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जै० सा० इ० पू० पीठिका
लब्ध आता है उसे लब्ध्यक्षर में मिला देने से पर्यायज्ञानका प्रमाण होता है । पुनः पर्याय ज्ञान में सब जीवराशि का भाग देने पर जो भाग लब्ध आवे उसे उसी पर्याय ज्ञान में मिला देने पर पर्याय समास ज्ञान होता है । अन्तिम पर्याय समास ज्ञान में सब जीव राशि का भाग देने पर जो लब्ध आवे उसे उसी में मिलाने पर अक्षर ज्ञान होता है । यह अक्षर ज्ञान सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्त के अनन्तानन्त लब्ध्यक्षरों के बराबर होता है ।
अक्षर के तीन भेद हैं- लब्ध्यक्षर, निर्वृत्यक्षर और संस्थानाक्षर । सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक से लेकर श्रुतकेवली पर्यन्त जीवों के जितने क्षयोपशम होते हैं उन सबकी लब्ध्यक्षर संज्ञा है । जघन्य लब्धक्षर, सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक के होता है और उत्कृष्ट चौदह पूर्वधर के होता है। एक अक्षर से जो जघन्य श्रुत ज्ञान उत्पन्न होता है वह अक्षर श्रुत ज्ञान है । इस इस अक्षर के ऊपर दूसरे अक्षर की वृद्धि होने पर अक्षर समास नामक श्रुत ज्ञान होता है । इस प्रकार एक एक अक्षर की वृद्धि होते हुए संख्यात अक्षरों की वृद्धि होने तक अक्षर समास श्रुत. ज्ञान होता है ।
संख्यात अक्षरों को लेकर एक पदनामक श्रुत ज्ञान होता है । पद' के तीन भेद हैं - अर्थ पद, प्रमाण पद और मध्यमपद । जितने से अर्थ का ज्ञान हो, वह अर्थपद है । अर्थ पद के अक्षरों
१ - 'तिविहिं पदमुद्दिहं पमाणपद मत्थ मज्झिमपदे च । मज्झिम पदेण त्रुत्ता पुव्वंगांणं पद विभागा ॥ १६ ॥ बारस सद कोडी तेसीदि. हवंति तह ह लक्खाइं । अट्ठावरण सहस्सं पंचेव पदाणि सुदणाणे | २०१
- ष०, पु०, १३, पृ० २६६:
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