सबका समन्वित रूप Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका ही कहा जा सकता है। देवद्धि गणिका तथोक्त सम्पादन प्रकार इन्हीं दोमेंसे एक प्रकारका हो सकता है। एक साथ दोनों प्रकार तो संभव नहीं हो सकते । ___मुनिजीके लेखानुसार मथुरा और वलभीमें जो वाचनाएं हुई उनमें सब प्रकरणोंको लिपिबद्ध कर लिया गया था और वे ग्रन्थ प्रकरण देवर्द्धिगणिके सामने उपस्थित थे। उन्हें ही उन्होंने लिखाकर सुरक्षित किया। जहां तक हम जान सकें हैं मुनिजीके इस लेखका समर्थन हेमचन्द्राचार्य विरचित योग शास्त्र वृत्तिके सिवाय अन्यत्रसे नहीं होता। हेमचन्द्रने अपनी उक्त वृत्तिमें यह अवश्य लिखा है कि 'दुषमा कालवश जिन वचनको नष्ट प्राय समझकर भगवान नागाजुन स्कन्दिलाचार्य प्रमुखने उसे पुस्तकोंमें लिखा। किन्तु जिनदासकी नन्दि चूर्णिके प्राचीन उल्लेखमें इस बातका कतई निर्देश नहीं है। उसमें उन्होंने केवल इतना ही लिखा है कि स्मृतिके आधारपर कालिक श्रुत संकलित किया गया। हरि १- 'जिनवचनं च दुषमाकालवशादुच्छिन्नप्रायमिति मत्वा भगवद्भिर्नागार्जुनस्कन्दिलाचार्यप्रभृतिभिः पुस्तकेषु न्यस्तम् ,"योग०, ३, पृ० १०७ । २--'वारस' संवच्छरिए महंते दुभिक्खे काले भत्तट्ठा अगएण्णतो हिंडियाणं गहणगुणणणुप्पेहाभावात्रों विप्पणढे सुत्ते, पुणो सुभिक्खे काले जाए मथुराए महंते साधुसमुदए खंदिलायरियप्यमुहसंघेण जो अं संभरइत्ति इव संघडियं कालियसुयं । जम्हा एव महुगए कयं तम्हा माहुरी वायणा भण्णइ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतावतार ५०७ भद्रकृत और मलयगिरिकृत' नन्दि टीकामें भी यही लिखा हुआ है। ___ मलयगिरिकी ज्योतिष्करण्डकटीकामें भी, जिसमें मथुरा और वलभीमें वाचना होनेका निर्देश है, दोनों वाचनाओंमें सूत्रार्थ संघटन होनेका ही उल्लेख है, लिपिवद्ध किये जानेका नहीं । भद्रेश्वर की कथावलीमें भी इसका निर्देश नहीं है। किन्तु मुनिजीने उसका अर्थ इस प्रकारसे किया है जिससे यह प्रतीत हो सकता है कि मायुरी वाचनाके पहले भी आगम पुस्तकें थीं। कथावली में केवल इतना वाक्य है-'जाव सज्झायंती ताव खंडु खुरुडीहूयं पुव्वाहियं' । अर्थात् सुभितके पश्चात् जब वे साधु पुनः मिले और स्वाध्याय करने लगे तो उन्हें प्रतीत हुआ कि पहले का सब अभ्यस्त अस्तव्यस्त हो गया है-भूल गया है। मुनिजी ने अर्थ किया है --'सुभिक्षके समयमें फिर वे इकट्ठे हुए और अभ्यस्त शास्त्रोंका परावर्तन करने लगे तो उन्हें मालूम हुआ कि प्रायः वे पढ़े हुए शास्त्रोंको भूल चुके हैं।' अतः भद्रेश्वरके उल्लेखमें संकलित शास्त्रोंको लिख लेनेकी बात नहीं है। भद्रेश्वरने आगे लिखा है कि 'टीकाकारोंने 'नागज्जुणीया उण एवं पढ़न्ति' इस प्रकारसे वाचना भेदोंका उल्लेख आचारांग आदि में कर दिया।' यह लिखते समय भद्रेश्वरके सामने आचारांग आदि की टीकाएँ थीं, यह स्पष्ट है; क्योंकि भद्रेश्वर नवांगवृत्तिकार शीलांकसूरिके पश्चात् हुए है और उनकी टीकाओंमें 'नागार्जुनीयास्तु एवं पठन्ति' आदि उल्लेख मिलते हैं । मुनि जीने भी अपनी पुस्तककी ( पृ० ११६) च १–'यो यस्मरति स तत्कथयतीत्येवं कालिकश्रुतं पूर्वगतं किंचिदनुसन्धाय घटितम्"-नन्दि० गा० ३३ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका टिप्पणीमें भद्रेश्वरके उक्त कथनके समर्थनमें शीलाङ्ककी टीकासे कुछ उद्धरण दिये हैं। किन्तु मुनिजीने भद्रेश्वरके इस कथनको भी देवर्द्धिगणिके समयमें हुए कार्यके साथ जोड़ दिया है । यथा--'जहां जहां नागार्जुनी वाचनाका मतभेद और पाठभेद था वह टीकामें लिख दिया गया' ।।'' ये टीकायें देवर्द्धिगणिके पहले बन करके तैयार हो चुकी थीं, या उसी समय वलभीमें ही तैयार हुई, यह मुनि जी और स्पष्ट कर देते तो पढ़नेवालोंको भ्रम पैदा न होता । अस्तु अत: देवद्धिगणिकालीन वलभी सम्मेलनमें वाचना नहीं हुई, केवल पुस्तक लेखन हुआ, यह कथन निराधार है; क्योंकि इससे पूर्व हुई माथुरी वाचना और वालभी वाचनाके समय संकलित किये गये आगमसूत्रोंको लिपिबद्ध कर लेनेका कोई उल्लेख नहीं मिलता है और न यही उल्लेख मिलता है कि देवर्द्धिगणिके सम्मेलनमें सब आगमग्रन्थ लिखित रूपमें उपस्थित थे। प्रत्युत इसके विरुद्ध यही कथन मिलता है कि जिस प्रकार पहलेकी वाचनाओंमें दुर्भिक्षके कारण नष्टावशिष्ट श्रुतको साधुओंकी स्मृतिके आधार पर संकलित किया गया उसी तरह देवर्द्धि कालीन वलभी वाचनामें भी दुर्भिक्षके कारण विनष्ट हुए श्रुतकी रक्षाका प्रयत्न पूर्ववत् किया गया। किन्तु पहलेकी वाचनाओंसे इसमें एक विशेषता यह थी कि उस संकलित श्रुतको पुस्तकारूढ़ भी कर दिया गया। इससे पहले कोई आगम सूत्र लिखा ही नहीं गया, ऐसा हमारा आग्रह नहीं है, हो सकता है कि व्यक्तिगत रूपसे साधु लोग अपनी सुविधाके लिये किसी सूत्रग्रन्थको लिपिबद्ध कर लेते हों। किन्तु देवर्द्धिसे पहले सामूहिक रूपसे आगम ग्रन्थोंको लिपिवद्ध Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ श्रुतावतार करने का कोई प्रयत्न नहीं हुआ, यह निश्चित है और इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि इससे पहले श्रागम ग्रन्थों का कोई एक रूप निर्धारित नहीं हो सका था जो पूरे सम्प्रदाय को मान्य हो और ऐसी स्थितिमें उन्हें लिपिबद्ध करना सम्प्रदायभेदका जनक हो सकता था। मुनि जीने अनुयोगद्वारसूत्र और निशीथ चूर्णिसे दो उद्धरण देकर यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि दवर्द्धिगणिके पहले भी लिखे हुए आगम होते थे । निशीथ चूर्णिमें कालिक श्रुत और कालिक श्रुत नियुक्तिके लिये पाँच प्रकारकी पुस्तकें रखने का अधिकार साधुको दिया है। निशीथ चूणिसे पहले ही वलभी में आगम ग्रन्थोंका लिखना जारी हो चुका था। अतः उसके इस उल्लेखसे देवर्द्धिगणिके पूर्वमें आगम ग्रन्थोंका लिपिवद्ध होना प्रमाणित नहीं होता। हाँ अनुयोग द्वारको आर्यरक्षित की कृति माना जाता है और आर्यरक्षितका समय विक्रमकी प्रथम द्वितीय शताब्दी कहा जाता है। अनुयोगद्वारमें पुस्तकमें लिखितको द्रव्य श्रुत कहा है। इस परसे मुनि जीने यह संभावना की है कि- 'कोई आश्चर्य नहीं है, यदि उन्होंने (आयुरक्षित जीने) उसी समय मन्द बुद्धि साधुओंके अनुगृहार्थ अपवाद मार्गसे आगम लिखने की भी आज्ञा दे दी हो (पृ० १०६)। मुनिजीकी इस संभावनासे हम सहमत हैं। हमारी आपत्ति माथुरी वाचना और प्रथम वलभी वाचनामें सब आगमोंके लिपिवद्ध किये जाने पर है ; क्योंकि उसका समर्थन एक हेमचन्द्रके सिवाय अन्य किसी स्रोतसे नहीं होता। यदि नागार्जुन और स्कन्दिलाचार्यने अपनी अपनी प्रमुखतामें संकलित जैनसूत्रोंको तत्काल लिपि बद्ध करा लिया होता और वह सब श्रुत पुस्तक रूपमें उपलब्ध Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० जै० सा० इ०-पूर्व-पीठिका होता तो देवर्द्धि गणिको वलभीमें मथुराकी तरह सम्मेलन बुलानेकी आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। शायद कहा जाये कि वाचना भेदोंको व्यवस्थित करनेके लिये श्रमण सम्मेलन बुलाया गया। किन्तु जब माथुरी वाचनाके अनुसार ही सब सिद्धान्त लिखे गये तो समन्वयवाली बात नहीं रहती।। इसके सिवाय यदि उक्त दोनों वाचनाओंके पुस्तकारूढ़ सूत्र देवद्धि गणिके सम्मेलनमें उपस्थित होते और यदि दोनों वाचनानुयायी संघोंमें संघर्ष हुआ होता तो श्वेताम्बरोंमें ही दो प्रकारके सूत्र ग्रन्थ उपलब्ध होते, फिर वालभ्य प्राचार्य अपने पाठ भेदोंको केवल टीकाओंमें निर्दिष्ट कराकर शान्त न होते । अतः श्वेताम्बरोंमें जो देवर्द्धिगणिके समयमें हा नेवाली बलभी वाचनाकी ही परम्परा प्रचलित है, वह निस्सार नहीं है और समय सुन्दर गणिने अपनी सामाचारीमें जो देवर्द्धि गणिके महत्कार्यका स्पष्टी. करण किया है. वह उसी परम्पराका साक्षी है। नन्दि स्थविरावलीकी स्कन्दिलाचार्यसम्बन्धी गाथाके व्याख्यानमें मलयगिरिने माथुरी वाचना क्यों स्कन्दिलाचार्यकी कही जाती है इसका स्पष्टीकरण करते हुये लिखा है कि वह १-सा च तत्कालयुगप्रधानानां स्कन्दिलाचार्याणामभिमता तैरेव चार्थतः शिष्यबुद्धि प्रापितेति तदनुयोगः तेषामाचार्याणां सम्बन्धोति व्यपदिश्यते । अपरे पुनरेवमाहुः-न किमपि श्रुतं दुर्मिक्षवशात् अनेशत् किन्तु तावदेव तत्काले श्रुतमनुवर्ततेस्म । केवलमन्ये प्रधाना येऽनुयोगधरा ते सर्वेऽपि दुर्भिक्षकालकवलीकृताः, एक एव स्कन्दिलसूरयो विद्यन्ते स्म । ततस्तै दुर्भिक्षापगमे मथुरापुरि पुनरनुयोगः प्रवर्तितः इति वाचना माथुरीति व्यपदिश्यते, अनुयोगश्च तेषा माचार्याणा मिति ।"-नन्दि०, गा० ३३ टीका। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतावतार ५११ वाचना उस समयके युग प्रधान स्कन्दिलाचार्यको अभिमत थी और उन्हींके द्वारा अर्थरूपसे शिष्य बुद्धिको प्राप्त हुई थी इस लिये वह अनुयोग उनका कहा जाता है।' आगे उन्होंने 'अपरे' करके एक मत और दिया है जो इस प्रकार है- दूसरोंका कहना है कि दुर्भिक्षके वश कुछ भी श्रुत नष्ट नहीं हुआ था, सब श्रुत वर्तमान था । किन्तु अन्य सब प्रधान अनुयोगधर काल के गालमें चले गये केवल एक स्कन्दिलसूरि शेष बचे। उन्होने दुर्भिक्ष चले जानेपर मथुरा में पुनः अनुयोगका प्रवर्तन किया इसलिये उसे माथुरी वाचना कहते हैं और वह अनुयोग स्कन्दिलाचार्यका कहा जाता है। इस तरह जब स्कन्दिलाचार्यके द्वारा पुनः प्रवर्तित होने मात्रसे भी माथुरी वाचनाके अनुयोगको स्कन्दिलाचार्यका कहा गया है। तब देवर्द्धिगणिने तो वलभीमें आगमको अन्तिम रूप देकर और उन्हें पुस्तकारूढ़ करके सर्वदाके लिये अनुयोग प्रवर्तित कर दिया। अतः यदि उन्हें मात्र पुस्तक लेखक न कहकर वर्तमान आगमोंका रचयिता भी कहा जाये-जैसा कि समय सुन्दर गणिने कहा है तो कोई अत्युक्ति नहीं है। स्व० डा० याकोवीने जैन सूत्रोंकी अपनी प्रस्तावनामें देवर्द्धि गणिके कार्यके सम्बन्धमें विस्तारसे प्रकाश डाला है। डा. याकोवीका मत भी हीनाधिक रूपमें मुनिजीके ही अनुकूल है अतः उसे भी यहां दे देना उचित होगा। डा० याकोवीने लिखा है_ 'सर्व सम्मत परम्पराके अनुसार जैन आगम अथवा सिद्धांतोंका संग्रह देवद्धि की अध्यक्षतामें वलभी सम्मेलनमें हुआ। कल्पसूत्रमें उसका समय वीर निर्वाण ६८० या (९३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका ( ४५४ या ४६७ ई० ) दिया है । परम्परा कथन है कि सिद्धान्तके नष्ट हो आनेके खतरेको जानकर देवद्धि ने उसे पुस्तकोंमें लिखाया। इससे पूर्व गुरुजन अपने छात्रोंको सिद्धान्त पढ़ाते समय पुस्तकोंका उपयोग नहीं करते थे। किन्तु इसके पश्चात् उन्होंने पुस्तकोंका उपयोग किया। इस कथनका उत्तरभाग स्पष्ट रूपसे सत्य है, क्योंकि प्राचीन कालमें पुस्तकोंका उपयोग नहीं किया जाता था । पुस्तकोंकी अपेक्षा स्मृतिपर अधिक विश्वास करनेका ब्राह्मणोंमें रिवाज था। और इसमें कोई सन्देह नहीं है कि इस विषयमें जैनों और बौद्धोंने उनका अनुसरण किया। किन्तु आजकल यतिगण अपने शिष्योंको जब पवित्र सूत्र पढ़ाते हैं तो पुस्तकोंका उपयोग करते हैं। मैं इसमें कोई कारण नहीं पाता कि हमें इस परम्परा पर क्यों नहीं विश्वास करना चाहिये कि शिक्षणके ढंगमें इस परिवर्तनको लानेका श्रेय देवर्द्धिगणिको है क्योंकि यह घटना बहुत महत्वपूर्ण थी। प्रत्येक गणि अथवा उपाश्रयको आगमोंकी प्रतियाँ प्रदान करनेके लिये देवगिणिने सिद्धान्तोंका एक वृहत संस्करण अवश्य कराया होगा। देवद्धिके द्वारा सिद्धान्तोंको पुस्तकारूढ़ करानेके परम्परागत कथनका सम्भवतः यही अभिप्राय है; क्योंकि यह बात कठिनतासे विश्वसनीय है कि इसके पहले जैन साधु जो कुछ कण्ठस्थ करते थे उसे लिख लेनेका प्रयत्न नहीं करते थे। ब्राह्मण भी अपने धर्मशास्त्रोंकी पुस्तकें रखते थे यद्यपि वे वेद पढ़ाते समय उसका उपयोग नहीं करते थे। ये पुस्तकें गुरुओंके व्यक्तिगत उपयोगके लिये होती थीं। मुझे इसमें सन्देह नहीं है कि जैन साध भी इस प्रथाका विशेष रूपसे पालन करते थे क्योंकि ब्राह्मणोंकी तरह प्रतियों पर विश्वास न करनेकी प्रथासे वे प्रभावित नहीं थे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतावतार ५१३ किन्तु अपने धर्म प्रन्थोंका उत्तराधिकार मौखिक रूपसे सौंनेकी प्रचलित प्रथाके प्रभाव से प्रभावित थे । किन्तु मैं यह नहीं मानता हूँ कि जैनोंके आगम मूलतः पुस्तकों में लिखे गये थे क्योंकि बौद्धोंके पुस्तक न रखनेके सम्बन्धमें जो युक्ति दी जाती है कि उनके पवित्र पिटकोंमें, जिनमें प्रत्येक छोटी से छोटी और महत्त्वहीन गाहस्थिक चीजों तकका उल्लेख मिलता है, पुस्तकोंका उल्लेख नहीं है, वही युक्ति जैनोंके सम्बन्ध में भी दी जा सकती है। कम से कम जब तक जैन साधु भ्रमणशील थे तब तक उनमें पुस्तकों की प्रवृत्ति नहीं थी । किन्तु जबसे जैन साधु अपने अपने उपाश्रयोंमें रहने लगे, वे अपनी पुस्तकें रख सकते थे जैसा कि आजकल रखते हैं । इस तरह जैन आगमोंको लेकर देवर्द्धिगणिके सम्बन्धमें साधारणतया जो विश्वास किया जाता है उससे हमें एक भिन्न ही बात प्रतीत होती है । सम्भवतया उन्होंने मौजूदा प्रतियोंको एक आगम के रूपमें सुव्यवस्थित किया और जिनकी प्रतियाँ उपलब्ध नहीं हुई उन्हें विद्वान् आगमज्ञोंके मुखसे गृहण किया । उस आगमकी बहुत सी प्रतियाँ प्रत्येक शिक्षालय में देनेके लिये तैयार कराई गई क्योंकि धार्मिक शिक्षण के ढंगमें नवीन परिवर्तन के कारण उनकी आवश्यकता थी । अतः देवर्द्धिके द्वारा सिद्धान्तोंका सम्पादन पवित्र पुस्तकोंका, जो पहले से ही लगभग उसी रूपमें मौजूद थीं, केवल नवीन संस्करण करना मात्र है ।" - से० वु० ई०, जि० २२, प्रस्तावना पृ० ३७-३६ । मान्य विद्वानके उक्त विचारोंके सम्बन्ध में दो शब्द कहने से पूर्व उसकी पृष्ठ भूमि बतला देना आवश्यक होगा । उस समय यूरोपियन स्कालरों में दो प्रप थे । एक प जैन धर्मको स्वतन्त्र धर्म न मानकर उसे बौद्ध धर्मकी शाखा मानता था और दूसरा ३३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका ग्रप जैन धर्मको बौद्ध धर्मसे स्वतन्त्र धर्म मानता था। स्व० याकोवी दूसरे ग्रप के थे और उन्हींकी शोधोंके फलस्वरूप दूसरे पकी मान्यताको बल मिला । प्रथम अपमें एक मि. बार्थ थे उन्होंने अपनी पुस्तक 'धर्मोंका इतिहास' में जैन धर्मके सम्बन्धमें यह तो स्वीकार किया था कि 'नाटपुत्त' के रूप में एक ऐतिहा. सिक व्यक्तित्व छिपा हुआ है। किन्तु उनकी आपत्ति यह थी कि उसके सम्बन्धमें जिन जैन आगमोंसे सबल तर्क उपस्थित किये जाते हैं वे ईसा की पाँचवीं शतीके हैं अथवा यह कहना चाहिये कि सम्प्रदायकी स्थापना होनेके लगभग एक हजार वर्ष पश्चात् के हैं। उनका यह भी कहना था कि जैन परम्पराका निर्माण बौद्ध परम्पराकी नकल है। उन्हींको उत्तर देते हुए स्व. याकोवीने जैन आगमोंके संबन्धमें उक्त विचार प्रकट किये थे। मुनिजीकी तरह उन्होंने भी प्रारंभमें ही यह स्पष्ट कर दिया है कि परम्परा कथन तो यही है कि जैन आगमोंका संकलन वलभीमें देवर्धिकी प्रधानतामें हुआ। किन्तु वह अपनी कल्पना और तर्कके आधार पर उक्त परम्पराका उक्त अर्थ निकालते हैं। उक्त परम्पराकी आधारभूत प्राचीन गाथा' तो इतना ही १-विलहिपुरम्मि नयरे देवडिपमुहेण समणसंघेण । पुत्थई अागमु लिहिलो नवसय असीअाश्रो वीराश्रो॥ -वी० नि० सं० जैनका०, पृष्ठ १०८ पर उद्धृत । दूसरा पाठ इस प्रकार है वलहिपुरंमि नयरे देवडिढपमुहसयलसंघेहिं । पुव्वे आगमु लिहिउ नव सय असीवाणु वीराउ । -जै० सा० इ० (गु०) पृ० १४२ में उद्धृत । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतावतार ५१५ बतलाती है कि वीर निर्वाणके १८० वें वर्ष में वलभी पुरी नगरीमें देवद्धि प्रमुख सकल संघने या श्रमण संघने पुस्तकों पर आगमको लिखा ? प्रश्न होता है कि क्यों लिखा तो प्राप्त उल्लेखों से प्रकट होता है कि दुर्भिक्षवश श्रुतकी रक्षा करनेके लिये लिखा। कैसे लिखा । तो पता चलता है कि उपस्थित श्रमण संघकी स्मृतिके आधार पर लिखा। और श्रमण संधकी स्मृति का आधार परम्परागत माथुरी वाचना थी। फिर भी जैसे यह कहना कि वलभीमें वाचना नहीं हुई और जो कुछ लिखा गया वह केवल प्राप्त पुस्तकोंके आधार पर हो लिखा गया, एकान्त पक्ष है वैसे ही यह कहना भी कि बलभी सम्मेलनसे पहले व्यक्तिगतरूपसे भी पुस्तकों पर आगम लिखा ही नहीं गया था और वलभी सम्मेलन में ही पहले पहले आगमोंको लिखनेकी प्रथा प्रवर्तित हुई, एकन्तपक्ष है। सब बातोंको दृष्टिमें रखते हुए हम तो इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि वलभीमें देवद्धि गणिकी प्रमुखतामें उपलब्ध साधनोंके आधार पर आगमोंको व्यवस्थित करके उन्हे पुस्तकारूढ़ कर दिया गया और तबसे सार्वजनिक रूपसे उनका लेखन कार्य होने लगा। डा. जेकावीका यह अर्थ कि पठन पाठनमें पुस्तकोंके उपयोगकी प्रवृत्तिको प्रसारित करनेके लिये देवद्धि ने आगमोंकी बहुत सी प्रतियाँ तैयार कराई, एक सुधारवादी दृष्टि से भले ही उचित लगे किन्तु शोधक दृष्टिसे तो उचित नहीं ही जंचता, अतः हम भारतीय साहित्यके इतिहासके लेखक डा० विन्टरनीट्सका इस सम्बन्धमें मत देते हैं-वह लिखते हैं___"आगमोंकी प्राचीनता और प्रामाणिकताके सम्बन्धमें स्वयं श्वेताम्बर जैनोंमें नीचे लिखी परम्परा पाई जाती है 'मूल सिद्धान्त चौदह पूर्वोमें सुरक्षित थे। महावीरने स्वयं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका अपने शिष्य गणधरोंको उनकी शिक्षा दी थी। किन्तु उन पूर्वोका ज्ञान शीघ्र ही नष्ट हो गया। महावीरके शिष्योंमें से केवल एकने उस ज्ञानकी परम्पराको आगे चलाया। किन्तु वह केवल छै पीढ़ी तक ही चल सकी। महावीर निर्वाणकी द्वितीय शताब्दीमें मगध देशमें भयङ्कर दुर्भिक्ष पड़ा, जो बारह वर्षमें जाकर समाप्त हुआ। उस समय मौर्य चन्द्रगुप्त मगधका राजा था और स्थविर भद्रवाह जैन संघके प्रधान थे। दुर्भिक्षके कारण भद्रवाहु अपने अनुयायिओंके समुदायके साथ दक्षिण भारतके कर्नाटक प्रदेश में चले गये और स्थूलभद्र, जो चौदह पूर्वोको जानने वाले अन्तिम व्यक्ति थे, मगधमें रह जाने वाले संघके प्रधान हो गये । भद्रबाहुकी अनुपस्थितिके कारण यह प्रत्यक्ष था कि पवित्र सूत्रोंका ज्ञान विस्मृति के गर्त में चला जाता। इसलिए पाटलीपुत्र में एक सम्मेलनका आयोजन किया गया। उसमें ग्यारह अंगोंका संकलन हुआ और चौदह पूर्वोके अवशेषोंको बारहवें अंग दृष्टिवादके रूपमें निबद्ध कर दिया गया। जब भद्रबाहुके अनुयायी मगधमें लौटकर आये तो उन्होंने देखा कि दक्षिणको चले जाने वाले और मगधमें रह जाने वालोंके बीच में एक बड़ी खाई पैदा होगई है। मगध में रह जाने वाले जैन साधु सफेद वस्त्र पहिननेके अभ्यस्त हो गये थे जब कि दक्षिण प्रवासी साधु महावीरके कठोर नियमों के अनुसार नग्न रहते थे। और इस तरह दिगम्बरों और श्वेताम्वरोंका महान संघ भेद हुआ। फलतः दिगम्बरोंने पाटलीपुत्रमें संकलित श्रागमोंको मानने से इंकार कर दिया और उन्होंने यह घोषणा कर दी कि अंग और पूर्व नष्ट हो गये। सुदीर्घ कालवश श्वेताम्बरोंके आगम अस्त व्यस्त हो गये और उनके एक दम नष्ट हो जानेका खतरा पैदा हो गया। अतः महावीर निर्वाण के ९८० या ६६३ वर्ष पश्चात् ( ईसाकी ५ वीं शताब्दीके मध्य Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतावतार ५१७ में या छटी शताब्दीके प्रारम्भ में ) गुजरातकी वलभी नगरी में पवित्र आगमोंके संकलन तथा लेखनके लिए एक सम्मेलन हुश्रा, जिसके प्रधान देवर्द्धि क्षमाश्रमण थे। बारहवां अंग, जिसमें पूर्वोको अवशिष्टांश संकलित थे, उस समय तक नष्ट हो चुका था। इसीसे हम केवल ग्यारह अंगों को पाते हैं। अनुमान किया जाता है कि वर्तमानमें उपलब्ध ग्यारह अंग वही हैं जिन्हें देवर्द्धिने संकलित किया था। इस तरह हम देखते हैं कि स्वयं श्वेताम्बर जैनोंकी परम्पराके अनुसार उनके पवित्र आगमोंकी अधिकारिता ईसाकी पांचवीं शतीसे पूर्व नहीं जाती। यह ठीक है कि वे मानते हैं कि वलभी सम्मेलनमें जो आगम लिखे गये उनका आधार पाटलीपुत्रमें संकलित आगम थे और वे आगम महावीर और उनके शिष्योंसे सम्बद्ध थे। कहा जाता है कि गणधरों ने, जो महावीर के शिष्य थे, उनमें भी मुख्य रूपसे आर्य सुधर्माने महावीर स्वामीके वचनोंको अंगों और उपांगोंमें निबद्ध किया। परम्पगसे कुछ खास ग्रंथोंको बादके ग्रन्थकारोंका भी कहा जाता है। उदाहरणके लिये, चौथा उपाङ्ग आर्य श्यामाचार्यका बतलाया जाता है जिनका समय महावीर निर्वाणसे ३७६ या ३८६ वर्ष पश्चात् माना जाता है। चौथे छेद सूत्र पिण्ड नियुक्ति और ओघ नियुक्तिको भद्रबाहुकी ( वीर निर्वाणकी २ री शताब्दी) और तीसरे मूलसूत्रको सय्यंभवका, जिन्हें महावीर निर्वाणके पश्चात् चौथा युग प्रधान गिना जाता है. कहा जाता है । तथा नन्दिसूत्रको महावीर निर्वाणकी दशवीं शताब्दीमें होने वाले, वलभी सम्मेलनके प्रधान देवर्द्धिका कहा जाता है। दिगम्बर भी यह बात स्वीकार करते हैं कि महावीरके प्रथम गणधर चौदह पूर्वो और ग्यारह अंगों को जानते थे। किन्तु वे कहते हैं कि प्राचीन समय में केवल चौदह पूर्वोका ही ज्ञान लुप्त नहीं हुआ, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ जै० सा० इ० - पूर्व पीठिका बल्कि महावीर निर्वाण के ४३६ वर्ष पश्चात् ग्यारह अगों का ज्ञाता अन्तिम व्यक्ति मर गया, उसके जो उत्तराधिकारी आचार्यक्रमसे हुए, जैसे समय बीतता गया वैसे ही उनमें भी उत्तरोत्तर अंगों का ज्ञान क्रमसे कम होता गया और अन्त में महावीर निर्वाण से ६८३ वर्ष पश्चात् अंगों का ज्ञान पूर्णतया नष्ट हो गया । यद्यपि स्वयं जैनोंकी परम्परा उनके आगमोंके बहुत प्राचीन होनेके पक्ष में नहीं है तथापि कम से कम उनके कुछ भागों को अपेक्षाकृत प्राचीन कालका माननेमें और यह मान लेने में कि देवर्द्धिने अंशतः प्राचीन प्रतियोंकी सहायता से और अंशतः मौखिक परम्पराके आधार पर आगमोंको संकलित किया, पर्याप्त कारण है " - हि० ई० लि०, जि०२, पृ. ४३१-४३४ । डा० विन्टरनिट्सका उक्त मत बहुत सन्तुलित है और वह हमारे उक्त मतका पोषक है । उपलब्ध अंगसाहित्यके विषय में प्राप्त उल्लेखोंसे यह स्पष्ट रूपसे विदित होता है कि वीर निर्वाणको दूसरी शताब्दीसे अंग की छिन्न भिन्नता प्रारम्भ हो गयी थी और आगे भी श्रुत वह जारी रही। दो और भयानक दुर्भिक्षोंके कारण श्रुतको गहरी हानि पहुँची । सुदीर्घ कालके अतिक्रमणके साथ ही साथ सुदूर देशों का भी उसे अतिक्रमण करना पड़ा। फिर एक पक्ष ने उसे मान्य ही नहीं किया। जिस पक्षके द्वारा अंग साहित्य संकलित किया गया, उसपर बौद्धोंके मध्यममार्गका भी प्रभाव पड़ा । इन सब स्थितियों का अंग साहित्य पर प्रभाव न पड़ा हो, यह संभव प्रतीत नहीं होता । अतः यह कहना कि पाटलीपुत्रमें जो अंग साहित्य संकलित किया गया था उसमें और उसके आठसौ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतावतार ५१६ वर्ष पश्चात् वलभीमें जो पुस्तकारूढ़ किया गया उसमें कोई अन्तर नहीं पड़ा, या मामूलीसा अन्तर पड़ा, पूर्ण सत्य नहीं है। भागभोंके विशिष्ट अभ्यासी पं० वेचर दास जीका तो यह कहना है कि वल्भीमें संगृहीत अंग साहित्यकी स्थितिके साथ श्री वीरसमयके अंग साहित्यकी तुलना करने वालेको दो सौतेले भाईयोंके बीच जिनता अन्तर होता है उतना भेद मालूम होना सर्वथा संभव है"-जै० सा० वि० पृ० २३ । ___ इसके विषयमें वास्तविक स्थितिका पता तो तभी लग सकता था जब वीर भगवानके समयमें गणधरके द्वारा ग्रथित हुआ अंग साहित्य उपलब्ध होता और उसके साथ वर्तमान अंग साहित्यकी तुलनाकी जाती, किन्तु यदि वैसा होता तो दुसरा रूप सामने ही क्यों आता । फिर भी सब घटनाओंको दृष्टिमें रखकर वस्तु स्थितिका विचार करने पर पं० वेचर दासजीकी उक्ति ही सत्यके अधिक निकट प्रतीत होती है। ___ भारतके धार्मिक साहित्यकी रूपरेखाका चित्रण करते हुये श्री जे एन फरक्यूहर (J. N.FARQUHAR) ने जैन आगमोंके सम्बन्धमें लिखा है-"अङ्गोंके द्वारा स्पापित समस्या बहुत ही जटिल स्थितिमें है। उनकी भाषा मूल मागधी नहीं है जिसमें वह ईस्वी पूर्व तीसरी शतीमें पटनामें संकलित किए गये थे। किन्तु उसपर पश्चिम का, जहां वह ईस्वी सन् की पांचवीं शतीमें लिखे गये, प्रभाव है। इस बातके स्पष्ट प्रमाण हैं कि संकलन कालसे ही उनमें विस्तृत रूपमें परिवर्तन होते आये हैं। इस सबसे जटिल समस्याको सुलझानेके लिये आगमोंका तुलनात्मक अध्ययन नहीं किया गया। यह संभव है कि पटनामें कुछ अंग संकलित किये गये। किन्तु Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० ज० सा० इ०-पूर्व पीठिका यह कोई नहीं कह सकता कि वर्तमान आगमोंका उन मूल आगमोंके साथ क्या सम्बन्ध है ? वेबरका मत है कि मौजूदा आगम दूसरी और पांचवीं शताब्दीके बीचमें रचे गये । किन्तु जेकोवीका झुकाव है कि उनका कुछ भाग पटना से ही अपेक्षा. कृत थोड़ेसे परिवर्तनके साथ आया है।'-आउट रि० लि. इं०, पृ०७६। ___ आगे वह लिखते हैं-"किन्तु यह अधिक सम्भव है कि प्राचीन साहित्य अंशतः सुरक्षित रहा हो। यद्यपि यह निस्सन्देह है कि संघभेदके समयसे अर्थात् ई० ८० से श्वेताम्बर साधुओंके द्वारा अपने सम्प्रदायके अनुकूल उसमें संशोधनकी प्रवृत्ति चालू रही . ...। आगमोंमें श्वेताम्बरोंकी इस प्रवृत्तिके स्पष्ट चिन्ह पाये जाते हैं।' (पृ० १२०-१२१ ) देवद्धिंगणिके पश्चात्की स्थिति वर्तमान जैन आगोके सम्बन्धमें विचार करते समय देवर्द्धि गणिके पश्चात्कालीन स्थितिको भी दृष्टिमें रखना आवश्यक है । प्रायः विद्वानोंका मत है कि देवद्धि गणिके पश्चात् भी आगमोंमें परिवर्तन हुआ और उसके प्रमाण पाये जाते है । डा० जेकोबीका मत पहले दे आये हैं। उससे पहले कल्पसूत्रकी प्रस्तावनामें उन्होंने इस सम्बन्धमें जो मत व्यक्त किया था उसे यहाँ दिया जाता है____ 'प्राचीन मान्यताके अनुसार जैनसूत्रोंका पुस्तकाधिरोहण वीर नि० सं०६८० में देवद्धिगणि क्षमा श्रमण ने किया। x x जिन प्रभ मुनि और पद्म सुन्दर गणि लिखते हैं कि जब देवर्द्धिगणि ने ४५ आगमों को विनाशोन्मुख देखा तब उन्होंने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतावतार ५२१ वलभी पुरके संघके सहयोग से उन्हें पुस्तकारूढ़ किया । यह कहा जाता है कि प्राचीन काल में आचार्य पुस्तककी सहायताके विना अपने शिष्योंको सूत्र पढ़ाते थे । किन्तु पीछे पुस्तकोंकी सहायता से शिक्षण देना आरम्भ हुआ । जैन उपाश्रयों में यह प्रथा आज भी चली आती है। इस वृद्ध सम्प्रदायका यह अभिप्राय नहीं है कि देवद्धि गणिने प्रथम बार जैन आगमोंको पुस्तकारूढ़ कराया । किन्तु उसका इतना ही मतलब है कि प्राचीन काल में आचार्य लिखित पुस्तकोंकी अपेक्षा अपनी स्मृतिके ऊपर ज्यादा निर्भर रहते थे। जैनधर्मके बुद्ध घोष देवर्द्धि गणिने खास करके समग्र साम्प्रदायिक जैन साहित्यको जो उन्हें उस समय पुस्तकों में से तथा विद्यमान आचार्योंके मुखसे प्राप्त हो सका श्रागमोंके रूपमें निबद्ध किया । यह कार्य बहुत अधिक कठिन था क्योंकि उस समय बहुत से आगम तो त्रुटित हो गये थे और उनका अमुक अमुक त्रुटित भाग शेष बचा था। इन त्रुटित भागों को देवद्धि गणिने, जो उन्हें उचित लगा, तदनुसार अनुसन्धान करके एकत्र किया । बहुतसे आगमोंमें जो असम्बद्ध और अपूर्ण वर्णन मिलते हैं, उनका कारण हम उक्त स्थितिकी कल्पनाके द्वारा समझ सकते हैं । विद्यमान जैन आगमोंकी रचना मुख्य रूप से १. सन् ४१० और ४३२ के बीच में बुद्धघोषने वौद्ध पिटकों और कथाको पुस्तकों में लिखाया था । सिलोन में बौद्ध ग्रंथ और गुजरात में जैनग्रन्थ लगभग समान काल में पुस्तकारूढ हुए। उसके ऊपर से ऐसा अनुमान हो सकता है कि जैनोंने बौद्धोंकी इस प्रवृत्तिका अनुकरण किया । हिन्दुस्थान में ईस्वी पाँचवी शताब्दी से साहित्य के लिये लेखन कलाका बहुत उपयोग होने लगा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका उसके सम्पादक देवद्धि गणिकी आभारी है। उन्होंने ही उन्हें अध्यायों और अध्ययनोंमें विभक्त किया। और ग्रन्थ गणना ( ३२ अक्षरका एक श्लोक इस प्रकार श्लोक प्रमाण ) की पद्धति चालूकी। इस ग्रन्थ गणनाके अनुसार सौ सौ और हजार हजार श्लोकोंकी संस्या सूचक अंक हस्त लिखित प्रतियों में सर्वत्र एक ही रूपमें लिखे हुए हैं। मार्गको नापनेके लिये खड़े किये गपे मीलके पत्थरोंके समान इन संख्या सूचक अंकोको देनेका उद्देश्य यह था कि मूलसूत्रोंमें पुनः घटा बढ़ी न हो सके । परन्तु वास्तवमें यह उद्देश्य सफल हुआ हो, ऐसा नहीं लगता। देवर्द्धि गणिके पश्चात् जैन आगमोंमें बहुत फेरफार हुआ प्रतीत होता है। आधुनिक हस्तलिखित प्रतियोंमें अनेक पाठान्तर तो मिलते ही हैं, किन्तु जुदी २ लेखन पद्धतिके कारण उन पाठान्तरोंकी उत्पत्ति हुई है। इसके सिवाय वे पाठान्तर बहुत उपयोगी अथवा बहुत प्रामाणिक भी नहीं हैं। किन्तु पुराने समयमें कुछ जुदी हा स्थिति होनी चाहिये । क्योंकि टीकाकारोंने अपनी टीकाओंमें अनेक पाठान्तरों का निर्देश किया है, जो हालकी हस्तलिखित प्रतियोंमें नहीं पाये जाते। इससे हमारा मत है कि वर्तमान में जो सूत्रपाठ मूल प्रतियोंमें पाया जाता है तथा अर्वाचीन टीकाकारोंने जिसे अपनी टीकाओंमें लिखा है वह टीकाकारोंके द्वारा निर्णीत किया गया पाठ है। कल्पसूत्रके सम्बन्धमें तो यह बात निश्चित है। यह मैं विश्वास पूर्वक कह सकता हूँ। सूत्रोंकी जो जो टीकायें आज विद्यमान हैं वे सब सीधे या परम्परा रूपसे प्राकृत भाषामें रची प्राचीन चूर्णियों अथवा वृत्तिओंके आधार पर लिखी गई हैं । ये चूर्णियाँ तथा वृत्तियाँ या तो नष्ट हो गई हैं अथवा कहीं मौजूद हैं। प्राचीन टीकाकारोंने मूलसूत्रोंको बहुत अधिक अव्यवस्थित रूपमें पाया था ; क्योंकि उन्हें उनके बहुतसे पाठान्तरोंको नोट Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतावतार ५२३ करनेकी आवश्यकता प्रतीत हुई थी। उनमें से बहुतसे पाठान्तरों को पीछेके टीकाकारोंने अपनी टीकाओंमें उल्लिखित किया है। कुछ टीकाकारोंने केवल एक ही पाठको स्वीकार करके उसीको अपनी टीकाका आधार बनाया है। उदाहरणके रूपमें उत्तराध्ययन सूत्रके टीकाकार देवेन्द्र गणीको लिया जा सकता है। दूसरे कुछ टीकाकार पाठान्तरोंको देखनेकी इच्छावालोंको उसकी चूर्णीको देखनेको सूचना देते हैं । प्रमाणके रूपमें कल्पसूत्रके सबसे प्राचीन टीकाकार; जिनकी टोकाको प्राप्त करनेमें मैं सफल हुआ हूं, जिनप्रभमुनिको लिया जासकता है। इस लिये वर्तमान विवेचकोंका उद्देश्य तो प्राचीन टीकाकारोंने जो सूत्र पाठ स्वीकार किया था, केवल उसीका पुनरुद्धार करनेका होना चाहिये। साक्षात् देवद्धि गणिके द्वारा पुस्तकारूढ़ किया गया पाठ तो आज मिलना ही अशक्य' है।' देवद्धि गणिके पश्चात् भी जैनसूत्रोंमें जो फेरफार वगैरह हुआ, वह ऊपरके उद्धरणसे स्पष्ट हैं । ___ श्री बेवरने अंगसाहित्यके विषयमें एक अध्ययनपूर्ण विस्तृत निबन्ध लिखा था, उसका अंग्रेजी अनुवाद इण्डियन एण्टिक्वेरीमें प्रकाशित हुआ था । डा० बेबर उस ग्रपके विद्वान थे जो जैनधर्मको बौद्धधर्मकी शाखा मानता था। अत: उनका मत भी यहाँ दे देना उचित है । उन्होंने लिखा है 'डा० बुहलर की सूचीमें अंकित ४५ आगमोंको देवर्द्धिगणिने संकलित किया था ऐसा डा० जेकोवीका विश्वास है (कल्प, पृ० ६.) यदि हम इस पर अब अधिक विचार न १. यह अंश जैन साहित्य संशोधन भाग ५ में प्रकाशित गुजराती अनुवाद के आधारसे दिया गया है. ले० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “५२४ जै० सा० इ०-पूर्व-पीठिका करना चाहें तो भी हमें एक सत्यके रूपमें यह स्वीकार करना होगा कि सम्भवतया देवर्द्धिगणिने उन्हें जिस रूपमें संकलित किया था, वर्तमानरूप वह नहीं हो सकता। मूल सिद्धान्त ग्रन्थोंसे वर्तमान सिद्धान्त ग्रन्थोंमें अन्य भी भेद मौजूद है। सिद्धान्त ग्रन्थों में से न केवल वाक्यों और विभागोंको ही नष्ट किया गया..... 'जो कि प्राचीन टीकाओंके समयमें वर्तमान थे, बल्कि बड़ी संख्यामें क्षेपकोंको भी सम्मिलित किया गया, जो स्पष्ट प्रतीत होते हैं। क्या, समस्त सम्भावनाओंके अनुसार मूल सिद्धान्त ग्रन्थोंमें पूरी तरहसे परिवर्तन किया गया है। मेरा अनुमान है कि इस परिवर्तनके कारणोंको श्वेताम्बर सम्प्रदायकी कट्टरताके प्रभावमें देखा जा सकता है, जो विभिन्न अवान्तर सम्प्रदायोंके अनुयायिओंके प्रति दिन पर दिन अधिक कठोर होती गई। मौजूदा आगम केवल श्वेताम्बरोंके हैं। दृष्टिवादका एकदम नष्ट हो जाना, निस्सन्देह मुख्य रूपसे इस तथ्यसे सम्बद्ध है कि इसमें संघभेदमूलक सिद्धान्तों का सीधा उल्लेख था। यह घटना अन्य अंगोंमें किये गये परिवर्तन, परिवर्द्धन और लोपके लिए ब्याख्या रूप हो सकती है। अन्य तोर्थिको और निन्हवोंके विरुद्ध वादियोंकी कठोरता इतनी तीक्ष्ण और काट करने वाली है कि उसपरसे हम ऐसे निष्कर्ष निकालनेमें समर्थ हैं जो जैन साहित्यके इतिहासके लिए महत्वपूर्ण है।' ( इण्डि० एण्टि०, जि०१७, पृ० २८६) डा० वेबरके मतानुसार सूक्ष्म निरीक्षणसे यह प्रकट होता है कि आगमोंकी रचना व्यक्तिके कल्याणकी भावनाकी अपेक्षा साम्प्रदायिक कल्याणकी भावनाको लिए हुए हैं। इसके उदाहरणके रूपमें उन्होंने 'नग्नता'को लिया है। उन्होंने लिखा है-'ब्राह्मणोंने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतावतार ५२५. (बराहमिहिरने भी) नग्नताको जैनोंकी मुख्य विशेषता बतलाया है। और बौद्ध उल्लेखोंके अनुसार बुद्धने नग्नताका दृढ़तासे विरोध किया था। किन्तु आगमोंमें नग्नताकी स्थिति महत्वपूर्ण नहीं है। तथा कम से कम नग्नताको आवश्यक तो नहीं बतलाया है, जबकि दिगम्बर सम्प्रदाय उसे सिद्धान्तके रूपमें मानता है। श्वेताम्बरोंने (विशेषतया कल्पसूत्र में ) दिगम्बरोंके विरुद्ध जो घृणाभाव प्रदर्शित किया है, यदि उसे विचार कोटिमें लिया जाये तो यह निर्णय करना अदूरदर्शितापूर्ण न होगा कि इस विषयमें सम्बद्ध अनेक प्राचीन परम्पराओं को श्वेताम्बरीय आगमोंसे हटा दिया गया। तथापि श्वेताम्बर भी इससे इन्कार नहीं करते कि जिन स्वयं नग्न रहते थे। किन्तु वे दृढ़ता पूर्वक यह भी कहते हैं कि जो चीज उस समयके लिये उचित थी, वह वर्तमान समयके लिए उचित नहीं है।' ___ जैन परम्परामें दिगम्बर और श्वेताम्बरको तरह एक यापनीय संघ भी था। यह संघ यद्यपि नग्नताका पक्षपाती था तथापि श्वेताम्बरीय आगमोंको मानता था। इस संघके एक आचार्य अपराजित सूरिकी संस्कृतटीका भगवती आराधना नामक प्राचीन ग्रन्थपर है, जो मुद्रित हो चुकी है। उसमें नग्नताके समर्थनमें श्री अपराजित सूरिने आगम ग्रन्थोंसे अनेक उद्धरण दिये हैं जिनमें से अनेक उद्धरण वर्तमान आगमोंमें नहीं मिलते । यहाँ दो एक उद्धरण दिये जाते हैं १-'देशविसंवादिनो द्रव्यलिङ्गेनामेदिनो निन्हवाः। बोटिकास्तु सर्वविसंवादिनो द्रव्यलिङ्गितोऽपि भिन्नाः॥" -श्राव० टी०, मलय। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका 'तथा चोक्तमाचाराङ्गे सुदं में अाउस्सत्तो भगवदा एवमक्खादं इह खलु संयमाभिमुखा दुविहा इत्थीपुरिसा जादा हवंति । तं जहासव्वसमण्णागदे णोसव्वसमण्णागदे चेव । तत्थ जे सव्वसमण्णागदे थिया हत्थपाणीपादे सव्विंदियसमण्णागदे तस्स णं णो कप्पदि एगमवि वत्थं धारिउ एव परिहि एव अण्णत्थ एगेण पडिले. हेगेण इति ।' इसमें बतलाया है कि पूर्ण श्रामण्यके धारीको, जिसके हाथ पर सक्षम होते हैं और सब इन्द्रियां समग्र होती है-उसे प्रतिलेखन के सिवाय एक भी वस्त्र धारण नहीं करना चाहिये ।' यह उद्धरण वर्तमान आचारांगमें नहीं मिलता। जबकि अन्य उद्धरण उसमें मिलते हैं। - इसी तरह उत्तराध्ययनसे भी कुछ पद्य उद्ध त किये गये हैं जिनमेंसे कुछ वर्तमान उत्तराध्ययनमें नहीं मिलते। दो पद्य नीचे लिखे हैं परिचत्तेसु वत्थेसु रए पुणो चेलमादिए । अचेलपवरे भिक्खू जिणरूपधरे सदा ॥ सचेलगो सुखी भवदि असुखी वावि अचेलगों। अहं तो सचेलो होक्खामि इदि भिक्खु न चिंतए ॥ इनमें बतलाया है कि वस्त्रको त्यागकर पुनः वस्त्र ग्रहण नहीं करना चाहिए। और जिन रूपधारी भिक्षुको सदा अचेल रहना चाहिए। वस्त्रधारी सुखी होता है और वस्त्रत्यागी दुःखी होता है, अतः मैं सचेल रहूंगा, ऐसा भिक्खुको नहीं सोचना चाहिए। ____अपराजित सूरिने कल्प सूत्रसे भी अनेक पद्य उद्ध त किये हैं, जो मुद्रित कल्पसूत्रमें नहीं मिलते । श्री श्रात्मानन्द जैन सभा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतावतार - ५२७ भावनगरसे प्रकाशित कल्पसूत्र भाग छकी प्रस्तावनामें मुनिवर पुण्यविजयजीने लिखा है कि स्थविर अगस्त्यसिंह विरचित प्रस्तुत दश वैकालिक चूर्णिग्रन्थ ऐसा अलभ्य या दुर्लभ्य ग्रन्थ है कि जो वलभीमें श्रीदेवद्धि गणी क्षमाश्रमणने संघ एकत्र करके पाठ निर्णय किया उससे पहलेके प्राचीन कालमें जैन आगमोंके पाठोंमें कितनी विषमता हो गई थी, उसका थोड़ा बहुत विचार हमें देता है। आज भी वृहत्कल्पसूत्र, निशीथ सूत्र, भगवतीसूत्र वगैरहकी जो प्राचीन आदर्श प्रतियां अपने सामने वर्तमान हैं, उनको देखनेसे पाठभेदोंकी विविधता और विषमताका तथा भाषा-स्वरूपकी विचित्रताका ध्यान आ सकता है।""अपनी वर्तमान नियुक्तियों में पीछेसे कितना प्रक्षेप हुआ है यह जाननेके लिए अगस्त्यसिंहकी चूर्णि अति महत्त्वका साधन है। स्थविर अगस्त्यसिंहकी चूर्णिमें दशवैकालिकके प्रथम अध्ययनकी नियुक्ति गाथाएं केवल चौवन हैं, जबकि आचार्य श्री हरिभद्रकी टीकामें प्रथम अध्ययनकी नियुक्तिगाथाएं एकसौ छप्पन हैं। समस्त दशवैकालिक सूत्रकी नियुक्तिगाथाओंकी संख्याका यदि विचार किया जाये तो आचार्यहरिभद्रकी टीका में गाथा संख्या अधिक हैं"। अतः यह निश्चित है कि वलभी वाचनाके पश्चात् भी आगम साहित्यमें बहुत रद्दोबदल की गई है। वर्तमान जैन आगम और दिगम्बर परम्परा - आज जो जैन आगम या अंग साहित्य उपलब्ध है उसे दिगम्बर जैन सम्प्रदाय मान्य नहीं करता, यह सबको विदित Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० ५२८ है । साधारणतया 'विद्वानोंकी ऐसी धारणा रही है कि जब भद्रबाहुके अनुयायी साधु दक्षिणसे लौटकर मगधमें आये तो उन्होंने पाटलीपुत्र परिषद में कोई भाग नहीं लिया और यह घोषणा कर दी कि मूल आगम एकदम नष्ट हो गये । किन्तु यह धारणा भ्रान्त है । किसी भी प्राचीन दिगम्बर जैन साहित्य, पट्टावली या अभिलेख वगैरह में श्वेताम्बरीप अंग साहित्य के सम्बन्धमें या उनकी वाचनाओंके सम्बन्ध में कोई संकेत तक मेरे देखने में नहीं आया। जिन कथाओं में संघभेदकी चर्चा है. उनमें भी अग साहित्यकी संकलनाके विषयमें कुछ भी नहीं कहा गया है । अतः यदि यह कहा जाये कि दिगम्बर जैन परम्परा इस विषय में एकदम मूक है, तो अत्युक्ति न होगी । यद्यपि अपवाद रूपसे उन पर छींटाकसी करनेका संकेत मिलता है किन्तु वह संकेत भी इतना गम्भीर है, कि हर किसीकी दृष्टि वहाँ तक नहीं पहुंच सकती । अतः उक्त धारणा ठीक नहीं है। ० सा० इ० - पूर्व पीठिका भगवान महावीरके पश्चात् अंगज्ञानकी परम्परा किस प्रकार गुरु शिष्य परम्पराके रूपमें प्रवर्तित होते-होते लुप्त हुई, इसका स्वतंत्र वर्णन तिलोयपण्णत्ति, धवला, जयधवला टीका तथा श्रुतावतार आदि में है । तदनुसार दिगम्बर परम्परा में वीर निर्वाणसे ६८३ वर्ष पर्यन्त अंगज्ञानकी परम्परा प्रवर्तित रही है किन्तु उसे संकलित करने या लिपिवद्धकरनेका कभी कोई सामूहिक प्रयत्न किया गया हो, ऐसा आभास नहीं मिलता । Jain Educationa International १ कै० हि० इं०, जि० १, पृ० १४८, जै० नॉ० इ० पृ० २२१ । २ ‘मांसभक्षणाद्यभिघानं श्रुतावर्णवादः । ' - सर्वा ०, ० ६, सू० १३ | For Personal and Private Use Only Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतावतार ५२६ यह प्रश्न हो सकता है कि जब दिगम्बर सम्प्रदायमें श्रुतकेवली भद्रबाहुके पश्चात् भी अंगज्ञानकी परम्परा ५०० वर्ष तक चालू रही तो श्वेताम्बरोंकी तरह दिगम्बरोंने उनके संकलनादिका प्रयत्न क्यों नहीं किया। इस प्रश्नके समाधानके लिये दिगम्बर परम्परा और श्वेताम्बर परम्पराके दृष्टिकोणमें जो मौलिक मतभेद हमें प्रतीत हुआ उसे हम नीचे देते हैं। द्वादशांग के अथक में मतभेद दोनों परम्परायें भगवान महावीरके द्वारा उपदिष्ट द्वादशांग वाणीको आद्य जैन साहित्य मानती हैं। द्वादशाङ्गके नाम भी दोनों परम्पराओंमें एक ही हैं। किन्तु अन्तर यह है कि दिगम्बर परम्पराके अनुसार भगवान महावीर द्वारा उपदिष्ट वाणीको उनके प्रधान शिष्य गौतम गणधरने बारह अंगोंमें गूंथा और अपने उत्तराधिकारी सुधर्मा गणधरको सौंप दिया। सुधर्माने जम्बू स्वामीको सौंप दिया। इस तरहसे दिगम्बर परम्पराकी गुर्वावलियों में आद्य स्थान गौतम गणधरको प्राप्त है। किन्तु श्वेताम्बर परम्पराकी गुर्वावलि गौतम गणधरसे शुरू न होकर सुधर्मासे शुरू होती है। कल्पसूत्रकी स्थविरावलीमें लिखा है कि 'भगवान महा १ ज० ध०, भा० १, पृ.८४ ।। २ 'सव्वे विणं एते समणस्स भगवत्रो महावीरस्स एक्कारस वि गणहरा दुवालसंगिणो चउदसपुग्विणो समत्तगणिपिडगधारगा रायगिहे नगरे मासिएण भत्तेण अपाण एण काल गया जाव सव्व. दुक्खप्पहीणा, थेरे इंदभूई थेरे अज्ज सुहम्मे य सिद्धिगए महावीरे ३४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० जै० सा० इ०-पूर्व-पीठिका वीरके ये सभी ग्यारह गणधर द्वादशांगी, चतुर्दशपूर्वी और समस्त गणिपटकके धारक थे। राजगृहीमें मासिक निर्जल भक्तके द्वारा कालगत होकर ये सभी सब दुःखोंसे मुक्त हो गये। स्थविर इन्द्रभूति और स्थविर सुधर्मा ये दोनों महावीरके निर्वाणके पश्चात् मुक्त हुए। आज पर्यन्त जो ये श्रमण निर्ग्रन्थ विहार करते हैं ये सब आर्य सुधर्माकी सन्तान हैं शेष सब गणधर निःसन्तानी हुए।। __ इस स्पष्टीकरण के पश्चात् स्थविरावली भगवान महावीर के शिष्य सुवर्मासे प्रारम्भ होती है। यही बात नन्दीसूत्रके प्रारम्भमें दी गई स्थाविरावली में भी पाई जाती है वह भी सुधर्मासे ही शुरू होती है। इस तरह श्वेताम्बर परम्परामें आज जो अङ्ग साहित्य पाया जाता है वह सुधर्मा के द्वारा उस परम्पराको प्राप्त हुआ था, गौतम गणधरके द्वारा नहीं। हमने इस बातको खोजना चाहा कि जैसे दिगम्बर परम्पराके अनुसार प्रधान गणधर गौतमने महावीरकी देशनाको अङ्गोंमें गूथा वैसे श्वेताम्बर परम्पराके अनुसार महावीरकी वाणीको सुनकर उसे अङ्गोंमें किसने निबद्ध किया ? किन्तु खोजने पर भो हमें किसी खास गणधरका निर्देश इस सम्बन्धमें नहीं मिला । प्राप्त उल्लेखों से साधारणतया यही प्रतीत हुआ कि सभी पच्छा दुरिण वि थेरा परिनिव्वुया । जे इमे अज्जत्ताए समणा निग्गंथा विहरंति एए णं सने अज्ज सुहम्मस्स अणगारस्स आवच्चिज्जा. अससेसा निरवच्चा धुच्छिन्ना ॥४॥-पट्टा० स० पृ. २ । १ 'तव नियमनाणरुक्खं प्रारूटो केवली अमियनाणी । . तो मुयह नाणवुद्धिं भवियजणविवोहणट्टाए । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतावतार ५३१ गणधर वाणीको सुनकर उसे श्रङ्गोंमें निबद्ध करते हैं। शायद इसीसे गणधरोंकी वाचनामें भी भेद' होनेका उल्लेख श्वेताम्बर परम्परा में पाया जाता है । सेन प्रश्न में यह प्रश्न किया है कि तीर्थङ्करके गणधरोंमें वाचना भेद होने पर भी सांभोगिकपना ( एक साथ भोजन व्यवहार ) होता है या नहीं, तथा उनमें सामाचारी ( साधुओं का आचार ) कृत भेद रहता है या नहीं ? इसका उत्तर दिया है कि तीर्थङ्करके गणधरोंमें परस्पर वाचना भेद होने से सामाचारीमें भी कितना ही भेद रहता है और सामाचारीमें भेद रहने से कुछ भोगिकत्व भी रहता है। इसका शय यह है कि नोर्थङ्करके गणधरोंकी वाचनाए भिन्नर होती हैं और वाचना भिन्न होनेसे उनके आचार में भी भेद रहता है और आचार में भेद रहने से परस्पर में एक साथ खान पान करने में भी रुकावट होना संभव है ।' तं बुद्धिम पडेण गणहरा गिहिउं निरवसेसं । तित्थयर भासियं गंथंति तो पवयणट्ठा ॥ १०६५ | " 'तां च ज्ञानकुसुमवृष्टिं बुद्धया नितो बुद्धिमयस्तेन विमलबुद्धिमयेन पटेन गणधरा गौतमादयो ग्रहीतुं गृहीत्वाऽऽदाय निरवशेषां सम्पूर्णा, ततः तीर्थकरभाषितानिं कुसुमकल्पानि भगवदुक्तानि विचित्रप्रधानकुसुममालावद् ग्रथ्नन्ति । - विशेषा० भा० । १ 'तीर्थंकरभृतां मिथो भिन्नवाचनत्वेऽपि सांयोगिकत्वं भवति नवा ? तथा सामाचार्यादिकृतो भेदो भवति न वेति प्रश्ने, उत्तरम् - गणभृतां परस्परं वाचनाभेदेन सामाचार्या अपि कियान् भेदः संभाव्यते तद्भेदे च कथंचिदसां भोगिकत्वमपि संभाव्यते ।" - सेन०, उल्लास २, प्रश्न ८१ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका कल्प'सूत्रमें लिखा है कि भगवान के गणधर तो ग्यारह थे, किन्तु गण नौ ही थे। इसका स्पष्टीकरण करते हुए उसमें लि वा है कि वाचना भेदसे गणभेद होता है। और एकही प्रकारकी वाचना लेनेवाले साधु समुदायको गण कहते हैं । अतः गणधरोंकी संख्या ग्यारह होते हुए भी गण नौ ही थे। अन्तिम चार गणधरों मेंसे दो दो गणधरोंकी एक ही वाचना थी। ज्येष्ठ गणधर इन्द्रभूति पांचसौ शिष्योंको वाचना देते थे, इसी तरह अग्निभूति, वायुभूति आर्य व्यक्त, आर्य सुधर्मा, पांचसो पांचसौ शिष्योंको वाचना देते थे। मण्डित पुत्र और मौर्य पुत्र साढ़े तीन सौ श्रमणोंको वाचना देते थे। इन सातोंकी वाचना पृथक पृथक थी। शेष चारमें से अकम्पित और अचलभ्राताकी एकही वाचना थी। ये दोनों छ सौ शिष्योंको वाचना देते थे। इसी तरह मेतार्य और प्रभासकी भी एक ही वाचना थी। ये दोनों भी छसौ शिष्योंको. वाचना देते थे। इस मान्यता और संभावनाके प्रकाशमें जब हम श्वेताम्बर परम्परामें गौतम गणधरकी शिष्य परम्पराका अभाव और सुधर्माकी शिष्य परम्पराका सद्भाव पाते हैं तो मनमें यह आशङ्का होना स्वाभाविक है कि शायद वाचना भेद और सामाचारी भेदके कारण ही तो गौतम गणधरको दिगम्बर परंपरामें और सुधर्माको श्वेताम्बर परम्परामें अग्रस्थान नहीं मिला है ? किन्तु श्वेताम्बर परम्परामें कोई आगमवाक्य ऐसा नहीं १ 'तेण कालेणं तेण समएणं समणस्स भगवश्री महावीरस्स नवगणा इक्कारस गण हरा हुत्था ।' -कल्प०, ८ व्या०। २ 'श्वेताम्बर परम्परामें गौतम गणधरके द्वारा अंगोंके रचे जानेका कोई निर्देश नहीं है । सुध के द्वारा ही रचे जाने का निर्देश है-गुरु जै० सा० इ०, पृ० २२। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतावतार ५३३ है जिसे गौतम गणधर की कृति कहा गया हो । किन्तु दिगम्बर परम्परामें ऐसे आगम वाक्य हैं जो गौतम गणधर की कृति कहे गये हैं । इस पर से यह संभावनाकी जा सकती है कि गौतम गणधर का वारमा दिगम्वर परम्पराको प्राप्त हुआ था । यद्यपि दिगम्बर परम्पराके अनुसार अंगज्ञानका प्रवाह गौतम गणधर से ही सुधर्मा और सुधर्मा जम्बूको प्राप्त हुआ था और इस तरह गौतम गणधर और सुधर्मामें न कोई वाचना भेद होना संभव है और न सामाचारी भेद हो होना संभव है। किन्तु दोनों सम्प्रदायोंमें एक एक गणधर को ही प्रमुखता दिये जानेसे और श्व ेताम्बर साहित्य के उक्त उल्ल खोंसे एक अन्वेषक के मनमें उक्त संभावना हो सकती है । और आगे हुए संघ भेदमें इसका भी कुछ प्रभाव रहा हो, ऐसी भी संभावनाकी जा सकती है । अस्तु, किन्तु इसके साथही यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि वर्तमान गमोंको देखनेसे पता चलता है कि उनमें से कुछ आगमोंका निर्माण इन्द्रभूति गौतमके प्रश्नोंका आभारी है । भगवतीसूत्रमें तो इन्द्रभूतिके द्वारा भगवानसे पूछे गये प्रश्नोंका १ षट् खण्डागमके कृति अनुयोग द्वारके प्रारम्भमें सूत्रकार भूतबलिने 'मो जिणाणं' श्रादि ४४ सूत्रोंसे मंगल किया है । ठीक यही मंगल योनि प्राभृत ग्रन्थ में गणधर वलय मंत्र के रूपमें पाया जाता है । इन मंगल सूत्रों की टीका में वीरसेन स्वामीने यह लिखा है कि ये मंगल सूत्र गौतम गणधरने महाकर्म प्रकृति प्राभृतके श्रादिमें कहे हैं । यथा - 'महाकम्मपय डिपाहुडस्स कदियादिच उबीसणियोगावयवस्स आदी गोदमसामिणा परूविदस्त भूदब लिभंडारएण वेयणखंडस्त श्रादीए मंगलङ्कं तदो प्रदूण ठविदस्स' - षट् खं० - ५० ९, पृ० १०३ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ ही बाहुल्य है । बड़े आश्चर्यकी बात यह है कि सुधर्मा की परम्पराका संघ विद्यमान होते हुए भी, और प्रस्तुत आगमोंकी वाचना सुधर्माकी परम्परासे प्राप्त होनेकी मान्यता होते हुए भी समस्त आगमों में सुधर्मा द्वारा भगवानसे पूछे हुए एकभी प्रश्नका निर्देश नहीं है । यद्यपि आगमों में इन्द्रभूति गौतमके पश्चात् दूसरे नम्बर पर किसी गणधर का वर्णन मिलता है तो वह आर्य सुधर्मा हैं। आर्य सुधर्माका गुण वर्णन भी इन्द्रभूति गौतम जैसा ही है । गुर्वावली की पद्धति में भिन्नता दिगम्बर' परम्परा में भगवान गौतम गणधर से लेकर वीर निर्वाण ६८३ वर्ष पर्यन्त हुए अंग ज्ञानियोंके क्रमसे गुरुनामावली दी गई है। क्योंकि महावीर निर्माण के पश्चात् ६८३ वर्ष पर्यन्त ही दिगम्बरोंमें अंगज्ञानियोंकी परम्परा चालू रही । उसके पश्चात् उस परम्पराका विच्छेद हो गया । यद्यपि परम्परासे होने वाले श्राचायोंमें अंगज्ञान उत्तरोत्तर घटता गया तथापि आंशिक ज्ञानकी परम्परा ६८३ वर्ष पर्यन्त अविच्छिन्न चलती रही । श्वताम्बरीय स्थविरावलियोंमें जो नामावली दी गई है। वह युग प्रधान आचार्योंके क्रमके अनुसार दी गई है । उसमें भद्रबाहु श्रुतकेवलीके पश्चात् स्थूल भद्रको अन्तिम तर बतलाया है और लिखा है कि उन्हें ग्यारह अंगों और चौदह पूर्वोका ज्ञान था । स्थूलभद्रके पश्चात् कोई चतुर्दशपूर्वी नहीं हुआ । अन्तिम दसपूर्वी वज्र स्वामी थे । वज्रस्वामी के शिष्य आर्य रक्षितको साढ़े नौ पूर्वोका ज्ञान था क्रमशः श्व ेताम्वर परम्परामें भी पूर्वोका लोप हो गया । किन्तु इस तरह १ ज० ६०, भाग १, पृ० ८३-८४ | जै० ० सा० इ० पूर्व पीठिका Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतावतार ५३५ ग्यारह अंगोंका ज्ञान बना रहा। किन्तु दिगम्वरोंकी तरह काल क्रमसे होनेवाले अंग ज्ञानियोंकी परम्पराका कोई निर्देश श्वेताम्बर परम्परामें नहीं मिलता। हां, भिन्न २ समयोंमें अंगोंका संकलन करनेकेलिये जो तीन वाचनाएँ हुई उनका निर्देश अवश्य मिलता है और उस परसे यही व्यक्त होता है कि श्वेताम्बर परम्परामें अंग ज्ञानका वारसा गुरुशिष्य परम्पराके क्रमसे एक ही व्यक्ति में समाविष्ट नहीं माना जाता था। किन्तु विभिन्न व्यक्तियोंमें विप्रकीर्ण रहता था-फुटकर फुटकर प्रसंग विभिन्न व्यक्ति. योंको ज्ञात रहते थे। इसीसे उन सबको एकत्र करनेके लिये विभिन्न कालोंमें तीन वाचनाएँ की गई। बौद्धों में भी बुद्ध के उपदेशोंको संगृहीत करनेके लिए इसी प्रकार तीन संगीतियाँ हुई थीं। पहले लिखा गया है कि बौद्धोंके मध्यम मागका प्रभाव जैन साधुओं सुखशील पक्ष पर पड़ा। अतः दोनोंकी वाचनाओंकी समसंख्या देखकर यह सन्देह होना स्वाभाविक है कि जैन वाचनाएँ बौद्ध संगीतियोंकी ही प्रतिकृति तो नहीं हैं। अतः दोनोंको तुलनाके लिए बौद्ध संगीतिका विवेचना किया जाता है। बौद्ध संगीति और जैन वाचना बौद्ध परम्पराकी तीनों संगी-तियाँ किसी दुर्भिक्षके कारण पिटकधरोंके स्वर्गवास हो जानेके कारण नहीं हुई, जैसा कि श्वेताम्बरीय जैन वाचनाएँ हुई। प्रथम संगीतिका कारण बतलाते हुए लिखा है-"उस समय आवुसो ! सुभद्र वृद्ध प्रव्रजितने कहा-अच्छा आवुसो ! हम धर्म और नियमका संगान ( साथ पाठ ) करें, सामने अधर्म प्रकट होरहा है, धर्म हटाया जा रहा है, अविनय प्रकट होरहा है, विनय हटाया Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका जा रहा है, अधर्मवादी बलवान हो रहे हैं, धर्मवादी दुर्बल हो रहे हैं, विनयवादी हीन हो रहे हैं ।”—बुद्ध च., पृ. ५४८ । ____ इस तरह धर्म और विनयका ह्रास होनेके कारण प्रथम' संगीतिकी गई । दूसरी संगीति भी इसी कारणसे हुई। उस समय वैशालीके वज्जिपुत्तक भिक्षु उपोसथके दिन कांसेकी थालीको पानीसे भरकर और भिक्षुसंघके बीचमें रखकर आने जानेवाले वैशालीके उपासकोंसे उसमें सोना, चाँदी, सिक्का डालने के लिये कहते थे और फिर संचित द्रव्यको आपसमें बाँट लेते थे। आयुमान यशने इस अकार्यका विरोध किया। इसपर से देश-देशान्तरोंके स्थविरोंको एकत्र करके संगीति की गई। बु. च. पृ. ५५६। तीसरी संगीति अशोकके राज्यकालमें पाटलीपुत्र में हुई। उस समय अशोकाराममें भिक्षुओंने उपोसथ करना छोड़ दिया था १ भगवान बुद्ध के प्रियशिष्य आनन्दको भगवान के सब सूत्रान्त कण्ठस्थ थे। उनकी स्मृति प्रबल थी इसो कारणसे प्रथम संगाति में श्रानन्दने धर्म ( सूत्रान्त ) का पाठ किया । इसी कारगासे सूत्रान्त इस वाक्यसे प्रारम्भ होते हैं-'एवं मे सुतं' ( ऐसा मैने सुना )। -इस दूसरी संगीतिके समय बौद्ध संघमें भेद हो गया और स्थविर तथा महासांघिक इस प्रकार दो भेद हो गये। वसुमित्र के अनुसार स्थविर और महासांघिकका भेद अशोकके राज्यकाल में पाटलीपुत्र में हुआ था। चुल्लवग्ग के अनुसार निर्वाणके १०० वर्षके पश्चात् संव में भेद हुआ। इस संगीतिके पूर्व पश्चिमके भिक्षुषोंने अपनी एक सभा मथुराके पास होगंगमें की थी,-बौ० ध० द॰, पृ॰ ३५ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतावतार ५३७ और सात वर्षतक उपोसथ नहीं हुआ था। तब अशोकने स्थविरोंको आमंत्रित करके यह मामला उनके सामने रखा और तब तीसरी संगीति हुई, जिसमें नौ मास लगे। इस संगीतिके पश्चात् अशोकका पुत्र महेन्द्र लंका गया और 'त्रिपिटककी पाली (पंक्ति) और उसकी अट्ठकथा, जिन्हें पूर्वमें महामति भिक्षु कण्ठस्थ करके लंका लेगये थे, प्राणियोंकी ( स्मृति-) हानि देखकर भिक्षु. ओंने एकत्र हो, धर्मकी चिरस्थिति के लिये, पुस्तकोंमें लिखाया' (बु० च०, पृ० ५८०)। और इस तरह तीन संगीतियों के पश्चात् लंकामें त्रिपिटकोंको पुस्तकारूढ़ किया गया। बौद्ध संगीतिका परिचय करानेके पश्चात् अब हम जैन परम्पराकी ओर आते हैं विज्ञोंसे यह बात अज्ञात नहीं है कि जैसे महावीरके ग्यारह गणधर थे, जो महावीरके उपदेशोंको संकलित करके अंगोंमें निबद्ध करते थे, वैसे बुद्धके कोई गणधर नहीं थे। बुद्ध समयसमयपर उपदेश देते थे, किन्तु उनके उपदेशों को तत्काल प्रथित करनेका भार किसीके सपुर्द नहीं था; हाँ सतत साथ रहनेवाले उनके शिष्य साथ रहते-रहते उनके उपदेशोंको जाने और याद रक्खें यह बात भिन्न है। __ प्रथम संगीतिके समय बुद्धके अन्यतम अनुयायी आनन्द स्थविर भी उपस्थित थे। जब संगीतिके लिये स्थविर भिक्षुओंका चुनाव होने लगा तो भितु ओंने महाकश्यपको कहा-'भन्ते ! यह आनन्द यद्यपि शैक्ष्य ( अन्-अर्हत् ) है तो भी छन्द (राग ) द्वेष, मोह, भय अगति ( बुरे मार्ग) पर जानेके अयोग्य हैं। इन्होंने भगवान बुद्धके पास बहुत धर्म ( सूत्र ) और विनय प्राप्त किया है इसलिये भन्ते ! स्थविर आयुष्मानको भी चुन लें ।'-बु० च०, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका पृ३ ५४८ । अतः बुद्ध के पश्चात् इस प्रकारके स्थविर भिक्षुओंको एकत्र करके धर्म और विनयके रूपमें बुद्धके उपदेशोंका सङ्कलन करना उचित था। किन्तु महावीर भगवानके तो एक दो नहीं, ग्यारह गणधर थे-जिनका मुख्य काम भगवानके उपदेशोंको स्मरण रखकर तत्काल अंगोंमें ग्रथित करना था। और अथित करनेके पश्चात् किसी योग्य शिष्यको सौंपकर उसकी परिपाटीको कायम रखना भी एक मुख्य कार्य था। इसी परिपाटीके अनुसार द्वादशांग श्रुत अविकल रूपमें अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहुको प्राप्त हुआ। दिगम्बर मान्यताके अनुसार श्रुतकेवली भद्रबाहुका स्वर्गवास दक्षिणमें हुआ और उनका उत्तराधिकार उनके शिष्य गोवर्धनाचार्यको प्राप्त हुआ। यद्यपि सकल श्रुतज्ञानका विच्छेद तो श्रुतकेवली भद्रबाहुके साथही होगया, तथापि गौतम गणधरसे जो परम्परा चालू हुई थी कि अंगश्रुतको प्रवाहित करनेके लिये उसे उसके योग्य उत्तराधिकारीको सौंप दिया जाये, वह ६८३ वर्ष पर्यन्त तक चालू रही। ___ श्वेताम्बर परम्पराके अनुसार श्रुतकेली भद्रबाहुके जीवित रहते हुए भी उनकी अनुपस्थितिमें ही ग्यारह अंगोंका सङ्कलन पाटलीपुत्र में किया गया । और चूँ कि चौदह पूर्वोका ज्ञान भद्रबाहु के सिवाय अन्य किसीको नहीं था इसीसे पूर्वोका ज्ञान प्राप्त करने केलिये उनके पास कुछ साधुओंको भेजा गया । इसपरसे यह शंका होती है कि यदि भद्रबाहु श्रुतकेवली जीवित थे और उन्हें द्वादशांग श्रुत अविकल रूपसे प्राप्त था तो साधुसंघको एकत्र करके उसकी स्मृति के आधारपर ग्यारह अङ्गोंको संकलित करनेकी जल्दी क्यों की गई और दुर्भिक्षके कारण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतावतार ५३६ बहुतसे साधुओंके स्वर्गत होजाने पर भी श्रुत केवली भद्रबाहुके रहते हुए श्रुतविच्छेदका भय कैसे संभव था ? यह भय तो उनके स्वर्गवास होनेपर ही सम्भव है । इसके सिवाय श्रुतकेवलीके जोते हुए भी उसकी उपेक्षा करके अन्य आंशिक श्रुतधरोंकी स्मृतिके आधार पर अङ्गोंका संकलन करना स्पष्ट ही श्रुतकेवलीकी अवहेलना है। और इस प्रकारसे संकलित किये गये अङ्गोंको प्रमाण ही कैसे माना जा सकता है ? दिगम्बर तथा विशेषतया श्वेताम्बर साहित्यसे यह प्रकट होता है जैसाकि आगे बताया जायगा-कि अङ्गोंको अपेक्षा पूर्वोका विशेष महत्त्व था । श्वेताम्बर साहित्यके अनुसार तो पूर्वोसे ही अङ्गोंका निकास हुआ है। और उस समय पूर्वधर केवल एक श्रुतकेवली भद्रबाहु थे । पूर्वोको वाचनाको लेकर ही उनका पाटलीपुत्रके संघ से मनमुटाव हुआ था। कल्पसूत्र-स्थविरावलीके अनुसार यशोभद्रके दो शिष्य थे सम्भूत विजय और भद्रबाहु । तथा सम्भूतविजयके शिष्य स्थूलभद्र थे । पाटलीपुत्री वाचना से पूर्व सम्भूति विजयका स्वर्गवास हो चुका था और इसलिये भद्रबाहु ही युग प्रधान थे। स्थूल भद्र तो एक तरहसे शैक्ष्य थे। क्योंकि पाटलीपुत्री वाचनाके पश्चात् पूर्वोका अध्ययन करनेके लिए जो साधु समुदाय श्रमण संघने भद्रबाहुके पास भेजा था उसमें स्थूलभद्र भी थे, और उन्होंने ही उनसे दस पूर्वोका अविकल ज्ञान प्राप्त किया था। किन्तु स्थूलभद्रने ग्यारह अङ्गोंका ज्ञान किससे प्राप्त किया यह स्पष्ट नहीं होता । यदि उस समय स्थूलभद्र ग्यारह अङ्गोंके वेत्ता थे तौभी अंगोंका संकलन करनेके लिये पाटलीपुत्री वाचनाकी आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि स्थूलभद्रको उनका Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका अविकल ज्ञान था। और यदि स्थूलभद्रने अपने गुरु सम्भूति विजयसे ग्यारह अङ्गोंका भी ज्ञान प्राप्त नहीं किया था तो स्पष्ट ही वह पाटलीपुत्रमें संगृहीत किये गये ग्यारह अङ्गोंके ही पाठी थे-परम्परासे प्रवाहित एकादशांग वेत्ता नहीं थे। स्थूलभद्रको लेकर इतना लिखनेकी आवश्यकता इसलिये हुई कि जैसे श्वेताम्बर परम्परामें गौतम गणधरकी शिष्य परम्पराका अभाव है वैसे ही श्रुतकेवली भद्रबाहुकी शिष्य परम्पराका भी अभाव है। सम्भूतिविजयके पश्चात् उनकी स्थविरावली स्थूलभद्रसे ही प्रचलित होती है ! ऋषिमण्डलसूत्रमें भद्रबाहुको स्तुति एक ही गाथाके द्वारा की गई है किन्तु उनके उत्तराधिकारी स्थूलभद्रकी स्तुति बीस गाथाओंके द्वारा की गई है। ___ भद्रबाहुकी स्तुतिमें उन्हें 'अपच्छिम सयलसुयनाणि' कहा है। जिसका सीधा अनुवाद 'अन्तिम श्रुतकेवली' होता है। किन्तु 'अपच्छिम'का अनुवाद 'पश्चिम-अन्तिम-नहीं ऐसा भी किया जा सकता है क्योंकि श्वेताम्बर परम्परामें स्थूलभद्रको' भी श्रुतकेवली माना है। अतः भद्रबाहुको उपान्त्य ( अन्तिमसे पहला ) श्रुतकेवली गिना जाता है। स्थूलभद्रने पूर्वोका ज्ञान श्रुतकेवली भद्रबाहुसे किस प्रकार प्राप्त किया था, इसका वर्णन हेमचन्द्रने परिशिष्ट पर्वके नवम सर्गमें किया है। उसका सार यह है कि १. दसकप्पववहारा निज्जूढा जेण नवम पुवाअो । वंदामि भद्दबाहुं तमपच्छिमसयलसुयनाणिं ॥" २. 'शय्यंभवो यशोभद्रः सम्भूतविजयस्ततः ॥ भद्रवाहुः स्थूल, भद्राश्रतकेवलिनो हि षट् ।'-अभि. चि०, का० १, श्लोक० ३३-३४ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतावतार ५४१ 'पाटलीपुत्रमें संघने ग्यारह अङ्गोंका संकलन करनेके पश्चात् बारहवें दृष्टिवाद अङ्गको प्राप्त करनेके लिए ५०० साधुओंको भद्रबाहुके पास भेजा, जो उस समय नेपाल में थे। उन साधुओंमें स्थूलभद्र भी थे। भद्रबाहुने उस समय 'महाप्राण' नामक व्रत धारण किया था इसलिये वह अपने शिष्योंको पूर्वोकी बहुत थोड़ी वाचना दे पाते थे। तथा पूर्व कठिन भी थे और विस्तृत भी थे। इन कारणोंसे एक स्थूल भद्रके सिवाय शेष सब साधु वहाँसे चले गये। केवल स्थूलभद्र ने दस पूर्वोका अध्ययन किया। किन्तु उसके एक सदोष व्यवहारसे असन्तुष्ट होकर भद्रबाहुने उन्हें चार पूर्वोकी वाचना देनेसे इन्कार कर दिया। जब स्थूलभद्र ने बहुत प्रार्थना की और अपने दोषोंकी क्षमा मांगी तब भद्रबाहु ने उन्हें चार पूर्वोकी केवल सूत्ररूपसे वाचना दी; उनका अर्थ नहीं बतलाया । अतः स्थूलभद्र' सम्पूर्ण श्रुत ज्ञानी नहीं थे। खरतर गच्छकी पट्टावलीमें भी लिखा है कि स्थूलभद्रने दो वस्तु हीन दस पूर्वोको तो सूत्र और अर्थ रूपसे पढ़ा था किन्तु अन्तके चार पूर्वोको अर्थ रूपसे नहीं पढ़ा था। प्राचीन परम्पराके अनुसार भद्रबाहु ही अन्तिम श्रु त केवली थे। पीछेसे स्थूलभद्रको भी श्रुत केवलियोंमें गिना जाने लगा। इस तरह स्थूलभद्रने भद्रवाहुसे जो पूर्वोका ज्ञान प्राप्त किया, वह तो आगे चलकर लुप्त हो गया और शेष ग्यारह अगोंका १. 'समस्तगणि पिटकधारकाः, गणोऽस्यातीति गणी-भावाचार्यः तस्य पिटकमिव रत्नकरण्डकमिव गणिपिटकं-द्वादशांगी, तदपि न देशतः स्थूलभद्रस्येव, किन्तु ? समस्तं-सर्वाक्षरसन्निपातित्वात् तद्धारयन्ति सूत्रतोऽर्थतश्च ये ते तथा ।-कल्प० सुबो०, पृ. १८५। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका उन्होंने जो ज्ञान प्राप्त किया, वह पाटलीपुत्री वाचनामें संकलित किये गये ग्यारह अंग थे। उनमें अन्तिम सकल श्रुतज्ञानी भद्रवाहुका कोई योगदान नहीं था। अतः वे अनधिकारी श्रत. धरों के द्वारा संकलित होनेसे मान्य कैसे किये जा सकते थे । उन्हींके आधारसे श्वेताम्बर परम्परामें आगे चलकर वर्तमान आगम संकलित किये गये। ___ हमें तो उक्त आशंकाओंके प्रकाशमें पाटलीपुत्र में हुई वाचनाकी बात केवल बौद्ध संगीतिका अनुकरण मात्र प्रतीत होती है; क्योंकि जैन संघ और बौद्ध संघकी व्यवस्थामें प्रारम्भसे ही मौलिक अन्तर रहा है। प्रथम बौद्ध संगीतिका वर्णन करते हुए आचार्य नरेन्द्रदेवने लिखा है___ "जहाँ पहले संघका अधिकार था, वहाँ अब प्रमुखका अधिकार हो गया। संघ त्रिरत्नोंमें से एक था। भिक्षु और उपासक संघमें शरण लेते थे, न कि किसी आचार्य या प्रमुख में । प्रमुखको संघके निर्णयोंको कार्यान्वित करना पड़ता था, वह अपने मन्तव्योंको संघ पर लाद नहीं सकता। अतः दीपवंशमें संघ स्वयं संगीतिके सदस्योंको चुनता है। किन्तु दीपवंश और चुल्लवग्गके अनुसार महाकाश्यपने ५०० अर्हतोंको प्रवचनका संग्रह करनेके लिये चुना । अशोकावदानमें भी प्रमुख प्राचार्यों का चुनाव संघ नहीं करता है....किन्तु एक आचार्यसे दूसरे आचार्यको अधिकार हस्तान्तरित होते हैं। पुराने समयमें संघका जो आधिपत्य था वह आता रहा और प्रमुखोंका अधिक.र कायम हो गया।"-बौ० ध० द. पृ० १२-१३।। किन्तु जैन परम्परामें प्रारम्भसे ही प्रमुख आचार्यका चुनाव संघके द्वारा न होकर आचार्यसे ही दूसरे आचार्यको अधिकार Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतावतार ५४३ हस्तान्तरित किया जाता था। श्वेताम्बर सम्प्रदायमें भी यही परम्परा रही है। सुधर्मा स्वामीने अपने शिष्य जम्बूको, जम्बूने प्रभवको, प्रभवने शायंभव को, और शायंभवने यशोभद्रको स्वयं ही अपना उत्तराधिकारी चुना था। किन्तु पाटलीपुत्रवाचनामें हम संघका ही प्राधान्य पाते हैं। उस वाचनाका कोई प्रमुख नहीं था जब पूर्वोकी वाचना देनेके ऊपर भद्रबाहुसे कुछ संघर्ष हो गया तो संघकी ओरसे ही उनके पास दण्ड. विधानकी आज्ञा प्रेषित की गई थी। इसके निर्णयके लिये आयश्यक चूर्णि, तित्यागाली पइन्ना और परिशिष्ट पर्व आदिको देखा जा सकता है। किन्तु दिगम्बर परम्परामें अंगज्ञानका उत्तराधिकार गुरु शिष्य परम्पराके रूपमें ही प्रवाहित होता हुआ माना गया है । उसके अनुसार अंगज्ञानने कभी भी सार्वजनिक रूप नहीं लिया। आवलिक्रमसे गुरुके द्वारा जिसे उसका उत्तराधिकार प्राप्त हुआ, वही उसका प्रामाणिक अधिकारी समझा गया। उसने इस विषयमें जन-जनकी स्मृतिको प्रमाण नहीं माना। इसीसे दिगम्बर परम्परामें अंगज्ञानको सामूहिक रूपसे संकलित करनेका न कभी प्रयत्न किया गया और न ऐसे प्रयत्नको सराहा गया। उक्त विश्लेषणसे पाठक समझ सकेंगे कि दिगम्बर परम्परामें श्वेताम्बर सम्प्रदायकी तरह अंगोंके संकलनका समूहिक प्रयत्न क्यों नहीं किया गया और क्यों दिगम्बरोंने उक्त रीतिसे संकलित आगमोंको मान्य नहीं किया। इससे यद्यप उनकी अपार क्षति हुई। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय अब हम श्व ताम्बरीय तथा दिगम्बरीय साहित्यके आधार पर द्वादशांग श्रुतका अर्थात् श्रुतके बारह अंगोंका परिचय देते हैं। नाम ... इनका मूल नाम तो अंग है, उनकी संख्या बारह होनेसे उन्हें द्वादशाङ्ग' कहते हैं। वैसे शरीरके अवयवों को अंग कहते हैं । साधारणतया शरीरमें आठ अंग माने गये हैं-दो हाथ, दो पैर, नितम्ब, पृष्ठ, छाती, सिर । किन्तु बारह अङ्गों का भी उल्लेख मिलता है अतः श्रतरूप परम पुरुष के अङ्गोंके तुल्य होनेसे द्वादशाङ्ग कहते हैं। दिगम्बर साहित्यमें इन्हे श्रत देवताका अङ्ग कहा है। १-"नलया बाहू य तहा नियंब पुट्ठी उरो य सीसो य । अटेव दु अंगाई देहे सेसा उवंगाई॥" -कर्मकाण्ड गो। २-"श्रुतरूपस्य परमपुरुषस्याङ्गानिवाङ्गानोबाचाराङ्ग दीनि यस्मिन् तत् द्वादशाङ्गम् ।"-नन्दी० टी० पृ-१६३ पूर्वा । ३-'बारह अङ्गग्गिज्झा विलियमलमूढदंसहुचिलया। विविहवरचरणभूसा पसियउ सुयदेवया सुइरं ॥ . -धव०, पु० १ पृ०६ अंगगंगबज्भणिम्मी प्रणाइमझतणिम्मलंगाए । सुयदेवय अबाएँ णमो सया चक्खुमहयाए ॥४॥ - - ज० ध० भा० १, पृ० ३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय ५४५ अङ्गको आगम भी कहते हैं । श्वेताम्बर सम्प्रदाय के वर्तमान ग्यारह अङ्ग आजकल आगमके नामसे ही प्रसिद्ध हैं । जो परम्परासेर चला आया हो उसे श्रागम कहते हैं । अनुयोग द्वार सूत्र में आगमके तीन भेद किये हैं- आत्मागम अनन्तरागम और परम्परागम । तीर्थङ्कर केवलज्ञानके द्वारा स्वयमेव सब पदार्थों को जानते हैं इस लिए उनके अर्थको आत्मागम कहते हैं । गणधरोंके द्वारा रचे गये सूत्रोंको सूत्रागम कहते हैं । उन सूत्रों का ज्ञान गणधरोंके लिये आत्मागम है क्योंकि उन्होंने स्वयं उनकी रचना की है। किन्तु उन सूत्रोंमें निबद्ध अर्थ का ज्ञान अनन्तरागम है क्योंकि उस अर्थका ज्ञान उन्हें तीर्थङ्कर के उपदेशसे प्राप्त होता है । इसी तरह गणधरोंके शिष्योंका सूत्रज्ञान अनन्तरागम है, क्योंकि वह उन्हें गणधरोंसे प्राप्त होता है । तथा उनके अर्थ का ज्ञान परम्परागम है क्योंकि तीर्थङ्करोंसे अर्थका ज्ञान गणधरों को प्राप्त होता है, और गणधरोंसे उनके शिष्योंको प्राप्त होता है । इस लिये परम्परासे प्राप्त होनेके कारण उसे परम्परागम कहते हैं । गणधरोंके शिष्योंसे जो अर्थ ज्ञानकी परम्परा चलती है वह न तो आत्मागम है और न अनन्तरागम है । वह सब परम्परासे प्राप्त होने के कारण परम्परागम है । व्यवहार सूत्रमें प्रथम आचारांगसूत्र से लेकर अष्टम पूर्व पर्यन्त अङ्गों और पूर्वोको ता श्रुत कहा है और नवम आदि शेष पूर्वोको आगम कहा है । इस भेड़का कारण यह बतलाया १ - से किं तं श्रागमे ? दुविहे पण्णचे, तं जहा - लोईए अलोउत्तरिए अ ।'''''''से किं तं लोउत्तरिए ?...दुवालसँगं गणिपिडगं ।' - अनु०, पृ० १९२ । २ - ' गुरुपारम्पर्येणागच्छतीति श्रागमः । - अनु० टी०, सू० १४७ । ३५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६ जै० सा० ई० पू० पीठिका है कि जिससे अतीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञान हो उसे श्रागम कहते हैं । यद्यपि नवम आदि पूर्व भी श्रुत हैं किन्तु केवल ज्ञानकी तरह अतीन्द्रिय पदार्थों का विशिष्ट ज्ञान कराने में कारण होने से उन्हें आगम ही कहते हैं । प्रथम आचारांग से लेकर अष्टम पूर्व पर्यन्त शेष श्रुतके द्वारा अतीन्द्रिय पदार्थोंका वैसा ज्ञान नहीं होता। इसलिये उसे केवल श्रुत कहते हैं। इस तरह श्रुतसे आगमका विशेष महत्व बतलाया' है । यहां यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि समस्त आगमिक साहित्यको श्रुत' भी कहते हैं । 'श्रुत" का अर्थ होता है 'सुना हुआ' अर्थात् तीर्थङ्करोंसे सुनकर गणधर आगमों की रचना करते हैं । अतः मूलतः 'श्रुत' होने के कारण वह 'श्रुत' कहलाया । इसके विषय में पहले विशेष प्रकाश डाला गया है। ३ ऊपर कहा गया है परम्परासे आनेके कारण आगम कहते हैं । तो प्रश्न होता है परम्परासे श्रागत वस्तु शब्दरूप है अथवा १ 'गम्पन्ते अतीन्द्रियाः पदार्था येन स श्रागम इति व्युत्पत्तेः, नवम पूर्वादीनां श्रुतत्वाविशेषे केवलज्ञानादिवदतीन्द्रियार्थेषु विशिष्ट - ज्ञानहेतुत्वेन सातिशयत्वादागमत्वेनैव व्यपदेश: । शेषश्रुतस्य तु नातीन्द्रियार्थेषु तथाविधोऽवबोधस्ततो ऽस्मिन् श्रुतव्यवहारः ।" - अभि० रा० श्रागम' शब्द | 1 " २ ' तदावरणक्षयोपशमे सति निरूप्यमाणं श्रूयतेऽनेनेति तत् शृणोति, श्रवणमात्रं वा श्रुतम् । - सर्वार्थ० अ० १-६ सू० । 'श्रुतशब्दोंऽयं श्रवणमुपादाय व्युलादितोऽपि कस्मिंश्चिद् ज्ञानविशेषे वर्तते । - सर्वा०, १२० । ३' केवलिश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य | १३ | – तत्वार्थ०, ०६ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४७ श्रुतपरिचय अर्थरूप । अर्थात् तीर्थङ्कर जो उपदेश देते हैं क्या गणधरोंके द्वारा प्रथित अंगोंमें वहो उपदेश अक्षरशः रहता है अथवा उस उपदेशमें प्रतिपादित अर्थको लेकर गणधर उसे भाषाका रूप देकर निबद्ध करते हैं ? धवला' में कर्ताके दो भेद बतलाये हैं-अर्थकर्ता और ग्रंथकर्ता। भगवान महावीरने जो अर्थका कथन किया उसे इन्द्रभूति गौतम गणधरने तत्काल बारह अंगों और चौदह पूर्वरूप ग्रन्थों में रचा। अतः भावभु तके और अर्थ पदोंके कर्ता तो महावीर भगवान हुए और ग्रन्थरूप श्रु तके कर्ता गौतम गणधर हुए । इस तरह ग्रन्थ रचनाकी परम्परा प्रवर्तित हुई । विशेषावश्यक२ में लिखा है कि तीर्थङ्कररूपी कल्पवृक्षसे जो ज्ञानरूपी पुष्पोंकी दृष्टि होती है उन्हें लेकर गणधर मालामें गॅथ देते हैं। इस पर यह प्रश्न किया गया कि ऐसी स्थिति में तो तीर्थङ्करके कथनको ही श्रुत कहना चाहिए। गणधरके द्वारा रचित सूत्रोंमें उससे कोई विशेषता नहीं प्रतीत होती ? १ 'एवंविधो महावीरो अथकर्ता ।... "तदो भावसुदस्स अत्थपदाणं च तित्थयरो कत्ता । तित्थयरादो सुदपज्जाएण गौतमो परिणदोत्ति दरसुदस्त गोदमो कत्ता । तत्तो गंथरयणा जादा ।'-धव०, पु०१, पृ० ६४-६५ । २ 'तं नाण कुसुम बुद्धिं घेतुं वीयाइबुद्धो सव्व। गंथंति पवयगट्ठा माला इव चित्तकुसुमाणं ॥११११॥ विशे० भा०। ३ 'जिणभणिइ चिय सुत्तं गणहरकरणम्मि को विसेसो त्य ? ते तदविक्खं भासइ, न उ वित्थरो सुयं किंतु ॥१११८॥ विशे० भा० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८ जै० सा० इ० पू०-पीठिका उत्तर दिया गया कि तीर्थङ्करका कथन संक्षिप्त होता है। वह द्वादशांगरूप नहीं होता। उसको लेकर गणधर सूक्ष्म पदार्थोंका विवेचन करने वाले और महार्थं द्वादशांगकी रचना करते हैं। इसीसे द्वादशांगको सूत्र भी कहते हैं; क्योंकि जो गणधरके द्वारा कहा गया हो वह सूत्र है। उसी प्रकार जो प्रत्येकबुद्धोंके द्वारा, श्रुतकेवालियोंके द्वारा या अभिन्न दसपूर्वियोंके द्वारा कहा गया हो उसे भी सूत्र कहते हैं। चूँकि द्वादशांगकी रचना गणधर करते हैं इस लिए उन्हें सूत्र कहते हैं । ____ जयधव'लामें इस पर यह शंका की गई है कि-'जिसमें अल्प अक्षर हों, सन्देहोत्पादक न हो, जिसमें सार भर दिया हो, जिसका निर्णय गूढ़ हो, जो निर्दोष हो, सयुक्तिक हो और तथ्य १ 'तो सुत्तमेव भासइ अत्थप्पच्चायगं, न नामत्थं । गणहारिणो तं. चिय करेंति को पडिविसेसोऽत्थ ॥११२१।। सो पुरिसाविक्खाए थोवं भणइ न बारसंगाइ । अत्थो तदविक्खाए सुत्त चिय गणहराणं तं १११२२। अंगाइ सुत्तरयणा निरवेक्खों जेण तेण सो अत्यो । अहवा न सेसपवयणहियउत्ति जह बारसंगमिणं ।।११२३।। पवयणहियं पुण तयं जं सुहगहणाइ गणधरेहितो। वारसविहं पवत्तइ निउणं सुहुमं महत्थं च ॥११२४॥' -विशे० भा० २ 'सुत्तं गणधरगथिदं तहेव पत्तेयबुद्धकहियं च । सुदकेवलिणा कहियं अभिण्णदसपुव्वगधिदं च ॥३४॥' -भ० श्रारा० । ३ 'अल्पाक्षरमसंदिग्धं सारवद् गूढनिर्णयम् । निर्दोष हेतुमत्तथ्यं सूत्रमित्युच्यते बुधैः ।' एदं सव्वं वि सुचलक्खणं जिणवयणकमल विणिग्गय अत्थपदाणं चेव संभइ ण गणहरमुहविणिग्गयगंथरयणाए तत्थ महापरिमाणुत्तवलंभादोण सक ( सुत्त ) सारिच्छमस्सिदूण तत्थ वि सुत्ततं पडि विरोहाभावादो।' -ज० ध०, भा० १, पृ० १५४ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय भूत हो, उसे विद्वान सूत्र कहते हैं।' यह सम्पूर्ण सूत्र लक्षण तो तीर्थङ्करके मुखसे निकले हुए अर्थपदोंमें ही संभव है, गणधरके मुखसे निकली हुई ग्रन्थ रचनामें नहीं, वह तो बड़ी विस्तृत और विशाल होती है। इसका यह समाधान किया गया है कि गणधरके वचन भी सूत्रके समान ही होते हैं इसीलिए उन्हें भी सूत्र कहनेमें कोई विरोध नहीं आता। षट् खण्डागमके कृति अनुयोग द्वारकी धवला टीकामें वीरसेन स्वामीने तीर्थङ्करके मुखसे निकले हुए बीज पदोंको तो सूत्र कहा है क्योंकि उनमें सूत्रका उक्त लक्षण घटित होता है और गणधर देवके श्रु तज्ञानको सूत्रसम कहा है क्योंकि वह उन बीज पदरूपी सूत्रोंसे उत्पन्न होता है। _ अङ्गों और पूर्वोको सिद्धान्त भी कहते हैं। जेकोबी, बेबर आदि विदेशी लेखकोंने अपने लेखोंमें श्वेताम्बरीय आगमोंका निर्देश सिद्धान्त' शब्दसे ही किया है। इस प्रकार अङ्गों और पूर्वोको आगम, परमागम, सूत्र, सिद्धान्त' आदि नामोंसे पुकारा गया है । श्वेताम्बर आगमों में एक नाम नया मिलता है और वह नाम १ 'इदि वयणादो तित्थयरवयणविणिग्गय वोजपदं सुतं । तेण सुत्तण समं वादे उप्पजदित्ति गणहरदेवम्मि हिद सुदणाणं सुत्तसमं । -धवला. पु०६, पृ० २५६ । २--'तथा सिद्धान्तस्य परमागमस्य सूत्ररूपस्य' । -सागार० टी० अ०७, श्लो० ५० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० जै० सा० इ० पू०पीठिका है 'गणिपिडग' । 'दुवालसंग गणिपिडगं' निर्देश उपांगोंमें प्रायः मिलता है। गणी गणधरको कहते हैं और 'पिडग' कहते हैं पिटारेको। अत: 'गणि पिडग'का अर्थ है-गणधरका पिटारा या पेटी। ___ बौद्ध पालिनिकायको त्रिपिटक' कहते हैं। त्रिपिटक शब्द प्राचीन है। प्रथम शताब्दीके शिलालेखोंमें 'तेपिटक' शब्दका प्रयोग है। पिटकका अर्थ है 'पिटारा'। तीन पिटक होनेसे त्रिपिटक कहे जाते हैं। जैन अङ्गोंके लिए 'गणिपिटक' शब्दका प्रयोग उसीकी अनुकृति प्रतीत होता है । श्वेताम्बर सम्प्रदाय पर बौद्धोंका प्रभाव पड़ा, यह हम पहले बतला आये हैं। बौद्धोंकी तरह ही श्वेताम्बरोंमें भी तीन वाचनाएं हुईं। और बौद्ध त्रिपिटकोंके पुस्तकारूढ़ होनेके १०० वर्ष पश्चात् वलभीमें श्वेताम्बर आगम पुस्तकारूढ़ किये गये। इन सबको यदि अनुकृति न भी माना जाये तो भी पिटक शब्द तो अवश्यही उनकी अनुकृति प्रतीत होता है। दिगम्बरपरम्परामें इस नामका संकेत तक भी नहीं मिलता। __इन सब नामोंमें सबसे प्राचीन नाम अङ्ग ही प्रतीत होता है क्योंकि खारवेलके शिलालेख की १६वीं पंक्तिमें 'मुरियकालवोचिनं च चोयट्री अंग सतिकं तुरीयं का उल्लेख है जो मौर्यकाल में विच्छिन्न हुए अङ्गका सूचक है । १-'इच्चेइयंमि दुवालसंगे गणिपिडगे'--नन्दि०, पृ० २४६ । 'कई विहे णं भंते गणिपिडए णं पणत्त ? गोयमा! दुवालसंगे गणिपिडए पणत्त ।' -भग० २५ श° ३ उ० । २ बौ०ध००, पू० २७ । ३-ज०वि००रि०सो०, जि० पृ० २३६ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय बारह अंगोंके नाम आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञातृधर्मकथा, उपासकाध्ययन, अन्तकृदश, अनुत्तरोपपादिकदश, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र और दृष्टिवाद, ये बारह अंगोंके नाम दोनों सम्प्रदायोंमें समान हैं। इन बारह अंगोंमेंसे जो अन्तिम बारहवाँ अंग था, वह उक्त ग्यारहों अंगोंसे बहुत विशाल तो था ही, महत्त्वपूर्ण भी था। उसीके पाँच भेदोंमेंसे एक भेद पूर्व था और पूर्व के चौदह भेद थे। इन पूर्वोका महत्त्व शेष ग्यारह अंगो से बहुत अधिक था और इन्हींके कारण बारहवाँ अंग दृष्टिवाद सबसे महत्त्वशाली माना जाता था। दृष्टिवादका महत्त्व भगवान महावीरके समयमें भी संस्कृत भाषाका प्रचार था। वेद और वैदिक साहित्यकी भाषा संस्कृत ही है। इसीसे धर्मकी भाषा संस्कृत ही मानी जाती थी। किन्तु महावीर और बुद्धने लाक भाषाको ही अपने उपदेशोंका माध्यम बनाया, जिसे सब कोई सुगम रीतिसे समझ सकता था। फलतः जैन अंगों और पूर्वोकी भाषा प्राकृत थी। श्वेताम्बर साहित्यमें यह प्रश्न उठाया गया है कि जैन सिद्धान्त प्राकृत भाषामें ही क्यों रचे गये ? उत्तरमें कहा गया है कि बाल, स्त्री, और मन्द बुद्धियोंके अनुग्रहके लिये जैन सिद्धान्तों की रचना प्राकृतमें की गई है। विज्ञोंसे यह बात अज्ञात नहीं है कि दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायमें जिन तीन मुख्य बातों को लेकर मतभेद है, उनमेंसे एक स्त्री मुक्ति है। दिगम्बर सम्प्रदाय स्त्रियोंकी मुक्ति नहीं मानता अर्थात् स्त्री मुक्तिलाभ नहीं कर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ सकती । किन्तु श्वेताम्बर सम्प्रदाय स्त्रियोंको भी मुक्तिका अधिकारी मानता है । परन्तु श्वेताम्बर सम्प्रदाय में ' स्त्रियोंको दृष्टिवाद नामक बारहवें अंगके अध्ययनका अधिकार नहीं था । दृष्टिवादको छोड़कर शेष ग्यारह अंगोंको स्त्री, बालक आदि सब पढ़ सकते हैं। बल्कि दृष्टिवादका पठन निषिद्ध होनेसे स्त्रियोंको भी कुछ श्रुत प्रदान करनेको भावनासे ही ग्यारह अंग रचे गये । जै० ० सा० इ० पू० पीठिका इससे दृष्टिवादका महत्त्व और शेष ग्यारह अंगों की स्थिति पर पूर्व प्रकाश पड़ता है । दिगम्बर परम्परा में ग्यारह अंगों से बारहवे अंग दृष्टिवादका महत्त्वका नहीं प्रकट किया गया है किन्तु ग्यारह अंगों की अपेक्षा चौदह पूर्वोका अपना एक विशिष्ट स्थान अवश्य बतलाया गया है । और चौदह पूर्वोके कारण ही दृष्टिवादका वास्तवमें महत्त्व था पूर्वोका महत्त्व दिगम्बर परम्परा में आचार्य श्री कुन्दकुन्दने श्रुतकेवती भद्रबाहुका जयघोष करते हुए उन्हें बारह अंगों और चौदह पूर्वोका १. 'मुत्तू दिट्ठवायं कालिय-उक्कालियंग सिद्धतं । थी- वालवायणत्थं पाइयमुइयं जिणवरेहिं ।' -- चार दिनकर में उद्धृत । 'ननु स्त्रीणां दृष्टिवादः किमिति न दीयते ? इत्याह- 'तुच्छा गारव बहुला चलिंदिया दुव्वला घिईए । इय इसेसज्झरयणा भूयावाश्रो य नो थीणं ।। ५५२ ।। टीका - श्रनुग्रहार्थं तासामापि किञ्चत् श्रुतं देयमित्येकादशाङ्गादिविरचनं सफलमिति गाथार्थः । --विशे० भा० । २. 'बारस श्रृङ्गवियाण' चौद्दस पुब्बंग विउलवित्थरणं । सुयणाणि भद्दबाहु गमयगुरू भयवनों जयऊ ||६२|| - बोध पा० (षट् प्राभृतादि०) । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५३ श्रु तपरिचय ज्ञाता कहा है। इसी तरह आचार्य यति' वृषभने भी भगवान महावीरके पश्चात् होनेवाले पाँच श्रुतकेवलियोंको चउदसपुव्वी और बारस अंगधर कहा है । इन दोनों प्राचीन महान दिगम्बराचार्योंके द्वारा बारस अंगधर के साथ 'चउदस पुत्वी' का पृथक् उल्लेख न केवल ग्यारह अंगोंसे, अपितु बारहवें अङ्ग दृष्टिवादमें भी पूर्वोका महत्त्व ख्थापन करता है। ग्यारह अङ्ग और चौदह पूर्वोके ग्रहणसे भी द्वादशांगका ग्रहण हो सकता है और उससे भी पूर्वोका महत्त्व व्यक्त होता है । किन्तु द्वादशांगका ग्रहण करके भी पूर्वोका पृथक् ग्रहण करना पूर्वोके स्वतन्त्र अस्तित्व, स्वतन्त्र महत्त्व और स्वतन्त्र वैशिष्टयको व्यक्त करता है। ___ आचार्य यति वृषभने श्रुतकेवलियोंके पश्चात् होनेवाले ग्यारह आचार्योको 'दसपुत्री' कहा है। इसका मतलब यह है कि वे आचार्य ग्यारह अङ्गों और दसपूर्वोके वेत्ता थे। इससे यह प्रकट होता है कि जो पूर्ववेत्ता होता था वह ग्यारह अङ्गोंका वेत्ता होता ही था। संभवतया ग्यारह अङ्गोंके ज्ञानदानके पश्चात् ही पूर्वोका ज्ञान दिया जाता था। और इसीलिये महत्त्वशाली होते हुए भी पूर्वोकी गणना अन्तमें की गई है। षटखण्डागमके वेदना खण्ड के कृति अनुयोगद्वार के प्रारम्भ में सूत्रकार भूतबलिने ‘णमो जिणाणं' आदि ४४ सूत्रोंसे मंगल किया है । ठीक यही मंगल योनिप्राभृत ग्रन्थमें गणधर वलयमन्त्र के रूपमें पाया जाता है। यह ग्रन्थ धरसेनाचार्यने अपने शिष्य पुष्पदन्त और भूतबलिके लिये रचा था ऐसा कहा जाता है। उक्त ४४ मंगल सूत्रोंमेंसे दूसरे मंगल सूत्र ‘णमो ओहिजिणाणं' १ - 'पंच इमे पुरिसवरा चउदसपुव्वी जगम्मि विक्खादा । ते बारस अङ्गधरा तित्थे सिरि वड्डमाणस्स ॥१४८३॥' -ति० प० अ० ४ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४ जै० सा० इ० पू०-पीठिका की उत्थानिकामें टीकाकार श्री वीरसेन स्वामी ने लिखा है कि महाकर्म प्रकृति प्राभृतके प्रारम्भमें गौतम गणधरने ये मंगल सूत्र रचे थे। इन मंगल सूत्रोंमेंसे दो सूत्र इस प्रकार हैं- णमो दस पुब्बियाणं ॥१२॥' और "णमो चोदस पुब्बियाणं ॥१३॥” इनमें दसपूर्वियों और चतुर्दशपूर्वियोंको नमस्कार किया है। इन दोनों सूत्रोंकी धवलाटीकामें यह प्रश्न उठाया गया है कि सभी अङ्ग और पूर्व जिनवचन होनेसे समान हैं। तब सबका नाम लेकर नमस्कार क्यों नहीं किया, दस पूर्वियों और चतुर्दश पूर्वियोंको ही नमस्कार क्यों किया ? इसका उत्तर देते हुए लिखा है कि यद्यपि जिनवचन रूपसे सभी अङ्ग और पूर्व समान हैं. तथापि दशवें विद्यानुप्रवाद और चौदवें लोकबिन्दुसार पूर्वोका विशेष महत्व है, क्योंकि इनका धारी देवपूजित होता है तथा चौदह पूर्वोका धारक मिथ्यात्वको प्राप्त नहीं होता और न उस भवमें असंयमको ही प्राप्त होता है। ___णमो दस पुब्बियाणं' ॥ १२ ॥ सूत्रकी धवला टीकामें दस पूर्वी के दो भेद किये हैं-एक भिन्न दसपूर्वी और एक अभिन्न दस पूर्वी। आगे लिखा है कि 'ग्यारह अंगोंको पढ़कर पश्चात् परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका, इन पांव अधिकारोंमें निबद्ध दृष्टिवादको पढ़ते समय उत्पाद पूर्व आदिके क्रमसे पढ़ने वालोंके दशम पूर्व विद्यानुप्रवादके समाप्त होने पर सात सौ क्षुद्र विद्याओंसे अनुगत रोहिणी आदि पांच सौ महा १-'जिणवयणत्तणेण सव्वांगपुव्वेहि सरिसते संतेवि विज्जाणुप्पवादलोगर्विदुसाराणं महल्लमत्थि एत्थेव देवपूजोवलंभादो । चोद्दस पुबहरो मिच्छत्तण गच्छदि, तम्हि भवे असंजमं च ण पडिवज्जदि, एम! एदस्स विसेसो'। -षट्खं पु० ९ पृ० ७१ । २-पट्खण्डा०, पु० ६ पृ० ६६ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रु तपरिचय ५५५ विद्याएँ 'भगवन् ! क्या आज्ञा है, ऐसा कहकर उपस्थित ह ती है। इस प्रकार उपस्थित हुई सब विद्याओंके प्रलोभनमें जो श्रा जाता है वह भिन्न दसपूर्वी है। किन्तु जो कर्मक्षयका अभिलाषा होकर प्रलोभनमें नहीं आता वह अभिन्न दसपूर्वी कहलाता है। यहाँ अभिन्न दसपृवियोंको नमस्कार किया गया है क्योंकि भिन्न दस पूर्वियोंके महाव्रत खण्डित हो जाते हैं। ___ इस तरह दिगम्बर परम्परामें भी ग्यारह अंगोंसे पूर्वोका विशेष महत्व माना जाता था। __ श्वेताम्बर परम्परामें ग्यारह अंगोंसे दृष्टिवाद का वैशिष्टय पहले बतला आये हैं। अतः पूर्वोका महत्त्व तो स्पष्ट ही है। 'नन्दि सूत्रमें भी लिखा है कि चतुर्दश पूर्वी और अभिन्न दस पूर्वी का जो द्वादशांग ज्ञान है वह सम्यक् श्रुत है, अन्यों का द्वादशांग ज्ञान सम्यक भी होना संभव है और मिथ्या भी होना संभव है। बारह वर्षके भयानक दुर्भिक्षके पश्चात् जव पाटली पुत्रमें अंगों का संकलन किया गया तो ग्यारह अंगों का तो संकलन हो गया किन्तु पूर्वोका किञ्चित् अंश भी संकलित नहीं हो सका; क्योंकि उस समय श्रुतकेवली भद्रबाहुके सिवाय कोई अन्य पूर्वज्ञाता नहीं था। जब संघ की प्रार्थना पर भद्रबाहुने पूर्वोकी वाचना देना स्वीकार किया तब पांच सौ साधु उनके पास पूर्व पढ़नेके लिये भेजे गये । एक स्थूल भद्रके सिवाय शेष सब साधु घबराकर भाग खड़े हुए। अकेले एक स्थूलभद्र डटे रहे। यह पहले लिखा है। १-'इच्चेबदुवालसंगं गणीपिडगं चोद्दस पूठिबस्स सम्म सुश्र अभिण्ण दसपुव्विस्स सम्मसुत्र, तेण परं भिएणेसु भयणा, से तं सम्मसुअ॥ ४१ ॥-नन्दि०, पृ० १६२ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ० पू०-पीठिका दस पूर्वोका अध्ययन करनेके पश्चात् ध्यान समाप्त होनेसे भद्रवाहु स्वामी पाटली पुत्र आ गये। उनके साथ स्थूलभद्र भी आ गये। स्थूलभद्र की भगिनी अन्य आर्यिकाओंके साथ अपने भाईसे मिलने गई। किन्तु स्थूलभद्रके स्थान पर एक सिंहको बैठे देखकर डरकर भागीं। इस तरह दस पूर्वी होनेके पश्चात् स्थूलभद्र विद्याओंके प्रलोभनमें आ गये। जैसा कि ऊपर भिन्नदस पूर्वी के लिये कहा है। इसीसे भद्रबाहुने उन्हें शेष चार पूर्वांकी वाचना देना बन्द कर दिया। पोछे स्थूलभद्रके क्षमा मांगने पर वाचना दी। __ पूर्व नाम क्यों ? - श्वेताम्बर साहित्यमें पूर्वोको पूर्व नाम देनेका कारण बतलाते हुए लिखा है कि सबसे प्रथम गणधर पूर्वोकी रचना करते हैं इसलिये उन्हें पूर्व कहते हैं। ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि तीर्थङ्कर जब तीर्थ का प्रवर्तन करते हैं तो सबसे प्रथम पूर्व १---'पूर्व पूर्वाण्येवोपनिबध्नाति गणधरः इत्यागमे श्रूयते, पूर्वकरणादेव चैतानि पूर्वाण्यभिधीयते ।' ___ --विशे. भा. गा. ५५१ की उत्थानिका ( टीका हेम.) 'समस्तश्रुतात् पूर्व करणात् पूर्वाणि ।' स्था. टीका, सूत्र २६३ । २----अथ किं तत् पूर्वगतम् ? उच्यते-यस्मात् तीर्थङ्कराः तीर्थप्रवतनाकाले गणधराणां सर्वश्रुतधारित्वेन पूर्वगतसूत्रार्थ भाषते, तस्मात् 'पूर्वाणि' इति भणितानि। गणधराः पुनः श्रुतरचनां विदधानाः श्राचारादिक्रमेण रचयन्ति स्थापयन्ति च-- 'सर्वाङ्गेभ्यः पूर्व तीर्थककरैरभिहितत्वात् पूर्वाणि'-अभि.चि.टी., २-१६० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय ५५७ गत सूत्रों का अर्थ करते हैं । इस लिये उन्हें पूर्व कहते हैं । कल्प ' सूत्र में लिखा है कि 'पूर्व (प्रथम) रचे जानेके कारण, महा प्रमाण वाले होने के कारण तथा अनेक विद्या और मंत्रोंका भण्डार होनेके कारण पूर्वोका प्राधान्य है । इस तरह अखण्ड जैन परम्परा में दृष्टिवाद तथा पूर्वोका विशेष महत्त्व था । दृष्टिवादका लोप दिगम्बर तथा श्व ेताम्बर परम्परा में श्रुतकेवली भद्रबाहु पर्यन्त द्वादशाङ्ग अविकल रूपसे सुरक्षित थे । मद्रवाहुके अवसानके साथ ही पूर्वोका लोप होना प्रारम्भ हुआ। दिगम्बर परम्परा के अनुसार श्रुत केवली भद्रबाहुके पश्चात् कोई चतुर्दशपूर्व ज्ञाता नहीं हुआ। भद्रवाहुके उत्तराधिकारी विशाखाचार्य केवल दसपूर्वी थे । अन्तके चार पूर्व श्रुतकेवली भद्रबाहुके साथ ही लुप्त हो गये । यद्यपि श्व ेताम्बर परम्परा में भद्रबाहु श्रुतकेवलीके पश्चात् स्थूलभद्रको भी छठा श्रुतकेवली माना है । इसके विषय में पहले लिख आये हैं । तथापि उनके साथ चार पूर्व विच्छिन्न हो गये । दिगम्बर साहित्य के अनुसार श्रुतकेवली भद्रबाहुके पश्चात् गुरुशिष्यपरम्पराके क्रमसे १८३ वर्ष में ग्यारह आचार्य दस पूर्वी हुए । अर्थात् वे ग्यारह अंगों और दस पूर्वोके ज्ञाता थे तथा शेष चार पूर्वो के एक देश ज्ञाता थे । इनके बाद दो सौ | १ –– 'द्वादशाङ्गित्वं' इत्येतेनैव चतुर्दशपूर्वित्वे लब्धे यत्पुनरेतदुपादानं तदङ्गेषु चतुर्दश पूर्वाणां प्राधान्यख्यापनार्थं, प्राधान्यं च पूर्वाणां पूर्वं प्रणयनात् अनेकविद्यामंत्राद्यर्थमयत्वात् महाप्रमाणत्वाच्च ।' - कल्प. सुबो, पृ. १८५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ० पू०पीठिका बीस वर्ष में पाँच आचार्य सम्पूर्ण ग्यारह अंगों के तथा चौदह पूर्वोके एक देश के ज्ञाता हुए। उनके पश्चात् एक सौ अट्ठारह वर्ष में चार आचार्य सम्पूर्ण आचारांग के साथ ही साथ शेष अंगों और पूर्वोके एक देशके ज्ञाता हुए। इस तरह छ सौ तिरासी वर्ष पर्यन्त अर्थात् विक्रमकी द्वितीय शताब्दीके पूर्वार्ध तक दिगम्बर परम्परामें अंगोंके साथही साथ पूर्वोका भी एक देशज्ञान प्रवर्तित रहा । और अन्तमें धरसेन स्वामीने पूर्वोका विशकलित ज्ञान भूतबलि और पुष्पदन्तको दिया, जिन्होंने पट्खण्डागम सूत्रोंको निबद्ध किया। श्वेताम्बर परम्परामें स्थूल भद्रके पश्चात् महागिरी सुहस्तीसे लेकर वज्रस्वामी पर्यन्त दसपूर्वी हुए । वज्रस्वामीके पश्चात् कोई दसपूर्वी नहीं हुआ। स्थाविरावलीके अनुसार वि० सं११४ में वज्रस्वामी स्वर्गवासी हुए। तत्पश्चात् दुब्ब लिया ( वि० सं० १४६) के समय ह। पूर्व शेष थे। दुर्वलिका पुष्यमित्र और उनके गुरु आर्य रक्षितको नौ पूर्वी कहा है । जिस समय ( वि० नि० ९८०) वल्भीनगरीमें देवर्द्धि गणि ने अंगोंको पुस्तकारूढ़ किया उस समय केवल एक पूर्व शेष था । पश्चात् वह भी लुप्त हो गया। इस तरह श्वेताम्बर परम्पराके अनुसार वीर निर्वाणके एक हजार वर्षे बीतने पर पूर्वोका लोप हो गया। और पूर्वोके साथ ही बारहवा अंग दृष्टिवाद भी लुप्त हो गया। क्या दृष्टिवादका लोप जान बूझकर किया गया ? डा० वेबर ने श्वेताम्बरीय आगमिक साहित्यके विषयमें एक विस्तृत आलोचनात्मक निबन्ध लिखा था जिसका अनुवाद १-महागिरि सुहस्त्याद्या वज्रान्ता दशपूविणः ॥ ३४ ॥'-अभि० चि०, १ का। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रु तपरिचय ५५६ इण्डियन एण्टीक रीमें प्रकाशित हुआ था। उसमें उन्होंने यह लिखा है कि दृष्टिवादका लोप जान बूझ कर किया गया। यहाँ उसके सम्बन्ध में विवेचन किया जाता है। ____ यद्यपि श्वेताम्बरोंके छठे, आठवें और दसवें अंगोंमें चौदह पूर्वोका उल्लेख मिलता है, तथापि दृष्टिवादका उल्लेख चौथे 'समवायांगके सिवाय अन्य अंगोंमें नहीं मिलता। हां, उपांगोंसे वारह अंगोंका अस्तित्व अवश्य प्रकट होता है । यद्यपि ८ से १२ तक उगंगों में, जो अन्य उपागोंसे प्राचीन माने जाते हैं, ११ अंगों का ही उल्लेख है। किन्तु प्रथम उपांग औपपातिक में चउदसपुन्नी, और 'दुवालमंगिनो पद आता है, तथा चतुर्थ उपांग के आरम्भमें दिट्ठोवाअ' और 'पुव्वसुयं' पद आया है । इनके सिवाय उपांग ५ और ७, पूर्वोका पाहुड़ों में विभाजन बतलाते हैं तथा उपांग ६ के अनुसार पूर्वोका वस्तुओंमें विभाजन था। अतः अंगोंकी अपेक्षा उपांगोंसे पूवोंके सम्बन्धमें विशेष जानकारी प्राप्त होती है। श्वेताम्बर परम्परा बारह अङ्गोंको तरह बारह' उपांग १-'नवरं सामाइयमाइआई चोहसपुन्नाई अहिजई'-अन्तगड०, पृ०७। २–'दुवाल संगे गणि पिडगे "दिट्ठीवाए ।'-समवा०, पृ०१३६ । ३–'सामाइयमाइयाइ एक्कारस अङ्गाई-निरया०, पृ० ३१, ४-'दुवालसंगिणो समत्तगणिपिडगधरा,-अोप०, सू० १६ । ५-ौपपातिक; रायपसेणी, जीवाभिगम, प्रज्ञापना, सूर्य प्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, कल्पिका, कल्पावतंसिका, पुष्पिका पुष्पचूलिका और वृष्णिदशा ये बारह उपाग हैं । नं ८ से १२ तकको निरयावली कहते हैं । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० जै० सा० इ० पू०-पीठिका भी मानती है और अङ्गोंका उपांगोंके साथ घनिष्ट सम्बन्ध भी स्वीकार करती है। इस परसे डा० वेबर ने यह अनुमान किया था कि जिस समय वर्तमान बारह उपांगो की स्थापना की गई, अर्थात् ग्यारह अङ्गोको पुस्तकारूढ़ करते समय वी. नि. रू०६८० में बारहों अङ्गोका अस्तित्व था । फलतः दृष्टिवाद भी उस समय वर्तमान था अथवा वर्तमान माना जाता था। ___ डा० वेबरने लिखा है कि 'पूर्वोके लोपकी उक्त सूचनाके बावजूद भी समवायांग तथा नन्दिसूत्रमें हम दृष्टिवादकी विस्तृत विषयसूची पाते हैं। सम्भवतया समवायांगमें यह अंश पीछेसे जोड़ा गया है और नन्दिसूत्रसे ही लिया गया जान पड़ता है।' ____समवायांग और नन्दिसूत्रके सिवाय महानिशीथ, अनुयोग द्वार और आवश्यक नियुक्तिमें भी 'दुवालसंगं गणिपिडगं'का उल्ल ख प्रायः आया है। अतः ऐसा प्रतीत होता है कि इन ग्रन्थोंके समयमें दृष्टिवाद वर्तमान था, तथा अखण्ड था; क्योंकि उसके खण्डित होनेका कोई निर्देश उनमें नहीं है। परम्पराके अनुसार वीर निर्वाणके १७० वें वर्षमें भद्रवाहु स्वर्गवासी हुए। किन्तु दो ग्रन्थोंमें, जिनमें 'दुवाल संगं गणि पिडगं" निर्देश मिलता है, ऐसे कालका उल्लेख है जो ४०० वर्ष पश्चात्का है, अतः डाक्टर वेबरका कहना है कि पाटलीपुत्र में अंगोंके संकलन आदि की समस्त परम्परा मुझे बौद्धोंके अशोक द्वारा बुलाई गई संगीति आदिकी अनुकृति मात्र ही लगती है, और इसलिए उसकी विश्वसनीयताका दावा कोई मूल्य नहीं रखता।' इस विषयमें हम 1-'Where as in two of the tescts, which mention the DUVALSNGAMGANIPID AGAM' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय ५६१ अपने विचार पहले लिख आये हैं। उपांग छै जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति की टीकामें टीकाकार शान्तिचन्द्रने कुछ प्राचीन' गाथाएँ दी हैं जो डा. वेबरने अपने लेखमें उद्धृत की हैं। उन गाथाओंमें केवल छै अंगों और तीन छेद सूत्रोंका निर्देश करके यह there are contained dates which refer to a period later by 400 years. The whole legend appears to me after all to be nothing more than an imitation of the Budhist legend of the council of Ashok etc. And thus to have little claim to credence. इ० ए० जि० १७ पृ० २७६. । १-'तिवरिसपरियागस्त उ अायारपकम्पनाममज्झयणं । चऊवरिसस्स य सम्म सूयगडं नाम अंगं ति ॥१॥ दसकप्पववहारा संवच्छरपणगदिक्खियस्से वा। थाणं समवाश्रो चिय अंग एते अट्ठवासस्स ॥२॥ दसवासस्स विवाहो एगारसवासगस्स इमे उ। खुद्दियविमाणमाए अज्झयरणा पंच णायव्वा ॥३॥ वारसवासस्स तहा अरुणोवायाइ पंच अज्झयणा । तेरसवासस्स तहा उहाण सुयाइया चउरो ॥ ४ ॥ चोद्दस वासस्स तहा श्रासीविसभावणं जिणा वेति । पन्नरसवासगस्स य दिट्ठाविसभावनं तहा य ॥५॥ सोलसवासाईसु य एगुत्तरबुड्डिऐसु जह संखं । चारण भावणमह सुविण भावणा ते अगनिसग्गा ॥६॥ एगूण वासगस्स दिहिवाश्रो दुवाल संगं । संपुन्नवीसवरिसो अणुवाई सव्वसुत्तस्स चि ॥ ७ ॥' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका बतलाया है कि दीक्षा लेनेके कितने वर्षोके पश्चात् किस ग्रन्थको पढ़ना चाहिये। हमें व्यवहार सूत्र में उसी प्रकारका कथन मिला है। जिसका आशय इस प्रकार है-तीन वर्षके दीक्षित निर्ग्रन्थ श्रमणको आचार प्रकल्प नामक अध्ययन पढ़ाना उचित है। चार वर्षके दीक्षित निर्ग्रन्थ श्रमणको सूत्रकृतांग पढ़ाना उचित है। १-'तिवास परियायस्स समण्यस्स णिग्गंथस्स कप्पह श्रायारकप नामं अज्झयणे उद्दिसित्तए ॥ २१॥ चउवास. कप्पइ सुयगडे नामं अंगे उद्दिसित्तए ।॥ २२ ॥ पंचवास परियायस्स० कप्पति दसाकप्पववहारा अोद्दिसित्तए वि ॥ २३ ॥ अट्ठवास परियायस्स० ठाणसवमवाए उद्दिसित्तए । २४ ।। दसवास परियागस्स० विवाहे नाम अंगं उद्दि० ॥ २५ ।। एक्कारस वास परियागस्त० खुड्डिया विमाणविभत्ति महल्लिया विमाणपवित्ती अङ्गचूलिय वंगचूलिया विवाहचूलिया नाम अज्झयणमुद्दिसित्तए ॥ २६ ।। वारसवास परियागस्स० अरुणोववाए गहलोववाए वरुणोववाए वेसमणोववाए वेलधरोववाए नाम अज्झयणं उद्दिसिउं ॥ २७ ॥ तेरसवास परियागस्स० उट्ठाणसुए समुट्ठाणसुए देविंदोववाए णाग परियावणियाए ॥ २८ । च उदसपरियागस्स० सुमिणभावण नामं अज्झयणमुद्दिसित्तए ।॥ २६ ॥ पण्णरसवासपरियायस्स० चारणभावना नामज्झयणमुद्दिसित्तए ।। ३०॥ सोलसवासपरियायस्स० तेनिसग्गा नाम अज्झयणमु० ॥ ३१ ॥ सत्तरसवासपरियायस्स० श्रासीविसमावणा० ॥ ३२ ॥ अट्ठारसवास० दिट्ठिविसभावण नाममज्झयणमुद्दिसित्तए ॥ ३३ ॥ एगुणवीसवास० दिहिवाय नामग • उद्दिसित्तए ॥ ३४ ॥ विसतिवास परियाए समणे निग्गंथे सव्वसुया. गुवाती भवति ॥ ३४ ॥-व्यवहार० सू०, १०३. । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय ५६३ पांच वर्षके दीक्षित निर्ग्रन्थ श्रमणको दसा-कल्प व्यवहार पढ़ाना उचित है । आठ वर्षके दीक्षित् निग्रंथ श्रमणको स्थानांग, समवायांग पढ़ाना उचित है। दस वर्षके दीक्षित श्रमणको व्याख्या प्रज्ञप्ति नामक अंग पढ़ाना उचित है। ग्यारह वर्ष के दीक्षित निग्रन्थ श्रमणको क्षुद्र विमान विभक्ति, महाविमान विभक्ति, अंगचूलिका, वंग (वर्ग) चूलिका, और विवाह चूलिका नामक अध्ययन पढ़ाना उचित है। बारह वर्षके दीक्षित निर्ग्रन्थ श्रमणको अरुणोपपात वरुणोपपात, गरुडोपपात, बेलंधरौपपात, और वैश्रमणोपपात नामक पांच अध्ययनोंको पढ़ाना उचित है । तेरह वर्ष के दीक्षित् निग्रन्थ श्रमणको उत्थान श्रुत, समुत्थान श्रुत, देवेन्द्रो - पपात और नागपरियापनिका पढ़ाना उचित है । चौदह वर्ष के दीक्षित निग्रन्थ श्रमणको स्वप्न भावना नामक अध्ययन पढ़ाना उचित है । पन्द्रह वर्ष के दीक्षित निग्रन्थ श्रमणको चारण भावना नामक अध्ययन पढ़ाना उचित है । सोलह वर्ष के दीक्षित निग्रन्थ श्रमणको तेजोनिसर्ग नामक अध्ययन पढ़ाना उचित है । सतरह वर्षके दीक्षित निग्रन्थ श्रमणको अशीविष भावना नामक अध्ययन पढ़ाना उचित है । अट्ठारह वर्षके दीक्षित निग्रन्थ श्रमणको दृष्टि विषभावना पढ़ाना उचित है । उन्नीस वर्षके दीक्षित निग्रन्थ श्रमणको दृष्टि वाद नामक अङ्ग पढ़ाना उचित है । इस प्रकार बीसवर्षका दीक्षित निर्ग्रन्थ श्रमण समस्त श्रुतका पाठी होता है । शान्तिचन्द्र के द्वारा उद्भुत गाथाओं में तथा उक्त सूत्रों में आचार सूत्रकृत, स्थान, समवाय, व्याख्या प्रज्ञप्ति और दृष्टिवाद नामक केवल है श्रङ्गों का ही निर्देश किया गया है- शेष का नहीं किया गया । उनके सिवाय जिनका निर्देश किया गया है, दोनोंके निर्देशों में उनकों लेकर कुछ अन्तर है । गाथाओंके अनुसार चौदह वर्ष के Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ जै० सा० इ०-पूर्व-पीठिका दीक्षितको आशीविषभावना, पन्द्रह वर्षके दीक्षितको दृष्टिविषभावना और सोलह वर्षके दीक्षितको चारण भावना,सतरह वर्षके दीक्षितको महास्वप्न भावना और अट्ठारह वर्षके दीक्षितको तेजो निसर्ग भावना, पढ़ाना उचित है। किन्तु व्यवहार सूत्रके अनुसार चौदह वर्षके दीक्षितको स्वप्न भावना, पन्द्रह वर्षके दीक्षितको चारण भावना, सोलह वर्षके दीक्षितको तेजोनिसर्ग भावना, सत्रह वर्षके दीक्षितको आसीविष भावना और अट्ठारह वर्षके दीक्षित को दृष्टिविष भावना पढ़ाना उचित है। इस अन्तरका कारण क्या है हम नहीं वह सकते । ___ डा. वेबरका कहना है कि उक्त गाथाओंमें अङ्गोंके सिवाय जो आठ नाम पाये जाते हैं वे नन्दिसूत्रमें नहीं है। अतः इन गाथाओंका निर्माण उस समय हुआ था, जब वर्तमान आगमोंके अवशिष्ट भाग उनमें सम्मिलित नहीं किये गये थे और उनका स्थान लुप्त हुए उन आठ अध्ययनोंने ले रखा था, जिनका निर्देश उक्त गाथाओंमें पाया जाता है। ___ हम नहीं समझते कि डा० वेबर जैसे बहुदर्शी विद्वानने यह कैसे लिखदिया कि उक्त गाथाओंमें छै अङ्गोंके सिवाय जो अन्य आठ नाम दिये हैं, वे नन्दीसूत्रमें नहीं हैं। आगे हम नन्दिसूत्रके अनुसार श्रुतके भेदोंका विवेचन करेंगे। उनमें कालिक श्रुतके भेदोंमें प्रायः उक्त सभी नाम दिये हुए हैं। ये सब अङ्ग साहित्य न होकर अङ्गवाह्य साहित्य था। ___ इसी तरह डा० वेबरने उक्त गाथाओंको प्राचीन बतलाया हे क्योंकि उनमें दृष्टिबाद नाम आया है और इस लिए गाथाओंके रचना कालके समय दृष्टिवादका अस्तित्व स्वीकार किया है। किन्तु उक्त गाथाएँ हरिभद्रसूरिके पश्चवस्तुक नामक ग्रन्थसे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय ५६५ उद्ध तकी गई है। शान्तिचन्दने जम्बद्वीप प्रज्ञप्तिकी टीकामें इति पञ्चवस्तुक सूत्रे' लिखकर स्वयं इस बातको स्वीकार किया है। हरिभद्र सूरिका समय ईसाकी आठवीं शताब्दी सुनिश्चित है उस समय दृष्टिवाद नहीं था। फिर भी हरिभद्र सूरिने जो पञ्चवस्तुक की उक्त गाथाओं में उक्तग्रन्थोंके पठन पाठनका काल बतलाया है वह अवश्य ही उन्हें परम्परा प्राप्त होनेसे प्राचीन होना चाहिए। उन्होंने स्वयं उसे स्वीकार किया है। __ श्वेताम्बर साहित्यमें अङ्गोंका निर्देश करने वाले वाक्योंके कई रूप मिलते हैं। किन्तु डा० बेवर ने दो का ही निर्देश करते हुए लिखा है-जहाँ कहीं बारह अङ्गों के नाम गिनाये हैं तो पहला अङ्ग का नाम 'आचार' दिया गया है। किन्तु जब अङ्गों का निर्देश संख्यापरक न होकर साधारण रीति से किया गया है तब उनका निर्देश 'सामायिक, आदि करके किया गया है । यथा'सामाइयमाईयं सुयनाणं जाव विंदुसाराओ (आव०नि०६३)। अनुयोगद्वार सूत्र, आवश्यक सूत्र और नन्दिसूत्र में 'दुवाल संग गणि पिडगं' का वर्णन करते हुए आचार को प्रथम स्थान दिया है। कहीं पर भी प्रथम अङ्ग का नाम सामायिक नहीं बतलाया, आचार ही सर्वत्र बतलाया है। इस तरह से दो प्रकार का निर्देश देखकर डा. वेबर को बड़ा आश्चर्य हुआ था। उन्होंने लिखा है कि 'सामायिकको आदि लेकर ग्यारह अङ्गोंका निर्देश करनेवाले वाक्य यदि आचारको लेकर बारह अङ्गोंका कथन करने वाले वाक्यों से प्राचीन हैं तो यह स्वतः सिद्ध है कि ग्यारह अंगों १-काल कमेण पत्तं, संवच्छर माहणाअो जं जम्मि । तं तम्मि चेव धीरो वा पञ्जासोय कालो यं ॥ ५८१ ।।-पञ्चव० २- इं० एं०, जि०, १७, पृ० २६२ आदि । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका में बाद को बारहवाँ अंग मिलाया गया है । वास्तव में तो बारहवाँ अंग बहुत पहले नष्ट हो चुका था। केवल इस स्थिति से हम यह अनुमान कर सकते हैं कि दृष्टिवाद तथा शेष ज्यारह अंगों के मध्य में एक प्रकार का विरोध तथा एक सुनिश्चित असम्बद्धता थी। उसी के कारण दृष्टिवाद को लुप्त होना पड़ा। अपने इस कथन के समर्थन में हमारे सन्मुख आज भी प्रमाण हैं।' दृष्टिवाद और शेष ग्यारह अगों के मध्य में स्थित विरोध और असम्बद्धता का प्रदर्शन करने से पहले हम उक्त दो प्रकार के वाक्यों के सम्बन्ध में थोड़ा सा प्रकाश डाल देना उचित समझते हैं। आव नि० में (गा० ६३ में ) उक्त वाक्यमें श्रुतज्ञान को सामायिक से लेकर विन्दुसार पर्यन्त बतलाया है। श्रुतज्ञानमें सम्पूर्ण श्रुत का समावेश होता है । श्रुत के दो भेद हैं- एक अंग पविट्ठ और दूसरा अणंग पविट्ठ या अग बाह्य । इन दोनों में अग पविठ्ठ' को ही द्वादशांग श्रुत ज्ञान कहते हैं। वह गणधरों के द्वारा ग्रथित होता है उसके अविकल ज्ञाता श्रुत केवली कहलाते हैं। दूसरा भेद अणंग पविट्ठ या अंग बाह्य-अपने २-तं जहा-अंगपविट्ठ अंगबाहिरं च । से किं तं अंगबाहिरं ? अंग बाहिरं दुविहं पण्णत्तं, तं जहा-श्रावस्सयं च श्रावस्सयवइरित्तं च । से किं तं श्रावस्सयं ? श्रावस्सयं छब्बिहं पण्णातं । तं जहां-सामाइयं चउवीसत्यत्रो, वंदणयं, पडिक्कमणं काउस्सग्गो पच्चक्खाणं, सेत्त श्रावस्सयं....'-नन्दी, स. ४४ । 'श्रुतं मति पूर्व द्वयनेक द्वादश भेदम् ॥ २० ॥ तत्वा' सू० अ० १। 'सुतावास गमादी चोद्दस पुव्वीण तह जिणाणं च ॥१८५ ॥'-व्य० सू०, ६ उ० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६७ श्रुतपरिचय नामके अनुसार द्वादशांगसे बाह्य होता है और उसकी रचना पारातीय पुरुष करते हैं । इस तरह श्रुत के भेदों में मुख्य अंग पविठ्ठ ही है । किन्तु वर्णन करते समय पहले अणंग पविट्ठ या अंग बाह्यको स्थान दिया गया है, तत्पश्चात् क्रमशः अग पविट्ठ को स्थान दिया गया है। श्वेताम्बर तथा दिगम्बर दोनों सम्प्रदायोंके साहित्यमें प्रायः यही क्रम देखने में आता है। श्वेताम्बर परम्परामें अगबाह्यके दो मूल भेद हैं आवश्यक और आवश्यक अतिरिक्त । तथा आवश्यक के छै भेद हैं जिनमें प्रथम भेद का नाम सामायिक है। अब यदि अगबाह्य का कथन किया जाये तो वह सामायिक आवश्यकसे प्रारम्भ होगा । उधर अग पविठ्ठ के बारह भेदों में अन्तिम बारहवाँ भेद दृष्टिवाद है। और दृष्टिवादके पाँच भेदोंमें प्रमुख चौदह पूर्व हैं । और अन्तिम चौदहवें पूर्व का नाम लोक बिन्दुसार है जिसका संक्षिप्त नाम बिन्दुसार भी है। अतः श्रुत' सामायिक से लेकर बिन्दुसार पर्यन्त जानना चाहिये। उसमें अग बाह्य और अगपविट्ठ दोनोंका समावेश हो जाता है। १–'तत् श्रुत ज्ञानं सामायिकमादिर्यस्य तत् सामायिकादि यावत् विन्दुसारात्-विन्दुसारं यावत्, बिन्दुसाराख्य चतुर्दशपूर्वपर्यन्तमित्यर्थः ।' आव० म० टी०, पृ० ११६ । 'तच्च श्रुत ज्ञानं सामायिकादि वर्तते, चरयाप्रतिपत्तिकाले सामायिकस्यैवादौ प्रदानात् । यावद् विन्दुसारादिति विन्दुसाराभिधानं चतुर्दश पूर्वपर्यन्त मित्यर्थः ।-विशेषा• भा०, हे० टी०, गा० ५१२६ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका दिगम्बर परम्परा के सिद्धान्त ग्रन्थों की टीका' धवला और जयधवला२ में श्रु तका वर्णन सामायिकसे लेकर विन्दुसार पर्यन्त ही क्रमसे किया गया है । अतः डा० वेवर ने आव० नि० की जिस गाथांश की उद्ध त किया है उसमें श्रुत ज्ञान को लेकर निर्देश किया गया है। तथा जहाँ द्वादश गणि पिडगका निर्देश है वहाँ आचारांगको आदि लेकर निर्देश है; क्योंकि बारह अगों में प्रथम अंग आचार और अन्तिम अग दृष्टिवाद ही सर्वत्र बतलाया है। अावश्यकनिमें जो सामायिकको आदि लेकर कथन किया है, सो वहाँ सामायिक आचारका स्थानापन्न नहीं है, जैसा कि डा० वेवर ने समझा है । किन्तु जैसे द्वादशांग में आचारकी मुख्यता होने से उसे प्रथम स्थान दिया गया है वैसे ही अङ्ग बाह्यमें सामायिक आदि षडावश्यकों की मुख्यता है और षडावश्यकों में भी सामायिक की मुख्यता है क्यों कि आचार धारण करते समय सर्व प्रथम सामायिक संयम ही धारण किया जाता है। ____ हां, निरयावलीमें सामायिक आदिसे लेकर भी एकादशांग पर्यन्त ही ग्रहण किया है, दृष्टिवादको छोड़ दिया है, किन्तु उसका कारण वह नहीं है जो डा० बेबरने समझा है। वहाँ दृष्टिवादको ग्रहण न करनेका कारण शास्त्रीय परम्परा है। उस वाक्यमें बतलाया है कि-'पद्म नामका अनगार (मुनि) भगवान १-'अत्याहियारो दुविहो, अंगबाहिरो अंगपइट्ठो चेदि । तत्थ अगबाहिस्य चौद्दस अत्याहियारा तं जहा सामाइयं । -षटखं०, पु०, १, पृ०६६ । अंगमणंग मिदि बे अत्थाहियारा, सामाइयं...चोद्दसविहमणंगसुदं"-षटख०, पु० ६, पृ० १८८- । २-क० पा०, भा० १, पृ०६७। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय ५६६ महावीरके अनुयायी स्थविर अनगारोंके पास सामायिकको आदि लेकर ग्यारह अङ्गोंको पढ़ता था ।' यह घटना महावीरके समयकी है। यह हम पहले लिख आये हैं कि श्वेताम्बर परम्पराके अनुसार एकादशांगको सब कोई पढ़ सकते थे अतः उनका ज्ञान सबको रहता था, किन्तु दृष्टिवादका अध्ययन और ज्ञान सबके लिए सुलभ नहीं था। शायद इसीसे निरयावलीमें बिन्दुसार पर्यन्त का ग्रहण न करके एकादशांगका ही ग्रहण किया है। अतः दृष्टिवादको पीछेसे सम्मिलित किये जानेका जो अनुमान डा० बेबरने किया था, वह ठीक प्रतीत नहीं होता। जैन सिद्धान्त में भिन्न भिन्न दृष्टियोंसे भिन्न स्थानों पर विभिन्न प्रकारसे कथन करनेकी परम्परा है। उन दृष्टियोंको समझे बिना उनकी सङ्गति नहीं बैठाई जा सकती । अस्तु । इस प्रकार डा० वेबरने श्वेताम्बरीय साहित्यसे प्राप्त उल्लेखों के आधार पर दृष्टिवादका अस्तित्व प्रमाणित करनेकी चेष्टाकी थी। तब यह प्रश्न पदा होता है कि दृष्टिवाद यदि वर्तमान था तो उनका लोप क्यों किया गया ? इसके उत्तरमें डा० बेबरने लिखा है-'निश्चयपूर्वक हम कमसेकम यह निर्णय करने में समर्थ हैं कि बारहवें अङ्ग और शेष ग्यारह अङ्गोंके मध्यमें गम्भीर अन्तर था। हेम चन्द्र के परिशिष्ट पर्व तथा अन्य स्रोतोंसे यह स्पष्ट है कि दृष्टिवादके यथार्थ प्रतिनिधि भद्रबाहु थे और पाटली. पुत्रमें एकत्र जैनसंघसे उनका विरोध हो गया था । बारहवें अंगके उद्धरणोंमें सुरक्षित वर्णनोंसे इस विरोधके कारणोंकी जांच की जा सकती है। उनके अनुसार दृष्टिवादके पांच भेदोंमें से प्रथम दो भेदोंमें अन्य विषयोंके सिवाय आजीविक और त्रैराशिक नामक १-६० एं०, जि० १७, पृ० ३३९.३४० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७० जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका दो विरोधी दृष्टियोंका भी वर्णन था। सम्भवतया इसके द्वारा 'दृष्टिवाद' नामकी व्याख्याकी जा सकती है। दृष्टिवादका तीसरा भेद चौदह पूर्व थे । सम्भवतया पूर्वोका विषय श्वेताम्बर सम्प्रदाय के सर्वथा अनुकूल नहीं था और धीरे-धीरे श्वेताम्बर सम्प्रदाय कट्टर पन्थका रूप लेता जाता था । दृष्टिवादके लोप हो जानेका सम्भवतया यही कारण था।' श्वेताम्बर पट्टावलियोंके अनुसार यशोभद्रके स्वर्गारोहणके पश्चात् उनके ज्येष्ठ शिष्य संभूतिविजय पट्टासीन हुए और संभूत विजय के पश्चात् उनके शिष्य स्थूलभद्र पट्टासीन हुए। संभूतिविजयके गुरुभाई श्रुत केवलि भद्रबाहु थे और यद्यपि वे बहुत बड़े विद्वान तथा प्रभावशाली महापुरुष थे और स्थूलभद्रने उनके चरणोंकी सेवा करके ही पूर्वोका ज्ञान प्राप्त किया था, तथापि उन्हें वह पद नहीं दिया गया जो उत्तरकालमें स्थूलभद्रको दिया गया। इससे डा० बेबरकी उक्त धारणा उचित ही प्रतीत होती है और यह भी ठीक है कि दृष्टिवादमें विभिन्न दृष्टियोंका विवेचन था, इसीसे उसे दृष्टिवाद कहते थे । अतः उसमें आजीविक सम्प्रदायका वर्णन हो सकता है क्योंकि आजीविक सम्प्रदायका संस्थापक गोशालक न केवल भगवान महावीरका समकालीन था, किन्तु श्वेताम्बरीय आगमोंके अनुसार भगवानका शिष्य भी रह चुका था। किन्तु त्रैराशिक दृष्टिकी उत्पत्ति तो वीर निर्वाणसे ५४४वें वर्षमें बतलाई है। अतः दृष्टिवादमें उसका वर्णन होना सम्भव नहीं है। इससे दृष्टिवादकी जो विषयसूची नन्दी वगैरहमें दी गई है वह अभ्रान्त प्रतीत नहीं होती। और इसलिए उसपरसे किसी निर्दोष परिणाम पर नहीं पहुंचा जा सकता। २-"पंच सया चौयाला तइया सिद्धिं गयस्स वीरस्स । पुरिमंतरंजियाए तेरासियदिट्ठी उप्पन्ना ॥२४५१॥"-वि० भा० ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय किन्तु परम्परासे यह स्पष्ट प्रमाणित होता है कि दृष्टिवादका पठन-पाठन बहुत ही सीमित था और इसका कारण यह भी था कि वह बहुत कठिन था, उसमें दार्शनिक विषयोंको भरपूर चर्चा थी तथा अन्य अगोंसे उसका विषय भी अति गूढ था। सम्भवतया इसीसे वह विस्मृत हो गया। __ श्वेतांबरीय उल्लेखोंके अनुसार तो पूर्वोसे ही अगोंकी रचना की गई है अतः पूर्वोके स्थानपर अगोंका अधिक प्रचार होना संभव है। श्री मोदीने पूर्वोके लोप पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि अंगोंके अध्ययन ने प्रमुखता लेली क्योंकि उनमें न केवल पूर्वो का सार था, किन्तु वे उनसे सरल भी थे। अस्तु, आगे हम दृष्टिवाद तथा शेष ग्यारह अगोंके मध्यमें वर्तमान भेदको स्पष्ट करने के लिए श्र त ज्ञानके भेदोंका विवरण देते हैं। श्वेताम्बर परम्परा में श्रुतके भेद श्वेताम्बर परम्परा में श्रुतज्ञान के चौदह भेद किये हैं- अक्षर श्रुत, अनक्षर श्रुत, संज्ञि श्रुत, असंज्ञि श्रुत, सम्यक श्रुत, मिथ्या १-अन्तगडा०, प्रस्ता० पृ० १८-१६ २- ‘से किं तं सुयनाण परोक्खं ? सुयनाणपरोक्खं चोद्दसविह पन्नतं, तं जहा—'अक्खर सुयं १ अणक्खर सुयं २ सरिण सुर्य ३ असरिणसुयं ४ सम्मसुग्रं ५ मिच्छसुअं ६ साइनं ७ अणाइबं८ सपजवसिनं ६ अपजवसिय १०, गमित्रं ११ अगमित्रं १२ अंगपविट्ठ अणंग पविट्ठ १४ ॥ ३८ ॥" नन्दी० । “अक्खर सरणी सम्मं साईअं खलु सपजवसियं च । गमियं अंगपविटं सत्त वि एए सपडिवक्खा" ॥ ४५४ ॥-विशे० भा० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका श्रुत, सादि श्रुत, अनादि श्रुत, सपर्यवसित, अपर्यवसित, गमिक, अगमिक, अंग प्रविष्ट और अनंग प्रविष्ट । अक्षर' श्रुतके तीन भेद हैं-संज्ञाक्षर, व्यञ्जनाक्षर और लब्ध्यक्षर। अक्षरके आकारको अथवा आकार रूप अक्षरको संज्ञाक्षर कहते हैं। अक्षरकेउच्चारणको अथवा उच्चारणरूप अक्षरको व्यंजनाक्षर कहते हैं और लब्धिरूप अक्षरको अर्थात् अक्षरके क्षयोपशमको लब्ध्यक्षर कहते हैं। ___ लब्ध्यक्षरके छै भेद हैं-श्रोत्रेन्द्रिय लब्ध्यक्षर, चक्षु इन्द्रिय लब्ध्यक्षर, घ्राणोन्द्रिय लब्ध्यक्षर, रसनेन्द्रिय लब्ध्यक्षर, स्पर्शनेन्द्रिय लब्ध्यक्षर, और नौ इन्द्रिय लब्ध्यक्षर। इस लब्ध्यक्षर को ही अक्षर श्रत कहते हैं। अनक्षरात्मक श्रुतको अनतर श्रुत कहते हैं। अनक्षर श्रुत के अनेक भेद हैं । जैसे-दीर्घ श्वास लेना, थूकना, खांसना, छींकना, आदि । संज्ञीश्रु त२ के तीन भेद हैं-कालिकी उपदेश, हेतूपदेश और दृष्टिवादोपदेश की अपेक्षासे। दीर्घ कालीन अतीत वस्तुका स्मरण करनेको और अनागतका विचार करनेको कालिकी संज्ञा कहते हैं। जिस प्राणीके उस प्रकारकी संज्ञा पाई जाती है वह कालिन्की उपदेशसे संज्ञी कहा जाता है। और जिसके इस प्रकारकी संज्ञा नहीं होती उसे असंज्ञी कहते हैं । जैसे सम्मूर्छन पश्चेन्द्रिय विकलेन्द्रिय आदि । जो बुद्धिपूर्वक इष्ट आहारादिमें प्रवृत्ति करता है और अनिष्टसे बचता है उसे हेतूपदेशसे संज्ञी कहते हैं। चूकि द्वीन्द्रियादिमें भी इस प्रकारकी प्रवृत्ति पाई जाती है इसलिये वे हेतूपदेशसे संज्ञी है। किन्तु वे अतीत अनागतका १–नन्दी०, सू०, ३६ । विशे० भा०, गा० ४६८ अादि । २--नन्दी सू० ४० । विशे० भा०-गा० ५०४ आदि । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय ५७३ चिन्तन करनेमें असमर्थ हैं । अतः कालिकी उपदेशकी अपेक्षा वे संज्ञी नहीं हैं । जो क्षायोपशमिक ज्ञानसे युक्त सम्यग्दृष्टि दृष्टिवादके उपदेश से संज्ञी होता है उसे दृष्टिवादोपदेश से संज्ञी कहते हैं। इस तरह संज्ञोके तीन भेद होने से श्रुतके भी तीन भेद कहे हैं सर्वज्ञ सर्वदर्शी अरहंत भगवानके द्वारा प्रणीत द्वादशांग रूप गाणिपिटकको' सम्यक् श्रुत कहते हैं । वह इस प्रकार हैआचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, विवाह पण्णत्ती, ज्ञातृ धर्मकथा, उपासक दशा, अन्तः कृद्दश, अनुत्तरोपपादिक दश, प्रश्नव्याकरण विपाक सूत्र और दृष्टिवाद । यह द्वादशांगरूप गणि पिटक चतुर्दश पूर्वीका सम्यक् श्रुत है, अन्यका सम्यक् श्रुत भी हो सकता है, मिथ्या श्रुत भी हो सकता है । यही द्वादशांग गणि पिटक पर्यायार्थिक नय से सादि और सपर्यवसित ( सान्त ) है और द्रव्यार्थिक नयसे अनादि और पर्यसित है । अथवा भव्य का श्रुत सादि और सपर्यवसित है और अभव्यका श्रुत अनादि और अपर्यवसित है । दृष्टिवाद गमिक श्रुत है और कालिक श्रुत अगमिक है । गणधर के द्वारा रचित द्वादशांग रूप श्रतको अंग प्रविष्ट कहते Train द्वारा रचित श्रुतको अंग बाह्य कहते हैं । इस प्रकार श्वताम्बरीय साहित्य में श्रुत के चौदह भेद गिनाये हैं । यहाँ इन भेदों में से हमारा प्रयोजन केवल गमिक और १ - नन्दी०, सू०४१ | वि० भा०, गा० ५२७ । २ - नन्दी ० सू० ४३ । ३ – “गणहर थेरकयं वा विसेस वा अंगागंगेसु नारणत्तं" || ५५० ॥ - वि० भा० । Jain Educationa International एसामुक्कवागरण श्रो वा । धुव चल For Personal and Private Use Only Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ श्रमिक भेदों से हैं । दृष्टिवाद को गमिक श्रुत कहा है और कालिक श्रुत को अगमिक कहा है। वि० भा० ' में कहा है कि जिसमें 'गम' अर्थात् भंग और गणित आदि बहुत हों अथवा जिसमें 'गम' अर्थात् सदृशपाठ बहुत हों उसे गमिक कहते हैं और दृष्टिवाद में प्रायः ऐसा पाया जाता है । और जो प्रायः गाथा श्लोक आदि असदृश पाठबहुल होता है उसे अगमिक कहते हैं। कालिक श्रुत प्रायः ऐसा होता है । जं ० सा० इ० पूर्व पीठिका कालिक श्रुत हमें देखना है कि कालिक श्रुत किसे कहते हैं । नन्दि सूत्रमें श्रुत के अंग प्रविष्ट और अंगबाह्य दो भेद करके अंगके भेदोंको विस्तारसे इस प्रकार बतलाया है बाह्य दो भेद हैं- आवश्यक और आवश्यक व्यतिरिक्त । आवश्यक के छै भेद हैं- सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, बन्दना, प्रतिक्रमण, कार्योत्सर्ग और प्रत्याख्यान । आवश्यक व्यतिरिक्तके दो भेद हैं-कालिक, उत्कालिक । उत्कालिक के. अनेक भेद हैं- दशवैकालिक, कल्पा कल्प, चुल्लकल्प श्रुत, महाकल्पश्रु त, औपपातिक, राजप्रश्नीय, जीवाभिगम, प्रज्ञापना, महा प्रज्ञापना, प्रमादाप्रमाद, नन्दी, अनुयोगद्वार देवेन्द्रस्त, तन्दुलवैकालिक, चन्द्रा विज्झण, सूर्य प्रज्ञप्ति, पौरुषीमण्डल, मण्डल प्रवेश, विद्या चरण विनिश्चय, विद्या, ध्यानविभक्ति, मरण विभक्ति, आत्म विशुद्धि, वीतराग १ – 'भंगगणियाइ' गमियं जं सरिसगमं च कारणवसेण । गाहाइ अगमियं खलु कालियसुयं दिट्ठीवाए वा " || ५४६ ॥ - विशे० भा० । २- नन्दी० सू० ४४ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७५ श्रुतपरिचय श्रुत, संल्लेखनाश्रु त, विहारकल्प, चरण विधि, आतुर प्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान आदि । यह सब उत्कालिक श्रुत है। कालिक के भी अनेक भेद हैं-उत्तराध्ययन, दसाओ, कल्प, व्यवहार, निशीथ, महानिशीथ, ऋषिभाषित, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, दीप सागर प्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, क्षुल्लिका, विमान प्रविभक्ति, महा विमान प्रविभक्ति, अंग चूलिका, वर्ग चूलिका, विवाह चूलिका, अरुणोपपात, वरुणोपपात, गरुडोपपात, धरणोपपात, वैश्रवणोपपात, वेलंधरोपपात, देवेन्द्रोपपात, उत्थान श्रुत, समुत्थान श्रुत, नाग परिज्ञा, निरयावली, कल्पिका, कल्पावतंसिका, पुष्पिता, पुष्पचूलिका, वृष्णिदशा, इत्यादि । चौरासी हजार प्रकीर्णक भगवान ऋषभदेव के समय में थे। मध्यके बाईस तीर्थङ्करोंके समयमें संख्यात हजार प्रकीर्णक थे और भगवान वर्द्धमान स्वामी के चौदह हजार प्रकीर्णक थे। अथवा जिस तीर्थङ्कर के जितने श्रमण शिष्य थे उसके उतने ही प्रकीर्णक थे और उतने ही प्रत्येक बुद्ध थे । ये सर कालिक श्रुत है। __स्थानांग' सूत्र में भी श्रुत ज्ञान के दो भेद -अग प्रविष्ठ और अङ्गबाह्य बतलाकर अङ्ग बाह्य के दो भेद किये हैंआवश्यक और आवश्यक व्यतिरिक्त । तथा आवश्यक व्यतिरिक्त के दो भेद किये हैं-कालिक और उत्कालिक । इस तरह अङ्गबाह्य के ही कालिक और उत्कालिक भेद किये गये हैं। अनुयोग२. द्वार में भी ऐसा ही कथन है। जिसकी स्वाध्यायका काल नियत होता है अर्थात् नियत १-स्थाना०, २ स्था०, सू० ७१ । २-'जइ अणंगपविट्ठस्स अणुरोगो, किं कालिअस्स, अणुशोगो ? उक्कालिक्स्स अणुशोगो ? -अनु०, सू. ४, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ ज० सा० इ०-पूर्व पीठिका कालमें ही जिसको स्वाध्यायकी जाती है उसे कालिक श्रुत कहते हैं । सूर्योदयसे एक घड़ी पूर्व तथा एक घड़ी पश्चात्, एवं सूर्यास्तसे एक घड़ी पूर्व तथा एक घड़ी पश्चात्, मध्याह्नके समय तथा अर्ध रात्रिके समय स्वाध्याय नहीं करना चाहिये। किन्तु दिनके प्रथम प्रहर और अन्तिम प्रहर तथा रात्रिके प्रथम प्रहर और अन्तिम प्रहरमें अस्वाध्याय कालको बचाकर अवश्य स्वाध्याय करना चाहिए। अतः दिन और रात्रिके प्रथम तथा अन्तिम प्रहरमें ही जिसकी स्वाध्याय करनेका विधान हो वह 'कालिक श्रुत है। और जो काल वेलाको छोड़कर शेषकालमें पढ़ा जाता है उसे उत्कालिक कहते हैं। . ऊपर दृष्टिवादको गमिक श्रुत और कालिकको अगमिक श्रुत कहा है । अतः इससे दृष्टिवाद और कालिक श्रुतमें प्रतिपक्षी भाव प्रतीत हो सकता है। किन्तु कालिक श्रुत अंग बाह्यका भेद बतलाया है अंग प्रविष्टका नहीं। अतः दृष्टिवादमें और शेष ग्यारह अङ्गोंमें कोई प्रतिपक्षी भाव प्रतीत नहीं होता। किन्तु मलय गिरिने२ आवश्यक टीकामें और मलधारी १--'यदिह दिवसनिशाप्रथमचरिमपौरुषीद्वय एव पठ्यते तत्कालेन निर्वृत्तं कालिकम्-उत्तराध्ययनादि,यत्पुनः कालवेलावर्ज पठ्यते तदूर्ध्वं कालिकादित्युत्कालिकं-दशवैकालिकादीति' ॥ -स्था०, सू० ७१, अभयवृत्तिः। 'तत्रदिवसनिशाप्रथमचरिमपौरुषीलक्षणे काले अधीयते नान्यत्रेति कालिकम्-उत्तराध्ययनादि, यत्तु कालवेलावर्ज शेषकालानियमेन पठ्यते तदुत्कालिकम्-अावश्यकादि ।-अनु०,सू० ४, मल० टी० । २—'कालिकश्रुतं--एकादशांगरूपं चरणकरणानुयोगरूपमिति गम्यते' ।—ाव० टी० भा० २ पृ० ३६६ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रु तपरिचय हेमचन्द्रने विशे० भा०की टीकामें स्पष्ट रूपसे एकादशांगको भी कालिक श्रुत कहा है। हेमचन्द्रने लिखा है कि-'एकादशांगरूप समस्त श्रुत कालग्रहण विधिके द्वारा पढ़ा जाता है इसलिए उसे कालिक कहते हैं। ऊपरके उल्लेखोंसे यह स्पष्ट है कालिक उत्कालिकका भेद अंग बाह्य में ही था, अंग प्रविष्ट में नहीं था। दिगम्बर परम्पगके आचाय अकलंक देवने भी अपने तत्त्वार्थ वार्तिकमें अङ्गबाह्य के ही कालिक उत्कालिक भेद किये हैं ? इस परसे ऐसा अनुमान होता है कि पीछेसे एकादशांगको भी कालिकमें सम्मिलित कर लिया गया; क्योंकि दो उल्लेखोंमें एकादशांगकी गणना कालिक श्रुतमें की गई है। भगवतीसूत्रमें गौतम भगवानसे प्रश्न करते हैं कि तीर्थङ्करोंके तेईस अन्तरालोंमें कालिक श्रुतका कब-कब विच्छेद हुआ ? भगवान् उत्तर देते हैं कि पूर्वके आठ तथा अन्तके आठ जिनान्तरोंमें कालिक श्रुतका विच्छेद नहीं हुआ। किन्तु मध्यके सात जिनान्तरों में कालिक श्रुतका विच्छेद हुआ। किन्तु दृष्टिवाद का विच्छेद सभी जिनान्तरों में हुआ ।' यहाँ पर कालिक श्रुतसे अवश्य ही एकादशांग रूप श्रुतका ग्रहण अभीष्ट है। क्योंकि १–'इहैकादशाङ्गरूपं सर्वमपि श्रुतं कालग्रहणादिविधिनाऽधीयत इति कालिकमुच्यते । तत्र प्रायश्चरणकरणे एव प्रतिपाद्यते।' -वि० भा० टी०, गा० २२६४ । २-"तदंगबाह्यमनेकविधं कालिकमुत्कलिकामित्येवमादिविकल्पात् । स्वाध्यायकाले नियतकालं कालिकम्, अनियतकालमुत्कालिकम् । तद्भदा उत्तराध्ययनादयोऽनेकविधाः ।”—त० वा०, सू० १-२०। ३७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७८ जै० सा० इ० पू०पीठिका अङ्ग प्रविष्ट और अङ्गबाह्यमें भेद बतलाते हुए कहा है कि अङ्ग प्रविष्ट अर्थात् द्वादशांग समस्त तीर्थङ्करोंके तीर्थमें अवश्य रहता है किन्तु तन्दुलवैकालिक आदि अङ्ग बाह्य अनियत है-उसका रहना अवश्यंभावि नहीं है; क्योंकि वह तो अपने अपने युगके प्राचार्योंकी रचना है। अतः भगवती में कालिक श्रुतसे एकादशांग ही लिया गया है यह स्पष्ट है। इसी तरह आवश्यक में चार अनुयोगोंका विभाग करते हुए कहा है कि कालिक श्रुत चरण करणानुयोग रूप है, ऋषिभाषित धर्मकथानुयोग रूप है, सूर्यप्रज्ञप्ति गणितानुयोग रूप है और दृष्टिवाद द्रव्यानुयोग रूप है । यहाँ पर भी कालिक श्रुतसे एकाद. शांगका ग्रहण इष्ट है । यतः एकादशांगरूप श्रुत कालादि विधिके द्वारा पढ़ा जाता था अतः उसे भी कालिक श्रुत मान लिया गया ऐसा प्रतीत होता है। किन्तु दृष्टिवाद जैसे महत्त्वपूर्ण अङ्गके पठनके लिए कालादिविधि आवश्यक नहीं समझी गई, यह थोड़ा आश्चर्यजनक जैसा लगता है । अस्तु, १-विशे० भा०, टी०, गा०, ५५० । २-'एएसु णं भंते ! तेवीसाए जिणंतरे कस्स कहिं कालियसुयस्स वोच्छेदे पण्णते ? गोयमा ! एएसु णं तेवीसाए जिणंतरेसु पुरिभे पच्छिमएसु अट्ठसु अट्ठसु जिणंतरेसु एत्थ णं कालियसुयस्स अवोच्छेदे पणत्ते । मझिमएसु सत्तसु जिणंतरेसु एत्थ णं कालियसुअस्स वोच्छेदे पण्णत्ते । सव्वत्थवि णं वोच्छेदे दिट्टीवाए ।'-~-भ०, २०श०, ८उ० । - ३-'कालियसुश्रं च इसि भासिाइं तइयो अ सूर पन्नति । सव्वो अ दिट्ठीवाश्रो चउत्थरो होइ अणुअोगो ।।२२६४।।। -वि० भा० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रतपरिचय कालिक श्रुत और दृष्टिवाद में अन्तर आवश्यक' नियुक्ति में नयोंका विवेचन करते हुए कहा है कि दृष्टिवाद में नयोंके द्वारा वस्तुओंका कथन किया जाता है किन्तु कालिक श्रुतमें नयों के द्वारा वस्तुका व्याख्यान करनेका नियम नहीं है । यदि श्रोताओं की अपेक्षासे कालिक श्रुतमें नय द्वारा विचार करना ही हो तो नैगम संग्रह और व्यवहार इन तीन नयोंके द्वारा ही करना चाहिए; क्योंकि लोक व्यवहारके लिए ये तीन नय ही उपयोगी हैं। नियुक्तिकी टीका में टीकाकार मलय गिरिने यह शङ्का की है कि यदि कालिक श्रुतमें नयोंका अधिकार ही नहीं है तो श्रोताकी अपेक्षा तीन नयोंका अधिकार किस लिए बताया। इसके उत्तर में कहा गया है कि तीन नयोंके द्वारा कालिक श्रतमें अभ्यस्त होने पर ही दृष्टिवादके योग्य होता है इस लिए कालिक श्रुतमें श्रोताकी अपेक्षा तीन नयोंका ही अधिकार है । आगे आ० नि०में लिखा है कि 'कालिक श्रुत मूढ़नय वाला है, उसमें नयोंका अवतार नहीं होता। जब तक उसमें अनुयोगोंका भेद नहीं हुआ था तब तक उसमें नयोंका अवतार होता था और जबसे कालिक श्रुतमें अनुयोगोंका भेद हो गया तबसे नयोंका समवतार भी बन्द हो गया। आगे उसमें इसका स्पष्टी करण करते हुए लिखा है, - ५७६ १ - 'एएहि दिट्टिवाए परूवणा सुत्त ग्रन्थ कहणा य । इद पुण भुवगभो हिगारो तीहिं श्रसन्नं ॥ ७६०|– - प्रा० नि०, भा० २ । २ - 'मूढनइ सुत्रं कालियं तु न नया समोरंति इह । पुहुति समारो नत्थ पुहत्ते समारो || ७६२ || ३ - जावं ति जवइरा पुहत्तं कालियागस्स । तेणारेण पुत्तं कालिय दिवाए य || ७६३ || - ग्रा० नि० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८० जै० सा० इ० पू०-पीठिका 'जब तक महामति बज्र स्वामी थे तब तक कालिकानुयोग 'अपृथक था। उनके पश्चात् आर्यरक्षितके समयमें कालिक श्रुत और दृष्टिवादमें अनुयोगोंका 'पृथक्त्व' हो गया।' इसका खुलासा इस प्रकार है__ जब तक वज्र स्वामी थे, तब तक प्रत्येक सूत्रका व्याख्यान करते हुए उसमें चारों अनुयोगोंका कथन किया जाता था। आर्य' रक्षितके समयमें एक सूत्रका व्याख्यान एक ही अनुयोगपरक किया जाने लगा और इस तरह समस्त श्रुत चार अनुयोगोंमें विभाजित कर दिया गया। इस विभागके कर्ता वज्रस्वामीके शिष्य आर्य रक्षित थे। वे अपने शिष्य दुर्बलिकापुष्य मित्रको पढ़ाते थे तो विद्वान होने पर भी शिष्य सूत्रार्थको स्मरण नहीं रख पाता था । अतः आयरक्षितने वर्तमानकालकी स्थितिको पहचान कर कालिकादि श्रुतको चार अनुयोगोंमें विभक्त कर दिया । कालिक सूत्रमें प्रायः चरण-करणका ही प्रतिपादन किया गया है, इस लिये उसे चरणकरणानुयोगमें रखा गया। ऋषिमाषित उत्तराध्ययनोमें महर्षियोंकी धर्मकथाओंका ही कथन है इस लिए ऋषिभाषितोंको धर्मकथानुयोगमें रखा गया। सूर्य प्रज्ञप्ति-- में गणितका विधान होनेसे उसे गणितानियोगमें रखा गया। और सम्पूर्ण दृष्टिवादको द्रव्यानुयोगमें रखा गया। इस तरहसे प्रत्येक सूत्रमें चारों अनुयोगोंका विधान निषिद्ध करके समस्त १ देविन्दवंदिएहि महाणुभावेहिं रक्खिन अज्जेहिं । जुगमासज विहत्तो अणुअोगो ता को चउहा ॥७७४।। कालियसुअंच इसिभासि आई तइयो अ सूरपन्नति । सव्वो अदिहिवाश्रो चउत्थश्रो होइ अणुअोगो ॥ जं च महाकप्यसुत्रं जाणि अ सेसाणि छेत्र सुत्ताणि । चरणकरणाणुरोगत्ति कालिअत्थे उवगयाणि ||७७४।।'-प्रा० नि० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय ५८१ श्रुतको चार अनुयोग में विभाजित कर दिया गया। चूंकि महाकल्प श्रुत तथा अन्य छेदसूत्र भी कालिक श्रुतमें अन्तभूर्त थे, इस लिये उन्हें भी चरण करणानुयोगमें ही रखा गया । ० नि० के अनुसार ऊपर जो कथन किया गया है उसमें कालिक श्रुत और दृष्टिवादकी दृष्टिसे उल्लेखनीय भेद यह है कि कालिक श्रुतका अनुयोगों में विभाजन होनेके पश्चात् उसमें नयों का समवतार निषिद्ध कर दिया गया और श्रोता विशेषकी अपेक्षा आवश्यक होने पर भी केवल आदिके तीन नयोंके ही अवतारकी अनुज्ञा दी गई। किन्तु समस्त दृष्टिवादका अनुयोगों में विभाजन हो जाने पर भो उसमें नयोंका समवतार निषिद्ध नहीं किया गया । यह हम पहले लिख आये हैं कि वज्रस्वामी अन्तिम दस पूर्वी थे और उनके शिष्य आर्यरक्षित साढ़े नौ पूर्वोके पाठी थे । अतः उस समय साढ़े नौ पूर्व वर्तमान थे। फिर भी दृष्टिवाद में नयोंका अवतार निषिद्ध न करनेके दो ही कारण हो सकते है प्रथम समस्त नोंसे सूत्रार्थका कथन किये बिना दृष्टिवादका हृदयंगम करना शायद सम्भव न हो, दूसरे जो दृष्टिवादको समझ सकने की सामर्थ्य रखता हो उसके लिये उसमें नयोंका समवतार दुरूह प्रतीत न होता हो । अस्तु, जो कुछ कारण हो, किन्तु उक्त बातोंसे इतना स्पष्ट है, कि कालिक श्रुत और दृष्टिवाद एक ही श्रेणीके नहीं थे । नन्दीसूत्र तथा अनुयोग द्वारमें कालिक श्रुत और दृष्टिवादअन्तर अधिकाका विवरण दिया है उससे भी यही प्रकट होता है कि इन दोनों में मौलिक भेद था । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२ जै० सा० ई० पू०पीठिका ___ अनुयोग' द्वारमें परिमाण संख्याका कथन करते हुए लि वा है-परिमाणसंख्या दो प्रकारकी है-कालिक श्रुत परिमाणसंख्या और दृष्टिवाद श्रुत परिमाण संख्या । कालिक श्रुत परिमाण संख्या अनेक प्रकारकी है जो इस प्रकार है-पर्याय संख्या, अक्षर संख्या, संघात संख्या, पद संख्या, पादसंख्या, गाथासंख्या श्लोकसंख्या, वेष्टकसंख्या, नियुक्तिसंख्या, अनुयोग द्वारसंख्या, उद्देशकसंख्या, अध्ययनसंख्या, श्रुतस्कन्धसंख्या और अंगसंख्या। ये कालिकश्रुत परिमाणसंख्या है। दृष्टिवाद श्रुत परिमाणसंख्या इस प्रकार है--पर्याय संख्यासे लेकर अनुयोग द्वार संख्या तक तो कालिक श्रुत के अनुसार ही है। आगे-पाहुड़ संख्या, पाहुडियासंख्या, पाहुडपाहुडियासंख्या और वस्तु संख्या । अर्थात् कालिक श्रुतमें उद्देश, अध्ययन, श्रुतस्कन्ध और अंगाधिकार होते हैं तब दृष्टिवादमें पाहुड, पाहुडिया पाहुड़ पाहुडिया और वस्तु नामक अधिकार होते हैं। नन्दीसूत्रमें जो बारह अंगोका विवरण दिया है उससे भी यहो प्रकट होता है कि दोनों के अधिकारों में मौलिक अन्तर था। १-से किं तं परिमाणसंखा ? दुविहा पण्णता, तं-कालिन सुयपरिमाणसंखा दिट्ठिवायसुअ परिमाणसंखा य । से किं तं कालिप्रसुत्र परिणामसंखा ? अणेगविहा पण्णत्ता, तं जहा- पजवसंखा, अक्खरसंखा अणुयोगदारसंखा उद्देसगसंखा अज्झयणसंखा सुअखंधसंखा अंगसंखा, से तं कालिअसुय परिमाणसंखा। से किं तं दिहिवायसुत्र परिमाणसंखा ? अणेगविहा पण्णत्ता, तं जहा-पजवसंखा जाव अणुयोगदारसंखा पाहुडसंखा पाहुणिप्रासंखा पाहुडपाहुडिआसंखा वत्थुसंखा, से तं दिहि वायसुत्र परिमाणसंखा से तं परिमाणसंखा, । अनु० पृ० २३३ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय दृष्टिवाद का विवरण दृष्टिवाद' में सर्व भावोंको प्ररूपणा होती है। संक्षेपसे दृष्टिवादके पांच भेद हैं—परिकर्म, सूत्र, पूर्वगत, अनुप्रोग, चूलिका । परिकर्मके सात भेद हैं-सिद्धश्रेणिका, मनुष्यश्रेणिका, स्पृष्ठश्रेणिका, अवगाढश्रेणिका, उबसंपज्जणश्रेणिका, विप्पजहणश्रेणिका, चुलाचुरश्रेणिका । सिद्धश्रेणिका परिकर्मके चौदह भेद हैं-माउगापयाई : मातृकापदानी ), एगहिअपयाई, अट्ठपयाई, पाढो आमासपयाई केउभूअ (केतुभूत), रासिवद्ध एगगुण, दुगुण, तिगुण, केउभूत्र, पडिग्गह, संसारपडिग्गह, नंदावत्त, सिद्धावत्त । मणुस्सश्रोणिका परिकर्मके भी चौदह भेद हैं जो उक्त प्रकार हैं, केवल अन्तिम सिद्धावत्तके स्थानमें 'मगुस्सावत्त' नाम है। पुट्ठ सेणिया परिकम्मके ११ भेद हैं-पाठोआमासपयाइं. केतुभूत, रातिबद्ध, एगगुण. दुगुण, तुिगुण, केउभूय, पडिग्गह, संसारपडिग्गह, नन्दावत्त पुट्ठावत्तं । श्रोगाढ़सेगिमा परिकम्मके ग्यारह भेद हैं, जो उक्तप्रकार हैं केवल अन्तिम पुट्ठावत्तके स्थानमें प्रोगाढवत्त नाम है। उपसंपन्जणसेणिश्रा परिकर्मके भी पूर्ववत्ग्यारह भेद हैं केवल अन्तिम नाम ओगाढावत्तके स्थानमें उवसंपज्जणावत्त नाम है। इसी तरह विप्पजहसेणिया परिकर्मके भी उक्त प्रकार ग्यारह भेद हैं । केवल अन्तिम नाम उवसपज्जणावत्तके स्थानमें विप्पजहणात्त नाम है। इसी तरह चुआचुअसेणिया परिकर्मके भी ग्यारह भेद है। अन्तिम नाम विप्पजहणावत्तके स्थानमें चुआचुआवत्त नाम है । इस प्रकार मूलभेदोंकी अपेक्षा परिकर्मके सात भेद हैं और उत्तर भेदोकी अपेक्षासे ८३ भेद है। १-नन्दी; पृ० २३५ श्रादि । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जं० ५८४ - इनमें से आदिके छै परिकर्म चतुर्नयिक हैं - उनमें चार नयोंको प्रवृत्ति होती है तथा सातों परिकर्म त्रैराशिक मतानुयायी हैं। ० सा० इ० पू० पीठिका 1 इसकी टीकामें मलयगिरिने लिखा है कि गोशालक के द्वारा प्रवर्तित आजीविक सम्प्रदायके अनुयायिओंको ही त्रैराशिक कहते थे क्योंकि वे सब वस्तुको तीनरूप मानते थे । तथा नय भी तीन ही मानते थे-द्रव्यास्तिक पर्यायास्तिक और उभयास्तिक । सूत्रकारने 'सत्त तेरासिया' लिखकर सातों परिकर्मोंको त्रैराशिकमतानुयायी बतलाया है । इसका अभिप्राय यह है कि पहले आचार्य नयविचार के अवसर पर त्रैराशिक मतका अवलम्वन लेकर सातों परिकर्मों का विचार तीन नयोंके द्वारा करते थे । दृष्टिवाद के दूसरे भेद सूत्रके वाईस भेद हैं-उज्जुसुय ( ऋजुसूत्र ), परिणता परिणत, बहुभंगिश्र, विजयचरिय, अांतरं परंपरं, मासाणं, संजूह, संभिरण, आहव्वाय सोवत्थि अवत्त, नंदावत्त, बहुल, पुट्ठापुठ्ठे, विश्रावत्त, एवंभूत, दुयात्रत्त, वत्तमाणप्पय, समभिरूढ, सव्वाभह परसास, दुप्पडिग्गह । स्वसमयवक्तव्यता सूत्रकी परिपाटीके अनुसार ये बाईस सूत्र छिन्न छेदनय वाले हैं, आजीविक सूत्रकी पारिपाटीके अनुसार अच्छिन छेद नय वाले हैं, त्रैराशिक सूत्रकी परिपाटीके अनुसार तीन रूप हैं और स्वसमयसूत्र पारिपाटीके अनुसार चार नयरूप हैं । इसप्रकार ये सब सूत्र ८८ हैं । दृष्टिवाद के तीसरे भेद पूर्वके चौदह भेद हैं- उप्पा यपुव्व Jain Educationa International १ - ' तथा चाह सूत्र कृत 'सत तेरासिया' इति सप्त परिकर्माणि त्रैराशिक मतानुयायीनि, एतदुक्त भवतिपूर्व सूरयो नयचिन्तायां त्रैराशिक मतभवलम्बमानाः सप्तापि परिकर्मणि त्रिविधयापि नयचिन्तया चिन्तयन्ति स्मेति । नन्दि०, टी०, पृ० २३६ उ० । For Personal and Private Use Only Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय ( उत्पादपूर्व), अग्गाणीय, वीरिश्र, अत्थिनत्थिप्पवाय, नाणप्पवाय (ज्ञानप्रवाद), सञ्चप्पवाय (सत्यप्रवाद), आयप्पवाय (आत्मप्रवाद), पच्चक्खाणपवाय ( प्रत्याख्यानप्रवाद ), विज्जारगुप्पवाय ( विद्यानुप्रवाद), अझ ( अवन्ध्य ) पाणाऊ, किरियाविसाल, लोक बिंदुसार। उत्पाद पूर्व में दसवस्तु और चार चूलिकावस्तु कहे हैं, अप्रायणी पूर्वमें चौदह वस्तु और बारह चूलिकावस्तु अधिकार कहे हैं। वीर्यपूर्व में आठवस्तु और आठ चूलिका वस्तु कहे हैं, अस्ति नास्ति प्रवाद पूर्व में अठारह वस्तु और दस चूलिका वस्तु कहे हैं। चूलिका वस्तु अधिकार इन चार ही पूर्वोमें कहे हैं आगे केवल वस्तु अधिकार ही वतलाये है जो इस प्रकार हैं - ज्ञानप्रवाद में बारह वस्तु अधिकार कहे हैं । सत्यप्रवाद पूर्व में दो वस्तु अविकार हैं. आत्म प्रवादमें १६, कर्मप्रवाद में तीस, प्रत्याख्यान पूर्व में वीस, विद्यानुप्रवादमें पन्द्रह, अवन्ध्य पूर्वमें तेरह क्रियाविशाल पूर्व में तीस और लोकविन्दुसारमें २५ वस्तु अधिकार हैं । ५८५ अनुयोग के दो भेद हैं- मूल प्रथमानुयोग और गंडिकानुयोग | अरहंतोंके पूर्व भव, देवलोक गमन, आयु, देवलोक से च्यवन, तीर्थङ्कररूपमें जन्म, अभिषेक, राज्यश्री, दीक्षा, उग्रतप, केवल ज्ञानकी उत्पत्ति, तीर्थप्रवर्तन, उनके शिष्य, गण, गणधर, श्रयिका, चतुर्विधसंघका परिमाण, मन:पर्ययज्ञानी, अवधिज्ञानी, श्रुतज्ञानी. वादी, अनुत्तरोंमें जानेवाले उत्तर विक्रिया करनेवाले, मुनियोंका परिमाण, मुक्तिमें जाने वालोंका परिमाण, आदि का जिसमें कथन हो उसे मूलप्रथमानुयोग कहते हैं । और जिसमें कुलकर गण्डिका, तोर्थङ्कर गण्डिका, चक्रवर्तीगण्डिका, दसार गण्डिका, बलदेव गण्डिका, वासुदेव गण्डिका, गणधर गण्डिका, भद्रबाहु गण्डिका, तपकर्म गण्डिका, हरिवंश गण्डिका, उत्सर्पिणी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८६ जै० सा० इ० पू०-पीठिका गण्डिका, अवसर्पिणी गण्डिका, चित्रान्तर गण्डिका, इत्यादि गण्डिकाओका जिसमें कथन हो उसे गण्डिकानुयोग कहते हैं। ___आदिके चार पूर्वोकी चूलिका होती है शेषपूर्व विना चूलिकाके हैं । यह चूलिका भेद है। दृष्टिवादमें संख्यात वाचना, संख्यात अनुयोगद्वार, संख्यात वेष्टक, संख्यात श्लोक, संख्यात प्रतिपत्ति, संख्यात नियुक्ति, संख्यात संग्रहणी, होती हैं। इस तरह बारहवें अंगमें एक श्रुतस्कन्ध, चौदह पूर्व, संख्यात वस्तु, संख्यात चूलवस्तु, संख्यात पाहुड,संख्यात पाहुड़ पाहुड़, संख्यात पाहुडिया, असंख्यात पाहुड़ पाहुडिआ, संख्यात हजार पद, संख्यात अक्षर, अनंत गम, अनन्त पर्याय संख्यात त्रस, अनन्त स्थावर, आदि भाव' होते हैं। टीकाकार मलय गिरिने इस सूत्रका व्याख्यान करते हुए लिखा है कि ये सब प्रायः नष्ट होगया तथापि आगत सम्प्रदायके अनुसार किञ्चित् व्याख्यान किया जाता है। अतः इस सूत्रका व्याख्यान करते हुए उन्होने साधारण सा शब्दार्थमात्र किया है, और कचित् कचित् थोड़ा सा विशेष व्याख्यान भी कर दिया है। ___ उक्त सूत्रसे दृष्टिवादके भेदोंका, अवान्तर अधिकारोंका और स्थूल विषयसूचीका आभास मिल जाता है। और उस परसे इतना ही प्रतीत होता है कि नन्दी सूत्रकी रचनाके समय दृष्टिवादका परम्परागत विषय परिचय आदि प्राप्त था, किन्तु दृष्टिवादके अस्तित्वका समर्थन तो उस परसे नहीं होता। किन्तु यह स्पष्ट है कि ग्यारह अंगोंकी अपेक्षा दृष्टिवाद बहुत विशाल था। श्वेताम्बरोंके अनुसार तो एकादशांगका सब विषय उसमें आगया था, इतना ही नहीं, बल्कि कोई कोई अङ्ग दृष्टिवाद १--नन्दी०, सू० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८७ श्रुतपरिचय के अन्तर्गत पूर्वोसे लिये गये हैं, ऐसा भी प्रतीत होता है । इसपर विशेष प्रकाश आगे डाला जायेगा। अतः उस विशाल दृष्टिवाद का सर्वथा लोप नहीं हुआ और पूर्वोके विशकलित अंशोंका ज्ञान परिपाटी क्रमसे बहुत वर्षों तक प्रवर्तित रहा, इतना स्पष्ट प्रतीत होता है। अब हम दिगम्बर साहित्यसे दृष्टिवाद अंग का जो परिचय मिलता है उसे यहां देते हैं। दिगम्बर साहित्यमें दृष्टिवादका परिचय अकलंक देवने अपने तत्त्वार्थवार्तिकमें कराया है। लिखा ' है-दृष्टिवादमें तीन सौ त्रेसठ दृष्टियोंका प्ररूपण तथा खण्डन किया गया है। इन तीन सौ त्रेसठ दृष्टियों अथवा मतोंमेंसे एक सौ अस्सी दृष्टियाँ क्रियावादी हैं । चौरासी दृष्टियाँ अक्रियावादी है, सड़सठ दृष्टियाँ अज्ञानपरक हैं और बत्तीस दृष्टियां वैनयिक हैं। ___'द्वादशमङ्ग दृष्टिवाद इति । कौत्कल - काणे विद्धि-कौशिकहरिस्मश्रु-मांछपिक-रोमश-हारीत-मुण्डा-श्वलायनादीनां क्रियांवाददृष्टिनामशीतिशतम्, मरीचिकुमार-कपिलोलूक-गार्ग्य-व्याघ्रभूतिवाद्वलि-माठर-मौद्गल्यायनादीनामक्रियावाददृष्टिनां चतुरशीतिः, साकल्य-वल्कल--कुथिमि-सात्यमुग्री-नारायण-कठ-माध्यन्दिन-मौद - पैप्पलाद-बादण्यणाम्बष्ठिकृदौविकायन-वसु-जौमिन्यादीनामज्ञानकुदृष्टिनां-सप्त षष्ठिः, वशिष्ठ-पाराशर-जतुकणि-वाल्मीकि-रौमहर्षिणि-सत्यदत्त-व्यासैलापुत्रौपमन्यवैन्द्रदत्तायस्थणादीनां वैनयिकदृष्टिनां द्वात्रिंशत्,एषां दृष्टिशतानां त्रयाणां त्रिषष्ठयुत्तराणां प्ररूपणं निग्रहश्च दृष्टिवादे क्रियते ।'-त० वा० श्र०१--२०सू० । “दिद्विवादो णाम अंग बारसमं। तस्य दृष्टिवादस्य स्वरूपं निरूप्यते ।......एषां दृष्टिं शतानां त्रयाणां त्रिषष्टयुत्तराणां प्ररूपणं निग्रहश्च दृष्टिवादे क्रियते ।"-षटलं-,-पु०१, पृ.१०७ १०८। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८८ जै० सा इ० पू०-पोठिका कुन्दकुन्दके ' भाव प्राभृतमें एक गाथाके द्वारा उक्त तीन सौ त्रेसठ मतोंका निर्देश किया गया है। तथा गोमट्टसार २ कर्मकाण्डमें और श्वे० 3 प्रवचन सारोद्धारमें इन दृष्टियोंकी प्रक्रिया भी बतलाई हैं। किन्तु अकलंक देवने उक्त मूल चार दृष्टियों के कतिपय अनुयायिओंके नाम भी दिये हैं। और वे ही नाम सिद्धसेन गणीकी तत्वार्थ टीका तथा धवलाटीकामें भी हैं। तीन सौ त्रेसठ मत जैन साहित्यमें तीन सौ त्रेसमतोंका उपपादन जिस रीतिसे किया गया है, वह रीति यहाँ दी जाती है क्रिया ४ कर्ताके बिना नहीं होती और वह आत्माके साथ समवेत है ऐसा कहने वाले क्रियावादी हैं। अथवा जो कहते हैं कि क्रिया प्रधान है, ज्ञान नहीं, वे क्रियावादी हैं। अथवा 'जीवादि पदार्थ हैं, इत्यादि कहने वाले क्रियावादी हैं। इन क्रियावादियोंके १८० भेद इस प्रकार होते हैं । जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य और पाप ये नौ पदार्थ हैं। १ 'असियसय किरियवाई अक्किरियाणं च होई चुलसीदी । सत्तही अण्णाणी वेणेयो होति बत्तीसा ।।१३५।।"-भा.प्रा. । गो.क. गा.८७६ । -सूत्र. नि., गा.११६ । 'अज्ञानिकादीनां त्रयाणां त्रिषष्ठिनां कुवादिशतानां' ।-त. भा० टी०८-१सू. । २ गो. क. गा.। ३-प्र. सारो०. गा० ११८८ श्रादि । ४-'क्रिया का बिना न संभवति, साचात्मसमवायिनीति वदन्ति तच्छीलाश्च ये ते क्रियावादिनः। अन्ये त्वाहु :-क्रियावादिनो ये ब्रुवते क्रिया प्रधांनं किं ज्ञानेन ? अन्ये तु व्याख्यान्ति-क्रियां जीवादिपदार्थोऽस्तीत्यादिकां वदितुं शीलं येषां ते क्रियावादिनः।भ० सू. टी. ३०-१। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय ५८६. ये नौ पदार्थ स्वतः परतः, नित्य और अनित्य इन चार विकल्पों के द्वारा तथा काल, ईश्वर, आत्मा. नियति, और स्वभाव इन पाँच विकल्पोंके द्वारा हैं। अतः इनको परस्पर में गुणा करने से ६x४४५ = १८० विकल्प होते हैं। इतने ही क्रियावादियोंके प्रकार हैं। दिगम्वर तथा श्वेताम्बर साहित्यमें वर्णित इनकी प्राक्रयामें थोड़ा अन्तर है। दिगम्बर ' प्रक्रियाके अनुसार इन विकल्पोंका कथन इस प्रकार होगा-स्वतः जीव कालकी अपेक्षा है, परतः जीव कालकी अपेक्षा है। और श्वेताम्बर प्रक्रियाके अनुसार इनका कथन इस प्रकार होता है-जीव स्वतः कालको अपेक्षा नित्य है, अजीव स्वतः कालकी अपेक्षा अनित्य ही है ।२ । जीवादि पदार्थ नहीं हैं, इस प्रकारका कथन करने वाले अक्रियावादी कहे जाते हैं। जो पदार्थ नहीं उसकी क्रिया भी नहीं है। यदि क्रिया हो तो वह पदार्थ 'नहीं' नहीं हो सकता, ऐसे कहने वाले अक्रियावादी कहे जाते हैं। 'नास्ति' एक, स्वतः और परतः ये दो, जोवादि सात पदार्थ १-'अत्थि सदो परदो विय णिच्चाणिच्चत्तणेण य णवत्था ।' कालीसरप्यणियदिसहावेहि य ते हि भंगा हु ॥७८७||-गो. क.। २-'नास्त्येव जीवादिकः पदार्थ इत्येवं वादिनः अक्रियावादिनः।' - सूत्र. शी. टी., १-१२ । 'प्रक्रियां क्रियाया अभावम्, न हि कस्यचिदप्यनवस्थितस्य पदार्थस्य क्रिया समस्ति, तद्भावे च अनवस्थितेरभावादित्येवं ये वदन्ति ते अक्रियावादिनः।-भ. सू., अभ.टी.३०-१ । स्था. अभ. टी., ४-४-३४५ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० जै० सा० इ० पू०पीठिका और कालादि पांचको परस्परमें गुणा करनेसे-खतः जीव कालकी अपेक्षा नहीं है परतः जीव कालकी अपेक्षा नहीं है, इत्यादिरूपसे अक्रियावादियोंके १४२xsx1=90 सत्तर भेद होते हैं।' तथा सात पदार्थोंको नियति और कालको अपेक्षा 'नास्ति' कहनेसे चौदह भेद और होते हैं । इस प्रकार प्रक्रियावादियोंके कुल ८४ चौरासी भेद होते हैं। श्वेताम्बर २ टीका ग्रन्थोंके अनुसार जीवादि सात पदार्थ स्व और पर तथा काल, यदृच्छा, नियति, स्वभाव, ईश्वर और आत्मा, इन सबको परस्परमें गुणा करनेसे ७ x २ x ६-८४ चौरासी भेद अक्रियावादियोंके होते हैं। जो अज्ञानको ही श्रेयस्कर मानते हैं वे अज्ञानवादी३ कहे जाते हैं। इनके मतसे बिना जाने किये हुए कर्मोका बन्ध विफल १–णत्थी सदो परदो विय सत्त पयत्था य पुरणपाऊणा । कालादियादिभंगा सत्तरि चदुपंति संजादा ।। ८८४ ।। णत्थि य च सत्त पयत्था णियदीदो कालदो तिपति भवा । चोद्दस इदि रणत्थित्ते अकिरियाणं च चुलसीदी ॥८८५॥' -गो. क. । २----जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षारख्माःसप्त पदार्थाः स्वपर भेदद्वये तथा काल-यदृच्छा-नियतिस्वभावेश्वरात्मभिः षड्भिश्चिन्त्यमाना श्चतुरशीति विकल्पा भवन्ति"-अाचा. शी. टी. १-१-१-४ । नन्दी. मलय., सू. ४६ । ३ - 'कुत्सितं ज्ञानमज्ञानं तयेषामस्ति ते अज्ञानिकाः। ते च वादिनश्चेत्यज्ञानिकवादिनः । ते च अज्ञानमेव श्रेयः असश्चिन्त्यकृत कर्मबन्धवैफल्यात् ।'-भग. अभ. टी. ३०-१ । स्था. अभ.टी., ४-४-४५ । सूत्र. शी. टी. १-१२ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय ५६१ होता है इस लिये अज्ञान ही श्रेयश्कर है। जीवादि नौ पदार्थों के साथ अस्ति आदि सात भंगोंकी योजना करनेसे त्रेसठ भेद होते हैं । तथा एक शुद्ध पदार्थको अस्ति. नास्ति, अस्तिनास्ति, श्रवक्तव्य इन चार भंगोंके साथ मिलानेसे चार भेद और होते हैं । इस तरह अज्ञान वादियोंके सड़सठ भेद होते हैं। श्वेताम्बर टीका ग्रन्थों में जीवादी नौ पदार्थों को अस्ति श्रादि सात भंगोंके साथ लगानेसे त्रेसठ, और उत्पत्तिको प्रारम्भके अस्ति श्रादि चार भंगोंके साथ लगानेस चार इस प्रकार सड़सठ भेद कहे है। जो सब देवताओंको और सब धर्मोको समान रूपसे देखते हैं वे वैनयिक कहे जाते हैं। अथवा जो विनयको ही स्वर्गादि का कारण मानते हैं वे वैनयिक हैं । देव, राजा, ज्ञानी, यति, वृद्ध, बाल, माता और पिता इन आठोंकी मन, वचन, काय और दानके साथ विनय करनेसे वैनयिकोंके बत्तीस भेद होते हैं। इस प्रकार कुल तीन सौ वेसठ मत बतलाये हैं। ७-'को जाणइ णवभावे सत्तमसत्तं दयं अवचमिदि । अवयणजुद सत्ततयं इति भंगा होति तेसट्ठी ।।८८६।। को जाणइ सत्तचउ भावं सुद्धं खु दोरिण पंतिभवा । चत्तारि होति एवं, अण्णाणीणं तु सत्तट्ठी।।८८७।। -गो. क. १-'सर्वदेवतानां सर्वसमयानां च समदर्शनं वैनयिकम्”-सर्वार्थ. ८-१। 'विनयेन चरति स वा प्रयोजन एषामिति वैनयिकाः। ते च वादिनश्चेति वैनयिकवादिनः । विनय एव वा वैनयिक, तदेव ये स्वर्गादिहेतुतया वदन्त्येवंशीलाश्च ते वैनयिकवादिनः।-भग० अभ० टी, ३०१। स्था० अ०टी०, ४-४४-३४५। 'विनयादेव मोक्ष इत्येवं गोशालक मतानुसारिणो विनयेन चरन्तीति वैनयिका व्यवस्थिताः'-सूत्र • शी०, टी० १-६-२७ २-'मणवयणकायदाणगविभवो सुर-णिवइ-णाणि-जदि-बुड्ढे । बाले मादुपिदुम्मि य कायव्वो चेदि अचऊ' || ८८८ ।।-गो० क० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९२ ज० सा० इ० पू -पीठिका बौद्ध निकायमें बासठ मत दीर्घ निकायके ब्रह्म जाल सुत्तमें बासठ मतोंका निर्देश किया है। उन्हें भी यहां देदेना उचित होगा । १-नित्यवाद-'भिक्षुओं ! कितनेही श्रमण और ब्राह्मण नित्यवादी हैं वे चार कारणोंसे आत्मा और लोक दोनोंको नित्य मानते हैं। ___२-नित्यता-अनित्यतावाद-भितुओं ! कितने श्रमण और ब्राह्मण हैं वे चार कारणों से आत्मा और लोकको अंशतः नित्य और अंशतः अनित्य मानते हैं । ३-सान्त अनन्तवाद--भिक्षुओं ! कितने श्रमण ब्राह्मण हैं. जो चार कारणोंसे लोकको सान्त और अनन्त मानते हैं । ४-अमराविक्षेपवाद--भिक्षुओं! कोई श्रमण या ब्राह्मण ठीकसे नहीं जानता कि यह अच्छा या बुरा । अतः वह असत्य भाषणके भय और घृणासे न यह कहता है कि यह अच्छा है और न यह कहता है कि बुरा है । ऐसा वह चार कारणोंसे करता है। ५-अकारणवाद-भिक्षुओं ! कितने श्रमण और ब्राह्मण अकारणवादी हैं। दो कारणों से आत्मा और लोकको अकारण उत्पन्न मानते हैं। ६-मरणान्तर होशवाला आत्मा-भिन्नुओं ! कितने श्रमण और ब्राह्मण मरनेके बाद आत्मा असंज्ञी रहता है ऐसा मानते हैं। ऐसा वे सोलह कारणोंसे मानते हैं। ____-मरणान्तर बेहोश आत्मा-भिक्षुओं ! कितने श्रमण और ब्राह्मण आठ कारणोंसे मरनेके बाद आत्मा असंज्ञी रहता है, ऐसा मानते हैं । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय ५६३ ८ - मरणान्तर न होश वाला न बेहोश आत्मा - भिक्षुओं ! कितने श्रमण ब्राह्मण आठ कारणोंसे मरनेके बाद आत्मा न संज्ञी रहता है न असंज्ञी रहता है, ऐसा मानते हैं । ६- आत्माका उच्छेद - भिक्षुत्रों ! कितने श्रमण ब्राह्मण सात कारणोंसे आत्माका उच्छेद - विनाश मानते हैं । १० - इसी जन्म में निर्वाण - भिक्षुओं ! कितने श्रमण ब्राह्मण पांच कारणोंसे ऐसा मानते है कि प्राणीका इसी संसार में देखतेदेखते निर्वाण हो जाता है 1 इन दस मूल बातोंके क्रमसे ४+४+४+४+२+१६+८ + ८ः +७+५ = ६२_कारणोंसे ६२ मत होते हैं । आत्माकी नित्यता, अनित्यता, नित्यानित्यता, आदिको लेकर ही उक्त मत प्रवर्तित हुए है । उक्त तीन सौ त्रेसठ मतोंमें ही इन्हें भी गर्भित किया जा सकता है। यहां इनके प्रदर्शनका केवल इतना ही प्रयोजन है कि एक ही विचारको लेकर अनेक मतोंकी सृष्टि होना संभव है और इस तरह के मत महावीर और बुद्धके समय में प्रवर्तित थे । उन्हीं सबका निरूपण और निराकरण दृष्टिवा में किया गया था । अब तत्वार्थवशर्तिक में जो प्रत्येक वादोंके कतिपय अनुयायियों के नाम दिये हैं, उनका यथा संभव परिचय कराया जाता है । कलंक देवने कौत्कल, काणेविद्धि, कौशिक, हरिश्मश्रु मांछपिक, रोमश, हारीत, मुण्ड, और आश्वलायनको क्रियावादी कहा है । और सिद्धसेन गणिने इन्हें अक्रियावादी कहा है । इनमें से कुछ नामोंके सम्बन्धमें हमें जो जानकारी प्राप्त हो सकी, वह इस प्रकार है काणेविद्धि (काठेविद्धि) - पाणिनिकृत व्याकरण (४-१-८१ ) ३८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका में काण्ठेविद्धि आचार्यका नाम आता है । सामवेदके वंश ब्राह्मणमें यह नाम आया है जिससे सूचित होता है कि यह सामवेदके आचार्य थे। ( पा० भा०, पृ० ३२१ )। ____ कौशिक-पाणिनि व्याकरण ४-१-१०४ सूत्रके महाभाष्यमें लिखा है-विश्वामित्रने तप तपा मैं अनृषि न रहुँ। वह ऋषि हो गया। पुनः उसने तप तपा-मैं अन्टषिका पुत्र न रहूं। तब गाधि भी ऋषि हो गया। उसने पुनः तप तपा-मैं अनृषिका पौत्र न रहूं। तब कुशिक भी ऋषि हो गया। अतः कुशिकका पौत्र होनेसे विश्वामित्र कौशिक थे । ऋग्वेदमें जिन सात ऋषियों के नाम आये हैं उनमें एक विश्वामित्र भी हैं । अथर्ववेदमें भी विश्वामित्र नाम आता है। कौशिक नामक एक ऋषि अथर्वसूत्रोंके व्याख्याकार भी हुए हैं। कौशिक गृह्यसूत्र और कौशिक स्मृति नामक दो ग्रन्थ भी हैं महाभारतमें धर्मव्याध ने एक कौशिक नामके ब्राह्मणको उपदेश दिया है। हमें यहां कौशिकसे वैदिक ऋषि विश्वामित्र हो अभिप्रेत प्रतीत होते हैं। माञ्छपिक-धवला टीका (पु० १, पृ० १०७ ) में मांधपिक नाम है और सिद्धसेन गणिकी टीकामें (त० भा० टी० भा०, पृ० ६१) मांधनिक नाम छपा है। उसके सम्पादक ने अपनी प्रस्तावना (पृ०५६ ) में लिखा है कि डा० SCHRA DER 'मान्थनिक' नाम बतलाते हैं। किन्तु वह पता नहीं बतलाते कि वह कौन थे। सम्पादक श्री कापड़ियाका कहना है कि 'यदि यह नाम ठीक है तो वह मन्थ सिद्धान्तका संस्थापक हो सकता है। वृहदारण्यक ( ३-७-१, ६-३-१) में इस मन्थ सिद्धान्तका निर्देश है । कहा जाता है कि श्वेतकेतुका पिता उद्दालक उसका मूल रचायिता था। श्री भगवदत्तने अपने वैदिक वाङ्मयके इतिहासमें ( भा० २, पृ० ५५) उद्दालक आरुणिकी परम्परा दी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६५ श्रुतपरिचय है। उसमें तीसरे नम्बरका नाम 'मधुक पैगय' है यह नाम 'मांध पिक' से बहुत मिलता जुलता है। हारीत - श्री भगवदत्तजी ने लिखा है (पृ. २८) कि हेमाद्रि श्राद्धकल्प में पृ० ७५ पर हारोत स्मृतिपर टीका लिखनेवाले में जयसेनका स्मरण किया गया है। एक हरीत धर्मसूत्रके रचयिता हुए हैं (हि. ध० पृ० ७०-७५ ) । वे कृष्ण यजुर्वेद शाखाके थे। ये दोनों एक ही हैं या भिन्न हम नहीं कह सकते । फिर भी अकलंक देवने इन्हीं में से एकका निर्देश किया जान पड़ता है। मुण्ड-एक उपनिषद्का नाम मुण्डक है । शायद यह उसीसे सम्बद्ध हो ? आश्वलायन-षड्गुरुशिष्यने ऋक् सर्वानुक्रमणी वृत्तिकी भूमिकामें लिखा है कि शौनकने ऋग्वेद सम्बन्धी दस ग्रन्थ लिखे और उनके शिष्य आश्वलायनने तीन ग्रन्थ लिखे-श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र और आरण्यक चौथा। (वै० वा० इ०, भा०२, पृ० २२६)। इन्हीं प्रसिद्ध आश्वलायनका उल्लेख अकलंक देवने किया जान पड़ता है। शेष क्रियावादियोंके विषयमें हमें कोई जानकारी प्राप्त नहीं हो सकी। ____ मरीचिकुमार, कपिल, उलूक, गार्ग्य, व्याघ्रभूति, वाद्वलि, माठर, मौद्गलायनको अकलङ्कदेवने अक्रियावादी कहा है। और सिद्धसेनगणिने इन्हें क्रियावादी कहा है। ___ मरीचिकुमार-डा० Schrader भगवान ऋषभदेवके पौत्र मरीचिकुमारको ही उल्लिखित मरीचिकुमार मानते हैं। और यह उचित भी प्रतीत होता है क्योंकि मरीचिकुमारके पश्चात् ही कपिल का नाम है जो सांख्य दर्शनका संस्थापक था। जिन सेनने अपने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ०-पूर्व-पीठिका महापुराण पर्व १८ श्लो ६१, ६२ में लिखा है कि ऋषभदेवका पौत्र मरीचि भी भगवान के साथ प्रव्रजित हुआ और उसने भ्रष्ट होकर सांख्य म का प्रतिपादन किया। ___कपिल-कपिल ऋषि सांख्य दर्शनके संस्थापकोंमें से हुए हैं। सांख्यकारिकाकी अन्तिम कारिकासे भी यह प्रकट होता है। श्वेताश्वतर उपनिषद्में कपिलको ब्राह्मणका बौद्धिक पुत्र कहा है म० भा० के शान्ति पर्वमें भी कपिलको ब्राह्मणका मानस पुत्र कहा है। भागवतमें कपिलको विष्णुका अवतार बतलाया है। ___ उलूक-वैशेषिक दर्शनके पुरस्कर्ता कणाद ऋषिका नाम उलूक भी था। इसीसे वैशेषिक दर्शनको औलुक्य दर्शन भी कहते हैं। सांख्य कारिका नं०७१ की माठर वृत्तिमें भी उलूक नाम आया है। उससे प्रतीत होता है कि सांख्य दर्शनमें भी कोई उलूक नामक ऋषि हुए हैं। डा. 'कीथने लिखा है कि सांख्य कारिकाके चीनी अनुवादमें सांख्य दर्शनके आचार्योंकी एक तालिका दी हुई है जिसमें पंचशिखके पश्चात् और वर्ष तथा ईश्वर कृष्णके पहले गार्ग और उलूक नाम दिया है। अतः सांख्य दर्शनके उलूक ही उल्लिखित उलूक होने चाहिएं, क्योंकि मरीचि और कपिल भी सांख्य दर्शनके ही पुरस्कर्ताओं में से थे। गार्य-यास्कने धातुओंसे नामकी उत्पत्तिके विषयमें गार्ग्यके मतका उल्लेख किया है। ऋक् और यजुः प्राति शाख्यमें भी गार्ग्य का नाम आया है । पा० भा०, पृ० ३३४) । वृहदारण्यक उपनिषद् १-ह. इं० सा०, पृ० ४४ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय ५९७ में ऋषियोंकी जो तालिका दी है उसमें भी दो गाग्र्योंका निर्देश मिलता है। उनमेंसे एक गार्य याज्ञवल्क्यके समकालीन थे। ऊपर उल्लिखित सां० कारिकाके चीनी अनुवादमें सांख्य दर्शनके जिन प्राचार्योंका नाम दिया है उनमें एक गार्ग्य नाम भी है । चकि अकलङ्क देवने प्रक्रियावादियोंमें सांख्य दर्शनके पुरस्कर्ता आचार्यो को ही गिनाया है अत:यह गार्य उन्हींमें से होना चाहिए। ___ व्याघ्रभूति-सि० कौ० में दो कारिकाएं। आई हैं जिनमें व्याघ्रभूतिके मतका निर्देश है। कोलब्रुकने भी लिखा है कि व्याघ्रभूति और व्याघ्रादकी वार्तिकोंका उल्लेख अनेक ग्रन्थकारों ने किया है। अतः यह व्याघ्रभूति वैयाकरण ज्ञात होते हैं। (त. भा० टी०, प्रस्ता० पृ० ५८)। माठर-सांख्य कारिका पर माठर वृत्तिके रचयिता माठर प्रसिद्ध हैं। अतः कपिल आदि सांख्योंके साथ उनका ही नाम निर्देश होना सम्भव है। किन्तु दृष्टिवादमें उनके मतका निराकरण होना सम्भव नहीं है क्यों कि उनका काल प्रायः ईस्वी सन्की प्रथम शतीसे पूर्व नहीं है। प्राचीन कालमें माठर नामके एक वैदिक ऋषि भी हुए हैं। मौद्गल्यायन-तैत्तिरीय उपनिषद्में एक मौद्गल्यायनका उल्लेख है। गोपथ ब्राह्मणमें मौद्गल नामक ऋषिका नाम आया १--'विन्दतिश्चान्द्रदौर्गादेरिष्टो भाष्येऽपि दृश्यते। व्याघ्रभूत्यादयत्स्वेनं नेह पेटुरिति स्थितम् ।' १०॥ रजी मस्जी अदि पदी तुद् क्षुध शुषि पुषी शिषिः । भाष्यानुक्ता नवेहोक्ता व्याघ्रभूत्यादिसम्मतेः ।।११।।' --सि० को० २--'संध्यास्ति माठरश्चैव याज्ञवल्क्यः पराशरः । --वै० वा० इ०; भा० २, पृ० ६३ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ जै० सा० इ० - पूर्व पीठिका है। एक मोग्गलायन बुद्धदेव के शिष्य भी थे। नहीं कह सकते कि अलङ्कदेव के द्वारा निर्दिष्ट क्रियावादी मौद्गल्यायन इनमें से कौन हैं ? उल्लिखित व्यक्तियों के उक्त अनुमानिक परिचय से प्रतीत होता है कि अकलंक देव ने कतिपय वैदिक ऋषियों को क्रियावादी और सांख्य दर्शनके प्रर्वतकोंको अक्रियावादी कहा है । वैदिक ऋषि क्रियाकाण्डी थे अतः उन्हें क्रियावादी मानना उचित है और सांख्य दर्शन में आत्मा को अकर्ता माना गया है। अतः उसके पुरस्कर्ताओं को अक्रियावादी कहना भी उचित ही है । किन्तु सिद्धसेनने सांख्यवादियोंको क्रियावादी और क्रियाकाण्ड वैदिकको अक्रियावादी किस दृष्टि से बतलाया है यह हम नहीं कह सकते । अस्तु, साकल्य, वाल्कल, कुथुमि, सत्यमुग्रि, कठ, माध्यंदिन, मौद, पैप्पलाद, बादरायण, अम्बष्ठ, वसु, जैमिनिको अकलंकने ज्ञानवादी कहा है । W साकल्य - पाणिनिने अष्टाध्यायी में शाकल्यका उल्लेख किया है । शाकल्य ने ऋग्वेद का पदपाठ स्थिर किया । पद पाठ में जो इति का प्रयोग है उसे पाणिनीने शाकल्य कृत अनार्ष इति कहा है (१-१-१६) । ( पा० भा० पृ०, ३३३ ) | महाराज जनक की सभा में याज्ञवल्क्य का ऋषियों के साथ जो महान् संवाद हुआ था उसका वर्णन शतपथ काण्ड ११ - १४ में है । ऋषियों में एक विदग्ध शाकल्य था । याज्ञवल्क्य का उत्तर न देने से उसका मस्तक गिर गया । यह शाकल्य ऋग्वेद का प्रसिद्ध आचार्य हुआ। है । यही पदकारों में सर्व श्रेष्ठ था । इसका पूरा नाम देव मित्र शाकल्य था । ( वै० वा० इ०, भा० २, पृ० ७६ ) । I Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय ५६६ वाल्कल-वाल्कल या वल्कल नाम अशुद्ध प्रतीत होता है। सिद्धसेनगणिकी तत्वार्थ टीका ( भा० २, पृ० १२३ ) में वाष्कल नाम दिया है । यही शुद्ध पाठ जान पड़ता है । वाष्कल ऋग्वेद का महत्त्वपूर्ण चरण था। शाकलों और वाष्कलों का साथ-साथ उल्लेख भी देखा जाता है । चरण एक प्रकार की शिक्षा संस्था थी जिसमें वेद की एक शाखा का अध्ययन शिष्य समुदाय करता था और जिनका नाम मूल संस्थापक के नाम से पड़ता था । वाष्कल चरण के प्रमुख शिष्य पराशर थे जिन्होंने पाराशय शाखाका प्रारम्भ किया। पाराशर्य लोगों को कोई स्वतंत्र शाखा या छन्द ग्रन्थ न था, उसके लिये वे वाष्कल शाखा पर निर्भर थे। ( पा० भा०, पृ० ३१५)। सम्भवतया अकलंक देवने वाष्कल चरण के संस्थापक ऋषि का ही नाम अज्ञानवादियों में लिया प्रतीत होता है। कुथुमि-साम वेद की एक शाखा का नाम कुथुम है। वायु. पुराण अध्याय २३ में द्वैपायन से पूर्व के प्रत्येक द्वापर के अन्त में होनेवाले २७ व्यासों के नाम लिखे हैं। उनमें १६ वां व्यास भरद्वाज था। उसके समकालीन हिरण्य नाभ कौसल्य लौगाति और कुथुमि थे। ये सामवेदाचार्य द्वैपायन व्यास से कुछ ही पहले हुए थे ( वै. वा० इ०, भा० १, पृ० ७० ) । सम्भवतया अकलंक देव ने सामवेदाचार्य कुथुमि का ही निर्देश अज्ञानवादियों में किया है।' __ सात्यमुनि-पाणिनि ने साम वेद के अन्य चरणों में शौचि. वृक्षि और सात्यमुनि चरणों का नाम लिया है । (४-१-८१) । १-आश्व लायन गृह्य सूत्रकी नारायण वृति में लिखा है-'शाकलसमाम्नायस्य वाष्कलसमाम्नायस्य चेदमेव सूत्रं गृह्यं चेत्यध्येटप्रसिद्धम् ।' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० जै० सा० इ०-पूर्वपीठिका साम वेद के राणायनीय चरण की एक शाखा का नाम सत्यमुनि था। इनके विषय में अपिशली शिक्षा के षष्ठ प्रकाश में लिखा है कि सात्यमुनि शाखावाले सन्ध्यक्षरों को ह्रस्व पढ़ते हैं । अर्ध एकार और अर्ध श्रोकार के उच्चारण को सात्यमुनि और राणायनीय चरणों की परिषत् ने अपने प्रातिशाख्यों में स्वीकार किया था । (पा० भा०, पृ. ३२० । वै० वा० इ०, भा० १, २१३) । इन्हीं सात्यमुनि का उल्लेख अकलंक देव ने अज्ञानवादियों में किया प्रतीत होता है। नारायण-नारायण' पाठ अशुद्ध प्रतीत होता है। इसके स्थान में 'राणायन' होना चाहिये। लेखकों के प्रमाद या बुद्धि दोष के कारण राणायन का नारायण हो गया जान पड़ता है। सिद्धसेनगणि की टीका में 'राणायन' पाठ ही मुद्रित है। यह ऊपर लिखा है कि सामवेद की राणायनीय चरण की एक शाखा का नाम सात्यमुनि है। अतः सात्यमुनि के निकट में राणायनीय शाखा के संस्थापक राणायन का ही निर्देश उचित प्रतीत होता है। किन्तु एक शाखा चारायणीय भी थी। चर ऋषि का गोत्रापत्य चारायण है। पाणिनीय गण (४-१-६६) में चर का स्मरण किया गया है। चारायणयों का एक मंत्रार्षाध्याय भी मिलता है । ( वै० वा० इ०, भा० १,पृ० १९०)। अतः यह कहना शक्य नहीं है कि नारायण के स्थान में राणायन होना चाहिये या चारायण। कठ-महा भारत' (शान्तिप्रर्व अ० ३४४ ) में राजा उपरिचर वसु के यज्ञ का वर्णन है, वहाँ १६ ऋत्वजों में से एक आद्य कठ भी थे। इससे प्रतीत होता है कि कठों में जो प्रधान कठ १-'श्राद्यः कठस्तैत्तिरिश्च वैशम्यायन पूर्वजः ।। ६ ।।' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय था, अथवा जो उन सब का मूल गुरु था, उसे ही आद्य कठ कहा है। पाणिनि ने कठों का स्वतंत्र उल्लेख किया है। यह चरकों का अति प्रसिद्ध चरण' था, जिसके अनुयायी गाँव-गाँव में फैल गए थे। कठों की शाखा के विषय में कहा जाता था कि वह अत्यन्त विशाल और सुविरचित ग्रन्थ था । ( पा० भा०, पृ० ३१८ ) । इन्ही कठों के आद्य गुरु का उल्लेख अकलंक देव ने अज्ञान वादियों में क्रिया प्रतीत होता है। माध्यन्दिन-शुक्ल यजुर्वेद की एक शाखा का नाम माध्य. न्दिन शाखा है। इस समय यही शाखा सब से अधिक पढ़ी जाती है । संहिता के हस्तलिखित ग्रन्थों में इसे बहुधा यजुर्वेद या वाजसनेय संहिता ही कहा गया है । इसके संस्थापक माध्यन्दिन ऋषि का ही निर्देश अकलंक देव ने अज्ञानवादियों में किया जान पड़ता है। ___ मौद और पैप्पलाद-मौद और पैप्पलाद दोनों अथर्ववेदके चरण थे। इन दोनों चरणोंमें ज्ञानसाहचर्य था। पाणिनिने 'कार्तकौजपादि गणमें (६-२-३७) 'कठकलापाः' कठकौथुमाः १-'चरण शब्दाः कठ कलापादयः ।'-का०वृ० ४-२-४६ । २-'ग्रामे ग्रामे च काठकं कालापकं च प्रेच्चते ।। पा० महा० ४-३-१०१। ३--'कठं महत् सुविहितम्'-पा० महा० ४-२-६६, वा० २ । ४-पात० महा० के पस्पशाह्निकमें अथर्ववेदको नवशाखा युक्त कहा है । यथा-'नवधाथर्वणो वेदः ।' इन नौ शाखाओंके विषयमें प्राथर्वण परिशिष्ट चरणव्यूहमें लिखा है-'तत्र ब्रह्मवेदस्य नव भेदा भवन्ति । तद्यथा पैप्पलादाः स्तौदाः मौदाः शौनकीयाः जाजलाः जलदाः ब्रह्मवदा देवदर्शाः चारणवैद्याः चेति । - वै. वा. इ., भा. १, पृ. २२० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका मौदपप्पलादाः' उदाहरणोंके द्वारा इस बातका उल्लेख किया है (पा० भा०, पृ. २६४ )। पात० महा० (४-२-६६ ) में 'मौदाः' पैप्पलादाः प्रयोग भी मिलते हैं । अतः महाभाष्य कालमें ये शाखाएं बहुत प्रसिद्ध रहीं होंगी। अथर्व परिशिष्ट (२२-३ ) में मौदका मत दिया है। स्कन्द पुराण (नगर खण्ड) के अनुसार पिप्पलाद सुप्रसिद्ध याज्ञवल्क्यका ही एक सम्बन्धी था। प्रश्न उपनिषद्के प्रारम्भमें लखा है कि भगवान पिएपलादके पास सुकेशा भारद्वाज आदि छः ऋषि गये थे। वह पिप्पलाद महाविद्वान और समर्थ पुरुष था। _ वादरायण-परम्परासे ब्रह्म सूत्रोंका रचयिता बादरायणको माना जाता है । मत्स्यपुराण ( १४-१६ ) में कहा है कि वेदव्यास का एक नाम बादरायण भी था। कृष्ण द्वैपायन व्यास पराशर ऋषिके पुत्र थे तथा महाभारतके रचयिता थे। जैमिनि सूत्रों ( १-१-५,५-२-१६ ) में भी बादरायणका निर्देश है। एक बादरायण 'स्मृतिकार भी हुए हैं। सूत्रकार बादरायणका निर्देश अकलङ्कदेवने किया हो, यह सम्भव प्रतीत होता है ।। ____ बादरायणके पश्चात् 'तत्वार्थवार्तिक में प्रदत्त दो नामोंको लेकर अनेक पाठान्तर मिलते हैं। यथा, 'अम्बष्टिकृदौ विकायन, अम्बष्ठिकृदैलिकायन, अम्बरीशस्विष्टिकृदैतिकायन'। सिद्धसेन गणिकी त. भा० टीका (भा० २, पृ० १२३ ) में 'स्विष्टिकृद् अनिकात्यायन; मुद्रित है । तथा धवला टीका ( पु० १, पृ० १०८) में 'स्वष्टकृदैतिकायन' नाम दिये हैं। इनसे मिलते १-हि० ध०, पृ. ७१४ । २-भा. ज्ञा. काशी संस्करण, पृ. ७४ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय ६०३ जुलते जिन नामोंके सम्बन्धमें हमें जानकारी प्राप्त हो सकी, उन्हें दिया जाता है। अम्बरीश-अंगिरा कुलके मंत्रदृष्टाओंमें अम्बरीश एक क्षत्रीय कुलोत्पन्न मंत्रदृष्टा हुआ है । राजा अम्बरीश बहुत पुराना व्यक्ति माना जाता है । महाभारतमेंभी इसका नाम आया है। कौटिल्यके अर्थशास्त्र में ( १-६) भी उसका नाम आया है। स्वैदायन-शतपथमें शौनक स्वैदायन' नामक आचार्यका नाम आता है। चैकितायन-वृहदारण्यकमें लिखा है कि शिलक शालावत्य, चैकितायन दाल्भ्य, और प्रवाहण जाबालि ये तीनों उद्रीथमे कुशल थे। प्रवाहण जावालिका चैकितायनदाल्भ्य से संवाद हुआ था । वसु-व्यास मुनिसे ऋग्वेद पढ़नेवाले शिष्यका नाम पैल था। महाभारत में लिखा है कि युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञके समय व्यास ऋत्विक कर्मके लिये एक पैल को साथ लाये थे । यह पैल वसु का पुत्र था। पुराणोंमें लिखा है कि व्याससे ऋग्वेद पढ़कर पैलने उसकी दो शाखाएं करदों। एकको उसने वाष्कल को पढ़ाया और दूसरीको इन्दुप्रमति को । इस प्रमतिको वेदवेदांगपारग कहा है। ब्रह्माण्डपुराणके तीसरे पादमें लिखा है १-'स्वैदायनेनेति । शोनको ह स्वैदायन श्रास ।'-शतपथ० ११-४-१-१ । २-'त्रयो होद्गीथे कुशला बभुवुः । शिलकः शालावत्यः । चैकितायनो दाल्भ्यः । प्रवाहणो जैवलिः।' वृह० ६-२-३ । ३-- पैलो होता वसोः पुत्रो धौम्येन सहितोऽभवत् ।।' ३५ ॥-म० भा०, सभापर्व, अ० ३६ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०४ ज० सा० इ०-पूर्व पीठिका कि इस इन्दु प्रमति का पुत्र वसु और वसुका पुत्र उपमन्यु था। सम्भवतया इन दोनोंमें से ही किसी एक वसुका निर्देश अकलंकदेवने किया है। ___ जैमिनि-ऐसा प्रतीत होता है कि जैमिनि नामके अनेक विद्वान् हुए हैं। एक जैमिनि व्यास' ऋषिका शिष्य था । महाभारत सभापर्व (४-१७ ) से ज्ञात होता है कि युधिष्ठिरके सभाप्रवेशके समय जैमिनि उपस्थित था । उधर आदिपर्वमें लिखार है कि महाराज जनमेजयके नागयज्ञमें जैमिनि उद्गाता का कार्य करता था । साम संहिताकारोंके लांगल समूहमें भी एक जैमिनि का नाम आता है। सामवेदाचार्य जैमिनि और उनके शिष्य तलवकारने जैमिनि ब्राह्मणका संकलन किया था । इसे ही सामवेद को जैमिनीय संहिता का प्रवक्ता कहा जाता है। एक जैमिनि मीमांसा शास्त्रके रचयिता भी हुए हैं । वेदान्तसूत्रों में उनका उल्लेख है। ____ उक्त वैदिक ऋषियों और आर्योंको अकलंक देवने अज्ञानवादी कहा है। अकलंक देव ने वशिष्ठ, पाराशर जनुकणि, वाल्मीकि, रोमहर्षिणी, सत्यदत्त, व्यास, एलापुत्र, औपमन्यव, ऐन्द्रदत्त और अयस्थूणको वैनयिक दृष्टि कहा है। १-'ब्रह्मणो ब्राह्मणानां च तथानुगृहकाया । विव्यास वेदान् यस्मात् स तस्माद् व्यास इति स्मृतः ।।१३०।। वेदानध्यापयामास महाभारतपञ्चमान् । सुमतुंन जैमिनि पैलं शुकं चैव स्वमात्मजम् ।। १३१ ।।'-म० भा०, अादिपर्व, अ०६४ । २-'उद्गाता ब्राह्मणो वृद्धो विद्वान् कौत्सार्य जैमिनिः'-म० भा०, आदिपर्व, अ. ४८ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय ६०५ वशिष्ठ--वशिष्ठ नामके भी अनेक व्यक्ति पाये जाते हैं। एक तो वह वशिष्ठ है, जिनको गणना' दस महषियों में की गई है। एक वशिष्ठ योगवाशिष्ठ रामायण के रचयिता हुए हैं। एक वशिष्ठ धर्म सूत्र के रचयिता हुए हैं। इनमें से किन वशिष्ठ का ग्रहण निर्देश अकलंक देवको अभिप्रेत है यह निर्णय कर सकना दुःशक्य है। तथापि आगे के नामों को देखते हुए वैदिक ऋषि वशिष्ठ का ही ग्रहण इष्ट प्रतीत होता है। इन्होंने अथर्व वेद के मंत्रोंका उद्धार किया था। पाराशर-वासिष्ठ कुल में सात ब्रह्मवादी हुए हैं। इनमें प्रथम वशिष्ठ थे और दूसरे थे पराशर । इसी पराशर का पुत्र कृष्ण द्वैपायन व्यास था। इसीसे उसे पाराशर्य भी कहते थे। चूँकि व्यास का नाम आगे लिखा है अतः वसिष्ठ के पश्चात् 'पराशर' नाम ही उचित प्रतीत होता है । सिद्ध सेन गणि की टीका में पाराशर' नाम पाया जाता है । ___ जनुकर्णि ( जातुकर्ण्य )-पुराणों में लिखा है कि वाष्कलने चार संहिताएं बनाकर अपने चार शिष्योंको पढ़ाई । उनके नाम थे-बौद्धय, अग्निमाठर, पराशर और जातुकयं । श्री मद्भागवतके १-'भृगुर्मरीचिरत्रिश्च ह्यङ्गिराः पुलहः क्रतुः। मनुर्दक्षो वसिष्ठश्च पुलस्त्यश्चेति ते दश ॥६६॥ ब्रह्मणो मनसा ह्यते उद्भ ताः स्वयमीश्वराः। परत्वेनर्षयो यस्मात् स्मृता स्तस्मान्महर्षयः ॥६७॥ -ब्रह्माण्डपु०, -२-३२-६२। २-किरात १०-१० की टीका में मलिनाथ लिखते हैं-'अथर्वणस्त मंत्रोद्धारो वशिष्ठकृत इत्यागमः ।' ३-'बौध्यं तु प्रथमां शाखां द्वितीयमग्नि माठरम् । पराशरं तृतीयां तु जातुकर्ण्यमथापरम् ।' -वै० वा० इ०, भा० १, पृ० ६३ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका बारहवें स्कन्धके वेदशाखा प्रकरणमें जातुकर्यको ऋग्वेदीय आचार्य माना जाता है । वायु पुराण अ० २: में और ब्रह्माण्ड पुराण, पाद २, अ०३५ में द्वैपायन से पहले जातुकर्ण्य, पराशर, शक्ति आदि व्यास माने गये हैं । वायु पुराण के प्रथम अध्यायमें लिखा है कि वशिष्ठ का पौत्र जातुकर्ण्य था। उसी से व्यासने वेदाध्ययन किया । ब्रह्मांड पुराण ( १-१-११ ) में भी यहीं बात लिखी है। वृहदारण्यक उपनिषद् २-'-३ और ४-६-३ में भी लिखा है कि पाराशर्य-व्यास ने जातुकर्ण्य से विद्या सीखी । वायु पुराणके अनुसार जातुकय॑ वशिष्ठका पौत्र था। अतः वह पराशर का भाई हो सकता है । ( वै० वा. इ० भा० १, पृ० ६५ ) । अतः जनुकर्णि के स्थान में जातुकर्ण्य पाठ ठीक प्रतीत होता। .. वाल्मीकि- रामायणके रचयिता वाल्मीकि ऋषि प्रसिद्ध हैं। रोम हर्षणी ( रोम हर्षण)-पुराण संहिताओं के रचयिता के रूपमें एक सूत रोमहर्षण का नाम मिलता है । वायु पुराण में लोमहर्षण या रोमहर्षण नामकी व्याख्या इस प्रकार की है-जो अपने कथनों के द्वारा सुनने वालेके शरीरके रोमोंको पुलकित कर देता है वह वक्ता रोमहर्षण कहा जाता है। ___ सत्यदत्त-सत्य काम जावाल, सत्ययज्ञ आदि नामके व्यक्तियों का तो निर्देश मिलता है। किन्तु सत्यदत्त नामकी जानकारी नहीं मिल सकी। व्यास--पराशर ऋषि के पुत्र महाभारत के रचयिता महर्षि व्यास प्रसिद्ध है। एलापुत्र या इलापुत्र-श्री कापड़ियाने लिखा है कि पुराणों से पता चलता है कि प्रजापति कदमका पुत्र इल या एल था। वह वाल्हीक देशका राजा था। वह स्त्री रूपमें परिवर्तित हो गया Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय ६०७ और उसका नाम इला या एला हो गया। इस अवस्था में उसके पुरुरवा नामक पुत्र हुआ। हम नहीं कह सकते कि निर्दिष्ट एलापुत्र वही है या दूसरा ( त० भा० टी०, भा० २ की प्रस्ता०, पृ०६१)। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी एक ऐल नामक राजा का निर्देश मिलता है। ___औपमन्यव-छान्दोग्य उपनिषद् के अनुसार औपमन्यव प्राचीन शाल, सत्ययज्ञ पौलुषि, इन्द्रद्युम्न भाल्लवेय, जन शार्कराक्ष्य और बुडिल आश्वतराश्वि ये पाँच महाश्रोत्रिय आत्माका स्वरूप जानने के लिए गए थे । उल्लिखित औपमन्यव और प्राचीन शाल औपमन्यव एक ही प्रतीत होते हैं। , ऐन्द्रदत्त- यह नाम नहीं मिलता। इन्द्रदत्त भी हो सकता है, किन्तु इन्द्रदत्त नामके भी किसी व्यक्तिका पता नहीं चलता। हाँ, इससे मिलता जुलता इन्द्रोत शौनक नाम मिलता है। इन्द्रोत शौनक ने जनमेजयको अश्वमेध यज्ञ कराया था। अयःस्थूण-शतपथ ब्राह्मण (१४-६३-१५,२० ) में एक गुरु शिष्य परम्परा दी है। उसमें 'जानकि आयस्थूण' नाम मिलता है । अकलंक देवके अनुसार इन सब वादियों के मतोंका वर्णन और निराकरण दृष्टिवादमें था। अकलंक देवने जो तत्तत् १-'प्राचीनशालोपमन्यवः सत्ययज्ञः पौलुषिरिन्द्रद्युम्नो भाल्लवेयो जनः शार्कराक्ष्यो बुडिल श्राश्वतराश्वि...ते ह संवादयांचक्रु रुद्दालको वै भगवन्तोऽयमारुणिः संप्रतीममात्मानं वैश्वानरभमभ्येति-छा० उ० ५-११-१.४.। २-'एवमुक्त्वा तु राजानमिन्द्रोतो जनमेजयम् । याजयामास विधिवद् वाजिमेधेन शौनकः ॥३८।।-म० भा०, शान्ति०, अ० १५१ । शतपथ. १३-५-३-५ में भी इन्द्रोत शौनक नाम मिलता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका वादियों के कतिपय नामों का निर्देश किया है, उसका क्या आधार था, यह हम बतलानेमें असमर्थ हैं। फिर भी यह स्पष्ट है कि अकलंक देव के द्वारा निर्दिष्ट उक्त सभी वादी प्रायः वैदिक ऋषि हैं। और अक्रियावादियोंमें सांख्य दर्शन के पुरस्कर्ताओं का तथा अज्ञान वादियों में ब्रह्म सूत्रकार वादरायण और पूर्व मीमांसा के प्रवर्तक जैमिनि का नाम निर्देश किया है। ये सभी दर्शनकार प्राचीन हैं। किन्तु बौद्धमत के प्रवर्तक का या किसी प्राचार्य का नाम निर्देश अकलंक देव ने नहीं किया है। यद्यपि उनके समय में बौद्ध दर्शन की ही तूती बोल रही थी और अपने ग्रन्थों में उन्होंने धर्मकीर्ति वगैरहका काफी खण्डन भी किया है। इससे ऐसा लगता है कि उनके द्वारा निर्दिष्ट नाम अवश्य ही किसी परम्परागत स्रोत से उन्हें प्राप्त हुए होंगे। सिद्धसेन गणि ने भी अपनी तत्त्वार्थ भाष्य टीका के आठवें अध्याय के आरम्भ में वे ही नाम दिये हैं, जो अकलंकदेवके तत्त्वार्थ वार्तिकसे लिये गये प्रतीत होते है। किन्तु सिद्धसेन गणि ने यह नहीं लिखा कि दृष्टिवादमें इन मतों का निरूपण और निराकरण था। यह तो केवल अकलंकदेवने ही लिखा है। अकलंक देव ने दृष्टिवाद के पाँच भेद बतलाये हैं-परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग पूर्वगत और चूलिका। और पूर्वगत के चौदह भेद गिनाये हैं, तथा यह भी बतलाया है कि किस पूर्व में किन २ विषयों का वर्णन था। अकलंक देव के पूर्ववर्ती पूज्यपाद ने सर्वार्थ सिद्धि (अ० १, सू० २०) नामक अपनी तत्त्वार्थवृत्ति में भी दृष्टिवाद के उक्त पाँच भेद तथा पूर्व के चौदह भेदों के नाम दिये हैं। किन्तु उन पूर्वो में वर्णित विषय का निर्देश नहीं किया। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय ६०६ कलंक देव के पश्चात् हुए श्री वीरसेन स्वामी ने अपनी धवला' और जयधवला २ टीकाओं के प्रारम्भ में दृष्टिवाद के उक्त भेदों का तथा उनमें वर्णित विषयों का प्रतिपादन करने के साथ ही साथ उन सब के परिमाण का भी कथन किया है । कलंक देव ने तो केवल चौदह पूर्वों के ही विषय का निर्देश किया है । किन्तु वीरसेन स्वामीने दृष्टवादके अन्य चार भेदों में भी वर्णित विषयका निर्देश किया है । दृष्टिवाद के सम्बन्ध में यह जानकारी तो उत्तर कालीन टीकाकारों से प्राप्त होती हैं। प्राचीन मूल ग्रन्थकारों से जो जानकारी प्राप्त होती है वह इस प्रकार है m दिगम्बर परम्परा के दो महान सिद्धान्त ग्रन्थ कुछ वर्षों से ही प्रकाश में आये हैं । उनमें से एक का नाम है कसाय पाहुड और दूसरे का नाम है ' छक्खण्डागम' । दोनों सिद्धान्त ग्रन्थों का निकास पूर्वों से हुआ था । ये उनके देखने से स्पष्ट होता है । कसाय पाहुड की प्रथम रे गाथा में बताया है कि 'ज्ञान प्रवाद नामक पाँचवे पूर्व के दसवें वस्तु अधिकार में पेज्ज प्राभृत है । उससे प्रकृत कसाय पाहुड की उत्पत्ति हुई है । टीकाकार वीरसेन स्वामी ने लिखा हैं कि अंग और पूर्वो का एकदेश आचार्य परम्परा से आकर गुणधर आचार्य को प्राप्त हुआ, और ज्ञान 1 १०६ - १२२ तथा पु. ६, पृ. २०३ - २२४ । १३२ - १४८ । १ - षट्ख., पु. १, पृ. २ – क. पा., भा. १, पृ. ३ – 'पुव्वभि पंचमम्भि दु दसमे वत्थुम्हि पाहुडे तदिए । पेज' ति पाहुडम्भि दु हवदि कसायाण पाहुडं गाम ॥ | १ | ' - क. पा., भा. १, पृ. १० । ४ - क. पा., भा. १, पृ. ८७ । ३६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० जै० सा० इ० पू०-पीठिका प्रवाद नामक पाँचवे पूर्व की दसवीं वस्तु सम्बन्धी तीसरे कषाय प्राभृत रूपी महा समुद्र के पार को प्राप्त श्री गुणधर भट्टारक ने प्रवचन वात्सल्य से प्रेरित होकर सोलह हजार पद प्रमाण पेज्ज दोस पाहुड़ ग्रन्थ का विच्छेद होने के भय से केवल एक सौ अस्सी गाथाओं में उपसंहार किया। ____ इसी तरह षटखण्डागम का उद्गम अग्रायणी' नामक दूसरे पूर्व के पंचम वस्तु अधिकार के चतुर्थ कर्मप्रकृतिप्राभत से हुआ है । टीकाकार वीरसेन स्वामी ने बतलाया है कि अग्रायणी पूर्व में चौदह वस्तु अधिकार होते हैं-पूर्वान्त, अपरान्त, ध्रुव अध्रुव, चयनलब्धि, अोपम, प्रणधिकल्प, अर्थ भौम, वतादि (?) सर्वार्थ, कल्प निर्याण, अतीत काल में सिद्ध और बद्ध तथा अनागत काल में सिद्ध और बद्ध। इनमें से चयन लब्धि नामक पाँचवे वस्तु अधिकार में प्राभत नामक बीस अधिकार होते हैं। उनमें चौथे प्राभृत का नाम कर्मप्रकृतिप्रामृत है। इस कर्मप्रकृति प्राभृत के चौबीस अधिकार होते हैं। ____ उक्त सिद्धान्त सूत्रों से यह प्रकट है कि पूर्वो में वस्तु और प्राभत नाम के अधिकार होते थे। वीरसेन स्वामी ने प्रत्येक पूर्व में वस्तु नामक अधिकारों की संख्या बतला कर लिखा है कि एक एक वस्तु अधिकार में प्राभृत नामक बीस-बीस अर्थाधिकार होते हैं और इन प्राभताधिकारों में से भी एक एक अर्थाधिकार में चौबीस-चौबीस अनुयोग द्वार नामक अर्थाधिकार होते हैं। १-'अग्गेणीयस्स पुव्वस्य वत्थुस्स चउत्थो पाहुडो कम्मपयडी णाम ॥४५॥' –घटखं., पु.६, पृ. १३४ । २-घट्वं., पु. १, पृ. १२३-१२४ । ३-क. पा., भा. १, पृ. १५१ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६११ श्रुतपरिचय श्रुतज्ञान के बीस भेद षट्खगडागम' के वर्गणा नामक खण्ड में श्रुतज्ञानके बीस भेद बतलाये हैं-पर्याय, पर्यायसमास, अक्षर, अक्षर समास, पद, पदसमास, संघात, संघात समास, प्रतिपत्ति, प्रतिपत्ति समास, अनुयोग, अनुयोगसमास, प्राभृत प्रामृत, प्राभृतप्राभृत समास, प्राभृत, प्राभूत समास, वस्तु, वस्तु समास और पूर्व, पूर्व समास । सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव के जो जघन्य ज्ञान होता है उसका नाम लब्ध्यक्षर है। यह ज्ञान नष्ट नहीं होता इसलिये इसे अक्षर कहते हैं। अथवा केवल ज्ञान अक्षर है क्योंकि उसमें हानि वृद्धि नहीं होती। द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा चूँकि सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव का ज्ञान भी वही है, इसलिये भी उस ज्ञान को अक्षर कहते हैं । यह ज्ञान केवल ज्ञान का अनन्तवां भाग है। तथा केवलज्ञान की तरह ही निरावरण है, क्योंकि आगमका कथन है कि अक्षरका अनन्तवां भाग ज्ञान नित्य उद्घाटित रहता है । इसके आवृत होने पर जीवके अभाव का प्रसंग आता है। इस लब्ध्यक्षर ज्ञान में सब जीवराशि का भाग देनेपर जो १-'पज्जय-अक्खर-पद-संघादय-पडिवत्ति-जोगदाराई। पाहडपाइड-वत्थू-पुव्व समासा य बोद्ध व्वा॥१॥-षट्खं० पु० १३, पृ० २६०॥ श्वेताम्बरीय प्रथम नवीन कर्म ग्रन्थ में भी श्रुतज्ञान के ये २० भेद दिये हैं यथा-पज्जय अक्खर पय-संघाया पडिवत्ति तह य अणु योगो । पाहड पाहुड पाहुड वत्थू पुव्वा य ससमासा ॥ ७ ॥ किन्तु अन्यत्र सर्वत्र ज्ञान की चर्चा में श्वेताम्बर परम्परा में पूर्वोक्त चौदह भेद ही पाये जाते हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२ जै० सा० इ० पू० पीठिका लब्ध आता है उसे लब्ध्यक्षर में मिला देने से पर्यायज्ञानका प्रमाण होता है । पुनः पर्याय ज्ञान में सब जीवराशि का भाग देने पर जो भाग लब्ध आवे उसे उसी पर्याय ज्ञान में मिला देने पर पर्याय समास ज्ञान होता है । अन्तिम पर्याय समास ज्ञान में सब जीव राशि का भाग देने पर जो लब्ध आवे उसे उसी में मिलाने पर अक्षर ज्ञान होता है । यह अक्षर ज्ञान सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्त के अनन्तानन्त लब्ध्यक्षरों के बराबर होता है । अक्षर के तीन भेद हैं- लब्ध्यक्षर, निर्वृत्यक्षर और संस्थानाक्षर । सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक से लेकर श्रुतकेवली पर्यन्त जीवों के जितने क्षयोपशम होते हैं उन सबकी लब्ध्यक्षर संज्ञा है । जघन्य लब्धक्षर, सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक के होता है और उत्कृष्ट चौदह पूर्वधर के होता है। एक अक्षर से जो जघन्य श्रुत ज्ञान उत्पन्न होता है वह अक्षर श्रुत ज्ञान है । इस इस अक्षर के ऊपर दूसरे अक्षर की वृद्धि होने पर अक्षर समास नामक श्रुत ज्ञान होता है । इस प्रकार एक एक अक्षर की वृद्धि होते हुए संख्यात अक्षरों की वृद्धि होने तक अक्षर समास श्रुत. ज्ञान होता है । संख्यात अक्षरों को लेकर एक पदनामक श्रुत ज्ञान होता है । पद' के तीन भेद हैं - अर्थ पद, प्रमाण पद और मध्यमपद । जितने से अर्थ का ज्ञान हो, वह अर्थपद है । अर्थ पद के अक्षरों १ - 'तिविहिं पदमुद्दिहं पमाणपद मत्थ मज्झिमपदे च । मज्झिम पदेण त्रुत्ता पुव्वंगांणं पद विभागा ॥ १६ ॥ बारस सद कोडी तेसीदि. हवंति तह ह लक्खाइं । अट्ठावरण सहस्सं पंचेव पदाणि सुदणाणे | २०१ - ष०, पु०, १३, पृ० २६६: Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रु तपरिचय का कोई नियम नहीं है क्योकि अनियत अक्षरों से अर्थ का ज्ञान होता हुआ देखा जाता है । आठ अक्षरों का प्रमाण पद होता है और सोलह सौ चौतीस करोड़ तिरासी लाख, सात हजार आठ सौ अट्ठासी अक्षरों का मध्यमपद होता है। मध्यम पद के द्वारा पूर्व और अंगों का पद विभाग होता है। द्वादशांग के पदों की संख्या एक सौ बारह करोड़ तिरासी लाख, अठ्ठावन हजार, पाँच बतलाई है। इन पदों में संयोगी अक्षर हो समान हैं, संयोगी अक्षरों के अवयव अक्षर नहीं, क्योंकि उनकी संख्या का कोई नियम नही है। इस मध्यम पद श्रुत ज्ञान के उपर एक अक्षर के बढ़ने पर पद समास श्रुत ज्ञान होता है। इस प्रकार एक एक अक्षर की वृद्धि होते होते एक अक्षर से न्यून संघात श्रुत ज्ञान के प्राप्त होने तक पद समास श्रु तज्ञान होता है। उसमें एक अक्षर की वृद्धि होने पर संघात नाम का श्रुतज्ञान होता है । यह संघात श्रु तज्ञान मार्गणा ज्ञान का अवयवभूत है। जैसे गति मार्गणा में नरक गति विषयक ज्ञान संघात श्रुत ज्ञान है। संघात श्रुत ज्ञान के ऊपर एक अक्षर की वृद्धि होने पर संघात समास श्रु त ज्ञान होता है। इस प्रकार एक एक अक्षर वृद्धि के क्रम से बढ़ते हुए एक अक्षर से न्यून प्रतिपत्ति श्रुत ज्ञान पर्यन्त संघात समास श्रुतज्ञान होता है। उसमें एक अक्षर की वृद्धि होने पर प्रतिपत्ति श्रुत ज्ञान होता है। प्रतिपत्ति श्रुत ज्ञान के ऊपर एक अक्षर की वृद्धि होने पर प्रतिपत्ति समास श्रुत ज्ञान होता है, इस प्रकार एक एक अक्षर वृद्धि होते होते एक अक्षर से न्यून अनुयोग द्वार श्रुत ज्ञान पर्यन्त प्रतिपत्तिसमास श्रुतज्ञान होता है। उसमें एक अक्षर की वृद्धि होने पर अनुयोग द्वार Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१४ श्रुत ज्ञान होता है । आशय यह है कि अनुयोग द्वार के जितने धिकार होते हैं उनमें से एक अधिकार की प्रतिपत्ति संज्ञा है । और एक अक्षर से न्यून सब अधिकारों की प्रतिपत्ति समास संज्ञा है । इसी तरह प्रतिपत्ति के जितने अधिकार होते हैं उनमें से एक एक अधिकार की संघात संज्ञा है और एक अक्षरसे न्यून सब अधिकारों की संघात समास संज्ञा है । ० सा० इ० पू० पीठिका जै० अनुयोगद्वार श्रुतज्ञान के ऊपर एक अक्षर की वृद्धि होने पर अनुयोग द्वार समास नामक श्रुतज्ञान होता है । इस प्रकार एक एक अक्षर की वृद्धि होते होते एक अक्षर से न्यून प्राभृत प्राभृतश्रुत ज्ञान के प्राप्त होने तक अनुयोग द्वार समास श्र श्रुत ज्ञान होता है । उसके ऊपर एक अक्षर की वृद्धि होने पर प्राभृत प्राभृतश्रुत ज्ञान होता है । 1 प्राभृत प्राभृत श्रुतज्ञानके ऊपर एक अक्षर की वृद्धि होने पर प्राभृत-प्राभृत समास श्रुतज्ञान होता । इस प्रकार उत्तरोत्तर एक एक अन्तर की वृद्धि होते होते एक अक्षरसे न्यून प्राभृत श्रुतज्ञानके प्राप्त होने तक प्राभृत प्राभृत समास श्रुतज्ञान होता उसके ऊपर एक अक्षर की वृद्धि होनेपर प्राभृत श्रुतज्ञान होता है । सारांश यह कि एक प्राभृत में संख्यात अधिकार होते हैं । उनमें से एक एक अधिकार की प्राभृत प्राभृत संज्ञा है और प्राभृत प्राभृतके अधिकारोंमेंसे प्रत्येक अधिकारकी अनुयोगद्वार संज्ञा है । Jain Educationa International प्राभृत श्रुतज्ञानके ऊपर एक अक्षर की वृद्धि होनेपर प्राभृत समास श्रुतज्ञान होता है । इस प्रकार उत्तरोत्तर एक एक अक्षरकी वृद्धि होते होते एक अक्षरसे यून वस्तु श्रुतज्ञान के प्राप्त होने तक प्राभृत समास श्रुतज्ञान होता है । उसमें एक अक्षर की For Personal and Private Use Only Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय ६१५ वृद्धि होनेपर वस्तु श्रुतज्ञान होता है । वस्तु श्रुतज्ञानके ऊपर एक अक्षर की वृद्धि होनेपर वस्तु समास श्रु तज्ञान होता है । इस प्रकार उत्तरोत्तर एक एक अक्षर की वृद्धि होते हुए एक अक्षरसे न्यून पूर्व श्रुतज्ञानके प्राप्त होने तक वस्तु समास श्रुतज्ञान होता है । उसके ऊपर एक अक्षर की वृद्धि होने पर पूर्व श्रुत ज्ञान होता है। पूर्व श्रुतज्ञानके जितने अधिकार हैं उनमेंसे प्रत्येक की वस्तु संज्ञा है। और पूर्वगतके जो चौदह भेद हैं उनमेंसे प्रत्येककी पूर्वसंज्ञा है। __ प्रथम पूर्व श्रुतज्ञानके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होने पर पूर्व समास श्रुतज्ञान होता है। इस प्रकार एक एक अक्षरकी वृद्धि होते हुए अंग प्रविष्ट और अंग बाह्यरूप सकल श्रुतज्ञानके सब अक्षरोंकी वृद्धि होने तक पूर्व समास श्रुतज्ञान होता है। श्रुतज्ञानके बीम भेदोंका उक्त विवेचन वीरसेन स्वामीने षटखण्डागमके वर्गणा खण्डकी धवला टीकामें (पृ० २६१-०७) किया है। उसीके आधार पर संकलित गोमट्टसार जीवकाण्डके ज्ञान मार्गणा अधिकार में भी उनका विवेचन मिलता है। किन्तु श्वेताम्बर परम्पराके आगमिक साहित्यमें पूर्वमें दर्शित चौदह भेदोंका ही निरूपण पाया जाता है। इन बीस भेदोंका वहाँ संकेत तक भी नहीं मिलता। हाँ, कर्मविपाक नामक प्रथम कर्म प्रन्थमें एक गाथाके द्वारा उक्त बीस भेद अवश्य गिनाये हैं और उसके रचयिता देवेन्द्र सूरिने स्वोपज्ञ टीकामें उनका संक्षिप्त स्वरूप भी दिया है और लिखा है कि विस्तृत स्वरूप जाननेके १.---'एवमेते संक्षेपतः श्रुतज्ञानस्य विंशति भेदाः दर्शिताः, विस्तारार्थिना तु वृहत्कर्मप्रकृतिरन्वेषणीया' ।—स. च. क. पृ. १६ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ० पू०-पीठिका लिए वृहत्कर्म प्रकृतिका अन्वेषण करना चाहिये। देवेन्द्र सूरिकी टीकामें एक बात और भी उल्लेखनीय है। उन्होंने पदका स्वरूप बतलाते हुए लिखा है-'जिससे अर्थका बोध हो उसको पद कहते हैं । पदके सम्बन्धमें इस प्रकारके कथन मिलते हैं तथापि जिस किसी पदसे प्राचार आदि ग्रन्थोंका प्रमाण अट्ठारह हजार आदि कहे जाते हैं, वही यहां लेना चाहिये। द्वादशांग श्रुतके परिमाणमें उसीका अधिकार है। और यहां श्रुतके भेद प्रस्तुत हैं । उस प्रकारकी आम्नायका अभाव होनेसे उस पदका प्रमाण ज्ञात नहीं है।' ___इससे प्रकट है कि पदका जो प्रमाण दिगम्बर परम्परामें मिलता है, और जो ऊपर बतलाया है उसकी आम्नाय श्वेताम्बर परम्परामें लुप्त हो गई थी। उक्त बीस भेदोंके सम्बन्धमें भी शायद ऐसी ही बात हो। दिगम्बर परम्परामें भी श्रुतज्ञानके उक्त बीस भेद केवल षट्खण्डागमके सूत्रमें ही मिलते हैं। और वह भी श्रुतज्ञानावरणीय कर्मके भेदोंके विवेचनके प्रसंग से। ___ यह हम लिख आये हैं कि अग्रायणी पूर्वके चयनलब्धि नामक पञ्चम वस्तु अधिकारके महाकर्मप्रकृति नामक चतुर्थ प्राभृतसे षट्खण्डागमका उद्गम हुआ है। उधर श्वेताम्बर पर १ - 'पदं तु 'अर्थपरिसमाप्तिःपदम्'इत्याद्युक्तिसद्भावेऽपि येन केन चित्पदेनाऽष्टादशपदसहस्रादिप्रमाणा अाचारादिग्रन्था गीयन्ते तदिह गृह्यते, तस्यैव द्वादशाङ्गश्रुतपरिमाणेऽधिकृतत्वात् , श्रुतभेदानामेव चेह प्रस्तुतत्वात् । तस्य च पदस्य तथाविधाम्नायाभावात् प्रमाणं न ज्ञायते ।'–स. च. क. पृ. १६ । 'इह यत्रार्थोंपलब्धिस्तत्पदमित्यादि पदलक्षणसद्भावेऽपि तथाविधसम्प्रदायाभावात्तस्य प्रामाण्यं न समवगम्यते ।' प्र. सारो.द्वा०६२। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१७ श्रु तपरिचय म्परामें भी ये बीस भेद कर्म ग्रन्थमें ही मिलते हैं । इससे कार्मिकों की परम्परासे इन भेदोंका सम्बन्ध ज्ञात होता है। दिगम्बर साहित्यसे तो कार्मिकों और सैद्धान्तिकोंकी परम्पराका भेद परिलक्षित नहीं होता। किन्तु श्वेताम्बर साहित्यसे तो दोनों परम्पराओंके अस्तित्व तथा मतभेदोंपर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है और ऐसा प्रतीत होता है कि ये दोनों परम्परायें अनेक अंशोंमें स्वतंत्र थीं, तथा सैद्धान्तिकोंसे कार्मिकोंकी परम्परा । प्राचीन होनेके साथ ही साथ प्रामाणिक मानी जाती थी। संभव है कि कार्मिक परम्परा पूर्वविदोंके उत्तराधिकारियोंकी परम्परा हो । इस विषयमें अन्वेषणकी आवश्यकता है । अस्तु, श्रतज्ञानके इन बीम भेदोंको देखकर एक शंका होना स्वा. भाविक है । वीरसेन' स्वामीने स्वयं उस शंकाको उठाकर उसका जो समाधान किया है उसे यहां देते हैं- शंका-चौदह प्रकीर्णक अध्याय रूप अंगबाह्य, आचार आदि ग्यारह अंग, परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग और चूलिका, इनका अन्तर्भाव श्रुतज्ञानके उक्त भेदोंमेंसे किसमें होता है ? अनुयोगद्वार या अनुयोगद्वार समास ज्ञानमें तो इनका अन्तर्भाव नहीं हो सकता क्योंकि ये दोनों प्राभृत श्रुतज्ञानसे बंधे हुए हैं। प्राभृत प्राभृत या प्राभृत प्राभृत समासमें भी इनका अन्तर्भाव नहीं हो सकता; क्योंकि ये दोनों पूर्वगतके अवयव हैं। परन्तु परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, चूलिका और एकादश अंग पूर्वगतक अवयव नहीं हैं ? इस लिये इनका १-षट्खं. पु. १३, पृ. २७६ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ० पू०-पीठिका अन्तर्भाव श्रुतज्ञानके उक्त बीस भेदोंमेंसे किसी भी भेदमें नहीं हो सकता ? समाधान- अनुयोग द्वार और अनुयोगद्वार समासमें इन सबका अन्तर्भाव होता है। और अनुयोग द्वार तथा अनुयोग द्वार समास प्राभृत प्राभृतके ही अवयव हैं, ऐसा कोई नियम नहीं है। अथवा प्रतिपत्ति समास श्रु तज्ञानमें इनका अन्तर्भाव कहना चाहिये। किन्तु पश्चादानुपूर्वीकी विवक्षा करने पर पूर्व समास श्रु तज्ञानमें इनका अन्तर्भाव होता है। ___ उक्त समाधान से प्रकट होता है कि वस्तु, प्रामृत और प्राभूत प्राभृत नामक अधिकारों का सम्बन्ध केवल पूर्वो से हैं, किन्तु अनुयोग द्वार, प्रतिपत्ति वगैरह ग्यारह अंगों आदि में भी होते हैं । पूर्व निर्दिष्ट श्वेताम्बर साहित्य से भी यही तथ्य प्रकट होता है, जैसा पूर्व में लिख आये हैं। इस तरह से ग्यारह अंगों और पूर्वोमें अध्यायगत भेद था, इस बात का समर्थन दिगम्बर साहित्य से भी होता है । तथा पूर्वो को लेकर जो श्रुत ज्ञान के भेद बतलाये गये हैं वे विकास क्रम या वृद्धि क्रम को दृष्टि में रखकर बतलाये हैं। अतः पूर्वो का अध्ययन अथवा ज्ञान क्रम से होता था, उससे भी यही निष्कर्ष निकलता है। पदों का प्रमाण " अंगों और पूर्वो के पदों का प्रमाण दिगम्बर साहित्यमें' विस्तार से बतलाया है । श्वेताम्बर साहित्य में भी बतलाया है। १-षटखं, पु. १, पृ०६६ -१०७ । २-'अट्ठारस पय सहस्सा आयारे दुगुण दुगुण सेसेसु ।-स. च. क., पृ. १७ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय पूर्वो के पदों के प्रमाण में तो दोनों परम्पराओं में विशेष अन्तर नहीं है किन्तु अंगों के पदों के प्रमाण को लेकर दोनों परम्पराओं में बहुत अन्तर है । श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार पहले आचारांग में अट्ठारह हजार पद थे, और आगे प्रत्येक अंग में क्रम से दूने दुने पद थे। किन्तु दिगम्बर परम्परा के अनुसार द्वादशांग के पदों का प्रमाण नीचे लिखे अनुसार था। उसके सामने वाली संख्या श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार है, १८००० २६००० ७२००० १-आचाराङ्ग १८००० २- सूत्रकृताङ्ग ३६००० ३-स्थानाङ्ग ४२०८० ४-समवाय १६४००० ५-वियाहपएणति २२८००० ६-णाह धम्मकहा ५५६००० ७-उपासकाध्ययन ११७०८०० ८--अन्तकृद्दशा २३२८००० ६-अनुत्तरोपपादिक ६२४४००० १०-प्रश्न व्याकरण ९३१६००० ११-विपाकसूत्र १८४००००० १४४००० २८८००० ५७६००० १५५२००० २३०४००० ४६०८००० ६२१६००० १८४३२००० - ग्यारह अंगों के पदों का जोड़ ४१५०२००० ३६८०६००० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२० यही यही जै० सा० इ० पू०-पीठिका चौदह पूर्वो के पदोंका प्रमाण दि०१ श्वे०२ १-उत्पाद १००००००० २-अग्रायणी ६६००००० ३-वीर्य प्रवाद ७०००००० ४-अस्ति नास्ति प्र० ६०००००० ५ ज्ञान प्रवाद ६-सत्य प्रवाद १००००००६ ७-आत्मप्रवाद २६००००००० ८-कर्म प्रवाद १८०००००० ह-प्रत्याख्यान ८४००००० १०-विद्यानुवाद ५१-कल्याण २६००००००० १२-प्राणावाय १३००००००० १३-क्रिया विशाल ६००००००० १४-लोक विन्दुसार १२५०००००० यही यही १५६००००० यही १२५०००० ६५५०००००५ अंगोंके पदोंके प्रमाणकी उपपत्ति दिगम्बर साहित्य में बारह अंगों के पदों का जोड़ एक सौ १-षटखं, पु. १, पृ. ११४-१२२ तथा क. पा०, भा. १ पृ० ६५-६६ । २-स. च. क., पृ. १७-१८ । नन्दी और समवायांग वृति में उत्पाद पूर्व में एक करोड़ पद बतलाये हैं अन्यत्र ग्यारह करोड़ बतलाये हैं। -प्रव. सारो०,६२ द्वा०।। ३- "बारुतर सय कोडी तेसीदि तह य होति लक्खाणं । अट्ठावएण सहस्सा पंचेव पदाणि अंगाणं "॥-गो० जी० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय बारह करोड़ तेरासी लाख अट्ठावन हजार पाँच बतलाया है । और अंग बाहय के अक्षरों' का प्रमाण आठ करोड़, एक लाख, आठ हजार एक सौ पिचहत्तर बतलाया है और इसका कारण बतलाते हुए उपपत्ति भी दी है। श्रुतके अक्षर षट्खण्डागम के वर्गणा खण्ड में प्रथम यह प्रश्न किया है कि श्रुत ज्ञानावरणीय कर्म की कितनी प्रकृतियाँ ( उत्तर भेद) हैं ? आगे उसका समाधान किया गया है कि श्रुतज्ञानावरण कर्म की संख्यात प्रकृतियाँ हैं क्योंकि जितने अक्षर हैं उतने ही श्रुतज्ञान हैं-एक एक अक्षर से एक एक श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है। ___ अक्षरों का प्रमाण इस प्रकार है-तेतीस व्यंजन हैं । अइ उ ऋ ल ए ऐ ओ औ ये नौ स्वर ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत के भेद से सत्ताईस होते हैं। प्राकृत में ए ऐ ओ औ का भी ह्रस्व भेद चलता है। अं अः, - क प ये चार अयोगवाह होते हैं। इस तरह सब अक्षर चौसठ होते हैं। इन चौसठ अक्षरों के संयोग से जितने अक्षर निष्पन्न होते हैं वे भी उन चौसठ अक्षरों के ही प्रकार हैं, उनसे बाहर नहीं हैं । उनका प्रमाण लाने के १- अड कोडि ए लक्खा अट्ठ सहस्सा य एयसदिगं च । पगणचरि वण्णाश्रो पइण्णयाणं पमाणं तु ॥ ॥-गो० जी। २-'सुदणाणावरणीयस्स कम्मस्स केवडियाश्रो पयडीअो' ।।४३।।-षटर्ख०, पु० १३, पृ० २४७ । ३ - 'सुदणाणावरणीयस्स कम्मस्स संखेज्जात्रो पयडीयो ॥४४॥ 'जावदियाणि अक्खराणि अक्खर संजोगा वा । ४५॥' षटखं० पु० १३, पृ० २४७ । ४-'संजोगावरणटुं चउसहिं थावए दुवे रासिं। अण्णोण्णसमब्भासो रूवूणं णिदिसं गणिदं ॥४६॥"षट्खं०, पु० १३, पृ० २४८ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२२ जै० सा० इ० पू०-पीठिका लिये चौंसठ जगह 'दो' का अंक रखकर उन सब को परस्पर में गुणा करने से १८४४६७४४०७३७०६५५१६१६ इतनी राशि होती है। इसमें एक कम करने से समस्त अक्षरों की संख्या आती है। इस अक्षर संख्या में एक पद के अक्षरों की संख्या १६३४८३०७८८८ का भाग देने से लब्ध ११२८३५:००५ आता है। इतने ही द्वादशांग के पदों का प्रमाण है और शेष बचता है८.१०८१७३ । यह अंग बाह्य के अक्षरों का प्रमाण है। ____ चौसठ मूल अक्षरों से जितने अक्षर निष्पन्न होते हैं उतने ही श्रुत ज्ञानके भेद हैं, यह बात तो स्पष्ट है और वह भी स्पष्ट है कि किसी भी भाषा का कोई भी अक्षर उन अक्षरों से बाहर नहीं रहता सबका समावेश उन्हीं में हो जाता है। किन्तु उन समस्त अक्षरों की संख्या में जो एक पद के अक्षरों की संख्या से भाग देकर लब्ध प्रमाण द्वादशांग के पद बतलाये हैं इसका ठीक आशय व्यक्त नहीं होता। चौसठ अक्षरों के संयोग से जो अक्षर राशि उत्पन्न होती है वह अपुनरुक्त अक्षर राशि है। और उसी को पद प्रमाण से माप कर द्वादशांग के पद बतलाये हैं। तो क्या द्वादशांग में पुनरुक्त शब्द नहीं होते ? इत्यादि अनेक शंकाएँ उत्पन्न होती हैं जिनके समाधानका साधन प्राप्य नहीं है। पहले लिख आये हैं कि श्वेताम्बर परम्परा में दृष्टिवादको १-'एयट्ठ च च य छ सत्तयं च च य सुण्ण सत्त तिय सत्ता । सुण्णं णव पण पंच य एगं छक्केक्कगो य पणगं च ॥१३॥'--षटखं०, पु० १३, पृ० २५४ । गो• जी०, गा० ३५२ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय गमिक और कालिक श्रुत एकादशांग को अगमिक कहा है। जिसमें सदृश पाठ हों उसे गामिक और जिसमें असदृश पाठ हों उसे अगमिक कहा है । किन्तु भाष्यकार भी उसे स्पष्ट नहीं कर सके तो बेचारे टीकाकार कहाँ से करते।। श्वेताम्बर परम्परा की आवश्यक नियुक्ति में भी श्रु तज्ञान की प्रकृतियाँ विस्तार से कहने की प्रतिज्ञा करके कहा है कि लोक में जितने प्रत्येक अक्षर और अक्षर संयोग हैं उतनी ही श्रु तज्ञान क' प्रकृतियाँ जाननी चाहिये । फिर आगे लिखा है कि श्र तज्ञान को सर्व प्रकृतियोंका कथन करने की शक्ति मुझमें नहीं है इस जिये श्रुतज्ञान के चौदह भेदों का कथन करते हैं । इन चौदह भेदों का स्वरूप पहले लिख पाये हैं। ___ इस तरह जर आवश्यक नियुक्तिकार ने ही अक्षर और अक्षर संयोग प्रमाण श्रुतज्ञान के भेद बतला कर भी उनका प्रतिपादन करने में अपनी असमर्थता प्रकट की तब बिशेषावश्यक भाष्यकार भी उनका वर्णन कहाँ से करते । अतः जैसे श्वेताम्बर परम्परा में 'पद' का प्रमाण अज्ञात था वैसे ही अक्षर संख्या का प्रमाण भी अज्ञात था। इसी से उसमें उक्त बातों के सम्बन्ध में कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती। किन्तु दिगम्बर परम्परा में द्वितीय अग्रायणी पूर्ण से निसृत षटखण्डागम के सूत्रों से उक्त विषयों की जानकारी मिलती है तथा वीरसेन स्वामी की धवला टीका से उसपर अच्छा प्रकाश भी पड़ता है । तथापि इस सम्बन्ध में १-'सुयणाणे पयडीअो वित्थरतो प्रावि वोच्छामि ॥१६॥ पत्तेयमक्खराई अक्खर संजोग जत्तिया लोए । एवइया सुयनाणे पयडीयो होति नायव्वा॥१७॥ कत्तो में वण्णेउं सची सुयनाण सव्वपयडीयो । चोद्दस विहनिक्खेवं सुयनाणे श्रावि वोच्छामि॥१८।'-श्रा नि । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४ जै० सा० इ० पू०-पीठिका विशेष अनुसन्धान की आवश्यकता है; क्यों कि तीर्थङ्करकी वाणी को सर्व भाषात्मक कहा है और ऊपर जो श्रुत के अक्षर बतलाये हैं उनमें सब भाषाओं के अक्षरों का समावेश हो जाता है। दृष्टिवाद में वर्णित विषय का परिचय अकलंक देव ने तत्त्वार्थ वार्तिक की वृत्ति में बारह अंगों में वर्णित विषय का संक्षिप्त निर्देश किया है। उनके पश्चात् हुए वीरसेन स्वामी ने भी अपनी धवला तथा जयधवला टीका में बारह अंगों का विषय परिचय दिया है । प्रथम यहाँ दृष्टिवाद के विषय का परिचय दिया जाता है। टिप्पण में श्वेताम्बर साहित्यसे प्राप्त जानकारी का भी निर्देश किया जाता है। ___ दृष्टिवाद के पाँच भेद हैं-परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत चूलिका। इनमें से केवल पूर्वगत के १४ भेदों का विषय परिचय अकलंक देव ने कराया है। शेष चार भेदों का नहीं कराया। किन्तु वीरसेन स्वामी ने उनका भी विषय परिचय दिया है। पहले उन्हीं चार भेदों का विषय परिचय दिया जाता है। १ परिकर्म '" परिकर्म के पाँच भेद हैं-चन्द्र प्रज्ञप्ति, सूर्य प्रज्ञप्ति, जम्बद्वीप प्रज्ञप्ति, द्वीप सागर प्रज्ञप्ति और व्याख्या प्रज्ञप्ति । चन्द्र प्रज्ञप्ति छत्तीस लाख पाँच हजार पदों के द्वारा चन्द्रमा के विमान, आयु, परिवार, ऋद्धि, गमन, हानि-वृद्धि तथा सकल ग्रासी, अर्ध भाग ग्रासी या चतुर्थ भागग्रासी ग्रहण आदि का वर्णन करती है। सूर्य प्रज्ञप्ति पाँच लाख तीन हजार पदों के द्वारा सूर्य सम्बन्धी आयु, मण्डल, परिवार, ऋद्धि, प्रमाण, गमन, बिम्ब की ऊँचाई, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय ६२५ दिन की हानि-वृद्धि, किरणों का प्रमाण और प्रकाश आदि का वर्णन करती है। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति तीन लाख पच्चीस हजार पदों के द्वारा जम्बूद्वीप में स्थित भोगभूमि और कर्मभूमि में उत्पन्न हुए मनुष्यों और तिर्यश्चों का तथा पर्वत, नदी, द्रह. वेदिका, मेरु, वन, आदि का वर्णन करती है। द्वीपसागरप्रज्ञप्ति बावन लाख छत्तीस हजार पदों के द्वारा द्वीपों और समुद्रों के प्रमाण का तथा उनके अन्तर्गत नाना प्रकार के अन्य पदार्थों का वर्णन करती है। व्याख्याप्रज्ञप्ति चौरासी लाख छत्तीस हजार पदों के द्वारा रूपी और अरूपी द्रव्यों का, भव्य और अभव्य जीवों का तथा सिद्धोंका वर्णन करती है। २ सूत्र - दृष्टिवाद का दूसरा भेद सूत्र अट्ठासी लाख पदों के द्वारा जीव अबन्धक है. कर्म से अलिप्त ही है, अकर्ता ही है, निर्गुण ही है, अभोक्ता ही है, सर्वगत ही है, अणुमात्र ही है, निश्चेतन ही है, स्वप्रकाशक ही है, पर प्रकाशक ही है, नास्ति स्वरूप ही है इत्यादि रूप से नास्तिवाद, क्रियावाद, अक्रियावाद, अज्ञानवाद, १-षटर्ख० पु० १, पृ. १०६-११० । १-क० पा०, भा० १, पृ: १३२-१३३ । नन्दि० सू. ५७ की मलय० टीका में लिखा है-परिकर्म वा अर्थ है योग्यतापादन। जिसके अभ्याससे शेष सूत्रादि रूप दृष्टिवाद को ग्रहण करने में समर्थ होता है उस शास्त्र को परिकर्म कहते हैं। परिकर्म के उक्त भेद श्वेताम्बर परम्परा में नहीं हैं। २-नन्दि टीका में लिखा है-पूर्व गत सूत्रों के अर्थ का सूचन करने से सूत्र कहते हैं । वे सूत्र सब द्रव्यों सब पर्यायों, सब नयों और सब भंगों के प्रदर्शक होते हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२६ जै० सा० इ० पूर्व पीठिका ज्ञानवाद और वैनयिक वादियों के तीन सौ त्रेसठ मतों का पूर्व पक्ष रूप से वर्णन करता है। तथा उसमें त्रैराशिकवाद, नियतिवाद, विज्ञानवाद, शब्दवाद, प्रधानवाद, द्रव्यवाद और पुरुषवाद का वर्णन भी है। ३ प्रथमानुयोग 'प्रथमानुयोग पांच हजार पदोंके द्वारा चौबीस तीर्थङ्कर, बारह चक्रवर्ती, नौ बलभद्र, नौ नारायण, और नौ प्रति नारायणोंके पुराणों का तथा जिन, विद्याधर, चक्रवर्ती, चारण मुनि और राजा आदिके वंशों का वर्णन करता है। ५ चूलिका दृष्टिवादके पाँचवे भेद चूलिकाके पाँचभेद हैं-जलगता, थलगता, मायागता,रूपगताऔर आकाशगता। जलगता चूलिका दो करोड़, १ क. पा. भा. १, पृ. १३८ । षट्खं; पु० १, पृ. ११२ । नन्दी० टी.-तीर्थङ्करोंके पूर्व भवों का तथा कल्याणकोंका वर्णन रहता है। २ षट्खं०, पु० १, पृ. ११३ । क. पा०, भा० १, पृ.१३६ । श्वेताम्बरीय साहित्यमें लिखा है कि चूलिका चोटीको कहते हैं। जैसे मेरू की चूलिका है वैसे ही दृष्टिवादकी चूलिका है । परिकर्म, सूत्र, पूर्वगत और अनुयोगमें जो उक्त अनुक्त अर्थ होते हैं उन सब का संग्रह चूलिकाओं में होता है। चूलिका श्रादिके चार पूर्वो की हैं शेष पूर्वोकी चूलिका नहीं हैं। प्रथम पूर्वकी चूलिकाओंका प्रमाण चार, दूसरे पूर्वकी चूलिकाओंका प्रमाण बारह, तीसरे पूर्वकी चूलिकाका प्रमाण अाठ और चौथे पूर्वकी चूलिकात्रोंका प्रमाण दस है। इस तरह सब चौतीस चूलिकाएं हैं ।-नन्दी० टी०, सू० ५७ । पृ. २४६ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२७ श्रुतपरिचय 'नौ लाख, नवासी हजार दो सौ पदोंके द्वारा जल में गमन और जलस्तम्भनके कारणभूत मंत्र तंत्र तपश्चरण का तथा अग्नि का स्तम्भन करना, अग्नि का भक्षण करना, अग्निपर आसन लगाना, अग्निपर तैरना अदि क्रियाओंके कारणभूत प्रयोगोंका वर्णन करती है। थलगता चूलिका उतने ही पदोंसे कुलाचल, मेरु महीधर, गिरि और पृथ्वीके भीतर गमनके कारणभूत मंत्र तंत्र तपश्वरण का तथा वास्तुविद्या और भूमि सम्बन्धी अन्य शुभाशुभ कारणों का वर्णन करती है। मायागत चूलिका उतने ही पदोंके द्वारा महेन्द्र जालका वर्णन करती है । रूपगता चूलिका उतने ही पदोंके द्वारा सिंह, घोड़ा, हाथी, हरिण, खरगोश, वृक्ष आदिके आकारसे रूप को बदलने की विधिका तथा नरेन्द्रवादका और चित्रकर्म, काष्ठकर्म, लेप्यकर्म, लेनकर्म आदिका वर्णन करती है । आकाशगत चूलिका उतने ही पदोंके द्वारा आकाशमें गमन करनेके कारणभूत मंत्र तंत्र तपश्चरण आदि का वर्णन करती है। इन पांचों ही चूलिकाओंके पदोंका जोड़ दस करोड़ उनचास लाख छयालीस हजार है। ४ पूर्वोका परिचय १ उत्पादपूर्व-जीव, काल और पुद्गल द्रव्यके उत्पाद व्यय और ध्रौव्य का वर्णन करता है। इसमें दस वस्तु, दोसौ प्राभृत और एक करोड़ पद होते हैं। २ अग्रायणीपूर्व- क्रियावाद अदि की प्रक्रिया को अग्रायणी कहते हैं उसका जिसमें वर्णन हो उसे अग्रायणी पूर्व कहते हैं (त. वा०, पृ.७४)। अग्रायणी पूर्व अंगोंके अग्र का कथन करता है (षटखं; पु. १ पृ. ११५)। अग्रायणी पूर्व सातसौ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२८ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका सुनय और दुर्नयों का तथा छै द्रव्य, नौ पदार्थ और पांच अस्तिकायोंका वर्णन करता है ( क. पाः, भा. १, पृ. १४०)। अग्र अर्थात् द्वादशांगमें प्रधानभूत वस्तुके 'अयन' अर्थात् ज्ञान को अग्रायण कहते हैं । वही जिसका प्रयोजन हो उसे अग्रायणीय कहते हैं। वह सातसौ सुनय दुर्नयों का तथा पांच अस्तिकाय, सात तत्त्व और नौ पदार्थो का वर्णन करता है । अग्र अर्थात् परिमाण, उसका 'अयन' अर्थात् जानना, उसके लिये जो हितकर हो वह अग्रायणीय पूर्व है ( नन्दी० मलय० सू० ५६ ) । इसपूर्वमें १४ वस्तु २८० प्राभत और छियानवें लाख पद होते हैं। . ३ वीर्यानुप्रवाद-छद्मस्थ केवलियोंके वीर्यका, सुरेन्द्र और दैत्यपतियों की ऋद्धियों का, नरेन्द्र, चक्रवर्ती और बलदेवोंके वीर्यलाभ करने का तथा द्रव्योंके सम्यक लक्षणका कथन करता है ( त. वा०, पृ. ७४)। वीर्यानुषवाद पूर्व आत्मवीर्य, परवीर्य, उभयवीय, क्षेत्रवीर्य, कालवीर्य, भववीर्य और तपवीर्य आदि का वर्णन करता है (क. पाः, भा० १, पृ. १४०, षटखं; पु. १, पृ. ११५)। जिसमें अजीवों का तथा सकर्मा और निष्कर्मा जीवोंका वीर्य कहा गया हो वह वीर्यप्रवाद है ( नन्दी० मलयटीका, सू. १४७) इसमें आठ वस्तु, १६० पाहुड और सत्तर लाख पद हैं। ४ अस्तिनास्तिप्रवाद-पांच अस्तिकायोंका और नयोंका अनेक पर्यायोंके द्वारा यह है और यह नहीं हैं इत्यादि रूपसे कथन करता है । अथवा द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय की गौगता और मुख्यताके द्वारा छहों द्रव्योंके स्वरूपकी अपेक्षा अस्तित्वका और पररूपकी अपेक्षा नास्तित्वका कथन करता है ( त० वा०, पृ. ७५ ) । स्वरूप आदि चतुष्टय की अपेक्षा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय ६२६ समस्त द्रव्योंके अस्तित्वका और पररूप आदि चतुष्टयकी अपेक्षा उनके नास्तित्व का कथन करता है। ( क. पा. भा. १, पृ:१.०-षटखं. पु. १, पृ. ११५ ) । लोकमें जो वस्तु जिस प्रकार अस्ति अथवा नास्ति है. स्याद्वाद की दृष्टि से वही अस्ति नास्ति रूप है इत्यादि कथन अस्तिनास्तिप्रवाद करता है ( नन्दि०. चू०, मलय०,सू० ५६ तथा सम० अभ० टी०सू० १४७ )। इसमें १८ वस्तु, ३६० पाहुड़ और साठ लाख पद होते हैं। ५ ज्ञानप्रवाद-पांचो ज्ञानोंकी उत्पत्तिके कारणोंका विषयों का, ज्ञानियों और अज्ञानियों का तथा इन्द्रियोंका प्रधानरूपसे कथन करता है ( त. वा., पृ. ७५)। पांच ज्ञानों और तीन अज्ञानों का कथन करता है । ( षट्खं०, पृ. ११६)। मति श्रुत अवधि मनः पर्यय और केवल ज्ञान का कथन करता है (क. पा.१४१) । ( नन्दी. मलय. सू. ५६ । सम० अभ० टी०, सू. १४७) । इसमें १२ वस्तु, २४० पाहुड़ और एक कम एक करोड़ पद हैं। ६ सत्यप्रवाद-वचन गुप्ति का, वचन संस्कार के कारण शिर कण्ठ आदि आठ स्थानों का, बारह प्रकार की भाषा का, वक्ताओं का. अनेक प्रकार के असत्य वचन और दस प्रकार के सत्य वचनों का कथन करता है ( त० वा०, पृ०७५, षटखं०, पृ० ११६ ) । व्यवहार सत्य आदि दस प्रकार के सत्यों का और सप्तभंगी के द्वारा समस्त पदार्थों के निरूपण करने की विधि का कथन करता है ( क. पा०, पृ० ५४१) । ( नन्दि० मलय० सू० ४६ । सम० अभ० टी० सू० १४७ )। इसमें बारह वस्तु, दो सौ चालीस पाहुड़ और एक करोड़ छै पद होते हैं । ७ आत्म प्रवाद -श्रात्मा के अस्तित्व नास्तित्व नित्यत्व अनित्यत्व कर्तृत्व भोक्तत्व आदि धर्मों का और छ काय के जोवों Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३० जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका के भेदों का युक्ति पूर्वक कथन करता है ( त. वा', पृ. ७६ )। जीव वेत्ता है, विष्णु है, भोक्ता है, बुद्ध है इत्यादि रूप से आत्मा का वर्णन करता है (षटखं० पृ. ११८)। जीव विषयक नाना दुर्नयों का निराकरण करके जीव द्रव्य की सिद्धि करता है (क० पा., पृ. १४१ ) (नन्दी० चू०, हरि०, मलय०, टी०सू० २६ । सम० अभ० टी० सू० १४७ ) । इसमें सोलह वस्तु, तीन सौ बीस पाहुड़ और छब्बीस करोड़ पद होते हैं। ८ कर्म प्रवाद- कर्मों के बन्ध उदय उपशम निर्जरा अव. स्थाओं का, अनुभवबन्ध और प्रदेश बन्ध के आधारों का तथा कर्मों की जघन्य मध्यम उत्कृष्ट स्थिति का कथन करता है ( स. वा. पृ. ७६) आठों कर्मों का कथन करता है (षट्खं०, पृ. १२१) समवदान क्रिया ईर्या पथ क्रिया, तप और अधःकर्म का कथन करता है ( क. पा., पृ. १४२ ) । प्रकृति स्थिति अनुभाग प्रदेश आदि भेदों के द्वारा तथा अन्यान्य उत्तरोत्तर भेदों के द्वारा ज्ञानावरण आदि आठ कर्मो का कथन करता है। ( नन्दी० चू०, मलय०, सू० २६ । सम., अभ., सू. १४७ ) । इसमें बीस वस्तु, चारसौ पाहुड़ और एक करोड़ अस्सी लाख पद होते हैं। प्रत्याख्यान- व्रत नियम प्रतिक्रमण प्रतिलेखन तप कल्प उपसर्ग आचार प्रतिमा विराधना, आराधना, और विशुद्धि के उपक्रमों का, मुनि पद के कारणों का तथा परिमित या अपरिमित द्रव्य और भावों के त्याग का कथन करता है (त० वा०, पृ० ७६ )। द्रव्य भाव आदि की अपेक्षा परिमित कालरूप और अपरिमित कालरूप प्रत्याख्यान, उपवासविधि, पाँच समिति और तीन गुप्तियों का कथन करता है ( षट्खं०, पृ० १२१ ) । नाम स्थापना द्रव्य क्षेत्र काल और भाव के भेद से अनेक प्रकार के Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय ६३१ परिमित और अपरिमित काल रूप प्रत्याख्यान का कथन करता है ( क. पा, पृ. १४३) । समस्त प्रत्याख्यान का कथन करता है ( नन्दि० चू०, मलय० सू० ५६ । सम. अभः सू० १४७)। इसमें तीस वस्तु, छ सौ पाहुड़ और चौरासी लाख पद होते हैं। १० विद्यानुप्रवाद- समस्त विद्याओं का, आठ महा निमित्तों का, तद्विषयक रज राशिविधि, क्षेत्र श्रेणी लोकप्रतिष्ठा, लोक का आकार और समुद्धातका कथन करता है। (त० वा०, पृ० ७६) अगुष्ठ प्रसेना आदि सात सौ अल्प विद्याओं का, रोहिणी आदि पाँच सौ महाविद्याओं का, और अन्तरीक्ष भौम अंग स्वर स्वप्न लक्षण व्यंजन, चिन्ह इन आठ महानिमित्तों का कथन करता है (षट्खं० पृ० १२१) । उक्त विद्याओं का तथा उन विद्याओं को साधने की विधि का और सिद्ध हुई विद्याओं के फल का कथन करता है (क० पा०, पृ० १४४ ) । अनेक विद्यातिशयों का कथन करता है ( नन्दी० चू०, मलय० सू० ५६ । सम० अभ. सू० १४७ ) । इसमें १५ वस्तु, तीन सौ पाहुड़ और एक करोड़ दस लाख पद होते हैं। ___ ११ कल्याण प्रवाद-सूर्य चन्द्रमा ग्रह नक्षत्र और तारा गणों के गमन, उत्पत्ति, गतिका विपरीत फल, शकुन शास्त्र, तथा अर्हन्त बलदेव वासुदेव चक्रवर्ती आदि के गर्भावतरण आदि महा कल्याणकों का कथन करता है (त० वा०, पृ० ७७ । षट्ख० पृ० १२५ । क० पा०, पृ० १४५) । उसमें सब ज्ञान तप और संयम के योगों को शुभ फलदायी होने से सफल तथा प्रमाद आदि को अशुभ फलदायी कहा है ( नन्दी० चू०, मलय० सू० ५६ । सम० अभ० स० १४७ ) । इसमें दस वस्तु, दो सौ पाहुड़ और छब्बोस करोड़ पद होते हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३२ जै० सा० इ०-पूर्वपीठिका १२ प्राणावाय-आयुर्वेद के काय चिकिसा आदि आठ अंगों का, भूतिकर्म का, जाँगुलि प्रक्रम का और प्राणायाम का विस्तार से कथन करता है ( त० वा० पृ० ७७ । षटखं० पृ० १२२ । क० पा० पृ० १४६ ) भेद सहित आयु प्राण का तथा अन्य प्राणों का कथन करता है ( नन्दी० चू०, मलय० सू०५६। सम० अभ०, सू० १४७)। इसमें दस वस्तु, दो सौ पाहुड़ और तेरह करोड़ पद हैं । श्वेताम्बर उल्लेख के अनुसार इसमें एक करोड़ ५६ लाख पद हैं। १३ क्रिया विशाल-लेख आदि बहत्तर कलाओं का, स्त्री सम्बन्धी चौसठ गुणों का, शिल्प का, काब्य के गुण दोषों का, छन्द रचनाओं का तथा क्रिया के फल के भोक्ताओं का कथन करता है। (त० वा०, पृ० ७७ । षट्खं० पु०१ पृ० १२२) । नृत्य शास्त्र गीतशास्त्र लक्षणशास्त्र छन्दशास्त्र अलङ्कारशास्त्र तथा नपुसक स्त्री और पुरुष के लक्षण आदि का कथन करता है ( क० पा० पृ० १४८)। कायिकी आदि क्रियाओं का, सभेद संयम क्रिया का, तथा छन्द क्रिया का वर्णन करता है ( नन्दी० मलय० सू० ५६ । सम० अभ० १४७ सू० )। इसमें दस वस्तु, दो सौ पाहुड़ और नौ करोड़ पद हैं। ___१४ लोक बिन्दुसार-आठ व्यवहार, चार बीज, परिकर्म और राशि विभाग का कथन करता है। (त० वा०, पृ ७८ । षट्खं० पु. १, पृ० १२२)। परिकर्म, व्यवहार, रज राशि, कलासवरण (गणित का एक प्रकार ), गुणकार, वर्ग घन, बीजगणित और मोक्ष के स्वरूप का कथन करता है ( क. पा० भा० १, पृ० १४८)। लोक विन्दुसारको इस लोकमें अथवा शास्त्र रूपी लोक में विन्दुसार कहा है ( नन्दी चू०, मलय० सू० ५६ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय ६३३ सम० अभ० सू० १४७ )। इसमें दस वस्तु, दो सौ पाहुड़ और साढ़े बारह करोड़ पद हैं। ___ इस तरह चौदह पूर्वो में १६५ वस्तु और तीन हजार नौ सौ पाहुड़ होते हैं। उक्त विषय परिचयसे ज्ञात होता है कि पूर्वोमें आत्मा, कर्म, ज्ञान, त्याग आदिके साथही साथ मंत्र तंत्र ज्योतिष गणित आयुर्वेद, कला आदिका भी वर्णन था। तथा दार्शनिक मतों की प्रक्रिया भी उसमें बतलाई गई थी। इसीसे पूर्वोका प्रतिपाद्य विषय स्वसमय और पर समय दोनों कहा है। अर्थात् उसमें स्वमतके साथ परमतोंके सिद्धान्तोंका भी प्रतिपादन था । इसीसे बारहवें अंग का नाम दृष्टिवाद था । चौदह पूर्वोका यह विषय परिचय उपलब्ध दिगम्बर साहित्य में सर्वप्रथम अकलंक देवके तत्त्वार्थ वार्तिकमें ही उपलब्ध होता है। उन्होने किस आधारसे यह लिया यह कह सकना शक्य नहीं है। श्वेताम्बरोंमें नन्दि चूर्णिमें मिलता है, वहींसे हरिभद्र, अभयदेव. मलयगिरि आदि टीकाकारोंने लिया है। उसके अवलोकनसे पूर्वो की विषयसम्बन्धी विविधता तथा गहनताका आभास मिलता है। तथा यह भी प्रकट होता है कि उनका परिमाण बहुत विशाल होना चाहिये। यद्यपि प्रत्येक पूर्वके वस्तु और पाहुड़ नामक अधिकारोंकी जो संख्या दी है वह उचित ही प्रतीत होती है किन्तु पदोंका जो प्रमाण दिया है वह अवश्यही विस्मय कारक है। किन्तु दिगम्बर-श्वेताम्बर दोनों परम्पराओंके साहित्यमें पदों का प्रमाण प्रायः एकसा ही मिलता है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३४ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका एकादशांग बारहवें दृष्टिवादके सम्बन्धमें यथा संभव प्रकाश डालने के पश्चात् अब हम शेष ग्यारह अंगोंकी ओर आते हैं। पूर्वो से अंगों को उत्पत्ति यह पहले लिख आये हैं कि श्वेताम्बर साहित्यमें कहा है कि पूवोंसे अंगोंकी उत्पत्ति हुई। व्यवहार' सूत्र में लिखा है कि पहले प्राचार प्रकल्प नौवें प्रत्याख्यान पूर्व में गर्भित था। वहींसे आचारांगमें उसे लाकर रखा गया । दिगम्बराचार्य पूज्यपादने अपनी सर्वार्थसिद्धि नामक तत्वार्थवृत्तिमें (अ० ६; सू० ४) पुलाक मुनिका जघन्य श्रुत 'आचार वस्तु' कहा है और उत्कृष्ट श्रुत अभिन्नाक्षर दस पूर्व कहा है। यह हम देख आये हैं कि वस्तु नामक अधिकार पूर्वोमें ही होते थे। अतः 'आचार वस्तु' अवश्य ही किसी पूर्वगत होना चाहिये। संभव है नौवें पूर्वगत ही हो; क्योंकि उसका प्रतिपाद्य विषय आचार ही था। यद्यपि इससे यह प्रमाणित नहीं किया जा सकता कि अंगोंकी रचना पूर्वोसे हुई थी और न दिगम्बर परम्परामें ऐसा कोई संकेत ही मिलता है तथापि पूर्वविद का महत्त्व ही सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है, केवल। 'अंगविद्' का कोई महत्त्व दृष्टिगोचर नहीं होता। यही इससे प्रकट होता है। ___ तथा अंगोंमें प्रतिपादित कोई विषय ऐसा प्रतीत नहीं होता, जो पूर्वोमें वर्णित न हो। इससे भी श्वेताम्बरीय साहित्यके उक्त १-अायारपकप्पो ऊ नवमे पुव्वंमि अासि सोधी य । तत्तो चिय निजूढो इहाहि तो किं न सुद्धिभवे ॥१७१।। -व्य० सू०, ३उ० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३५ श्रुतपरिचय कथनका समर्थन किया जा सकता है। अस्तु, अब हम प्रत्येक अंगका विषय परिचय देकर उसके साथ श्वेताम्बरीय ग्यारह अंगोंका भी क्रमशः यथा संभव समीक्षापूर्वक परिचय करायेंगे। १ आचारांग-आठशुद्धि, तीनगुप्ति, पाँच समिति रूप चर्या का कथन करता है ( त० वा०, पृ० ७२ )। मुनिको कैसे चलना चाहिये, कैसे खड़ा होना चाहिये, कैसे बैठना चाहिये, कैसे सोना चाहिये, कैसे भोजन करना चाहिये और कैसे बोलना चाहिये, इत्यादिका कथन करता है (षटखं० पु. १, पृ० ६६ । क० पा०, भा० १ पृ० १२२)। इसमें अट्ठारह हजार पद थे। ___ वर्तमान श्वे० आचारांग सूत्रमें भिक्षुओंकी चर्या बतलाई है। इसमें दो श्रुत स्कन्ध हैं। प्रथम श्रु तस्कन्ध 'बम्भचेरिय'में आठ अध्ययन हैं- १ सत्थ परिण्णा, २ लोग विजओ, ३ सीओसणिज, (शीतोष्णीय , ४ सम्मत्त, ५ आवंती अथवा लोगसार, ६ धूय, ७ विमोह, ८ उवहाण सुय । नौवां महापरिण्णा नष्ठ हो गया। इससे वज्र स्वामी ने श्राकाश गामिनी विद्याका उद्धार किया था। शीलांकाचार्यके मतसे महापरिगणा आठवां अध्ययन था, विमोक्षाध्ययन सातवां और 'उवहाण सुय' नौवां । ऐसा वि० प्र० (पृ० ५१ ) में लिखा है। किन्तु यह ठीक नहीं है। आचारांग' नियुक्तिमें महापरिगणाका नम्बर ७वां है। १--सत्थ परिण्णा लोगविजत्रो य सीअोसणिज सम्मत्तं। तह लोगसारनामं धुयं तह महापरिगणा य ।।३१।। अट्ठमए य विमोक्खो उवहाणसुयं च नवमंग भणियं । इच्चेसो अायारो अायारग्गाणि सेसाणि ।।३२ ॥–श्राचा० नि० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३६ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका तदनुसार 'शीलांकाचार्यने भी महापरिण्णाको सातवां ही बतलाया है। प्रथम अध्ययन सत्थपरिण्णा या शस्त्रपरिज्ञामें जीवका अस्तित्व बतलाकर उनकी हिंसा आदि न करनेका अर्थात् जीव संयमका विधान है। दूसरे लोक विजय अध्ययनमें बतलाया है कि लोक आठ कर्मोसे कैसे बँधता है और कैसे बन्धनसे छूटना चाहिये। तीसरे शीतोष्णीय अध्ययनमें बतलाया है कि अनुकूल प्रतिकूल शीतोष्ण परीषहको सहना चाहिये। चौथे सम्यक्त्वमें बतलाया है कि सन्मार्गमें दृढ़तापूर्वक प्रवृत्ति करनी चाहिये। पाँचवे लोकसारमें बतलाया है कि असारको छोड़कर सारभूत रत्नत्रयको ग्रहण करना चाहिये। छठे धूतमें बतलाया है कि मुनिको निःसङ्ग रहना चाहिये। सातवेंमें बतलाया है कि मोहसे उत्पन्न परीषह और उपसर्गोको भलेप्रकारसे सहना चाहिये। आठवें विमोक्षमें अन्तक्रियाका कथन है। नौवें उपधानमें बतलाया है कि ऊपरके आठ अध्ययनोंमें जिन बातोंका कथन किया गया है उसका पालन महावीर प्रभुने किया था। डा० जेकोबी, विंटरनीटस आदि का मत है कि प्रथम श्रुतस्कन्ध दूसरेसे प्राचीन है। तथापि पहलेमें विरुद्ध जातीय तात्त्वोंको एकत्र बैठानेका प्रयत्न किया गया है। सूत्र गद्य रूप भी १–'अधुना सप्तमाध्ययनस्य महापरिज्ञाख्यस्यावसरः तच्च व्यवच्छिनम्'-अाचा० नि०, पृ० २३५ पू० । २—जिअसंजमो अलोगो जह बन्झइ जह य तं पजहियव्वं । सुह दुक्खतितिक्खावि य सम्मत्तं लोगसारो य ॥३०॥ निस्संगया य छठे मोहसमुत्था परीसहुवसग्गा । निजाणं अट्ठमए नवमे य जिणेण एवं ति ॥३४॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय हैं और पद्य रूप भी हैं जैसाकि बौद्ध साहित्यमें प्रायः देखा जाता है। कभी दूरतक गद्यात्मक सूत्र चले गये हैं, तो कभी गद्य पद्यात्मक और कभी केवल पद्यात्मक । (हि० इं० लि०, भा० २,, पृ० ४१५.४३६ )। इस प्रकार प्रथम श्रुत स्कन्धमें नौ अध्ययन हैं। दूसरे श्रुतस्कन्धौ १६ अध्ययन हैं-पिंडेसणा १, सेज्जा (शय्या) २,, इरिया ( ई ) ३, भासाजायं ४, वत्थेसणा ( वस्त्रैषणा) ५, पाएसणा ( पात्रैषणा ' ६, उग्गह पडिमा ७, सात सत्तिक्कया १४, भावणा १५, और विमुत्ती १६। इस तरह सब पच्चीस अध्ययन हैं । अब चौबीस हैं। प्रथम श्रुत स्कन्धमें ४४ और दूसरेमें ३४ उद्देस हैं । किन्तु पहले ७८ नहीं किन्तु ८५ उद्देसग थे। दूसरे श्रुत स्कन्धमें मुनि सम्बन्धी आचारोंका ही विशेष रूप से कथन है । डा० विंटरनीट्सका कथन है कि दूसरा श्रुत स्कन्ध प्रथम श्रुत स्कन्धसे बहुत अर्वाचीन है। यह बात उसमें जो चूला हैं, उनसे प्रकट होती है। प्रथम दो चूलाओंमें साधु और साध्वियों के दैनिक आचारका कथन है । उनमें बतलाया है कि. साधुका. कैसे आहार लेना चाहिये, कैसे चलना चाहिये और कैसे जीवनयापन करना चाहिये । तीसरी चूलामें भगवान महावीरकी जीवनी है। स्कन्धके अन्तमें बारह पद्य हैं जिनमें वर्णित विषय बौद्ध थेर गाथाओंका स्मरण कराता है (हि० इं० लि., जि० २, पृ० ४३८) आचारांग सूत्रपर नियुक्ति है जिसे भद्रवाहु कृत कहा जाता है। एक चूर्णि है और शीलांक (८७६ ई०) की टीका है। २ सूत्रकृतांग-ज्ञानविनय, प्रज्ञापन, कल्प्याकल्प्य, छेदोपस्थापना तथा व्यवहार धर्मका कथन करता है ( त० वा०, पृ० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३८ जै० सा० ई० पू०-पीठिका ७३। षट्खं० पु. १, पृ० ६६)। स्व समय परसमयका तथा स्त्री सम्बन्धी परिणाम, क्लीवत्व, अस्फुटत्व, कामावेश. विलास, रति सुख, और पुरुषकी इच्छा करना आदि स्त्रीके लक्षणोंका कथन करता है (क० पा०, भा० १, पृ० १२२ ) । एक सौ अस्सी क्रियावादी, चौरासी अक्रियावादी, सड़सठ अज्ञानवादी, और बत्तीस वैनयिकवादी, इस तरह तीन सौ त्रेसठ मतोंका खण्डन करके स्व. समयकी स्थापना करता है ( नन्दी० सू० ४७; सम० सू० १४७ )। उसमें छत्तीस हजार पद होते हैं । ___ वर्तमान 'सूत्रकृतांगमें दो श्रु त स्कन्ध हैं । प्रथम श्रुतस्कन्ध श्लोक तथा अन्य छन्दोंमें निबद्ध है । दूसरा श्रुत स्कन्ध अध्ययन ५.६ को छोड़कर गद्यमें रचा गया है। दोनों श्रुत स्कन्धों में २३ अध्ययन हैं-प्रथममें १६ और दूसरेमें सात । इनके नाम वि० प्र० (पृ० ५२ ) में दिये हैं। १ समय-इसमें चार उद्देश हैं। तथा चार्वाक, बौद्ध, नियतिवाद आदि दर्शनोंकी समीक्षा है । प्रथम उद्देशकी समाप्ति इस श्लोकाधके द्वारा होती है-'नायपुत्ते महावीरे एवं प्राह जिणोत्तम' २ वेयालीय-वेतालिय-वैदारिक-इसमें तीन उद्देश हैं। प्रथम का आरम्भ इस प्रकारसे होता है_ 'संबुज्झह किं न बुज्झह संवोही खलु पेञ्च दुल्लहा' जिस छन्दमें यह पद्य रचा गया है उसे पिंगल तथा वराहमिहिर ने वेतालीया कहा है। शायद इसीसे इस अध्ययनका नाम वेतालीय रखा गया है। किन्तु डा० वेबरका कहना है 'सूत्र'कृतांगके वेतालीय नामक अध्ययनके कारण ही उक्त १-'सूयगडे सुयखंधा दोन्निउ पढमम्मि सोलसज्झयणा । चउ, तिय, चउ, दो दो एक्कारस पढम सुयखंधस्स ॥ १॥ -वि० प्र०, पृ० ५२। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय ६३६ छन्दको वेतालीय नाम मिला है। और इसलिये वे' इस ग्रन्थको बहुत प्राचीन बतलाते हैं। एक उल्लेखनीय बात और भी इसमें है। माहण ( ब्राह्मण ) शब्द का प्रयोग मुनिके अर्थमें किया गया है। मा-हन-हिंसा न करनेवाला । डा० वेबर इसे भी प्राचीनता का सूचक बतलाते हैं। इस अध्ययनमें हित-अहितका उपदेश दिया गया है। उदाहरण के लिये-एक पद्यमें कहा है-'जो पुरुष कषायोंसे युक्त है वह चाहे नंगा और कृश होकर विचरे, चाहे एक मासके पश्चात् भोजन करे, परन्तु अनन्तकाल तक उसे जन्मधारण करना पड़ता है।' अध्ययनका अंतिम वाक्य इस प्रकार है‘एवंसे उदाहु अणुत्तरनाणी अगुत्तरदंसी अणुत्तरणाण दसणधरे अरहा नाययुत्ते भगवं वेसालिए वियाहिए ॥२२॥ त्ति बेमि।' __ सुधर्मास्वामी अपने शिष्य जम्बू स्वामीसे कहते हैं-'उत्तम ज्ञानी, उत्तम दर्शनी, सर्वोत्कृष्ट ज्ञान दर्शनके धारक अर्हन्त नातपुत्त भगवान ने विशाला नगरीमें कहा था, सो मैं आपसे कहता हूँ।' टीकाकार शीलांक ने प्रारम्भमें इस अध्ययनका सम्बन्ध भगवान आदिनाथसे जोड़ा है। अर्थात् भगवान आदिनाथ ने अपने पुत्रोंको लक्ष्य करके ऐसा कहा और इसी लिये अन्तिम उक्त वाक्यका अर्थ करते हुए उसकी संगति भी भगवान ऋषभदेव १-इन्डि० एण्टि०, जि० १७, पृ० ३४४-३४५ । २-'जइवि य णिगणे किसे चरे, जयविय भुंजिय मास यंतसो। जे इह मायाइ मिजई श्रागंता गब्भाय [तसो ।।६।।' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४० जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका के साथ बैठनेकी कोशिश की है। किन्तु उक्त वाक्यसे स्पष्ट है कि भगवान महवीरको लक्ष्य करके ही उक्त वाक्य दिया गया है । ३-उवसग्ग परिन्ना ( उपसर्ग परिज्ञा)-इसमें चार उद्देश हैं। उपसर्गोंसे बचनेका उपदेश है । ४-इत्थी परिन्ना ( स्त्री परिज्ञा )-इसमें दो उद्देश हैं। इसमें बतलाया है कि स्त्रियोंके उपसर्गसे भ्रष्ट हुए साधु दुःख भोगते हैं। अतः स्त्रियोंकी ओर आकृष्ट नहीं होना चाहिए । ५-नरय विभत्तो ( नरक विभक्ति)-दो उद्देश हैं । इसमें नरकके दुःखोंका वर्णन है । प्रारम्भिक' पद्यमें सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामीसे कहते है-'मैंने केवल ज्ञानी महर्षि महावोरसे पूछा था नरकमें कैसा दुःख है ? आप जानते हैं। मुझको कहिये कि जीव किस तरह नरकको प्राप्त होते हैं।' ६-वीरत्थवो ( वीरस्तव ;-इसमें वीर प्रभुकी स्तुति है । प्रारम्भिक पद्यों में कहा गया है-श्रमण, ब्राह्मण गृहस्थ और अन्य तीर्थियोंने पूछा-'एकान्त रूपसे कल्याणकारी धर्मका उपदेश देनेवाला वह कौन है ? उस ज्ञानपुत्रके ज्ञान दर्शन शील कैसे थे । आप यह सब जानते हैं सो हमें कहिये ।' ८-कुसील परिभासिय ( कुशील परिभाषा)-इसमें बतलाया है कि अग्नि आदिका आरम्भ करने वाला हिंसक है । नमक खाना छोड़ देनेसे, प्रभात काल में स्नान करनेसे और अग्नि होमसे मोक्ष नहीं मिलता । अतः साधु अनुद्दिष्ट भोजनसे अपना १-'पुच्छिस्स ऽहं केवलियं महेसि कहं मिक्ता वा णरगा पुरत्था । अजाणत्रो में मुणि बूहि जाणं कहिं नु बाला नरयं उविंति ।।१।।' २-'पुच्छिस्सु णं समणा माहणा य अगारिणो या पर तित्थित्रा य । से केइ णेगंतहियं धम्ममाहु अणेलिसं साहु समिक्खयाए ॥१।।' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४१ श्रुतपरिचय निर्वाह करे और सब दुःखोंको सहन करे । ऐसा करनेसे वह संसार समुद्रसे पार हो जाता है। ८-विरिय (वीर्य)-प्रमाद करना बाल वीर्य है और प्रमाद न करना पंडित वीर्य है । बाल वीर्य जीवोंको अनन्तकाल तक कष्ट देता है। अतः साधु कषायोंको जीते, पापोंका त्याग करे, पापका अनुमोदन न करे और परीषह उपसर्गोंको सहे। ____E-धम्मो ( धर्म -इसमें परिग्रहकी बुराई बतलाई है और लिखा है कि धन पुत्र ज्ञाति आदिका मोह छोड़कर धर्मका पालन करना चाहिये । १०-समाहि ( समाधि -इसमें बतलाया है कि साधु घरसे निकलकर प्रव्रज्या धारण करके निराकांक्ष हो जाय, निदानका छेदन करके शरीरसे ममत्व त्याग दे और न जीवनकी इच्छा करे और न मरण की। ११-मग्गो ( मार्ग)-छै कायके प्राणियोंकी हिंसा न करना मोक्षका मार्ग है। साधु सावध कर्मकी अनुमति न दे । एक' पद्यमें कहा है-'जो बुद्ध भूतकालमें हो चुके और जो भविष्यकालमें होंगे उनका आधार शान्ति है।' टीकाकार ने बुद्धका अर्थ तीर्थङ्कर किया है। १२-समोसरण-इसमें क्रियावादी अज्ञानवादी और वैनयिकवादियोंके मतोंके दोष दिखलाकर स्वमतका दर्शन कराया गया है । अन्तमें कहा है-'साधु मनोहर शब्द और रूपमें आसक्त न हो, अमनोज्ञ गंध और रससे द्वेष न करे तथा जीने और मरनेकी १-जे य वुद्धा अतिक्कता जे य बुद्धा अणागया । संति तेसिं पइट्ठाणं भूयाणं जगती जहा ॥३६॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४२ जै० सा० इ० पू०-पीठिका इच्छा न करता हुआ संयमसे गुप्त और मायासे रहित होकर रहे। १३-अहतहं ( यथातथं )-इसमें सम्यक् चारित्रका वर्णन करते हुए पार्श्वस्थ आदि मुनियोंका स्वरूप बतलाया है। १४-गंथ (प्रन्थ )-आचार्यकी आज्ञा पालन करता हुआ साधु विनय सीखे, सदा गुरुकुलमें निवास करे, मंत्र विद्याका प्रयोग न करे, आदि कथन है। __ १५-जमईयं ( यमतीतं )-तीर्थङ्करका उपदेश ही सत्य है, वैर न करना साधुका धर्म है. स्त्री सेवन न करनेवाला पुरुष सबसे पहले मोक्षगामी होता है, आदि कथन है । १६-गाहा (गाथा )-इसमें माहन, श्रमण, भिक्षु और निग्रन्थ शब्दोंकी व्याख्या है । दूसरे श्रुतस्कन्धमें सात अध्ययन हैं। शुरुके चार अध्ययन गद्यमें हैं। १ पुंडरिए (पुण्डरिका)—इसमें सरोवरके बीच में स्थित कमलसे मोक्षकी तुलना की है तथा बतलाया है कि क्रियावादी, अक्रियावादी, विनयवादी और अज्ञानवादी उस कमल यानी मोक्षको लेनेका संकल्प करते हैं किन्तु कामभोग रूपी कोचड़में फंसे रह जाते हैं। इस अध्ययनका प्रारम्भ 'सुयं मे आउसं तेणं भगवया एवमक्खायं'-'आयुष्मन ! मैंने सुना उन भगवान ने ऐसा कहा था' वाक्यसे होता है। इसके द्वितीय भागको छठे अंगके अध्ययन २-४ में भी दोहराया है। २ किरिया ठाणं ( क्रिया स्थान )-इसमें बारह सांपराय क्रियाओंको त्यागकर 'ईर्या पथ'को अंगीकार करनेका उपदेश है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय ६४३ ३ आहार परिन्ना (आहार परिज्ञा )-शुद्ध एषणीय आहार सम्बन्धी वर्णन है। ४ पञ्चक्खान किरिय (प्रत्याख्यान क्रिया)-जिसने प्राणियों के घातका प्रत्याख्यान नहीं किया है वह उनका घात न करनेपर भी उनका हिंसक कैसे हो सकता है ? इस प्रश्नका समाधान दृष्टान्त देकर किया है। ५ अणगारं-अनयार सुतं ( अनाचारथ तं )-इसमें आचार को स्वीकार करने और अनाचारको त्यागनेका विधान है । यह अध्ययन ३४ पद्योंमें है। ६ अदइज्जं (आद्रकीयं )-इसमें आद्रक कुमारका गोशाल आदि अन्य तीर्थयोंके साथ शास्त्रार्थका विवेचन है । इसमें ५५ पद्य हैं । अन्तिम पद्य 'बुद्धस्स आणाए' आदिमें वीर का निर्देश 'बुद्ध' शब्दसे किया गया है । __७ नालंद इज्ज (नालन्दीयं)--यह गद्य में है। इसमें बतलाया है कि नालन्दामें लेप गाथापतिके बगीचे में ठहरे हुए भगवान गौतमके पास उदक पेढालपुत्र आता है और उनसे वाद पूर्वक प्रश्न करता है । गौतम स्वामी उसको अनेक रीतिसे उत्तर देते हैं। यह उदक पार्श्वनाथकी परम्पराका था। गौतमके उत्तरोंसे सन्तुष्ट होकर वह चतुर्याम धर्मको छोड़कर सप्रतिक्रमण पञ्च महाव्रत रूप धर्मको स्वीकार कर लेता है । इस तरह सूत्र कृतांगमें साधुओंकी धार्मिक चर्याका वर्णन है तथा अन्य तीर्थकोंके मतोंका खण्डन है । अकलंक देव ने जो १-प्रथम पद्य इस प्रकार है-'श्रादाय वंभचेरं च प्रासुपन्न इमं वई। अस्सि धम्मे अणायारं नायरेज कयाइवि ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४४ जै० सा० इ० पू०-पीठिका इस अंगका प्रतिपाद्य विषय बतलाया है उसमें स्वसमय परसमय निरूपणका निर्देश नहीं है, किन्तु वीरसेन स्वामी ने उसका भी निर्देश किया है । अकलंक देवके अनुसार तो दृष्टिवादका प्रतिपाद्य विषय स्वसमय और परसमय है । दृष्टिवादके एक भेदका नाम भी 'सूत्र' है। वीरसेन स्वामीके अनुसार उसमें ३६३ मतोंका निराकरण किया गया है । नन्दिसूत्रके अनुसार भी 'सूत्र में तेरासिय आदि मतोंका खण्डन-मण्डन था । संभव है कि इस दुसरे अंगका निकास दृष्टिवादके सूत्र नामक भेदसे हुआ हो । इसीसे दोनोंमें नाम साम्यके साथ विषयमें भी आंशिक समानता है। प्रो० विंटरनीट्स का कहना है कि दो श्रुतस्कन्धोंमेंसे प्रथम श्रुतस्कन्ध प्राचीन है और दूसरा श्रुतस्कन्ध केवल एक परिशिष्ट है जो बादको जोड़ दिया गया है। यह सम्भव है कि प्रथम श्रुतस्कन्ध एक ही व्यक्तिके द्वारा रचा गया हो। उससे भी अधिक सम्भव यह है कि किसी संग्राहकने एक पुस्तक का रूप देनेके लिये विभिन्न पद्यों और उपदेशों को एक प्रकरण रूपमें संयुक्त कर दिया हो। इसके विपरीत दूसरा श्रुतस्कन्ध, जो गद्यमें लिखा गया है, भहे ढंगसे एकत्र किये गये परिशिष्टों का केवल एक पिण्ड है। फिर भी भारतके धार्मिक सम्प्रदायोके जीवन का ज्ञान कराने की दृष्टि से दूसरा भाग भी महत्त्वपूर्ण है।' (हि० इ. लि.,. जि. २, पृ. ४४१)। ___ इस अंग पर भी एक नियुक्ति, चूर्णि तथा शीलांक की संस्कृत टीका है। इस अंग का जर्मन भाषामें अनुवाद डा० जेकावीने किया था। उसका अंग्रेजी अनुवाद ( से. बु. ई. जि. ४५ में) प्रकाशित हो चुका है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय ६४५ ३ स्थानांग — इसमें अनेक जगह पाये जाने वाले अर्थों का निर्णय किया जाता है ( त. वा. पृ. ७३ ) । एक को आदि लेकर कोत्तर क्रमसे स्थानों का वर्णन करता है ( षट्खं, पु. १, पृ., - १०० । क. पा. भा. १, पृ. १२३ ) । इसमें जीव, अजीव, स्वसमय, पर समय लोक, लोक लोकालोक आदि को व्यवस्थित किया जाता है (नन्दी. सू. ४८, समय. सू. १३८ ) । इसमें दिगम्बरोंके अनुसार बयालीस हजार और श्वेताम्बरोंके अनुसार बहात्तर हजार पद हैं । वर्तमान स्थानांग सूत्र में दस अध्ययन हैं। उनमें एकसे लेकर दस संख्या तक अर्थों का कथन है । तदनुसार ही पहले अध्ययन का नाम एक स्थानिक, दूसरेका द्विस्थानिक, तीसरेका त्रिस्थानिक इत्यादि क्रमसे है । शुरूके पांच अध्ययनोंमें उद्देशविभाग है, शेष में नहीं है । इस अंग में कुछ उल्लेखनीय बाते हैं उनका यहां निर्देश करना अनुचित न होगा । १ वस्त्र धारण करनेके तीन कारण बतलाये हैं - लज्जा, जुगुप्सा और परीषह । इन तीन कारणोंसे साधु को वस्त्रधारण करना चाहिये । २ भरत और ऐरावत क्षेत्रों में प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्कर को छोड़कर शेष बाईस तीर्थङ्कर चतुर्याम धर्म का उपदेश करते १ 'तिहिं ठाणेहिं वत्थं धरेज्जा, तं. - हिरिपत्तियं दुगंछापत्तिर्यं परीसहपत्तियं ॥ १७१ ॥ ' २ -- भरहेरवसु णं वासेसु पुरिम-पच्छिभवज्जा मज्झिमगा वावी सं अरहंता भगवंता चाउज्जामं धम्मं पराणवैति तं सञ्चातो पाणातिवाया वेरमणं, एवं मुसावायाश्रो वेरमणं, सव्वातो दिन्नादारणाश्रो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० ६४६ हैं- समस्त प्राणातिपातका त्याग, असत्यका त्याग, श्रदत्तादान का त्याग और समस्त परिग्रह का त्याग | सब महाविदेहों में भगवान अहन्त चतुर्यामधर्मका उपदेश करते हैं। ० सा० इ० पू० पीठिका ३ पांच' कारणोंसे अचेलपना ( वस्त्रत्याग ) प्रशस्त हैंदेखभाल कम करनी पड़ती है १, प्रशस्त लाघत्र रहता है २, विश्वसनीय रूप है, जिनानुमत तप है ४, और महान् इन्द्रिय निग्रह होता हैं ।' इसकी टीकामें टीकाकार अभयदेव सूरिने लिखा हैजिसके वस्त्र नहीं होते उसे अचेल कहते हैं । वह जिनकल्पी विशेष होता है । और स्थविरकल्पी अल्प मूल्य वाले वस्त्रधारण करने से अथवा अल्प वस्त्रधारण करनेसे अथवा परिमित जीण मलिन वस्त्रधारण करनेसे अचेल कहलाता है | आगमिक साहित्य के सभी टीकाकारों ने वस्त्र पात्र का खूब पोषण किया है, अस्तु । वेरमणं, सव्वाओ बहिद्धादागा ( परिग्गहा ) श्री वेरमणं । सव्वेसु महाविदेहेतु अरहंता भगवंतो चाउज्जामं धम्मं पराणवयंति ( सू. २६६ ) । Jain Educationa International १ - पंचहि ठाणेहि, अचेल पसत्थे भवति, तं. - अप्पा पडिहा, लाघव पत्ये, रूवे वेसासिते, तवे अन्नातें, विउले इंदियनिग्गहे, ( सू. ४५५ ) । २--' न विद्यते चेलानि - वासांसि यस्यासावचेलकः, स च जिनकल्पिक विशेषः --- स्थविर कल्पिक श्चाल्पाल्पमूल्यसप्रमाण जीर्णमलिनवसनत्वादिति । ' - स्था०, सू० ४५७ । For Personal and Private Use Only Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय ६४७ ४ – इसमें १ भगवान महाबीर के तीर्थ में हुए सात निन्हवों के नाम, उनके कर्ता व्यक्ति और उनके स्थानोंका निर्देश है । २ ५ - श्रेणिक के तीर्थकर होने का कथन करते हुए लिखा है - कि जैसे महाबीर भगवान ने निग्रन्थ श्रमणों के लिये नंगा रहना, दीक्षित होना, स्नान नहीं करना, दन्तधावन नहीं करना, छाता नहीं लगाना, जूता नहीं पहनना, भूमि शय्या, फलक शय्या काष्ठ शय्या, केश लोच, ब्रह्मचर्य, आदि का उपदेश दिया, वैसे श्रेणिक भी प्रथम तीर्थकर महापद्म होकर निर्ग्रन्थ श्रमणों के लिये यही सब मार्ग बतलायेगा । ६ - श्व ेताम्बर ३ मत में दस आश्चर्य माने गये हैं, जिनमें एक महाबीर का गर्भपरिवर्तन भी है उन दस अच्छेरों का भी इसमें निर्देश है । इस अंग में निर्दिष्ट कतिपय विषयों से इसकी प्राचीनता १ – 'समणस्स णं भगवो महावीरस्य तित्यंसि सत्त पवतरण निराहगा पं०, तं० – बहुरता जीवपतेसिता श्रवतिता सामुच्छेइत्ता दोकिरिता तेरासिता बद्धिता । ( सू० ५८७)। २—....... • से जहानाम ते अज्जो ! मते समणाणं निग्गंथाणं नग्गभावे मुंडभावे राहाणते श्रदंतवणे एवमेव महापउने वि अरहा समरणाणं निग्गंथाणं नग्गभावं जाव लावलद्ध वित्ति पराणवेहिती ...( सू० ६६३ ) । ३ – 'दस अच्छेरगा पं०, तं० -- उवसग्ग गब्भहरणं इत्थीतित्थे भाविया परिसा । कणहस्स अवरकंका उत्तरणं चंद सूराणं ॥ १ ॥ हरिवंस कुलुप्पत्ती चमरुप्पातो त अट्ठस्य सिद्धा | संजतेसु पूया दसवि तेण काले || २ || ' Jain Educationa International .. For Personal and Private Use Only Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४८ जै० सा० इ० पू०-पीठिका संदिग्ध है। स्थान' ४-१ में अंगबाह्य रूप से चार पन्नत्तिओं का निर्देश है-वे चार पन्नत्ति हैं-चंद पन्नत्ति, सूर पन्नत्ति, जम्बू द्वीप पन्नत्ति और द्वीप सागर पन्नत्ति । इसी तरह स्था०२ ३-१ में भी तीन पन्नत्तिओं के पढ़ने का निर्देश है। ____ श्वेताम्बर सम्प्रदाय में चंद पन्नतीको सातवाँ सूरपन्नति को पाँचवाँ और जम्बूद्वीप पन्नत्ति को छठा उपांग माना है । इन उपांगों में एक द्वीपसागर पन्नती को और मिला दिया है । इसे कोई स्वतंत्र ग्रन्थ श्वेताम्बर आगमोंमें नहीं माना है। अंगोंमें उपांगोका निर्देश एक विचित्र ही बात है। तथा यहाँ उनको जो अंगबाह्य कहा गया है यह भी विचित्र है क्योंकि इन पन्नतियोंकी गणना अंग बाह्यमें नहीं की गई है। साथ ही द्वीपसागर पन्नति नामक कोई स्वतंत्र ग्रन्थ श्वेताम्बर सम्प्रदाय में नहीं है। दिगम्बर साहित्य में उक्त चारों पन्नतियोंको दृष्टिवादके एक भेद परिकर्म के अन्तर्गत माना है। स्थान १० में एक और उल्लेखनीय कथन है । वह है' दशा नामक दश ग्रन्थोंका निर्देश । प्रत्येकमें दस दस अध्ययन बतलाये १- 'चत्तारि पन्नतीअो अंगबाहिरियातो पं०, तं०-चंद पन्नत्ती, सूर पन्नत्ती, जंवूदीव पन्नत्ती दीवसागर पन्नती' ( सू. २७७ )। २-'तो पन्नत्तीअो कालेण अहिज्जति तं०-चंदपन्नती सूर पन्नती दीवसागर पन्नती' । ( सू. १५२ ) । ३- 'दस दसानो पं० तं०-- कम्मविवाग दसाश्रो, उवासग दसायो, अंतगडदसाअो, अणुतरोववाय दसायो, अायार दसाओ, पण्हा वागरण दसानो, बंधदसानो, दोगिद्धी दसानो, दीह दसानो, संखेवित दसाश्रो । स्था०, पृ, ४७६ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४६ श्रुतपरिचय हैं और उन अध्ययनोंके नाम भी दिये हैं दस दशाओंमेंसे चार नाम इस प्रकार है-उवासगदसा,अंतगडदसा,अणुत्तरोववाय दसा और पण्हावागरण दस । ये चारो क्रम से सातवां आठवां नौवां और दसवां अंग हैं। प्रथम दशा का नाम 'कम्मविवाग दसा' है जो ग्यारहवें अंग विपाक सूत्र का स्मरण कराता है। टीका. कार अभय देव का कहना है कि ग्यारहवें विपाक सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध का नाम कर्मविपाक दशा है। एक 'आचार दशा' है । इसे टीकाकार दशा श्रुतस्कन्ध बतलाते हैं जो छै छेद सूत्रों में से है। शेष चार दशाओं से टीकाकार भी अपने को अपरिचित बतलाते हैं। यहाँ प्रत्येक दशा के दस दस अध्ययन बतलाये हैं। उवासग दशा नामक सातवें अंग में दस अध्ययन पाये जाते हैं। किन्तु आठवें अंग अन्तगड दशा और नौवे अंग अनुत्तरोववास दशा में क्रम से नौवे और तेतीस अध्ययन ( वि० प्र० पृ० ५६ ) बतलाये हैं। अतः डा०वेवर का कहना था कि आठवें और नौवें अंग की जो प्रतियां हमारे सामने हैं, स्थानांग सूत्र के रचयिता के सामने उनसे भिन्न प्रतियां थीं। तथा स्थानांग में अन्तगड० और अनुत्तरोपातमें जो दस दस अध्ययन गिनाये हैं वे १-कर्म विपाकदशा-विपाकश्रुताख्यैकादशाङ्गस्य प्रथम श्रुतस्कन्धः,...अाचार दशाः दशाश्रुतास्कन्ध इति या रूढ़ा....प्रभ व्याकरण, दशाः देशममङ्गमिति, तथा बन्धदशा-द्विगृद्धि दशा दीर्घ-दशा संक्षेपिकदशाश्चास्माकमप्रतीता इति ।'- स्था० टी०, पृ० ४८० । २-इण्डि० ए०, जि० १८, पृ० ३६६ अादि । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५० जै० सा० इ० पू०-पीठिका उपलब्ध प्रतियों में नहीं पाये जाते । अत: टीकाकार अभयदेव' ने लिखा है कि यह अध्ययन विभाग वाचनान्तर की अपेक्षा से है. उपलब्ध वाचना की अपेक्षा से नहीं हैं। समवायांग में भा आठवें और नौवें अग में दस दस अध्ययन बतलाये हैं। अतः समवायांग के रचयिता के सामने भी उपलब्ध प्रतियों से भिन्न प्रतियां थीं। छठे दशा का नाम 'पण्ह वागरण दसाओ' है। यह निश्चय है कि यह दसवें अंग का नाम है। किन्तु दसवें अंग में दस अध्ययन नहीं हैं, दस द्वार हैं। दस अध्ययनों के जो नाम स्थानांग में दिये हैं उनसे प्रकट होता है कि स्थानांग के रचयिता के सामने दसवें अग की प्रति उपलब्ध अंग से बिल्कुल भिन्न थी । स्थानांग में पह२ वागरण दसाओं के दस अध्ययनों के नाम इस प्रकार दिये हैं-उवमा, संखा, इतिभासियाई, आयरिय भासियाई. महावीर भासियाई, खोमग पसिणाई, कोमलपसिणाई अदागपसिणाई, अगुट्ठपसिणाई, बाहु पसिणाई। किन्तु उपलब्ध प्रश्न व्याकरण अंग के दस द्वारों के नाम इस प्रकार हैं-हिंसा, मुसावाय, तेणिय, मेहुण, परिग्गह, अहिंसा, सञ्च, अतेणिय, वंभचेर और अपरिग्गह। दोनों में आकाश-पाताल का अन्तर है। समायांग ( सू. १४५) और नन्दी ( सू. ५५ ) में भी प्रश्न व्याकरणमें खोमग. अदाग., अंगुठ्ठ. और बाहु. नामके अध्ययन बतलाये हैं। अतः नन्दी और समवायांग सूत्रके रचयिताके सामने भी प्रश्न व्याकरण सूत्रकी वही प्रति होनी चाहिये जो तीसरे अंगके रचयिताके सामने थी। १-'तदेवमिहापि वाचनान्तरापेक्षयाऽध्ययनविभागो उक्तो न पुनरूपलभ्यमानवाचनापक्षेयेति', स्था०, टी०, पू० ४८३ पृ० । २-'प्रभ व्याकरणदशा इहोक्तरूपा न दृश्यन्ते दृश्यमानास्तु पञ्चास्रव पञ्च संवरात्मिका इति'—स्था० टी०, पृ० ४८५ पू० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय दस दशाओंमेंसे अन्तिम संखेविय दसाके दस अध्ययनोंके नाम इस प्रकार बतलाये हैं - खुद्दिया विमाण पांवभत्ती, मल्लिया विमाण विमाण पविभत्ती, अगचूलिया, वग्ग चूलिया, विवाह चूलिया, अरुणोववाए, वरुणोववाए, गरुलोववाते, वेलंधरोववाते, वेसमणोववाते ( स्था. सू० ७५५ ) । किन्तु नन्दि० में इन सबको श्रणंग पविट्ठ'की सूची में गिनाया है। स्थानांगके सातवें अध्ययनमें सात निन्हवोंके नामोंका पाया जाना भी उल्लेखनीय है। सत्यका अपलाप करने को और करने वालोंको निन्हव के नाम से पुकारा जाता है। श्वेताम्बर सम्प्रदायमें ऐसे सात निन्हव माने गये हैं। पीछे से इनमें आठवाँ निन्हव वोटिक' और सम्मिलित कर लिया गया। स्थानांग में सात का ही निर्देश होने से कहना होगा कि इसकी रचना के समय तक दिगम्बरों को निन्हव में नहीं गिनाया गया था । इन सात निन्हवोंमें से दो का प्रादुर्भाव तो भगवान महाबीर की मौजदगीमें ही हो गया था और शेष पाँच उनके बाद उद्भूत हुए। इनमें से अन्त का सातवाँ निन्हव वीर निर्वाणसे ५८४ वर्ष बाद हुआ। अतः प्रकृत स्थानांग सूत्र भी उसके बाद का ही होना चाहिये। ___ स्थानांग सूत्र की टीका सम्बत् ११२० में नवाङ्ग वृत्तिकार अभयदेवने अणहिल पाटनमें अजित सिंह के शिष्य यशोदेव गणिकी सहायतासे बनाई थी। धर्मसागर गुर्वावलीके अनुसार अभय देवका स्वर्गवास सं० ११३५ में हुआ। ४. समवायाङ्ग--समवाय में सब पदार्थोंके समवाय का विचार किया जाता है (त० वा०, पृ० ७३ )। षट्ख०, पु० १. पृ० १०१)। द्रव्य क्षेत्र काल और भावों के समवायका Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५२ जै० सा० इ० पू० पीठिका $ वर्णन करता है ( क० पा० भा० १, पृ० १२४ ) । एक से लेकर एक एक बढ़ाते हुए सौ तक के पदार्थों का कथन करता है अर्थात् एक से लेकर सौ तक की संख्या पर्यन्त पदार्थ का अन्तर्भाव जिस संख्या अन्तर्गत होता है उसका कथन उस उस संख्या स्थान के अन्तर्गत किया जाता है ( नन्दी०, सू०.४६ १३६ ) | दिगम्बरों के अनुसार इसमें एक लाख । समवा०, सू० चौंसठ हजार पद थे और श्वताम्बरों के अनुसार एक लाख चवालीस हजार थे । पद समवायांग की विषय तालिका स्थानांग के ही अनुरूप है अन्तर यह है कि स्थानांग में एक से लेकर दस स्थानों तक ही विवेचन है तब समवाय में एक से लेकर सौ तक का समवाय प्रतिपादित किया गया है। इसे तीसरे अंग का पूरक कहा जा सकता है । इस अङ्ग का प्रारम्भ इस प्रकार होता है--'सुयं मे आउ ! ते भगवंतेण एवं अक्खायं' । इह खलु समणेण भगवया महावीरेण.... इमें दुवाल संगे गणिपिडगे पण्णत्ते' तं जहा०" आयुष्मन् मैंने सुना उन भगवानने ऐसा कहा 'श्रमण भगवान महाबीरने द्वादशांग गणिपिडग का उपदेश दिया' । यहाँ भगवान मारके चालीस विशेषण दिये गये हैं। आगे बारह अङ्गों के नाम देकर लिखा है -- ' तत्थंण जे से चउत्थे अगे समवापत्ति आहिते तस्स णं यमत्थे पणते, तं जहा । ' ' इनमें से जो चौथा समवाय नाम का श्रङ्ग है उसका यह अर्थ कहा है, प्रथम तीन अङ्गों के आरम्भ में इस प्रकार की उत्थानिका नहीं पाई जाती । यह अंग विविध सूचनाओं और ज्ञातव्य विषयोंसे भरपूर है । इसमें बारहों अंगों की विस्तृत विषय सूची दी हुई है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रु तपरिचय , ६५३ ब्राह्मी लिपी आदि के १८ प्रकार के भेदोंका निर्देश है दृष्टिवादरके ४६ मातृकापद और ब्राह्मी लिपीके ४६ मात्रकाक्षर बतलाये हैं। ___इसमें शुरुके तीन अंगोंको एक इकाईके रूपमें रखकर तीनोंके अध्ययनोंकी संख्या ५७ बतलाई३ है-आचारमें २४ सूत्रकृतमें २३ और स्थानमें १० । ___ इस अंगकी एक सबसे उल्लेखनीय वस्तु है-इसमें नन्दीसूत्रका निर्देश पाया जाना। दृष्टिवाद के अठासी सूत्रोंका उल्लेख करते हुए कहा गया है कि नन्दीकी तरह कथन कर लेना चाहिये । समवायांग में द्वादशांगका वर्णन नन्दीसे प्रायः अक्षरशः मेल खाता है। अतः डा. वेबर का कहना था कि हमें यह विश्वास करनेके लिये बाध्य होना पड़ता है, कि नन्दी और समवायमें पाये जाने वाले समान वर्णनोंका मूल आधार -' बंभीए णं लिवीए अट्ठारसविहे लेख विहाणे पं० तं०-वंभी. जवणी, लियादोसा, ऊरिया, खरोट्टिया, खरसावित्रा, पहाराइना, उच्चत्तरिया, अक्खर पुट्ठिया, मोगवयता, वेणतिया, णिण्हइया, अंकलिवि, गणिय लिवी, गंधव्वलिवी, भूयालिवी, भादंसलिवी, माहेसरीलिवी, दामिलिवी, बोलिंदीलिवी ।-सम०, पृ० ३३उ० । २- 'दिडिवायस्स णं छायालीसं माउयापया पं० । बंभीए णं लिवीए छायालीसं माउयक्खरा पं०....।।४६।। -सम० ३–'तिरहं गणिपिडगाणं प्राचार चूलियावजाणं सत्तावन्नं अज्झयणा पं० .....।। ५७ सू०।- सम० । ४-'दिद्विवायस्य णं अट्ठासीइ सुत्ताई पं०,तं०-- उज्जुसुयं परिणयापरिणयं एवं अट्ठासीइ सुत्ताणि भाणियव्वाणि जहा नन्दीए ...॥ सू० ८८।।-सम० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५४ जै० सा० इ० पू०पीठिका नन्दी है। और यह कार्य समवायके संग्राहकका या लेखकका होना चाहिये । आगे डा० वेबरने लिखा है कि 'किन्तु हमारे इस अनुमानमें एक कठिनाई है और वह यह है कि नन्दी और समवायके ढंगमें अन्तर है। किन्तु समवायसे नन्दी की विषयसूची बहुत संक्षिप्त है। इससे यह प्रमाणित होता है कि नन्दीमें दत्त विषयसूची प्राचीन है। इसके सिवाय नन्दीमें उक्त द्वादशांगकी विषयसूचीको लेकर जो पाठभेद पाये जाते हैं, निश्चय ही समवायके पाठोंसे उत्तम तथा प्राचीन हैं।' नन्दी और समवायमें प्रत्येक अंगोंके पदोंका प्रमाण दिया है। किन्तु पदके अक्षरोंका प्राचीन प्रमाण श्वेताम्बर परम्परामें लुप्त हो चुका था। जो श्वेताम्बरीय आगम ग्रन्थ उपलब्ध है उन सबमें उनका ग्रन्थ परिमाण ३२ अक्षरका ग्रन्थ ( श्लोक ) के हिसाबसे दिया है। नीचे प्रत्येक अंगके ग्रन्थानका परिमाण तथा उल्लिखित पदोंका प्रमाण दिया जाता है। अंग ग्रन्थ प्रमाण पद संख्या (जो नन्दि दिगम्बर (श्लोक ३२ अक्षर) में बतलाई है) (पद संख्या) २५५४ १८००० पद १८००० २३०० ३६००० " ३६००० ७२००० " ४२००० १६०७ १४४००० " १६४००० १५७४० २८८००० नं. २२८००० ८४००० स० १८४००० भग० ५-ई० ए०, जि० १८ पृ० ३७४ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६० श्र तपरिचय ६५५ ५.७५ ५७६००० ५५६००० ८१२ ११५२००० ११७००० २३०४००० २३२८००० १६२ ४६०८.०० ६२४४८०० १३०० ६२१६००० ६३१६००० १३१ १८४३२००० १८४००००० . इस तालिकासे प्रकट होता है कि जब बागम ग्रन्थों के अनुसार द्वादशांगका प्रमाण उत्तरोत्तर लगभग दूना बतलाया है तब वर्तमान श्वे० आगमोंका प्रमाण ६ संख्याके बाद एक दम अल्प हो गया है। ____ समवायांगके सम्बन्धमें प्रो० विन्टरनीट्सने लिखा है'इस बातके प्रमाण हैं कि या तो वर्तमान समवायांगकी रचना बादमें की गई है या उसमें कुछ भाग बादके रचे हुए हैं। उदाहरण के लिये, नम्बर अट्ठारहमें अठारह प्रकारकी ब्राह्मी लिपि बतलाई है, नम्बर छत्तीसमें उत्तराध्ययनके छत्तीस अध्ययनोंका निर्देश है, तथा नन्दी जैसे अर्वाचीन ग्रन्थका उल्लेख है । इसके सिवाय अंगोंका जो विस्तृत परिमाण उसमें बतलाया गया है, वर्तमान परिमाणके साथ उसका कोई मेल नहीं है।' (हि. इ० लि०, जि० २, पृ० ४४२ )। ५-व्याख्या प्रज्ञप्ति-'जीव है या नहीं इत्यादि साठ हजार प्रश्नों का समाधान करता है ( त• वा०, पृ० ७३ । षटखं०, पु० १, पृ० १०१)। साठ हजार प्रश्नोंके उत्तरोंका तथा छियानवे हजार छिन्न छेदों से ज्ञापनीय शुभ और अशुभ का वर्णन करता है ( क० पा०, भा० १, पृ० १२५ ) । अनेक सुरेन्द्र नरेन्द्र राजर्षियों के द्वारा पूँछे गये संशयों का तथा भगवान के द्वारा दिये Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ० पू०-पीठिका गये उनके विस्तृत उत्तरोंका, जिनका प्रमाण ३६००० है, कथन करता है। ( सम०, सू० १४०) उपलब्ध पाँचवें अंग को भगवती भी कहते हैं। इसमें ४१ शतक हैं। इनमें से कुछ शतकों में अवान्तर शतक और उद्दे सक भी हैं। ग्रन्थ के अन्तः अवलोकन से प्रकट होता है कि इसमें १३८ शतक हैं, जिनमें अन्तःशतक भी सम्मिलित हैं। तथा १९५२ उहेशक हैं। तथा एक लाख चौरासी हजार पद हैं। यह बात सम्भवतः उस समय लिखी गई होगी जब पाँचवें अंग ने वर्तमान परिमाण का आधा रूप भी प्राप्त नहीं किया था। वर्तमान भगवती का परिमाण १५७५० श्लोक प्रमाण है । उसके प्रत्येक शतक में उद्देशकों की संख्या को देखने से प्रमाणित होता है कि उसने इतना परिमाण क्रमशः लिया है। प्रत्येक के उद्देसगों का परिमाण इस प्रकार है-शतक एक से आठ तक में, बारह से चौदह तक में और १८ से २० तक में प्रत्येक में दस-दस उद्देश हैं। नौवें और दसवें शतक में चौतीस चौतीस उद्देश हैं । ग्यारहमें बारह हैं, पन्द्रहवेंमें उद्देश ही नहीं हैं, सोलहवेंमें चौदह, सतरहवेमें सतरह उद्देश है। किन्तु इक्कीसवें शतकमें अस्सी, बाइसवें में साठ, तेईसवें में पचास, चौबीसवें में चौबीस छब्बीस से तीस तक प्रत्येक में केवल ग्यारह-ग्यारह उद्देश हैं। पच्चीसवें में बारह, किन्तु इकतीसवें और बत्तीसवेंमें अट्ठाईस अट्ठाईस उद्देस हैं । तेतीसवें और चौतीसवें में एक सौ चौबीस, पैतीत और छत्तीसमें एक सौ बत्तीस, चालीसमें दो सौ इकतीस और इकतालीसवें शतकमें एक सौ छियानों उद्देश हैं । उनकी विषय सूचीसे भी यही प्रमाणित होता है कि पाँचवें अङ्ग का विस्तार क्रमशः हुआ है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय प्रारम्भ के बीस शतकों को पौराणिक बाना पहनाया गया है। वे सब बिना किसी क्रम के Dथे गये हैं और उनमें कोई एक ऐसा तन्तु नहीं प्रतीत होता जो सब को जोड़ता हो । उनमें भगवान महावीर के कार्यों और उपदेशों के विविध उल्लख हैं । राजगृही के राजा श्रोणिक के समय में भगवान महावीर अपने प्रथम शिष्य गौतम इन्द्रभूति से वार्तालाप करते हैं । किन्तु शतक २१ से विषय बदल जाता है । २१-२३ श. पौदोंके विषयमें है । २४-३० श० में जोव की विभिन्न दशाएँ बतलाई हैं अर्थात् ४ में जीवका उद्गम, २५ में लेश्यादि भाव, २६ में कर्मबन्ध, २७ में कतो कम करण, २८ में पाप कमोदि दण्डक, २९ में कर्म प्रस्थापनादि और ३० में समवसरण का कथन है । ३१ से ४१ तक कृत, त्रेता, द्वापर और कलियुग का वर्णन है। अन्तिम शतकों के सम्बन्ध में वेबर का कथन था कि वे एक जन गणना की सूचियों के तल्य हैं। (इं. एं, जि० १६, पृ० ६३ ।। अतः श्री वेबर का यह निश्चित मत था कि शुरु के बीस शतकों के साथ २१ आदि शतक बिना किसी परिवर्तन के साथ पीछे से जोड़ दिये गये हैं । फिर भी ऐसा प्रतीत होता है कि इस योग को करने में कोई मार्ग दर्शक अवश्य था; क्यों कि प्रत्येक शतक के प्रारम्भ में एक आर्या दी गई है जो प्रत्येक शतक के प्रत्येक उद्देश का विषय सूचन करती है। इससे पूर्व के किसी अङ्गमें यह बात नहीं पाई जाती । दूसरे अन्य आगमोंके उद्धरण बहुतायत से पाये जाते हैं। उनके कारण विषय प्रसंग प्रायः न केवल छिन्न हुआ है किन्तु नष्ट भ्रष्ट हो गया है। रायपसेणीय, पन्नवणा, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति नामक उपाङ्गों से भी उद्धरण लिये गये हैं। तथापि यह प्रश्न अवश्य रह जाता है कि यह कार्य संकलयिता का है या प्रतिलेखकों का । यह सन्देह तो करना ही Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५८ जै० सा० इ० पूर्व पीठिका नहीं चाहिये कि जिस ग्रन्थ से जो उद्धरण लिये गये हैं वे उसमें हैं या नहीं ? रायपसेणीसे जो उद्धरण लिये गये हैं वह उसमें पाये जाते हैं । (इं० ए०, जि० १६, पृ० ६३ ) । अस्तु, ग्रन्थ का आरम्भ पञ्च नमस्कार मंत्र से होता है । उसमें 'नमो बम्हीए लिवीए' पद और जुड़ा हुआ है। उसके पश्चात् आरम्भिक पद्य है फिर 'तेणं कालेां तेण समएण' आदि आना है । ग्रन्थ का प्रारम्भिक कुछ भाग प्रश्नोत्तर के रूपमें है जिसमें भगवान महावीर अपने प्रधान शिष्य इन्द्रभूति गौतम के प्रश्नों का उत्तर देते हैं और कुछ भाग ऐतिहासिक संवाद के रूप में है। इस भागमें भगवान महावीर के पूर्वकालीन तथा समकालीन व्यक्तियों का विवरण उपलब्ध होता है। भगवान महावीर के शिष्यों में इन्द्रभूति, अग्निभूति, और वायुभूतिका नाम तो है किन्तु सुधर्मा का नाम इसमें नहीं आया । नौवें शतकमें जमालिका वर्णन है जो महावीर का शिष्य था । किन्तु निन्हवका जनक था । १५ वें शतक में अजीविक सम्प्रदाय के संस्थापक मक्खलिपुत्र गोशालक का वृतान्त बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । इस शतक के विषय में डा० विन्टर नीट्स का कहना है कि यह एक स्वतंत्र ग्रन्थ रहा होगा जो भगवती में जोड़ दिया गया । इस अङ्ग में यद्यपि भगवान पार्श्वनाथका वर्णन नहीं है किन्तु उनकी परम्परा के अनुयायी अनेक पार्श्वापत्यीयोंका वर्णन हैं उनमें कालासवेसियपुत्त आदि नाम उल्लेखनीय हैं । पार्श्व के अनेक अनुयायी महावीरके अनुयायी बने ऐसे भी अनेक उल्लेख इस श्रङ्गमें मिलते हैं । इनके सिवाय भी यत्र तत्र कुछ ऐतिहासिक उल्ल ेख मिलते हैं । यथा चम्पाके राजा कुणिक के समय में काशी कोसल के नौ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय ६५६ लिच्छवि राजाश्रीं और बेज्जी विदेह पुत्र की विजय, सहस्रानीक के प्रपौत्र और शतानीक के पुत्र कौशाम्बी नरेश उदयन की चाची जयन्तीका, जो वैशाली श्रावक की संरक्षिका थी, महा. वीर के उपदेश से भिक्षुणी बनना आदि। - शतक नौ और बारह में कुछ विदेशी दासियों के नाम आये हैं, जो एक ब्राह्मण परिवार में काम करती थीं। उनमें पल्हवीया आरवी, वहली, मुरंडी और पारसी नाम उल्लेखनीय हैं । ये नाम ईसा की दूसरी शताब्दी से चौथी शताब्दी तक के समय का स्मरण कराते हैं। और इस तरह इनका मूल उद्गम हमें गुप्त काल में ले जाता है । ( इ० एं०, जि . १६. पृ० ६५ )। ६- ज्ञात धर्मकथा-बहुतसे आख्यान और उपाख्यानोंका कथन है, (त० वा०, पृ० ७३) । तीर्थङ्करोंकी धर्मकथाओंके स्वरूप का वर्णन करता है ( क. पा०, भा० १, पृ० १२५ ) । तीर्थङ्करोंकी धर्म देशनाका, सन्देहको प्राप्त गणधर देवके सन्देह को दूर करनेकी विधिका तथा अनेक प्रकार की कथा और उपकथाओंका वर्णन करता है ( षटखं०, पृ० १०२)। ज्ञातों के नगर, उद्यान, चैत्य, वनखण्ड, समवसरण, राजा, माता पिता, धर्माचार्य, धर्मकथा, इहलौकिक पारलौकिक ऋद्धि विशेष, भोग परित्याग, प्रव्रज्या, पर्याय, श्रुत परिग्रह, तप, उपधान, संलेखना, प्रायोपगमन, देव लोक गमन, सुकुल में जन्म लेना, शेधिलाभ, अन्तः क्रिया आदि का कथन करता है ( नन्दी० सू० ५१, सम० सू० १४१)। इसका प्राकृत नाम श्वेताम्बर साहित्यमें णायाधम्मकहा और दिगम्बरा साहित्यमें णाहधम्मकथा है। 'णाय' का संस्कृत रूप ज्ञात और 'णाह' का संस्कृत रूप नाथ होता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६० ज० सा० ई० पू०-पीठिका भगवान महाबीर स्वामीको श्वेताम्बर साहित्यमें ज्ञातृवंशी और दिगम्बर साहित्य में नाथवंशी लिखा है। इस अन्तर का कारण प्राकृत रूपोंमें अन्तर होजाना प्रतीत होता है। रणाय धम्म कहा और णाहधम्मकथा के आदि में भी जो णाय या णाह शब्द है वह महाबीर भगवान से ही सम्बद्ध जान पड़ता है। अतः भगवान महाबीरके द्वारा उपदिष्ट कथा जिसमें हों वह णायधम्मकहा है। टीकाकार १ अभय देव और मलयगिरीने णाया का अर्थ ज्ञाता किया है । और ज्ञाता का अर्थ उदाहरण किया है । ज्ञाता धर्मकथा अर्थात् उदाहरण प्रधान धर्मकथा। यह अर्थ विशेष संगत प्रतीत नहीं होता। वेबरने 'णायाधम्म कहा'२ का अर्थ किया है-'नाय' अर्थात् ज्ञातृवंशी महाबीरके धर्म के लिये कथाएँ जिसमें हों, उपलब्ध ‘णाया धम्म कथा' नामक अंग में दो श्रुतस्कन्ध हैं। पहलेमें १६ अध्ययन हैं जिन्हें 'ज्ञात' कहा है, दूसरे में १० वर्गधर्मकथा हैं । ग्रन्थ का प्रारम्भ-'तेणं कालेणं तेणं समएण' आदि प्रचलित परिपाटीके अनुसार होता है। ग्रन्थके प्रारम्भमें यह भी लिखा है-पाँचवाँ अग समाप्त हुआ, छठे अंग का क्या विषय है ? इस अंग की प्रारम्भिक उत्थानिका आदिका जो रूप है वही रूप अंग ७ से ११ तक के अंगों में भी है। इसपरसे डा. वेबर का कहना था कि ये छहों अङ्ग एक ग्रूप में सम्बद्ध हैं तथा १-'ज्ञातानि उदाहरणानि तत्प्रधानधर्भकथा ज्ञाताधर्मकथा'। सम० टी०, सू० १४१ । नं० टी०, सू. ५१ । २-Stories for the Dharma of NA YA इं० एं०, जि० १६, पृ० ६६ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय ६६१ इन सबका संकलन एक ही व्यक्तिके द्वारा हुआ होगा। ये सब आपसमें एक शृखला की तरह बद्ध हैं । अर्थात् आरम्भिक शैली आदि की दृष्टि से शुरू के चार अङ्ग एक समूहमें आते हैं और अन्त के छै अङ्ग एक समूहमें आते हैं । किन्तु पाँचवाँ अङ्ग इन सबसे भिन्न प्रतीत होता है। प्रथम श्रुत स्कन्ध के १६ अध्ययनोंके नामादि इस प्रकार हैं १ उक्खित० ( उत्तिप्त )-श्रेणिक पुत्र मेघकुमार की कथा है। वह पूर्व भवमें हाथी था। एक खरगोश को बचानेके लिये उसने अपना पैर उत्तिप्त किया। इससे इस अध्ययन का नाम उत्क्षिप्त है। २ संघाडग० ( संघाटक )-एक दूसरेसे संबद्ध सेठ और चोर की कथा है। ३ अंडग० ( अंडक )-मोरके अडे की कथा ४ कुम्म० (कूर्म )-कछवे की कथा ५ सेलय० (शैलक )-शैलक की कथा ६ तुम्ब० (तुम्ब ) ७ रोहिणि सेठ की बधू रोहिणी की कथा ८ मल्ली० -१६ वे स्त्रीतीर्थङ्कर मल्लिकी कथा हमायन्दी -माकन्दी नामक वणिक पुत्र की कथा १० चंदिमा० (चन्द्रमा) - १. दावद्दव० -इस नाम के समुद्र तट पर स्थित वृक्ष की कथा १२ उद्दग० (उदक - २३ मंडुक्क० (मंडूक)-नन्द का जीव मेण्डक की कथा १४ तेतली -तेतली पुत्र नामक अमात्यकी कथा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६२ जै० सा० इ०-पूर्वपीठिका १५ नंदिफल. -नन्दि नामक वृक्ष का फल १६ अवरकंका० -धातकी खण्ड के भारत क्षेत्र की राज धानी । इसमें द्रौपदी की कथा है १७ आइएण. (आकीर्ण)-समुद्रमें रहनेवाले अश्व की कथा १८ सुसुमा० -सुसुमा नामक सेठ पुत्री की कथा १६ पुंडरीय० (पुण्डरीक) इस तरह प्रत्येक अध्याय में एक एक स्वतंत्र कथा है । अधि. कांश कथाओं में कथापर बल न देकर कथा से सम्बद्ध उदाहरण पर ही विशेष जोर दिया गया है। कुछ कथाएँ तो केवल उदाहरण रूप ही हैं । शायद इसी से टीकाकारों ने ज्ञात का अर्थ उदाहरण किया है। - दूसरा श्रुतस्कन्ध विषय और शैलीकी दृष्टि से प्रथमसे सर्वथा भिन्न है, तथा सातवें और नौवें अंग से विशेष रूप से सम्बद्ध है । नन्दि तथा समवयांगमें कहा है कि एक एक धर्मकथा में पाँच सौ पाँच सौ आख्यायिकाएँ और एक-एक आख्यायिका में पाँच सौ पाँच सौ उपाख्यायिकाएँ, इसी तरह एक एक उपाख्यायिका में पाँच सौ आख्यायिका और पाँच सौ उपाख्यायिकाएँ होती हैं, इस तरह ज्ञाता धर्मकथा में साढ़े तीन करोड़ कथाएँ होती हैं। इस कथन के प्रकाश में उपलब्ध ज्ञाता धर्मकथा को देखने से निराशा ही होती है। इस अंग पर अभय देव कृत टीका है। ७ उपासकाध्ययन-श्रावक धर्म का लक्षण कहता है ( त० वा०, पृ० ७३ ) । ग्यारह प्रकार के श्रावकों के लक्षण, उनके व्रत धारण करनेकी विधि तथा उनके आचरणका वर्णन करता है। (षट्खं०, पृ० १०२।क० पा०, भा १, पृ. १२६ ) । उपासकों की Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय ६६३ ऋद्धिविशेष, परिषद्, विस्तार पूर्वक धर्म श्रवण, बोधिलाभ सम्यक्त्व विशुद्धि, मूल गुण, उत्तर गुण, अनेक अतिचार, प्रतिमा, उपसर्ग, प्रत्याख्यान, प्रोषधोपवास, सल्ले खना, स्वर्गगमन, चयन, मनुष्य जन्म धारण, संयम धारण, मोक्ष प्राप्ति आदि का कथन करता है ( सम०, सू ० १४२) श्वेताम्बर साहित्य में सातवें अंगका नाम उवासग दसा (उपा. सक दशा) है। उपलब्ध अंगमें दस अध्ययन हैं। इन अध्ययनोंमें दस उपासकोंकी कथाएँ हैं जिन्होंने प्रथम स्वर्ग प्राप्त किया और फिर मोक्ष प्राप्त किया। दस कथा इस प्रकार हैं-१ वाणिय ग्राम में आनन्द । २ चम्पामें कामदेव, ३ वाराणसीमें चुलणी पिता, ४ वाराणसीमें सुरादेव, ५ श्रालभियामें चुल्ल शतक, ६ कम्पिल्ल. पुर में कुण्ड कोलिक, ७ पोलासपुरमें सद्दाल पुत्र, ८ राजगृह में महाशतक, ९ श्रावस्तीमें नन्दिनी पिता और १० श्रावस्तीमें लेतिया पिता। सारी कथाएँ बिल्कुल एक साँचे में ढली हुई हैं। अन्त की कथाओंमें तो पूर्वकी कथाओंसे केवल नाम मात्रका अन्तर है। ८ अन्तःकृदश-जिन्होंने संसार का अन्त किया उन्हें अन्तःकृत कहते हैं । नमि, मतंग, सोमिल, रामपुत्र, सुदर्शन, यमलीक, वलीक, किष्कम्बल, पालम्बु, अष्ट पुत्र ये दस वर्धमान तीर्थङ्कर के तीर्थ में अन्तकृत केवली हुए । इसी प्रकार ऋषभ देव आदि तीर्थङ्करों के तीर्थ में अन्य दस दस अनगार दारुण उप. सर्गों को जीतकर सम्पूर्ण कर्मों के क्षय से अन्तकृत केवली हुए। दस अन्तकृत केवलियों का वर्णन्द अन्तःकृदश अंग करता है। अथवा, अन्तःकृतकी दशा का जिसमें कथन हो उसको अन्तः कृद्दशा कहते हैं । उसमें अर्हन्त आचार्य और सिद्धों की विधि का Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६४ जै सा० इ०-पूर्व पीठिका कथन होता है । (त० वा०, पृ०७३ । षटख०, पु० १, पृ. १.३)। प्रत्येक तीर्थङ्कर के तीर्थ में चार प्रकार के दारुण उपसर्गों को सहन कर और प्रतिहार्योंको प्राप्त कर निर्वाणको प्राप्त हुए सुदर्शन आदि दस दस साधुओंका वर्णन करता है ( क. पा. भा० १, पृ. १३०)। अन्तःकृतोंके नगर, उद्यान, चैत्य, वन खण्ड, समवसरण, राजा, माता पिता, धर्माचार्य, धर्मकथा, इह लौकिक, पार लौकिक ऋद्धिविशेष, भोग त्याग, प्रव्रज्या, परित्याग श्रुतपरिग्रहण, तप, उपधान, संल्लेखना, भक्त प्रत्याख्यान, प्रायोपगमन, अन्तःक्रिया आदि का कथन करता है (नं०, सू० ५३ । सम• सू० १४३)। ___टीकाकार' अभयदेवके अनुसार अन्तकृत अर्थात् तीर्थङ्कर, जिन्होंने कर्म और कमोंके फल रूप संसार का अन्त कर दिया उनको दशा । प्रथम वर्गमें दस अध्ययन होनेसे उसे अन्तकृत दशा कहते हैं । इस तरह दिगम्बर साहित्यमें अन्तःकृद्दश का जो अर्थ मिलता है वह श्वेताम्बर साहित्य में नहीं मिलता। उपलब्ध 'अन्त गड दसाओ' नामक आठवे अङ्गमें आठ वर्ग और आठ वर्गों में क्रमसे १०+८+१३+१०+१०+१६+ १३ १०६० अध्ययन हैं। किन्तु स्थानांग और समवायांगमें प्रस्तुत अङ्ग में दस अध्ययन बतलाये हैं । इसके सिवाय समवायांगमें सात वर्ग और १० उद्देशनकाल भी बतलाये हैं। नन्दिमें आठ वर्ग ही बतलाये हैं, अध्ययनों का निर्देश नहीं किया है । स्थानांगमें १-'अन्तो विनाशः, स च कर्मणस्तत्फलस्य वा संसारस्य कृतो यैस्ते अन्तकृतास्ते च तीर्थङ्करादयस्तेषां दशा:-प्रथम वर्गे दशाध्ययनानीति तत्संख्यया अन्तकृतदशाः ।'-सम० टी०. सू० १४३ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६५ श्रुतपरिचय दस अध्ययनोंके जो नाम दिये हैं, प्रस्तुत अङ्गोंके नामोंसे उनका मेल नहीं खाता। किन्तु दिगम्बर ग्रन्थोंमें निर्दिष्ट नामोंसे मेल खाता है । स्थानांगमें ८ वें अङ्गके दस अध्ययनोंके नाम इस प्रकार बतलाये हैं-णमि, मातंग, सोमिल, रामगुत्त, सुदर्शन, जमाली, भगाली, किंकम, पल्लतेतिय, अबडपुत्त । तत्वार्थ वार्तिकमें निर्दिष्ट नामोंसे ये नाम मिलते है। जो कहीं अन्तर है वह लेखकोंकी कलाका परिणाम जान पड़ता है। टीकाकार' अभय. देव इसे वाचनान्तर की अपेक्षा स्वीकार करते हैं। अतः परम्परामें और प्रस्तुत आठवे अङ्गके नामसे उपलब्ध ग्रन्थमें एक दम विरोध है । टीकाकार अभयदेव इस विरोध पर प्रकाश डालनेमें अपने को असमर्थ पाते हैं । अस्तु विषयके अनुसार आठ वर्गोंको तीन स्तरों में विभाजित किया जा सकता है। १ एक से ५ तकके वर्ग-इनमें कृष्ण वासुदेवसे सम्बन्धित व्यक्तियों की कथाएँ है। ६ठा और सातवाँ वगइसमें भगवान महाबीरके शिष्योंकी कथाएँ हैं। ८ वाँ १-'एतानिच 'नमि' इत्यादिकानि अन्तकृत्साधुनामानि अन्तकृद्दशांग प्रथमवर्गेऽध्ययनसंग्रहे नोपलभ्यन्ते । ततो वाचनान्तरापेक्षाणि इमानीति संभावयामः ।' --स्था० टी., सू. ७०५४ । २-'नवरं दस अज्झयण त्ति प्रथमवर्गापेक्षयैव घटन्ते, नन्द्यां तथैव व्याख्यातत्वात् । यच्चेह पठ्यते 'सत्त वगा' ति तत्प्रथमवर्गादन्यवर्गापेक्षया, यतोऽत्र सर्वेऽप्यष्टवर्गाः। नन्द्यामपि तथा पठितत्वात्, तवृत्तिश्चयं 'अवग्ग' ति । अत्र वर्गः समूहः स चान्तकृतानामध्ययनानां वा, सर्वाणि चैकवर्गगतानि युगपदुद्दिश्यन्ते, ततो भणितं 'अट्ठ उद्देसण काला' इत्यादि । इह च दश उद्देशनकाला अधीयन्ते इति नास्याभिप्रायमवगच्छामः ।'-सम० टी०, सू. १४३ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६६ जै० सा० इ० पूर्व पीठिका वर्ग - इसमें रत्नावली, मुक्तावली आदि दस तपोंका वर्णन है । इन तपों को राजा श्रेणिक की दस भार्या ने किया था । अनुत्तरोपपाददश - उपपाद जन्मही जिनका प्रयोजन है उन्हें औपपादिक कहते हैं। विजय, वैजयन्त, जयन्त अपराजित और सर्वार्थसिद्धि ये पांच अनुत्तर विमान हैं । जो उपपाद जन्म से अनुत्तरों में उत्पन्न होते हैं उन्हें अनुत्तरोपपादिक कहते हैं। ऋषिदास, धन्य, सुनक्षत्र, कार्तिकेय, श्रानन्द, नन्दन, शालिभद्र, अभय, वारिषेण और चिलातपुत्र ये दस अनुत्तरोपपादिक वर्धमान तीर्थङ्करके तीर्थमें हुए । इसी तरह ऋषभ आदि तेईस तीर्थङ्करों के तीर्थमें अन्य दस दस अनगार दारुणः उपसर्गों को जीतकर विजयादि अनुत्तरों में उत्पन्न हुए । इस तरह अनुत्तरोंमें उत्पन्न होने वाले दस साधुओं का जिसमें वर्णन हो उसे अनुत्तरोपादिकदश नामक श्रंग कहते हैं । ( त० वा०, पृ० ७३ । षट्खं; पृ. १०३ । क. पा० पृ० १३० ) । अनुत्तरोपपातिक साधुओंके नगर उद्यान, चैत्य, वनखण्ड, माता पिता समवसरण धर्माचार्य आदि पूर्वोक्त बीस बातों का कथन करता है (नन्दी० सू० ५४ । समवा० सू० १४४ ) । A 'अभयदेव के अनुसार 'अनुत्तर अर्थात् प्रधान और उपपात अर्थात् जन्म प्रधान जन्म वाले व्यक्तियोंसे सम्बद्ध दस अध्ययन जिसमें हों उसे अनुत्तरोपपादिक दशा कहते १ - ' नास्मदुत्तरो विद्यते इत्यनुत्तर उपपतनमुपपातो जन्म इत्यर्थः । श्रनुत्तरः प्रधानः संसारे श्रन्यस्य तथाविधस्याभावात् उपपातो येषां ते तथा त एवानुत्तरोपपातिकाः, तद्वक्तव्यता प्रतिबद्धा दश-दशाध्ययनोपलक्षिता अनुत्तरोपपातिकदशा ।'- सम० टी०, सू० १४४ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय हैं । किन्तु स्थानांग' की टीका में अभयदेवने अनुत्तरोपपादका वही अर्थ किया है जो दिगम्बर ग्रन्थोंमें किया गया है । I उपलब्ध आठवें अंगमें तीन वर्ग है और उनमें क्रमसे १०+१३+ १० = ३३ अध्ययन हैं । किन्तु स्थानांग में अनुतरोपपातिकदशा में दस अध्ययन बतलाये हैं और उनके नाम इस प्रकार हैं — ईसिदास, धरण, सुणक्खत्त, कातिन ( तिय ), सट्ठाण, सालिभद्द, आणंद, तेतली, दसन्नभद और अतिमुत्त । इनमें से शुरूके छै नाम तत्त्वार्थवार्तिकसे मिलते हैं । श्रभयदेव' ने लिखा है कि इनमें से कुछ नाम तीसरे वर्ग के अध्ययनोंके साथ मेल खाते हैं, सब नहीं। इसके सिवाय समवायांग और नन्दिमें आठवें और नौवें अंग की जो विषय सूचियाँ दी हैं वे प्रस्तुत आठवें नौवें अंगों से मेल नहीं खातीं । अतः डा० वेबर का कहना था कि 'समवाय और नन्दिके रचयिता के सामने मौजूदा दोनों आगमोंको प्रतियोंसे सर्वथा भिन्न ही प्रतियां होनी चाहियें। अतः हमें उक्त दोनों अंगोंकी जो प्रतियां प्राप्त हैं वे परिवर्तित तथा अत्यन्त खण्डित दशा में हैं ( इं० ए०, जि० २०, पृ० २१-२२ ) । प्रो० विंटरनिट्स ने आठवें और नौवें अंगके विषय में लिखा है कि- 'इन दोनों अङ्गोंकी रचना एक ही आधार पर की गई है, ६६७ १ – 'उत्तरः प्रधानो नास्योत्तरो विद्यत इत्यनुत्तरः, उपपतनमुपपात जन्म इत्यर्थः । ग्रनुत्तरश्वासाच्पपातश्चेत्यनुत्तरोपपातः सोऽस्ति येषां ते ऽनुत्तरोपपातिकाः सर्वार्थसिद्ध्यादिविमानपञ्चको पपातिन इत्यर्थः । - स्था० टी०, सू० ७५४ । २– 'इह च त्रयो वर्गास्तत्र तृतीयवर्गे दृश्यमानाध्ययनैः कैश्चित् सह साम्यमस्ति न सर्वे ।' स्था० टी० सू० ७५४ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज० सा० इ०-पूर्व पीठिका साहित्यिक दृष्टिसे इनका मूल्य स्वल्प ही है। आठवें अङ्ग अन्त. गडदसाओंमें मूलतः दस अध्ययन थे किन्तु अब वह आठ वर्गोमें विभाजित है। नौवें अङ्ग अगुत्तरोववाइयदसाओमें भी मूलमें दस अध्ययन थे। अब उनके स्थानमें तीन वर्ग और तेतीस अध्ययन हैं। जैसा कि स्थानांगसे ज्ञात होता है, दोनों अङ्गोंकी मूल विषय सूचीसे वर्तमान दोनों अंगोंकी विषय सूची 'एकदम भिन्न है। यदि अन्य कारणों पर दृष्टि न दी जाये तो भी अपनी स्थितिके आधार पर दोनों अंग साहित्यिक श्रेष्ठताका दावा नहीं कर सकते। इनमें वर्णित कथाएँ न केवल एक ठप्पेके रूपमें चित्रित की गई हैं किन्तु बहुधा उनका केवल ढाँचा ही उपस्थित किया गया है और उनमें बँधे बधाँये शब्दों और वाक्यों को भरनेका काम पाठकके लिए छोड़ दिया गया है। उदाहरणके लिए-उस समय एक चम्पा नाम नगरी थी, उसमें एक पुरण भद्द नामक चैत्य था, एक वन था ( वरणश्रो)। 'वएणो 'का यह अभिप्राय है कि नगरी और वनका पूरा वर्णन यहाँ उपांग प्रथमकी तरह भर लेना चाहिए। दूसरा उदाहरण भगवान महावीरके शिष्य स्थविर सुधर्माका है । कथामें यहाँ केवल उनका नाम मात्र दिया है और उनका पूरा वर्णन छठे अंगमें है सो यहाँ जानना, ऐसा लिख दिया है (हि० इं० लि., जि० २, पृ० ४५० )। १० प्रश्न व्याकरण-आक्षेप और विक्षेपके द्वारा हेतु और नयके श्राश्रित प्रश्नोंके व्याकरणको प्रश्न व्याकरण कहते हैं। उनमें लौकिक और चैदिक अर्थोंका निर्णय किया जाता है (त० वा. पृ०७२ ) आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदनी, निर्जेदनी, इन चार कथाओंका निरूपण करता है "यह अंग प्रश्नके अनुसार नष्ट, मुष्टि, चिन्ता, लाभ, अलाभ, सुख दुःख, जीवित, मरण, जय, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय ६६६ पराजय, नाम, द्रव्य, आयु और संख्याका भी प्ररूपण करता है ( षट्खं० पृ० १०५। क. पाः, भा. १, पृ० १३१ )। प्रश्नव्याकरण में एक सौ आठ प्रश्न, एक सौ आठ अप्रश्न और एक सौ आठ प्रश्नाप्रश्नोंका कथन रहता है। अन्य भी अनेक विद्यातिशयोंका तथा नागकुमार और सुपर्णकुमार तथा अन्य भवनवासी देवोंके साथ साधुओंके दिव्य सम्वादोंका वर्णन रहता है । ( नन्दी, सूत्र. ५५ । समवा० सू. १४५ ) । उपलब्ध 'पण्हावागरणाई' नामक दसने अगमें दस द्वार हैं। जिनमें पाँच ब्रतोंका तथा पाँच पापोंका वर्णन है। जम्बूको लक्ष्य करके सिद्धान्त का वर्णन किया गया है। प्रश्नोंके व्याकरण के रूपमें कुछ भी नहीं है। अतः ग्रन्थ में वर्णित विषयकी न तो उसके नामके साथ ही कोई संगति है और न ग्थानांग समवायांग और नन्दिमें दत्त विषय सूचीके साथ ही उसका कोई मेल है। समवाय और नन्दिके अनुसार प्रश्न व्याकरण में ४५ अध्ययन और ४५ उद्देश आदि हैं। किन्तु प्रस्तुत अगमें यह सब कुछ भी नहीं है। स्थानांगमें प्रश्न व्याकरणमें दस अध्ययन बतलाये हैंउवमा, संखा, इसिभासियाई, आयरिय भासिआई, महावीर भासिआई, खोमग पसिणाई, कोमल पसिणाई, अदाग पसिणाई, अंगुट्ठ पसिणाई और बाहु पसिणाई। अध्ययनोंकी दस संख्या को देखकर ऐसा लगता है कि स्थानांगका वर्णन उपलब्ध प्रश्न व्याकरण नामक अंग से मेल खाता है क्योंकि उसके द्वारोंकी संख्या भी दस है। किन्तु दस द्वारों के नामोंका स्थानांगमें दिये दस अध्ययनोंके नामोंसे रंचमात्र भी साम्य नहीं है। अतः Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७० जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका स्थानांगकारके सामने प्रस्तुत अंगकी वर्तमान प्रति तो नहीं ही थी। प्रश्न व्याकरणकी टीकामें टीकाकार अभयदेवने लिखा हैप्रश्न व्याकरण शब्दका प्रश्नोंका व्याकरण रूप व्युत्पत्यर्थ पूर्वकालमें था। इस समय तो इस ग्रन्थमें आसवपंचक और संवर पंचकका ही व्याख्यान पाया जाता है। ये सब बातें इस बातको प्रमाणित करती हैं कि दसवाँ अंग अपने मूल रूपमें अथवा प्राचीन रूपमें वर्तमान नहीं रहा। अतः उसका स्थान इस नये अंगने ले लिया ( इं० ए०, जि० २०, प० २३ । हि० ई० जि०२, १०४५२ )। ११ विपाक सूत्र-सुकृत अर्थात् पुण्य और दुष्कृत अर्थात् पापके विपाकका विचार करता है (त० वा० पृ०७४ । षटखं०,पु. १, पृ० १०७) । द्रव्य क्षेत्र काल और भावकी अपेक्षा शुभ अशुभ कमौके विपाकका वर्णन करता है (क०, पा० भा० १, पृ० १ २) ( नन्दी० सू० ५६ । समवा० सू० १४६ ।। ___ वर्तमान ग्यारहवें अंगमें दो श्रुत स्कन्ध हैं। प्रत्येकमें दसदस अध्ययन हैं, जिनमें दस-दस कथाओंके द्वारा पुण्य और पापका फल बतलाया गया है। गौतम इन्द्र भूति अनेक दुखी प्राणियोंको देखते हैं। उनकी प्रार्थना पर महावीर बतलाते हैं कि पूर्वजन्ममें कौन कर्म करनेसे आदमी इस प्रकारका कष्ट भोगता है, किन-किन पर्यायोंमें उसे जन्म लेना पड़ता है और किन उपायोंसे वह पुनः शुभ गतिमें जन्म ले सकता है। उदा. हरणके लिए एक अम्बरदत्त नामक व्यक्ति भयानक रोगोंसे पीड़ित है क्योंकि पूर्वजन्ममें वह एक वैद्य था और उसने एक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय ६७१ रोगीको मांस खाना बतलाया था । इस तरह वह अनेक जीवित प्राणियों के वधमें कारण हुआ था । इस तरह वर्तमान आगम ग्रन्थों में से ६ से ग्यारह तक के आगम कथा प्रधान हैं और वे अपने मूलरूप में नहीं हैं किन्तु एकदम परिवर्तित रूप में हैं। रह जाते हैं शेष पाँच श्रागम । उनमें से भगवतीका रूप सब से निराला है । उसमें पन्नवणा, जीवाभिगम, उववाइय, राजप्रश्नीय, नन्दी, आयारदसाओ आदि का निर्देश होने से यह स्पष्ट है कि उसका संकलन भी उत्तर काल में हुआ है। किन्तु उसमें प्राचीन इतिहास की सामग्री अवश्य है। शेष चार अङ्ग अवश्य ही अपना वैशिष्टच रखते हैं । किन्तु वे भी अपने मूल रूप में नहीं हैं यह स्पष्ट है । दिगम्बर ग्रन्थों में प्राप्त विषय सूची अङ्गों और पूर्वोको विषय सूची वर्तमान में उपलब्ध दिगम्बर जैन साहित्य में सर्व प्रथम कलंक देव के तत्त्वार्थ वार्तिक में उपलब्ध होती है । प्रश्न होता है कि जब दिगम्बर परम्परा में अङ्ग साहित्यका लोप पहले ही हो चुका था तो यह विषय सूची किस आधार से दी गई ? दि० जैन सिद्धान्त ग्रन्थों की धवला और जय धवला टीका में श्री वीरसेन स्वामी ने भी विस्तार पूर्वक अङ्गों और पूर्वोकी विषय सूची दी है, वह विषय सूची प्रायः तस्वार्थ वार्तिक के अनुरूप है, उसमें कहीं कहीं वीरसेन स्वामी ने तत्त्वार्थ वार्तिक का नाम लेकर प्रमाण रूप से उसे उद्धृत भी किया है । और दृष्टिवाद के जिन भेदों का विषय परिचय अकलंक ने नहीं दिया, उनका भी विषय परिचय वीरसेन स्वामी ने कराया है । और Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७२ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका उनका विषय परिचय श्वेताम्बर साहित्य में भी नहीं है। अतः वीरसेन स्वामी के सामने तत्त्वार्थ वार्तिक के सिवाय अन्य भी कुछ साहित्य होना चाहिए और संभवतः अकलंक देव के सामने भी वही साहित्य रहा हो। दिगम्बर जैन सिद्धान्त ग्रन्थ षटखण्डागम तथा कसाय पाहुड़ पर अनेक टीकाएँ पूर्वमें रची गई हैं। उनमें से कई टीकाएँ वीरसेन स्वामी के सामने भी उपस्थित थीं। उन टीकाओं में से कोई टोका अकलंक देव के सामने अवश्य होनी चाहिये; क्यों कि अकलंक देव ने षटखण्डागम का उपयोग अपनी तत्त्वार्थ' वार्तिक में किया है यह उससे स्पष्ट है । इसके सिवाय अकलंक. देव ने अपने तत्वार्थर वार्तिक में 'व्याख्या प्रज्ञप्ति दण्डकेषु' का दो बार निर्देश करके उसका प्रमाण दिया है। 'व्याख्याप्रज्ञप्ति दण्डकेषु' के बहुवचनान्त प्रयोग से ऐसा अनुमान होता है कि व्याख्या प्रज्ञप्ति में दण्डक नामक अधिकार होने चाहिये । दण्डक नामके अधिकार श्वेताम्बर अगामिक साहित्य में तो उपलब्ध नहीं होते किन्तु षट् खंडागम के जीवट्ठाणमें चूलिकाके अन्तगत महा दण्डक नामक अधिकार भी पाये जाते हैं। परन्तु व्याख्या. प्रज्ञप्ति पाँचवें अङ्ग का नाम है और वर्तमान भगवतीमें वह उद्धरण नहीं मिलते जो व्याख्या प्रज्ञप्ति दण्डकों से अकलंक देव ने दिये हैं। अतः व्याख्याप्रज्ञप्तिदण्डक नाम से कोई ग्रन्थ जो संभवतया पाँचवे अङ्ग का ही अंगभूत होगा अकलंक देव के सामने उपस्थित था । इत्यादि बातों से यही ज्ञात होता है कि अकलंक देव ने जो द्वादशांगका परिचय दिया है वह किसी १- पृ० १५३-२४४ । २-पृ० १५३, २४५ । ३--पु०६, पृ० १३३ आदि । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय ६७३ उपलब्ध आधार से दिया है और वह आधार नन्दी, समवायांग वगैरह से भिन्न ज्ञात होता है, क्योंकि उससे उनका मेल नहीं खाता। ___हाँ, स्थानांग में नौवे और दसमें अङ्ग के दस अध्ययनों के जो नाम दिये हैं वे नाम अकलंक देव के द्वारा दिये गये उक्त दोनों अंगों के परिचयमें पाये जाते हैं। वे नाम न समवायांग में हैं और न नन्दी में हैं। किन्तु हम यह कह सकने में असमर्थ हैं कि अकलंक देव ने उन्हें स्थानांग से ही लिया है या अन्यत्र से; क्योंकि कुछ नामों में अन्तर भी है । अंग बाह्य श्रुत श्रुतके दूसरे मुख्य भेदका नाम अगबाह्य अथवा अनंग प्रविष्ट है । अग प्रविष्टके रचयिता गणधर थे इस बातमें दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायोंमें कोई मतभेद नहीं पाया जाता। किन्तु अंगबाह्यके रचयिताके विषयमें दोनों ही सम्प्रदायोंमें दो मत पाये जाते हैं। दिगम्बर परम्परामें आचार्य पूज्यपाद तथा तदनुयायी अकलङ्क देव अंगबाह्यको आरातीय आचार्योंके द्वारा रचित बतलाते हैं। पूज्यपादने लिखा है कि 'वक्ता तीन होते हैं-सर्वज्ञ तीर्थङ्कर, श्रुतकेवली और पारातीय । सर्वज्ञने अर्थरूपसे आगमका उपदेश दिया। उनके साक्षात् शिष्य गणधरोंने उसे स्मरण रख कर अंग और पूर्वरूप ग्रन्थोंकी रचना की। और आरातीय • १–'पारातीयैः पुनराचार्यैः कालदोषसंक्षिप्तायुर्मतिबलशिष्यानुग्रहार्थं दसवैकालिकाद्युपनिबद्धम् । –सर्वार्थ०, १-२० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७४ आचार्योंने काल दोषसे अल्पायु और अल्प बुद्धिवाले शिष्योंके के लिए दसवैकालिक आदि रचे । अकलङ्क' देवने भी इस कथनका अनुसरण किया है । किन्तु श्री वीरसेन स्वामीने कृति अनुयोग' द्वारकी धवला टीकामें स्पष्ट रूपसे इन्द्रभूति गौतम को अग प्रविष्ट और अंग बाह्यका कर्ता बतलाया है । एक बात और भी उल्लेखनीय है कि धवला और जयधवला' टीकाके आरम्भ में उन्होंने इन्द्रभूति गौतमको केवल रंगों और पूर्वोका कर्ता बतलाया है, जैसाकि तिलोय परगति ( अ. १, गा. ७६ ) में बतलाया है । वहाँ अग बाह्यके कर्तृत्वका निर्देश नहीं किया है। जै० ० सा० इ० पूर्व पीठिका वीरसेन स्वामीके लघु समकालीन श्री जिनसेन ने तो अपने हरिवंश पुराण में स्पष्ट रूपसे यह लिखा है कि भगवान महावीरने पहले रंग प्रविष्टका व्याख्यान किया और फिर अग बाह्यका व्याख्यान किया । और गौतम गणधर ने उसे सुनकर उपांग सहित द्वादशांग श्रुत स्कन्धकी रचना की । इस तरह जो अग बाह्य पहले गणधरोंके शिष्य प्रशिष्य रचित माने जाते थे -१' श्रारातीयाचार्यकृताङ्गार्थप्रत्यासन्नरूपमङ्गबाह्यम् । - त० वा०, १ - २०-१३ । २ - ' गोदमगोत्तेण ब्रह्मणेण इंदभूदिणा श्रायार .... दिट्टिवादाणां.... मंगबज्भाणं च.... रयणा कदा' । - षट् खं०, पु० ६, पृ. १२६ । ३ - षट् खं०, पु० १, पृ० ६५ । ४ क० पा० भा० १, पृ० ८३ । ५- 'अंगप्रविष्टतत्त्वार्थ प्रतिपाद्य जिनेश्वरः । श्रंगबाह्यमवोचत्तत्प्रतिपाद्यार्थरूपतः ॥ १०१ ॥ श्रथ सप्तर्द्धिसम्पन्नः श्रुत्वार्थं जिन भाषितम् । द्वादशाङ्गश्रुतस्कन्धं सोपा गौतमो व्यधात् ॥ १११ ॥ - हरि० पु०, स० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय ६७५ उत्तर कालमें उन्हें गणधर कृत माना जाने लगा। यही बात हम श्वेताम्बर परम्परा में भी पाते हैं। अनुयोग' द्वार और नन्दिसूत्र में द्वादशांगको सर्वज्ञ प्रणीत कहा है। तथा अनुयोग द्वारमें गणधरके लिए सूत्रको आत्मागम तथा अर्थको अनन्तरागम कहा है। इससे स्पष्ट है कि ये दोनों ग्रन्थ गणधरको द्वादशांगका रचयिता मानते हैं। अंग बाह्यके रचयिताके विषयमें दोनों ग्रन्थ मूक हैं। उमास्वातिके तत्वार्थ४भाष्यमें, विशेषावश्यक भाष्यमें, और वृहकल्प भाष्यमें स्पष्ट रूप से अंग प्रविष्टको गणधर कृत और अग बाह्यको प्राचार्य कृत बतलाया है। किन्तु जब तत्त्वार्थ भाष्यमें अङ्ग बाह्य और अंग प्रविष्टमें केवल यही भेद बतलाया है कि एक आचार्य रचित होता है और दूसरा गणधर रचित तब विशेषा०भा० में उक्त भेदके सिवाय दो भेद और बतलाये हैं-गणधरके पूछने पर तीर्थङ्कर जो वचन कहते हैं उससे जो निष्पन्न होता है वह अंग प्रविष्ट है और विना प्रश्नके जो अर्थ प्रतिपादन तीर्थङ्कर करते हैं, उससे जो निष्पन्न होता है वह अगबाह्य है। तथा अंग प्रविष्ट सब तीर्थकरोंके तीर्थमे नियत है। किन्तु अंगबाह्य नियत नहीं है। १-अनु० सू० पृ० २१८ । २ नं. सू. ४० । ३–'गणहराणं सुत्तस्स अत्तागमे अत्थस्स अणंतरागमे । ...अनु., २१६ ।। ४-सू. १-२० । ५-गा० १४४ । ६–'गणहर थेर कयं वा अाएसा मुक्कवागरणश्रो वा । धुवचलविसेसो वा अंगाणंगेसु नाणत्तं ।। ५५० ।' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७६ जै० सा० इ० पूर्ण पीठिका नन्दिचूर्णि ' में तथा नन्दिकी हरिभद्रीय' वृत्ति में भी दोनोंमें दो भेद बतलाये हैं - एक कर्तृनिमित्तक और एक नियत अनियत । इन दोनोंके सिवाय जो तीसरा अन्तर विशे० भा० में बतलाया हैं उस परसे अंगबाह्य के भी गणधर रचित होनेकी बात प्रस्फुटित होती है; क्योंकि प्रश्नपूर्वक जो अर्थ प्रतिपादन तीर्थङ्कर ने किया उसको भी गणधरोंने ही ग्रन्थरूप में निबद्ध किया होगा। वि० भा० के टीकाकार हेमचन्द्रने तीनों अन्तरोंके तीन उदाहरण दिये हैं । स्थविरकृत अंगबाह्य जैसे भद्रबाहुकृत आवश्यक नियुक्ति श्रदि । प्रश्न पूर्वक अर्थ प्रतिपादनके आधार पर रचित बाह्य जैसे आवश्यक आदि । अनियत गबाह्य जैसे तन्दुल वैकालिक आदि । तीनों अन्तर एक ही गबाह्यमें नहीं घटाये हैं । अब आवश्यक अ ंगबाह्यको लीजिये । आवश्यक नियुक्ति, विशे० ० भा० और उनकी टीकाओंसे बराबर यह परिलक्षित होता है कि आवश्यकके अन्तर्गत सामायिक आदि अध्ययनोंकी रचना तीर्थङ्कर के उपदेशके अनुसार गणधरोंने की थी । आवयश्क र नि०में कहा गया है कि मैं गुरुजनके द्वारा उपदिष्ट और आचार्य परम्परासे आगत सामायिक नियुक्तिको कहता हूं । टीकाकार मलयगिरिने गुरुजनका अर्थ तीर्थङ्कर और गणधर किया है । इसी तरह विशेषावश्यक भाष्य में सामायिकका निरूपण करते हुए कहा है कि सामायिकका कथन तीर्थङ्कर करते हैं १ – पृ० ४७ । २ – पृ० ६० । ३ - ' सामाइनिजुतिं वोच्छं उवएसियं गुरुजणे ं । प्रायरियपरं परएण श्रागयं श्रणुपुवीए ॥ ८७ ॥ * Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय ६७७ और गणधर' उसे सुनते हैं। इस सब कथनका तात्पर्य यही निकलता है सामायिक आदि आवश्यक गणधर कृत हैं। ___ अतः श्वेताम्बर सम्प्रदायमें भी अंगबाह्यके गणधर कृत होनेकी मान्यता रहो है। हरिवंशकार जिनसेनके समयमें दोनों सम्प्रदायोंमें इस मान्यताका प्राबल्य था ऐसा प्रतीत होता है। अंगबाह्यको उत्तरकालमें क्यों गणधर प्रणीत माना जाने लगा, इस सम्बन्धमें कुछ कहना शक्य नहीं है । फिर भी अग प्रविष्टकी तरह उसका भी प्रामाण्य और महत्ता स्थापित करने की भावना उसके मूल में अवश्य रही है । अस्तु, अंगबाह्यके भेद दिगम्बर परम्परामें पूज्यपादने तत्वार्थसूत्रके अनुसार अंगबाह्य के अनेक भेद बतलाते हुए उनकी संख्या या नामोंका कोई निर्देश नहीं किया। केवल उदाहरण रूपसे दश वैकालिकका नाम निर्देश मात्र कर दिया। अकलंक देवने नन्दिसूत्रकी तरह अगबाह्यके कालिक और उत्कालिक भेद करके उदाहरण रूपमें उत्तराध्ययनका नाम निर्देश कर दिया। किन्तु वीरसेन स्वामीने अपनी धवला जयधवला' टीकामें अंगबाह्यके चौदह भेदोंके नाम गिनाकर उनका विषय परिचय भी संक्षेपमें दिया है । सम्भवतः उन्हींका अनुसरण करते हुए जिनसेनने भी अपने हरिवंश पुराणमें अंगबाह्यके १४ भेद १–गा०२१२२। गा० २१२५ । २-सर्वार्थ० १-२० । ३-'तदनेकविधं कालिकोत्कालिकादिविकल्पात् ।' त० वा०, १-२०-१४ । ४-षटखं०, पु०, १, पृ० ६६ । ५-क० पा०, भा० १, पृ०६७। ६-स० २, श्लो० १०२-१०५ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७८ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिक। गिनाये हैं। उन भेदोंमें दशवकालिक और उत्तराध्ययनका भी नाम है । चौदह भेद इस प्रकार हैं-सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव. वन्दना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दश वैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्प व्यवहार, कल्प्पाकल्प्य, महाकल्प्य पुण्डरीक, महापुण्डरीक और निषिद्धिका। वीरसेन स्वामीके पश्चात् उन्हींका अनुकरण करते हुए नेमिचन्द्र' सिद्धान्त चक्रवर्ती, श्रुत सागर सूरि आदिने भी अंगबाह्यके भेद गिनाये हैं। ____ यह हम लिख आये हैं कि नन्दि० (सू० ४४) में अंगबाह्य के आवश्यक और आवश्यक व्यतिरिक्त भेद करके आवश्यक व्यतिरिक्तके कालिक और उत्कालिक भेद किये हैं। तथा दश वैकालिकको उत्कालिकके भेदामें और उत्तराध्ययनको कालिकके भेदोंमें गिनाया है। अंगवायके भेदों का समीकरण नन्दी सूत्र में अंगबाह्यके जो भेद गिनाये हैं उनके साथ में इनमेंसे कुछ भेदोंका समीकरण हो जाता है___ नन्दीमें अगबाह्यके दो मूल भेद हैं-आवश्यक और आवश्यक व्यतिरिक्त। तथा आवश्यक छै भेद हैं-सामायिक, चतुर्विशतिस्तव, बन्दना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान । उक्त भेदोंमेसे शुरुके चार दोनोंमें एक ही हैं, केवल अन्तके दो में अन्तर है। नन्दिमें कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान हैं और ऊपर वैनयिक और कृतिकर्म हैं । यद्यपि दिगम्बर परम्परामें षडावश्यक वे ही हैं जो श्वेताम्बर परम्परामें हैं, और १--गो० जी०, गा० ३६६-३६७ । २--त० वृ०, पृ० ६७ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय ६७९ कृतिकर्मका विधान श्वेताम्बर परम्परामें भी है। किन्तु संभवतया वीरसेन स्वामीने ग्रन्थ रूपका निर्देश करनेके कारण प्रतिक्रमण और कायोत्सर्गके स्थानमें वैनयिक और कृतिकर्मका निर्देश किया है । ये दोनों भी आवश्यकोंके अंगभूत ही हैं। ___नन्दीमें कालिक श्रुत तथा उत्कालिकके बहुतसे भेद गिनाये हैं। उनमेंसे जो भेद वीरसेनोक्त अंगबाह्यके भेदोंसे मिलते हैं वे इस प्रकार हैं-दश वैकालिक, कल्प्याकल्प्य, महाकल्प्य, तथा उत्तराध्ययन, कल्प्य, व्यवहार । दिगम्बर साहित्यमें कल्प्य व्यवहारको एक गिनाया है। इस तरह चौदह भेदोंमें से नौ भेदोंके नाम श्वेताम्बर सम्मत अंगबाह्यके भेदोंके नामोंसे मेल खाते हैं। शेषमें से एक भेद पुण्डरीक है। सूत्रकृतांग के दूसरे श्रुतस्कन्धके प्रथम अध्ययनका नाम भी पुण्डरीक है। इसी तरह एक भेदका नाम ‘णिसिहिय है, इसका संस्कृत रूपान्तर निषिद्धिका किया जाता है। उधर नन्दीमें कालिकके भेदोंमें एक भेदका नाम निसिह' है जिसका संस्कृतरूप निशोथ है । श्वेताम्बरोंमें निशीथ नामक सूत्र प्रसिद्ध है। हम नहीं कह सकते कि इन भेदोंका परस्परमें कोई सम्बन्ध है या नहीं। प्रो० विंटरनीटसका कहना है कि यह अनुमान करना सम्भव है कि जो मूल ग्रन्थ दोनों सम्प्रदायोंमें समान रूपसे मान्य है, वे जैनोंके पवित्र साहित्य के प्राचीनतम अंश हैं । तथापि जिन ग्रन्थोंके नाममें साम्य है उनमें प्रतिपादित विषयकी दृष्टिसे कहाँ तक एकरूपता है यह प्रश्न अनुसन्धान करने के लिये रह जाता है (हि. इं. लि., जि. २ पृ. ४७४) । इसके सम्बन्धमें पूर्वमें प्रकाश डाला जा - चुका है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८० जै० सा० इ०-पूर्व-पीठिका दि० अंगबाह्यका विषय परिचय आगे धवला' जयधवलाके आधार पर दिगम्बर सम्मत अग बाह्यके भेदोंका विषय परिचय दिया जाता है । १ सामायिक नामक अंगबाह्य द्रब्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा समता भाव रूप सामायिकका वर्णन करता है। तीनों सन्ध्याओंमें या पक्ष और मासके सन्धिदिनोंमें अथवा अपने इच्छित समयमें बाह्य और अतरंग पदार्थों में कषायका निरोध करनेको सामायिक कहते हैं। उसके चार भेद हैं-द्रव्य. सामायिक, क्षेत्र सामायिक, काल सामायिक और भाव सामायिक। सचित्त और अचित्त द्रव्योंमें राग द्वेषके निरोध करनेको द्रव्य सामायिक कहते हैं। ग्राम, नगर, देश आदिमें राग द्वेषका निरोध करना क्षेत्र सामायिक है। छ ऋतुओंमें साम्य भाव रखनेको या राग द्वेष न करनेको काल सामायिक कहते हैं। समस्त कषायोंका निरोध करके तथा मिथ्यात्वको दूर करके छ द्रव्य विषयक निर्बाध अस्खलित ज्ञानको भाव सामायिक कहते हैं। सामायिक नामक अंग बाह्यमें इन सबका वर्णन रहता है। २ चतुर्विशतिस्तव नामक अग बाह्य उस उस काल सम्बन्धी चौबीस तीर्थङ्करोंकी वन्दना करनेकी विधि, उनके नाम, आकार, ऊँचाई, पाँच महा कल्याणक, चौतीस अतिशयोंका स्वरूप और तीर्थङ्करोंकी कृत्रिम अकृत्रिम प्रतिमाओं तथा चैत्यालयोंका वर्णन करता है। १--षटर्ख०, पु० १,१०६६-६८ तथा पु०६, पृ० १८७-१६१ । क० पा०, भा० १, पृ०६७-१२१ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय ५८१ ३ वन्दना नामक अंगबाह्य एक जिनेन्द्र सम्बन्धी और उन एक जिनेन्द्र देवके अवलम्बनसे जिनालय सम्बन्धी वन्दना का सांगोपांग वर्णन करता है। ४ प्रमादसे लगे हुए दोषोंका निराकरण जिसके द्वारा किया जाता है उसे प्रतिक्रमण कहते हैं। उसके सात भेद हैं-दिन सम्बन्धी, रात्रि सम्बन्धी, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक, ऐर्यापथिक, और औत्तमार्थिक । प्रतिक्रमण नामक अंगबाह्य इन सात प्रकारके प्रतिक्रमणोंका कथन करता है। ५ वैनयिक नामक अंग बाह्य ज्ञान विनय, दर्शन विनय, चरित्र विनय, तप विनय और उपचार विनयका वर्णन करता है। ६ कृतिकर्म नामक अंगबाह्य अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, और साधुकी पूजा विधिका वर्णन करता है। ____ ७ दशवैकालिक नामक अंगबाह्य-मुनियोंकी आचार विधि और गोचर विधिका वर्णन करता है ८ उत्तराध्ययन चार प्रकारके उपसर्ग और बाईस परीषहोंके सहनेके विधानका और उनके सहन करनेके फलका तथा अनेक प्रकारके उत्तरोंका वर्णन करता है। ६ कल्प्यव्यवहार-साधुओंके योग्य आचरणका और अयोग्य आचरणके होने पर प्रायश्चित विधिका वर्णन करता है। १० कल्प्याकल्प्य-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावका आश्रय लेकर मुनियोंके यह योग्य और यह अयोग्य है, इत्यादिका वर्णन करता है। ११ महाकल्प्य-दीक्षाग्रहण, शिक्षा, आत्म संस्कार, सल्लेखना और उत्तमस्थान रूप आराधनाको प्राप्त हुए साधुओंके करने योग्य आचारका वर्णन करता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८२ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका १२ पुण्डरीक अंगबाह्य-भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क, कल्पवासी और वैमानिक सम्बन्धी इन्द्र सामानिक देव आदिमें उत्पत्तिके कारणभूत दान पूजा शील तप उपवास, सम्यक्त्व और अकाम निर्जराका तथा उनके उपपाद स्थान और भवनोंके स्वरूपका वर्णन करता है। __ १३ महापुण्डरीक अंगबाह्य- उन्ही इन्द्रों श्रादिमें उत्पत्तिके कारण भूत तपो विशेष आदिका वर्णन करता है। १४ निषिद्धिका अंगबाह्य-अनेक प्रकारके प्रायश्चितका वर्णन करता है। अंगभिन्न श्वेताम्बरीय आगम वर्तमानमें श्वेताम्बर सम्प्रदायमें उक्त ग्यारह अगोंके सिवाय ३४ आगम और भी माने जाते हैं। वे हैं-१२ उपांग, ६ छेदसूत्र, ४ मूलसूत्र, १० पइन्ना (प्रकीर्णक), एक नन्दि और एक अनुयोग द्वार। इस तरह श्वेताम्बर सम्प्रदाय ४५ आगमोंको वर्तमानमें मानता है। किन्तु स्थानक वासी सम्प्रदाय उसमें से केवल बत्तीस आगमोंको ही मानता है जो इस प्रकार हैं-११ अग और १२ उपांग ये २३, एक निशीथ २४, एक बृहत्कल्प २५, एक व्यवहार सूत्र २६, एक दशाश्रुत २७, एक अनुयोग द्वार २८, एक नन्दि सूत्र २६, एक दश वैकालिक ३०, एक उत्तराध्ययन ३१, और एक आवश्यक ३२। ___औपपातिक, राजप्रश्नीय, जीवाभिगम, प्रज्ञापना, सूर्य प्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, चन्द्र प्रज्ञप्ति, कल्पिका, कल्पावतंसिका, पुष्पिका, पुष्प चूलिका और वृष्णिदशा ये बारह उपांग हैं जिन्हें श्वेताम्बर तथा स्थानकवासी सम्प्रदाय मानते हैं। प्रत्येक अग Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय का एक एक उपांग माना जाता है इस लिये अंगोंकी तरह उपांगोंकी संख्या भी बारह ही मानी गई है। __ निशीथ, बृहत्कल्प. व्यवहार, दशा श्रुत स्कन्ध, पंचकल्प और महानिशीथ ये छै छेदसूत्र हैं। इनमेंसे स्थानक वासी केवल शुरूके चारको मानते हैं। आवश्यक, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन पिण्डनियुक्ति या अोधनियुक्ति ये चार मूल सूत्र हैं। इनमेंसे अन्तिम नियुक्तिको स्थानकवासी सम्प्रदाय नही मानता। ___ चतुः शरण, श्रातुर प्रत्याख्यान, भक्तपरिज्ञा, संस्तारक, तन्दुलवैचारिक, चन्द्रबेध्यक, देवेन्द्रस्तव, गणिविद्या, महाप्रत्याख्यान, वीरस्तव, ये दस पइन्ना हैं जिन्हें स्थानकवासी मान्य नहीं करते । और दिगम्बर सम्प्रदायमें तो बारह अंगोंके सिवाय शेष आगमोंका कोई स्थान ही नहीं है। नन्दि और अनुयोगद्वार श्वेताम्बरीय आगमिक साहित्यका परिचय प्राप्त करने के लिये नन्दिसूत्र और अनुयोग द्वार सूत्र कोशके तुल्य हैं। उनको देखने से प्रतीत होता है कि उनके रचयिताओंने मूल आगमिक साहित्य का ज्ञान कराने के लिये जो जो वस्तुएँ तथा उपाय आवश्यक समझे उनका संकलन अपनी इन कृतियों में करनेका प्रयत्न किया था। चूँ कि नन्दि में अनुयोग द्वारका नाम आया है इसलिये अनुयोग द्वार नन्दीसे प्राचीन है। किन्तु आगमके विषय में नन्दिको अधिकारी माना जाता है। दोनोंमें ज्ञानकी चर्चा है । अनुयोगद्वारमें श्रुतके भेद अग प्रविष्ट और अङ्ग बाह्य करके अङ्ग बाह्यके कालिक और उत्कालिक भेद किये हैं और उत्कालिक के आवश्यक और आवश्यक व्यतिरिक्त ये दो भेद किये हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८४ जै० ० सा० इ० पूर्व पीठिका किन्तु नन्दि में अङ्गबाह्य के आवश्यक और आवश्यकव्यतिरिक्त भेद करके आवश्यक व्यतिरिक्तके कालिक और उत्कालिक भेद किये हैं। इसकी विस्तार से चर्चा पहले आ चुकी है । अनुयोग द्वार में केवल आवश्यक की चर्चा है किन्तु नन्दी में अग पविट्ठ या अङ्ग बाह्य में उन सब ग्रन्थों के नाम दिये हैं। जो आगमकी श्रेणी में आते हैं किन्तु जिन्हें अङ्गों में सम्मिलित नहीं किया गया है । इस ग्रन्थसूची में बहुतसे नाम ऐसे हैं जो वर्तमान में आगम के अभूत रूपसे माने जाते हैं । किन्तु उल्लेखनीय बात यह है कि वर्तमान में श्व ेताम्बर सम्प्रदाय में उन ग्रन्थोंको जिन विशेष विभागों में विभाजित माना जाता है, नन्दी में उन विभागों का कोई संकेत तक नहीं है । वे विभाग हैं उपांग, पइन्ना, छेदसूत्र और मूलसूत्र । नन्दिमें इनका निर्देश नहीं है । पइन्नाका निर्देश है किन्तु भिन्न अर्थ में । तथा नन्दी में अनंग प्रविष्ट के अन्तर्गत ऐसे भी बहुतसे ग्रन्थ निर्दिष्ट हैं, जो या तो प्राप्त ही नहीं हैं या ग्रन्थोंके अन्तर्गत अध्ययनोंके नाम रूपमें पाये जाते हैं, किन्तु पृथक ग्रन्थ के रूप में नहीं पाये जाते । नन्दी में प्रदत्त प्रन्थसूचीकी एक और भी विशेषता है । उसमें नन्दीका भी नाम है। अब यदि आगमोंको पुस्तकारूढ़ - करने वाले देवर्द्धि गणि नन्दि' के रचयिता हैं तो नन्दिकी ग्रन्थसूची से वर्तमान आगम ग्रन्थों में पाया जाने वाला अन्तर खास १ - नन्दि सूत्र के रचयिता देववाचक देवर्द्धिसे भिन्न थे । ऐसा जै० सा० इ० गुजराती में लिखा है । किन्तु वे दोनों समकालीन ये । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८५. श्रुतपरिचय तौरसे उल्लेखनीय है । इससे यह सिद्ध होता है कि देवर्द्धि गणिके पश्चात् आगमिक साहित्यका न केवल पुनः विभाजन हुआ है किन्तु उनका पुनःसंस्कार भी किया गया है। ___ नन्दिसूत्र और अनुयोग द्वार दोनों गद्यमें रचे गये हैं यद्यपि बीच-बीचमें गाथा भी आती हैं। नन्दीके प्रारम्भमें पचास गाथाएँ हैं। प्रथम गाथाके द्वारा तीर्थङ्कर सामान्यका स्तवन किया है। गाथा दो और तीनमें बीर भगवानका स्तवन है। तत्पश्चात् १४ गाथाओंसे संघका स्तवन है। जैन-साहित्यमें संघका स्तवन इतना विस्तार से मेरे देखने में नहीं आया। गाथा १८-१६ में चौबीस तीर्थङ्करोंका निर्देश है। गाथा २०-२१ में बीर भगवानके ग्यारह गणधरोंका निर्देश है । गाथा २२ में बीर शासनका जयकार है। गाथा २३ से स्थविरावली प्रारम्भ होती है, जिसके स्थविरोंकी नामावली इस प्रकार है १ सुधर्मा, २ जम्बू, ३ प्रभव, ४ शय्यंभव, यशोभद्र, ६ सम्भूत, ७ भद्रबाहु, ८ स्थूलभद्र, ६ महागिरि, १० सुहस्ती, ११ बलिस्सह, ( बहुलका सहोदर), १२ स्वाति, १३ श्यामार्य, १४ शाण्डिल्य, १५ आर्य जीत धर, १६ समुद्र, १७ मंगु, १८ आर्य नन्दिल, नागहस्ती, २० रेवती नक्षत्र, २१ सिंह २२ स्कन्दिलाचार्य, २३ हिमवन्त, २४ नागार्जुन, २५ भूत दिन्न २६ लोहित्य और २७ दृष्यगणि । नन्दिसूत्र में प्रदत्त यह स्थविरावली सुहस्तीसे आगे, कल्प सूत्रकी स्थविरावलीसे भिन्न हो जाती है। अवचूरी में इसका कारण स्पष्ट करते हुए लिखा है कि सुहस्तीकी शिष्य परम्पराका Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८६ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका उल्लेख कल्पसूत्र में कर दिया है, उसका यहाँ अधिकार नहीं है क्योंकि उसमें नन्दिसूत्रके कर्ता देववाचक गुरु नहीं आते।' ___ इस सम्बन्धमें डा० वेबरका कहना था कि साक्षियोंसे प्रमाणित होता है कि नन्दिसूत्रको स्थविरावलीमें सुहस्तीके अनन्तर पूर्ववर्ती अथवा भाई महागिरिकी शिष्य परम्परा दी गई है ( इं० ए०, जि० २१, पृ० २६४)। हमारे सम्मुख आग. मोदय समितिसे मलयगिरिको टीकाके साथ प्रकाशित नन्दीसूत्रकी प्रति है। उसके मुख पृष्ठ पर मुद्रित है 'आर्य महागिरिकी आवलीमें हुए दृष्यगणिके शिष्य देववाचक रचित नन्दिसूत्र ।' अतः नन्दिसूत्रकार महागिरिकी परम्परामें थे। हमने ऊपर जो स्थविरोंकी नामावली दी है, वह भी उसीके अनुसार दी है। किन्तु डा० वेबरने अपने नन्दिसूत्र विषयक लेखमें जो स्थविरोंकी नामावली दी है उसमें इससे अन्तर है । डा० वेबरने सुहस्तिका नाम ब्रैकेट में देकर भी उसकी गणना नहीं की है। तथा मंगु और नन्दिलके बीचमें १७ धम्म, १८ भद्दगुत्त, १६ वइर और २० आर्य रक्षित के नाम दिये हैं। रेवती नक्षत्र और स्कन्दिलाचार्यके मध्यका 'सिंह' नाम उसमें नहीं है। तथा नागार्जुनके पश्चात् और भूतदिन्नसे पहले गोविन्द नाम और है। अवचूरिके कथनानुसार स्थविरावलीके कतिपय नामों में बड़ी अनिश्चितता है । कुछ गाथाओंको जिनमें धम्म आदि नाम हैं प्रक्षिप्त माना जाता है। इसीसे गाथा संख्यामें भी अन्तर है । १-'सुहस्तिनः शिष्यावलिकायाः श्रीकल्पे उक्तत्वात् न तस्य इहाधिकारः तस्यां नन्दिकृद् देववाचक गुर्वनुत्पत्तेः ।'-गा. २७ की अवचूरी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्यन्त मिथ्या चलता । नाम इस श्रुतपरिचय ६८७ नन्दि सूत्र और अनुयोगद्वार सूत्र में मिथ्या श्रुतोंके नाम दिये हैं । अनुयोग' द्वार में तो भारत रामायणसे लेकर सांगोपांग चार वेद पर्यन्त मिथ्या श्रुत कहा है। किन्तु नन्दि' में भारत रामायणसे लेकर वेद पर्यन्त मिथ्याश्रुतकी लम्बी तालिका दी है जिनमेंसे कुछ नामोंका पता नहीं चलता। टीकाकार ने भी उनका कोई खुलासा नहीं किया। कुछ नाम इस प्रकार हैं कोडिल्लय ( कौटिलीय अर्थशास्त्र ), घोडगमुह ( वात्स्यायनके पूर्वज घोटक मुखका कामसूत्र ), वइसेसिअ (वैशेषिक दर्शन ), बुद्ध वयण ( बौद्ध सिद्धान्त ), तेरासिय ( त्रैराशिकमत ) काविलिअं ( कपिल दर्शन), लोगायय ( लोकायत दर्शन), सहि तंत ( षष्ठितंत्र ), माठर (माठर प्रणीत वृत्ति ), पुराग, व्याकरण, भागवत, पातञ्जलि, गणित, नाटक अथवा बहत्तर कलाएं और सांगोपांग चार वेद । नन्दी और अनुयोग द्वार दोनों में ज्ञानकी चर्चा है। उसमें जो अन्तर है उसका स्पष्टीकरण प्रारम्भ में कर दिया गया है। आवश्यक प्रसंग वश नन्दि और अनुयोग द्वारका परिचय १-'भारहं रामायणं जाव चत्तारि वेश्रा सांगोवंगा से तं लोइए श्रागमे ।'-अनु०, पृ. २१८ । २-'भारहं रामायणं भीमासुरुक्खं कोडिल्लयं सगडभद्दिाश्रो खोड (घोडग) मुहं कप्पासिनं नागसुहुमं कणगसत्तरी वइसेसिडे बुद्धवयणं तेरासिधे काविलियं लोगाययं सहितंतं माढरं पुराणं वागरणं भागवं पायंजली पुस्सदेवयं लेहं गणिग्रं सउणरुग्रं नाडयाई, अहवा वावत्तरी फलानो चत्तारि अ वेश्रा संगोवंगा'..."से तं मिच्छा सुझं ॥-नंदि० (सू० ४२ )। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८८ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका करानेके पश्चात् आगे हम क्रमानुसार ही श्वेताम्बरीय अङ्गतर आगमों का परिचय करायेंगे। बारह उपांग बारह अगोंके बारह ही उपांग है। एक एक अङ्ग का एक एक उपांग है। कतिपय अगोंमें उपांगोंका उल्लेख है तो उपांगों में भी अंगों और उपांगोंका निर्देश मिलता है। किन्तु अगों और उपांगोंका सम्बन्ध केवल बाहिरी है। डा० वेबरका कहना था कि किसी एक हाथने अगों उपांगोंको वह रूप दिया था जिसमें वह आज पाये जाते हैं। डा० विन्टर निट्सने लिखा है कि साहित्यक दृष्टि से बारह उपांग विशेष आकर्षक नहीं हैं। - १ प्रथम उपांग औपपातिकके दो भाग है। दूसरा भाग प्रथमके तृतीयांशके लगभग है। प्रथम भागमें भगवान् महावीर का वर्णन है। विम्बसारका पुत्र कुणिक भगवान् महावीर. के पास उपदेश सुनने के लिये जाता है। उपदेशमें अच्छे और बुरे कर्मोके करनेसे चारों गतियोंमें जन्म लेनेका तथा साधु और गृहस्थके कर्तव्योंका निर्देश है । दूसरे भागका पहलेके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। दूसरा भाग अनेक उपवि. भागोंमें बंटा हुआ है। इसमें बतलाया है कि गौतम इन्द्रभूति भगवान् महावीरके पास जाते हैं और उनसे अनेक प्रश्न करते है। भगवान् उनका उत्तर देते हैं। अधिकतर प्रश्न पुनर्जन्मसे सम्बन्ध रखते हैं। इस भागके मध्यमें कुछ उल्लेखनीय बातें भी हैं। उसमें पाठ' ब्राह्मण परिव्राजकों १-'कण्हे अ करकंडे य अंबडे य परासरे। कण्हे दीवायणे चेव देवगुत्ते अणारए ॥ –औप० सू., पृ. १७२ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय ६८९ के और आठ क्षत्रिय' परिघ्राजकोंके नाम दिये हैं तत्पश्चात् अग ५ की तरह ब्राह्मण साहित्यके ग्रन्थोंका निर्देश है तीसरे स्थानांगकी तरह ७२ कलाएँ और सात निन्हबोंका भी नाम आता है। अग ५-६ की तरह कुछ विदेशी दासियोंका भी निर्देश है यथा-सिंहली, भारवी, पुलिंदी, मुरुण्डी, पारसी आदि । ग्रन्थके अन्तमें २२ गाथाएँ हैं जिनमें सिद्धोंका वर्णन है इस उपांग पर अभयदेवकी टीका और पार्श्व चन्द्रकी अवचूरी है। २-इसका नाम रायपसेणइज या राज प्रश्नीय है । ग्रन्थों के नामका संस्कृतरूप अशुद्ध है ऐसा डा. वेबरका कहना था। ऐसा अनुमान किया जाता है कि मूलतः इस ग्रन्थका सम्बन्ध प्रसेनजित्से था। उसके स्थानमें परासका निर्देश मिलता है। डा. वेबरने लिखा है कि डा० ल्युमनने लिखा है कि बौद्ध त्रिपिटक दीघनिकायमें एक 'पयासी सुत्त' नामक प्रकरण है। उसके साथ इस उपांगका घनिष्ठ सम्बन्ध होना चाहिये क्योंकि इसमें भी राजा पऐसीकी चर्चा है। __ अतः या तो इस दूसरे उपांग और उक्त बौद्धनिकाय दोनोंका मूल आधार एक है अथवा उपांग दो का आधार उक्त बौद्ध निकाय है। ग्रन्थका आरम्भ इस प्रकार होता है-सूर्याभ नामक देव अपनी विभूतिके साथ भगवान महावीरकी वन्दनाके लिये आता १--'सीलई ससिहारे (य) णग्गई भग्गई ति। विदेहे रायाराया रायारामे वलेति अ । 'अोप० सू०, पृ० १७२ । २-हि. इं. लि. ( विन्ट. ), जि. २, पृ. ४५५, । ३-ई. ए., जि. २० पृ. ३६६-३७०। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० सा० इ० पू० पीठिका ६६० है । गौतम गणधर भगवानसे उसके विषय में पूछते हैं । भगवान उत्तर देते हैं कि सूर्याभ देव पूर्वं भवमें पऐसी नामक राजा था । एक बार उसने अपने एक दरबारीको भेंट लेकर श्रावस्ती भेजा । वहां पार्श्वनाथ की परम्पराके निन्थ श्रमण केसी कुमार थे उनकी ख्याति सुनकर वह बहुत प्रभावित हुआ और अपने राजा पऐसी को उनके पास ले आया । राजा और केसी कुमार के बीच में जो वार्तालाप हुआ वही इस उपांग में ग्रथित है । केसी कुमार ने यह प्रमाणित किया कि शरीरसे भिन्न आत्मा है। राजा पऐसी आत्माको नहीं मानता था । वह कहता है - मैंने एक चोरको मार डाला उसके टुकड़े २ कर दिये । किन्तु मुझे तो उसमें आत्माका कोई चिन्ह तक नहीं मिला । केशी उत्तर देते हैं कि तुम्हारा यह कर्म उस मनुष्यकी तरह ही है जो आगके लिये लकड़ियोंको तोड़ तोड़ कर देखता है । इत्यादि, इस पर मलयगिरि की टीका है। जै० ३ - जीवाभिगम नामक तीसरे उपांग में गौतम इन्द्रभूतिके प्रश्न और भगवान महावीर के उत्तरके रूपमें जीव, जीव और जम्बूद्वीप सम्बन्धी क्षेत्र पर्वतों श्रादिका विस्तार से वर्णन है । जिस भाग में द्वीप- सागर वगैरहका वर्णन है वह जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति से सम्बन्ध रखता है । उद्धरणोंकी भी बहुतायत है । इस पर मलयगिरिकी टीका है । Jain Educationa International ४ चौथा उपांग पन्नवणा अथवा प्रज्ञापना है । इसमें जीव की विभिन्न दशाओं का वर्णन है । यह छत्तीस पदोंमें विभाजित है, जिनमें से अनेक में दोसे लेकर छै तक उद्देसक हैं । ग्रन्थके अन्तकी चार गाथ में छत्तीस पदोंके नाम दिये हैं । उन ३६ पदोंमें से पहले, तीसरे, पांचवे, दसवें और तेरहवें पदोंमें जीव For Personal and Private Use Only Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्र तपरिचय ६६१ और अजीव की, सोलहवें और बाईसवें पदोंमें आस्रवकी, तेईसवें पद में बन्धकी, तथा छत्तिसगें पदमें केवलि समुद्घात की चर्चा करते हुए संवर, निर्जरा और मोक्ष की प्ररूपणा है । ग्रन्थ का आरम्भ पञ्च नमस्कार मंत्र से होता है । उसके पश्चात् 'एसो पंच णमोयारो' आदि पद्य है जिसे श्वेताम्बर सम्प्रदाय में वज्रस्वामीका माना जाता है । उसके बाद नौ कारिकाओं ग्रन्थ का आरम्भ होता है । डा० जेकाबी इन गाथाओं को देवद्धि गण की कृति बतलाते थे । इन गाथाओं में से पहली गाथा में भगवान महावीर का स्तवन है, दूसरीमें 'पण्णवणा' का और तीसरी चौथी गाथाओं में उसके कर्ता श्यामार्य का । उनमें श्यामार्यको तेईसवां धीरपुरुष बतलाया है। टीकाकार मलयगिरि के अनुसार श्यामार्य सुधर्मा के बाद तेईसव थे। किन्तु तपागच्छ की पट्टावली में नौवें सुस्थितके समकालीन महागिरिके शिष्य बलिरसह और बलिरसह के शिव्य सूत्रकार स्वाति और उनके शिष्य श्यामाचार्यको श्यामार्य बतलाया है। नन्दीसूत्र और मेरुतुंगकी प्राचीन स्थविरावलियों में वीर भगवान् के बाद श्यामार्यका नम्बर तेरहवां है। अतः तेईसवीं संख्या घटित नहीं होती । किन्हींका ऐसा भी सुझाव रहा है कि भगवान महावीर से गणना करते समय उनके ग्यारह गणधरोंको भी सम्मिलित कर लेने से श्यामार्यका नम्बर तेईसवां आ जाता है । किन्तु अन्यत्र कहीं भी पट्टधरोंकी गणना में ग्यारह गणधरों को सम्मिलित नहीं किया गया' । अस्तु इस पर भी मलय गरिकी टीका संस्कृत में हैं । १ - ई० ए०, जि० २०, पृ० ३७३ । २ हि० इं०लि०, जि० २, पृ० ४५७ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६२ जै० सा० इ० पू०पीठिका ५ पांचवा उपांग सूर्यप्रज्ञप्ति है । इसमें बीस प्राभृत हैं जिनमें सूर्यके मण्डल, परिभ्रमण, गति, दिनमान, हानिवृद्धि, प्रकाश संख्या, वर्षका आरम्भ और अत, वर्षके भेद, चन्द्रमाकी हानि वृद्धि, चन्द्र सूर्य आदिकी ऊँचाई, विस्तार आदिका कथन है । इस ग्रन्थमें सूर्य और चन्द्र दोनोंका कथन है। अतः डा. विन्टरनीटसका कथन है कि चूकि इसका विभाग प्राभृतोंमें है और प्राभृत दृष्टिवादके अन्तर्गत थे, अतः दिगम्बर साहित्यमें जो सूर्य प्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति और चन्द्रप्रज्ञप्तिको दृष्टिवादका भेद माना है वह उचित है। स्थानांग४-१में इन्हें अगबाह्य कहा है। ___६ छठा उपांग जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति है-इसमें जम्बूद्वीपका वर्णन है इसका सम्बन्ध जैन भूगोलसे है। किन्तु भारतवर्ष का वर्णन करते हुए राजा भरतकी कथाने ग्रन्थका बहुत सा भाग ले लिया है। __७ सातवां उपांग चन्द्र प्रज्ञप्ति है। इसमें चन्द्र सम्बन्धी बातोंका वर्णन है यह सूर्यप्रज्ञप्तिसे मिलता जुलता हुआ है । ८ आठवां अंग कल्पिका या निरयावलियाओं है। 'निरयावलियारो' का अर्थ है - 'नरकोंकी पंक्ति' । इसमें बतलाया है कि चम्पा नगरीके राजा कुणिकके अथवा अजात शत्रुके दस भाई युद्धमें वैशाली नरेश चेटकके द्वारा मारे गये और मरकर नरकोंमें गये। हनौवां उपांग कल्पावतंसिका है। इसमें राजा श्रेणिकके दस पौत्रोंकी कथाएं हैं जो दीक्षा धारण करके मरकर विभिन्न स्वोंमें गये। प्रत्येकका कथन एक-एक अध्ययनमें होनेसे इसमें दस अध्ययन है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय ६६३ १० दसवां उपग पुष्पिका है। इसमें भी दस अध्ययन हैं । इसमें बतलाया है कि दस देवी-देवता पुष्पक विमान में बैठ कर महावीर भगवानकी बन्दना करनेके लिये आते हैं। वहां भगवान गौतम गणधर से उनके पूर्वभव कहते हैं । ११ ग्यारवां उपांग पुष्पचूलिका है। इसमें भी दस अध्ययन है। इसमें भी पुष्पिका की तरह श्री ही आदि दस देवियोंके पूर्व भवों के वृत्तान्त हैं। १२ बारहवां उपांग वृष्णिदशा है । इसमें बारह अध्ययन है । जिनमें अरिष्टनेमि तीर्थङ्करसे दीक्षा लेने वाले वृष्णिवंश के बारह राज कुमारों की कथाएं हैं। प्रथम अध्ययन में बलदेव के और कृष्णके भतीजे निषढ़ कुमार की कथा है । पुत्र न. ८ से १२ तक के उपांगो को निरयावलि सूत्र कहते हैं । डा० 'विन्टर नीटूज़ का अनुमान है कि यह मूलतः एक ही ग्रन्थ था और उसके पांच विभाग थे। सम्भव तया उपांगो की संख्या बारह करनेके लिये उसके पांच विभागों को पांच ग्रन्थों का रूप दे दिया गया । यहां यह लिखने की आवश्यकता नहीं है कि बारह अंगों के साथ इन बारह उपांगो का कोई सम्बन्ध नहीं है । दोनों की विषय तालिकाओं के देखनेसे ही यह बात स्पष्ट हो जाती है । छै छेद सूत्र छेद सूत्रोंका अन्तर्भाव कालिक श्रुत में किया गया है तथा 'चारअनुयोगों में से चरणकरणानुयोग में । स्पष्ट है कि छेद सूत्रों का विषय मुनियोंके आचार से सम्बद्ध है । १ - हि. इं० लि०, जि० २, पृ० ४५७–४५८ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ० पू०-पीठिका प्रथम छेद सूत्र निशीथ है। कहा गया है कि प्रस्तुत सूत्र प्रारम्भ में भी ऐसा ही पृथक था जैसा आज है। किन्तु पश्चात् प्रथम आचारांग में मिल गया और पुनः उससे पृथक् हो गया। इसमें बीस उद्देशक हैं। उनमें बतलाया है कि करने, कराने और अनुमोदनासे साधु प्रायश्चित्तका भागी होता है। अन्तिम उद्देसकमें मासिक, चातुर्मासिक आदि प्रायश्चित्तोंका और उनकी विधि बतलाई है। विन्टर नीट्स इसे अर्वाचीन बतलाते हैं। __दूसरा छेद महानिशीथ है । नन्दिसूत्र वगैरहमें अनंग प्रविष्टमें इसका नाम आता है। इसका प्रारम्भ अंगोंकी तरह सुयं मे पाउसं तेनं भगवया एवं आक वायं' ( आयुष्मनः मैंने सुना उन भगवानने ऐसा कहा) वाक्यसे होता है और प्रत्येक अध्ययन 'त्ति वेमि' के साथ समाप्त होता है। श्री वेबर का कहना था कि इसके सिवाय अन्य कोई बात इसमें ऐसी नहीं है जिससे इसे प्राचीन कहा जा सके । इसके छठे अध्ययनमें 'दसपुव्वी'का निर्देश है। अतः इसकी रचना अन्तिम दस पूर्वी वन स्वामीके पश्चात् होनी चाहिये। कहा जाता है कि मूल महा निशीथ सूत्र तो नष्ट हो गया। हरिभद्रसूरि ने उसका फिरसे उद्धार किया। वर्तमान महानिशीथ सूत्रमें आलोचना और प्रायश्चित्तका वर्णन है। व्रतभंगसे १ 'जं च महाकप्पसुयं जाणिय सेसाणि छेदसुचाणि । चरणकरणाणुरोगोत्ति कालियत्थे उवगयाणि ।' ७७७ । श्राव० नि० । वि० भा० गा० २२६५ । २-इं. ए. जि. २१, पृ० १८५ । हि. इं. लि. (विन्ट.) जि २, पृ. ४६५ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय ६६५ खासकर ब्रह्मचर्यव्रतके भंगसे कितना दुःख उठाना पड़ता है यह बताकर कर्म सिद्धान्त को सिद्ध किया है। इसमें तांत्रिक कथनों का तथा आगमेतर ग्रन्थों का निर्देश होनेसे यह स्पष्ट है कि यह ग्रन्थ अर्वाचीन है। 'कहीं कहीं इसे छठा छेद सूत्र भी बतलाया है । इस पर केवल चूर्णि है, कोई टीका नहीं है। तीसराछेद सूत्र व्यवहार है। आवश्यक सूत्रके अनुसार दसा, कप्प, व्यवहार एक श्रुत स्कन्ध है और उसका नाम 'दसा कप्प व्यवहार' है। इसमें व्यवहारको कल्पके बाद रखा गया है। किन्तु रत्नसागरमें व्यवहारको छेद सूत्रों में सर्वोपरि बतलाया है । इसमें दस उद्देसक हैं। पहले उद्देसकमें बतलाया है कि आलोचना करने वाला और आलोचना सुनने वाला साधु कैसा होना चाहिये । तथा आलोचना किस भावसे करनी चाहिये और उसका क्या प्रायश्चित्त देना चाहिये। दूसरेमें बतलाया है कि एक संघके दो साधु साथ-साथ बिहार करें और दोनों को दोष लगे तो एक तपश्चर्या करे, दूसरा उसकी वैयावृत्य करे। फिर दूसरा तपश्चर्या करे और पहला वैयावृत्य करे। इसी तरह यदि अनेक साधु साथ २ विहार करते हों तो जिसको दोष लगे वह तपश्चरण करे। किन्तु बिना कारण किसी तपस्वीसे अपनी वैयावृत्य नहीं कराना चाहिये । इत्यादि अनेक बातोंका कथन है । तीसरे उद्देसकमें बतलाया है कि गणी पद किसे देना चाहिये। चौथेमें बतलाया है कि किस रीतिसे विहार करना चाहिये और कैसे चतुमोस करना चाहिये । पांचवेमें साध्विओं के विहार तथा चतुर्मासकी रीति बतलाई है। छठेमें साधुकी भिक्षा, वसति आदि सम्बन्धी दोषोंके प्रायश्चित्तका विधान है। १ जै. सा. इ. (गु०), पृ. ७६ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६६ जै० सा० इ० पू०-पोठिका सातवेंमें साध्वियोंके लिये नियम स्वाध्याय आदिका विधान है। आठवेंमें बतलाया है कि साधुको गृहस्थकी आज्ञा लेकर ही उसके मकानमें ठहरना तथा उसके पटा आदिका व्यवहार करना चाहिये । भिक्षाके लिये जाते समय किसी साधुको किसी साधुका कोई उपकरण पड़ा मिले तो पूछकर जिसका हो उसको दे दे। तथा भोजन कितना करना चाहिये, आदि बातोंका कथन है । नौवें उद्देसक में शय्यातरका अधिकार है । जो गृहस्थ साधुको अपना मकान ठहरनेके लिये देता है उसे शय्यातर कहते हैं। उसका तथा उसके दास-दासियों तकका भोजनन करनेकी मर्यादा आदिका वर्णन है। दसवेंमें प्रतिमा, परिषह व्यवहार आदि अनेक विषयोंका तथा अमुक अमुक आगमकी शिक्षा कब देना चाहिये, आदि बातोंका कथन है। मूल ग्रन्थ गद्यमें है । उसपर प्राकृत गाथाओंमें भाष्य है । उस पर मलयगिरिकी टीका है। ___ चौथे छेद सूत्र दसा श्रुतस्कन्धमें दस अध्ययन हैं। तीसरे स्थानांगके दसवें स्थानमें आयार दसाओं'नामसे इसका उल्लेख है तथा उसमें उसके दस अध्ययनोंके जो नाम दिये हैं वे ही नाम वर्तमान अध्ययनोंके भी हैं। इससे श्री' वेबर इसे प्राचीन मानते थे। प्रथम सात दशा 'सुयं मे आउसं तेनं भगवया एवं आक्खायं' वाक्यसे आरम्भ होती हैं और 'त्ति वेमि'के साथ समाप्त होती हैं। पहली दशामें असमाधिके बीस स्थानोंका कथन है । दूसरीमें अशक्ति लाने वाले इक्कीस सबल दोषोंका कथन है। तीसरीमें गुरुकी ३३ असादनाओंका चौथी दशामें आचार्यकी आठ सम्पदाओंका, पाचवें अध्ययनमें चित्त समाधिके दस स्थानोंका, १ इं० ए० जि० १६, पृ० २११ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय ६६७ छठेमें श्रावककी ग्यारह प्रतिमाओं का, और सातों में बारह भिक्खु प्रतिमाओं का कथन है । इसका आठवाँ अध्ययन कल्पसूत्र के नाम से प्रसिद्ध है । इसमें महाबीर भगवान का वर्णन है । नौवें अध्ययन में मोहनीय कर्म के तीस बन्ध स्थानोंका वर्णन है और दसवें में बतलाया है कि श्रेणिकने चेलनाके साथ महावीर भगवान के एक साधुके -मुखसे क्या सुना ? यतः कल्पसूत्र एक स्वतंत्र ग्रन्थ के रूप में श्व ेताम्बर सम्प्रदाय में बहुमान्य ग्रन्थ है अतः उसके सम्बन्धमें कुछ विशेष प्रकाश डालना आवश्यक है । इसके तीन भाग हैं। श्री वेबर के अनुसार प्रथम में भगवान महावीरका इतिवृत्त है, दूसरे भागमें उनके पूर्ववर्ती २३ तीर्थङ्करों का वर्णन है और तीसरे भाग में स्थविरावली है। और डा० विंटरनिट्स के अनुसार पहले भाग में जिन चरित दूसरे भाग में स्थविरावली और तीसरे भाग में सामाचारी है। इन तीन भागों को मिलाकर कल्पसूत्र नाम दिया गया है। कल्पसूत्रका मुख्य भाग भगवान् महावीरका जीवनवृत्त है जो बहुत विस्तार से काव्य शैलीमें निबद्ध किया गया है। उसे पढ़ते समय बौद्धग्रंथ ललित विस्तराका स्मरण आ जाता है । ललित विस्तरामें बुद्ध जन्मादिका जैसा वर्णन है, कल्प सूत्र में प्रतिपादित महावीरके जन्मादिका वर्णन उससे बहुत कुछ मिलता हुआ है । उदाहरण के लिए यहाँ दोनोंसे अनुदित करके एक प्रसंग दिया जाता है । 1 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६८ जै० ० सा० ६० पू०पीठिका न कल्पसूत्र १ ऐसा न कभी हुआ, होता है. न होगा कि अरिहन्त, चक्रवर्ती, बलदेव अथवा वासुदेव अन्त कुलों में, प्रान्त कुलों में, तुच्छ कुलों में दरिद्र कुलों में, कृपण कुलों में, भिक्षुक कुलों में और ब्राह्मण कुलों में जन्में थे, जन्में हैं या जन्मेंगे | अरिहन्त, चक्रवर्ती, बलदेव या वासुदेव उपकुल में, भोगकुल में, राजन्य कुल में क्षत्रिय कुल में, हरिवंश कुल में अथवा इसी प्रकार के किसी अन्य कुल में जन्में थे, जन्में हैं और जन्मेंगे । 1 ललित विस्तरा १ बोधिसत्त्व चाण्डाल कुल, वेणु कार कुल, रथकार कुल, पुक्कस कुल जैसे हीन कुल्लों में जन्म नहीं लेते। वे या तो ब्राह्मण कुल में जन्म लेते हैं या क्षत्रिय कुल में । जब लोक ब्राह्मण प्रधान होता है तो ब्राह्मण कुल में जन्म लेते हैं और जब लोक क्षत्रिय प्रधान होता है तब क्षत्रिय कुलमें जन्म लेते हैं ( पृ० २१ ) महावीरके गर्भ परिवर्तन तथा जन्मका वर्णन श्राचारांग सूत्र से मिलता है । भ० महावीरके चरित्रके पश्चात् भगवान पार्श्व - नाथ और नेमिनाथका संक्षिप्त चरित है, जिसमें उनके पश्च कल्याणकों का निर्देश है । नेमिनाथसे लेकर अजित नाथ पर्यन्त का केवल अन्तर काल मात्र बतलाया है । किन्तु ऋषभ देवके पञ्च कल्याणकोंका निर्देश किया है। Jain Educationa International स्थविरावली में देवर्द्धि गणि तक स्थविरोंका निर्देश है । अतः यह स्पष्ट है कि श्रुत केवली भद्रबाहु उसके रचयिता नहीं हो For Personal and Private Use Only Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय ६६६ सकते । भगवान महावीरके ६८० वर्ष पश्चात् पुस्तक वाचनाका उल्लेख होनेसे भी उसका समर्थन होता है । अतः श्री वेबर' का विश्वास था कि कल्पसूत्रका मुख्य भाग देवद्धि गणिके द्वारा रचा गया है। उनका यह भी कहना था कि यथार्थ में कल्पसूत्र अथवा उसका वर्तमान आभ्यन्तर भाग 'कल्पसूत्र' कहे जानेका दावा नहीं रखता; क्योंकि उसकी विषय सूचीके साथ उसका कोई मेल नहीं खाता । 'दसाओं' के आठवें अध्ययन पर्युषणा कल्पके साथ उसका मेल होनेके बाद उसे वह नाम दिया गया है। कल्पसूत्रपर सबसे प्राचीन टीका जिन प्रभ सूरिकी है जिसका नाम सन्देह विषौषधि' है। १३००ई० में उसको रचना हुई है । उसीके प्रारम्भ में उसे कल्पसूत्र नाम दिया हुआ है। कल्पसूत्रका अन्तिम भाग पर्युषणा है। डा० विन्टर नीट्स ने इसे कल्पसूत्रका प्राचीनतम भाग होनेकी संभावना व्यक्त की है। अपने इस अनुमानकी पुष्टि में उनका कहना है कि कल्पसूत्रका पूरा नाम वास्तव में पर्युषणा कल्प है। और यह नाम इस अन्तिम भागके लिये ही उपयुक्त हो सकता है। आज भी श्वेताम्बर सम्प्रदाय में प्रतिवर्ष पर्युषण पर्व में इसका पाठ होता है। उनका यह भी कहना है कि परम्पराके अनुसार जिन चरित्र, स्थविरावली और सामाचारी कल्पसूत्रके नामसे मूल आगमों में सम्मिलित नहीं थे। देवद्धि गणि ने उन्हें आगमों में सम्मिलित किया, यह परम्परा कथन बहुत करके ठीक प्रतीत होता है। १-इं० एं० जि० २१, पृ० २१२-२१३ । २-हि० इं० लि०, जि० २, पृ० ४६३-४६४ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०० जै० सा० इ० पू०-पीठिका पाँचवा छेदसूत्र वृहत्कल्पसूत्र है। कोई इसे दूसरा छेद सूत्र मानते हैं। साधु और साध्वियों के प्राचार का यह एक प्रमुख और प्राचीन ग्रन्थ है । इसमें छै उद्देशक है, जिनमें निषेध परक नियमों का 'न कप्पई' करके और विधिपरक नियमों का कप्पई, करके निर्देश है । प्राकृत गाथाओंमें सूत्रों पर विस्तृत भाष्य होनेसे इसे कल्पभाष्य भी कहते हैं। भाष्यमें विविध विषयों का अच्छा संग्रह है। ____एक सूत्र में कहा है कि निर्ग्रन्थ और निम्रन्थियों को पूरब में अंग-मगध तक, दक्षिणमें कौशाम्बी तक, पश्चिममें स्थूणा नगरी तक और उत्तरमें कुणाला नगरी तक ही जाना चाहिये । इतना ही आर्य क्षेत्र है उससे बाहर नहीं आना चाहिये, उसके बाहर ज्ञान, दर्शन और चारित्र उत्पन्न नहीं होते। आर्य देश की यह मर्यादा और निर्ग्रन्थ-निम्रन्थियों को उसी में विहार करनेका आदेश अन्वेषण की दृष्टिसे महत्त्वपूर्ण है। डा० विन्टर नीट्स३ व्यवहार सूत्र नामक छेद सूत्र को वृहत्कल्प सूत्र का पूरक मानते हैं। उनका कहना है कि कल्पसूत्र दण्डके उत्तर दायित्व का शिक्षण देता है और व्यवहार सूत्र अमुक दोषके लिये अमुक दण्ड का विधान करता है। १-जै० सा० इ० (गु०), पृ. ७७ । २-'कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पुरथिमेणं जाव अंग मगहायो एत्तए, दक्खिणेणं जाव कोसंबीअो, पचत्थिमेणं जाव थूणाविसयात्रो, उत्तरेण जाव कुणाला विसयात्रो एत्तए । एत्ताव ताव कप्पड़ एत्ताव ताव पारिए खेते । णोसे कप्पइ एत्तो वाहिं । तेण परं नत्थ नाण दंसण चरित्ता उस्पप्पति त्ति बेमि ॥ ५० ॥ ३-हि० इं० लि०, जि० २, पृ० ४६४ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रु तपरिचय ७०१. छठा छेदसूत्र पंचकल्प मूलरूपमें उपलब्ध नहीं है। विचारामृतसंग्रह के अनुसार पंचकल्प संघदास वाचक की कृति है। रत्न सागरमें जीतकल्प को छठा छेदसूत्र लिखा है। यह जिनभद्रगणि क्षमा श्रमण की कृति है। इसमें जैन श्रमणोंके. आचारका तथा प्रायश्चित्त का वर्णन है । चार मूल सूत्र श्री वेबर' और विन्टर नीट्सने उत्तराध्ययन को प्रथम मूलसूत्र बतलाया है। उत्तराध्ययन वगैरह को क्यों मूलसूत्र कहा गया है यह स्पष्ट नहीं होता। 'मूल' शब्द का व्यवहार टीकाके आधार भूत ग्रन्थके लिये होता है। यतः इन सूत्र ग्रन्थों पर. महत्त्वपूर्ण प्राचीन टीकाएँ उपलब्ध हैं इस लिये उन्हें मूल सूत्र कहा जाता था ऐसा डा० विन्टर नीटस' का मत है। चापेन्टियर ने उत्तराध्यययन सूत्र की प्रस्तावनामें मूलसूत्र का अनुवाद किया है-'स्वयं महाबीरके शब्द' जो किसी भी तरह उचित प्रतीत नहीं होता। शुबिग की राय थी कि जो आध्यात्मिक पथके मूल अर्थात् शुरूमें स्थित हैं उनके लिये जो सूत्र थे उन्हें मूलसूत्र कहा गया था। श्री वेबर कहना था कि इन ग्रन्थों का यह नाम काफी अर्वाचीन है और मूल सूत्र का मतलब 'सूत्र से अधिक कुछ भी नहीं है। किन्तु ये सूत्रग्रन्थ गद्यसूत्र रूप नहीं हैं, किन्तु पद्योंमें हैं। उनमें उत्तराध्ययन और दशवकालिक विशेष प्राचीन है। १ आवश्यक-इस सूत्रमें छै अध्याय है। उनमें सामायिक, १-इं० एं, जि० २१, पृ० ३०६। . २- हि० इं० लि०, पृ० ४६६ का टि० १ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०२ जै० सा० इ० पू०पीठिका चतुर्विशतिस्तव, बन्दना, प्रतिकमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान इन छै आवश्यकों का कथन है। जिन क्रियाओं का प्रति दिन करना आवश्यक है उनका प्रतिपादन करनेसे इस ग्रन्थ का नाम आवश्यक सूत्र पड़ा है। दिगम्बर परम्परामें भी ये छै आवश्यक मान्य हैं और अंग बाह्यके भेदोंमें उनकी गणना पृथक् पृथक् की गई है। श्वेताम्बर सम्प्रदायमें उन छहोंके संकलन को आवश्यक नाम दिया गया है। इसके रचयिताके विषयमें कोई उल्लेख नहीं मिलता । आवश्यक सूत्र पर आवश्यक नियुक्ति नामक व्याख्या है जिसे भद्रबाहु रचित माना जाता है। आवश्यक नियुक्तिके साथ ही आवश्यक सूत्र का प्रकाशन हुआ है। और उस पर मलय गिरि की टीका है । नियुक्तिके सिवाय उस पर दो प्राचीन टीकाएँ और भी हैं-एक चूर्णि और एक हरिभद्रीय आवश्यक वृत्ति । ___ २ दशवैकालिक-विकालमें भी पढ़ा जा सकनेके कारण इसे वैकालिक कहा जाता है और इसमें दस अध्ययन हैं इस लिये इसे दसवैकालिक कहते हैं। पहले अध्ययन का नाम द्रम पुष्पिका है । जैसे द्रुमके फूल को हानि पहुँचाए बिना भौंग उसका रस चूस लेता है वैसे ही जैन श्रमण प्रवृत्ति करता है। इसमें धर्म की प्रशंसा की गई है। दूसरे श्रामण्यपूर्विका अध्ययनमें नये प्रवजित श्रमण को धैर्य पूर्वक प्रवृत्ति करनेका सन्देश दिया गया है। तीसरे तुल्लिकाचारकथा नामक अध्ययनमें लघु आवार कथा है और आत्म संयम को उसका उपाय बतलाया है। चौथे षट्जीवनिका नामक अध्ययनमें आचार का सम्बन्ध छै कायके जीवोंसे होनेके कारण अन्य जीवों की रक्षा का कथन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय ७०३ | पांचवे पिण्डैषणा नामक अध्ययन में भिक्षा शुद्धि का कथन है । छठे महाचारकथा नामक अध्ययनमें महाजनों के योग्य महान आचार का कथन है। सातवें वचनविशुद्धि नामक अध्ययनमें निर्दोषवचन का विधान है। आठवें आचार प्रणिधि नामक अध्ययन में आचार में प्रणिहित दत्तचित्त होने का विधान है । नौवें विनय समाधि नामक अध्ययनमें बिनय सम्पन्न होने का विधान है। दसवें सभिक्षु अध्ययन में कहा है कि जो भिक्षु नवों अध्ययनों में प्रतिपादित विधानों का प्रतिपालक है वही सच्चा भिक्षु है । इन दस अध्ययनोंके सिवाय दो अध्ययन और हैं जिन्हें चूलिका कहा जाता है । उनमेंसे प्रथम का नाम रतिवाक्य है । यह साधु को संयम में स्थिर करनेके लिये है । और दूसरे में अनियत चर्या का विधान है । विधिमार्गप्रपा' में दशवैकालिकके बारह अध्ययन बतलाये हैं। दोनों अन्तिम अध्ययनों को भी इसके साथ गिना है। किन्तु दशवैकालिक नियुक्तमें दस अध्ययनों का विधान करके अन्तिम दो अध्ययनों को चूलिका बतलाया है । इस ग्रन्थ पर भी एक नियुक्ति है जिसे भद्रबाहुरचित माना जाता है । उसमें लिखा है कि दश वैकालिक का चौथा अध्ययन आत्मप्रवाद पूर्वसे, पांचवा अध्ययन कर्मप्रवाद पूर्व से और सातवां अध्ययन सत्यप्रवादपूर्व से उद्धृत किया गया है तथा शेष अध्ययन नौवे प्रत्याख्यान पूर्वके तीसरे वस्तु अधिकारसे उद्धृत किये गये हैं । उसीमें दूसरा मत यह भी दिया है कि दशवैकालिक का उद्धार द्वादशांगरूप गणिपिटकसे किया गया है । १ पृ. ४६ । २ गा०, १६-२४ । ३ - गा० १६-१८ | Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०४ जं० ० सा० इ० पू० पीठिका इसी नियुक्ति' में आचार्य शय्यंभव को दशवैकालिक का रचयिता बतलाया है । यह शय्यंभव जिनप्रतिमा दर्शनसे प्रतिबुद्ध हुए थे और जब इन्होने गृहत्याग किया इनकी स्त्री गर्भवती थी । उसके मनक नामक पुत्र हुआ । आठ वर्ष का होने पर मनकने अपनी मातासे अपने पिता का समाचार पूछा । यह ज्ञात होने पर कि पिता साधु होगये हैं, मनक उनकी खाज में निकला और उनका शिष्य बन गया । पिताने जाना कि उसके पुत्र की आयु केवल छै मास बाकी है। उसने उसके लिये दशवैकालिक का उद्धार किया । इसमें तो सन्देह नहीं कि दशवैकालिक प्राचीन है और दिगम्बर सम्प्रदाय में भी उसकी मान्यता रही है । किन्तु उसका प्राचीन रूप यही था या भिन्न, यह अन्वेषणीय है । यापनीय संघ के अपराजित सूरिने भी उसपर एक टीका रची थी । उत्तराध्ययन– 'उत्तर' शब्द के दो अर्थ होते हैं - 'पश्चात् ' और जवाब | उत्तराध्ययन नियुक्ति के अनुसार इसका अध्ययनपठन आचारांग के पश्चात् होता था इसलिये इसे उत्तराध्ययन कहते हैं । दूसरी परम्परा के अनुसार भगवान महावीर ने अपने निर्वाण से पूर्व अन्तिम वर्षावास में छत्तीस प्रश्नों का उत्तर दिया था, उत्तराध्ययन उसीका सूचक है । इसमें छत्तीस अध्ययन हैं। चौथे अंगमें इनके नाम आये हैं । ४ – 'मणगं पडुञ्च्च सेजंभवेण निजूहिया दसऽज्झयणा । वेयालियाइ ठविया तम्हा दसकालियं नाम || १५ || ' - दश० नि० । ५--' दशवैकालिकटीकायां श्री विजयोदयायां प्रपञ्चिता उद्गमादि दोषा इति नेह प्रतन्यते ।' -भ· श्रा०, गा० ११६७ टी० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय ७०५ और वे वर्तमान उत्तराध्ययनके अध्ययनोंके नामोंसे प्रायः मिलते हैं । डा. विन्टरनीट्स' का कहना है कि 'वर्तमान उत्तराध्ययन अनेक प्रकरणों का एक संकलन है और वे प्रकरण विभिन्न समयोंमें रचे गये थे। उसका प्राचीनतम भाग वे मूल्यवान पद्य हैं जो प्राचीन भारत की श्रमणकाव्य शैलीसे सम्बद्ध हैं और जिनके सदृश पद्य अंशतः बौद्ध साहित्यमें भी पाये जाते हैं । ये पद्य हमें बलात् सुत्तनिपातके पद्योंका स्मरण करादेते हैं।' 'विनय नामक प्रथम अध्ययनमें 'बुद्ध' शब्द आता है । यथा 'कठोर अथवा मिष्ट वचनसे मुझे बुद्ध जो शिक्षा देते हैं, अपना लाभ मानकर उसे प्रयलपूर्वक सुनना चाहिये ॥' इस १-हि. ई. लि., भा. २ पृ० ४६६-६७ । २–यहाँ उदाहरणके लिये उत्तराध्ययनसे तथा बौद्ध धम्मपदसे दो उद्धरण दिये जाते हैं । मासे मासे उ जो बालो कुसग्गेणं तु भुंजए। ण सो सुक्खायधम्मस्स कलं अग्घइ सोलसिं ॥ ४४ ।। -उत्त० अ०६, । मासे मासे कुसग्गेन वालो भुंजेथ भोजनं । न सो संखतधम्मानं कलं अग्घति सोलसिं ॥ ११ ॥-धम्म० बालग्य जहा पोम्म जले जायं नोवलिप्पइ वारिणा । एवं अलितं कामेहि तं वयं बूम माहणं ।। २७ ।। उत्त०, अ० २५ । वारि पोक्खरपत्ते व पारग्गेरिव सासयो। यो न लिम्पति कामेसु तमहं बूमि ब्राह्मणं ॥ १६ ॥ -धम्म०, ब्राह्मणवग्ग । ३-जं में बुद्धाणुसासंति सीएण फरुसेण वा । मम लाभु त्ति पेहाए पयो तं पडिस्सुणे ॥ २७ ॥ ४५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका अध्ययनमें दत्त उपदेश हृदयग्राही हैं। परीषह नामक दूसरा अध्ययन 'सुयं मे आउसं ! तेणं भगवया एवमक्खायं' वाक्यसे प्रारम्भ होता है। इसमें बाईस परीषहों का कथन पद्यमें है । तृण परीषह का वर्णन करते हुए लिखा है-'अचेल, रूक्ष, तपस्वी संयमी तृणों पर सोता है अतः उसके शरीर का विदारण होता है। तथा घाम का भी कष्ट होता है। किन्तु तृणपरीषहसे पीड़ित होने पर भी साधु वस्त्रगृहण नहीं करते ॥ तीसरे चतुरङ्गीय अध्ययनमें चार वस्तुओं को उत्तरोत्तर दुर्लभ बतलाया है। प्रथम नरजन्म, दूसरे धर्मश्रवण, तीसर श्रद्धा और चौथे अपनी शक्ति को संयममें लगाना। चौथे असंस्कृत नामक अध्ययन में कहा है कि जीवन असंस्करणीय है इसे बढ़ाया नहीं जा सकता और वृद्धावस्था आने पर रक्षाका कोई उपाय नहीं है अतः प्रमाद मत करो। पाँचवे अकाममरण नामक अध्ययन में अकाम मरण और सकाम मरणका वर्णन है। छठे क्षुल्लक निग्रन्थीय नामक अध्ययन में साधुके सामान्य आचारका कथन है । अन्तिम वाक्य में कहा है कि अनुत्तर ज्ञान दर्शनके धारी ज्ञातृपुत्र भगवान वैशालिक (विशालाके पुत्र महावीर ) ने ऐसा कहा । ___ सातवें औरभ्रीय नामक अध्ययन में पाँच दृष्टान्तोंके द्वारा निम्रन्थोंका उद्वोधन किया गया है। वे पाँच दृष्टान्त हैं-मेढ़ा, काकिनी, आम्र फल, व्यापार और समुद्र । आठवें कापिलीय १-गा० ३४-३५। २-एवं से उदाहु अणुचरनाणी अणुत्तरदंसी अणुत्तरनाणदसणधरे अरहा नायपुत्ते भगवं वैसालीए वियाहिए ।१८।। त्ति वेमि । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय नामक अध्ययन में कपिल मुनिने केवल ज्ञानी होकर चोरोंको समझाने के लिए जो उपदेश दिया उसका संकलन है । नौवें नाम प्रव्रज्या नामक अध्ययन में नमि नामक प्रत्येक • बुद्ध राजाकी दीक्षाका वर्णन है । मिथिलाका राजा नमि कामभोगोंसे विरक्त होकर जिन दीक्षा लेता है और इन्द्र ब्राह्मणका रूप बनाकर उससे प्रश्न करता है । अन्तमें राजाके वैराग्य पूर्ण उत्तरोंसे सन्तुष्ट होकर इन्द्र नमस्कार करके चला जाता है । मिथिलाका राजा नमि ऐतिहासिक व्यक्ति है । इसके विषय में पहले लिख आये हैं । यह भगवान पार्श्वनाथ के काल में हुआ था। दसवें द्रुम पत्रक नामक अध्ययन में महावीर स्वामी गौतम गणधर से कहते हैं कि 'जैसे वृक्षका पत्ता पीला होकर झड़ जाता है वैसा ही मानव जीवन है । अतः गौतम एक क्षण के लिये भा प्रमाद मत कर' । छत्तीस पद्योंमें से प्रत्येकका अन्तिम चरण 'समयं गोयम ! मा पमायए' है । सभी पद्य सुन्दर उपदेश - प्रद हैं 1 ७०७ ग्यारहवें बहुश्रुत नामक अध्ययनके प्रारम्भिक पद्य में कहा गया है कि 'संयोग से मुक्त अनगार भिक्षुके आचारका कथन करूँगा उसे सुनो । बारहवें हरिकेशीय नामक अध्ययनमें हरिकेशी मुनिकी कथा है। हरिकेशी मुनि जन्ममे चाण्डाल था । एक दिन भिक्षा के लिए वह एक यज्ञ मण्डप में चला गया । वहाँ ब्राह्मणों से उसका वार्तालाप हुआ । ब्राह्मणोंने उसे वहाँसे चला जानेके लिए कहा । वह नहीं गया तो कुछ तरुण विद्यार्थियोंने उसे मारा | तब यक्षोंने उन कुमारोंको पाटा । पीछे हरिकेशी से क्षमा याचना करने पर छोड़ा। चित्रसम्भूतीय नामक तेरहवें अध्ययन चित्र और सम्भूति नामक मुनियोंका वृत्तान्त है । चौदहवें Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०८ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका इषुकारीय अध्ययनमें बतलाया है कि एक ही विमानसे च्युत होकर छै जीवोंने अपने २ कर्मके अनुसार इषुकार नामक नगरमें जन्म लिया और जिनेन्द्र के मार्गको अपनाया। संभिक्षु नामक पन्द्रहवें अध्ययनमें भिक्षुका स्वरूप बतलाया है। प्रत्येक पद्यके अन्तमें ‘स भिक्खू' । वह भिक्षु है ) पद आता है। इसीसे इस अध्ययनका नाम सभिक्षु है। सोलहवें ब्रह्मचर्य समाधि नामक अध्ययनमें ब्रह्मचर्यके दस समाधि स्थानोंका कथन है। इ. का प्रारम्भ भी 'सुयं में पाउसं' आदि वाक्यसे होता है। दस सूत्रोंके द्वारा दस समाधियोंका कथन है। तत्पश्चात् श्लोकोंके द्वारा उन्हींका प्रतिपादन है। सतरहवें पापश्रमण नामक अध्ययन में पापाचारी श्रमणोंका स्वरूप बतलाया है। अठारहवें संयतीय अध्ययनमें संजय राजाको कथा है । उन्नीसवें भृगापुत्रीय अध्ययनमें मृगापुत्रकी कथा है। बीसवें महा निर्ग्रन्थीय अध्ययन में एक मुनिकी कथा है। इक्कीसवें समुद्रपालीय अध्ययनमें समुद्र पालकी कथा है। बाईसवें रथनेमीय अध्ययनमें रथनेमिकी कथा है। रथनेमि नेमिनाथका छोटा भाई था। वह प्रवजित होगया था। एक दिन साध्वी राजुल वर्षासे त्रस्त होकर एक गुफामें चली गई और वस्त्र उतार कर सुखाने लगी। उसी गुफा में रथनेमि तपस्या करता था वह राजुलको देखकर उसपर आसक्त हो गया । राजुलने उसे सम्बोधकर सुमार्गमें लगाया। तेईसवें केशिगौतमीय नामक अध्ययनमें पार्श्वनाथ परम्परा के केशी और गौतम गणधरके संवादका वर्णन है। पार्श्वनाथकी ऐतिहासिकताके प्रकरणमें इसकी चर्चा आचुकी है। प्रवचनमाता नामक चौबीसवें अध्ययनमें पाँच समिति और तीन गुप्तियोंका कथन है इनको प्रवचनकी माता कहा गया है। पच्चीसमें यज्ञीय Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय ७०६ अध्ययनमें जयघोषकी कथा है । विजयघोष नामक ब्राह्मण यज्ञ करता था। जयघोष मुनि भिक्षाके लिए पहुंचे। उसने भिक्षा नहीं दी। दोनोंका संवाद हुआ। जयघोषने कहा कि यज्ञोपवीत धारण करनेसे ही कोई ब्राह्मण नहीं होजाता और न वल्कल पहिननेसे तपस्वी ही होजाता है। सामाचारी नामक छब्बीसों अध्ययनमें साधुओंकी सामाचारीका कथन है। खलुङ्कीय नामक सत्ताईसवें अध्ययनमें गर्ग नामक मुनिकी कथा है। उसमें खलुङ्क-गलिया बैलका दृष्टान्त दिया है। अट्ठाईसवें मोक्षमार्ग नामक अध्ययनमें मोक्षके मार्ग ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप का वर्णन है। उनतीसवें सम्यकत्व पराक्रम नामक अध्ययनमें संवेग, निर्वेद, धर्म श्रद्धा आदि तिहत्तर द्वारोंका कथन है। इसका आरंभ 'सुयं में आउसं' आदि वाक्यसे होता है। यह सूत्ररूप है। आदि और अंतमें लिखा है कि भगवान महावीरने इसका कथन किया है। तीसवें तपोमार्ग नामक अध्ययनमें तपका वर्णन है। चरण विधि नामक इकतीसों अध्ययनमें चारित्रकी विधिका कथन है । प्रमाद स्थान नामक बत्तीसों अध्ययन में प्रमादका कथन है तथा राग द्वेष और मोह को दूर करनेके उपाय बतलाये हैं। कर्म प्रकृति नामक तेतीसवें अध्ययनमें कर्मों के भेद प्रभेद तथा उनकी स्थिति बतलाई है। चौतीसवें लेश्या नामक अध्ययनमें छै लेश्याओं का स्वरूप बतलाया है। पैंतीसवे अनगार मार्ग नामक अध्ययनमें संक्षेपमें मुनिका मार्ग बतलाया है। छत्तीसवें जीवाजीवविभक्ति नामक अध्ययनमें जीव और अजीव द्रव्यों का कथन है। इस तरहसे वर्तमान उत्तराध्ययन सूत्र विविध प्रकरणों का एक संग्रह जैसा है। न तो यह प्रश्नोत्तररूप ही है और न Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१० जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका आचारांग आदिके बाद ही पढ़ने योग्य है। यह एक उपदेशात्मक तथा कथात्मक संग्रह है जिसमें प्राचीनता की पुट है । इस पर भी एक नियुक्ति है जिसे भद्रबाहु की कहा जाता है। एक चूर्णि है। और शान्ति सूरि तथा नेमिचन्द की संस्कृत टीकाएँ हैं। डा० हर्मन जेकोवीने इसका जर्मनीमें अनुवाद किया था। उसका अंग्रेजी अनुवाद 'सेक्रड बुक आफ दी ईस्ट' नामक ग्रन्थ माला की ४५ वीं जिल्दमे सूत्रकृनांगके अनुवादके साथ प्रकाशित हुआ है। पिण्ड नियुक्ति या ओघ नियुक्तिको चौथा मूलसूत्र माना जाता है । परम्परासे इन्हें भी भद्रबाहुकी कृति कहा जाता है । पिण्डका अर्थ भोजन है। अतः पिण्ड नियुक्तिमें भोजन सम्बन्धी उद्गम, उत्पादन, एषणा आदिका कथन है। कहा जाता है कि दशवैकालिक सूत्रमें पिण्डैषणा नामक पांचवा अध्ययन है । उसी को नियुक्तिको बड़ा हो जानेके कारण अलग करके पिण्ड नियुक्ति नाम दे दिया गया। ओपनियुक्तिमें मुख्यरूप में चरित्रका कथन है । इसमें चरण सत्तरी, प्रति लेखना आदि अनेक द्वार हैं। दस पइन्ना पइन्ना अथवा प्रकीर्ण फुटकर ग्रन्थ हैं। श्री विन्टर नीट्स इन्हे वेदोंके परिशिष्टोंकी तरह मानते हैं और उन्हीकी तरह ये पद्यबन्ध हैं तथा जैनधर्म सम्बन्धी विविध विषयोंका इनमें वर्णन हैं । इनकी संख्या दस है। चतुः शरण-इसमें बतलाया है कि अर्हन्त, सिद्ध, साधु और धर्म इन चारकी शरण लेनेसे पापको निन्दा और पुण्यकी अनुमोदना होती है । इन चारोंका स्वरूप भी बतलाया है। इसमें Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतपरिचय ७११ ६३ गाथाएँ हैं। पहली गाथा में पडावश्यकका कथन है । इसका रचयिता वीरभद्र को कहा जाता है । २ तु प्रत्याख्यान - में बाल मरण और पंडित मरणका स्वरूप समझते हुए पंडितको रोगावस्थामें क्या २ प्रत्याख्यान करना चाहिये, कैसे सम्बंधि मरण करना चाहिये आदिका कथन है । ३ भक्त परिज्ञा-मरण के तीन प्रकार हैं-भक्त परिज्ञा, इंगिनी और पादपोपगमन । भक्त परिज्ञाके दो प्रकार हैं - विचार पूर्वक और विचार पूर्वक भोजनके छोड़ देनेको भक्त परिज्ञा कहते हैं। इसमें भक्त परिज्ञा मरणकी विधिका निरूपण है । इसमें १७२ गाथा हैं । 1 ४ संस्तारक - समाधि मरणके चिये प्रासुक तृणोंकी शय्या बनाई जाती है उसे संधरा कहते हैं। इसमें १२३ गाथाओंसे संथ का कथन है । ५ तन्दुल वैचारिक- इसमें शरीरकी रचना आदि को लेकर भगवान महावीर और गौतमके बीचमे हुए संवादका वर्णन है। गद्य और पद्य मिश्रित है । इसमें बतलाया है कि जीव गर्भमे कितने दिन रहता है कैसे प्रहार ग्रहण करता है कैसे उसका शरीर बनता है । उसमें कितनी हड्डियां स्नायु वगैरह होते हैं । इसके नामके विषयमें टीकाकार विजय विमल गणि ने लिखा ' है कि सौ वर्षकी आयुवाले पुरुषके द्वारा प्रतिदिन खाये गये चावलों की संख्या विचारसे उपलक्षित होनेके कारण इसे तन्दुल वैचारिक कहते हैं । इसकी गाथा संख्या १३६ है । १.... ' तन्दुलानां वर्षशतायुष्क पुरुषप्रतिदिनभोग्यानां संख्याविचारेणोपलक्षितं तन्दुलवैचारिकं नामेति । ' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१२ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका ६ चन्द्रवेध्यक-चन्द्रवेधके उदाहरणके द्वारा यह बतलाया है कि आत्माका ऐसा ही एकाग्र ध्यान करना चाहिये । उसीसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसमें १७४ गाथाएँ हैं। ७ देवेन्द्रस्तव-३०७ गाथाओंके' द्वारा देवेन्द्रोंका कथन है। ८ गणिविद्या-८२२ गाथाओंके द्वारा ज्योतिषका कथन है। ६ महा प्रत्याख्यान-१४२ गाथाओंके द्वारा महा प्रत्याख्यान का कथन है। १० वीरस्तव-४३ गाथाओं में महावीर भगवानके नामोंकी गणना-स्तुतिरूप है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि दस पइन्नाओंकी तालिका अनिश्चित है। कोई देवेन्द्रस्त और वीरस्तवको एक साथ लेते हैं तथा संस्तारकको नहीं लेते। उनके स्थान में वे गच्छाचार पइन्ना और मरण समाधिको गिनते हैं। गच्छाचार में साधु साधियोंके आचारका कथन है जो महानिशीथ और व्यवहार सूत्रसे लिया गया है। मरण समाधि में ६६३ गाथाओंके द्वारा समाधि मरणकी विधि आदि वर्णित है। इस मे लिखा है कि मरण विशुद्धि, मरण समाधि, भक्त परिज्ञा, आतुर प्रत्याख्यान आदि ग्रन्थोंसे मरण समाधि ग्रन्थकी रचना की गई है। संक्षेप मे यह श्वेताम्बरीय अंगबाह्य ग्रन्थोंका परिचय है। उक्त साहित्यके आधार पर जैनाचार्योंने जो साहित्य रचा उसका इतिहास आगे दिया जायगा। यह तो उसकी केवल पूर्व पीठिका है। २-डा० विन्टर ने ३०० गाथा संख्या लिखी है। ३- डा० विन्टर ने गाथा संख्या ८६ लिखी हैं-पृ० ४६१ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम सूची [इस सूची में ग्रन्थ, ग्रन्थकार, संघ, स्थल, क्षेत्र, राजा आचार्य आदि के नामों का समावेश किया गया है। यदि कहीं कोई नाम लगातार आया है तो वहाँ पृष्ठांक के बाद 'आदि' लिख दिया गया है। जिस पृष्ठांक के आगे टि. लिखा है उस पृष्ठ की टिप्पणी देखना चाहिये।] अंग चूलिका ५६३ . अंगुत्तर निकाय ४४१,४४४ अंतगडदसा ६४६ .. अकलंक ४७७, ५७७, ५८८, ५६३, ५६५, ५६७, ५९८ आदि ६०८, ६२४, ६३३,६४४, ६७१, ६७२, ६७३, ६७४, ६७७ । अगस्त्य ४६ । अगस्त्य सिंह ५२७ अग्रायणी पूर्व ६१०,६१६, ६२७ अग्नि पुराण १२०, १२५ अङ्ग ३२, १८५, २३७ अङ्गिरस ४६. अज ३२८, ३३१ अजय ३२८ अजात शत्रु काशिराज १८८ अजातशत्रु (कुणिक.) १६१, २३२, २३३, २३४, २८६, २८६, २६०, २६४, २६६, ३०१,.३०२ ३०५, ३११ से ३१६ तक, ३२२ से ३२६ तक, ६५८, ६६२ अजितकेश कम्बली २१६, ४५३ अट्ठ कथा ४८२, ५३७, अणुत्तरोववायदसा ६४६, ६६६, अत्रि ४६ अथर्व वेद ६, २५, २७, २६, ३२, ३३, ३४, ४०, ४८, ६३, ६१, ११०, १११, ११३, ११६ ११७, १७१, ५६४, ६०१ . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नगर धर्मामृत ४३६, ४४०, अनुयोग द्वार सूत्र ५०६, ५४५, ५६०, ५६५, ५८१, ५८२, ६७५ ६८३ से ६८७ तक अनुरुद्ध ३१४, ३२२, ३३४, ३३५ टि० अन्तःकृद्दश ६६३ अन्तगडदसात्र ६६४ पराजित सूरि २४७, ३६५, ५२५, ७०४ ३३८८, पराजित श्रुतकेवली ( २ ) ३३६, ३४६, ४८६ अफगानिस्तान १०, १३, ४५ अभय कुमार गुह २०८ । अभय देव ६३३, ६४६, ६५०, ६५१, ६६०, ६६२, ६६४, ६६५ ६६६, ६६७, ६७०, ६८६. अभय राजकुमार २६६, ३०५, ३२०, ३२४, ३२५, ३२६ अम्बरीश ६०३ अम् लट्ठिा २२८ अम्बाला १४ अयोध्या १६, १७६ अरिष्टनेमि ५, १६५, १७१ अरुणोपपात ५६३ Jain Educationa International फालक सम्प्रदाय ३७७, ३७८, ३८१ आदि बेरुनी ३३३ टि०, ३३४ टि० अवदानकल्पलता ४७६ अवन्ती २३७, २८८, ३२० से ३२६ तक, ३३२ वन्ती वर्मा ४७८, ४७६ अवेस्ता १६ अशोक ३१६, ३४४, ३५२, ३५८ ३६१, ४७०, ४७६, ५३६ शोकावदान ५४२, अश्वपति ३१, ६६, अश्वसेन १८५ अष्टाध्यायी ५६८ असुर १६, २०, २१, अस्ति नास्ति प्रवाद ६२८ काशगता चूलिका ६२७, श्राचारसार ४७७ आचारांग २२२, २२५, २२६, २३६, ३८७, ३६७, ४१० श्रादि, ४४५, ४४६, ५२६, ५४५, ५६८ ६३४, ६३५, ६५३, ६६४, ६६८, ७१०, श्राचाराङ्ग चूर्णि २४५ श्राचाराङ्ग नियुक्ति ६३५ For Personal and Private Use Only Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राचाराङ्ग वृत्ति ४१८, इण्डियन एण्टिक्केरी २८५, श्राजीविक सम्प्रदाय ४३२, ४३४, २६७, ५२३, ५५६, ४३५, ४६२, ४६६,५७०, ५८४, इन्द्रनन्दि श्रु तावतार ३३८, ५२८ इन्द्रनान्द श्रु ६५८, इन्द्रभूति २७१ से २७४ तक, आत्म प्रवाद पूर्व ६२६, ७०३, ५३३, ६७४, ६८८, ६६०, श्रादिपुराण १००, ३३६ टि०, ईरान १० आन्ध्र २१, ३१, ३२, . ईश उप० ५४, ८५, २०७, आपस्तम्बीय धर्मसूत्र ७१, ८५, ईश्वरकृष्ण २१०, ५६६, अार्यरक्षित ३८५, ४२२, ५०६, उज्जैनी २३६, २५०, २६४, ५३४, ५५८, ५८०, ३२०, ३२२, ३२६, ३२६, ३४२, अावश्यक कथा ४६७ टि०, ३४४, ३५१, ३६०, ३७५, ३७८, अावश्यक चूर्णि- ४११, ५४३, उड़ीसा ४८१,. .. ७०२, उत्कालिक श्रुत ५७६ अावश्यक टीका ५०६, ७०२, उत्तराध्ययन सूत्र १६३, १६४, अावश्यक नियुक्ति २४२, २४८, २१६, २७२, २७६, ३६५, ४००, २५७, २५८, २७५, ३७४, ३८६, ४४४, ४४५, ५२३, ५२६, ५६०,५६८, ५७६, ६२३, ६७६, ६७७, ७०१, ७०४, ७०२, उत्तराध्ययन चूर्णि ७१० आवश्यक सूत्र ५६५, ५७८, उत्तराध्ययननियुक्ति ७०४, ७१०, ६६५, ७०१, उत्तराध्ययन सूत्र वृत्ति ४१८ . अाशाधर ४३६ उत्थान श्रुत ५६३ . श्राशीविष भावना ५६३, ५६४ . उत्पादपूर्व ६२७ श्राश्वलायन ४०, ४६, १४०, उदक पेढाल पुत्र ४६१, ६४३, १६१, ५६५ उदयन ३२३, ३२४ इक्ष्वाकु १५, १६, १७८, १७६, उदय भट्ट ३१४ . १८६, १६४, उदपी ३२२, ३२८, ३३१, ३३६, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उलूक ५६६, उदायी २८६, २६४,३१३, ३२२, एतरेय आरण्यक १६, ५२ : ३२६, ३३२, ३३३ एतरेय उप० ५४, २०७ . उद्दालक ऋषि ६१, ६६, ५६४, एतरेय ब्राह्मण १८, २१, २५, उपदेश पद ४६७ टि०, ३०, ३१, ३२, ४१, ६१, १६३ उपनिषद १०, २७, ५३, ५४, अोघ नियुक्ति ५१७, ७१० ५५, ६५, ६८; ७६, ८०, १३४, अोझाजी १५७ १४४, १४७ श्रादि, २०७ .. पोरन १०, ३५ उपासकाध्ययन ६६२ श्रादि अोल्डन वर्ग ३ उमास्वाति ६७५ । औपपातिफ ५५६, ६८८ । औपमन्यव ६०७, उवासगदसा ६४६, ६६३, ऋग्वेद ६, १०, १३, १४, १५, कंकाली टीला ३८२, ३८३,४८३, ४६१, . .... १६, १७, १८, १६, २१, २२, कठ ६०१ . श्रादि, ३४, ३५, ३६, ४५, ४६, कठ उप० ५४, ५६, ५८, ६१, ५०, ५१, ६३, ७३, ७६, ७७, २०७, २०८, . ८७,६०,६१,६६, १०३, १०८, ११०, ११८, ११६, १२० १३१, कणाद ५६६, . . १७८, २०५, ५६४, ५१८, ५६६, कथावली ५००, ५०१,, ५०३, ५०७, ऋजुकूला नदी २५१, २५७, . कथा सरित्सागर ३२३, ३२५, ऋषभ देव ४,५,७, १०१, १०५, ३२७, ३२८, ३६२, कनिंघम जनरल २८६ .. १०७, ११५, ११६ आदि, १२६, . १२८, १२६, १३०, १७८, १७६; कपिल ५६६,६८७ . कम्पिला ३० ऋषि भाषित ५७८,५८०, करण्डु १६३ .... ऋषि मण्डल प्रकरण ४६७ टि०, कर्न ३ ५४०, कर्म प्रवाद पूर्व ६३०, ७०३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलार जनक १६४ कालिकश्रुत ५७४, ५७६, ५७७ कलिंग ७, २१, १६३, ३५२ . . कालिकाचार्य ४३६, ४७१, ६६३ कलिंग जिन ७, ३५२, कालीदास १०० कल्प सूत्र ३, २३५, २३६, २४२ काशी २८, ५०,५३,१८५, १८७, २७२, ३४१, ३५८, ४६१, ५११, १८६, १६१, १६७, २३४, ६५८, ५२०, ५२२, ५२३, ५२६,५२६, काशीप्रसाद जायसवाल ११४, ५३२, ५३६, ५५७ ६८६, ६६७, २८७, २६०, ३०३, ३२१, ३२२, ६६६, ३२८, ३३१, ३३३, ३३४ टि०, कल्प सूत्र नियुक्ति ३८७ ३५२, ३५५, ३५८, ३६१ कल्पावतंसिका ६६२ . :: काश्मीर १०, १३, . कल्प्य व्यवहार ६८१ । कश्यप ४६ कल्प्याकल्प्य ६८१ .. कीथ डा० ६५,६६,११२, १३४, कल्याण प्रवाद ६३१ , १३५, १३६, १३७, १६६, ५६६, कल्याणविजय मुनि २६६, ३५०, कुणाल ३५६, ३६० ३५१, ३५६, ३६१, ३६८, कुण्डपुर या कुण्ड ग्राम २२५, ३७३ टि०, ४२३, ४६६ २२६, २२८ श्रादि, कसाय पाहुड ६०६, ६७२, कुथमि ५६६ काफ वणि ३२२, ३२३ काट ५५२.५८८, कुन्दकुन्द ५५२, ५८८, काणे विद्धि ( काण्ठ विद्धि) कुभारपाल प्रतिबोध ३२०, ३२४, ५६३ ३२५, ३२६, .. काण्व ४६ कुमार संभव १०० . . काबुल १०, १३, कुम्भ कार जातक १६३ काम्बल सम्प्रदाय ३७ कुरु ( जाति) १५, २५, २७, कालायसवेसिय पुत्त ४०२, ४०३, २८,३२ . कुरु ( जनतंत्र) ५०, ७६, १८६ कालासोक ३१५ कुरु क्षेत्र ३०, ५३, ६५८, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६.) कूर्म पुराण १२०. क्षुद्र विमान घिभक्ति ५६६ . कृतिकर्म ६८१ क्षेमेन्द्र ३६२ ... कृत्तिकार्य ३४६ खरतरगच्छ ५४१, कृष्ण स्वामी आयंगर १५७ रवारवेल ७, ३३३टि., ३५२, कृश सांकृत्य ४३१, ४३२ ३५५, ४७६, ४८०, ५५० केन उपनिषद् ५८ गंग माला जातक १८८ . के. बी. पाठक २६७ ... गंडिकानुयोग ५८५ केशी कुमार श्रमण २२०, ३६५, गांगेय ४०३ ६६०, ७०८, गणिपिडग ५५०, ७०३, गणि विद्या ७१२ कैकय ३१, ६६ गन्धार १६३ कोत्स प्राचार्य १२ गरुण पुराण १२० कोल ब्रुक २, ५६७, गरुणोपपात ५६३ कोसल २८, ३०, ३२, ५०, १७६, गर्दभिल्ल २८६, २६१, २६४, १८५, १८६, १८७, १६१, १६७, गार्ग्य ५६६, २३४, ६५८, गार्व १३४, १३६, कौटिल्य २११ गीता १५० अादि, १६०, १६२ कौटिल्य अर्थशास्त्र ४३३, ४७७, गीता रहस्य १४६ ६०३,६०७, ६८७, गुणधर आचार्य ६७६ कौशाम्बी ३०, २३६, गुण सुन्दर ३५७ कौशिक ५६४, गुणाढ्य ३६२, ३६६, ३६७ कौशिक गृह्य सूत्र ५६४, गुप्ति गुप्त ३५० कौशिक स्मृति ५६४ गोपथ ब्राह्मण ४०,५६७ :कौषीतकी उपनि० ५४, २०७, गोपाल बालक ३२८, " ब्राह्मण ६६ गोम्मट सार कर्मकाण्ड ५८८ क्रियाविशाल पूर्व ६३२ गोभ्भट सार जीवकाण्ड ४४२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोवर्धनाचार्य ३३८, ३३६, ३४२, ३३५, ३३६, ३४१ श्रादि, ३५१, ३४६, ३५०, ४८६, ५३८ ३५३, ३५५, ३५८, ३६२, ३६७, गोशालक २१६, २६६, ३०१ । ३७०, ५१६, श्रादि, ४२५ आदि, ४३२ श्रादि, चन्द्र प्रज्ञप्ति ६२४, ६४८, ६६२, ४४० श्रादि, ४५३ श्रादि, ४६०, चन्द्र वेध्यक ७१२ ५८४, ६५८ चम्पा नगरी ६५८, ६६२ गौडपाद २१० चाणक्य ३१५, ३५२, ३६३, ३६६ गौतम गणधर २२०, ३३८, ३३६, चारण भावना ५६३, ५६४, ३४६, ३५७, ३६६, ४६१, ५२६, चारायण ६००, ५३२, ५५४,६४३, ६७४, ६६७ चिम्मन लाल शाह ३८३, ६६३, ७०७,७०८ चेटक १६१, १६२, २३१, २३४, गौतम धर्म सूत्र ८२, ४४६ २३५, आदि, २६६, ३०१, ६६२, ग्रियर्सन १३४, १३६, १७६, २६६, २७० चैकितायन ६०३, घन नन्द ३१५ छान्दोग्य उप. ३१, ५४, ५५, घोटक मुख ६८७ ५७, ५६, ६०, ६३, ७७, ८०, घोर अांगिरस १७०, २०२ ८ ४, १३४, १५१, २०२, २०७, चटर्जी सुनीति कुमार ११ ८०, ६०७, २६६ जनक २८,६६,७६, १८६, १८६, चण्ड प्रद्योत २३६, ३१२, ३२२, १६०, ५६८ ३२४ आदि जमदग्नि ४६ चतुर्विंशतिस्तव ६८० जमालि ६५८ चन्द्र गुप्त मौर्य १, १६०, २८७, जम्बू द्वीप पएणचि ३३६ टि, २८६, २६४, २६५, ३१२, ३१३, " ५६१, ५६५, ६२४ ३१५, ३१६, ३२६, ३३०, ३३४, ६४८, ६५७, ६६०, ६६२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बु स्वामी ३३८ श्रादि, ३४६, जीतधर ६८५, ३५४, ३५७, ३७४, ३६१, ४८५, जीवाभिगम ६६० . ४८६, ६३६, ६४०, ६८५ जुगल किशोर मुख्तार २६१ जय ३४६ .. . जृम्भिका ग्राम.२५१,, २५७ . जयचन्द विद्यालंकार ५ जेकोबी. या याकोबी डा० ३, ४, जयधवला टीका २६०, ३३७, १८४. २०१, २०७, २१२, २१६, ३३६ टि:, ५२८, ५४८, ५६८, २२७, २२८, २२६, २३५, २४०, ६८०, ६०६, ६२४, ६७१, ६७४, २८५, २६०, ३०६, ३६४, ४३०, .. ६७७ ४३६, ४४२, ४४४, ४४५, ४४६, जयानन्दसूरि ४६५ टि, ... ४४८, ४५२, ४५३, ४५४, ४५५, जातुकर्ण्य ६०५ ४५८, ४६०, ५११, ५१४, ५२०, जानकी हरण ४३८ . .. ५२३, ६३६; ६४४, ६६१ जलगता चूलिका ६२६ । ज्योतिर्विदाभरण ४७६, जाल चार पेन्टियर २८५, २८७, ज्योतिष्करण्ड ४६६ २८४, २६०, २६३, " टीका ५०७ २६४, ३०६, ३७०, ७०१ ज्ञान प्रवाद पूर्व ६०६, ६२६, जिनदास महत्तर २६८, ५०३, ज्ञातृ धर्म कथा ६५६ आदि, जिन प्रभ ५.२३, ६६६, ड्यूसन प्रोफेसर २०६ जिनभद्र गणि २४८, ३७३, तत्त्वार्थ वार्तिक २७, ८१, ४७७, ३७४, ३८०, ३६०, ४१६, ४८६, ५७७, ५६३, ६०२, ६२४, ६३३, ७०१ ६६५, ६६७, ६७२ जिनसेन ६०, ११६ तत्त्वार्थभाष्य ६७५, , २८४, ३१२, ६७४, तत्त्वार्थ सूत्र ४२१, ६७७ । . . ६७७ तन्दुल वैचारिक ५७८, ६७६, जिम्मर २६, ४५ ७११, जीत कल्प ४१८, ७०१ तपागच्छ पहावली ६६१, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तित्थो गाली पइन्नय ३१२, ३१३, ३८१, ४३६, ४४०, ४६३ ३३२, ४८६, ४६६, ५४३ दशरथ ३५६, ४७०, ४७६ तिलोय पण्णचि ) २८३, २६७, दशवकालिक ४१८, ६७७, ६८१, त्रिलोक प्रज्ञप्ति ३१३, ३३२, ७०२, ७०४,७१० ३३७, ३३६ टि० ३५३, ५२८, दशवैकालिक चूर्णि ५२७. ६७४ दशवकालिक नियुक्ति ७०३ तीर्थोद्धार प्रकरण ३१३ दसा ६६६ तेजो निसर्ग ५६३, ५६४, दसा कप्प ववहार ६६५, तैत्तिरीय आरण्यक ५३, ८६,६०, " दास गुप्ता डा० ७०, ७१ १३३, १३७, दास्य-दस्यु १८,१६. ३१ , उपनिषद् ५४, ८४, दिग्ध निकाय २१५, २१७, ४३० २०७, ५६७, ४३२, ४४०, ४४१, ,, ब्राह्मण ११० ४४७, ५६२, ६८६, ,, संहिता ४७, ११८ दिवोदास १५ त्रिपिटक ३, २०१, २१६, २१८, दिव्यावदान ३२२, ३५६, ४७७, ३१०, ४३५, ४४६, ५३७, ५५०, दीपबंश ३१३, ३२२, ५४२ . ६८६, दुम्मुख १६३ त्रिलोफसार २८४, २६६, २६७, दुम्मेध जातक १८८ - ४७७, .. दुर्बलिका पुष्यमित्र ५५८, ५८० त्रैराशिक ५८४, ६४४, ६८७, दृष्यगणि ६८५ थलगता चूलिका ६२७ दृष्टिवाद ५५२, ५५८, ५५६, दक्षिणापथ ३०, ३७६, ५६३, ५६६, ५६८ श्रादि, ५७६ दयानन्द स्वामी ११, १२, पादि, ५८६ अादि, ६५३ दर्शक ३२२, ३२३, ३२४, ३२५, दृष्टि विषभावना ५६३, ५६४, " . ३२७, देवर्द्धि गणि ४६७ आदि, ५०७ दर्शन सार २१६, ३७१, ३७२, आदि, ५११, ५१७, ५२१,५२३, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) ५२७, ५५८, ६६८, ६६६ ३१३, ३१५, ३२२, ३२६, ३३०, देववाचक ६८६ ३३१, ३३२, ३५२, देवसेन २१६,३७१, ३७२, ३७५, नन्द वर्धन २८६, ३२१, ३७८ श्रादि, ४३६, ४६३ ३३५ टि. ३३६ टि. देवेन्द्र गणि ५२३ नन्द वंश २६०, ३२८, ३५१, देवेन्द्रसूरि ६१५ ३६६, ३६७, देवेन्द्र स्तव ७१२ नन्द वात्स्य ४३१, ४३२, ४४५, देवेन्द्रोपपात ५६३ नन्द सम्वत् ३३३, ३३६ टि. द्वीप सागर प्रज्ञप्ति ६२५, ६४८ नन्दि वर्धन ३२१, ३२७, ३२८, धननन्द ३३४ धम्मपद ४४५, ४४७, .. ३२६, ३३१, ३३४, नन्दि ३३८ धरसेन ५५३, ५५८ धर्मघोष ४६७ टि. नन्दिचूर्णि ५०३, ५०६, ६७६, धर्मसागर गुर्वावली ६५१ . नन्दि टीका ५०३, ५०७, धर्मानन्द कोसम्बी १७०, २०२, नन्दि मित्र ३३८, ४८६, २१४, २१५ नन्दिल ६८५ धवलाटीका २७२, २८४, २६६. नन्दि सूत्र ५१७, ५५५, ५६०, ३३७, ३३६ टि०, ५२८, ५४७, ५६४, ५६५, ५७०, ५७४, ५८१, ५४६, ५५४, ५६८,५८८, ५६४, ६३३, ६४४, ६५०, ६५३, ६६४, ६०२, ६०६, ६१५, ६२३, ६२४, ६६७, ६६६, ६७३, ६७५, ६७७, ६७१, ६७४, ६७७,६८० ६७८, ६७६, ६८३ से ६८७ तक धृत राष्ट्र काशीराज २८, १८७ ६६१, धृतिषेण ३४६ नन्दि संघ पट्टावली २६२, ३३८, नग्गजि १६३ नचिकेता ६१, ६२, नभोवाहन २६४, नन्द ७, २८६, २६४, २६५, नहपान २८६, ३५६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाग परियापनका ५६३ नाग हस्ति ६८५ नागार्जुन ५०० श्रादि, ५०६, ५०६, ६८५ नातिका २२८, २२६, नाथूराम प्रेमी ३८१ नारद ६३ नालन्दा २२८, ६४३ निगंठ नाटपुत्त २१७, २२२, २३० निरयावली सूत्र २६४, ५६८, ६६२ ( ११ ) निरुक्त ८५ निशीथ चूर्णि २६६, ४३७, ५०६ निशीथ सूत्र ५२७, ६७६, ६६४ निषाद ३१, ३२ निषिद्धिका ६८२ नील कण्ठ शास्त्री १८१ नेमि चन्द्र ७१० नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती २८४, ४४२, ४७७, ६७८, नैमिषारण्य ३० नैषध ( काव्य ) ४१ जाब १०, १२, २०, २७, ३२, ४४, ४५ पञ्च कल्प ७०१ Jain Educationa International पञ्ज वस्तुक ५६४, ५६५ पञ्चविंश ब्राह्मण ६१ पञ्चशिख ५६६ पञ्चशिव २१० पञ्चाल २५, २७, २८, ५०, ५३, ६७, ७६, १८६, १६३ पञ्चाशक ४०८, ४१८ पण १५, १६, १७, पतञ्जलि १००, ४३४, ४३५, ६८७ पदानुक्रमणी १८ पद्म पुराण १७६ पद्मसुन्दर ४६७ टि., पनवणा ६५७, ६६०, परमत्थ जोतिका १८६, १६१, पराशर ऋषि ५६६, ६०२, ६०५, परिकर्म ५८३, परिव्राजक सम्प्रदाय ४३२ परिशिष्ट पर्व २६४, ३२२, ३२६, ३३२, ३४०, ३६६, ४८८, ४६६, ५४०, ५४३, ५६६ पाइ सद्द महरणव २६८ पाटली ग्राम २२८ पाटली पुत्र नगर २२८, २२६, २३६, ३१३, ३५१, ३५५, ४८६, For Personal and Private Use Only Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६१, ४६६, ५१६, ५१८, ५४१, पुण्डू वर्धन २१, ३४२, ४७८ ५४२ पुण्य विजय मुनि ३५०, ५२७, पाणिनि १३५, १३६, १४०, पुरु १५, १६, २७, १७८८, १७६ १६०, ४३४, ४३७, ५६३, ५६४, पुरुकुत्स १५, १६, . ५१८, ५६६, ६०१, पुलिन्द २१, ३१, ३२ पाण्डरि भिक्षु ४३७, पुष्प चूलिका ६६३ पातञ्जल महाभाष्य ८८, १०६, पुष्प दन्त ५५३, ५५८, १४०, ५६४, ६०२, पुष्पिका ६६३ पार्श्व चन्द्र ६८६, पुष्य मित्र २८६, २६४, ४६७, पार्श्वनाथ ४ श्रादि, ५०, १८५, पूज्यपाद ६०८, ६३४, ६७३, १६०, १६३ अादि, २०० आदि, ६७७ २१३, २२० अादि, २७६ श्रादि, पूरण काश्यय २१६, २१७, ४४० ३६५ श्रादि, ४००, ४३६, ४४६ . आदि, ४४४, ४५३ ४४७, ४५०, ४५२, ४५६, ६६०, ६६८, ७०७, ७०८, पूर्व ५८४,५८५, ६१०, . पार्थापत्यीय २२१, २२२, ३६४ पैप्पलाद ६०१ ___ आदि, ४५६, ४६१ ६४८, प्रक्रुद्ध कात्यायन २१६, ४५३ पालक २२८, २६०, २६४, २६५, प्रति क्रमण अंगबाह्य ६८१ ३१२, ३२२, ३२६, ३२८, ३२६, प्रत्याख्यान पूर्व ६३०, ६३४, .. ३३१, ३३२, ३५७, पाल चार पेंटर ११२ . प्रद्योत ३२२, ३२५, ३२६, ३२७, पावा ३, २३५, ३०८, प्रद्योत वंश ३१८, ३१६, ३२०, पिण्ड निथुक्ति ५१७, ७१० ३२१, ३२७ पी. सी. दीवान १७१ प्रथमानुयोग ५८५, ६२७ । पुण्डरीक अंगबाह्य ६८२ प्रबाहण जैबलि २७, ६७, ६८, पुण्डू २१, २६, ३१, ३२ ... ७०३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभव ३४०, ३५७, ४८६,६८५ ३२२, ३२४, ३४५, ६४७, ६८८ प्रभाचन्द्र ३४६ ६६२ प्रभावक चरित ५०३ बुद्ध ५, ६, ८८, ८६, ११४, प्रभास पुराण १७२ . १२६, १६२, १६१, २०५, २१२ प्रवचन सारोद्धार ४१८, ५८८, आदि, २२८, २८६, २६६ अादि, प्रश्न उप० ५४, ६३,१७१, २०७, ३०३ श्रादि, ३११, ४४७, ५३६ ६०२, आदि, प्रश्न व्याकरण ६५०, ६६८ अादि बुद्ध घोष २२६, ४३०, ४३२, प्राकृत व्याकरण मार्कण्डेय २६६ ४४१, ४४४, ४४५, ४४७,, प्रीहिस्टोरिक इण्डिया १६० बुद्ध चर्या २२३, ३०२, ४४७, (डा.) प्लीट ३५०, ३५१, ३८७, बुद्ध निर्वाण ३१५, ३१६, प्रोष्ठिल ३४६ बुद्धिल ३४६ बंगाल १४, २१, २६, ४८१, बुहलर २,४, ३८४, ४५३, ४७४, बनर्जी ६७, १६०, ४७८, ४८०, ४६१, ५२३, बरुत्रा प्रो० ५०, ८७, ४३१, ४३५, ४३६, ४३८, ४५६, ४७७, बृहत्कथा ३६२, ३६७ बलमित्र भानुमित्र २८६, २६४, बृहत्कथा मञ्जरी ३६२ बलिस्सह ६८५ बृहत्कल्प ३५०, ४१६, ५२७,, बाण भट्ट ४३६, ४३७, ४७५, ७०० बृहत्कल्प भाष्य ४१८, ६७५, बादरायण ६०२, बृहजातक ४३६, ४७१, बारवर ३५६ बृहदारण्यकउ प० ५४, ५७, ५६, बार्थ ३, १३३, १६१,५१४, ७७, ७६,८६, १५१, बिन्दुसार ३१६, ३५२, ३५८, १८६,१६५, १६८, २००, बिम्बसार श्रेणिक १६१, २३२, ५६४, ५६६, ६०३, ६०६, २३५, २६६, ३०२, ३०५, ३२० बृहस्पति मित्र ३५२ . ४७६, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) बेचर दास पंडित २६८, ३८६, ५३८, ५३६ श्रादि, ५५७,५७०, __४८७, ५१६, ६८५, ७०३ बेलंधरोपपात ५६३ भद्रबाहु चरित ३७१, ३७८, ३८१, बौधायन धर्म सूत्र ४४६, भद्रबाहु संहिता ३५० ब्रह्म सूत्र ५४, २०७, ६०२, भद्राचार्य ३७६, ३७७ अादि ब्रह्माण्ड पुराण ३१७, ६०३, भद्रेश्वर ५००, ५०३ ५०७, ६०६, भरत (जाति) १४, १५, २७, ३२, ब्रह्मावर्त २५, ३०, १७८, भक्तपरिज्ञा ७११, भरत दौष्यन्ती २५, २७, भगवती अाराधना ३६५, ४००, भरतेश्वर बाहुवलि ४६७ टि., . ५२५ भागवत पुराण ५, ११६, १२१, भगवती सूत्र २२२, २७३, ३०१, १२२, १२३, १२५, १२६, १३०, ४०२, ४२५, ४५८, ४५६, ४७८ १६३, ३१७, ३१८, ३२८, ३२६, ५२७, ५३३, ५७७,६५६, ६७१ ५६६, ६०५, ६८७, भगवद्दत्त ५६४, ५६५ भारत वर्ष ५, १०, ६५, २१६ भट्टि काव्य ४३८ भारद्वाज ४६ भट्टोत्पल ४३६, ४७१, भार्गव ४६ भण्डारकर डा० २६, ७५, १०७, भाव प्राभृत ५८८, १०८, १२१,१२४, १३६, १३६, भाव संग्रह ३७१, ३७५ १४४, १८८, १६५, ११८, ३२३, भास कवि ३२२, ३२३, ३२५, ३२७ ३२५, ४८१, भूत दिन ६८५, है भूतबलि ५५३, ५५८, भद्रबाहु ३३८, ३३६, ३४०,३४१, मृतवाल - मंगु ६८५, श्रादि, ३४४ आदि ३५३ श्रादि, . ३५८ श्रादि, ३६२, ३६६, ३७०, मगध २१, २६, २८, २९, ३२, ३७५, ३७६, ३६१, ४८५, ५१६, ११४, १८५, २३७, २६४, ३२०, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२१, ३२२, ३२७, ३२८, ३२६, महा नारायण उप० ५४, १३६, ३३२, ३३३, ४६७, ५१६, २०७, मगध वंश ३२८ . महानिशीथ ६६४ मझिमनिकाय १६३, २१२, ___ महा पद्म नन्द ३२६, ३३०, ३३२, २५५, ३०८, ३१२, ३३४, ३५१, ३६५, ३६७, ३६८,, ४३१, ४४५, ४४७, ४४८, महापरिचिव्वाणसुत्त ११४, २२८, मत्स्य देश ५०, ५३, २२६, २३३, महा पुण्डरीक ६८२ मत्स्य पुराण ३१७, ३१८, ३२६, महा पुराण ६०, ११६, ५६६, . ३५६, ६०२, महाप्रत्याख्यान ७१२ . मथुरा ४६२, ४६७, ५००, ५०७, महा भारत २०, २१, २८, ३१, मध्य देश ३०, ३२, ५०, ८६, ११०, १२०, १२४, १३२ मनु स्मृति १३, ३३, ८५, ११४, श्रादि, १७२, १८८, १६४, १६७, मरीचि कुमार ५६५, ५६४, ६००, ६०२,६०३, ६०४, मलयगिरि अाचार्य २४२, २५८, महा विमान विभक्ति ५६३ ४६६, ५०७, ५१०, ५७६,५७६, महावीर ५, ६, ५०, ८८, ८६, ५८४, ५८६, ६३३, ६६०, ६७६, ६२, ११४, १६२, १६३, २०५, ६६०, ६६१, ६६६, २१२ आदि, २२२ आदि, २७६ मस्करी पूरण ४३६, ४३०, ४४०, महा कर्मप्रकृति प्राभृत ५५४, अादि, २८६, २६६, ३४६, ४०० श्रादि, ४२६, ४३६, ४४६, ४४७ ६१०, ६१६, ४५२, ४५८, ६७४, ६८८,६६३, महा कल्प्य ६८१ ६६८, ७०७, महागिरि ३५७, ३५८, ३६०, महावीरनिर्वाण २८७, २६० ३६१, ५५८, ६८५, ६६१, श्रादि, ३१० अादि, ३१६, ३३०, महा गोविन्द सुत्त१८७ ३३२, ३३६, ३४०, ३७०, ४६७, महानन्दि ३३१, ३३४, ५१६, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावग्ग २२८, २२६, ३८६ महा वंश ३१३, ३१४, ३१६, महा स्वप्नभावना ५६४ महीधर ११, माघनन्दि श्रावकाचार २६७, २६८ माञ्छपिक ५६४ माठर ५६७, ६८७, माठर वृत्ति ५६६, ५६७, माति पोसक जातक १८८ माधव चन्द्र २६६, २६७, माध्यन्दिन ६०१, मायागता चूलिका ६२७ मार्कण्डेय पुराण १२० मिथिला ७०७, ( १६ ) मुण्ड ३१४, ३२२, ३३४, ३३५ टि०, ५६५ मुण्डक उपनिषद ५४, ५६, १७१, २०७, ५६५ मुद्राराक्षस ३५२, मुनिचन्द्र सूरि ४६७ टि०, मूलाचार २७७, मृगार सेठ ४४७ मेगस्थनीज १३६, ३५१, मेरुतुरंग २८४, २८५, २६४, ३१२, ६६१, मैत्रायणीय उप० ५४, ५८, २०७ Jain Educationa International मैत्रायणीयसंहिता ४८ मोक्ष मूलर १३४, २८६. मोहेजोदड़ो ६७ दि ११६ तक ४८१, मौद ६०१, मौद्गल्यायन ५६७, मौर्य साम्राज्यका इतिहास ३४३ यजुर्वेद ५, २५, २६, ३५, ३६, ४८, ६३, ६०१, यति वृषभ ३१२, ५५३, यदु १५, २७, १७८, यशोभद्र ३४०, ३५०, ३५७, ३५८, ४८६, ५३६, ५७०, ६८५, याज्ञवल्क्य ६६, ६७, ७६, ८७, १८६, १८७, १८६, १६८, २००, ५६७, ५६८, ६०२, यापनीय संघ २४६, ५२५, ७०४, यास्क मुनि १२, ८४, ५६६, योग दर्शन १०० योग भाष्य २१० योग वाशिष्ठ रामायण ६०५ योग शास्त्र वृत्ति ५०६, र योग सूत्र २१०, योनि प्राभृत ५५३ रत्ती परगना २३० रत्ननन्दि ३७१, ३७८, ३८१, ३८२ For Personal and Private Use Only Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८०, ( १७ ) रत्न सागर ६६५, ७०१, रेवती नक्षत्र ६८५, रथनेमि ७०८, रोम हर्षण ६०६, रमेश चन्द्र दत्त ५१, ७२, १८४, लघुजातक ४३६, ४७२, राजगृही २२८, २३२, ३०२, ललिता विस्तरा ६६७ ३२६, ५३०, लार्सन २ . राणायन ६००, लिङ्ग पुराण १२० राधा कुमुद मुकर्जी १०२, १०७, लिच्छवि ११४, १८६, १६१ अादि २२८ २३०, २३४, २३६ ६५६ . राधा कृष्णन् ५, १०८, १५८, लोक प्रकाश ५००, . रामघोष ४६८ . लोक बिन्डुसार ५५४, ६३२, रामचन्द्रन टी० एन० १०५, लोकमान्य तिलक १०, ३५, १०७, ४८३, ८२, १४६, १४८ रामप्रसाद चन्दा ६६, १००, ल्युमैन ६८६ रामायण २१, ८२, ८८, २०१, लोहार्य ३३६ टि०, ३४६, ६०६, लोहा चार्य ३५६ रामिल्ल ३७६, ३७७, ३७८, लोहित्य ६८५, ३७६, वग्ग चूलिका ५६३, राय चौधरी १३६, १३७, १३८, वज्जिगण ११४,१८६, १६४, २३३ १७०, १८७, १८८, १६०, १६१, वज्रस्वामी ५३४, ५५८,५८०,६३५ वत्सदेश २३७ . राय पसेणीय ६५७, ६८६, वन्दना ५८१ राहुल सांकृत्यायन २२३, २२८, वराह मिहिर ३५०, ४३६, २२६, ४४७, वरुणोपपात ५६३ रुथ डाक्टर २४, वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ १८० रूप गता चूलिका ६२७ वर्डवुक ३५२, ४७३ श्रादि रे डेविड्स् ४, ८, २२६, ४३८, ४७१, १६३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ ) वलभी २७१, ३७२, ३७३ टि०, विनय पिटक ३८६, ३७५, ३७७, ३७८, ३८६, ४६१, विनय विजय ५०० ४६२, ४६७, ४६८, आदि, ५०७, विन्टर नीटस् ८, ६, ६२, १३६, ५१७, ५१६, १४४, ५१५, ५१८,६३६, ६३७, वशिष्ठ ऋषि १४, ४६, ४७, ६०५, ६४४, ६५५, ६५८, ६६७, ६७६, ६०६, ६८८, ६६२, ६६३, ६६४, ६६७, वसु ६०३, ६६६, ७००, ७०१, ७०५, ७१०, वाचस्पति मिश्र २१०, विपाक सूत्र ६७० आदि वायु पुराण १२०, १२४, १६०, विलियम जोन्स १ . १६५ ३२६, ३३०, ३५६, ५६६, विल्सन २ ६०६, विवाह चूलिका ५६३ वाराह पुराण १२०, १२५, विशाखयूप ३२८, वाल्मीकि ६०६, वशाखाचार्य ३४३, ३४६, ३७६, वाष्कल ५६६,६०३, ६०५, ३८०, वासुदेवशरणअग्रवाल ३८४, विशेषावश्यक भाष्य ३७३, ३७४, ४३५ श्रादि, ३६०, ४१६, विक्रम प्रबन्ध २६२ ४८६, ५४७, ६२३, ६७५, ६७६, बिक्रम सम्वत् २६१, २६२, ३३७, विश्वामित्र १४, २१, ३१, ४६, विक्रमादित्य ४७६ ५६४, ३१७, ३१८, ३२६, विचार श्रोणि २८४, २८५, २६४, विष्णुकुमार ३३६, ३४६, ४८६, २६५, विशेषावश्यक भाण्य वृत्ति ४१८, विचारामृतसंग्रह ७०१, ५७७ विदेह २८, ३०, ३२, ५०, १८६, विष्णु पुराण १२०, १७७, १६५, १६१, १६३, २२८, २३०, ३५६ विद्यानुप्रवाद ५५४, ६३१, . विष्णु सहस्रनाम १७२ विधिमार्ग प्रपा ७०३, वीरनन्दि ४७७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरसेन २६०, २८३, २६७,५४६, व्रात्यं ६, २६, ३४, ११०, १११, ५५४, ६०६, ६१५, ६१७, ६२३, ११३ आदि, ६४४, ६७१, ६७२, ६७४, ६७७, शंकराचार्य ५४, ८६, १४४, वीरस्तव ७१२ १४७, १४८, १५६, १६०, २०८, वीर्यानु प्रवाद ६२८, शकटाल ३५८, ३६२ आदि, ३६५ वीसेण्ट स्मिथ ४८३ शतपथ ब्राह्मण १५, १६, २०, २६ वृष्णिदशा ६६३ २७, २८, २९, ३०, ३१, ३२, वेदव्यास १३, ६०२, ६०६, ३६, ४८, ४६, ५०, ६०, ६६, वेदान्त सूत्र १४४ वेबर २, ३, ३१, ११५, ५२०, ७७, ७८,८४,८७, १३३, १६१, ५२३, ५२४,५५८, ५६०,५६४, १७६, १८६, १६३, १६७, १६८, ५६५, ५६६, ६३८, ६४६, ६५३, २०४, ५६८, ६०३, ६०७, ६५४, ६५७, ६६०, ६६७, ६८६, शतानीक भरतराज २८, १८७, ६८८, ६८६, ६६४, ६६६, ६६७, ,, कौशाम्बी नरेश २३६, ६५६, ६६६, ७०१, शबर २१, ३१, ३२, वैदिक इण्डेक्स २६, १३४, शयंभव ३४०, ३५७, ४८६, ५१७, वैदिक वांमय का इतिहास ५६४ ६८५, ७०४, वैनयिक अंगबाह्य ५८१ शाकल्य ५६८ वैशाली ११४, १८६, १६१, शाण्डिल्य ६०, ६८५, २२८, २२६ श्रादि, ५३६, ६६२, शान्तिराज ए० २६६ वैश्रमणोपपात ५६३, शान्तिसूरि ३७३, ५०३, ७१०, व्यवहारसूत्र ४००, ५४५, ५६२, शिव पुराण १७७ ५६४, ६३४, ६६५, ७००, शिवभूति ३८८ व्याख्या प्रज्ञप्ति ५६३, ६२५, शिशुनाग वंश ३१६, ३२०, ३२१, ६५५ श्रादि, ३२२, ३५१, व्याघ्रभूति ५६७, शीलाङ्क २२७, ३६७, ४११, ४१६, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६, ४६३, ४७०, ४७१, ५०७, संस्कृत निर्वाण भक्ति २२६ ६३५, ६३६, ६३७, ६३६, ६४४ संस्तारक ७१११, शुबिंग ७०१ सच्चक निगंठ पुत्त ४३१, ४४८, शुभशील ४६७ टि०, शूरसेन ५० सतीशचन्द्र काला १०४ । शौरिपुर १७२ सतीशचन्द्र विद्या भूषण ४७६, श्यामाचार्य ५१७, सत्य केंतु विद्यालंकार ३४३ श्यामार्य ६८५, ६६१, सत्य प्रवाद पूर्व ६२६, ७०३ श्रवणबेल गोला ३४४, ३४५, सन्दक परिव्राजक ४३१ . ३४६, ३५१, ३५३, सन्देह विषौषधि ६६६ श्रावस्ती २२०, ४४७, ६६०, सप्त सिन्धव १०, ११, १३, १४, श्वेतकेत ६७, ६८,८७, ५६४, समय सुन्दर गणि ४६८, ५१० श्वेताश्वतर उप० ३४, ५४, ५८, समवायाङ्ग सूत्र २७२, ५५६, १००, २०७, २०८, ५६६, ५६०, ५६३, ६५०, ६५१, ६५३, श्रुतसागर सूरि २६७, ६७८, ६५४, ६६४, ६६७, ६६६, ६७३, षट खण्डागम ५४६, ५५३, समुत्थान श्रुत ५६३ ५५८, ६११, ६१५, ६१६, ६२१ समुद्र ६८५, ६२१, ६२३, ६७२, सम्प्रति ३४४, ३५८, ३५६, ३६० षड् गुरु शिष्य ५६५ षष्ठि तंत्र ६८७, सम्बुल जातक १८८ संघ दास वाचक ७०१ सर जान मार्शल १०४ संजय बेल द्विपुत्त २१७ सरस्वती गच्छ पट्टावली २८८, संबोध प्रकरण ४२४ २६१, संभूति विजय ३४०, ३५७, ३५८, सर्वार्थ सिद्धि टीका ६०८, ६३४, ४८६, ५३६, ५४० आदि, ५७०, सहस्रानीक ६५६, ६८५ सांख्यकारिका २१०, ५६५, ५६७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१ ) सांख्यायन श्रौत सूत्र १७६ सूत्र ( दृष्टिवाद का भेद ) ५८४, सात्य मुनि ५६६, ६००, . ६२५, ६४४, सामवेद ३५, ६३, ५६४, ५६६, सूत्र कृतांग १६४, २२७, ४०१, ४६०, ४६१, ४६३, ४७८, ५६२, साभामिक ६८० ६३७, ६३८, ६४३, ६५३, ६७६, सासा चारी शतक ४६८, ५१० सूर्य प्रशति ५७८, ५८०, ६२४, सायण ११, १२, ५२, ६०, ६१, ६४८, ६६२, १११, ११८, सेन प्रश्न ५३०, सेनापति सिंह २२८ सायण भाष्य १८ सिद्ध सेन ४७६ सौवीर २३६, २३७ सिद्ध सेन गणि ४२१, ५८८, स्कन्द पुराण १२०, १७३, ६०२, ५६३, ५६४, ५६५, ५६८, ५६६, स्कन्दिल सूरि ४६७, ५००, ५०१, ६००, ६०२, ६०५, ६०८, ५०२, ५०६, ५०६, ५१०,५११, सिद्धार्थ ३४६, ६८५, सिंह ६८५, स्थविर स्थूल ३७६, ३७७ आदि सुत्तनिपात ७०५ स्थानाङ्ग सूत्र २८०, ३८६, ४१४, सुदास १४, १५, ४७ ५६३, ५७५, ६४५, ६५०, ६५३, सुधर्मा २७१, २७४, ३३८, ३३६, ६६४, ६६७, ६६६, ६७३, ३४०, ३४१, ३५७, ५१७, ५२६ स्थानांग वृत्ति ४१८, ६५१ आदि, ५३२, ५३४,६३६, ६४०, स्थूल भद्र ३४०, ३५७ श्रादि,. ६८५, ६६१ ३७६ आदि, ४८६, ५१६, ५३४, सुसुनाग ३४१ ५३६ श्रादि, ५५७, ५७०,६८५% सुस्थित ६६१ स्थूल भद्र चरित्र ४६७ टि., सुहस्ती ३४४, ३५७, ३५८, ३६० स्पैंस हार्डी ४४७, ३६१ ३६६, ५५८, ६८५, (६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) स्वप्न भावना ५६३, ५६४, हर्ष वर्धन सम्वत् ३३३ टि., . स्वप्न वासवदत्ता ३२२, ३२३ हल्ल ६५ स्वाति ६८५, ६६१ हलायुध ४७०, ४७१, स्वैदायन ६०३, हारीत ५६५, स्टिवेसन ४८४ हार्नले ३, २८६, ४३२-४३४, हरगोबिन्ददास २६८, २६६, २७० ४५५, ४५६, ४५६, ४६०, ४६३, हर दत्त शर्मा ८४ ४६५, ४६७, ४६८, ४७०, ४७४, हरप्पा ६६, १००, १०५, १०६, हावर डा० १११, ११२, ११६ १०७, ४८१,४८३ हिन्दु सभ्यता १०२ . हरि भद्र सूरि ३८४, ४१८, ४२४, हिमवन्त ६८५, ४६७ टि., ५०३, ५०६, ५२७, हिरण्य गर्भ २३, ११३, ११८, ५६४, ५६५, ६३३, ६६४, ११६, १२०, १७६, हरिवंश पुराण १६५, २८४, हेम चन्द मलधारी ५७७, ६७६, २६४, ३१३, ३३६ टि. ६७४, हेमचन्द्राचार्य २८५, २८६, ६७७, २६०, २६४, २६५, ३१२, ३१३, हरिषेण कथा कोश ३००, ३५१, ३२२, ३२६, ३३०, ३३२, ३४०, ३५३, ३६४, ३६६, ३७१, ३७६, ३४२, ३५७, ३६६, ३७०, ४६६, ३८२, ४६८ ५०६, ५०६, ५४०, ५६६, हर्ष चरित ४३६, ४३७, ४३८, होप किन्स डा० ५१, १३६ ४७५, घुन्सांग १०७, ४७४, हर्ष वर्धन ३३४ टि., Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ लेखनमें उपयुक्त ग्रन्थों की संकेत विवरण पूर्वक सूची अंगुत्तर अनु०. अंतगड अग्निपु० अथर्व० अनगार० टी० अनेकान्त अंगुत्तर निकाय भिक्षु जगदीश काश्यप ___ सम्पादित अनुयोगद्वार सूत्र अागमोदय समिति सूरत अंतगडदसायो गुर्जर ग्रन्थरत्न कार्यालय अहमदाबाद अग्निपुराण आनन्दाश्रम प्रस पूना अथर्ववेद संस्कृत संस्थान बरेली अनगारधर्मामृत टीका माणिकचन्द जैन ग्रन्थ माला बम्बई (वाराणसी) मासिक पत्र वीरसेवा मन्दिर दरिया ___ गंज देहली अभिधानचिन्तामणि टीका अभिधान रत्नमाला मोतीलाल बनारसीदास वाराणसी अभिधान राजेन्द्र अर्ली हिस्ट्री आफ दी वैष्णव सेक्टस् हेमचन्द्रराय चौधरी डा० राधाकुमुद मुकर्जी अभि० चि० टी० अभि० र० अभि० रा० अर्ली हि० वैष्ण अशोक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रा० ना० आउट रि० लि० इं० रि० लि० इ० आक्स ० हि० इ० चार दिनकर श्राचा० नि० श्राचा० शी० टी० श्राचा० सू० श्रा० चू० श्रा० नि० श्राप० परि० आपस्तम्ब धर्मसूत्र आ० पु० श्राय० गुज० O श्राव० टी० मलय ० श्राश्वलायन गृह्य सूत्र Jain Educationa International ( २४ ) आर्यों का श्रादिदेश डा० सम्पूर्णानन्द वाराणसी एन श्राउट लाइन ग्राफ दी रिलीजस लिट् रेचर श्राफ इ० आक्सफोर्ड हिस्ट्री आफ susar चारांग नियुक्ति शीलांकीका सहित श्राचारांग सूत्र शीलांक टीका आचारांग सूत्र श्रावश्यक चूर्णि श्रावश्यक नियुक्ति पस्तम्ब परिभाषा श्रादि पुराण क्योंलॉजी ग्राफ गुजरात श्रावश्यक टीका मलय गिरि J. N. FARGU HAR श्रामोदय समिति Ta ग्रामोदय समिति बम्बई ग्रामोदय समिति सूरत ऋषभ देव केशरीमल रतलाम श्रामोदय समिति सूरत बम्बई संस्कृत सिरीज भारतीय ज्ञानपीठ काशी एच० डी० संकलिया जीवनचन्द साकरचन्द वेरी बाजार ब जीवानन्द विद्यासागर कलकत्ता For Personal and Private Use Only Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५ ) श्रानन्दाश्रम प्रेस पूना अश्वलायन श्रोत सूत्र इ० इ० रि० ॥ इन्साइ० इ० रि० प्रथम संस्करण इन्साइक्लोपिडिया इथिक्स एण्ड रिलीजन इण्डियन एण्टीक्वेरी इण्यिन थीज्म मैकनिकल इन्डि० एण्टि० । इ० थीज्म इण्डियन कल्चर इ० पा० इण्डिया ऐज नोन टु डा. वासुदेव शरण पाणिनि अग्रवाल इण्डियन फिलोसॉफी डा० राधाकृष्णन् इण्डो आर्यन रेसेस रा० ब० रामप्रसाद चन्दा इ० श्रा० रे० इ० से० ० ईशावा० उ० उत्त० । उत्तरा० । उ० पु० । उत्तर पु० । उपदेश पद वृत्ति इण्डियन सैक्ट श्राफ दी बुहलर - जैनास् ईशावास्योपनिषद् उपनिषदाङ्क गीताप्रेस गोरखपुर उत्तराध्ययन सूत्र सेठ क्षेभचन्द्र पुष्पचन्द्र नेमिचन्द्र रचित वृत्ति वलाद सहित निर्णय सागर प्रेस बम्बई उत्तर पुराण . भारतीय ज्ञानपीठ काशी मुनि चन्द्र रचित मुक्ति कमल जैन मोहन माला बड़ौदा आनन्दाश्रम मुद्रणालय पूना हितचिन्तक प्रेस बनारस ऋग्वेद ऋग्वेद भूमिका १६३३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) ऋषिमण्डल पद्म सुन्दर रचित बृचि सहित एतरे० श्रा० सा० भा० एतरेय आरण्यक सायण अनन्दाश्रम मुद्रणालय भाष्य पूना एत० ब्रा० एतरेय ब्राह्मण अानन्दाश्रम मुद्रणालय पूना एशि० इ० एशियंन्ट इण्डिया , रा० ब० कृष्ण स्वामी प्रायंगर एशि० इ० एशियन्ट इण्डिया पार० सी० मजूमदार श्रौप० सू० औपपातिक सूत्र पं० भूरामल अहमदा _ वाद प्रकाशित पोरन लोकमान्य बालगंगाधर तिलक कठ० उ० कठ उपनिषद् गीताप्रेस गोरखपुर क० पा० कसाय पाहुड जैन संघ मथुरा कर्मकाण्ड कर्मकाण्ड गोम्भटसार रायचन्द शास्त्रमाला प्रगास क० व० भा० कलक्टेड वर्क्स आफ डा० पार० जी० भण्डारकर पूना क० सू० । कल्प सूत्र सुबोधिनी टीका कल्प सू० सहित का० वृ० काशिका वृत्ति किरातार्जुनीय मल्लिनाथीय टीका सहित निर्णयसागर प्रेस बम्बई कुमार संभव निर्णयसागर प्रेस बम्बई कूर्म पु० कूर्म पुराण मनसुखलाल मोर कलकत्ता Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कै. हि० कौषीतकी ब्राह्मण गरुड पु० गी. कैम्ब्रिज हिस्ट्री अाफ इण्डिया कैम्ब्रिज १६३५ उपनिषदांक गीता प्रेस गोरखपुर गरुड पुराण भगवद्गीता गीता रहस्य लोकमान्य बाल गंगाधर तिलककृत छठा संस्करण गोम्मटसार कर्मकाण्ड रायचन्द शास्त्र माला अगास गोम्मटसार जीवकाण्ड गी०र० गो० क० गो० जी० गोपथ ब्राह्मण गौतम धर्मसूत्र ग्लि० पो० हि० श्रानन्दाश्रम प्रेस पूना ग्लिम्प्सेस श्राफ पोलिटिकल हिस्ट्री छान्दग्योपनिषद् छा० उ० रतिलाल मेहता उपनिषदांक गीता प्रेस गोरखपुर ज० डि० ले ज० ध० जर्नल ऑफ डिपार्ट मेण्ट श्राफ लेटर्स जयधवला-कसाय पाहुड टीका जम्बुद्वीप पण्णति भा० जैन संघ मथुरा जीवराज ग्रन्थमाला शोलापुर ज०प० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज० रा० ए० सो० ज० वि० उ०रि० सो० जै० ना० इ० जै० शि० सं० जै० सा० इ० जै० सा० इ० गु० जै०. सि० भा० जै० सा० वि० जै० सा० स० जै० हि० ज्योति० टी० ज्योतिर्विदाभरण तत्वार्थ ० त० भा० टि ति० प० त्रि० प० ति० प० तै० } ० प्रा० Jain Educationa International ( २८ ) जर्नल आफ रायल एशियाटिक सोसायटी जर्नलाफ विहार उड़ीसा रिसर्च सोसायटी पटना जैनिज्म इन नार्दर्न susar जैन शिला लेख संग्रह जैन साहित्य र इतिहास जैन साहित्यनो इतिहास गुजराती जैन सिद्धान्त भास्कर जैन साहित्य में विकार जैन साहित्य संशोधक जैन हितैषी ज्योतिष्करण्ड टीका तत्वार्थ वार्तिक तत्वार्थ भाष्यटीका तिलोय पण्यत्ति तित्था गाली पन्ना तैत्तिरीयारण्यक चिम्मन लाल शाह माणिकचन्द ग्रन्थमाला श्रीनाथूराम प्रेमी बम्बई जैन श्वे० कान्फ्र बम्बई जैन सिद्धान्त भवन चारा पं० वेचरदास दोशी पूना से प्रकाशित हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय बम्बई रतलाम संस्काण For Personal and Private Use Only भारतीय ज्ञानपीठ काशी देवचन्दलाल भाई ग्रन्थमाला जीवराज ग्रन्थमाला शोलापुर श्रानन्दाश्रम मुद्रणा लय पूना Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) तैत्तिरीय उपनिषद् तै० उ० ) तैत्ति० उ. तैत्ति० ब्रा० तैत्तिरीय ब्राह्मण उपनिषदांक गीताप्रेस गोरखपुर अानन्दाश्रम मुद्रणालय पूना तै० सं त्रि० सा० तैत्तिरीय संहिता त्रिलोकसार द० सा० दर्शन सार दशभक्ति दशभ० दिग्घनिकाय माणिकचन्द ग्रन्थ. माला भा० ज्ञानपीठ वाराणसी) जैनग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय बम्बई सोलापुर संस्करण महाबोधि सभा सारनाथ काशी सेठ शितावराय लक्ष्मीचन्द भेलसा ( विदिशा) आगमोदय समिति धवला षट् खण्डागम के अन्तर्गत नन्दिसूत्र नन्दि० नन्दि चूर्णि नन्दि टी० न० पट्टा० नन्दिटीका नन्दिसंघ पदावली नागरी प्रचारिणी पत्रिका अागमोदय समिति जैन सिद्धान्त भास्कर में प्रकाशित नागरी प्रचारिणी सभा वाराणसी गुर्जर ग्रन्थरत्न कार्यालय अहमदावाद निर्णय सागर प्रेस बम्बई निर्णय सागर प्रेस बम्बई निरया० निरयावलियाअो निरुक्त नैषध काव्य Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३० ) पउमचरिउ पञ्चवस्तुक पउम० पञ्चत्र विमल गणि रचित जीवनचन्द शाकर चन्द . जवेरी बम्बई पञ्च ब्रा० पञ्चा० विव० पञ्चविंशति ब्राह्मण पञ्चाशक विवरण निर्णय सागर प्रेस बम्बई से मुद्रित वीरमगांव (गुजरात) हेमचन्द्राचार्य प्रणीत पट्टावली समुच्चय परिशिष्ट पर्व पट्टा० समु० परि० प० । प० प० । पा० चा० पार्श्वनाथका चातुर्याम हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर बम्बई पा० भा. पा० महा० पा० स० म० पाणिनिकालीन भारत मोतीलाल बनारसी दास काशी पातञ्जल महाभाष्य निर्णयसागर प्रेस बम्बई पाइअसद्दमहराणव पं० हरगोविन्द दास कलकत्ता पाली टीका परमत्थ जोतिका पीप इन टु अर्ली हिस्ट्री भाण्डारकर लेख संग्रह पूना, जि० १ पो. हि० एं० इ० राय चौधरी प्रज्ञा० पोलिटिकल हिस्ट्री श्राफ एंशियन्ट इंडिया प्रज्ञापना ( मलयगिरिटीका सहित ) प्रवचन सारोद्धार प्रव० सारो श्रीनेमिचन्द्राचार्य रचित Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोपनिषद् उपनिषदांक गीता प्रेस गोरखपुर प्रा० भा० सं० इ० स्व. रमेशचन्द्रदत्त प्री० बु० इ० फि० प्राचीन भारत की सभ्यता का इतिहास हिस्ट्री श्राफ प्री बुद्धि-स्टिक इंडियन फिलॉसोफी प्री हिस्टोरिक एशियन्ट एण्ड हिन्दू इण्डिया डा० बरुश्रा प्रीहि० ३० डा० राखलदास बनर्जी प्रेमी अभिनन्दन ग्रन्थ प्रो० रा. ए. सो. बं. प्रोसीडिंग्स् रायल एशियाटिक सोसायटी श्राफ बंगाल बुद्धिस्ट इण्डिया बुद्धचर्या बोधपाहुड बु०३० बु० च० बोधपा० बौधायन धर्म सूत्र रे डेविड्स । राहुल सांकृत्यायन . षट् प्राभृतादि संग्रहान्तर्गत मा० ग्रन्थ मा० चौखम्बा संस्कृत सिरीज वाराणसी प्राचार्य नरेन्द्रदेव मनसुखलाल मोर शोलापुर संस्करण श्री जैन भास्करोदय प्रेस जामनगर बौ० ध० द. ब्रह्माण्डपु० भ० प्रा० भ० सू० अभयटी० बौद्धधर्म और दर्शन ब्रह्माण्ड पुराण भगवती अाराधना भगवती सूत्र अभयदेव टीका सहित Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) भद्रबाहु चरित्र जैन भारती भवन पं० उदयलाल कृत अनुवाद बनारस भरतेश्वर बाहुबलि वृत्ति भा० अनु० भारतीय अनुशीलन हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग भा० श्रा हि० भा० इं० पत्रिका भा० इ० रू० भा० पु० भा० प्रा० भारतीय आर्यभाषा और डा० सुनीतिकुमार चटर्जी हिन्दी अन्नल्स आफ दी भण्डारफर रिसर्च इन्स्टीट्यूट पूना भारतीय इतिहास की जयचन्द विद्यालङ्कार रूपरेखा ( प्र० सं० ) श्री मद्भागवत पुराण निर्णयसागर प्रेस बम्बई भाव प्राभृत (षट्प्राभू- मा० जैन ग्रन्थमाला तादि संग्रह) भारत के प्राचीन राजवंश हिन्दी ग्रन्थरत्नाकर बम्बई भारतीय विद्याभवन बम्बई भाव संग्रह माणिकचन्द ग्रन्थमाला भारतीय संस्कृति और हिन्दी ग्रन्थरत्नाकर बम्बई अहिंसा मज्भिमनिकाय महाबोधि सभा सारनाथ मनुस्मृति चौखम्भा संस्कृत सिरीज वाराणसी भा० प्रा० रा० भारतीय विद्या माव सं० भा० सं० अ० म०नि० मनु० महानारायण उपनिषद् Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३ ) भिक्षु धर्म रक्षित संपादित महापरिनिव्वाण सुत्त महावंश मार्कण्डेय पुराण माडर्न रिव्यु मुण्ड० उ० मूला० मै० सं० मैत्रायणी उपनिषद् मनसुखलाल मोर कल. प्रवासी प्रेस कलकत्ता मुण्डकोपनिषद् गीता प्रेस गोरखपुर मूलाचार माणिकचन्द ग्रन्थमाला मैत्रायणी संहिता स्वाध्याय मण्डल खेतान उपनिषदांक गीता प्रस गोरखपुर मोहेंजोदड़ो तथा सिन्धु नागरी प्रचारणी सभा सभ्यता मौर्य साम्राज्य का डा. सत्यकेतु विद्यालंकार इतिहास मो० सा० ___ काशी मौ० सा० इ० योग शास्त्र वृत्ति हेमचन्द्राचार्य यजुर्वेद योग योग दर्शन रत्न० श्रा० राज० इति० रि० इ. रि० इ० रि० फि० वे. रत्नकरण्ड श्रावकाचार माणिकचन्द ग्रन्थमाला राजस्थान का इतिहास हीराचन्द गौरीशंकर अोझा रिलीजन श्राफ इण्डिया प्रो० हापकिन्स रिलीजन श्राफ इण्डिया ए० बार्थ रिलीजन एण्ड फिलॉ- ए० बी० कीथ सोफी आफ दी वेद लघुजातक मास्टर खिलाड़ी लाल बनारस ल० जा० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिङ्ग पुराण लो० प्र० लोकप्रकाश मनसुखलाल मोर जीवनचन्द साकरचन्द जवेरी बम्बई मनसुखलाल मोर कलकत्ता वायु पुराण वाराह पुराण विनय पि० विनय पिटक महाबोधि सभा सारनाथ काशी वियना ओरियन्टल जर्नल वि० प्र० विधि मार्ग प्रथा मुनि जिन विजय सम्पादित वि० श्रे० बिचार श्रेणि विचार श्रे० विशे० भा० विशेषावश्यक भाष्य यशो विजय ग्रन्थ माला वि० भा० काशी विष्णु पु० विष्णु पुराण गीताप्रेस गोरखपुर वी०नि० स० जै० का० वीर निर्माण सम्बत और मुनि कल्याण विजय जैन काल गणना वृ० क० को हरिषेण कृत वृहत्कथाकोश सिन्धि सिरीज भारतीय हरि० क० को० विद्या भवन बम्बई वृ० जा० बृहज्जातक वेङ्कटेश्वर प्रेस बम्बई वृ० सं० बृहत्संहिता सुब्रम्हण्य शास्त्री वेंगलोर बृह० उप० बृहदारण्यक उपनिषद् उपनिषदांक गीता प्रेस गोरखपुर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५ ) वेदान्त सूत्र वै० इ० वै० ए० वैदिक एज वै० वा० इ० वै० सा० व्य० सू० शत० ब्रा० शै० वै० श्र० भ० म० वैदिक इन्डेक्स मोतीलाल बनारसीदास काशी भारतीय इतिहास समिति वैदिक वाङ्गय का इतिहास भगवदत्त लाहौर वैदिक साहित्य भरतीय ज्ञानपीठ काशी व्यवहार सूत्र अहमदाबाद संस्करण शतपथ ब्राह्मण शैविज्म वैष्णविज्म एण्ड डा० भण्डारकर माइनर रिलीजस सिस्टम श्रमण भगवान महावीर मुनि कल्याण विजय लिखित श्वेताश्वतर उपनिषद् गीता प्रेस गोरखपुर षट वण्डागम सेठ सिताबराय लखमी चन्द भेलसा षट् प्राभृत टीका माणिक चन्द जैन ग्रंथ माला काशी सटीका चत्वारि कर्मग्रन्थाः अात्मानन्द जैन ग्रंथ माला भावनगर समवायांग सूत्र श्रागमोदय समिति बम्बई सागार धर्माभृत माणिक चन्द ग्रंथमाला श्वे० उ० षट् खं० घट प्रा० टी० स० च० क. सम० सू०) सम वां सागार० काशी सामाचारी शतक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सि० कौ० सूत्र सूत्र० नि० सूत्र० शी० टी० सहित सूत्र प्रा० से• बु० इ० सेन० स्कन्द पुराण स्ट० ० सिद्धांत कौमुदी सूत्रकृताङ्ग सूत्रकृताङ्ग नियुक्ति सूत्रकृताङ्ग शीलाङ्ग टीका जैन ज्ञानोदय सोसायटी राजकोट सूत्र प्राभृत (षट् प्राभृता मा० ग्र० काशी दिसंग्रहान्तर्गत ) सेक्रेड बुक्स श्राफ दी ईस्ट सेन प्रश्न मनसुख लाल मोर कलकत्ता स्टडीज इन जैनिज्म डा० हर्मन जेकोवी का लेख संग्रह स्थानाङ्ग सूत्र शीलाङ्क अहमदाबाद से टीका सहित प्रकाशित हरिटेज आफ इंडिया डा० कीथ दी सांख्य सिस्टम हर्षचरित एक अध्ययन विहार राष्ट्र भाषा परिषद् पटना हरिवंश पुराण माणिक चन्द ग्रन्थ माला काशी हार्ट श्राफ जैनिज्म मिसेज स्टिवेन्सन लिखित हिस्ट्री श्राफ इंडियन डा० दासगुप्ता लिखित फिलासोफी स्था० ह० इ० सा० ह० च० हि० इ० फि० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) हि० इ० लि० (विन्टर०) हिस्ट्री श्राफ इंडियन डा० विंटर नीट्स लिखित लिटरेचर हि. ध० हिस्ट्री ऑफ धर्मशास्त्राज् पी० वी० काणे हि० ध० स० हिन्दू धर्म समीक्षा हिन्दी ग्रंथ रत्नाकर वम्बई हि० प्री० इ० वालिस हि० प्री० इ० फि० हिस्ट्री श्राफ प्री बुद्धि- डा० वरुपा स्टिक इंडियन फिला सोफी हि० फि० ई० वे० हिस्ट्री श्राफ फिलासोफी डा० राधाकृष्णन् ईस्टर्न एण्ड वैस्टर्न हि० ब्रा० एसे० हिस्ट्री श्राफ ब्राह्मणिकल पूना ओरियन्टल सिरीज एसेस्टिकसिज्म नं. ६४, १६३६ हि० स० हिन्दू सभ्यता डा० राधा कुमुद मुकर्जी लिखित हिस्ट्री श्राफ इन्डियन डा० सतीशचन्द विद्यालाँजिक भूषण हे० टी० हेतुविन्दु टीका गायकवाड़ अोरियन्टल सिरीज बड़ौदा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि-पत्र হাস समभते अायी विकासक ऋषियो उच्चारण पढता पड़ता रशाल अब्धयु आवश्यको डीहि० प्रजापति शत्रुओं नाक समझते आर्य विकासके ऋषियों उच्चारण पड़ता पढ़ता मशाल अध्वर्यु श्रावश्यक प्रीहि प्रजापति अमृत और हिं० रि० ई० वे पुनर्जन्म सबको प्राचार्य अमत छौर हि० रि० ई० वे० पुनजन्म सबका अचार्य Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) बाहिये मान्थेनः निष्मीलित ब्रायण ज० ए० श्राश्रदाता १११ ११२ ११४ पुरमें चाहिये मन्थिनः निमीलित ब्राह्मण ज० रा० आश्रयदाता पुराणमें निश्चित अकीर्तिकर श्रेयस्कर महावीरः देव...मायामोह संहिता १२५ १४७ १७२ निश्चत श्राकीर्तिकर श्रोयस्कर नहावीरः हदेव मायामो हिसंता रप्रचा पू फूर्व में ली याक्षबल्क्य पुरुषों की १७७ प्रचार १८२ १८७ पूर्व में फली याज्ञवल्क्य पुराणों की परीक्षित प्रमुख परोक्षत १६० प्रभुत्व १६२ १६२ १६४ १६४ पार्श्वनाथ २ ति० प० पहले ( Maller ) प्राक्ततत्त्व अात्मविषवक पार्श्वनाथ १ ति० प० पहले (Mallep) आत्मतत्त्व श्रात्मविषयक २०६ २०६ २१० २११ . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेकट २४३ २५७ २६७ जिन्होने श्रे० श्ररि उयोद्धात समवसक ननी पर्षों ( ४० ) चेटक जिन्होंने श्वे० सूरि उपोद्धात समवयस्क नहीं वर्षों सम्वत् आपत्ति जनक उपचरित चित्त प्रमुख पद्म सुन्दर स्थापित बृहत्कल्प श्रु तकेवली तन्दुल वैचारिक WW. 0G GK FI सम्सत् ३४७ आपत्तिजदक उपबरित त्तिच प्रनुख पद्म मुन्दिर स्थापित कल्पसूत्र श्रु तकवली तन्दुल वैकालिक ४६७ ५१६ ५२७ ५५२ ६७६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पसाढवण DISPसाल TAITRIm जिन ग्रन्थमाला-काशी in one perna e al P ersonal Private Use On Vawwjainelibrary.org: