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________________ ३५६ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका हैं और इसलिये भद्रबाहु श्रुतकेवलीका चन्द्रगुप्त मौर्यके काल में होना सिद्ध है। ऊपरके समस्त विवेचनके आधारपर यह मानना पड़ता है कि आचार्योंकी काल गणनामें अवश्य ही कुछ भूल है। यद्यपि दि० जैन ग्रन्थों और पट्टावलियोंमें जो वीर निर्माणके पश्चात् होनेवाले जैनाचार्योंकी काल गणना दी है, जिसके अनुसार वीर निर्वाणके पश्चात् ६८३ वर्ष तक अंगज्ञानकी परम्परा चालू रही, वह सर्वत्र एकरूप पाई जाती है, उसमें ऐसी गुंजाईश नहीं दिखाई पड़ती, जिसके आधार पर कुछ वर्षों की भूल प्रमाणित की जा सके। किन्तु नन्दिसंघकी प्राकृत पट्टावली अन्य सब पट्टावलियोंसे विलक्षण है और प्राचार्योंके काल निर्णयमें यदि उसका उपयोग किया जाये तो भद्रबाहु श्रुतकेवली और चन्द्रगुप्त मौर्यकी समकालीनता बन सकती है, किन्तु है वह क्लिष्ट कल्पना ही। अन्य दि० जैन ग्रन्थोंके अनुसार महावीर निर्वाणके पश्चात् लोहाचार्य तक ६८३ वर्ष पूरे होते हैं। किन्तु नन्दि पट्टा० के अनुसार वीर निर्वाणसे लोहाचार्य तक ५६५ वर्ष ही होते हैं। इस तरह दोनों काल गणनाओंमें ११८ वर्षका अन्तर है। किन्तु यह अन्तर केवल एकादश अंगधारी तथा अन्य जैन ग्रन्थोंके अनुसार आचारागंधारी किन्तु नन्दि पट्टा० के अनुसार दस नौ आठ अंगधारी आचार्योंके हो कालमें है। ३ केवली, ५ श्रुतकेवली और ११ दस पूर्वधारी आचार्योकी काल गणनामें कोई अन्तर नहीं है। किन्तु यदि इस ११८ वर्ष में से जो नन्दि पट्टा० के अनुसार अर्हद्बलिसे लेकर भूतवलि पर्यंत पाँच आचार्योको दिये गये हैं-५० वर्ष पाँच श्रुतकेवलियों में सम्मिलित कर दिये जायें तो आचार्य कालगणनाके अनुसार भी श्रुतकेवली भद्रबाहु और चंद्रगुप्तमौर्यकी समकालीनता Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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