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संघ भेद
४५७ है कि आजीविक शब्दका प्रयोग भारतीय साहित्यमें इन तीनके लिये किया गया है
(१) विस्तृत अर्थमें परिव्राजकोंके लिए (२) संकुचित अर्थमें पूरणकस्सप, मक्खलि गोशाल आदि पांच तीर्थकोके धार्मिक सम्प्रदायोंके लिए। और (३) अत्यन्त संकुचित अर्थमें मक्खलि या मक्खलि पुत्र गोशालके शिष्यों और अनुयायिओंके लिये। तथा भ रतीय साहित्यमें जिन विभिन्नरूपोंमें आजीवकोंका उल्लेख पाया जाता है उन्हें चार श्रेणियोंमें रखा जा सकता है-(१) अचेलक साधु, जो अचेल, अचेलक खपणइ, क्षपणक, नग्न, नग्नपव्वजित नम्नक, नग्नक्षपणक कहे जाते थे। (२) एक परिव्राजकोंका समुदाय जो अपने साथ एक वांसकी लकड़ी या एक लकड़ी रखता था । और मस्करी, एदण्डी, एकदण्डी, लट्ठीहत्थ, और वेणु परिव्राजक कहा जाता था। (३) सिरमुंडे वैरागी, जो घर २ भिक्षा मांगते हैं
और जिन्हें मुण्डियमुण्ड या 'घर मुडनिय समण' कहा है । ( ४ ) सन्यासियोंकी एक श्रेणी, जिनके जीवनका व्यवसाय भिक्षावृत्ति था जो नग्नताको अपनी स्वच्छता और त्यागका एक बाह्य चिन्ह बनाये हुए थे, किन्तु अन्तरंगमें एक गृहस्थसे अच्छे नहीं थे। उन्हें आजीव, आजीवक, आजीविय, आजीविक और जीवसिद्धो क्षपणक कहा है।
कहना न होगा कि ऊपर का नम्बर तीन और नीचेका चार परस्परमें सम्बद्ध हैं। अर्थात् गोशालकके अनुयायी या शिष्य, जो
आजीविक कहे जाते थे, यद्यपि संन्यासी थे, किन्तु जीविकाके खोजी मात्र थे। और संन्यासके आवरणमें एक गृहस्थसे अच्छे नहीं थे जैसा कि आगे स्पष्ट किया जायेगा। ऐसे गोशालककी संगतिसे महावीर
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