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प्राचीन स्थितिका अन्वेषण
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- अथर्ववेद (२-५-३) में एक कथा इन्द्रके द्वारा यतियोंका बध किये जानेकी आई है। यह कथा एतरे० ब्रा० (७-२८) और पञ्चविंश ब्राह्मण ( ५३-४-७, ८-१-४ ) में भी आई है। सायण ने उसके भाष्यमें उन यतियोंके बारेमें लिखा है
यतिन-यतयो नाम नियमशीला श्रासुर्या प्रजाः.......यद्वात्र यतिशब्देन वेदान्तार्थविचारशून्याः परिव्राजका विवक्षिताः । (अर्थव०)
'यति माने ब्रत नियमका पालन करनेवाले असुर लोग । अथवा यहां यति शब्दसे वेदान्तके विचारसे शून्य परिब्राजक लेना चाहिये।
पञ्च० ब्रा० की व्याख्यामें सायणने एक स्थान पर यतिका अर्थ 'यजन विरोधीजनाः' किया है और दूसरी जगह 'वेद विरुद्ध नियमोपेताः' किया है। अर्थात् जिन यतियोंको इन्द्रने मारा, वे सव यज्ञ यागादिके विरोधी और वेदविरुद्ध ब्रत-नियमादिका पालन करने वाले थे। ___ऋग्वेदके वातरशन' मुनि, जिन्हें तैना में श्रमण बतलाया है, और इन्द्रके द्वारा मारे गये यति एक ही प्रतीत होते हैं। और इसलिये वेदविरुद्ध नियमादिका पालने करने वाले तथा यज्ञविरोधी नग्न श्रमणोंकी परम्परा का अस्तित्व ऋग्वेद काल तक जाता है।
इसके सिवा 'आश्रम' शब्दकी व्युत्पत्तिके सम्बन्धमें प्रो०
१-श्री मद्भागवतके पञ्चम स्कन्धमें ऋषभदेवका वर्णन करते हुए भी श्रमणोंको 'वातरशन' कहा है। यथा-'वातरशनानां श्रमणानामृषीणाम् ।' २-हि० ब्रा० एसे०, पृ० १६ ।
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