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श्रु तपरिचय म्परामें भी ये बीस भेद कर्म ग्रन्थमें ही मिलते हैं । इससे कार्मिकों की परम्परासे इन भेदोंका सम्बन्ध ज्ञात होता है। दिगम्बर साहित्यसे तो कार्मिकों और सैद्धान्तिकोंकी परम्पराका भेद परिलक्षित नहीं होता। किन्तु श्वेताम्बर साहित्यसे तो दोनों परम्पराओंके अस्तित्व तथा मतभेदोंपर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है
और ऐसा प्रतीत होता है कि ये दोनों परम्परायें अनेक अंशोंमें स्वतंत्र थीं, तथा सैद्धान्तिकोंसे कार्मिकोंकी परम्परा । प्राचीन होनेके साथ ही साथ प्रामाणिक मानी जाती थी। संभव है कि कार्मिक परम्परा पूर्वविदोंके उत्तराधिकारियोंकी परम्परा हो । इस विषयमें अन्वेषणकी आवश्यकता है । अस्तु,
श्रतज्ञानके इन बीम भेदोंको देखकर एक शंका होना स्वा. भाविक है । वीरसेन' स्वामीने स्वयं उस शंकाको उठाकर उसका जो समाधान किया है उसे यहां देते हैं- शंका-चौदह प्रकीर्णक अध्याय रूप अंगबाह्य, आचार
आदि ग्यारह अंग, परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग और चूलिका, इनका अन्तर्भाव श्रुतज्ञानके उक्त भेदोंमेंसे किसमें होता है ? अनुयोगद्वार या अनुयोगद्वार समास ज्ञानमें तो इनका अन्तर्भाव नहीं हो सकता क्योंकि ये दोनों प्राभृत श्रुतज्ञानसे बंधे हुए हैं। प्राभृत प्राभृत या प्राभृत प्राभृत समासमें भी इनका अन्तर्भाव नहीं हो सकता; क्योंकि ये दोनों पूर्वगतके अवयव हैं। परन्तु परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, चूलिका और एकादश अंग पूर्वगतक अवयव नहीं हैं ? इस लिये इनका
१-षट्खं. पु. १३, पृ. २७६ ।
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