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________________ प्राचीन स्थितिका अन्वेषण १९९ होनेके कारण अग्निका भक्षक होना स्वाभाविक था किन्तु उस समय पृथ्वीपर कुछ भी नहीं था। अतः प्रजापतिको चिन्ता हुई। तब उसने अपनी वाणीकी आहुति देकर अपनी रक्षा की। जब वह मरा तो अग्निपर रक्खा गया अग्निने केवल उसके शरीरको ही जलाया अतः प्रत्येक व्यक्तिको अग्निहोत्र अवश्य करना चाहिये।' इसी तरह तपसे विश्वकी उत्पत्ति बतलाई है। उक्त कथामें अग्निहोत्रके असम्बद्ध विवरणके साथ आध्यात्मिक विचारोंकी खिचड़ी पकाई गई है। कतिपय ब्राह्मण ग्रन्थों में कुछ स्थलोंमें पुनर्जन्मका निर्देश मिलता है, जो इस बातका सूचक है कि ब्राह्मणकालमें वैदिक आर्य पुनर्जन्मके सिद्धान्तसे परिचित हो चले थे। किन्तु वे अपने वंश परम्परागत अग्निहोत्रको कैसे छोड़ सकते थे अतः उसका उपयोग भो उन्होंने अग्नि होत्रके प्रचारके लिए ही किया। यदि नया जीवन प्राप्त करना चाहते हो तो अग्नि होत्र करो। पहले लिख आये हैं कि वैदिक आर्य यज्ञोंके बड़े प्रेमी थे। उनका सारा जीवन ही यज्ञमय था। और उनके यज्ञका उद्देश्य सांसारिक सुखोंकी प्राप्ति एवं वृद्धि था। वेदोंमें यज्ञका प्रतिपादन था। उनकी यही शिक्षा थी कि अगर हर तरह से सुखी और सम्पन्न रहना चाहते हो तो देवताओंको प्रसन्न करनेके लिये यज्ञ करो। वेदोंके मंत्रयुगके बाद ब्राह्मणोंका युग आया। यज्ञोंकी विधियोंका निर्धारण करना ब्राह्मण ग्रन्थोंका काम था। यद्यपि ब्राह्मणकालमें पुरोहितोंकी शक्ति खूब बढ़ी किन्तु वैदिकधर्मको अवनति भी ब्राह्मण कालसे ही आरम्भ हुई। यद्यपि ब्राह्मणोंमें मरणोत्तर जीवनका निर्देश मिलता है किन्तु पुनर्जन्म और कर्म Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003837
Book TitleJain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages778
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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