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________________ ५४८ जै० सा० इ० पू०-पीठिका उत्तर दिया गया कि तीर्थङ्करका कथन संक्षिप्त होता है। वह द्वादशांगरूप नहीं होता। उसको लेकर गणधर सूक्ष्म पदार्थोंका विवेचन करने वाले और महार्थं द्वादशांगकी रचना करते हैं। इसीसे द्वादशांगको सूत्र भी कहते हैं; क्योंकि जो गणधरके द्वारा कहा गया हो वह सूत्र है। उसी प्रकार जो प्रत्येकबुद्धोंके द्वारा, श्रुतकेवालियोंके द्वारा या अभिन्न दसपूर्वियोंके द्वारा कहा गया हो उसे भी सूत्र कहते हैं। चूँकि द्वादशांगकी रचना गणधर करते हैं इस लिए उन्हें सूत्र कहते हैं । ____ जयधव'लामें इस पर यह शंका की गई है कि-'जिसमें अल्प अक्षर हों, सन्देहोत्पादक न हो, जिसमें सार भर दिया हो, जिसका निर्णय गूढ़ हो, जो निर्दोष हो, सयुक्तिक हो और तथ्य १ 'तो सुत्तमेव भासइ अत्थप्पच्चायगं, न नामत्थं । गणहारिणो तं. चिय करेंति को पडिविसेसोऽत्थ ॥११२१।। सो पुरिसाविक्खाए थोवं भणइ न बारसंगाइ । अत्थो तदविक्खाए सुत्त चिय गणहराणं तं १११२२। अंगाइ सुत्तरयणा निरवेक्खों जेण तेण सो अत्यो । अहवा न सेसपवयणहियउत्ति जह बारसंगमिणं ।।११२३।। पवयणहियं पुण तयं जं सुहगहणाइ गणधरेहितो। वारसविहं पवत्तइ निउणं सुहुमं महत्थं च ॥११२४॥' -विशे० भा० २ 'सुत्तं गणधरगथिदं तहेव पत्तेयबुद्धकहियं च । सुदकेवलिणा कहियं अभिण्णदसपुव्वगधिदं च ॥३४॥' -भ० श्रारा० । ३ 'अल्पाक्षरमसंदिग्धं सारवद् गूढनिर्णयम् । निर्दोष हेतुमत्तथ्यं सूत्रमित्युच्यते बुधैः ।' एदं सव्वं वि सुचलक्खणं जिणवयणकमल विणिग्गय अत्थपदाणं चेव संभइ ण गणहरमुहविणिग्गयगंथरयणाए तत्थ महापरिमाणुत्तवलंभादोण सक ( सुत्त ) सारिच्छमस्सिदूण तत्थ वि सुत्ततं पडि विरोहाभावादो।' -ज० ध०, भा० १, पृ० १५४ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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