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________________ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका जातिके रूपमें थे, सो इन्द्र भी एक योद्धा देवताके रूपमें वणित हैं। अनेक ऋचाओंमें वृत्रके साथ इन्द्रके युद्धका वर्णन है। इन्द्र केवल वृत्रसे ही नहीं लड़ा, किन्तु अन्य भी अनेक दुष्टोंसे लड़ा। इतिहासज्ञोंका मत है कि इन्द्रकी यह लड़ाइयाँ उन लड़ाइयोंकी सूचक हैं जो आर्योंको भारतमें बसने पर यहाँके वासियोंसे लड़ना पड़ी थीं ( विन्ट० हि० लि०, पृ०८४)। __बादके साहित्यमें एक सुसंस्कृत जातिके अनेक उल्लेख पाये जाते हैं, जो असुर कहलाती थी। ये असुर सभ्य पुरुषोंके रूपमें माने गये हैं। किन्तु भारतीय आर्योंके देवताओंको नहीं मानते थे, इसलिए इन्हें हीन वतलाया गया है। महाभारतमें असुरोंका वर्णन एक सुसंस्कृत दानव जातिके रूपमें पाया जाता है, जो मकान बनानेमें चतुर थे, किन्तु जो देवताओंके भी भयानक शत्रु थे। इतिहासज्ञोंका मत है कि पंजावकी भूमिको हस्तगत कर लेनेपर भारतीय आर्योंका संघर्ष एक अधिक सुसभ्य जनताके साथ हुआ था ( प्री• हि० ई०, पृ० १९)। इन्द्र के विषयमें कहा गया है कि उसने सम्वरके सौ प्रासादोंको नष्ट किया था। तथा एक अन्य अनार्य राजा पित्रके नगरोंको उजाड़ा था और शुश्नको लूटा था। सतलज और यमुनाके बीचके उपजाऊ प्रदेशमें आर्योंकी मुठभेट जिन सुसभ्य लोगोंसे हुई उनके महल थे, नगर थे और बे बड़े धनी थे। ये सब द्रविड़ थे और आर्योंसे निश्चित ही अधिक सुसंस्कृत थे। धीरे-धीरे वे सब जीत लिये गये और आर्यों में मिल गये। इनमेंसे कुछ मनुष्योंका ठीक पता नहीं चलता, उन्हें आर्यों में नाग कहते हैं। शतपथ ब्राह्मणमें असुरोंके प्रमुख वृत्रको नाग कहा है। किन्तु महाभारतमें उसे दैत्यराज बतलाया है। जब आर्य पंजावसे गंगाकी ओर बढ़े तो उन्हें चारों ओरसे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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