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________________ ६३६ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका तदनुसार 'शीलांकाचार्यने भी महापरिण्णाको सातवां ही बतलाया है। प्रथम अध्ययन सत्थपरिण्णा या शस्त्रपरिज्ञामें जीवका अस्तित्व बतलाकर उनकी हिंसा आदि न करनेका अर्थात् जीव संयमका विधान है। दूसरे लोक विजय अध्ययनमें बतलाया है कि लोक आठ कर्मोसे कैसे बँधता है और कैसे बन्धनसे छूटना चाहिये। तीसरे शीतोष्णीय अध्ययनमें बतलाया है कि अनुकूल प्रतिकूल शीतोष्ण परीषहको सहना चाहिये। चौथे सम्यक्त्वमें बतलाया है कि सन्मार्गमें दृढ़तापूर्वक प्रवृत्ति करनी चाहिये। पाँचवे लोकसारमें बतलाया है कि असारको छोड़कर सारभूत रत्नत्रयको ग्रहण करना चाहिये। छठे धूतमें बतलाया है कि मुनिको निःसङ्ग रहना चाहिये। सातवेंमें बतलाया है कि मोहसे उत्पन्न परीषह और उपसर्गोको भलेप्रकारसे सहना चाहिये। आठवें विमोक्षमें अन्तक्रियाका कथन है। नौवें उपधानमें बतलाया है कि ऊपरके आठ अध्ययनोंमें जिन बातोंका कथन किया गया है उसका पालन महावीर प्रभुने किया था। डा० जेकोबी, विंटरनीटस आदि का मत है कि प्रथम श्रुतस्कन्ध दूसरेसे प्राचीन है। तथापि पहलेमें विरुद्ध जातीय तात्त्वोंको एकत्र बैठानेका प्रयत्न किया गया है। सूत्र गद्य रूप भी १–'अधुना सप्तमाध्ययनस्य महापरिज्ञाख्यस्यावसरः तच्च व्यवच्छिनम्'-अाचा० नि०, पृ० २३५ पू० । २—जिअसंजमो अलोगो जह बन्झइ जह य तं पजहियव्वं । सुह दुक्खतितिक्खावि य सम्मत्तं लोगसारो य ॥३०॥ निस्संगया य छठे मोहसमुत्था परीसहुवसग्गा । निजाणं अट्ठमए नवमे य जिणेण एवं ति ॥३४॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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