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________________ ३८० जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका अभाव है। और स्थूलभद्र'को अन्तिम श्रुतकेवली लिखा है। अतः भद्रबाहुके समय उत्तर भारतमें रह जानेवाले मुनियोंके प्रधानके रूपमें स्थूलभद्रका नाम तो इतिहास सिद्ध है। किन्तु सुभिक्ष हो जाने पर जो स्थूलभद्रका पुनः विशाखाचार्यका अनुयायी निम्रन्थ होना बतलाया गया है, वह ठीक नहीं है। स्थूलभद्र तथोक्त स्थविर परम्पराके ही अनुयायी बने रहे और इसीसे उन्हें श्वेताम्बर परम्परामें अग्रस्थान प्राप्त हुआ। हरिषेणने 'रामिल्लः स्थविरो योगी भद्राचार्योऽप्यमी त्रयः' लिख कर उनकी संख्या तीन बतलाई है और आगे 'रामिल्लस्थविर स्थूल भद्राचार्याः' लिखा है। वैसे स्थविर स्थूल भद्राचार्य एक ही व्यक्तिका नाम हो सकता है क्योंकि उक्त स्थूलभद्र आचार्य स्थविर थे और योगी भी थे। उन्होने योगकी प्रक्रियाके द्वारा सिंहका रूप धारण करके अपनी बहनको डरा दिया था। किंतु हरिषेण तीनकी गणना करते हैं, इसलिये भद्राचार्यको पृथक् नाम मान करके उससे जिनभद्र गणि क्षमा श्रमणका ग्रहण होना सम्भव है क्योंकि देवसेनने श्वेताम्बर पक्षके प्रमुखका नाम 'जिनचन्द्र' लिखा है। इसमें 'जिन' नाम है और भद्र या चन्द्र उसका पूरक है। जिनभद्र के सम्बन्धमें हम लिख आए हैं कि वे श्वेताम्बर सम्प्रदायके प्रबल पोषक प्राचीन आचार्योंमेंसे अन्यतम थे । किन्तु उनका समय स्थूलभद्रसे लगभग नौ शताब्दी पश्चात् है। किन्तु संभूथ विजयस्स" अंतेवासी थेरे अज्ज थूलभद्दे "। थेरस्स णं अज थूलभद्दस्स"अंतेवासी दुबे थेरा॥' -क० सू० स्थविः । १-'योगीन्द्रः स्थूलभद्रोऽभूदथान्त्यः श्रुतकेवली ।' -पट्टा० समु०, पृ० २५ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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