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जै० सा० इ०.पूर्व पीठिका किन्तु उनका पूर्ण ब्राह्मणीकरण नहीं हुआ था ( शत० ब्रा०१,४-११०)। और यह भी लिख आये हैं कि डा० भण्डारकरके मतानुसार दक्षिणी विहार और बंगालमें ब्राह्मणधर्मका प्रसार ईस्वी सन् की तीसरी शतीके मध्य तक हो सका था और इस तरह पूर्वीय भारतमें अपनी संस्कृतिको फैलानेमें वैदिक आर्योंको एक हजार वर्ष लगे थे। इसका यह मतलब हुआ कि ईस्वी पूर्व ७५० से ईस्वी २५० तकके कालमें ब्राह्मण धर्मका प्रसार पूर्वीय भारतमें हो सका। और इसीके प्रारम्भके लगभग शतपथ ब्राह्मणकी रचना हुई थी। वृहदारण्यक उपनिषद् शतपथ ब्राह्मणका अन्तिम भाग माना जाता है । इसीसे आधुनिक विद्वान् उसका रचनाकाल
आठवीं-शताब्दी ईस्वी पूर्व मानते हैं। इसी उपनिषद्से गार्गी याज्ञवल्क्यके संवादका एक उद्धरण भी पहले दिया है जिसमें काशी और विदेहका निर्देश है। अतः शतपथ ब्राह्मण तथा वृहदा० उ० अवश्य ही पार्श्वनाथके समयसे पूर्वके नहीं हैं। इन्हीं में हम प्रथम बार तापसों और श्रमणोंसे मिलते हैं। (वृ० उ०, ४-३-२२)। किन्तु उनका नाममात्र ही मिलता है। याज्ञवल्क्य जनकसे आत्माका स्वरूप बतलाते हुए कहते हैं कि इस सुषुप्तावस्थामें श्रमण अश्रमण और तापस अतापस हो जाते हैं।
तपका महत्व भी हम ब्राह्मणकालमें ही पाते हैं। शतपथ ब्राह्मणमें तपसे विश्वकी उत्पत्ति बतलाई है। प्रतिदिन अग्नि होत्र करना एक प्रधान कर्म था। इसकी उत्पत्तिकी कथा इस प्रकार बतलाई है-प्रारम्भमें प्रजापति एकाकी था। उसकी अनेक होनेकी इच्छा हुई। उसने तपस्या की। उसके मुखसे अग्नि उत्पन्न हुई। चूकि सब देवताओं में अग्नि प्रथम उत्पन्न हुई इसीसे उसे अग्नि कहते हैं उसका यथार्थनाम 'अग्नि' है। मुखसे उत्पन्न
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