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________________ ६२ विटर नीट्स ने जो प्रकाश डाला है वह भी इस पर विशेष प्रकाश डालता है । वह' कहते हैं enter जै० ० सा० इ० - पूर्व पीठिका 'जिस 'श्रम' धातु से 'श्रमण' शब्द बना है उसीसे 'आश्रम' शब्द भी निष्पन्न हुआ है । अतः प्रारम्भ में 'आश्रम' शब्द शायद श्रमणों के धार्मिक कृत्य का सूचक था । उसीके कारण यह शब्द धार्मिक कृत्यके स्थानका भी सूचक हुआ ।' अतः 'आश्रम' शब्दका सम्बन्ध भी मूलतः श्रमणोंसे ही जान पड़ता है । और इससे श्रमण परम्परा एक प्रभावशाली प्राचीन परम्परा प्रमाणित होती है । भ० महावीरका सम्प्रदाय निग्रन्थ सम्प्रदाय कहा जाता था क्योंकि उनके अनुयायी साधु बाह्य और अन्तरंग ग्रन्थ ( परिग्रह ) से रहित होते थे । इससे यह स्पष्ट है कि निर्ग्रन्थ परम्परा साधु परम्परा थी और निर्ग्रन्थ धर्म साधुओं का धर्म था । अतः महावीरके अनुयायी साधु जो परिव्राजक, संन्यासी, तपस्वी आदि न कहलाकर श्रमण ही कहलाये, इसमें अवश्य ही कुछ विशिष्ट कारण होना चाहियेऔर वह विशिष्ट कारण यही हो सकता है कि श्रमण परम्परा अपना कुछ वैशिष्ट्य रखती थी- जो वैशिष्ट्य केवल तत्कालीन नहीं था, किन्तु परम्परागत था; क्योंकि ब्राह्मण ग्रन्थोंमें जो श्रमणों और तापसोंका प्रथम बार उल्लेख मिलता है। उससे यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ब्राह्मण काल में तापसों और श्रमणोंकी संस्था प्रकाशमें आई, या ब्राह्मणलोग इनके परिचयमें आये, न कि तापस और श्रमण सम्प्रदायका जन्म हुआ । प्रायः सभी विदेशी लेखकोंने वैदिक साहित्य में पीछेसे प्रविष्ट १- हि० ब्रा० एसे०, पृ० १४ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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