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जै० सा० इ०-पूर्व-पीठिका करना चाहें तो भी हमें एक सत्यके रूपमें यह स्वीकार करना होगा कि सम्भवतया देवर्द्धिगणिने उन्हें जिस रूपमें संकलित किया था, वर्तमानरूप वह नहीं हो सकता। मूल सिद्धान्त ग्रन्थोंसे वर्तमान सिद्धान्त ग्रन्थोंमें अन्य भी भेद मौजूद है। सिद्धान्त ग्रन्थों में से न केवल वाक्यों और विभागोंको ही नष्ट किया गया..... 'जो कि प्राचीन टीकाओंके समयमें वर्तमान थे, बल्कि बड़ी संख्यामें क्षेपकोंको भी सम्मिलित किया गया, जो स्पष्ट प्रतीत होते हैं। क्या, समस्त सम्भावनाओंके अनुसार मूल सिद्धान्त ग्रन्थोंमें पूरी तरहसे परिवर्तन किया गया है। मेरा अनुमान है कि इस परिवर्तनके कारणोंको श्वेताम्बर सम्प्रदायकी कट्टरताके प्रभावमें देखा जा सकता है, जो विभिन्न अवान्तर सम्प्रदायोंके अनुयायिओंके प्रति दिन पर दिन अधिक कठोर होती गई। मौजूदा आगम केवल श्वेताम्बरोंके हैं। दृष्टिवादका एकदम नष्ट हो जाना, निस्सन्देह मुख्य रूपसे इस तथ्यसे सम्बद्ध है कि इसमें संघभेदमूलक सिद्धान्तों का सीधा उल्लेख था। यह घटना अन्य अंगोंमें किये गये परिवर्तन, परिवर्द्धन और लोपके लिए ब्याख्या रूप हो सकती है। अन्य तोर्थिको और निन्हवोंके विरुद्ध वादियोंकी कठोरता इतनी तीक्ष्ण और काट करने वाली है कि उसपरसे हम ऐसे निष्कर्ष निकालनेमें समर्थ हैं जो जैन साहित्यके इतिहासके लिए महत्वपूर्ण है।' ( इण्डि० एण्टि०, जि०१७, पृ० २८६)
डा० वेबरके मतानुसार सूक्ष्म निरीक्षणसे यह प्रकट होता है कि आगमोंकी रचना व्यक्तिके कल्याणकी भावनाकी अपेक्षा साम्प्रदायिक कल्याणकी भावनाको लिए हुए हैं। इसके उदाहरणके रूपमें उन्होंने 'नग्नता'को लिया है। उन्होंने लिखा है-'ब्राह्मणोंने
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