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जै० सा० इ० - पूर्व पीठिका
आपसे यह प्रकट होता है कि महावीरने बुद्धकी तरह थों का एक संघ स्थापित कर लिया था । महावीरके अनुयायी छोटे या बड़े समुदायोंमें विभिन्न स्थानों में फैले हुए थे, जो एक संघ एक नियम और एक नेताके अधीन थे। इसके विपरीत गोशालक के अनुयायी संख्या में थोड़े थे और उसीके साथ रहते थे । अन्य भी आजीविक संघ थे किन्तु वे नन्दवत्स्य और कृश सांकृत्य के अधीन थे। निन्थों और बौद्धोंकी तरह आजीविकोंका एक संघ नहीं था । अपने अत्यधिक सफल प्रतिद्वन्दीके विरुद्ध गोशालक का उक्त दोषारोपण उसकी अपनी अयोग्यताको ही बतलाता है ।' - ( इं० इ०रि० )
ऐसी स्थिति में मैं नहीं समझता कि महावीरको गोशालकको प्रसन्न करनेकी क्या आवश्यकता थी ? गोशालककी स्थिति तो ऐसी जान पड़ती है कि जिसके साथ स्नेह होजानेसे आदर मिलने की संभावना नहीं, और विद्वेष होजानेसे भयकी सम्भावना नहीं ।
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डा० याकोबीकी अपेक्षा डा० हार्नलेका मत ही इस विषय में अधिक साधार प्रतीत होता है। वे लिखते हैं- 'महावीर से मिलनेमें गोशालकका क्या उद्देश्य था यह निश्चय कर सकना कठिन है । यह हो सकता है कि उस धार्मिक उत्साही महावीरकी संगतिसे गोशालक स्वभावमें अपेक्षाकृत उत्तम सहज ज्ञान अस्थायी रूपसे जाग्रत हुआ हो । अथवा यह हो सकता है कि, जैसाकि जैन विवरण बतलाता है, गोशालकने महावीर से अपने व्यवसाय के लिये उपयोगी शक्तिशाली उपायोंको सीखनेकी आशा की हो ।
डा० बरुने' 'आजीविक' सम्बन्धी अपने निबन्धमें बतलाया
१ - मां० इं० पत्रिका, जि०८, पृ० १८३ ।
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