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________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण असुरोंने घेर लिया था। पाण्डव-कौरव युद्धके समय इन असुरोंके हाथमें मगध और अाजका राजपूताना था। ये असुर स्थापत्यकलामें अत्यन्त चतुर थे। और आर्य लोग उनकी इस कलाका आदर करते थे। वैदिक साहित्यमें असुरोंके नगरोंको पाताल, हिरण्यपुर, तक्षशिला आदि नामोंसे कहा गया है। पूर्वीय देशोंमें असुरराज जरासन्धकी राजधानी गिरिवज्रकी प्रशंसा भीमने की थी। महाभारतमें लिखा है कि युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञके लिए मण्डप मयदानवने बनाया था (प्री० हि • इं० पृ० २० )। एतरेय ब्राह्मणमें ऋषि विश्वामित्रके सम्बन्धमे एक कथा आती है। उसने अपने पुत्रोंको आर्य देशकी सीमाओंपर वसनेका शाप दिया था। उनकी सन्तानने दस्युओंके बड़े-बड़े गिरोह बनाये और वे आन्न, पुण्ड्र, पुलिन्द, शबर और मूतिव कहलाये । महाभारत, रामायण और पुराणोंमें आन्ध्रों, पुलिन्दों और शबरोंको दक्षिण भारतकी जातियाँ बतलाया है। इनमेंसे प्रथम कलिंगमें और शेष दो विन्ध्य श्रेणीके दक्षिणमें वसते थे। पुण्ड्र लोग बंगालके उत्तर भागमें रहते थे। उन्होंने अपनी राजधानीका नाम पुड्रवर्धनपुर रखा था। . .. ऋग्वेदमें द्यावा-पृथ्वी, वरुण, विश्वकर्मा, अदिति, त्वष्टा, उषस , अश्वी, इन्द्र, ब्रह्मणस्पति, मरुत् , रुद्र, पर्जन्य, अग्नि, सोम, यम, और पितर देवोंका स्तवन किय गया है। भौतिक जीवनकी भौतिक आवश्यकतायें पूर्ण करनेवाले साधन प्राप्त करने के लिए ही मुख्यरूपसे इन देवताओंकी आराधना की जाती थी। वैदिक मंत्रोंकी प्रार्थनाओंमें ऐहिक भौतिक आकांक्षाओंका ही घोष सुन पड़ता है। उनमें अन्न, पशु, धन, शरीरेन्द्रिय सामर्थ्य, भार्या, दास, वीर पुत्र, शत्रुनाश, रोगनिवारण आदिकी माँग मुख्य है । किन्तु उत्तरकालीन भारतीय साहित्यमें बहुतायतसे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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