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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका फलवादका प्रत्यक्ष विबरण नहीं मिलता। यह विवरण हमें उपनिषदोंमें मिलता है।
वृहदा०उप०से याज्ञवल्क्य और जरत्कारव आर्तभागके सम्बादका विवरण पीछे दिया जा चुका है। आर्तभाग याज्ञवल्क्यसे कहता है-'याज्ञवल्क्य ! जब इस मृत पुरुषकी वाणी अग्निमें लीन हो जाती है, प्राण वायुमें, चक्षु श्रादित्यमें, मन चन्द्रमामें, श्रोत्र दिशामें, शरीर पृथ्वीमें, हृदयाकाश, भूताकाशमें रोम औषधियोंमें, और केश वनस्पतियोंमें, तथा रक्त और वीर्य जलमें स्थापित हो जाते हैं तब यह पुरुष कहाँ रहता है ?' याज्ञवल्क्य तुरत ही आर्तभागका हाथ पकड़कर यह कहते हुए एकान्तमें चले जाते हैं कि यह प्रश्न जन समुदायमें करनेके योग्य नहीं है। एकान्तमें वे इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि कर्म ही सब कुछ है। पुण्यकर्मसे पुरुष पुण्यवान होता है और पाप कर्मसे पापी होता है।'
उस युगमें आत्मा और ब्रह्मकी जिज्ञासा पुरोहित वर्गमें कितनी बलवती थी यह पीछे उपनिषदोंके कुछ उपाख्यानोंके द्वारा बतलाया गया है। इसी युगके आरम्भमें काशीमें पार्श्वनाथने जन्म लेकर भोगका मार्ग छोड़ योगका मार्ग अपनाया था। उस समय वैदिक आर्य भी तपके महत्त्वको मानने लगे थे। किन्तु अपने प्रधान कर्म अग्निहोत्रको छोड़नेमें वे असमर्थ थे। अतः उन्होंने तप और अग्निको संयुक्त करके पश्चाग्नि तपको अंगीकार कर लिया था। ऐसे तापसियोंसे ही पार्श्वनाथकी भेंट गंगाके तटपर हुई थी।
पार्श्वनाथका चातुर्याम पार्श्वनाथ श्रमण परम्पराके अनुयायी थे। वैदिक साहित्यमें सर्वप्रथम हम वृहदारण्यक उप० में इन श्रमणोंका निर्देश पाते हैं।
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