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________________ ४५० जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका किया हो, यह संभव है। किन्तु जब पाश्व नाथको ऐतिहासिक व्यक्ति तथा जैन धर्मका, जो कि प्राचीनतम साधु धर्मों में से माना जाता है, संस्थापक माना जाता हो, जो निश्चय ही उक्त सूत्रोंसे पूर्व हुए थे ; तब यह कैसे कहा जा सकता है कि जैनोंने अपने नियमांमें उक्त नियमोंका ही अनुकरण किया है।। हम पहले लिख आये हैं कि वैदिक धर्ममें चार आश्रमकी व्यवस्था बहुत बादमें आई है और चौथे संन्यास आश्रमके प्रति उसकी उतनी आस्था नहीं रही है। तथा श्रमणोंकी परम्परा बहुत प्राचीन है और श्राश्रम शब्द भी उसी धातुसे निष्पन्न हुआ है, जिससे श्रमण । अतः आश्रमोंका सम्बन्ध श्रमणोंके साथ ही जान पड़ता है। और इस तरह उक्त नियम श्रमण परम्पराके साधारण नियम हो सकते हैं। किन्तु हमें तो यहाँ यह बतलाना है कि केशलोंच, नग्नता और हस्त भोजन तथा भोजन सम्बन्धी अन्य कड़े आचार उक्त नियमोंमें नहीं हैं, जिन्हें बुद्धने एक समय पालन किया था। ऐसी स्थितिमें यह सम्भावना नहीं की जा सकती कि महावीरने कठोर नियम गोशालकसे लिये। प्रत्युत गोशालक और महावीरका जिस प्रकारका सम्बन्ध बतलाया गया है उससे यही प्रमाणित होता है कि गोशालकने अपने आजीविक सम्प्रदायकी स्थापना महावीरके निग्रन्थ सम्प्रदायके आधार पर की। ___ डा० याकोवीने एक उपपत्ति यह दी है कि सच्चकने निर्ग्रन्थ पुत्र होते हुए भी अचेलक आजीविकोंकी काम भावनाका तो निर्देश किया किन्तु निम्रन्थोंकी काम भावनाका निर्देश नहीं किया जब कि जैन साधुओंको कतिपय क्रियाएँ अचेलक आजीविकोंके तुल्य हैं। इस परसे उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला है कि सच्चक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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