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जै० सा० इ० - पूर्व पीठिका
और यह प्राचीन पद्धति पुनर्जन्म के सिद्धान्तकं प्रभावसे परिवर्तित हो गई जिसका श्रेय भारतीय जलवायुको है । ( के० हि०, जि. १, पृ० १०७ ) ।
वैदिक आर्योंका यह विश्वास तो था कि शरीरके बाद भी आत्मा जीवित रहता है । इसीसे वे डरकर अपने पुरखों के भूतोंको पूजते थे। किन्तु भविष्य जीवन कभी समाप्त नहीं होता और आत्मा अमर है, ऐसा स्पष्ट विचार आर्यों का होना सन्दिग्ध ही है ।
अतः वे मरणोत्तर जीवनके सम्बन्ध में विशेष उत्सुकता नहीं रखते थे । फिर भी ऋग्वेद में यत्र तत्र उसकी झलक मिलती है । जैसे दसवें मण्डलमें देवयान और पितृयानका निर्देश है । इसपर से यह अनुमान किया जा सकता है कि इसके द्वारा परलोक में जानेका मार्ग सूचित किया है। एक स्थानपर कहा है कि मृत्युके बाद मनुष्य यमके राज्यमें चला जाता है, जहाँ यम और पितृगण अमरत्वके आनन्द के बीच निवास करते हैं। यज्ञ तथा देवोंकी पूजाके द्वारा ही उस स्वर्ग में जाया जा सकता है (ऋ० १०-१४-८)|
ऋग्वेद ( १०- १६- ३ ) में जहाँ मृतात्मासे अन्य स्थानों में जानेके लिए कहा गया है, पुनर्जन्मके बीज कोई विद्वान मानते हैं । इस विषयक समर्थक प्रमाणोंकी इतनी न्यूनता है कि डा० रूथने यही मान लिया कि वैदिक ऋषि मरणोत्तर विनाशवादी थे । पुनर्जन्मके विश्वासका स्पष्ट निर्देश तो ब्राह्मण ग्रन्थोंमें ही मिलता है ।
ऋग्वेदकालीन आर्य तो इसी लोकके आनन्दके लिये उत्सुक रहते थे। तभी तो ऋवेद दीर्घजीवन, रोगमुक्ति, वीरसन्तान, धन, शक्ति, खान-पानकी बहुतायत, शत्रुओंकी पराजय आदि इहलौकिक सम्बन्धी प्रार्थनाओं से भरा हुआ है । (वै० इं०, जि० २,
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