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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका के इस मतिको यों ही सत्य मान लेना चलता व्यवहार सा हो गया है । विशेषकर कितने ही जैन धर्मको तेईसवें तीर्थङ्कर श्री पार्श्वनाथ के पहले प्रचलित माननेमें भी आनाकानी करते हैं, अर्थात् वे लगभग नौवीं शती ईसा पूर्वतक ही जैन धर्मका अस्तित्व मानना चाहते हैं । प्राचीनतम युगमें मगध यज्ञ यागादिमय वैदिक मतके क्षेत्रसे बाहर था । तथा इसी मगधको इस कालमें जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म की जन्म भूमि होनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ है । फलतः कितने ही विद्वान् कल्पना करते हैं कि इन धर्मों के प्रवर्तक आर्य नहीं थे। दूसरी मान्यता यह है कि वैदिक आय के बहुत पहले आर्योंकी एक धारा भारतमें आई थी और आर्यों पूरे भारतमें व्याप्त हो गये थे। उसके बाद उसी वंशके यज्ञ यागादि संस्कृति वाले लोग भारतमें आये, तथा प्रार्च न वैदिक आर्योंको मगधकी ओर खदेड़कर स्वयं उसके स्थानपर बस गये । आर्योंके इस द्वितीय आगमनके बाद ही सम्भवतः मगधसे जैन धर्म का पुनः रप्रचा आरम्भ हुआ तथा वहींपर बुद्ध धर्मका प्रादुर्भाव हुआ।
३००२-५०० ईसा पूर्वमें ली फली 'सिन्धु कछार सभ्यता के भग्नावशेषोंमें दिगम्बर मत, योग, वृषभपूजा तथा अन्य प्रतीक मिले हैं, जिनके प्रचलनका श्रेय आर्यों अर्थात् वैदिक आर्योंके पूर्ववर्ती समाजको दिया जाता है। आर्यपूर्व संस्कृतिके शुभाकाक्षियोंकी कमी नहीं है, यही कारण है कि ऐसे लोगों में से अनेक लोग वैदिक आयोंके पहलेकी इस महान् संस्कृतिको दृढ़ता पूर्वक द्रविड़ संस्कृति कहते हैं। मैंने अपने 'मूल भारतीय धर्म' शीर्षक निबन्धमें सिद्ध कर दिया है कि तथोक्त अवैदिक लक्षण ( यज्ञ यागादि ) का प्रादुर्भाव अथर्ववेदकी संस्कृतिसे हुआ है। तथा मातृदेवियों वृषभ, नाग, योग, आदिकी पूजाके बहु संख्यक
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