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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका एक बार भगवान महावीर विहार करते हुए श्रावस्ती पधारे। गौतम गणधरने उनसे यह बात कही। तब भगवानने गौतमसे गोशालकका उक्त चरित वर्णन किया । गोशालकके कानमें भी यह बात पहुँची। वह आजीविक संघके साथ महावीर स्वामीके पास
आया और बोला-'आप ठीक कहते हैं कि मंखलिपुत्त गोशालक मेरा शिष्य है। किन्तु तुम्हारा वह शिष्य मरकर देवलोकमें उत्पन्न हुआ है और मैं गौतमपुत्र अर्जुनके शरीरको त्यागकर मंखलिपुत्त गोशालकके शरीरमें आ गया हूँ। यह मेरा सातवाँ शरीर प्रवेश है'।
भगवान महावीरने इसका प्रतिवाद किया और उसपरसे गोशालक रुष्ट हो उठा। बोला-मेरी तेजोलेश्याके प्रभावसे पित्तज्वरसे आक्रान्त होकर तुम छै मासमें ही मर जाओगे।
तब महावीर बोले-अभी मैं १६ वर्ष तक और बिहार करूँगा। किन्तु गोशालक ! तुम अपनी ही तेजोलेश्याके प्रभावसे ७ दिनके पश्चात् ही मर जाओगे।
गोशालकने भगवान पर तेजोलेश्याका प्रयोग किया। किन्तु वह तेजोलेश्या उनका कुछ भी बिगाड़ न कर सकनेके कारण गोशालकके लिये ही काल साबित हुई।
संक्षेपमें यह गोशालकका जीवन वृत्तान्त है। इसके अनुसार गोशालक भिक्षावृत्तिसे आजीविका करनेवाले एक मंखलि नामके भिक्षुका पुत्र था। युवावस्थामें अकेला ही भिक्षावृत्ति करता हुआ महावीरके पास आया। उस समय महावीर दूसरा वर्षावास कर रहे थे। और इसलिए उन्हें प्रव्रजित हुए पौने दो वर्ष हुए थे।
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