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जै० सा० इ० - पूर्व पीठिका
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और उसके सम्प्रदायको लाभ पहुँचनेकी कोई संभावना नहीं की जा सकती। और इसलिये गोशालक महावीरको आदर पूर्वक भिक्षा मिलते देखकर उनके साथ रहनेके लिये उत्सुक हुआ हो, यही संभव प्रतीत होता है । अब प्रश्न रहा, महावीर से गोशालक पृथक क्यों हुआ डा० याकोवीका कहना है कि सम्मिलित संघका प्रमुख कौन बने इसको लेकर इन दोनों में झगड़ा हुआ जान पड़ता है । भगवती सूत्र तो उनके भेदका कारण सैद्धान्तिक मतभेदका होना बतलाता है । तिलके पौदेवाली घटना के बादसे उनमें वैमनस्य पैदा हुआ किन्तु पृथक होनेके पश्चात् गोशालकने श्रावस्ती में एक कुम्हारी के घरमें रहकर अपना पृथक संघ बनाया और अपनेको चौबीसवां तोर्थङ्कर कहना शुरू किया । इससे यह भी स्पष्ट है कि उसके मन में तीर्थङ्कर बनने की अभिलाषा थी । और महावीर से पृथक होकर वह उनसे पहले तीर्थङ्कर बन गया, क्योंकि भ० सू० के अनुसार जब महावीरको जिन दीक्षा लिये पूरे दो वर्ष भी नहीं हुए थे, तभी गोशालक उनके पीछे लग गया और छै वर्ष तक साथ रहा। महावीर स्वामीने लगभग तीस वर्षकी अवस्था में जिन दीक्षा ली, और बारह वर्ष के तपश्चरणके पश्चात् उन्हें केवल ज्ञानकी प्राप्ति के साथ ही साथ तीर्थङ्कर पद प्राप्त हुआ । इस तरह उन्हें ४२ वर्षकी अवस्थामें तीर्थङ्कर पद प्राप्त हुआ । और जब वह ३८ के थे, तभी गौशालकने उनसे सम्बन्ध विच्छेद कर लिया और अपना संघ कायम कर दिया। इस घटना के पश्चात् श्रावस्ती में ही उनकी भेंट हुई। उस समय महावीरको तीर्थङ्कर हुए चौदह वर्ष बीते थे । और गोशालकके आजीविक संघको स्थापित हुए १६ वर्ष हो चुके थे ।
किन्तु तीर्थङ्कर पदको लेकर कलह सम्बन्धविच्छेदका मूल
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