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________________ ६. जै० सा० इ०-पूर्वपीठिका मान्थेनः' का अर्थ ऊर्ध्व रेता किया है । अतः श्रमण नग्न और पवित्र होते थे यह इस वाक्यका अर्थ है। ऋग्वेद (१०-१३६-२ ) में भी मुनियों के विशेषण रूपसे 'वातरशनाः' शब्द आया है। यहां मुनियोंको नग्न या पीले और मैले वस्त्रधारी बतलाया है। यद्यपि तैत्ति० आर० के अनुसार 'वातरशन' शब्दका अर्थ नग्न होता है किन्तु सायण ने इसका अर्थ 'वातरशनस्य पुत्राः' किया है । यथा___'वातरशना वातरशनस्य पुत्रा मुनयोऽतीन्द्रियार्थदर्शिनो तिवाततिप्रभृतयः पिशंगाः पिशंगानिः कपिलवर्णानि मला मलिनानि वल्कल रूपाणि वासांसि बसते आच्छादयन्ति ।" ... किन्तु सायणके इस अर्थको किसी भी प्राच्यविद्याविशारदने मान्य नहीं किया है सबने इसका अर्थ नग्न ही लिया है । विक्रम की नौवीं शतीके जैनाचार्य जिनसेनने अपने महापुराणमें प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेवको वातरशन बतल कर उसका अर्थ नग्न ही किया है । यथा 'दिग्वासा वातरशनो निग्रन्थेशो निरम्बरः'। ऊपरके उद्धरणोंसे स्पष्ट है कि वृहदा० उप, और तैत्ति० बार० के समयमें श्रमण वर्तमान थे ; और वे नग्न तथा उर्धरेता होते थे । यद्यपि तै० आ० में वातरशनाः शब्दका प्रयोग इस रूपमें किया गया है कि वह व्यक्ति वाचक संज्ञा सा प्रतीत होता है किन्तु 'वात है रशन-वेष्ठन जिनका' यह व्युत्पत्ति ही इस शब्दका आधार जान पड़ती है। अतः ये नग्न मुनि ऋग्वेदकाल में भी मौजूद थे। ... १-वै० ई० में वातरशन शब्द, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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