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________________ २४६ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका भगवान महावीर नग्न होकर और अपने कन्धे पर देवदूष्य रखकर प्रवजित हुए । उन भगवानका वह वस्त्र आलम्बनमात्र था। मैं इस दिव्य वस्त्रसे अपने शरीरको शीतसे बचाऊंगा या इससे अपनी लज्जा निवारण करूँगा, ऐसी भावना उनकी नहीं थी क्योंकि भगवान तो वस्त्रके विना भी शीत परीषहको सहन करने में समर्थ थे, फिर भी वह वस्त्र उनके कन्धेपर रखा रहा, उसका कारण यह था कि वह उनका धार्मिक कर्तव्य था क्योंकि अतीत कालमें जो तीर्थङ्कर प्रबजित हुए, वर्तमानमें जो प्रबजित होते हैं तथा भविष्यमें जो प्रव्रजित होंगे, उन सबने इसका पालन किया है, । कहा भी है--"सचेल धर्म महान् है, अन्य तीर्थङ्करोंने भी उसका पालन किया है, इसलिये महावीर भगवानने भी कन्धेपर वस्त्र रहने दिया, लज्जाके लिये नहीं।" . इस तरह श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार महावीर स्वामी १३ मास तक चीवरधारी रहे। उसके पश्चात् नग्न दिगम्बर होकर ही विचरे। जब महावीरका जैन संघ दिगम्बर और श्वेताम्बरके रूपमें विभाजित हुआ तो उसके पश्चात् कतिपय मध्यम मार्गी जैनोंने एक तीसरे यापनीय' संघकी स्थापना की थी। यह यापनीय संघ शायद श्वेताम्बरीय आगमोंको मानता था किन्तु नग्नताका --'समणे भगवं महावीरे संवच्छरं साहियं मास चीवरधारी हुत्था, तेण परं अचेलए पाणि पडिग्गहिए ।। ११७ ।। -कल्पसू०-१६ । २--देखो--'यापनीय साहित्य की खोज' जै० सा० इ०, पृ० ४१ से । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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