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________________ ११५ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण ब्रात्योंकी ओर सबसे प्रथम जिस विदेशी विद्वान्का ध्यान आकृष्ट हुआ वह थे श्री बेवर । बेवरका मत था कि व्रात्य बौद्ध धर्म जैसे किसी अब्राह्मण धर्मके अनुयायी थे। किन्तु वैदिक साहित्य और बौद्ध धर्मके उद्गम कालके बीचमें सुदीर्घ कालका अन्तराल होनेसे ब्रात्योंका सम्बन्ध बौद्धधर्मके साथ नहीं माना जा सकता था। तथा उस समय तक जैनधर्मके स्वतंत्र अस्तित्वमें ही कतिपय विद्वानोंको सन्देह था जिनमें स्वयं बेवर भी थे। अतः बेवरकी उक्त मान्यताको प्रश्रय नहीं मिला। किन्तु आज जैनधर्मका न केवल स्वतंत्र अस्तित्व ही प्रमाणित हो चुका है किन्तु बौद्धधर्मसे प्राचीन भी मान लिया गया है और इस तरह भारतके ऐतिहासिक कालके प्रारम्भ तक उसका अस्तित्व जाता है । तथा मोहेंजोदड़ोंसे प्राप्त सीलोंपर अंकित कायोत्सर्गमें स्थित नग्न आकृति यदि ऋषभ देवकी प्रमाणित होती हैं तब तो जैनधर्मकी प्राचीनता सिन्धु सभ्यता तक चली जाती है। उक्त स्थितिमें बेवरका मत ही सत्यके अधिक निकट प्रतीत होता है क्योंकि बौद्धधर्म जैसा अब्राह्मण धर्म जैनधर्म ही हो सकता है। और अथर्व का. १५ के प्रथम सूक्तके भाष्यमें सायणके द्वारा ब्रात्यके लिये प्रयुक्त 'कर्मपरै ब्राह्मणैर्विद्विष्टं'-कर्मकाण्डी ब्राह्मण जिससे द्वेष करते हैं, विशेषण भी जैनधर्मके पुरस्कर्ता और अनुयायी के लिये सुसंगत बैठता है । अस्तु, 'ब्रात्य' शब्द ब्रत या ब्रातसे बना है। जैन धर्ममें व्रतोंका जो महत्व है वह आज भी किसी ब्राह्मणेतर धर्ममें नहीं है। तथा ब्रात्यका अथ घुमक्कड़ होता है। अर्थात् जो एक जगह स्थिर होकर न रहता हो। 'वन्जि' शब्द भी ब्रज या 'वर्ज' धातुसे बना प्रतीत होता है। ब्रजका अर्थ चलना है और 'वर्ज' का अर्थ है Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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