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________________ ५१६ जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका त्यागना । अतः ब्रात और ब्रज का अर्थ समान है तथा व्रत और वर्जका अर्थ समान है। ब्रतका मतलब ही त्याग है जो वर्जका भी मतलब है। तथा ब्रातका मतलब है घुमक्कड़ और ब्रजका चलना । ब्रजसे ही 'परिव्राजक' शब्द बना, जो साधुके अर्थमें व्यवहृत हुआ। डा० हावरने लिखा है- 'अथर्व का० १५, सूक्त १०-१३ में लौकिक व्रात्यको अतिथिके रूपमें देशमें घूमते हुए तथा राजन्यों और जन साधारणके घरोंमें जाते हुए दिखलाया गया है। 'तुलनासे यह सिद्ध किया जा सकता है कि अतिथि घूमने फिरनेवाला साधु ही है जो पूर्वकालमें पुरोहित या जादूगर होता और बादमें सिद्ध, जो अपने साथ अलौकिक वातोंका गुप्त ज्ञान लाता और अपना स्वागत करनेवालोंको आसीस देता। ऋग्वेद और अन्य धर्मोंसे तुलना करनेपर मालूम पड़ता है कि यह आर्यावर्त और यूरोप ( ? ) की उभयनिष्ठ संस्था थी; और प्राचीन भारतमें व्रात्य लोग उसके ब्राह्मणेतर प्रतिनिधि थे। वह जहाँ जाता उसकी आवभगत बड़ी श्रद्धा भक्तिसे होती। और व्रात्य देवताकी तरह, जिसका कि वह प्रतिनिधि है ( १३-८-६ ) उसका स्वागत किया जाता । इस आतिथ्यका वड़ा माहात्म्य है । यदि वह किसी घरमें एक रात ठहरे तो गृही पृथ्वीके सब पुण्य लोकोंको पा जाता है। दूसरे दिन ठहरे तो अन्तरीक्षके, तीसरे दिन धु के, चौथे दिन पुण्यके पुण्य लोकोंको तथा पाँचवें दिन अपरिमित पुण्य लोकोंको ।...."१२ वें सूक्तके प्रारम्भमें पता चलता है कि अतिथि अब घूमते धर्मगुरु और जादूगरके रूपमें पहले व्रात्यों १. भा० अनु०, पृ० १९ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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